Wednesday, September 27, 2023

समय के सुर

    भारत की राजधानी दिल्ली के हवाई अड्डे से नागपुर के लिए हवाई जहाज को शाम साढ़े सात बजे रवाना होना था। सभी यात्री समय पर पहुंच चुके थे, लेकिन पायलट का कोई अता-पता नहीं था। वक्त बीतने के साथ-साथ यात्रियों की बेचैनी बढ़ती चली जा रही थी। विमान पर सवार यात्रियों में नागपुर के एक विधायक महोदय भी घड़ी पर अपनी निगाह टिकाये थे। उनकी पूछताछ और नाराजगी का एयर होस्टेज के पास भी कोई पुख्ता जवाब नहीं था। दो घंटे बीतने के पश्चात जब वो पायलट नहीं पहुंचा तो किसी अन्य पायलट के जरिए रात 11 बजे हवाई जहाज नागपुर पहुंचा। पायलट के न पहुंचने से यात्रियों को हुई मानसिक और शारीरिक अशांति और पीड़ा को लेकर कई तरह के कमेंट किए गये और जीभर कर कोसा गया। विधायक महोदय ने इंडिगो एयरलाइन पर सवाल दागा कि जब यात्रियों के किंचित भी देरी से पहुंचने पर उन्हें एंट्री नहीं दी जाती, तो ऐसे में फ्लाइट के डिपार्चर में जो दो घंटे देरी की गई उसकी जवाबदारी कौन लेगा? दरअसल, अपने यहां बहुत कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। 

    उत्तरप्रदेश के मुरशदपुरा में ड्यूटी के दौरान अत्याधिक शराब चढ़ा लेने के कारण अपने होश गंवा बैठे स्टेशन मास्टर के द्वारा रेलवे लाइन क्लीयर न दिए जाने के कारण चार महत्वपूर्ण एक्सप्रेस ट्रेनें और दो माल गाड़ियां जहां-तहां खड़ी हो गईं। स्टेशन मास्टर के साथ अनहोनी की आशंका से मुरादाबाद कंट्रोल में खलबली मच गई। कंट्रोल के निर्देश पर नजीबाबाद से किसी दूसरे स्टेशन मास्टर को भेजकर ट्रेनों का संचालन शुरू कराया गया। शराबी स्टेशन मास्टर अभी भी गहरी निद्रा में मदमस्त था। बेंच के नीचे पड़ी खाली शराब की बोलत उस पर खिलखिला रही थी। कई पायलट और एयर होस्टेस और कू-मेंबर ऐसे हैं, जो हवाई जहाजों को टेकऑफ कराने से पहले नशे में एयरपोर्ट पहुंचते हैं। इसी वर्ष 40 से अधिक ऐसे पायलट पकड़े गए जो नशे की हालत में हवाई जहाज उड़ाने पहुंचे थे। कुछ तो ऐसे थे जो ठीक से चल भी नहीं पा रहे थे। फिर भी उन्हें कहीं न कहीं यह भरोसा था कि वे पकड़ में नहीं आयेंगे, लेकिन हवाई जहाजों की सेफ्टी और सिक्योरिटी की पैनी जांच से बच नहीं पाये। जांच कर उन्हें अपने-अपने घर भेज दिया गया। 

    वर्ष 2022 में 43 तो 2021 में जहां 19 पायलट नशे की हालत में पकड़ में आये थे, वहीं 108 एयर होस्टेस भी ब्रेथ एनालाइजर टेस्ट में पाजिटिव पायी गई थीं। यानी उन्होंने भी शराब पी रखी थी। हवाई जहाज में बैठने वाला हर यात्री आश्वस्त होता है कि उसकी यात्रा में कोई व्यवधान और संकट नहीं आयेगा। पायलट वह शख्स होता है, जिसे विमान उड़ाने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यात्रियों की सुरक्षा की जिम्मेदारी उसके कंधों पर होती है। ऐसे में यदि वह नशे में विमान उड़ाता है तो यकीनन कुछ भी हो सकता है। नियम तो यही है कि पायलटों को उड़ान भरने से 8 घंटे पहले तक शराब नहीं पीनी चाहिए, लेकिन पीने वाले नियम-कायदों को कहां मानते हैं। उन्हें यही भ्रम रहता है कि उनके नशे में होने की किसी को खबर नहीं होगी। पीने के शौकीन पायलट अक्सर अपनी सफाई में यह कह कर खुद को बचाने की कोशिश करते हैं कि हमारी थकाने वाली यह नौकरी हमें कभी-कभार शराब पीने को मजबूर कर देती है। यह नशा उन्हें आराम और राहत देता है। कोई भी इंसान पहले शौक तथा संगत में पीना शुरू करता है, फिर धीरे-धीरे उसे पीने की लत लग जाती है, जबकि हकीकत यह है कि इस चक्कर में उसे अपनी इज़्जत, समय और कर्तव्य का भी ध्यान नहीं रहता। 

    यह सौ फीसदी सच है कि जो समय की कद्र नहीं करते उनकी बेकद्री होने में देरी नहीं लगती, जिन्हें अपने मूल दायित्व का भान नहीं रहता उन्हें वक्त भी नहीं सहता और वे लोगों की नजरों से भी गिरा देता है। जो समय की कीमत नहीं जानने, पहचाननें वालों का अंतत: कैसा हश्र होता है इसे जानने-समझने के लिए राजेश खन्ना से बेहतर कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। 

    राजेश खन्ना हिंदी सिनेमा के पहले सुपर स्टार थे। महिलाएं उनकी एक झलक पाने को तरसती थीं। कॉलेज की लड़कियां अभिनेता की कार को चूम-चूम कर लाल कर देती थीं। उनके अभिनय का अंदाज ही बड़ा दिलकश और निराला था, लेकिन जैसे-जैसे सफलता उनके कदम चूमनी गई, उनमें अहंकार और लापरवाही घर करती गयी। सर्वप्रिय राजेश खन्ना को देर रात तक यार-दोस्तों के साथ शराब की महफिलें सजाते और दोपहर में बड़ी मुश्किल से बिस्तर छोड़ पाते। सुपर स्टार को देर रात तक शराब की महफिलें जमाने और चम्मचों की वाहवाही सुनने की ऐसी लत लगी कि अभिनय के प्रति कम और नशे से लगाव बढ़ता चला गया। अत्याधिक देरी से जागने के कारण सेट पर समय पर पहुचना उनके बस में नहीं रहा। उनकी इस आदत से परेशान फिल्म निर्माता जब घड़ी देखने को कहते तो उनका जवाब होता कि घड़ी की सुइयों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। वक्त मेरे इशारे पर नाचता है। खुद को राजा समझने वाले अहंकारी राजेश खन्ना को दूसरों को ठेस पहुंचाने में बड़ा मज़ा आता था। उनकी इस आदत के कारण फिल्म निर्माता तथा उनके करीबी दोस्त भी धीरे-धीरे उनसे दूर होते चले गये। अपनी सफलता के चरम पर चम्मचों के घेरे में मदमस्त रहने वाले राजेश खन्ना के होश ठिकाने तब आए जब उनकी हां में हां मिलाने वाले भी उनसे दूर हो गये, लेकिन तब तक बहुत देरी हो चुकी थी। किसी की भी राह न देखने वाला समय अपने सुर बदल चुका था। हर नशे से मुक्त अनुशासित और समय के पाबंद अमिताभ बच्चन ने करोड़ों दर्शकों के दिलों में अपने सजीव अभिनय की बदौलत अमिट छाप छोड़नी प्रारंभ कर दी थीं। उनकी फिल्मों को देखने के लिए दर्शकों का हुजूम उमड़ने लगा था और सुपरस्टार की फिल्में लगातार पिटने लगी थीं। प्रशंसकों की भीड़ भी गायब हो चुकी थी। वक्त का उपहास उड़ाने वाले आत्ममुग्धता के रोगी अभिनेता के जीवन में एक वक्त ऐसा भी आया जब लोग उन्हें अपने बंगले के दरवाजे पर सफेद कुर्ता-पायजामा में सजधज कर खड़ा देख कर भी चुपचाप आगे बढ़ जाते थे।

Thursday, September 21, 2023

ज़लज़ला

    किसे खबर थी, ऐसा वक्त भी कभी आयेगा, जब चारों ओर सोशल मीडिया का ही शोर होगा। लोगों के पास पत्र-पत्रिकाओं, न्यूज चैनलों पर नज़रें दौड़ाने भर का ही समय बच पायेगा। ऐसा अद्भुत चमत्कार तो इलेक्ट्रानिक मीडिया भी नहीं दिखा पाया, जिसके आगमन पर प्रिंट मीडिया के खात्मे तक के दावे होने लगे थे। मुट्ठी में कैद मोबाइल से बातचीत करने के अलावा और इतना कुछ करने-कराने और पाने की कहां सोची थी आमजन ने। इंटरनेट ने तो दुनिया ही बदल दी। बड़ी से बड़ी दूरियां नजदीकियां बन गईं। जिन खबरों तथा जानकारियों को देश दुनिया तक पहुंचने-पहुंचाने में घंटों लगते थे, उन्हें सोशल मीडिया मिनटों में पहुंचाने लगा। भारत में समाचार पत्र अनेकों वर्षों तक करोड़ों लोगों की जरूरत और पसंद बने रहे। सुबह उठते ही अखबार में छपी खबरों के साथ चाय पीने का जो आनंद था, वह धीरे-धीरे कम होता चला गया। वजह रही अखबार चलाने वालों का सार्थक खबरों पर कम और विज्ञापननुमा खबरों पर अधिक ध्यान देना। उद्योगपति घरानों ने भी अखबारों को कब्जा कर जिस तरीके से चलाया वो भी सजग पाठकों को पसंद नहीं आया। सार्थक खबरों की बजाय नकारात्मक खबरों से अखबारों को भरे जाने के कारण पाठकों की प्रिंट मीडिया से दूरी बनाने की हकीकत जब संपादकों, मालिकों को समझ में आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। 

    वर्तमान में समाचार पत्रों तथा विभिन्न साहित्यिक पत्रिकाओं की जो दुर्गति दिखायी दे रही है उसकी वजह पाठकों की कमी नहीं, प्रकाशकों का धन-रोग है, जिसकी कोई सीमा नहीं। न्यूज चैनल भी शुरू-शुरू में पत्रकारिता का धर्म निभाते दिखे। उनके प्रति लोगों का रुझान देखकर ऐसे-ऐसे चेहरों ने इलेक्ट्रानिक मीडिया में घुसपैठ करनी प्रारंभ कर दी, जिनका सजग पत्रकारिता से कोई लेना-देना नहीं था। प्रिंट मीडिया की तरह इलेक्ट्रानिक मीडिया में भी भू-माफिया, कोल माफिया, शराब माफिया तथा अन्य विविध काले धंधों के सरगना अपनी-अपनी कलाकारियां दिखाने लगे। अडानी, अंबानी के साथ-साथ न जाने कितने उद्योगपतियों ने विभिन्न न्यूज चैनलों को अपने कब्जे में लेकर सिद्धांतवादी पत्रकारों, संपादकों, एंकरों को त्यागपत्र देने को विवश कर दिया। वर्तमान में भारत में नाममात्र के ऐसे न्यूज चैनल बचे हैं, जिन पर लोगों का भरोसा कायम है। कुछ अखबारों की तरह इन न्यूज चैनलों में निष्पक्ष तथा निर्भीक पत्रकारिता करने वाले अभी जिन्दा हैं। भले ही उनकी गिनती अपवादों में होती है, लेकिन उनका दमखम बुलंदी पर है। 

    देखते ही देखते लोगों के दिलो-दिमाग पर छा जाने वाले सोशल मीडिया के उफान को देखकर भी यह प्रतीत होने लगा था कि यह नया माध्यम कुछ खास साबित होगा, लेकिन इसमें भी खतरनाक तमाशेबाजी करने वालों की तादाद बढ़ने से इसे अलोकप्रिय होने में देरी नहीं लगी। शुरू-शुरू में सुलझे हुए विद्वानों की पोस्ट देख-पढ़कर ज्ञानवर्धन होता था, लेकिन अब सोशल मीडिया पर अभद्र, अश्लील पोस्ट की भरमार भयभीत भी करती है और क्रोध भी दिलाती हैं। इसमें दो मत नहीं कि सोशल मीडिया ने संचार को आसान और अत्यंत सुलभ बनाया है। फेसबुक, वाट्सएप आदि के जरिए अपनों और बेगानों के संपर्क में रहने की अभूतपूर्व सुविधा उपलब्ध करवायी है। शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, व्यापार आदि के क्षेत्रों की जानकारी का जीवंत माध्यम है सोशल मीडिया। कोरोना काल में सोशल मीडिया की उपयोगिता हम सबने देखी है और उससे लाभान्वित भी हुए हैं। कुछ विघ्न संतोषियों ने वैमनस्य का विष उगलने के लिए सोशल मीडिया को अपना हथियार बना लिया है। सांप्रदायिक तथा जातीय सद्भाव को बिगाड़ने के लिए असमाजिक और अराजक तत्व सतत सक्रिय हैं। जो सोशल मीडिया समाज की मुख्यधारा से अलग लोगों की आवाज़ बन सशक्त वरदान बन सकता उसे अभिशाप बनाने के लिए षडयंत्रों के जाल बुने जा रहे हैं। अभी हाल ही में महाराष्ट्र के सातारा जिले में सोशल मीडिया पर आपत्तिजनक पोस्ट को लेकर दो समुदायों की बड़ी तीखी झड़प होने के कारण एक व्यक्ति की मौत हो गई तथा दस लोग घायल हो गए। सोशल मीडिया की विभिन्न उत्तेजक पोस्ट के कारण देश में पहले भी मरने-मारने की कई घटनाएं मीडिया की सुर्खियां बन चुकी हैं। दरअसल, सोशल मीडिया को उत्तेजक और भ्रामक तथ्यहीन खबरें तथा अफवाहें फैलाने का मंच बनाने वालों ने यह मान लिया है कानून उनका कुछ नहीं बिगाड़ सकता। अखबारों तथा न्यूज चैनलों पर तो अंकुश लगाने का प्रावधान है, लेकिन सोशल मीडिया बेलगाम है। उत्तेजक तथा भ्रामक पोस्ट कर खुशियां मनाने वाले अपराधियों को उन्हें अच्छी तरह से पता है कि वे सूखी घास पर पेट्रोल छिड़कने का अपराध कर रहे हैं। इससे अंतत: आग दूर-दूर तक फैलने तथा पता नहीं कितनों को जलाने तथा राख कर देने वाली है। सोशल मीडिया के अत्याधिक उपयोग ने भी कई परेशानियां खड़ी करनी प्रारंभ कर दी हैं। युवाओं के साथ-साथ किशोरों के हाथ से मोबाइल छूट ही नहीं रहा है। उनका अधिकांश समय सोशल मीडिया पर ही बीत रहा है। पढ़ाई-लिखाई पीछे छूटती जा रही है। उनमें अवसाद, डिप्रेशन, चिढ़चिढ़ापन बढ़ने के साथ ही अनिद्रा, मोटापा, आलस्य बड़ी तेजी से अपना डेरा जमाने लगा है। आज सुबह-सुबह अखबार में छपी इस खबर पर दिमाग और नजरें अटकी की अटकी ही रह गईं: दिल्ली के एक शिक्षित धनवान परिवार की बच्ची जब छह महीने की थी तभी फोन के पीछे भागने लगी थी। जब तक फोन हाथ में नहीं आता था, तब तक वह रोना बंद नहीं करती थी। लिहाजा हार मानकर घर वाले उसके हाथ में कभी फोन पकड़ा देते, तो कभी गाना लगाकर चुप कराते। आज वह दो साल की हो चुकी है। फोन पर वीडियो देखे बिना वह खाना नहीं खाती। मां-बाप अपनी लाड़ली को भूखा तो नहीं रख सकते, इसलिए उसकी जिद को पूरा करने को मजबूर हैं। शिक्षित माता-पिता को अच्छी तरह से पता है कि यह आदत अत्यंत हानिकारक है। कच्ची उम्र में लगा यह रोग उम्र बढ़ने के साथ-साथ खतरनाक आदत में तब्दील होना ही है। डॉक्टरों के अनुसार एक से तीन साल की उम्र तक बच्चे के दिमाग का विकास बड़ी तेजी से होता है। इस दौरान वह उठना, बैठना, चलना तो सीखता ही है, उसके साथ ही उसकी सेंसरी मोटर और सोशल ऐक्टिविटीज भी विकसित होती हैं, लेकिन जब इस उम्र में बच्चे फोन में ही उलझ जाएं तो सोचिए, उनका भविष्य कैसा होगा? माना कि युवाओं और किशोरों को समझाना मां-बाप के बस की बात नहीं रही, लेकिन मासूम बचपन पर वक्त रहते यदि वे चाहें, तो पाबंदी लगा सकते हैं। बच्चा रोयेगा, गायेगा अंतत: चुप हो जाएगा। नहीं भी मानेगा तो भी कोई भूचाल तो नहीं आ जाएगा। असली भूचाल और ज़लज़ला तो तब आयेगा जब यही बचपन किशोर होने पर मोबाइल के लिए माथा पटकेगा। आत्महत्या करने की धमकियां देगा या फिर खुदकुशी कर अखबार की खबर बन जाएगा...।

Thursday, September 14, 2023

देर भी, अंधेर भी

    जब किसी ने कोई अपराध किया ही न हो, लेकिन उसे सज़ा भुगतनी पड़े तो उसकी पीड़ा दूसरों को कहां पता चल पाती है! जो सहता है, वही जानता है। बाकी के लिए तमाशा है। किस्मत का खेल है। अपनी ही रंगीनियों में खोये बहुतों को तो खबर ही नहीं कि अपने भारत का कानून कई कारणों से हर किसी को न्याय नहीं दे पाता। उसे भी विवशताओं की जंजीरों में जकड़ दिया गया है। उसके समक्ष ऐसा घना अंधेरा है, जो कभी हटता है तो कभी हमेशा के लिए कायम रहते हुए निर्दोष की जिन्दगी तबाह कर देता है। बार-बार पढ़ी-सुनी कहावत है कि ऊपर वाले के यहां देर है, पर अंधेर नहीं। मुझे भी अपने बुजुर्गों के द्वारा अनुभवों से रची इस कहावत पर बहुत यकीन था, लेकिन अब उतना नहीं रहा। भारतीय जेलों में वर्षों से लाखों बेकसूर कैद हैं। उनकी सुनने वाला कोई नहीं। देश के न्यायालयों में लंबित पड़े मामलों का आंकड़ा 4 करोड़ के आसपास पहुंच चुका है। अब तो यह भी कहने-सुनने में आने लगा है कि अन्य महंगी वस्तुओं की तरह न्याय को भी खरीदा और भटकाया जा सकता है। बस जेब में दम और जुगाड़ की कला का ज्ञान होना चाहिए।

    कुछ वर्ष पूर्व शहर में एक गुंडे ने भरे चौराहे पर अपने विरोध में गवाही देने वाले कॉलेज छात्र की हत्या कर दी थी। नंगी तलवार के अनेकों वार से की गई इस नृशंस हत्या को कई लोगों ने अपनी आंखों से देखा था, लेकिन हत्यारा अदालत से इसलिए बरी हो गया, क्योंकि उसके खिलाफ किसी चश्मदीद ने गवाही ही नहीं दी। वो कुख्यात गुंडा किसी का दोस्त तो किसी का रिश्तेदार था। यहां कोई भी किसी अपने का बुरा होते नहीं देखना चाहता। उसकी हिफाजत के लिए किसी भी हद तक गिरना मंजूर है। सच का साथ देकर दुश्मनी मोल लेने से अधिकांश भारतीय घबराते हैं, लेकिन जब खुद पर आती है तो शिकायती भाषणबाजी सूझती है। अपराध और अपराधियों पर नज़र रखना खाकी वर्दी वालों का मूल दायित्व है। चोर, लुटेरों, डकैतों, बलात्कारियों की शिकायतें लेकर आमजन इसलिए पुलिस के पास जाते हैं, ताकि उन्हें सुरक्षा और इंसाफ मिले और अपराधियों को कठोर दंड मिले। पुलिस थाने इंसाफ के प्रथम द्वार हैं, लेकिन यह दरवाजे सभी के लिए नहीं खुलते। बड़ा भेदभाव होता है यहां।

    अधिकांश खाकी वर्दीधारी किसी न किसी रूप में अपराधियों के साथ दोस्ती-यारी निभाने में अग्रणी हैं। धन की चमक के समक्ष उनका ईमान डोलने में देरी नहीं लगती। देखने और सुनने में तो यह भी आता है कि कुछ पुलिस अधिकारी ही संगीन अपराधियों को बचने-बचाने के मार्ग सुझाते हैं। अभी हाल ही में ही संतरा नगरी नागपुर में दस साल की बालिका को बंधक बनाकर उसका यौन शोषण करने वाले प्रापर्टी डीलर अरमान को पुलिस ने गिरफ्तार किया। रईस अपराधी को पूछताछ के नाम पर अधिकारी के कक्ष में ऐसे बिठाया गया, जैसे वह सरकारी मेहमान हो। अरमान से मेल-मुलाकात करने के लिए बिना किसी रोकटोक के उसके मित्र तथा रिश्तेदारों का वहां आना-जाना लगा रहा। उसके लिए लजीज खाने-पीने की व्यवस्था में कोई कमी नहीं थी। पुलिस हिरासत में भी वह मोबाइल पर अपने घरवालों तथा मित्रों से बातें करने के लिए स्वतंत्र था। दूसरों को अपना गुलाम समझने वाले अरमान के परिवार के द्वारा 2019 में बच्ची को बेंगलुरु से खरीदकर लाया गया था। तब वह मात्र छह वर्ष की थी। उसके गरीब माता-पिता को आश्वासन दिया गया था कि उनकी बच्ची के भविष्य को पढ़ा-लिखा कर संवारा जाएगा, लेकिन ऐसा बिलकुल नहीं हुआ। मासूम को स्कूल भेजने की बजाय घर की साफ-सफाई तथा अन्य भारी-भरकम कामों में लगा दिया गया। कालांतर में अरमान की वासना भरी निगाह बच्ची पर पड़ी तो उससे दुष्कर्म भी किया जाने लगा। बच्ची विरोध करती या उससे काम में थोड़ी सी भी चूक अन्यथा गलती होती तो गर्म तवे तथा सिगरेट के चटके उसके शरीर पर लगाये जाते। बेबस बच्ची दरिंदों के अथाह जुल्म सहने को विवश थी। यह तो अच्छा हुआ कि कुछ दिन पहले जब उसे बाथरूम में बंद कर पूरा परिवार बेंगलुरु घूमने-फिरने गया था, तब अंधेरे में घबरायी बच्ची खिड़की से कूदने में कामयाब हो गई और इतना क्रूर शर्मनाक सच सामने आ पाया। 

    त्रिपुरा में स्थित है शहर अगरतला। इस महान नगरी की एक जननी का अभिनंदन, जिसने अपने ही बेटे को सज़ा दिलाने के लिए कोर्ट में गवाही देकर आजीवन कारावास की सज़ा दिलवायी। ‘सच’ का साथ देने वाली इस दिलेर मां ने भरी अदालत में बिना घबराये कहा कि ऐसी बेरहम औलाद तो बार-बार फांसी की हकदार है। 

    सफाई कर्मचारी के तौर पर काम करने वाली 55 वर्षीय विधवा महिला कृष्णादास की नमितादास के बेटे सुमन ने अपने दोस्त चन्दनदास के साथ मिलकर गला घोंटकर हत्या कर दी थी। मौत के मुंह में सुलाने से पहले दोनों ने उस पर बड़ी बेरहमी से बलात्कार भी किया। दोनों हत्यारों के खिलाफ किसी ने भी गवाही देने का साहस नहीं दिखाया। ऐसे में इस नमितादास यानी मां ने ही हिम्मत दिखायी। इस साहसी मां ने मोह-माया की जंजीरों को तोड़ते हुए कहा कि वह सिर्फ सच्चाई का ही साथ देंगी। उन्हें पता है कि उसके बेटे ने ही अपने दोस्त के साथ मिलकर असहाय महिला की अस्मत लूटने के बाद मौत के घाट उतारा है। 

    इस प्रेरणास्त्रोत मां की बस यही इच्छा है कि हर ऐसी औलाद को फांसी के फंदे पर लटकाया जाए, ताकि दूसरे अपराधियों के भी होश ठिकाने आएं।

Wednesday, September 6, 2023

खरी-खरी

    भारत के वर्तमान प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सत्ता से हटाने के लिए विपक्षी नेता कमर कस चुके हैं। ऐसा ही कभी इंदिरा गांधी को सत्ता से दूर करने के लिए तत्कालीन विपक्ष के नेताओं ने जोर आजमाया था। सत्ता भी उनके हाथ लगी थी, लेकिन पीएम की कुर्सी की लड़ाई में अंतत: हंसी के पात्र बन कर रह गये थे। इंदिरा गांधी की तरह नरेंद्र मोदी पर भी तानाशाही से शासन चलाने के आरोप हैं, लेकिन फिर भी दोनों में जमीन-आसमान का फर्क है। इंदिरा गांधी ने विपक्ष की आवाज को पूरी तरह से दबाने के लिए आपातकाल तक लगा दिया था। लगभग सभी विपक्ष के दिग्गज नेताओं को जेलों में ठूंस दिया था। प्रेस पर भी नियंत्रण की तलवारें लटका दी थीं। इंदिरा गांधी के बरपाये आपातकाल का यशगान करने वाले संपादकों, पत्रकारों, बुद्धिजीवियों के लिए रंगीन कालीन तो विरोध में खड़े योद्धाओं के लिए सजाएं निर्धारित कर दी थीं। तब के सच्चे जननायक, विद्रोही नेता राज नारायण की याचिका पर इलाहाबाद हाईकोर्ट के जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी को 1971 के लोकसभा चुनाव में भ्रष्ट आचरण का दोषी ठहराया था, जिससे उनका माथा ठनक गया था और विरोधियों को दबाने के लिए आपातकाल की विनाशी राह चुनी थी। 

    इंदिरा गांधी की तरह नरेंद्र मोदी भी दूसरों की कम सुनते हैं, लेकिन वे अंधे और बहरे नहीं हैं। हमेशा सचेत रहते हैं। उनके नेतृत्व में एनडीए सतत एकजुट है। इंदिरा गांधी परिवार के मोह की जबर्दस्त कैदी थीं। गांधी परिवार की यह परिपाटी आज भी बरकरार है। इंदिरा गांधी के पुत्र संजय गांधी ने अपनी मां के शासन काल में गुंडागर्दी और मनमानी की छूट हासिल कर रखी थी। अक्सर लोग सोचने को विवश हो जाते थे कि देश की प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी हैं या उनके बेटे, जिनका दूर-दूर तक आतंक और खौफ था। अपनी मां को इमरजेंसी लगाने की पुरजोर सलाह भी संजय गांधी ने ही दी थी, जिसे तुरंत स्वीकार कर लिया गया था। सच कहें तो कांग्रेस के पतन की शुरुआत भी तभी हो गई थी। नरेंद्र मोदी के सत्ता पर काबिज होने से पहले दस वर्ष तक मनमोहन सिंह देश के प्रधानमंत्री रहे। सोनिया गांधी और राहुल गांधी उनको अपने इशारों पर नचाते रहे। उन्हीं के कार्यकाल में प्रियंका गांधी के पति राबर्ट वाड्रा ने जिन तरीकों से अरबों रुपयों का साम्राज्य खड़ा किया, कौन नहीं जानता। नरेंद्र मोदी के केंद्र की सत्ता पर सत्तासीन होने तथा गुजरात के कई वर्षों तक मुख्यमंत्री रहने के दौरान उनके किसी परिजन ने सत्ता का लाभ नहीं उठाया। उनके भाई-बहन तथा सभी रिश्तेदार कल जैसी आर्थिक हालत में थे, आज भी वैसे ही हैं। रही बात अडानी और अंबानी की तो दोनों पहले से ही धनपति रहे हैं। हर सरकार से अपना काम निकलवाना उन्हें आता है।  

    भारत को दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनाने की ओर कदम बढ़ाते पीएम नरेंद्र मोदी का 9 वर्ष का कार्यकाल पूरी तरह से निराशाजनक तो कतई नहीं कहा जा सकता।  नरेंद्र मोदी अति आत्मविश्वासी हैं। चापलूसों से दूर रहते हैं। उनके इसी गुण को विरोधी उनका अहंकार मानते हैं। कुछ गिने-चुने पत्रकारों को भी वे दंभी लगते हैं। दरअसल, मोदी दूसरे पूर्व के प्रधानमंत्रियों की तरह मीडिया को ज्यादा भाव नहीं देते। सिर्फ अपने काम से मतलब रखते हैं। 

    यकीनन, बेतहाशा बढ़ती महंगाई और बेरोजगारी ने देशवासियों को निराश किया है। आम आदमी के लिए रोजी-रोटी तथा रोजगार प्राथमिक जरूरत हैं। पुल, सड़कें, मेट्रो, वंदेभारत ट्रेन, चंद्रमा पर झंडा फहराना, अयोध्या में राम मंदिर बनवाना तथा जम्मू-कश्मीर से धारा 370 को हटाना तभी सुकूनदायी है, जब उसकी झोली मूलभूत आवश्यकताओं से परिपूर्ण हो। 2014 में भारतीय जनता पार्टी की सरकार बनने के बाद देशवासियों को जिस भरपूर बदलाव की आशा थी वह पूरी तरह से नहीं हो पाया, लेकिन उम्मीदें पूरी तरह से धराशायी भी नहीं हुई हैं। आशा का दीपक रौशन है। मोदी के कार्यकाल में ही कोरोना की महामारी देशवासियों के हिस्से में आयी। लगभग दो साल इसी से लड़ते-लड़ते बीते। पीएम कहीं भी कमजोर नहीं पड़े। नरेंद्र मोदी जैसा कर्मवीर प्रधानमंत्री पहले देखने में नहीं आया। नरेंद्र मोदी और भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता से हटाने के लिए जो दल और नेता बेचैन हैं उनमें भिन्न-भिन्न तरह से दागी भी शामिल हैं। कुछ पर भ्रष्टाचार के संगीन आरोप हैं। आम जनता में उनकी छवि अच्छी नहीं है। फिर भी वे पीएम बनने का सपना देख रहे हैं। विपक्षी पार्टियों के गठबंधन (इंडियन नेशनल डेवलपमेंटल इंक्लूसिव अलायंस) इंडिया को दिल्ली बहुत नजदीक दिखायी दे रही है। इस सदी के सबसे भ्रष्ट नेता लालू प्रसाद यादव, जिन्होंने जानवरों का चारा तक पचा डाला, रेलवे में नौकरी देने की ऐवज में गरीबों, पिछड़ों की जमीने अपने नाम लिखवा लीं। वह आज नरेंद्र मोदी की गर्दन नोचने की दहाड़ लगाकर हीरो बनने की कोशिश में हैं। लालू की तरह और भी कुछ चेहरे हैं, जो हद दर्जे के भ्रष्ट होने के बावजूद इंडिया गठबंधन में शामिल हैं। 

    रही बात राहुल गांधी की तो उन्होंने भारत जोड़ो यात्रा में खून-पसीना बहाकर अपने दमखम को दिखा दिया है। जो लोग कल तक उन्हें ‘पप्पू’ कहते थे आज उनकी तारीफ करने लगे हैं। राजनीति में अपनी पैठ जमाने के लिए राहुल ने पिछले तीन-चार वर्ष में भाग-दौड़ कर देशवासियों से जो प्रभावी मेल-मिलाप किया है उससे यकीनन उनका कद बढ़ा है। झुकने की बजाय लड़ाई लड़ने की जिद ने उन्हें ऊंचा उठाया है। विपक्षी दलों के नेता राहुल गांधी के कंधे पर ही बंदूक रखकर बड़े-बड़े सपने देख रहे हैं। आपातकाल से देशवासियों को आहत करने वाली इंदिरा गांधी को जिस जनता दल ने लोकसभा की 298 सीटें जीतकर सत्ता से दूर किया था, उसमें एक से एक कद्दावर नाम शामिल थे। जयप्रकाश नारायण, लाल कृष्ण आडवाणी, चंद्रशेखर, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नांडीस चंद्रशेखर, ग्वालियर की राजमाता विजय राजे सिंधिया, मोरारजी देसाई जैसे निस्वार्थ नेताओं पर देश के बच्चे-बच्चे तक को अपार भरोसा था। मोदी को हटाने के लिए बने ‘इंडिया’ में शामिल पांच-सात को छोड़कर बाकी सभी पीएम की कुर्सी के लिए पगलाये हैं। वहीं कुछ को अपनी औलादों को येन-केन-प्रकारेण सत्ता की शाही कुर्सी पर बिठाने की जल्दी है...।