Monday, April 29, 2013

डोलता ईमान और धराशायी होती इमारतें

मायानगरी मुंबई से सटे शहर ठाणे में एक निर्माणाधीन अवैध बहुमंजिला इमारत ताश के पत्तों की तरह ढह गयी और मलबे के नीचे दब और कुचल कर ७० से अधिक लोग मौत के मुंह में समा गये। यह मौतें इंसानी लालच, लापरवाही और अंतहीन भ्रष्टाचार की देन हैं। अगर इन्हें हत्या की संज्ञा दी जाए तो भी गलत नहीं होगा। यह हत्याएं उन भू-माफियाओं, अधिकारियों और नेताओं के शर्मनाक गठजोड का नतीजा हैं जिनके लिए धन-दौलत के अलावा और कोई चीज मायने नहीं रखती। इंसान तो इनके लिए महज कीडे-मकौडे हैं जिन्हें मिटाना और मसलना इनकी आदत में शुमार हो गया है। क्या यह हैरत की बात नही है कि शहर के बीचों-बीच देखते ही देखते एक बहुमंजिला इमारत का अवैध निर्माण हो जाता है और उन्हें बनाने वालों को कोई रोकता-टोकता नहीं! यह भी बताया जा रहा है कि यह इमारत दलदली जमीन पर बनायी गयी थी, जहां ऐसा गगनचुंबी निर्माण किया ही नहीं जा सकता। यानी जो नहीं हो सकता उसे भी बेखौफ होकर अंजाम दे दिया गया और कई निर्दोषों की जान ले ली गयी! आखिर हम कैसी व्यवस्था में रह रहे हैं जहां शासन और प्रशासन अपने आंख और कान बंद किये रहता है और जब कोई बडी दुर्घटना घटती है तो एकाएक जागने का नाटक शुरू हो जाता है! हां ठाणे में भ्रष्टों के आशीर्वाद से ऐसा ही हुआ। पहले तो बिल्डिंग तन गयी। जब अचानक धराशायी हो गयी तो बिल्डरों को दुत्कारने और लताडने की नौटंकी चल पडी। उनकी पकडा-धकडी भी हुई। पर जिनकी जानें चली गयीं उनका क्या? सरकार हमेशा यही मानकर चलती है कि मरने वालों के परिवारों को मुआवजा दे देने से उसके कर्तव्य की इतिश्री हो जाती है। उसे यह चिं‍ता कभी नहीं सताती कि कहीं न कहीं यह उसी की घोर लापरवाही और भूल का ही दुष्परिणाम हैं। हमारा तो यही मानना है कि उन राजनेताओं को शासन चलाने का कोई हक नहीं है जो प्रशासन नाम के घोडे की नकेल को ही न कस पाएं। इस देश की भ्रष्ट नौकरशाही की जेब में नोट ठूंस कर कोई भी अवैध काम करवाया जा सकता है। भू-माफियाओं और बिल्डरों ने अफसरों को अपनी जेब में रखने के सभी तौर-तरीके सीख लिये हैं। चांदी के चंद सिक्कों में बिकने के बाद महानगर पालिका और नगर निगम के अधिकारी बिल्डरों के इशारों पर नाचने लगते हैं। ठाणे के भीड-भाड वाले इलाके में गैर कानूनी इमारत बन जाती है और जब ध्वस्त होकर लोगों की जान ले लेती है तो ठाणे नगर निगम के अधिकारियों की यह सफाई आती है कि जिस इलाके में इमारत बन रही थी वह वन विभाग के अंतर्गत आता है। ऐसे में वे इस अवैध निर्माण पर चाहकर भी कार्रवाई नहीं कर सकते थे। यह तो बडे कमाल का जवाब है! गौरतलब है कि न तो इस बिल्डिंग का नक्शा बनाया गया था और न ही किसी जानकार इंजिनियर की देखरेख में इस कातिल इमारत का निर्माण किया जा रहा था। इमारत को बनाने में भी घटिया से घटिया सामग्री का इस्तेमाल हो रहा था। यह कोई नयी बात नहीं है। ऐसा हर जगह हो रहा है। मुंबई और दिल्ली जैसे तमाम महानगरों में भी घटिया सामग्री का इस्तेमाल कर धडाधड बहुमंजिला इमारतें तानी जा रही हैं। जनसंख्या बढती चली जा रही है और जमीनें कम पडने लगी हैं। इसलिए गगनचुंबी इमारतें खडी करना भी जरूरी हो गया है। पर इन आकाश को छूती इमारतों को बनाने वाले अधिकांश लोगों की नीयत साफ नहीं है। वे तो रातोंरात करोडपति-अरबपति बन जाना चाहते हैं। इस चक्कर में गुणवत्ता को नजर अंदाज कर धडाधड इमारतें खडी की जा रही हैं। ऐसे बिल्डरों की भी भरमार है जो विज्ञापनों में तो बडे-बडे दावे करते हैं पर असल में लोगों को टोपी पहनाना ही उनका एकमात्र मकसद है। दिखाते कुछ हैं और थमाते कुछ हैं। मद्रास आईआईटी के प्रोफेसर ए.आर. सांथा कुमार का कहना है कि जो बिल्डिंग जल्दबाजी और घटिया सामग्री का इस्तेमाल कर बनायी जाती है उसका बुरा हाल होना तय है। गुजरात में कुछ समय पहले एक उपभोक्ता संगठन ने सरकारी और निजी एजेंसियो द्वारा निर्माणाधीन १८ हाउसिं‍ग प्रोजेक्ट के ४५०० यूनिट का सर्वे कराया था। इन इमारतों के निर्माण में दोयम दर्जे की निर्माण वस्तुओं का बेखौफ होकर उपयोग करने के साथ-साथ किसी भी तरह के तकनीकी सुपरविजन की जरूरत ही नहीं समझी गयी। इस कर्मकांड में जिन्हें माल कमाना था, वे अपना काम कर चलते बने। असली कष्ट तो उन लोगों को उठाना पडा जो यहां रहते हैं। इमारतों की छतों में सीलन की भरमार है। दीवारों में प्लास्टर झडते रहते हैं। बिजली के तार बेतरतीब ढंग से उलझ जाते हैं और नलो में लगातार पानी रिसता रहता है। खिडकियां ऐसे टूट-फूट गयी हैं जैसे वर्षों पुरानी इमारत हो। देश में जहां-तहां घरों की बेहद तंगी है। लोगों को येन-केन-प्रकारेण अपना घर पाने की जल्दी रहती है। इसी चक्कर में कीमत भी अंधाधुंध चुकानी पडती है और सुरक्षित और मजबूत फ्लैट या घर भी नहीं मिल पाते। पिछले कुछ वर्षों से भू-माफियाओं और बिल्डरों की खूब चांदी कट रही है। इनके घरों में जमकर धन की बरसात हो रही है। यह लोग किस तेजी से अपना आर्थिक साम्राज्य खडा करते हैं इसे जानने के लिए बीते सप्ताह अपने ही कुपूत के हाथों मौत की नींद सुला दिये गये बसपा नेता और बिल्डर दीपक भारद्वाज से बेहतर और कोई उदाहरण नहीं हो सकता। दीपक भारद्वाज कभी बाबूगिरी करता था। डेढ-दो हजार की पगार के भरोसे अपने जीवन की गाडी खींचने को मजबूर था। दिल्ली और हरियाणा में जब प्रापर्टी के भाव एकाएक बढने लगे तो दीपक ने इस क्षेत्र में किस्मत आजमाने की सोची। वह विवादित जमीनें खरीदने लगा और आडे-तिरछे सौदे करने लगा। देखते ही देखते उसके दिन बदल गये। कुछ ही वर्षों में वह करोडों रुपये का आसामी बन गया। दिल्ली में उसने नेतागिरी शुरू कर दी और उसने बसपा की टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लडा। उस समय उसके पास ६०० करोड से अधिक की धन-दौलत थी। यानी वह सबसे अमीर प्रत्याशी था। पर चुनाव में मात खा गया। उसे असली मात तो तब मिली जब उसके ही बेटे ने उसकी सुपारी देकर उसका काम तमाम करवा दिया। यह उदाहरण देने के पीछे हमारा यह मकसद कतई नहीं है कि सभी बिल्डरों का ऐसा ही अंत होता है। हम तो सिर्फ यही बताना चाहते हैं भवन निर्माण और प्रापर्टी के क्षेत्र में जबरन घुसपैठ कर चुके बेइमानों के छल-कपट से देश के लाखों लोग आहत हैं। इस धंधे की अंधी कमायी के चलते कई लोगों का ईमान डोलने में देरी नहीं लगती। ऐसी कमायी करने वालों का आम आदमी की तकलीफों से कोई लेना-देना नहीं होता। इसीलिए इमारते बनने के साथ-साथ ढहनी भी शुरू हो जाती हैं और मरते है वो आम लोग जो फरेब और धोखे के शिकार होते हैं।

Thursday, April 11, 2013

मदहोश मंत्री के विषैले बोलवचन

''वह कौन देशमुख ५५ दिनों से आजाद मैदान पर आमरण अनशन पर बैठा है! ...कहता है बांध से पानी छोडा जाए। अरे भाई जब बांध में पानी ही नहीं है तो छोडा कहां से जाए? क्या मूत कर बांध को लबालब कर दूं?''
यह शब्द किसी शराबी, गुंडे मवाली के नहीं, प्रदेश के उपमुख्यमंत्री और राज्य के सिं‍चाई मंत्री के हैं। महाराष्ट्र के सूखाग्रस्त किसानों की बदहाली का मजाक उडाने वाले इस नेता का नाम है अजीत पवार। अजीत पवार की असली पहचान यही है कि वे उस शरद पवार के लाडले भतीजे हैं जो मर्द मराठा कहलाते हैं। जिन्होंने चार बार महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री पद का सुख भोगा है। देश के रक्षामंत्री भी रह चुके हैं। वर्तमान में केंद्रीय कृषि मंत्री हैं। कुछ वर्ष पूर्व उन्होंने रहस्योद्घाटन किया था कि भारतवासी ज्यादा खाते हैं इसलिए देश को अनाज की कमी झेलनी पडती है। कहावत है कि 'खरबूजा खरबूजे को देखकर रंग बदलता है।' फिर अजीत तो शरद पवार के भतीजे हैं।
बीते सप्ताह मंत्री महोदय पुणे की इंद्रापुर तहसील में एक रैली को संबोधित कर रहे थे। वैसे भी अपने इलाके में पैर रखते ही नेताओं पर उत्तेजना और जोश हावी हो जाता है और सीना भी चौडा हो जाता है। अजीत तो जन्मजात जोशीले हैं। गुस्सा तो उनकी रग-रग में भरा है। गुस्से और जोश में वे अक्सर होश खो देते हैं। जब उन्होंने अनशनरत किसान की खिल्ली उडाते हुए मूतने...मातने की बातें कीं तो कई श्रोताओं ने खूब तालियां पीटीं। तालियों के शोर के साथ-साथ मंत्रीजी भी नैतिकता और मर्यादा को ताक पर रखते चले गये। शालीनता को तो उन्होंने थूक कर फेंक दिया। पानी तो पानी, बिजली की कमी और कटौती पर भी उन्होंने कटाक्ष भरी भाषा का इस्तेमाल करते हुए कहा कि ऐसा लगता है कि बिजली नहीं होती तो रात में उस काम (मौजमस्ती और बिस्तरबाजी) के अलावा और काम नहीं बचता। जिस तरह से धडाधड आबादी बढ रही है उसे देखकर तो यही लगता है...।
सत्ताधीशों की नाइंसाफी और प्रकृति की मार झेलते लाचार किसानों की खिल्ली उडाने वाले इस मदहोश और मगरूर मंत्री के अमर्यादित भाषण को सुनकर उनके चम्मचों ने भले ही जमकर तालियां बजायीं पर बेचारे किसान खुद को ठगा-सा महसूस करते रह गए। उन्हें अपने नसीब पर रोना आ गया। पछतावा भी हुआ कि उन्होंने कितने गैर जिम्मेदार इंसान को अपना कीमती वोट देने की भूल कर दी!
सत्ता के मद में चूर अजीत पवार को यह भी याद नहीं रहा कि किसानों की फरियाद सुनना उनका फर्ज है। जनता की समस्याओं के निवारण के लिए ही उन्हें इतने बडे पद पर सुशोभित किया गया है। सूखे की मार झेल रहे किसान को तसल्ली देने की बजाय उन्होंने जिस बेहयायी के साथ यह कहा कि बांधों में पानी नहीं है तो क्या पेशाब करें? उससे देश के बुद्धिजीवी स्तब्ध रह गये। कई लोग इस चिं‍ता में पड गये कि अगर ऐसा अविवेकी और दंभी शख्स राकां सुप्रीमो शरद पवार की विरासत संभालेगा तो पार्टी का क्या होगा! अजीत पवार के बोलवचनों की गूंज दूर-दूर तक गयी है। अभी तक तो चाचाश्री भतीजे को बचाते आये हैं पर इस बार भतीजे के बाण से छूटे विषैले तीर ने प्रदेश ही नहीं देश के करोडो किसानों को वो जख्म दिये हैं जिनका भर पाना बहुत मुश्किल है।
क्या शासकों को ऐसी अशोभनीय भाषा का इस्तेमाल करना चाहिए? क्या उन्हें सिं‍चाई मंत्री इसलिए बनाया गया है कि वे पानी और बिजली की मांग करने वाले निरीह किसानों के जख्मों पर नमक छिडकें? उन पर अश्लील शब्दों की बौछार करें? क्या प्रदेश की प्यासी जनता को मंत्री महोदय पेशाब पिलाना चाहते हैं? अजीत पवार में अगर थोडी भी इंसानियत होती तो वे अपना दायित्व निभाते हुए तुरंत उस किसान तक जा पहुंचते और उसके पैर पकड कर माफी मांगते। पर आत्ममुग्ध और अहंकारी अजीत पवार ने बेबस किसान का अपमान कर स्पष्ट कर दिया है कि वे किस मिट्टी के बने हैं। आम आदमी के प्रति उनमें कोई सम्मान नहीं है। किसानों को दुत्कारना और फटकारना उनकी फितरत है। विचारशीलता और मानवीय संवेदनाओं से उनका कोई सरोकार नहीं है। महाराष्ट्र के भोले-भाले किसानों ने सत्ता के नशे में मदहोश नेता तो कई देखे होंगे पर ऐसा बेशर्म और मुंहफट मंत्री नहीं देखा होगा। अजीत पवार ने तो कोई भी कसर बाकी नहीं रखी। अजीत पवार के अभद्र और अशोभनीय व्यवहार से महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश के लोग क्षुब्ध, आहत और आक्रोशित हैं। डॉ. कुमार विश्वास ने अपने अंदाज में शब्दबाण छोडे हैं और कहा है कि अजीत पवार साहब आप बहुत बडे आदमी हैं। आप मूतने का कष्ट क्यों करते हैं, चुनाव आने दिजिए आपके नाम पर हम सब मूत देंगे। यानी मतदाता फैसला कर ही देंगे। किसी के कपडे फाड देने के बाद माफी मांगने का नाटक कोई मायने नहीं रखता। देश के चर्चित व्यंग्यकार, कवि, उपन्यासकार गिरीश पंकज की कविता की यह पंक्तियां भी बता रही हैं कि बुद्धिजीवियों के साथ-साथ मुल्क के आम लोग कितने आक्रोश में हैं:
''अंट-शंट इतना ज्यादा मत बोल जमूरे
घटियापन अपने तू मत खोल जमूरे
तुम कुर्सी पर बैठे हो तो खुदा नहीं हो
भ्रम में इतना इधर-उधर मत डोल जमूरे
अब तो तय है तुमको 'जाना' ही होगा
विष तुमने ही दिया आज यूं घोल जमूरे
लाख छिपाओ कभी नहीं छिप सकती
खुल ही जाती है अक्सर पोल जमूरे...।''

Thursday, April 4, 2013

लोकतंत्र के असली दुश्मनों को पहचानो

''कुछ राजनीतिक घरानों ने लोकतंत्र को अपने कब्जे में ले रखा है। नब्बे फीसदी भारतीय जाति और धर्म के नाम पर भेड-बकरियों की तरह झुंड बनाकर मतदान करते हैं। इसी कारण कई अपराधी संसद तक पहुंचने में सफल हो जाते हैं। ऐसे में मैं अपना वोट जाया नहीं करना चाहता। इसलिए मतदान भी नहीं करूंगा।'' यह शब्द हैं इसी देश के सुप्रीम कोर्ट के एक पूर्व न्यायाधीश के, जिनका नाम है मार्कंडेय काटजू। काटजू साहब वर्तमान में भारतीय प्रेस परिषद के सम्मानित अध्यक्ष भी हैं। उन्होंने जो कुछ भी कहा है उसे पूरा सच नही माना जा सकता। यह कौन नहीं जानता कि इस देश की राजनीति में धनपतियों और दबंगों का बोलबाला है। यह भी सच है कि कुछ राजनीतिक घरानों ने देश की सत्ता और लोकतंत्र पर अपना कब्जा जमा रखा है। साम, दाम, दंड, भेद की नीति अपनाकर वोट हथियाये जाते हैं। जाति और धर्म का खेल भी खुलकर खेला जाता है। काफी हद तक राजनीति का अपराधीकरण भी हो चुका है। कई बार तो अपराधी और राजनेता में फर्क कर पाना मुश्किल हो जाता है। पर यह कहना सरासर अनुचित है कि देश के नब्बे प्रतिशत मतदाता धर्म और जाति के नाम पर भेड-बकरियों की तरह झुंड बनाकर मतदान करते हैं। यह अतिरंजित आंकडा उन देशवासियों का सरासर अपमान है जो देश में बदलाव चाहते हैं। इसके लिए वे कुछ भी करने और मर-मिटने को तैयार हैं। काटजू का यह कहना कि मैं वोट नहीं डालूंगा... यही दर्शाता है कि वे मान चुके हैं कि देश के हालात जस के तस रहने वाले हैं। मुल्क के मतदाता इतने बेवकूफ हैं कि उन्हें बदल पाना रेत में से तेल निकालने की कहावत को चरितार्थ करने की कसरत से ज्यादा और कुछ नहीं है।
वैसे भी अपने देश के अधिकांश रईस, उद्योगपति, अफसर और अपराधी प्रवृत्ति के लोग वोट डालने से कतराते हैं। जिस दिन वोट डाले जाते हैं उस दिन वे छुट्टी मनाने के जुगाड में लग जाते हैं। कुछ तो सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं तो कई विभिन्न मनोरंजन स्थलों और मदिरालयों की शोभा बढाते हैं। यही वजह है कि हिं‍दुस्तान में कभी पचास तो कभी साठ प्रतिशत तक ही वोटिं‍ग हो पाती है। ऐसे लोगों को भी लोकतंत्र का हिमायती नहीं कहा जा सकता।
काटजू जैसे विद्वानों के बोलवचन अक्सर मुझे परेशान करते हैं। यह इतने घोर निराशावादी क्यों हैं? इन्हें अपने देशवासियों पर भरोसा क्यों नहीं है? इन्होंने यह बात क्यों गांठ बांध ली है कि देश की नब्बे प्रतिशत जनता लकीर की फकीर है और उसने बदहाल हालात के समक्ष घुटने टेक दिये हैं। अब उसका तनकर खडा हो पाना नामुमकिन है! इन्हें देश की फिज़ाओं में गूंजने वाले क्रांति-गीत क्यों नहीं सुनायी देते? क्या इन्हें खबर नही है कि आम आदमी ने महंगाई, भ्रष्टाचार, बेरोजगारी, शोषण और अत्याचार के असली जन्मदाताओं की शिनाख्त भी कर ली है? वह आर-पार की लडाई लडने के लिए अपनी कमर भी कस चुका है। उसे मालूम है कि यही फैसले की असली घडी है। इस बार भी चूक गये तो आने वाली पीढि‍यां उसे कोसते नहीं थकेंगी।
आज देश के आमजन को सच्चे नेतृत्व की तलाश है। तभी तो वह अन्ना हजारे और अरविं‍द केजरीवाल के आंदोलन के साथ जुडने में देरी नही लगाता। अपना घर-बार छोडकर फौरन दिल्ली पहुंच जाता है। दिल्ली उसे दुत्कारती है, फटकारती है, फिर भी वह हिम्मत नहीं हारता।
ऐसे बदलते हालात में तो देशवासियों का मनोबल बढाने की जरूरत है। काटजू को तो लोकतंत्र के दुश्मनों की जडें उखाड फेंकने की अपील करनी चाहिए थी। उन्हें उन मतदाताओं को सचेत करना चाहिए था जो अपने वोट का इस्तेमाल नहीं करते। उन्हें उन वोटरों को भी लताडना चाहिए था जो नोट, दारू, कंबल, साडी जैसे उपहारों की ऐवज में अपना कीमती वोट बेच देते हैं। उन्हें तो लोगों को यह भी बताना चाहिए था कि जाति-धर्म के नाम पर होने वाले मतदान ने देश का कितना अहित किया है। पर वे तो वोट ही न डालने की वकालत पर उतर आये! पूर्व जज काटजू इस तथ्य से भी अंजान लगते हैं कि आज देश का युवा वर्ग जाग चुका हैं। उसे जगह-जगह फैला भाई भतीजावाद शूल की तरह चुभता है। सत्ताधीशों की हेराफेरी, लूटमार और राष्ट्रीय संपदा की बंदरबांट के समाचार उसे हिलाकर रख देते हैं। देश की किसी भी मां, बेटी, बहन की अस्मत लुटती है तो उसका खून खौल जाता है।
आज जब हिं‍दुस्तान के लोकतंत्र को चौराहे पर लाकर खडा कर दिया गया है और विकास और बदलाव के मार्ग अवरुद्ध कर दिये गये हैं तब देशवासियों को अफीम खिलाकर सुलाने की नही, चेतना के गीत सुनाकर जगाने की जरूरत है। देश के कुछ सच्चे बुद्धिजीवी, समाज सेवक, नेता, लेखक, पत्रकार और कवि इस दायित्व को बखूबी निभा रहे हैं। किसी देशभक्त कवि की कविता की ये पंक्तियां काबिलेगौर हैं:
''अभी समय है सुधार कर लो
ये आनाकानी नहीं चलेगी,
सही की नकली मुहर लगाकर
गलत कहानी नही चलेगी।
घमंडी वक्तों के बादशाहो,
बदलते वक्त की नब्ज देखो
महज तुम्हारे इशारों पे अब,
हवा सुहानी नही चलेगी।
किसी की धरती, किसी की खेती,
किसी की मेहनत, फसल किसी की
जो बाबा आदम से चल रही थी,
वो बेईमानी नहीं चलेगी।
समय की जलती शिला के ऊपर,
उभर रही है नयी इबारत
सितम की छाँहों में सिर झुकाकर,
कभी जवानी नही चलेगी!''