Thursday, December 31, 2015

आम आदमी के मन की डायरी का पन्ना

२०१६ को सलाम। आखिर गुजर ही गया २०१५ । हर साल ऐसे ही गुजर जाता है। अधिकांश उम्मीदें और सपने धरे के धरे रह जाते हैं। वैसे २०१५ ने कुछ ज्यादा ही सपने दिखाये थे। देश के हर आम आदमी को बहुत बडे बदलाव की आशा थी। नरेंद्र मोदी जी ने केंद्र की सत्ता पाने से पूर्व वादा किया था कि जो काम कांग्रेस वर्षों तक नहीं कर पायी उसे वे चंद महीनों में करके दिखा देंगे। जनता कांग्रेस के निठल्लेपन से परेशान थी इसलिए उसने भाजपा के सर्वेसर्वा मोदी पर आंख मूंदकर भरोसा कर लिया। सभी को यही लग रहा था कि यह बंदा कुछ खास है। इसकी सोच और बातों में दम है। यह दूसरे पेशेवर नेताओं जैसा नहीं दिखता। देखते ही देखते... १८ माह से ज्यादा का वक्त गुजर गया, लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं हुआ, जो इस देश के दबे-कुचले आम आदमी के चेहरे पर मुस्कराहट और महान मोदी के सत्तासीन होने का खुशनुमा अहसास दिला पाता। निरंतर बढती महंगाई और लडखडाती कानून व्यवस्था ने लोगों का मोहभंग कर दिया है। सत्ताधीशों के चेहरे बदल गये हैं, देश के हालात नहीं बदले। गरीब वहीं के वहीं हैं। अमीर छलांगें मारते हुए आर्थिक बुलंदियों के शिखर को छूते चले जा रहे हैं। मन-मस्तिष्क में बार-बार यह सवाल खलबली मचाता है कि इस देश के आम आदमी को कब तक छला जाता रहेगा? राजनेताओं की ऐसी कौनसी विवशता है कि सत्ता तो वे गरीबों की भलाई के वायदे के दम पर पाते हैं, लेकिन आखिरकार धनपतियों के ही होकर रह जाते हैं। आम आदमी की इच्छाएं और जरूरतें ऐसी भी नहीं कि शासक उन्हें पूरा न कर पाएं। पता नहीं ईमान की नैया कहां, क्यों और कैसे डोल जाती है? सत्ता के दलालों, धन्नासेठों, नेताओं और उद्योगपतियों की ही हर बार किस्मत चमक जाती है। गरीब खोटे सिक्के बनकर रह जाते हैं। यह कैसी विडंबना है कि आजादी के ६७ साल बाद भी देश की आधी से ज्यादा आबादी चिंताजनक बदहाली का शिकार है। इस देश का आम आदमी, गरीब आदमी मेहनत, मजदूरी करने में कोई संकोच नहीं करता, लेकिन उसके पास रोजगार का अभाव है। अशिक्षा ने उसके पैरों में बेडियां बांध रखी हैं। वह स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित है। उसके पास रहने को घर नहीं है। जितना कमाता है उतने में दो वक्त की रोटी नहीं जुटा पाता। न जाने कितने बच्चे शिक्षा के अभाव में अपराधी बन जाते हैं। स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी बीमार बनाये रखती है। महंगाई की मार जीते जी मार देती है। मोदी जी ने अच्छे दिन लाने का वादा किया था। कहां हैं वो अच्छे दिन? चंद लोगों की खुशहाली अच्छे दिन आने की निशानी नहीं हो सकती। नगरों-महानगरों का कायाकल्प, स्मार्ट सिटी, मेट्रो ट्रेन, बुलेट ट्रेन आदि पर अरबों-खरबों फूंकने से पहले उन भारतीयों की झुग्गी-झोपडियों में भी ताक लें जहां न पानी है और न ही बिजली। इक्कीसवीं सदी में भी उन्हें सोलहवीं सदी के आदिम युग में घुट-घुट कर जीना पड रहा है। अच्छे दिन तो वाकई तब आयेंगे जब देश के करोडों-करोडों बदनसीबों को खुले आसमान के नीचे भूखे पेट नहीं सोना पडेगा। बहन, बेटियां और माताएं खुद को सुरक्षित महसूस करती हुर्इं किसी भी समय कहीं भी आ-जा सकेंगी। अभी तो हालात यह हैं कि कानून के रक्षक कमजोर और कानून के साथ खिलवाड करने वाले अपार बलशाली बने फिरते हैं। सफेदपोश रसूखदार अपराधी किसी से नहीं डरते। शासन और प्रशासन को अपने इशारों पर नचाते हैं। जिनकी पहुंच नहीं उन्हें कोई नहीं पूछता। प्रधानमंत्री जी ने यह ऐलान भी किया था कि 'न खाऊंगा, न खाने दूंगा।' पीएम साहेब हमें आपके ईमानदार होने पर कोई संदेह नहीं है, लेकिन आपके राज में भी खाने-खिलाने का चलन बदस्तूर जारी है। आपके सत्तासीन होने के पश्चात भी जन्मजात भ्रष्टाचारियों और रिश्वतखोरों में कोई बदलाव नहीं आया है। पहले वे पूरी तरह से निश्चिंत थे, लेकिन अब वे अपना काम काफी सतर्कता के साथ करते हैं। देश का अन्नदाता अभी भी निराशा के चंगुल में फंसा छटपटा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब किसी-न-किसी प्रदेश से किसानों की आत्महत्या की खबर न आती हो। नक्सलियों के खूनी तेवरों में भी कोई बदलाव नहीं आया है। यह तस्वीर भी कम नहीं चौंकाती की आजाद भारत में भिखारियों की संख्या में इजाफा होता चला जा रहा है। ताजा सर्वेक्षण बताता है कि अपने देश में लगभग चार लाख लोग भीख मांग कर जीवन की गाडी खींच रहे हैं। ८० हजार भिखारी तो ऐसे हैं, जो १२वीं पास से लेकर बी.ए., बी.काम और एम.काम हैं। यह लोग अपनी पसंद से भिखारी नहीं बने हैं। अनेक युवा भी नक्सली बनकर खुश नहीं हैं। जिस देश में करोडों लोग नाउम्मीद और नाखुश हों, वहां तथाकथित बदलाव और तरक्की के कोई मायने नहीं हैं। जहां बचपन ही बीमार, सुविधाहीन और दिशाहीन हो वहां की जवानी कैसी होगी? देश का भविष्य कैसा होगा? हिन्दुस्तान की राजधानी से लेकर लगभग हर प्रदेश में अपराधों के आंकडों में आता भयावह उछाल यही बताता है कि जो कमी और गडबडी कल थी, आज भी बरकरार है। भारत का हर आमजन सर्वप्रथम मूलभूत सुविधाओं का अभिलाषी है। हर किसी को रोटी, कपडा और मकान मुहैया कराये जाने के आश्वासन सुनते-सुनते लोगों के कान पक गये हैं। आमजन को उसके हक से कब तक वंचित रखा जायेगा? बाल मजदूरी, बच्चियों और महिलाओं के साथ दुराचार और लगातार बढते अपराध भारत की पहचान बन गये हैं। अल्पसंख्यकों, दलितों और शोषितों पर जुल्म ढाने वालों के हौसलों में कोई कमी न आना भी यह दर्शाता है कि उन्हें कहीं न कहीं सत्ताधीशों की शह मिली हुई है। फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के प्रति अभी भी अधिकांश लोग आशावान हैं। वक्त गुजरता चला जा रहा है। यदि समय रहते उन्होंने खास लोगों के साथ-साथ आम लोगों के हित में बहुत कुछ कर दिखाने की राह पर कदम नहीं बढाया तो इतिहास उन्हें भी कभी माफ नहीं करेगा।

Thursday, December 24, 2015

अब और मत लो सब्र का इम्तहान

अभी तक ऐसा कोई यंत्र या पैमाना नहीं बना जो इंसान की पूरी पहचान करवा सके। उसके अंदर के संपूर्ण सच को उजागर कर सके। दुनियादारी के हर दांवपेंच से वाकिफ भुक्तभोगियों और जानकारों का भी यही कहना है कि हर आदमी के अंदर कई-कई आदमी होते हैं, इसलिए अगर उसे पूरी तरह से समझना हो तो कई-कई बार देखना और परखना चाहिए। यानी जो दिखता है वो पूरा सच नहीं होता। उसके पीछे भी बहुत कुछ होता है जिसे देखा नहीं जाता, या फिर नजरअंदाज कर दिया जाता है। यही दुनिया का दस्तूर है। पूरा सच जानने की फुर्सत ही नहीं। कहते हैं बच्चों से भोला और कोई नहीं होता। जिसने भी दुलारा-पुचकारा उसी के हो लिए। करीबी रिश्तेदारों और पास-पडोस के चाचा-मामा के निकट जाने में तो बच्चे किंचित भी देरी नहीं लगाते। उनकी निकटता में उन्हें स्नेह और अपनत्व के साथ-साथ भरपूर सुरक्षा का एहसास होता है, लेकिन यही बच्चे जब छल-कपट और धोखे के शिकार हो जाते हैं तो उन पर क्या बीतती होगी? बडे तो धोखेबाजों से बचने के तौर-तरीके जानते हैं, लेकिन बेचारे मासूम बच्चे... उनकी तो जैसे बलि ही ले ली जाती है। वाकई... यह सच कितना चौंकाने वाला है कि केवल दिल्ली में ही पिछले ११ महीनों में दो से बारह साल की मासूम बच्चियों के साथ बलात्कार के २४० मामले दर्ज किये गये। इसमें से १२५ ऐसे मामले हैं जहां पीडिता की उम्र महज दो से सात साल के बीच है। इसके अलावा सात से बारह साल की बच्चियों पर दुष्कर्म का जुल्म ढाने के ११६ मामले सामने आये। बारह मामले तो ऐसे सामने आये, जहां दो साल से कम उम्र की बच्चियों को अपनी हैवानी हवस का शिकार बनाया गया। यह तो मात्र दिल्ली के आंकडे हैं। देश के विभिन्न प्रदेशों में प्रतिवर्ष हजारों की संख्या में ऐसी घिनौनी हरकतों को अंजाम दिया जाता है। मासूम बच्चियों पर होने वाले ज्यादातर बलात्कार के मामलों की आहट तक पुलिस थानों में नहीं पहुंच पाती। कई मामले तो खुद पुलिस वाले ही लेन-देन कर रफा-दफा कर देते हैं। दबे-छिपे जुल्म का वहशी कारोबार चलता रहता है। अधिकांश बलात्कारी नजदीकी रिश्तेदार और आसपास के जाने-पहचाने चेहरे होते हैं जिन पर भरोसे का ठप्पा लगा होता है। यह सवाल मुझे हमेशा परेशान करता रहता है कि हंसती-खेलती चिडिया-सी फुदकती बच्चियों के जीवन में अनंत काल के लिए उदासी, ठहराव और अंधेरा भर देने वाले शैतानों को सुकून की नींद कैसे आती होगी? ...वे इस शर्मनाक अपराधबोध से छुटकारा पाते हुए अपने अंदर के मानव से नज़रें मिला पाते होंगे?
देश में बच्चियों पर बढते बलात्कारों की सुर्खियों में छपी खबरों की भीड से हटकर हाशिये में छपी एक खबर ने यकीनन मुझे मेरे सवाल का जवाब देने के साथ-साथ और कई सवालों के बीच ले जाकर खडा कर दिया। खबर कुछ इस तरह थी: 'राजधानी दिल्ली में दुष्कर्मी मासूम बेटियों को भी नहीं बख्शते। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब बच्चियों पर निर्मम बलात्कार की खबर सुर्खी न पाती हो। इसी कडी में दिल्ली की स्लाइट कालोनी में भारतीय वायुसेना के भूतपूर्व अफसर ने अपने भाई के मकान में रहने वाले किरायेदार की आठ साल की बच्ची पर बलात्कार कर मानवता को कलंकित कर डाला। कुकर्म करने के पश्चात उसकी चेतना जागी। एक नादान बच्ची के साथ उसने यह क्या कर डाला! उसे अपराधबोध ने पूरी तरह से जकड लिया। बार-बार उस मासूम का चेहरा उसके सामने आने लगा। वह छोटी-नन्ही-सी बच्ची उसे अंकल...अंकल कहते नहीं थकती थी। जब कोई उसे डांटता था तो अंकल की गोद में आकर बैठ जाती थी। अंकल की छात्र-छाया से बढकर कोई और सुरक्षित जगह नहीं थी उसके लिए।उसके प्यारे अंकल इतना घिनौना कृत्य कर सकते हैं यह तो उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी। इस उम्रदराज बलात्कारी ने अपने 'कुकर्म' के बारे में अपने भाई को अवगत कराया और यह भी कहा कि उससे बहुत बडी गलती हो गयी है। वह बहुत शर्मिंदा है। अब वह जीना नहीं चाहता। भाई को उसने यह भी बताया कि वह आत्महत्या करने जा रहा है। भाई उसे रोक पाता या पुलिस तक खबर कर पाता उससे पहले ही प्रायश्चित की आग में झुलस रहे बलात्कारी ने रेल के नीचे आकर आत्महत्या कर ली।' यकीनन यह खबर भी अपवाद है और बलात्कारी भी। अधिकांश बलात्कारी अपने विवेक को ताक पर रख देते हैं और बेखौफ होकर दुष्कर्म करते चले जाते हैं। उन्हें इस बात की चिन्ता नहीं होती कि कानून और समाज उनके साथ कैसा बर्ताव करेगा। निर्भया कांड के प्रबल सहभागी नाबालिग बलात्कारी की रिहायी तो हो गयी, लेकिन उसके प्रति किसी को भी कोई सहानुभूति नहीं। जिस गांव में वह जन्मा, उस गांव के लोग कतई नहीं चाहते कि वह गांव की जमीन पर कदम रखे। देश और दुनिया की अपार नफरत झेलते इस दुराचारी को भी खुद की रिहायी खुशी नहीं दे पायी। वह जानता है कि लोग उससे बेहद खफा हैं। इसलिए वह जेल से बाहर आने से भी कतराता और घबराता रहा। गुस्साये लोगों के हाथों पिटने या मार गिराये जाने का डर अभी भी उस पर हावी है। गांववासी कहते हैं कि इस दरिंदे बलात्कारी को अदालत ने भले ही छोड दिया है, मगर गांव में घुसना तो दूर, उसे आसपास भी नहीं फटकने दिया जायेगा। इस शैतान ने गांव की साख को जो बट्टा लगाया है उससे गांव का हर शख्स शर्मसार है। गांव के बुजुर्गों की पीडा को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। वे कहते हैं कि इस छोकरे के कारण हमें जहां-तहां सिर झुकाने को विवश होना पडता है। लोग हमें हिकारतभरी नजरों से देखते हैं। कुछ गांव वालों को हैरानी भी होती है कि उनके गांव के सीधे-सादे बच्चे ने इतना घिनौना दुष्कर्म कैसे कर डाला। गांव का बच्चा दस साल की उम्र में दिल्ली में कमाने-खाने गया था। शुरू-शुरू में उसने होटलों में बर्तन साफ किये, मेहनत-मजदूरी की और कमायी का अधिकांश हिस्सा मां-बाप के हवाले कर अच्छे पुत्र का फर्ज निभाया। वह जैसे-जैसे बडा होता गया उसके काम-धंधे बदलते गये। धीरे-धीरे गलत संगत में भी पड गया। बस में हेल्परी के दौरान शराब पीने की आदत भी पाल ली। एक अच्छे-भले लडके के खूंखार अपराधी-बलात्कारी बनने की काली-कथा में जो कटु सच छिपा है क्या उस पर इस देश के नेता, चिंतक, विद्वान और सत्ताधीश कोई सार्थक विचार कर बचपन को भटकने की राह पर जाने से बचाने की कोई पहल करेंगे भी या सिर्फ बातें ही होती रहेंगी? इस सच को जान लें कि चाहे कितने भी कानून बन जाएं, कुछ खास नहीं बदलने वाला। जब तक गैरबराबरी, शोषण, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी का खात्मा नहीं होता तब तक अपराधी बनते और पनपते रहेंगे। अभी भी वक्त है...शासको होश में आओ... देशहित और जन-जन के हित की मात्र सोचो ही नहीं, कुछ करके भी तो दिखाओ। निकम्मे शासकों को झेलते-झेलते देश और देशवासी थक चुके हैं। गुस्सा घर कर चुका है। सब्र खत्म होता चला जा रहा है...।

Thursday, December 17, 2015

कहां हैं चम्बल के डाकू?

जहां देखो वहां तनातनी। अहंकार, गुस्सा, बदजुबानी और भी बहुत कुछ। कल तक जो शालीनता का आवारण ओढे थे, वे भी नंग-धडंग होने लगे हैं। सत्ता और राजनीति जंग का अखाडा बन गयी है। मर्यादा की धज्जियां उडायी जा रही हैं। समाजसेवी अन्ना हजारे के चेले अरविंद केजरीवाल राजनीति में पदार्पण करने से पूर्व शासकीय अधिकारी थे। उनकी ईमानदारी और स्वच्छ छवि दिल्ली वासियों को भायी और वे बडे-बडे-सूरमाओं को धूल चटाकर दिल्ली की सत्ता पाने में सफल हो गये। पहले जब वे भ्रष्टाचार, अनाचार के खिलाफ ताल ठोकते थे तो उनका एक-एक शब्द लोगों के दिलों में उतर जाता था। इसी कमाल ने उन्हें देश का लोकप्रिय नेता बनाया। दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद केजरीवाल में जो बदलाव आये हैं, वे उन्हें उन पेशेवर मतलबपरस्त नेताओं की भीड में शामिल कर रहे हैं, जिन्हें आम जन तरह-तरह की गालियों से नवाजते हैं। मुख्यमंत्री केजरीवाल के प्रधान सचिव के यहां केंद्रीय जांच ब्यूरो के द्वारा छापा मारे जाने के बाद उन्होंने जिस तरह से हो-हल्ला मचाया वह बहुतेरे देशवासियों को रास नहीं आया। उन्हीं का प्रधान सचिव रिश्वतबाजी के खेल खेल रहा था और वे अनभिज्ञ रहे? एक चरित्रवान मुख्यमंत्री ने संदिग्ध अधिकारी को अपने निकट ही क्यों आने दिया? अरविंद ने जिस अंदाज में नरेंद्र मोदी पर निशाना साधा और उन्हें कायर और मानसिक रोगी कह कर अपना गुस्सा उतारा इससे यकीनन उन्होंने अपने कद को छोटा करने की भूल की। देश की आम जनता अपने प्रधानमंत्री के खिलाफ ऐसे अपमानजनक शब्दों को बर्दाश्त नहीं कर सकती। भ्रष्टाचार मुक्त शासन और प्रशासन की पैरवी करने वाले केजरीवाल के द्वारा दागी आईएएस अधिकारी राजेंद्र कुमार के खिलाफ आवाज बुलंद करने की बजाय सीबीआई को कोसना उनके शुभचिंतकों को भी अंदर तक हिला गया।
अदालत ने जैसे ही कांग्रेस सुप्रीमो सोनिया गांधी और उनके लाडले राहुल गांधी को कोर्ट में पेश होने के निर्देश दिए तो मां-बेटे गुस्से से लाल-पीले हो गये। यहां तक कि संसद की कार्यवाही को भी बाधित कर दिया गया। सोनिया गांधी और उनकी मंडली खुद को कानून से ऊपर मानती है। उन पर नेशनल हेराल्ड की सम्पत्ति में लगभग पांच हजार करोड रुपये के घोटाले का संगीन आरोप है। न्यायालय ने सोनिया-राहुल को १९ दिसंबर को न्यायालय में हाजिर होने का आदेश क्या दिया कि उन्हें इसमें भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की साजिश नजर आयी! सोनिया बहुत शालीन महिला मानी जाती हैं। उनके आसपास २४ घण्टे जाने-माने वकीलों की फौज रहती है। कानून तो अपना काम करता है। उसका राजनीति से क्या लेना-देना। किसी जमाने की अनाडी सोनिया अब राजनीति के सभी दांवपेंच सीख चुकी हैं। तभी तो उन्होंने अकड और अहंकार से ओतप्रोत यह बयान उछालने में देरी नहीं लगायी कि 'मैं किसी से डरती नहीं हूं, मैं इंदिरा गांधी की बहू हूं।' आखिर भारत की पूर्व प्रधानमंत्री का नाम लेकर वे किसे डराना चाहती हैं? इतिहास गवाह है कि जब इंदिरा गांधी के खिलाफ इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने निर्णय दिया था तो वे भी इसी तरह से बौखला उठी थीं। इसी बौखलाहट के परिणाम स्वरूप ही उन्होंने देश में आपातकाल लागू कर अपने विरोधियों को जेल में ठूंस दिया था। आपातकाल के काले दिनों का खौफ आज भी देशवासियों के दिलों में ताजा है। २५ जून १९७५ से लगा आपातकाल १९७७ में खत्म हुआ था। आम चुनावों में कांग्रेस की तो दुर्गति हुई ही थी, इंदिरा गांधी को भी कम बदनामी नहीं झेलनी पडी थी। जब बात निकलती है तो दूर तक जाती ही है। उसका असर भी होता है। कहीं थोडा, कहीं ज्यादा। इसलिए तो बडे-बुजुर्ग कहते हैं कि जो भी बोलो, सोच समझ कर बोलो। कहीं ऐसा न हो कि लेने के देने पड जाएं, लेकिन कई पहुंचे हुए चेहरे बोलते ज्यादा हैं, सोचते कम हैं। बस उनका मुंह खुलता है और तीर चल जाता है। तीर की फितरत ही है घायल करना।
नितिन गडकरी देश के केंद्रीय मंत्री हैं। विवादास्पद, चुभनेवाली बयानबाजी करना उनकी पुरानी आदत है। अपने विरोधियों को तेजाबी शब्दों और मुहावरों से घायल करने में उन्हें बडा मज़ा आता है। जब उनकी 'पूर्ति' पर गाज गिरी थी तब उन्होंने आयकर अधिकारियों को अपने अंदाज में धमकाया था कि देश और प्रदेश में हमारी पार्टी की सरकार काबिज होते ही सभी अधिकारियों के दिमाग ठिकाने लगा दिये जाएंगे। संयोग से वर्तमान में केंद्र और महाराष्ट्र में भारतीय जनता पार्टी एंड कंपनी की सरकार है। नितिन गडकरी... केंद्रीय सडक परिवहन, राजमार्ग एवं जहाजरानी मंत्री हैं। इस देश में जहां-तहां भ्रष्टाचारी भरे पडे हैं। कोई भी ऐसा सरकारी दफ्तर और विभाग नहीं जहां बिना लेनदेन के फाइल सरकती हो। भ्रष्टों और भ्रष्टाचार से हर कोई त्रस्त है, लेकिन यह मान लेना भी सही नहीं कि हर सरकारी कर्मचारी और अधिकारी का चेहरा भ्रष्टाचार की कालिख से पुता हुआ है। हाल ही में नितिन गडकरी ने अपने ज्ञान का प्रकाश फैलाया कि क्षेत्रिय परिवहन कार्यालयों में भ्रष्टाचारी ही भरे पडे हैं। यहां डेरा जमाये भ्रष्टों ने चंबल के बीहडों में लूटपाट और डकैती करने वाले डकैतों को भी पीछे छोड दिया है। जो वाकई भ्रष्ट और बेईमान हैं उन्हें तो मंत्री महोदय के इस 'रहस्योद्घाटन' से कोई फर्क नहीं पडा। जान तो उनकी जली जो पूरी तत्परता और ईमानदारी के साथ काम करते हैं। इंदौर के आरटीओ एस.पी. सिंह मंत्री जी की अपमानजनक शब्दावली को बर्दाश्त नहीं कर पाये। उन्होंने बडे सधे हुए शब्दों में व्यंग्यबाण चलाया- 'अभी गडकरी ने चंबल के डाकू देखे कहां हैं...।' इसी तरह देश के विभिन्न सरकारी अधिकारियों, निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारों, संपादकों की आवाज गूंजी- 'सर्वज्ञानी मंत्री महोदय ने उन भ्रष्ट नेताओं को क्यों नजरअंदाज कर दिया, जिनकी वजह से देश की अस्सी प्रतिशत आबादी बदहाली का शिकार है। क्या उन्हें पता नहीं है कि नेताओं की बिरादरी किस तरह से 'तरक्की' करती है? चुनाव जीतने के लिए पानी की तरह जो काला धन बहाया जाता है वह कहां से आता है। एक नेता जब विधायक, मंत्री बनता है तो पांच-दस साल में उसके पास अरबो-खरबों कहां से आ जाते हैं। मंत्री जी की बिरादरी के लोग किस तरह से हजारों करोड की कोयला खदानों, जमीनों, स्कूल, कॉलेजों, दारू की फैक्ट्रियों आदि के मालिक बन जाते हैं? उनके इर्द-गिर्द भूमाफियाओं, सरकारी ठेकेदारों, स्मगलरों और सफेदपोश लुटेरों का सतत घेरा क्यों बना रहता है?' मंत्री जी, चंबल के डाकू तो बेवजह बदनाम हैं। असली डाकू तो वो हैं जिनकी इस लोकतंत्र में चर्चा तक नहीं होती।

Thursday, December 10, 2015

राजधानी के जानवर

देश की राजधानी से सटा हुआ है ग्रेटर नोएडा। अच्छी-खासी उद्योग नगरी है। आकाश छूती इमारतों की लम्बी कतारें हैं। भीड-भाड से २४ घण्टे आबाद रहती है यह चमचमाती नगरी। थो‹डे ही फासले पर स्थित है सलेमपुर गुर्जर गांव। शहर भले ही बदल गये हैं, पर गांव नहीं बदले। सुबह का समय था। गांव में सन्नाटा पसरा था। एक लडका गांव के बाहर के कुएं के करीब से गुजर रहा था। उसे 'बचाओ-बचाओ' की आवाजें सुनायी दीं। यह किसी लडकी की दर्दभरी पुकार थी, लेकिन लडके को लगा कि कुएं में कोई भूत है। वह डर के मारे सरपट वहां से भाग खडा हुआ। उसने गांव के लोगों को बताया कि कुएं में भूत है। गांव वाले तुरंत कुएं तक पहुंचे। कुएं में एक लडकी को बुरी तरह से कराहता देख सभी हैरान रह गए। कुएं में रस्सी डाली गयी। लहुलूहान लडकी रस्सी को पकड कर बडी मुश्किल से ऊपर आ पायी। ल‹डकी ने आपबीती बतायी तो गांववालों का खून खौल उठा। वह बारह घण्टे से कुएं में पडी थी। दिल्ली के उत्तम नगर में रहने वाली इस लडकी को पडोस के तीन लडके कार में जबरन खींचकर नोएडा के इस गांव में ले आए। तेरह दिनों तक नराधम उस पर सामूहिक बलात्कार करते रहे। वह किसी तरह से आततायियों के चंगुल से भागने में कामयाब भी हो गयी, लेकिन उसे फिर दबोच लिया गया और उसकी छाती पर गोलियां दाग दी गयीं। शहरी बलात्कारी उसे मृत समझकर कुएं में फेंक बेखौफ चलते बने।
ताराचंद तांत्रिक है। दिल्ली में रहता है। लोग उसे 'गुरुजी' के नाम से जानते हैं। यह सम्बोधन जिस मान-सम्मान का प्रतीक है उसका अंदाजा तांत्रिक ताराचंद को भी रहा होगा। उसकी तंत्र-मंत्र की दुकान ठीक-ठाक चल रही थी। कुछ दिन पहले की बात है। एक युवती की ताराचंद से मुलाकात हुई। वह रहने वाली तो अफगानिस्तान की है, लेकिन फिलहाल दिल्ली में रहकर मॉडलिंग के क्षेत्र में अपनी पहचान बनाने के लिए संघर्षरत है। ताराचंद ने पहली मुलाकात में ही युवती को हाथ की सफाई का ऐसा खेल दिखाया कि वह उसकी मुरीद हो गयी। ताराचंद ने विदेशी युवती को यकीन दिलाया कि वह अपनी तंत्र-मंत्र की विद्या से उसकी हर समस्या का समाधान कर देगा। वह ऐसा गुप्त अनुष्ठान करेगा जिससे वह रातों-रात देश की जानी-मानी मॉडल बन करोडों में खेलने लगेगी। युवती को मॉडलिंग के क्षेत्र में छाने की जल्दी थी इसलिए वह उसके झांसे में आ गयी। तांत्रिक अनुष्ठान के नाम पर उससे रकम एेंठने लगा। युवती ने पहले अपनी जमा पूंजी लुटायी, फिर अपने दोस्तों से कर्ज लेकर तांत्रिक की धन लिप्सा शांत करने की कोशिश करती रही। यह आंकडा दस लाख से भी ऊपर चला गया। अनुष्ठान के दौरान ही एक दिन उसने भरमायी युवती को नशीला पदार्थ पिलाकर उसकी अस्मत भी लूट ली। धन और देह के भोगी तांत्रिक की लालसाएं बढती चली जा रही थीं। संघर्षरत मॉडल को ठगी का अहसास हो गया। वह अपने रुपये वापस मांगने लगी। तांत्रिक को मॉडल का सजग होना भारी पडने लगा। उसने उसे ठिकाने लगाने की धमकी-चमकी दे डाली। आखिरकार त्रस्त मॉडल ने दिल्ली पुलिस की शरण ली। इसी दौरान देश की राजधानी में एक फैशन डिजाइनर भी गैंगरेप का शिकार हो गयी। मुख्य आरोपी को पुलिस के हत्थे चढवाने में उसकी पत्नी ने ही अहम भूमिका निभायी। इस बलात्कारी की कुछ महीने पहले ही शादी हुई थी। इस बलात्कार कांड में एक नाबालिग शामिल था। युवती जब अपने घर में अकेली सो रही थी तब उसे बेहोश कर निर्मम बलात्कार के दंश से घायल किया गया। जब उसे होश आया तो पकडे जाने के डर से उसका गला दबाकर पेशेवर हत्यारों की तरह उसकी हत्या कर दी गयी। नाबालिग ने अपना जुर्म स्वीकार कर लिया।
२५ साल की फैशन डिजाइनर के बलात्कार और हत्या के इस कांड में नाबालिग की प्रमुख भूमिका ने फिर 'निर्भया कांड' को ताजा कर दिया। १६ दिसंबर २०१२ की वो काली सर्द रात थी जब बलात्कारी दरिंदों ने चलती बस में निर्भया पर बलात्कार करते हुए अमानवीय यातनाओं का भयावह कहर ढाया था और फिर उसके बाद उसे और उसके दोस्त को तडप-तडप कर मरने के लिए चलती बस से सडक पर फेंक दिया था। इस सामूहिक बलात्कार में एक नाबालिग भी शामिल था जिसने खूंखार कुकर्मी की तरह निर्भया के साथ नृशंस बलात्कार किया था। इस दानवी कांड ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया था। निर्भया ने तेरह दिनों तक अथाह पीडा झेलने के बाद प्राण त्याग दिए थे। तब देश भर में बलात्कारियों के खिलाफ जो गुस्सा भडका था, वह भी अभूतपूर्व था। राजधानी के जानवरों और हैवानों का शिकार हुई निर्भया पूरे देश को जगा गयी।  बलात्कारियों को भरे चौराहे पर लटका कर फांसी दिये जाने या फिर उन्हें नापुंसक बनाने की मांग ने ऐसा जोर पकडा था कि लगने लगा था कि अब बलात्कारियों की खैर नहीं। जो भी नारी पर जुल्म ढायेगा, किसी भी हालत में बच नहीं पायेगा। जनता के बेकाबू रोष ने सरकार की चूलें हिलाकर रख दीं थीं। नाबालिग बलात्कारी के साथ किसी भी तरह की सहानुभूति दर्शाने वालों को भी जमकर लताडा गया था। लेकिन कानून तो कानून है। नाबालिग को मात्र तीन साल की सजा हुई। १६ दिसंबर २०१५ को उसकी सजा खत्म होने जा रही है। अब उसकी उम्र २१ वर्ष की हो चुकी है। खबरें आ रही हैं कि उसे एक एनजीओ के हवाले कर दिया जायेगा। फिर एक साल बाद वह कहीं भी घूमने और मनमानी करने को स्वतंत्र होगा। बिलकुल वैसे ही जैसे अफगानी युवती की इज्जत लूटने वाला तांत्रिक और उत्तमनगर की लडकी के साथ लगातार १३ दिन तक मुंह काला करने वाले हत्यारों जैसे तमाम दुष्कर्मी बेखौफ कानून को ठेंगा दिखाते हुए 'आजादी' का भरपूर जश्न मनाते फिरते हैं।

Thursday, December 3, 2015

नारी और वर्दी का अपमान

सत्ताधीशों को वही अधिकारी अच्छे लगते हैं जो उनकी जी-हजूरी करते हैं। अधिकांश राजनेता और मंत्री उन ईमानदार सरकारी अफसरों को डांटने-फटकारने और स्थानांतरण की धौंस दिखाने से बाज नहीं आते जो उनकी तथा उनके प्यादों की अनसुनी कर अपने कर्तव्य को प्राथमिकता देते हैं। उत्तर प्रदेश की आईएएस अधिकारी दुर्गा नागपाल के साहस की गाथा को भला कौन भूल सकता है। इस कर्तव्यपरायण अधिकारी ने सत्ताधीशों के करीबी अवैध कारोबारियों पर कानून का डंडा चलाया तो बलवान मंत्री बौखला उठे थे - 'एक अदनी सी महिला अफसर की इतनी हिम्मत कि वह उनके चहेतों को कानून का पाठ पढाने की जुर्रत करने पर उतर आए! होंगी कर्तव्यपरायण और ईमानदार, पर हमें इससे क्या लेना-देना। जब प्रदेश में हमारी पार्टी की सरकार है तो हमारी और हमारे लोगों की सुनी जानी चाहिए। उन्हें किसी भी तरह के काले कारनामों को अंजाम देने की खुली छूट मिलनी ही चाहिए। जब हमारा वरदहस्त प्राप्त है तो किसी बडे से बडे सरकारी अधिकारी की क्या मजाल कि वह हमारे अपनों पर कानून का डंडा चलाने की हिम्मत दिखाए।'
अपने आपको शहंशाह समझने वाले अधिकांश अकडबाज और स्वार्थी मंत्रियों के 'अपनो' में शामिल होते हैं, भूमाफिया, खनिज माफिया, सरकारी ठेकेदार, सफेदपोश अपराधी, बिल्डर, स्मगलर और तरह-तरह के फंदेबाज। इन पर जब कोई कर्मठ अफसर उंगली भी उठाता है तो 'आका' किसी भी हद तक चले जाते हैं। दुर्गा नागपाल ने उन रेत माफियाओं का जीना हराम कर दिया था, जिनके रिश्ते सत्ताधीशों से थे। यह दुर्गा ही थीं जिन्होंने एक धार्मिक स्थल की अवैध दीवार को धराशायी करने का साहस दिखाया था। होना तो यह चाहिए था कि उनकी पीठ थपथपायी जाती, लेकिन यहां तो धर्म-विशेष के मतदाताओं के खफा हो जाने से वोटों की फसल के तबाह हो जाने का खतरा था। मंत्री, सांसद और विधायक बडी से बडी तबाही देख सकते हैं, लेकिन अपने वोट बैंक को लुटता या टूटता नहीं देख सकते। जो भी उनकी इस 'पूंजी' पर सेंध लगाने की हिमाकत करता है उसके पैरों तले की जमीन खिसका दी जाती है। दुर्गा से खफा मंत्री को भी तभी चैन आया जब उन्होंने उसे कर्तव्यपरायणता के पुरस्कार में निलंबन का आदेश थमाया। सत्ता और नौकरशाही के टकराव के अनेकों किस्से हैं। अक्सर यही देखने में आता है कि बडे से बडे अफसर पर मंत्री और नेता ही भारी पडते हैं। खुद्दार और ईमानदार अफसर के हौसले पस्त करने के लिए तमाम तरह के हथकंडे अपनाये जाते हैं। हर सरकार यही चाहती है कि नौकरशाह उनके इशारों पर नाचें। जो अधिकारी अपने फर्ज को ही सर्वोपरि मानते हैं उन्हें कई अवरोधों से रूबरू होना पडता है। नौकरशाही को कठपुतली की तरह नचाने के मामले में कांग्रेस और समाजवादी पार्टी तो बदनाम थी हीं, लेकिन अब भाजपा के कुछ मंत्री भी अधिकारियों को दबाने और नीचा दिखाने के कीर्तिमान बनाने में तल्लीन हैं। जो अधिकारी जी हजूरी के दस्तूर को नहीं निभाते उन पर फौरन निलंबन और तबादले की गाज गिरा दी जाती है। बीते हफ्ते हरियाना के स्वास्थ्य मंत्री अनिल विज की आईपीएस अफसर संगीता वालिया से जबर्दस्त तकरार हो गयी। यहां भी मंत्री का अहंकार महिला अफसर पर भारी पडा। मंत्री ने जिला शिकायत एवं लोक मामलों की समिति की बैठक बुलायी थी। उसी बैठक में मंत्री ने एक एनजीओ की शिकायत का हवाला देते हुए एसपी संगीता कालिया पर शराब बिकवाने का संगीन आरोप जड दिया। महिला अफसर के लिए यह आरोप किसी तमाचे से कम नहीं था। मंत्री एनजीओ के कर्ताधर्ताओं को सत्यवादी हरिश्चंद्र की औलाद और संगीता को भ्रष्ट और बिकाऊ अधिकारी करार देते हुए धमकाने और चमकाने की उसी मुद्रा में आ गये जिसके लिए अहंकारी सत्ताधीश जाने जाते हैं। संगीता को शराब तस्करों का हिमायती होने के आरोप ने इस कदर झिंझोंडा कि वह बगावत की मुद्रा में आ गयीं। उन्हें लगा कि यह तो सरासर वर्दी का ही अपमान है इसलिए वे मंत्री के सवालों के जवाब देने पर अड गयीं। यही बात मंत्री को खल गयी। उनका तो हमेशा ऐसे अफसरों से वास्ता पडता रहा है जो उनकी डांट-फटकार चुपचाप सुन कर सिर झुका लेते हैं। दरअसल, ऐसे लोगों की अपनी कमियां और कमजोरियां होती हैं जो उन्हें दंडवत होने को विवश कर देती हैं। स्वाभिमानी संगीता ने मंत्री की दबंगई का डट कर सामना किया। स्वच्छ छवि के लिए जानी जाने वाली इस खाकी वर्दीधारी नारी ने भारतीय पुलिस सेवा में शामिल होने के लिए अच्छी तनख्वाह वाली पांच नौकरियों को लात मारने में आगा-पीछा नहीं सोचा था। पुलिस की वर्दी धारण करते समय उन्होंने अपनी ड्यूटी निडरता और निष्पक्षता के साथ निभाने की जो कसम खायी थी उसे वे अभी तक भूली नहीं थीं।  उन्होंने अत्यंत ही संयत भाव से एक-एक कर मंत्री के आरोपों के जवाब दिये, लेकिन मंत्री ऐसे उखडे कि उन्होंने उन्हें 'गेट आउट' यानी वहां से चले जाने का फरमान सुनाकर अपना बौनापन दर्शा दिया। संगीता ने मंत्री से जब यह कहा कि सर, हम अपना कर्तव्य निभाने में कहीं कोई कमी नहीं करते। हमने इस साल २५०० पर्चे अवैध शराब के काटे हैं। हम तो अवैध शराब विक्रेताओं को अपनी पूरी ताकत लगाकर दबोचते हैं, लेकिन वे बडी आसानी से कोर्ट से जमानत पाकर फिर अवैध शराब के धंधे में लग जाते हैं। सर, शराब तो सरकार बिकवाती है, सरकार ही लाइसेंस देती है!' कटु सच किसे अच्छा लगता है जो मंत्री जी को भा जाता और वे उसके कहे पर चिन्तन-मंथन करते। उन्हें तो मंत्री पद की धौंस दिखानी थी। इस काम में वे कतई पीछे नहीं रहे। उन्होंने इस सच को भी नजरअंदाज कर दिया कि वे जिसे फटकार रहे हैं वह अफसर होने के साथ-साथ एक महिला भी हैं। कोई अनपढ गंवार इंसान किसी महिला की इस तरह तौहीन करे तो एकबारगी उसे नज़रअंदाज किया जा सकता है, लेकिन हरियाना के स्वास्थ्य मंत्री तो पढे-लिखे होने के साथ-साथ उस पार्टी से जुडे हैं जो खुद को दूसरी पार्टियों से अलग और खास होने के ढोल पीटते नहीं थकती। सत्ता के नशे में चूर मंत्री महोदय कम अज़ कम अपनी नहीं तो पार्टी की इज्जत का ख्याल रखते हुए संयम बरतते और महिला अधिकारी की भी सुन लेते तो जगहंसाई से भी बच जाते और पार्टी की इज्जत को भी करारा धक्का नहीं लगता।