Thursday, July 30, 2015

किस-किस का अपमान!

एक जमाना था जब नेता, मंत्री और अफसर बहुत सोच-समझकर बोला करते थे। मंत्री तो सभ्यता और शालीनता की प्रतिमूर्ति हुआ करते थे। इक्कीसवीं सदी में बहुत कुछ बदल गया है। पढे-लिखे राजनेता और नौकरशाह भी ऊल-जलूल वाणी बोलकर अपने पद की गरिमा और अहमियत को सूली पर चढाने में देरी नहीं लगाते। उनकी बदजुबानी और बेवकूफियों पर सजग देशवासी माथा पीटते रह जाते हैं। ऐसा भी लगता है कि कुछ प्रतिष्ठित और ताकतवर नौटंकीबाजों के लिए देश एक रंगमंच बन चुका है। बिना थके बकवासबाजी और उछलकूद करते ही रहते हैं। कभी किसी राजनेता के मन में बलात्कारियों के प्रति प्रेम उमडने लगता है तो कोई राष्ट्रद्रोही के पक्ष में भी छाती तानकर खडा हो जाता है। कौन सम्मान का हकदार है और किसे लताडना चाहिए इसकी समझ को भी दरकिनार कर दिया गया है। अपने देश में किसानों की जितनी आत्महत्याएं होती हैं, शायद ही किसी और देश में होती हों। देश के केंद्रीय कृषि मंत्री राधामोहन सिंह ने किसानों की आत्महत्याओं के नये कारणों की खोज की है। वे फरमाते हैं कि किसान घरेलू समस्याओं, नपुंसकता, बांझपन, इश्कबाजी और नशाखोरी के चक्कर में फंसकर इतने निराश और हताश हो जाते हैं कि अन्तत: उन्हें खुदकुशी करने को मजबूर होना पडता है। मंत्री महोदय की सोच, समझ और चिंतन प्रक्रिया तो यही दर्शाती है कि वे हद दर्जे के बेवकूफ, जाहिल और गंवार इंसान हैं। उन्हें देश के अन्नदाता के बारे में कुछ भी पता नहीं है। ऐसे में सवाल यह भी है कि जिस शख्स को अपने देश के मेहनतकश किसानों की मूल समस्याओं का ज्ञान नहीं, उसे कृषि मंत्री क्यों बना दिया गया? जवाब बडा सीधा-सादा है। हिंदुस्तान में कुछ भी संभव है। मंत्री बनने के लिए विद्धता और समझदारी की कोई जरूरत नहीं है।
उत्तर प्रदेश के बाराबंकी में साहूकार की चालबाजी और शैतानी से तंग आकर आशाराम नामक किसान ने डीएम के आवास के समक्ष फांसी लगाकर इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए विदायी ले ली। सत्ता की चौखट पर अपने प्राण त्यागने वाले किसान का इरादा प्रशासन को जगाना और यह बताना था कि मैं अपने प्राण त्याग कर यह संदेश छोडे जा रहा हूं कि सभी देशवासियों का पेट भरने वाले किसान की अनदेखी मत करो। उसकी तकलीफों को जानो और समझो, लेकिन बाराबंकी के अंधे, बहरे और निर्लज्ज डीएम ने फौरन यह बयान दाग दिया कि 'किसान आशाराम तो शराबी था। कोई काम-धाम करता ही नहीं था। ऐसे में उसने वही किया जो उसके जैसे दूसरे शराबी करते हैं।' यानी इस देश में आत्महत्या करने वाला हर किसान किसी न किसी ऐब से ग्रस्त होता है। हर किसान की समस्या का अंतिम इलाज फांसी यानी मौत ही है। मगराये कृषि मंत्री और डीएम पता नहीं इस हकीकत को क्यों भूल गये कि इस देश के रईस शराब में डुबकियां लगाते हैं। अवैध रिश्ते बनाने के भी कीर्तिमान बनाते रहते हैं। उनके यहां भी पारिवारिक युद्ध होते रहते हैं। उन्हें भी प्रेम संबंधों के टूटने की पीडा से रूबरू होना पडता है, लेकिन वे तो ऐसे आत्महत्या नहीं करते जैसे किसान करते चले आ रहे हैं। मंत्रीजी, किसानों के फंदे पर झूलने और जहर खाकर मौत को गले लगाने की असली वजह गरीबी है। वो आर्थिक तंगी है, जिसे आप लोग दूर करने का प्रयास ही नहीं करते। आप लोगों का दिमाग भी तो ऊल-जलूल सोच में उलझा रहता है। किसानों को कैसे नये-नये तरीकों से फायदे की खेती के लिए प्रेरित किया जा सकता है इसकी तरफ ध्यान देने का समय नहीं है आप जैसों के पास।
अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें सभी पुलिसिये 'ठुल्ले' नजर आते हैं। जब से वे दिल्ली के मुख्यमंत्री बने हैं, तभी से उनकी दिल्ली की पुलिस से ठनी हुई है। यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं है कि हर विभाग की तरह पुलिस विभाग में भी कुछ वर्दीधारी अपने कर्तव्य को सही ढंग से नहीं निभाते। रिश्वतखोरी और बेईमानी के कर्मकांडों में इस कदर लिप्त रहते हैं कि अपराधियों और उनमें कोई फर्क नहीं रह जाता, लेकिन पुलिस विभाग में ऐसे भी अधिकारी और कर्मचारी भरे पडे हैं जो अपना फर्ज निभाने में कहीं कोई कोताही नहीं बरतते। उन्हीं के कारण ही अराजक तत्वों के हौसले पस्त रहते हैं और कानून व्यवस्था के साथ अमन-चैन बना रहता है। आम नागरिक खुद को सुरक्षित नहीं महसूस करता। गौरतलब है कि 'ठुल्ला' ऐसे शख्स को कहा जाता है जो दिए गए काम को करने में नाकाम रहता है। यकीनन नाकामी की कई वजहें होती हैं। ठुल्ला और नाकारा एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। मुख्यमंत्री के इस संबोधन से ईमानदार और कर्तव्यपरायण पुलिस वालों का दु:खी होना जायज है। उनकी इस अपमानजनक टिप्पणी ने दिल्ली पुलिस के हर उस अधिकारी, कर्मचारी का मनोबल तोडा है जो अपना कर्तव्य ईमानदारी से निभाते हैं। कई कानून के जानकारों का यह भी कहना है कि किसी भी शब्दकोश में 'ठुल्ला' शब्द को अपमानजनक नहीं माना गया है। यह तो मजाकिया लहजे में बोला जाने वाला ऐसा शब्द है, जिसका इस्तेमाल आम है। पुलिस वालों के लिए इस शब्द का वर्षों से चलन है। पहले तो कभी किसी ने इस पर आपत्ति नहीं जतायी?
जब एक मुख्यमंत्री ही खाकी वर्दी वालों का उपहास उडाने में कोई संकोच नहीं करता तो आम लोगों को दोष देना बेमानी है। मुख्यमंत्री का काम पुलिस व्यवस्था में सुधार लाना है न कि सभी पुलिसवालों का मजाक उडाना। 'जैसा राजा वैसी प्रजा' की कहावत को शब्दकोश में जगह देने से पहले यकीनन कई-कई बार सोचा गया होगा। जो पुलिस कर्मी ठंड, गर्मी और बरसात की चिंता छोड परिवार से दूर चौबीस घण्टे काम करते रहते हैं उन्हें कोई भी मजाक और कटाक्ष आहत करता है। उनकी प्रतिष्ठा पर जो चोट पहुंचती है, उसका आकलन बडबोले सत्ताधीश नहीं कर सकते। हुक्मरानों के भटकाव के कारण ही देश की तस्वीर बद से बदतर होती चली जा रही है। जहां पर उनका ध्यान होना चाहिए वहां तो वे देखते ही नहीं! मध्यप्रदेश के एक स्कूल में सातवीं के बच्चों को पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ के गुणगान का पाठ पढाने की पुख्ता खबर ने हैरत में डाल दिया। क्या हमारे देश में महापुरुषों की कमी है जो पाकिस्तान के एक घटिया शासक की जीवनी से छात्रों को अवगत कराया जा रहा है? इसी अहसान फरामोश, धोखेबाज और बदजात मुशर्रफ के कार्यकाल में कारगिल युद्ध हुआ, जिसमें भारत के कई सैनिक शहीद हुए थे। मुशर्रफ ने हमेशा भारत के खिलाफ जहर उगला। आतंकी हमले करवाए। अफसोस! देश की नयी पीढी को शहीद भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपत राय जैसे देश के सच्चे सपूतों की जीवनगाथाओं से अवगत कराने की बजाए देश के दुश्मनों का महिमामंडन कर देश के शहीदों का अपमान किया जा रहा है...!

Thursday, July 23, 2015

हिम्मत तो दिखानी ही होगी

कहीं न कहीं कोई बहुत बडी गडबड तो है। अंधेरा पूरी तरह से छंटने का नाम नहीं ले रहा है। देशवासी बेहद शंकित हैं। ऐसा कब तक चलता रहेगा? २००६ में कई मासूम बच्चों की हत्या कर उनका मांस खाने वाले दो हैवान बडी मुश्किल से कानून की पकड में आये थे। नोएडा पुलिस ने धनवान, शैतान मोनिंदर सिंह पंधेर और उसके नौकर सुरेंद्र कोली को दबोचा था। कोली ने बारह बच्चों की निर्मम हत्या की बात कबूली थी। उसे फांसी की सज़ा सुना दिये जाने के बाद भी उसे जिन्दा रहने का मौका उपहार स्वरूप दे दिया गया! जब कानून मात्र दिखावा बनकर रह जाता है तो अपराधियों के हौसले बढते ही हैं। निठारी जैसे कांडों का सिलसिला चलता ही रहता है।
लगभग ९ साल बाद निठारी कांड से भी भयावह बलात्कार और हत्या कांड के सामने आने से यह मान लिया जाना चाहिए कि राक्षसी प्रवृत्ति के हैवानों के हौसले कम नहीं होने वाले। उन्हें कानून का कोई भय नहीं है। किसी भी सज़ा का खौफ उन्हें नहीं सताता। सन २०१५ के जुलाई महीने में पुलिस के शिकंजे में आया कुकर्मी रविन्द्र मासूम बच्चों को देखकर शैतान बन जाता था। वह पार्क में खेलते बच्चों या कहीं भी अकेले दिखने वाले मासूमों को चाकलेट और रुपयों का झांसा देकर सुनसान जगह पर ले जाता और फिर उनका यौन शोषण कर बडी बेदर्दी से हत्या कर चलते बनता। अकेले दिल्ली में ही उसने कई वारदातों को अंजाम दे डाला। नोएडा, बदायूं और अलीगढ आदि में भी इस दरिंदे ने कई मासूम बच्चों को अपनी हत्यारी-वासना का शिकार बनाया। पूरा आंकडा तो उसे भी याद नहीं है। फिर भी लगभग चालीस बच्चे उसकी अंधी वासना की बलि चढ गये। उसे अश्लील फिल्में, शराब तथा गांजा पीने की लत लग चुकी थी। जब नशा उफान पर होता तो वह शैतान बन जाता और बच्चों को अपनी हैवानियत का शिकार बनाता चला जाता। बाद में पकडे जाने के भय से बच्चों की निर्मम हत्या कर आराम से घर में जाकर सो जाता। कहते हैं कि अपराधी खाकी से कांपते हैं, लेकिन उसके चेहरे पर चिंता और डर की कोई शिकन नहीं देखी गयी। उसने यह कहने में भी देरी नहीं लगायी कि यदि पकड में नहीं आता तो वह ऐसे ही दो से दस वर्ष के बच्चों के साथ कुकर्म कर उनकी नृशंस हत्याएं करता चला जाता। ट्रक में हेल्पर की नौकरी करने वाला २४ वर्षीय यह दरिंदा पिछले सात वर्षों से ऐसी वारदातों को अंजाम देता चला आ रहा था। ट्रक के साथ जहां जाता था, वहीं मौका मिलते ही किसी भी मासूम बच्चे को लुभावने लालच के जाल में फांस लेता था। उसे अच्छी तरह से मालूम है कि अब उसकी सारी जिन्दगी जेल में ही बीतने वाली है, लेकिन इसका उसे कोई गम नहीं है।
हर बलात्कारी यह सोचकर संतुष्ट हो जाता है कि उसने जो चाहा था, वह पा लिया। अब जो होगा देखा जायेगा। असली पहाड जिन पर टूटता उनके दर्द और पीडा को कभी देखा और समझा नहीं जाता। वैसे भी यहां कौन किसकी फिक्र करता है। अदालतों में विराजमान कुछ न्याय के देवताओं का देवत्व भी गायब होता जा रहा है। उनकी असंवेदनशीलता बताती है कि वे भी कहीं न कहीं बला टालने की मानसिकता के शिकार होते चले जा रहे हैं।
कुछ दिनों पूर्व मद्रास उच्च न्यायालय ने एक नाबालिग से बलात्कार के मामले में हैरतअंगेज फैसला सुनाते हुए पीडिता को बलात्कार के आरोपी से शादी करने की सलाह डाली। वे यह भूल गये कि बलात्कार की शिकार महिला को बलात्कारी के साथ शादी करने की सलाह देना उसकी आत्मा को छलनी और लहुलूहान करने जैसा है। यह सुझाव बलात्कारी के हौसले को पस्त करने के बजाय उनके मनोबल को बढाने वाला है। किसी महिला की इज्जत पर डाका डालने और उसके सम्मान के साथ जीने के अधिकार को छीनने की भरपायी न तो धन-दौलत से हो सकती है और न ही शादी से। पीडिता २००८ में वी. मोहन नामक बलात्कारी की हैवानियत का शिकार हुई थी। तब वह दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। मोहन उसका पडोसी था। मोहन ने उसे किसी काम के बहाने अपने घर बुलाया। फिर बडी चालाकी से कोल्डड्रिंक में नशीली दवा मिला कर पिलायी। उसे पीते ही वह अपनी सुध-बुध खो बैठी। मोहन ने उस पर बलात्कार कर तस्वीरें भी खींच लीं। इन्हीं नग्न तस्वीरों का डर दिखाकर वह लगातार नीचकर्म करता रहा। लडकी कई बार गिडगिडायी, हाथ पांव भी जोडे पर उसे दया नहीं आयी। आखिरकार बेबस लडकी गर्भवती हो गयी। उसकी पढाई भी छूट गयी। भविष्य चौपट हो गया। लोग छींटाकशी के तेजाब की बौछारें करने लगे। जीना दुश्वार हो गया। जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला। बलात्कारी के खिलाफ अदालती लडाई लडती रही। महिला कोर्ट ने बलात्कारी मोहन पर न सिर्फ दो लाख रुपये का जुर्माना लगाया, बल्कि सात साल की सजा भी सुनायी। बलात्कारी मोहन ने इस फैसले के खिलाफ मद्रास हाईकोर्ट में जमानत के लिए अपील दायर की। हाईकोर्ट ने उसकी अंतरिम जमानत मंजूर करते हुए पीडिता के साथ शादी कर घर बसाने का हैरतअंगेज सुझाव देकर हर सजग देसवासी को हैरान-परेशान कर दिया। लडकी इस फैसले को सुनकर स्तब्ध रह गयी। उसने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि बलात्कार के मामले में शादी के नाम पर किसी भी तरह का समझौता पीडिता और बलात्कारी में नहीं हो सकता। इस तरह के सुझाव देना असंवेदनशीलता की श्रेणी में आता है। अपनी सात वर्षीय बेटी के साथ संघर्ष करती और लोगों के ताने झेलती लडकी का दर्द इन शब्दों में छलका है : "अगर मैं जज के फैसले को मान लेती तो जिन्दगी भर मेरा रेप ही होता रहता। मेरे लिए चरित्र और मान-सम्मान से ज्यादा और किसी चीज़ की अहमियत नहीं है।"
आज वह बिनब्याही मां है, लेकिन थकने और हारने को तैयार नहीं। वह आत्मबल और स्वाभिमान की प्रतिमूर्ति है उसने ठान लिया है कि बेटी के साथ वह भी पढाई करेगी। वह अपनी बेटी को अच्छी से अच्छी शिक्षा देने में कोई कभी नहीं रखेगी। यही ताकत और जिद ही तो भारतीय नारी की असली पहचान है। यह भी सच है कि इस देश में बडी क्रूरता के साथ अंजाम दिये जाने वाले सभी बलात्कारों की रिपोर्ट पुलिस थानों में दर्ज नहीं हो पाती। कई बलात्कृत नारियां कानून का दरवाजा खटखटाने से कतराती हैं। पिछले दिनों हर तरफ सुर्खियां पाने वाली यह खबर इस कलमकार को बेहद निराश कर गयी कि कजलीगढ में गुंडे-बदमाशों के एक गिरोह ने दो वर्षों में ४५ लडकियों के साथ सामूहिक दुष्कर्म किया, लेकिन किसी भी लडकी ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने की हिम्मत नहीं दिखायी!!

Thursday, July 16, 2015

धमकाने और दबाने की राजनीति

महानगरों, शहरों और ग्रामों में कुछ धन्नासेठों, नेताओं और तथाकथित समाज सेवकों की अपनी अलग सत्ता चलती है। अराजक तत्वों से दोस्ती और शासकीय अधिकारियों पर रौब झाडकर अपना काम निकलवाने में इन्हें महारत हासिल होती है। जब भी इनका कोई चहेता किसी बडे लफडे में फंस जाता है तो फौरन इनका फोन अधिकारी तक पहुंच जाता है। हत्यारों, बलात्कारियों, माफियाओं और गुंडे बदमाशों की खाकी के संग यारी और हिस्सेदारी अक्सर उजागर होती रहती है। दुनिया के सबसे बडे इस लोकतांत्रिक देश में देशद्रोहियों तक को कानून और पुलिसिया शिकंजे से बचाने के लिए कसरतबाजी चलती रहती है। छोटे शहरों में छुटभैय्ये नेता भी अपना काम निकालने के लिए शासकीय अधिकारियों पर धौंस जमाते रहते हैं। जब तक उनकी सुनी जाती है तब तक तो सब ठीक रहता है, अनसुनी करने पर अधिकारी को सबक सिखाने के लिए अपने ऊपर के आकाओं तक दौड लगायी जाती है। सत्तारुढ पार्टी के नेता तो अपने शहर और गांव में पुलिस वालों पर ऐसे हुक्म बजाते हैं जैसे वे ही असली पीएम और सीएम हों। अगर कोई ईमानदार अधिकारी उन्हें भाव नहीं देता उनका खून खौल उठता है। वे उसका स्थानांतरण करवाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देते हैं। कुछ नेता तो सफल भी हो जाते हैं। ऐसे में उनकी चारों तरफ तूती बोलने लगती है। राजनीतिक भविष्य भी उज्जवल हो जाता है। भूमाफिया, खनन माफिया, काले धनपति और तमाम संदिग्ध कारोबारी उन नेताओं से करीबी बनाने की फिराक में रहते हैं, जिनका असरदार शासकीय अधिकारियों के बीच उठना-बैठना होता है। यह नेता भी उन्हें कभी निराश नहीं करते। इस हाथ दे और उस हाथ ले के दस्तूर पर चलते हुए अपनी राजनीति की दुकान का रूतबा और रौनक बढाते रहते हैं। देश में नरेंद्र मोदी की सरकार बनने से पहले नागपुर के एक नेता भ्रष्टाचार के आरोपों के चक्रव्यूह में फंस गये थे। आयकर विभाग ने अपना शिकंजा कसना शुरू किया ही था कि उन्होंने आयकर अधिकारियों पर चेतावनी की बंदूक तान दी थी कि यह मत भूलो कि अब केंद्र और प्रदेश में हमारी पार्टी की सरकार आने वाली है। भाजपा की सत्ता आते ही मैं एक-एक को देख लूंगा। वे नेता वर्तमान में केंद्र सरकार में दमदार मंत्री हैं। देश के दिग्गज राजनेता सरकारी अधिकारियों पर ऐसे ही धौंस जमाते हैं और इसका ज्वलंत उदाहरण है भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी अमिताभ ठाकुर और मुलायम सिंह के बीच की धमाकेदार तनातनी। आईजी अमिताभ ठाकुर भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ अक्सर अपनी आवाज बुलंद कर सुर्खियां पाते रहते हैं। इस बार उन्होंने उत्तरप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वर्तमान मुख्यमंत्री के पिताश्री मुलायम सिंह यादव को अपनी चौंकाऊ वीरता दिखायी है। अखिलेश सिंह यादव के राज में मंत्री कितने भ्रष्ट और बेलगाम हो चुके हैं, इसकी पिता और पुत्र को छोडकर सभी को खबर है। उन्हीं में से एक हैं खनन मंत्री गायत्री प्रजापति। अमिताभ ठाकुर की पत्नी ने सजग नागरिक का फर्ज निभाते हुए इन महाशय के तमाम काले कारनामों का साक्ष्यों सहित लोकायुक्त को ब्यौरा सौंपा था। जिसमें स्पष्ट किया गया कि अखिलेश सरकार के यह शातिर खनन मंत्री अवैध धंधों में इतने पारंगत हैं कि देखते ही देखते इन्होंने अरबों-खरबों जुटा लिये हैं और लखनऊ और अमेठी में सैकडों करोडों की जमीन-जायदाद खडी कर ली है। जैसे ही लोकायुक्त के पास मंत्री का काला चिट्टा पहुंचा, अमिताभ और उनकी पत्नी को धमकी भरे फोन आने लगे। जब धमकाने-चमकाने वालों ने देखा कि उनकी दादागिरी का ठाकुर दंपति पर कोई असर नहीं हो रहा है तो वे उन्हें बदनाम करने के षडयंत्र रचने लगे।
हद तो तब हो गयी जब अभी हाल ही में मुलायम सिंह यादव ने अमिताभ ठाकुर को फोन कर सुधर जाने की हिदायत दे डाली। यह फोन भी एक तरह से धमकी ही है कि हमारी सरकार के मंत्री चाहे जो करें, लेकिन तुम कौन होते हो उनके खिलाफ शिकायत करने वाले। तुम सिर्फ अपनी ड्यूटी पर ही ध्यान दो। तुम्हारी इतनी औकात नहीं है कि तुम समाजवादी सरकार के मंत्री पर निशाना साधो। दरअसल, मुलायम सिंह यादव एक घुटे हुए उम्रदराज नेता हैं। उन्हें आपा खोने में देरी नहीं लगती। वे सरकारी अधिकारियो को अपने पैर की जूती समझते हैं। उनकी हरकतों को देखने के बाद यह कतई नहीं लगता कि वे सच्चे समाजवादी हैं। भ्रष्टाचारियों के पनाह देते रहना और उन्हें बचाने के लिए गुंडागर्दी पर उतर आना उनकी पुरानी आदत है। उनके चेले भी उनका अनुसरण करते है। जिनमें कार्यकर्ता से लेकर सांसद, विधायक, मंत्री, नेता तक शामिल हैं। उत्तरप्रदेश के युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव भी अपने पिताश्री के पदाचिन्हों पर चल रहे हैं। उन्हें भी ईमानदार अधिकारी नहीं सुहाते। वे भी अपनी सरकार के बेईमान मंत्रियों की पीठ थपथपाने में कोई कमी नहीं रखते। उनके राज में सपाई गुंडों को बेखौफ और खुलेआम कानून की धज्जियां उडाते हुए देखा जा सकता है। ईमानदार अधिकारियों और पत्रकारों पर बिजलियां गिरती रहती हैं।
पिता और पुत्र की एक ही नीति है कि उन अधिकारियों पर चाबुक बरसाते रहो जो उनके इशारे पर नहीं नाचते। इनके लिए कर्तव्य परायणता और ईमानदारी का कोई मोल नहीं है। आईएस अधिकारी दुर्गा नागपाल ने खनन माफियाओं की कमर तोडने के लिए पचासों छापे मारे और उनके वाहन जब्त किये। करोडों रुपये की राजस्व वसूली कर अपनी कर्तव्यनिष्ठा का परिचय दिया। अखिलेश सरकार ने पीठ थपथपाने की बजाय उन्हें निलंबित कर दिया। खनन माफियाओं की ऊपर तक पहुंच थी। निर्भीक अधिकारी को सजा दिये जाने का कारण यह बताया गया कि वे एक धार्मिक स्थल की दीवार को गिरवाकर दंगा करवाने और साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने पर तुली थीं। अपने देश में राजनीतिक दबाव के आगे कभी न झुकने वाले अफसरो को तोडने और झुकाने की कई-कई कोशिशें की जाती हैं। लेकिन जिनकी नसों में ईमानदारी का खून दौडता है वे किसी से खौफ नहीं खाते। हरियाणा के आईएसएस अधिकारी अशोक खेमका का बार-बार तबादला इसलिए होता चला आ रहा है, क्योंकि वे सत्ताधीशों के इशारों पर नहीं नाचते। वे हर सरकार के निशाने पर रहे। उन्होंने २०१३ में जब कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी के दामाद रॉबर्ट वाड्रा की जमीनों के गोरखधंधे को उजागर किया तो उनका जीना हराम कर दिया गया। अशोक खेमका ने तो जगजाहिर भ्रष्टाचारी पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का गलत आदेश मानने से ही इंकार कर दिया था। भ्रष्टाचारी चौटाला अपने दुष्कर्मों के चलते जेल में सड रहा है। मुंबई के पूर्व आईपीएस अधिकारी वाय.पी.सिंह ने पुलिस विभाग में सत्ताधीशों और नेताओं की दखलअंदाजी पर काफी कुछ लिखा है। उनकी अच्छी-खासी नौकरी थी। रूतबा और दबदबा था। फिर भी वाय.पी. सिंह का दम घुटता था। दरअसल, वे उन बिकाऊ पुलिस अधिकारियों जैसे नहीं थे जो अपनी खुद्दारी की बोली लगाकर शर्मनाक समझौते करते चले जाते हैं और 'खाकी' की गरिमा को ही दांव पर लगा देते हैं।

Thursday, July 9, 2015

चमत्कारी सत्ता के लुटेरे

कौन कहता है कि चमत्कार नहीं होते। चालाकी और कलेजा हो तो सबकुछ हो सकता है। कई लोग अक्सर रोते-गाते रहते हैं कि अपनी तो किस्मत खराब है। कितनी मेहनत करते हैं पर दो वक्त की रोटी भी नहीं जुट पाती। उन्हें इन दो सब्जी वालों से कुछ सीखना चाहिए जिन्होंने चंद वर्षों में हजारों करोड कमा कर दिखाये हैं।
पहले धुरंधर का नाम है कृपाशंकर सिंह। उत्तरप्रदेश में जन्मे यह महाशय लगभग तीस साल पहले रोजी-रोटी की तलाश में देश की मायानगरी मुंबई में अवतरित हुए। कहते हैं मुंबई किसी को भूखा नहीं सुलाती। हाथ-पैर मारने वाले के हाथ कुछ-न-कुछ लगता ही है। बेचारे कृपाशंकर को गाय या भैंस का दूध दोहने के अलावा और कुछ नहीं आता था। अपने वतन से जब चले थे तो जेब में एकाध सौ का पत्ता था। गाय या भैंस को खरीद पाने की औकात नहीं थी। इसलिए सडक के किनारे सब्जी बेचने के काम में लग गये। गुजारे लायक कमायी होने लगी। मुंबई के जिस इलाके में वे आलू-प्याज और सब्जियां बेचते थे वहां पर फिल्म अभिनेताओं और नेताओं का आना-जाना लगा रहता था। मिलनसार कृपा ने उनसे पहचान बनाने का सिलसिला शुरू कर दिया। धनवानों की चमक-धमक उन्हें लुभाने लगी। रंगारंग सपने भी आने लगे। यह वो दौर था जब मुंबई, बम्बई कहलाता था। धीरे-धीरे धंधा चल निकला। तब शिवसेना उफान पर थी। बाल ठाकरे का पूरी बम्बई में ऐसा दबदबा था कि खूंखार से खूंखार गुंडे-बदमाश, हत्यारे और माफिया तक उनसे खौफ खाते थे। कृपा को समझ में आने लगा कि आलू, गोभी, परवल और प्याज बेचकर ज्यादा कुछ नहीं होने वाला। कुछ छुटभैय्ये नेताओं की संगत में पड चुके कृपा ने राजनीति में कूदने का मन बना लिया। उनके कान में कुछ लोगों ने मंत्र फूंका कि अपने वालों की आवाज बुलंद कर बम्बई की राजनीति में पैठ जमायी जा सकती है। उत्तर भारतीयों की तकलीफों को समझने और उनका साथ देने वाले नेता नहीं के बराबर हैं। उन्होंने कांग्रेस के कुछ नेताओं के इर्द-गिर्द चक्कर काट कर उनसे भी हलकी-फुलकी दोस्ती गांठ ली। उन्हीं दोस्तों ने उन्हें यह पाठ पढाया कि अगर राजनीति के आकाश में चमकना चाहते हो तो शिवसेना के खिलाफ तन कर खडे हो जाओ। शिवसेना उत्तर भारतीयों के विरोध की राजनीति कर अपना फैलाव करती चली जा रही है। बम्बई में ऐसा कोई उत्तर भारतीय नेता नहीं है जो शिवसेना को मुंह तोड जवाब दे सके। डरपोक कृपाशंकर के लिए यह आसान काम नहीं था। फिर भी उन्होंने उत्तर भारतीयो का नेता बनने के लिए शिवसेना की नीतियों के खिलाफ भाषणबाजी और पेपरबाजी का श्रीगणेश कर दिया। धीरे-धीरे नाम होने लगा। बम्बई की नेता बिरादरी को पता चल गया कि मायानगरी में एक नया उत्तर भारतीय नेता उभरने को बेताब है। कृपाशंकर ने बम्बई के अलावा दिल्ली के बडे कांग्रेसी नेताओं के दरवाजों पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी। मक्खनबाजी और चाटूकारिता और पूरी तरह से दंडवत होने के सकल गुण उनमें विद्यमान थे। दिल्ली में बैठे कांग्रेस के दिग्गज नेताओं को यह बंदा भा गया। कालांतर में उन्हें बम्बई में उत्तर भारतीयों के बाहुल्य वाले इलाके में विधानसभा चुनाव लडने की टिकट थमा दी गयी। वह जीत भी गये। फिर तो उन्होंने ऐसी-ऐसी छलांगे लगायीं और दांव-पेंच खेले कि महाराष्ट्र सरकार में मंत्री भी बना दिये गये। उनकी राजनीति की गाडी सपाटे से दौडने लगी। उनके भाषणों में वही छलावा और कलाकारी होती जो इस देश के शातिर नेताओं की नस-नस में भरी है। उन्होंने कुछ ही वर्षों में महाराष्ट्र के दमदार नेताओं की फेहरिस्त में खुद को शामिल करवा लिया। कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी से मिलना-जुलना आम हो गया। दुश्मनों की भी तादाद बढने लगी। धीरे-धीरे कृपा के भ्रष्टाचार की खबरें मीडिया में आने लगीं। भ्रष्टाचार के पाप का घडा भरता चला गया। आखिरकार धमाका भी हो गया। खुद को उत्तर भारतीयों के मसीहा दर्शाने वाले कृपाशंकर तो बहुत बडे मुखौटेबाज निकले। कानून ने जब पूरी तरह से अपना शिकंजा कसा तो पता चला कि कभी झोपडी में रहने वाला वो अदना-सा भैय्या तो अब अरबों-खरबों की दौलत का मालिक बन चुका है। उसके पास कई बंगले, फार्महाऊस, आलीशान फ्लैटों, दुकानों के साथ-साथ महंगी से महंगी कारों का काफिला है। घर में रखी पचासों तिजोरियां हीरा-सोना-चांदी और नोटों से लबालब भरी पडी हैं। करीबी तो करीबी दूर-दराज के रिश्तेदारों के नाम से भी करोडों की सम्पतियां खरीदी गयी हैं।
दूसरे चतुर नेता हैं छगन भुजबल। इन्होंने भी मुंबई के फुटपाथ पर पहले आलू-प्याज बेचे फिर राजनीति में कूद पडे। दलितों और शोषितों के सभी संकट दूर करने के लिए इन्होंने सर्वप्रथम शिवसेना का दामन थामा। बहुत उछल-कूद मचायी। गरीबों और दबे-कुचले बम्बई वासियों के लिए मर मिटने की नारेबाजी कर वोटरों को लुभाया और तरक्की की सीढिया चढते चले गये। शिवसेना में रहकर अपनी खूब हैसियत बढायी। जब शिवसेना के खराब दिन आये तो उसको नमस्कार कर शरद पवार की राष्ट्रवादी पार्टी में छलांग लगा दी। जब महाराष्ट्र में कांग्रेस, राकां गठबंधन की सरकार बनी तो छगन की निकल पडी। छगन भुजबल को महाराष्ट्र के गृहमंत्री जैसे बडे पद का भरपूर सुख भोगने का अवसर मिला। इसी दौरान तेलगी का अरबों-खरबों का नकली स्टाम्प घोटाला सामने आया। यह सरासर राष्ट्रद्रोही कृत्य था। करोडों रुपये की रिश्वत के लिए छगन को देशद्रोही से दोस्ती करने में कोई शर्म नहीं आयी। तेलगी के साथ छगन भुजबल की 'दोस्ती' जब बेनकाब हुई तो देश और दुनिया स्तब्ध रह गयी। अपनी पार्टी की सरकार थी, इसलिए छगन पर कोई आंच नहीं आयी। कल का सब्जी वाला भ्रष्टाचार की सभी हदें पार करता चला गया। मुंबई, पुणे, ठाणे, नासिक में करोडों की जमीनें बंगले, फार्महाऊस बनते चले गए। कई उद्योगधंधे भी शुरू हो गये। आयात, निर्यात के कारोबार को भी पंख लग गये। अपने भाई-भतीजों और रिश्तेदारों के नाम से सरकारी ठेके लेने के लिए हर मर्यादा को ताक पर रख दिया गया। मुंहमांगी रिश्वतों का अंबार लगता चला गया। मीडिया में उनके भ्रष्टाचार की खबरें छपतीं, लेकिन कार्रवाई नदारद। नयी सरकार ने जब शिकंजा कसा तो पता चला कि छगन और उनके परिवार के पास तो तीन हजार करोड से भी ज्यादा की धन-दौलत है! उन्होंने तो यूपी के कृपाशंकर को मात दे दी। अब देखते हैं कि इन्हे मात देने वाले किसी 'चमत्कारी'  का नाम कब सामने आता है...।

Thursday, July 2, 2015

यह देश किस पर करे भरोसा?

औरतें ईमानदारी की पोषक होती हैं। उनमें भ्रष्टाचार करने की फितरत नहीं होती। हिन्दुस्तानी नारी तो सत्य और ईमानदारी की प्रतिमूर्ति होती है।' भूल जाइये इन सब कहावतों को। वो वक्त अब गुजर गया जब छाती तानकर ऐसे दावे किये जाते थे। आज की भारतीय स्त्री जब हर क्षेत्र में पुरुषों को पछाडने पर तुली है तो छल, कपट और झूठ के मामले में भी क्यों पीछे रह जाए। भगवान ने उसे भी दिमाग दिया है। उसे भी धन के महत्व की जानकारी है। वह भी रिश्ते निभाना जानती है। जिन्हें अभी भी कोई शक-शुबहा है, यकीनन वे अंधेरे में हैं। आज हर कहीं सुषमा, वसुंधरा, स्मृति, पंकजा और तीस्ता जैसे नामों के ढोल बज रहे हैं। ढोल कभी भी बेवजह नहीं बजा करते। हमेशा शोर-शराबा और धमाका करने वाली महिलाओं ने इन दिनों अपने मुंह सिल लिए हैं। उनसे कुछ बोलते ही नहीं बन पा रहा है। उनका मौन किसी को भी समझ में नहीं आ रहा है। हमेशा मुखर रहने वाली सुषमा स्वराज की खामोशी तो सबसे ज्यादा हैरान करने वाली है। उन पर सवाल दागे जा रहे हैं कि यह कौन-सी राजनीति की पोथी में लिखा है कि अपराधियों को बचाना, उनसे करीबी रिश्ते बनाना, छल, कपट और धोखाधडी करना न्याय संगत है?
ललित मोदी कानून की निगाह में जालसाज और भगोडा है। उसने हेराफेरी कर देश के अरबों रुपये विदेशों में पहुंचाए और पता नहीं कहां-कहां छिपा दिए। भद्रजनों के खेल क्रिकेट को सट्टे बाजों के हवाले कर कहीं का नहीं छोडा। इस शातिर को भारतवर्ष के कानून पर भरोसा नहीं। भागा-भागा फिर रहा है। जिन्हें उसको पकडवाने की पहल करनी चाहिए थी वही उसके करीबी बन गए। उसको बचाने के लिए दुनिया भर की जोड-तोड कर डाली। सुषमा स्वराज देश की विदेशमंत्री हैं। इसी विदेश मंत्री के पति और बेटी ने बखूबी फ्राड मोदी को बचाने की जिम्मेदारी निभायी। पिता-पुत्री, दोनों नामी वकील हैं। सुषमा का भी भगोडे ललित से सतत संपर्क बना रहा। भले ही देश का कानून उसकी तलाश में हांफता रहा। यानी रिश्ता करीबी भी था और गहरा भी। सत्ता ही अपराधी को किसी भी तरह से बचाने और छिपाने का खेल खेलती रही। यह भी कहा जा सकता है कि ललित मोदी अपने इन प्रभावशाली वकीलों को मोटी फीस चुका कर कहीं न कहीं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी साधता रहा है। तभी तो उन्होंने ललित मोदी का ऐसा साथ दिया जिसकी कभी कल्पना ही नहीं की गयी थी। चोरी पकडे जाने पर वे ऐसे चुप हैं जैसे सांप सूंघ गया हो।
राजस्थान की तेज-तर्रार मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने तो और भी हद कर दी। उन्होंने तो इस अपराधी के साथ कारोबारी और पारिवारिक रिश्ते ही बना लिए। उसके लिए कुछ भी कर गुजरीं। ललित मोदी ने वसुंधरा के बेटे दुष्यंत की कंपनी को करोडों रुपये की सौगात दी तो उसके बदले में ऐसे-ऐसे फायदे उठाये कि जिनका हकदार कोई भगोडा तो नहीं हो सकता। दरअसल सुषमा स्वराज और वसुंधरा राजे ने भाई-भतीजा वाद की उसी घातक परंपरा को ही आगे बढाया है, जिसके लिए पुरुष नेता बदनाम रहे हैं।
महाराष्ट्र सरकार की दमदार मंत्री पंकजा मुंडे स्वर्गीय गोपीनाथ मुंडे की सुपुत्री हैं। इन्होंने बिना निविदा आमंत्रित किये अपने खासमखासों को २०६ करोड का ठेका देकर मालामाल कर दिया। शातिर ठेकेदारों ने जो सामान सप्लाई किया वो हद दर्जे का घटिया और बाजार भाव से बहुत महंगा है। आदिवासी बच्चों को खिलाने के लिए जो चिक्की उपलब्ध करायी गयी उसमें भरपूर मिट्टी का समावेश है। पंकजा कहती हैं कि धन को खर्चना जरूरी था इसलिए बिना टेंडर के ही ठेके दे दिए गये। सवाल यह है कि उन्होंने संदिग्ध ठेकेदारों पर ही 'कृपा' क्यों की? इस सवाल का जवाब तो बडा सीधा-सादा है कि कहीं न कहीं कोई तो गडबड है ही। ऐसे में शंका के बादल न गरजें, भला ऐसा कैसे हो सकता है? यह मजबूरी भी हो सकती है। महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमंत्री और पंकजा के पिताश्री गोपीनाथ ने अपने जीवन काल में रहस्योद्घाटन किया था कि किसी जमाने में लोकसभा चुनाव लडने के लिए लाखों लगते थे, लेकिन अब करोडों खर्च हो जाते हैं। यह उनका खुद का अनुभव था, जो एक बयान की शक्ल में सामने आया था कि वे ८ करोड खर्च कर लोकसभा चुनाव जीते हैं। मीडिया ने काफी शोर मचाया था। बाद में वे पलटी खा गये थे। वैसे भी जो नेता चुनाव में करोडों फूंकते हैं उन्हें किसी न किसी तरह से वसूली भी तो करनी होती है। न करें तो कहां जाएं? पंकजा मुंडे बडे गर्व के साथ कहती हैं कि वे अपनी पिता की विरासत संभाल रही हैं!!
देश की मानव संसाधन विकास मंत्री (शिक्षा मंत्री) स्मृति ईरानी भी खूब हैं। जिन्होंने तीन चुनाव लडे और तीनों में दिए गये हलफनामे में अपनी शैक्षणिक योग्यता अलग-अलग बता दी! ऐसी चालाकियां जब तथाकथित आदर्शवादी राजनेता दिखाते हैं और रंगे हाथ पकडे जाते हैं तो तकलीफ तो होती ही है। यह सवाल भी खलबली मचाता है कि आखिर देश किन पर भरोसा करे? सामाजिक कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड। यह नाम भी काफी जाना-पहचाना है। यह वो महिला हैं जिन्होंने गुजरात के २००२ के दंगों के बाद नरेन्द्र मोदी के खिलाफ जबरदस्त अभियान चलाया था। उनके नाक में दम करके रख दिया था। यह परोपकारी महिला भी इन दिनों कई संगीन आरोपो के घेरे में हैं। दंगा पीडितों की सहायता के नाम पर बटोरे गये चंदे में ही हेराफेरी कर तीस्ता ने अपने ही मुंह पर ऐसी कालिख पोत डाली है कि जो शायद ही कभी मिट पाये। इस समाजसेविका ने विभिन्न एनजीओ और संस्थाएं बनाकर अमेरिका के फोर्ड फाउंडेशन से मोटा चंदा लेकर कानून तोडने का ऐसा अपराध किया है जिसके चलते जेल में जाने की नौबत आ गयी है। विदेशी धन के दम पर साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने का षडयंत्र रचने वाली तीस्ता का धीरे-धीरे पर्दाफाश हो रहा है।
सच तो यह है कि अराजकता और भ्रष्टाचार का इतिहास रचने वाली महिलाओं की लिस्ट धीरे-धीरे और लम्बी होती चली जा रही है। क्या जयललिता और मायावती को देशवासी भूल सकते हैं जिनके भाई-भतीजावाद और अनंत भ्रष्टाचार के अंतहीन किस्से हैं...।