Thursday, April 26, 2012

प्लास्टिक के सपने

बच्चों को गेंद से बहुत लगाव होता है। गरीबों के बच्चे तो गेंद के साथ खेलते और दौडते हुए अपने आप बडे होते चले जाते हैं। तरह-तरह के महंगे खिलौने से खेलने वाले अमीरों के बच्चों की बात ही अलग होती है। न जाने कितने ऐसे रईस हैं जो अपने बच्चों के खिलौनों पर हजारों रुपये चुटकियों में लुटा देते हैं। बच्चों की जैसे-जैसे मांग बढती चली जाती हैं, वे और उदार होते चले जाते हैं। गरीबों के बच्चे तो अमीरों के दुलारों के महंगे-महंगे खिलौनों को दूर से ताक मन मसोस कर रह जाते हैं। सरकार का कहना है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। पर सवाल यह है कि कौन से बच्चे?
तीसरी कक्षा में पढने वाली आठ साल की मासूम तेजस्विनी अपने माता-पिता की चहेती थी। खेलने के लिए उसके पास एक ही गेंद थी जो खेलते-खेलते फट गयी। कम उम्र की होने के बावजूद भी उसे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान था। वह जानती थी कि दूसरी गेंद उसे आसानी से नहीं मिल पायेगी। किसी पैसे वाले की संतान होती तो गेंद को फौरन कचरे के हवाले कर देती। पर तेजस्विनी तो गरीब की बेटी थी। जब सभी काम पर चले गये तो उसके मन में गेंद को सुधारने का विचार आया। बेचारी माचिस की तीली जलाकर फटी गेंद को चिपकाने की कोशिश में जुट गयी। इसी दौरान उसकी फ्रॉक जलती तीली की चपेट में आ गयी और वह इस कदर जल गयी कि उसे अस्पताल में ले जाने के बावजूद बचाया नहीं जा सका। बच्ची की मां पालनाघर में बच्चों को संभालने का काम करती थी। उस दिन भी वह दूसरों के बच्चों की सेवा में लगी थी। अपनी बच्ची की देखरेख करने का उसके पास वक्त नहीं था। पर उसे यह जरूर मालूम था कि उसकी बिटिया गेंद के फट जाने से काफी आहत है। तेजस्विनी को मौत के बाद उसके माता-पिता शहर छोडकर अपने गांव लौट गये हैं। वे शहर में कमाने-खाने आये थे पर शहर ने तो उनकी तमाम खुशियां ही छीन लीं। इस देश में दो वक्त की रोटी के लिए गरीब मां-बाप अपना खून-पसीना बहाते ही हैं, बच्चों को भी कम कुर्बानी नहीं देनी पडती। संतरानगरी से लगभग दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कोराडी गांव। कोराडी के जगदंबा मंदिर का बडा नाम है। दूर-दूर से श्रद्धालू यहां पर पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। मंदिर के आसपास हार-फूल की दूकानें हैं जो कई लोगों को रोजी-रोटी देती हैं। इसी रोजी-रोटी के चक्कर में एक १२ वर्षीय बालक को अपनी जान की आहूति देनी पडी। हुआ यूं कि बालक राहुल पेड पर चढकर पूजा के हार में पिरोयी जाने वाली पत्तियां तोड रहा था कि अचानक उसका संतुलन बिगड गया। वह बीस फुट नीचे जमीन पर आ गिरा। अस्पताल में उसने दम तोड दिया। मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की पूजा-अर्चना के उपयोग में आनेवाली पत्तियों की बदौलत बच्चा दस-बीस रुपये कमा लेता था। खेलने-कूदने की उम्र में पेडों की ऊचाई नापना उसका रोजमर्रा का काम था। कहीं न कहीं उसे खुशी भी मिलती थी कि उसकी तोडी हुई पत्तियां देवी-देवताओं के चरणों में अर्पित होती हैं। इसी अर्पण की बदौलत कई उदास चेहरे खिल उठते हैं। राहुल अब इस दुनिया में नहीं है। उसी की तरह और भी कई नाबालिग बच्चे अपनी जान को जोखिम में डालकर अशोका के पेड की पत्तियां और फूल तोडकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाते हैं। अपने साथी की मौत के बाद दहशत में होने के बावजूद उनका पेडों पर चढना बदस्तूर जारी है। आखिर पापी पेट का सवाल है...।
दिल को दहलाकर रख देने वाले ये दोनों हादसे उस नागपुर में हुए हैं जहां के एक उद्योगपति ने हाल ही में लगभग पांच सौ करोड खर्च कर खुद का हवाई जहाज खरीदा है। शहर के पांच-सात और धनाढ्य भी अपना-अपना जहाज खरीदने की तैयारी में हैं। महानगर की शक्ल अख्तियार कर चुके इस शहर में अरबों-खरबों में खेलने वाले उद्योगपतियों और नेताओं की भरमार है। आकाश में उडने वालों के इस नारंगी शहर में अपराधों का ग्राफ निरंतर ऊचाइयां छू रहा है। पच्चीस-पचास रुपये के लिए हत्या तक हो जाना आम बात है। चंद लोगों की जिं‍दगी में आया जबर्दस्त बदलाव वाकई चौंकाता है। उनकी शान और शौकत ऐसी है कि राजा-महाराजा भी शर्मिंदा हो जाएं। नेताओं और उद्योगपतियों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। दाल-रोटी के चक्कर में अपने खून को पसीना करती वो भीड जो 'वोटर' कहलाती है जहां की तहां अटकी है। उसके लिए 'परिवर्तनङ्' नाम की कोई बात है ही नहीं। कवि, व्यंग्यकार श्री अक्षय जैन की कविता की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं:

नहीं लिखा तकदीर में तेरे, एक वक्त का खाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

मेले में हमको ले जाना, करना नहीं बहाना जी
पैसे हों तो नई चप्पलें, हमको भी दिलवाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

रोजी, रोटी, बिजली, पानी, इनका नहीं ठिकाना जी
अपनी जेबें हरदम खाली, उनके पास खजाना जी
राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

प्लास्टिक के सपने


बच्चों को गेंद से बहुत लगाव होता है। गरीबों के बच्चे तो गेंद के साथ खेलते और दौडते हुए अपने आप बडे होते चले जाते हैं। तरह-तरह के महंगे खिलौने से खेलने वाले अमीरों के बच्चों की बात ही अलग होती है। न जाने कितने ऐसे रईस हैं जो अपने बच्चों के खिलौनों पर हजारों रुपये चुटकियों में लुटा देते हैं। बच्चों की जैसे-जैसे मांग बढती चली जाती हैं, वे और उदार होते चले जाते हैं। गरीबों के बच्चे तो अमीरों के दुलारों के महंगे-महंगे खिलौनों को दूर से ताक मन मसोस कर रह जाते हैं। सरकार का कहना है कि बच्चे देश का भविष्य हैं। पर सवाल यह है कि कौन से बच्चे?
तीसरी कक्षा में पढने वाली आठ साल की मासूम तेजस्विनी अपने माता-पिता की चहेती थी। खेलने के लिए उसके पास एक ही गेंद थी जो खेलते-खेलते फट गयी। कम उम्र की होने के बावजूद भी उसे अपने परिवार की आर्थिक स्थिति का पूरा ज्ञान था। वह जानती थी कि दूसरी गेंद उसे आसानी से नहीं मिल पायेगी। किसी पैसे वाले की संतान होती तो गेंद को फौरन कचरे के हवाले कर देती। पर तेजस्विनी तो गरीब की बेटी थी। जब सभी काम पर चले गये तो उसके मन में गेंद को सुधारने का विचार आया। बेचारी माचिस की तीली जलाकर फटी गेंद को चिपकाने की कोशिश में जुट गयी। इसी दौरान उसकी फ्रॉक जलती तीली की चपेट में आ गयी और वह इस कदर जल गयी कि उसे अस्पताल में ले जाने के बावजूद बचाया नहीं जा सका। बच्ची की मां पालनाघर में बच्चों को संभालने का काम करती थी। उस दिन भी वह दूसरों के बच्चों की सेवा में लगी थी। अपनी बच्ची की देखरेख करने का उसके पास वक्त नहीं था। पर उसे यह जरूर मालूम था कि उसकी बिटिया गेंद के फट जाने से काफी आहत है। तेजस्विनी को मौत के बाद उसके माता-पिता शहर छोडकर अपने गांव लौट गये हैं। वे शहर में कमाने-खाने आये थे पर शहर ने तो उनकी तमाम खुशियां ही छीन लीं। इस देश में दो वक्त की रोटी के लिए गरीब मां-बाप अपना खून-पसीना बहाते ही हैं, बच्चों को भी कम कुर्बानी नहीं देनी पडती। संतरानगरी से लगभग दस-बारह किलोमीटर की दूरी पर स्थित है कोराडी गांव। कोराडी के जगदंबा मंदिर का बडा नाम है। दूर-दूर से श्रद्धालू यहां पर पूजा-अर्चना के लिए आते हैं। मंदिर के आसपास हार-फूल की दूकानें हैं जो कई लोगों को रोजी-रोटी देती हैं। इसी रोजी-रोटी के चक्कर में एक १२ वर्षीय बालक को अपनी जान की आहूति देनी पडी। हुआ यूं कि बालक राहुल पेड पर चढकर पूजा के हार में पिरोयी जाने वाली पत्तियां तोड रहा था कि अचानक उसका संतुलन बिगड गया। वह बीस फुट नीचे जमीन पर आ गिरा। अस्पताल में उसने दम तोड दिया। मंदिर में आने वाले श्रद्धालुओं की पूजा-अर्चना के उपयोग में आनेवाली पत्तियों की बदौलत बच्चा दस-बीस रुपये कमा लेता था। खेलने-कूदने की उम्र में पेडों की ऊचाई नापना उसका रोजमर्रा का काम था। कहीं न कहीं उसे खुशी भी मिलती थी कि उसकी तोडी हुई पत्तियां देवी-देवताओं के चरणों में अर्पित होती हैं। इसी अर्पण की बदौलत कई उदास चेहरे खिल उठते हैं। राहुल अब इस दुनिया में नहीं है। उसी की तरह और भी कई नाबालिग बच्चे अपनी जान को जोखिम में डालकर अशोका के पेड की पत्तियां और फूल तोडकर अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी जुटाते हैं। अपने साथी की मौत के बाद दहशत में होने के बावजूद उनका पेडों पर चढना बदस्तूर जारी है। आखिर पापी पेट का सवाल है...।
दिल को दहलाकर रख देने वाले ये दोनों हादसे उस नागपुर में हुए हैं जहां के एक उद्योगपति ने हाल ही में लगभग पांच सौ करोड खर्च कर खुद का हवाई जहाज खरीदा है। शहर के पांच-सात और धनाढ्य भी अपना-अपना जहाज खरीदने की तैयारी में हैं। महानगर की शक्ल अख्तियार कर चुके इस शहर में अरबों-खरबों में खेलने वाले उद्योगपतियों और नेताओं की भरमार है। आकाश में उडने वालों के इस नारंगी शहर में अपराधों का ग्राफ निरंतर ऊचाइयां छू रहा है। पच्चीस-पचास रुपये के लिए हत्या तक हो जाना आम बात है। चंद लोगों की जिं‍दगी में आया जबर्दस्त बदलाव वाकई चौंकाता है। उनकी शान और शौकत ऐसी है कि राजा-महाराजा भी शर्मिंदा हो जाएं। नेताओं और उद्योगपतियों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। दाल-रोटी के चक्कर में अपने खून को पसीना करती वो भीड जो 'वोटर' कहलाती है जहां की तहां अटकी है। उसके लिए 'परिवर्तनङ्' नाम की कोई बात है ही नहीं। कवि, व्यंग्यकार श्री अक्षय जैन की कविता की यह पंक्तियां काबिले गौर हैं:

नहीं लिखा तकदीर में तेरे, एक वक्त का खाना जी

राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

मेले में हमको ले जाना, करना नहीं बहाना जी

पैसे हों तो नई चप्पलें, हमको भी दिलवाना जी

राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...


रोजी, रोटी, बिजली, पानी, इनका नहीं ठिकाना जी

अपनी जेबें हरदम खाली, उनके पास खजाना जी

राजा चुन कर तुम्हीं ने भेजा... तुम्हीं भरो हर्जाना जी...

Thursday, April 19, 2012

कौन घंटी बांधेगा?

नागपुर के धंतोली में स्थित कोलंबिया कैंसर अस्पताल के डाक्टरों ने मानवता को शर्मिंदा करने वाला कारनामा कर डाक्टरी पेशे को कलंकित कर दिया है। यह लालच की इंतहा ही है कि मर चुकी मरीज को जिं‍दा बताया गया। पहले तो इलाज के दौरान पंद्रह लाख पचास हजार रुपये झटक लिये गये। बकाया चार लाख रुपये वसूलने के लिए मौत के मुंह में समा चुकी मरीज को आईसीयू में कैद कर दिया गया। रिश्तेदारों को वेंटीलैटर में रखी महिला के करीब इसलिए नही जाने दिया गया क्योंकि अस्पताल का बिल बकाया था! डाक्टर को लग रहा था कि परिवार वाले अब और बिल भर पाने में अक्षम हैं। वह बेचैन हो उठा। उसने फौरन सौ रुपये के स्टाम्प पेपर पर परिजनों के हस्ताक्षर लिये जिस पर लिखा था कि किसी भी हालत में एक माह के भीतर बकाया बिल का भुगतान कर दिया जायेगा। इस लिखा-पढी के बीस मिनट बाद मरीज की हार्ट अटैक से मौत होने की सूचना दे दी गयी!महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में इस तरह की कुछ घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। इस शहर के अस्पतालों में दूर-दूर से लोग इलाज करवाने के लिए आते हैं। ऐसा नहीं है कि नागपुर का हर अस्पताल ठगी और ठगों का अड्डा है। कुछ अस्पताल हैं जहां के डाक्टरों में नैतिकता, मानवता और ईमानदारी रची बसी हुई है। इन्हीं की साख है, जो मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा तक के मरीजों के परिजनों को यहां खींच लाती है। पर उनका क्या किया जाए जिनके लिए धन ही सब कुछ है। धन के भूखे डाक्टरों ने अस्पताल के नाम पर ऊंची-ऊंची ईमारतें तो खडी कर ली हैं पर अपने ईमान को ताक पर रख दिया है। यह इलाज से पहले मरीजों के घर-परिवार वालों की हैसियत का आकलन करते हैं। उसके बाद हद दर्जे के लालची व्यापारी बन जाते हैं। जब तक मनचाही फीस मिलती रहती है तब तक मरीज को अस्पताल में भर्ती रखते हैं। मर चुके मरीजों को भी फीस के लालच में जिं‍दा दर्शाने से बाज नहीं आते। हमारे यहां डाक्टर को भगवान का दर्जा भी दिया जाता है। ऐसे ठगों और लुटेरों को क्या नाम दिया जाए? यकीनन हैवान और शैतान हैं यह लोग जिनकी वजह से अच्छे और सच्चे डाक्टरों को भी संदेह की नजरों से देखा जाने लगा है। धनखोर डाक्टरों की देखा-देखी नागपुर तथा आसपास के ग्रामीण इलाकों में झोलाछाप डाक्टरों की संख्या में भी अच्छा-खासा इजाफा होता देखा जा रहा है। हर मरीज के परिजनों की जेब में इतना दम नहीं होता कि वे महंगा इलाज करवा सकें। न जाने कितनों को मजबूरन नादान और अनाडी डाक्टरों की शरण लेनी पडती है क्योंकि इन्हें जितना दो रख लेते हैं। यह बात दीगर है कि इनकी उल्टी-सीधी दवाइयों और इंजेक्शनों से कई बार मरीज की मौत भी हो जाती है। पर इससे झोलाछाप डाक्टरों को कोई फर्क नहीं पडता। उनका एक ही जवाब होता है कि जब बडे-बडे अस्पतालों में लाखों रुपये की फीस देने के बाद भी मरीज ईश्वर को प्यारे हो जाते हैं तो हम किस खेत की मूली हैं। यानी झोला छाप डाक्टरों को तो और भी सौ खून माफ हैं। यह भी कम चिं‍ता की बात नहीं है कि जब झोलाछाप डाक्टरो का भंडाफोड होता है तो मीडिया उनके पीछे हाथ धोकर पड जाता है। दूसरी तरफ नामी-गिरामी अस्पतालों में चलने वाली लूट और अंधेरगर्दी उजागर होने के बाद भी किसी बडे अखबार और पत्रकार के कान पर जूं नहीं रेंगती। फाईव स्टार अस्पतालो को चलाने वाले धनपति अखबारों और न्यूज चैनलों को विज्ञापन देकर मरीजों की जान के साथ खेलने का जैसे अधिकार पा चुके हैं। यह शर्मनाक धंधा देश के लगभग हर शहर में चल रहा है। इस धंधे से होने वाली अपार कमाई को देखकर उन लोगों ने भी हाई-फाई अस्पताल खोलने शुरू कर दिये हैं, जिनका डाक्टरी पेशे से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। उद्योगपतियों और धनासेठों के अस्पतालों में नौकरी बजाने वाले डाक्टरों को ऊंची तनख्वाहें दी जाती हैं और उनसे मनचाहा काम लिया जाता है। मरीजों की फीस अस्पताल के मालिक तय करते हैं। डाक्टर तो सिर्फ अपनी ड्यूटी बजाते हैं। ऐसे डाक्टर भी कम नहीं जिन्हें मरीजों के परिजनों से मोटी रकम ऐंठने के ऐवज में तगडी कमीशन मिलती है। इसी कमीशन के लालच में अच्छे-खासे डाक्टर हैवान बनने लगे हैं। ऐसे अस्पतालों में मालिक को अधिक से अधिक कमायी करवाने के चक्कर में मरीजों के साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता है। परिजनों से सीधे मुंह बात नहीं की जाती। जिन डाक्टरों को भगवान कहा जाता है उन्हीं के कुछ संगी-साथियों का सिर्फ यही लक्ष्य होता है कि मालिक प्रसन्न रहेगा तो उनकी नौकरी भी बनी रहेगी और अथाह कमायी भी होती रहेगी। ऐसी खतरनाक स्थिति को सुधारने का है किसी में दम? कई-कई डिग्रियां समेटे हाई-फाई डाक्टरों से तो बडे-बडे खौफ खाते हैं तो फिर कौन बिल्ली के गले में घंटी बांधेगा?

Thursday, April 12, 2012

उद्दंड नक्सली, नतमस्तक सरकार

देश के प्रदेश महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, आंध्रप्रदेश, बिहार, झारखंड, उत्तरप्रदेश, पश्चिम बंगाल और ओडिसा वर्षों से नक्सली हिं‍सा के चलते लहुलूहान होते चले आ रहे हैं। सरकारें आती रहीं, जाती रहीं पर शासको ने नक्सली समस्या की जड तक जाने और उसका खात्मा करने की कभी कोई ईमानदार कोशिश नहीं की। आज हालात यह हैं कि नक्सली बेकाबू हो चुके हैं। उनके हौसले इस कदर बढ गये हैं कि सरकार को दंडवत होना पड रहा है। हुक्मरानों को तो शर्म आने से रही पर देश और दुनिया जान गयी है कि कैसे-कैसे नकारा और नालायक नेताओं के हाथों इस देश की बागडोर जा चुकी है। इनकी कमीनगी का फल देश और देशवासियों को भुगतना पड रहा है। पता नहीं यह सिलसिला कब तक चलेगा? जब देश की इज्जत दांव पर लग चुकी हो और उसे शर्मसार होना पड रहा हो तब किसी तरक्की-वरक्की के क्या मायने!ओडिसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक को खुद पर बडा नाज है। वे मानते हैं कि उन्होंने अपने शासन काल में प्रदेश का अभूतपूर्व विकास किया है। हो सकता है वे सच बोल रहे हों पर उन्हीं की नाक के नीचे फल-फूल रही नक्सलियों की हिम्मत और ताकत को क्या नाम दें? नक्सलियों ने अपने साथियों को रिहा करवाने के लिए जिस तरह से नवीन पटनायक को झुकाने का अभियान चला रखा है उससे पता चल जाता है कि उनकी नजर में सरकार की दो कौडी की भी कीमत नहीं है। अगवा किये गये बीजद के विधायक झिना हिकाका और इतालवी नागरिक पाओले बोसुक्को की रिहाई के नाटक को चलते हफ्ते भर से ज्यादा का समय बीत चुका है। नक्सलियो के द्वारा नयी-नयी शर्तें ऐसे रखी जा रही हैं जैसे वे साहूकार हों और सरकार चोर। अपनी ही शर्तों पर बंधकों की रिहाई करने पर अडे नक्सली जानते हैं कि ओडिसा सरकार पहले भी उनके हाथों बंधक बनाये गये लोगों की रिहाई के बदले उनके साथियों को आजाद कर चुकी है। नक्सली सरकार की कमजोरी को पहचान चुके हैं। पर सरकार ने अतीत से कोई भी सबक लेने की जरूरत नहीं समझी। इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि मुख्यमंत्री नवीन पटनायक पर इटली के नागरिक और विधायक को बचाने का जबर्दस्त दबाव है, लेकिन क्या देश की मान-मर्यादा कोई मायने नहीं रखती? ओडिसा के मुख्यमंत्री ने जिस तरह से खूंखार नक्सलियों के समक्ष घुटने टेके हैं उससे ओडिसा पुलिस बल विभाग ने अपने सुर बदल लिए हैं। उनकी तरफ यह कहा जा रहा है कि यदि दोहरे बंधक संकट को समाप्त करने के प्रयास के तहत राज्य सरकार ने कट्टर माओवादियों को रिहा किया तो वो वह नक्सली विरोधी अभियान का बहिष्कार करेंगे। पुलिस वालों का गुस्सा किसी भी तरह से नाजायज नहीं है। आखिरकार नक्सलियों की गोलियों का शिकार पुलिस वाले ही तो होते हैं। कई बार यह भी देखा गया है कि नक्सली उन पर भारी पडते हैं इसकी वजह भी है। प्रशिक्षित नक्सलियों के हाथों में स्टेनगन होती है और बेचारे पुलिस वाले थ्रीनाट थ्री की पुरानी बंदूक से उनका सामना करते-करते ढेर भी हो जाते हैं। यानी कुर्बानी तो पुलिस को ही देनी पडती है। राजनेता तो भाषणबाजी और दंडवत होने के सिवाय और कुछ करते नहीं। २००८ से २०११ के दौरान नक्सली हिं‍सा में लगभग ३५०० लोगों की जान जा चुकी है। इनमें अधिकांश पुलिस वाले ही थे। इस देश के सत्ताधीश यह कतई कबूल नहीं करेंगे कि उनके भ्रष्ट शासन और निकम्मेपन के चलते नक्सली और नक्सलवाद जन्मा है। अगर गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, शोषण और अराजकता न होती तो यकीनन नक्सली भी नहीं होते। सत्ता के खिलाडि‍यों ने इन बीमारियों का खात्मा करने की कभी सीधी और सच्ची पहल की ही नहीं। पिछले कई वर्षों से नक्सलवाद देश को बुरी तरह से हिलाए हुए है। सरकारे चलाने वालों की अकर्मणयता और ढुलमुल नीति के चलते आज नक्सली इतने ताकतवर हो गये हैं कि सरकारों को झुकाने और अपनी शर्तें मनवाने लगे हैं। एक तरफ नक्सली गरीबो-बेरोजगारों को बरगला कर उनके हाथों में बंदूकें थमा देश पर हुकुमत करने का सपना तक देख रहे है और दूसरी तरफ सत्ताधीश जागने को तैयार नहीं हैं। यह इतने उद्दंड होते चले जा रहे हैं कि किसी का भी खून बहाने से परहेज नहीं करते। जिलाधीश और विधायक का आसानी से अपहरण कर लेते है। रेलें जाम कर देते हैं। रेल पटरियां उडा देते हैं। स्कूलों को फूंकने और पुलों को नेस्तानाबूत करने में जरा भी नहीं हिचकिचाते। हत्या, लूट, अपहरण, और फिरौती वसूलने वाले नक्सलियों पर रहम खाना या फिर उनकी मांगों के समक्ष नतमस्तक हो जाना यही दर्शाता है कि सरकारें नक्सलियों से हार मान चुकी हैं। क्या ऐसी सरकारों को शासन करने का कोई नैतिक अधिकार है?