Thursday, January 30, 2020

इस कैंसर का कैसे होगा इलाज?

कुछ घातक विषैली और शर्मनाक हकीकतें कल भी विराजमान थीं। आज भी सीना ताने खडी हैं। राजनेताओं व सत्ताधीशों के लाख वायदों के बावजूद भी उनका बाल बांका नहीं हो पाया। उन्हीं में से एक है, भ्रष्टाचार। इसके खिलाफ कितना कुछ लिखा गया। भाषणबाजी की गई। आरोप-प्रत्यारोप की झडियां लगीं। धरने आंदोलन भी हुए। शासकों को गद्दी छोडनी पडी। फिर भी बेईमानी और रिश्वतखोरी बंद नहीं हुई। किसी न किसी रूप में कायम थी। कायम है। कल मैंने एक नेताजी से पूछा कि अपने देश से भ्रष्टाचार का जड से खात्मा कब होगा? तो उनका जवाब था, पहले तो आप इस बात को गांठ बांध लो कि अधिकांश भारतवासियों ने भ्रष्टाचार को शिष्टाचार और घूस को सुविधाशुल्क मानकर अपना लिया है। यह तो आप लोग हैं, जो इसके खिलाफ चीखते-चिल्लाते रहते हैं।
दूसरी बार सांसद बने इन नेताजी ने अपना पेट्रोल पम्प सात करोड में बेचकर पहला लोकसभा का चुनाव लडा था और किस्मत से जीत भी गये थे। देश का सम्मानित सांसद बनने के बाद इस हस्ती ने जमकर नाम और नामा कमाया। आज उनके पास तीन पेट्रोल पम्प, स्कूल, कालेज और चार विदेशी शराब की दुकानें हैं। उनके पदचिन्हों पर चलते हुए उनके कुछ चेले-चपाटों ने विधानसभा के चुनाव में हाथ आजमाये। दो तो विधायक बनने में कामयाब भी हो गये हैं। उनकी दुकानदारी भी खूब चल रही है। कल लाखों में खेलते थे, आज करोडों में खेल रहे हैं। चांदी ही चांदी है। दलितों, शोषितों के नेता प्रकाश आंबेडकर ने फरमाया है कि अगर मेरे पास ५०० करोड होते तो मैं मुख्यमंत्री बन जाता। जिस दिन मुझमें वोट खरीदने की क्षमता आयेगी उस दिन मैं महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बन कर दिखा दूंगा। प्रकाश आंबेडकर, बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के पोते हैं, जिन्होंने भारत का संविधान लिखा था।
कई सरकारी अधिकारी तो सीना तानकर कहते हैं कि जब देश के नेता खाते हैं तो हम क्यों न खाएं। वैसे भी भारत वर्ष तो धन-दौलत का एक विशाल समुद्र है। जब नेता और सत्ताधीश इसमें डुबकियां लगाने में नहीं सकुचाते तो नौकरशाहों ने कुछ बूंदें चख लीं, झोली में भर लीं तो कोई फर्क नहीं पडने वाला। यह भी सच है कि नेता ही घूसखोरी के लिए अधिकारियों पर दबाव डालते हैं। आजादी के बाद से यही होता चला आ रहा है। फिर भी देश तो चल ही रहा है। देश का धन देश में ही है। सभी भ्रष्टाचारियों के खाते विदेशी बैंकों में नहीं हैं।
इनसे अगर यह कहें कि यह देश सिर्फ नेताओं, सत्ताधीशों, नौकरशाहों और उद्योगपतियों का नहीं है। उन करोडों लोगों का भी इसपर उतना ही अधिकार है, जितना आप लोगों का। हाशिये पर उपेक्षित पडे इन करोडों लोगों को दो वक्त की रोटी तक ठीक से नहीं मिलती। सुविधाहीन झोपडपट्टियों और खुले आकाश के नीचे गुजर-बसर करने को विवश हैं। सक्षम जन तो रिश्वत देकर अपने सभी काम करवा लेते हैं, सबकुछ पा लेते हैं, लेकिन गरीब निरीह जनता मुंह ताकती रह जाती है। यह सच कितना चौंकाने वाला है कि जहां करोडों भारतीय न्यूनतम सुविधाओं के अभाव में जी रहे हैं, वहीं देश की अधिकांश धन संपदा पर चंद धनवानों का कब्जा है। जिनके खून-पसीने से बडे-बडे निर्माणकार्य होते हैं, उद्योग-धंधे चलते हैं, इमारतें खडी होती हैं, वे लावारिसों की तरह जी रहे हैं और खिलाडी ऐश कर रहे हैं। सत्ता और अफसरशाही में अपनी गोटियां फिट करने का हुनर रखने वालों को आर्थिक बुलंदिया छूने में ज्यादा देरी नहीं लगती। कई छोटे-मोटे कारोबारियों, व्यापारियों को इसी कला ने देश का शीर्ष उद्योगपति बनाया है। धीरूभाई अंबानी ने तो खुलकर स्वीकारा भी था कि अगर उनमें यह 'कलाकारी' नहीं होती तो वे इतना सबकुछ हासिल नहीं कर पाते। कहीं छोटी-मोटी नौकरी कर रहे होते। आज की तारीख में ऐसे खिलाडी बहुत बलवान हो चुके हैं। उनकी पहुंच की कोई सीमा नहीं। मंत्री, सांसद, विधायक और बडे-बडे अधिकारी उनके इशारों पर नाचते हैं।
अपने यहां ऐसे-ऐसे प्रबुद्धजन हैं, जो हमेशा भ्रष्टाचार, शोषण और अनाचार पर लम्बे-चौडे भाषण देते देखे जाते हैं, लेकिन अपना काम करवाने के लिए वे भी 'सुविधा शुल्क' का सहारा लेते हैं। यह दिमागधारी तब भूल जाते हैं कि उनकी इस चालाकी और बेशर्मी के कारण गरीब और असहाय जनों का हक मारा जाता है, जिनके कल्याण और विकास के लिए वे ऊंची-ऊंची हांक कर प्रतिष्ठा पाते हैं। हैरानी की बात तो यह भी है कि अब सरकारों की प्राथमिकता में भ्रष्टाचार का मुद्दा काफी पीछे छूट गया है। भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर बोलने और आंदोलन चलानेवाले नेताओं का भी देश में जैसे अकाल पड गया है। देश की जनता को बहकाने और उन्हें बेवजह सडकों पर लाने वाले नेताओं की फौज बढती चली जा रही है। सत्ता पाना ही इनका एकमात्र लक्ष्य है। जनसेवा से इनका कोई लेना-देना नहीं है। सर्वधर्म समभाव की सोच को दरकिनार कर एक-दूसरे को आपस में लडाने में लगे हुए हैं। ताज्जुब की बात तो यह भी है कि कई भारतीय इनकी साजिशों को समझ ही नहीं पा रहे हैं। उन्होंने अपने दिमाग के दरवाजे ही बंद कर लिये हैं। कुछ वर्ष पूर्व समाजसेवी अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ धरना आंदोलन किया था। तब उनके साथ अरविंद केजरीवाल और मनीष सिसोदिया जैसे जो चेहरे नजर आये थे उनकी तो तकदीर ही बदल गई। सत्ता पाने के बाद उन्हें न तो भ्रष्टाचारी याद रहे, ना ही वह अन्ना हजारे जिनकी बदौलत उन्होंने अपनी राजनीति चमकायी। हिन्दुस्तान में ऐसा ही होता चला आ रहा है। न जाने कितने नेताओं ने दलितों, शोषितों, मजदूरों, गरीबों के विकास के नाम पर राजनीति की सीढ़ियां चढीं और सत्ता पायी। उसके बाद उन्हें अपने विकास के अलावा कुछ भी याद नहीं रहा। फिर भी जनता उन्हें बार-बार चुनावों में विजयी बनाती रही। यह सिलसिला सतत जारी है। पता नहीं जनता कब जागेगी?

Thursday, January 23, 2020

अपनी सोच, अपनी राह

यह हमारी ही दुनिया हैं, जहां तरह-तरह के लोग रहते हैं। कई तो ऐसे हैं, जिन्होंने अंतिम रूप से मान लिया है कि अच्छे लोगों का घोर अकाल पड गया है। किसी पर भी भरोसा करने का जमाना नहीं रहा। सभी को अपनी पडी है। उनके आसपास कोई सहायता के लिए तडपता भी रहे तो वे उसकी अनदेखी कर अपने रास्ते निकल जाते हैं। सेवाभाव तो कहीं बचा ही नहीं। सभी पैसे के पीछे दौड रहे हैं।
लेकिन सच तो यह है कि हमारी इसी दुनिया में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जो कभी शिकायतें नहीं करते। बेवजह की माथापच्ची में उलझे नहीं रहते। वे सभी को अपना समझते हैं। उनके जीवन का मकसद ही दूसरों के लिए कुछ अच्छा कर गुजरना है। अपने लिए तो सभी जीते हैं, लेकिन उन्हें बिना किसी भेदभाव के हर किसी के जीवन को संवारने का गजब का हुनर हासिल है।
फरीदाबाद के ऑटोचालक शीशपाल का एक साल सात महीने का बेटा सुबह-सबेरे घर में खेलते-खेलते अकेले बाहर निकल गया। बाहर गली में कुत्ते झुंड बनाकर बैठे थे। अबोध, मासूम बच्चे को देखकर कुत्ते उस पर झपट प‹डे। बच्चे का मुंह, नाक, कान और पेट बुरी तरह से नोच डाला। बच्चे की चीखें सुनकर परिवार वाले और आसपास के लोग बच्चे तक पहुंचे। बच्चा लहुलूहान मरणासन्न हालत में तडप रहा था। बुरी तरह से जख्मी बच्चे को निकट के अस्पताल ले जाने पर पता चला कि घाव इतने गंभीर हैं कि तुरंत सर्जरी करनी पडेगी। काफी खर्चा आयेगा। बच्चे के ऑटो चालक पिता चिंतित और परेशान थे कि सर्जरी का पैसा कहां से लाएंगे। उनके पास तो बचत के नाम पर धेला भी नहीं है। आसपास के लोगों को जैसे ही पता चला कि बच्चे का परिवार आर्थिक रूप से बेहद कमजोर है तो उन्होंने मिलजुलकर सहायता करने की ठानी। शाम तक अस्पताल की फीस देने के लिए लगभग पचास हजार रुपये जमा हो गये। बच्चे के चेहरे और शरीर पर काफी टांके लगाने पडे। आंखों पर पलकें भी नहीं थीं। नाक भी खराब हो गई थी। उसे आसपास की खाल लेकर सही किया गया। इलाज होने के पश्चात बच्चे के पिता जब कुछ लोगों के साथ अस्पताल का बिल चुकाने के लिए पहुंचे तो डॉक्टरों ने उन्हें बताया कि बच्चे की गंभीर हालत देखते ही हमने तो उसी समय मुफ्त में सर्जरी करने का निर्णय ले लिया था। यह रुपये हमें देने के बजाय बच्चे की समुचित देखभाल पर खर्च करें और उसका पूरा ख्याल रखें। हर माता-पिता अपने छोटे बच्चों को लेकर सतर्क रहें। उन्हें एक पल भी अपनी आंखों से ओझल न होने दें।
गुलाबी शहर जयपुर में रहते हैं कर अधिकारी संदीप गुप्ता। गुप्ता जी सडक पर आते-जाते कहीं भी दुर्घटना में घायल या जरूरतमंद को देखते हैं तो तुरंत अपनी गाडी से उसे अस्पताल पहुंचाते हैं। इस सद्कार्य के लिए उन्होंने अपनी लग्जरी फॉरच्यूनर गाडी में खास इंतजाम कर रखे हैं। अब तक वे सडक दुर्घटनाओं में घायल सैक‹डों लोगों को अस्पताल पहुंचा चुके हैं। इनमें से कई तो ऐसे थे, जिन्हें यदि समय पर अस्पताल नहीं पहुंचाया जाता तो उनकी मौत हो सकती थी। जरूरतमंदों के इस मसीहा की कार को प्रशासन ने एम्बुलेंस की तरह इस्तेमाल करने की इजाजत भी दे रखी है। जरूरत पडने पर संदीप अपनी गाडी पर नीली बत्ती, सायरन और एम्बुलेंस लिखे बोर्ड को तुरंत लगाते हैं ताकि घायल को जल्द से जल्द अस्पताल पहुंचाया जा सके। बाद में इन्हें उतारकर गाडी में रख लेते हैं। कार में स्ट्रेचर और चादर के अलावा प्राथमिक उपचार का सामान भी हमेशा मौजूद रहता है, जिससे घायल को अस्पताल तक पहुंचाते समय रास्ते में खुद उपचार करने का प्रयास करते हैं। इस अनोखे कर्मठ समाजसेवी को पूर्व राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल, राजस्थान के पुलिस महानिदेशक सहित कई संस्थाओं के द्वारा सम्मानित किया जा चुका है। संदीप गुप्ता किसी भी घायल को अस्पताल पहुंचाने के साथ ही उसके पास अपना विजिटिंग कार्ड अवश्य छोडते हैं, जिसमें मोबाइल नंबर और पते के साथ यह भी लिखा हुआ है कि यदि भविष्य में आपको कोई घायल रास्ते में मिले तो आप भी यही करें, उसे अस्पताल जरूर पहुंचाएं।
मेरठ में एक शख्स जिनका नाम सालिगराम है, ने २०२० के जनवरी महीने में अपने सौवें जन्मदिन पर बडी धूमधाम से केक काटा। उनका चेहरा खुशी से दमक रहा था। कहा और पूछा जा सकता है कि यह कौन-सी अनोखी बात है! देश में कई स्वस्थ उम्रदराज़ अपनी उम्र के ९९ के आंकडे को पार कर १००वां जन्मदिन धूमधाम से मनाते हैं। ऐसे में यदि सालिगराम ने भी मना लिया तो हैरानी कैसी? दरअसल, सालिगराम ने विभिन्न बीमारियों से तंग आकर २०११ में राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु मांगी थी। उनकी जीने की इच्छा ही पूरी तरह से खत्म हो चुकी थी। पल-पल काटना मुश्किल हो गया था। उनकी एक ही रट थी कि वह फौरन इस दुनिया से रुखसत होना चाहते हैं। जिन्दगी उन्हें बोझ लगने लगी है। सेना में नौकरी कर चुके सालिगराम के इच्छा मृत्यु के आवेदन ने सरकार को भी स्तब्ध कर दिया था। एक रिटायर भारतीय सैनिक की खुद की मौत की मांग कई सवाल खडे करने वाली थी। सरकार के लिए यकीनन यह चिन्ता की बात थी। सरकार ने उनके आवेदन को खारिज करते हुए बेहतरीन डॉक्टरों को उनके इलाज और देखरेख में लगा दिया। डॉक्टरों ने उनका नियमित इलाज करते हुए उनके सोये हुए मनोबल को जगाया। उनमें सकारात्मक सोच का संचार किया। उनकी तबीयत में ब‹डी तेजी से सुधार आने लगा। वो दिन भी आ गया, जब वे अपने कमरे में चलने-फिरने लगे। आंखों में जिन्दगी के प्रति नई चमक दिखायी देने लगी। इच्छा मृत्यु का आवेदन भी स्वयं लिखकर वापस ले लिया। एक निराश-हताश-बीमार आदमी की जिन्दगी में उमंग और रोशनी बिखेरने का पूरा श्रेय यकीनन उन डॉक्टरों को जाता है, जिन्होंने यह करिश्मा कर दिखाया।

Thursday, January 16, 2020

सुलगता सवाल, मांगे जवाब

संपूर्ण देशवासियों को दहला और चौंकाकर रख देने वाले निर्भया सामूहिक दुष्कर्म काण्ड एवं हत्या के चारों आरोपियों को फांसी पर लटकाने की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं। दिसंबर २०१२ में हुई इस वीभत्स और शर्मनाक घटना से गुस्साये लाखों भारतीय सडकों पर उतर आये थे। हर किसी की यही मांग थी कि हत्यारों को कडी से कडी सजा दी जाए, जिससे अपराधियों की रूह कांप उठे। भविष्य में कोई भी इन्सान, शैतान बन ऐसा दुष्कर्म करने की हिम्मत न कर पाए। महिलाओं की सुरक्षा के लिए शासन और प्रशासन ने भी न जाने कितने आश्वासन और वायदे किये थे, जिनसे लगा था कि अब देश में बदलाव आयेगा। हालात सुधरेंगे। महिलाएं निर्भय होकर घर से बाहर निकलेंगी। बच्चियां भी पूरी तरह से महफूज़ रहेंगी। निर्भया बलात्कार काण्ड के सात साल बाद भी महिलाएं और बच्चियां अपने ही देश हिन्दुस्तान में कितनी सुरक्षित हैं, इसकी जानकारी देश में कहीं न कहीं प्रतिदिन होने वाले बलात्कारों और हत्याओं से मिल जाती है।
शासन और प्रशासन के साथ-साथ हमारा समाज अभी भी पूरी तरह से नहीं जागा है। आंकडे चीख-चीख कर बताते हैं कि नारियों के पूजे जानेवाले देश में हर बीस मिनट में एक बेटी के साथ हैवानियत हो रही है। हर चौथी दुष्कर्म पीडिता नाबालिग होती है। अस्सी फीसदी बलात्कारी रिश्तेदार या पहचान के ही होते है। ऐसे में यह क्यों न मान लें कि हमारा आक्रोश सतही होता है। रैलियां, भाषण और अखबारों में धडाधड छपने वाले लेख बेअसर रहते हैं। सडक से संसद तक लोगों को जागृत करने की कसरत कोई मायने नहीं रखती। कडा कानून भी शैतानों को नहीं डरा पाता, जिससे स्त्री-हिंसा लगभग जस की तस रहती है।
इस सच को भी जानना जरूरी है कि देश में होने वाले हर बलात्कार की खबर अखबारों में नहीं छपती। कुछ ही खबरें अखबारों तक पहुंचती हैं। अधिकांश खबरों को दबा और छिपा दिया जाता है। न्यूज चैनल वाले तो चुनिंदा बलात्कारों की खबरों को सामने लाना पसंद करते हैं। उन्हें दिल्ली, मुंबई, कोलकाता जैसे महानगरों में होने वाले दुराचारों को रोचक तरीके से पेश करने में भरपूर आनंद और तसल्ली मिलती है। इस पूरी दुनिया में हिन्दुस्तान ही एक ऐसा देश है, जहां पर मासूम अबोध बच्चियों को भी हैवानों की वासना का शिकार होना पडता है। गैर तो गैर अपने भी चुप्पी साधे रहते हैं। इतना ही नहीं अपनी ही बेटियों को दुष्कर्मियों और बाजार के हवाले करने में भी नहीं सकुचाते। नये वर्ष २०२० के जनवरी महीने के दूसरे हफ्ते में खबर के रूप में जो हकीकत सामने आयी, उसने भले ही कहीं न कहीं हर संवेदनशील, चिन्तनशील भारतीय को हिलाकर रख दिया, लेकिन अपने देश में तो ऐसा होना आम है :
उत्तर प्रदेश के बुलंदशहर में एक सोलह साल की लडकी की खुलेआम बोली लगी। खरीददारों में बीस साल के युवक से लेकर अस्सी साल तक के वृद्ध शामिल थे। नाबालिग की देह की बोली लगाने वालों के इस जमावडे में कुछ नेता और बुद्धिजीवी किस्म के सफेदपोश चेहरों का भी समावेश था। लडकी को किसी बहुउपयोगी सामान की तरह सजा-धजा कर देह के भूखों के समक्ष बिठा दिया गया था। उसके गोरे रंग, आकर्षक बदन और अंग-अंग की तारीफ में ऐसे-ऐसे शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा था, जिनसे सिर्फ अश्लीलता ही टपक रही थी, जिन्हें सुनकर अय्याशों को अलौकिक आनंद की अनुभूति हो रही थी। सभी लडकी को ललचायी नज़रों से देख रहे थे। बोली लगाने से पहले लडकी के जिस्म के अंग-अंग को ऐसे छू रहे थे, जैसे किसी सामान को खरीदने से पहले जांचा, परखा जाता है और पूरी तसल्ली के बाद कीमत अदा की जाती है। बोली लगाने वालों में ऐसे शैतान भी शामिल थे, जिनके छूने और परखने का अंदाज लडकी को बहुत पीडा दे रहा था। वह रोये जा रही थी और वे अपनी मस्ती में झूमते हुए बोली लगा रहे थे। पचास हजार से प्रारंभ हुई बोली बढते-बढते अस्सी हजार तक जा पहुंची थी। बोली और आगे बढती कि इससे पहले पुलिस वहां पहुंच गई और लडकी उम्रभर शैतानों की हैवानियत को झेलने और खून के आंसू बहाने से बचा ली गई। लडकी की मां का एक साल पहले निधन हो गया था। उसकी सौतेली मां ने उसे मानव तस्कर कलावती को पचास हजार रुपये में बेच दिया था। कलावती ने आसपास के लोगों को लडकी की अधिकतम बोली लगाने के लिए बुलाया था। उम्मीद से ज्यादा खरीददारों की भीड जुटने के कारण उसे यकीन था कि उसकी मोटी कमायी हो जाएगी। कलावती मानव तस्करी की पुरानी खिलाडी है। दो साल पहले जेल भी जा चुकी है। यह शातिर नारी आसपास के इलाकों की लडकियों को नौकरी दिलाने के बहाने बाहर ले जाती है और उन्हें बेच देती है। एक लडकी के बदले उसे चालीस से पचास हजार रुपये तक की कमायी हो जाती है। कभी-कभी तो यह आंकडा लाख-दो लाख तक भी पहुंच जाता है। जिस नाबालिग को बेचते हुए वह पुलिस के हत्थे चढी वह झारखंड की राजधानी रांची के निकट स्थित एक गांव की मूल निवासी है। कलावती झारखंड की पचासों लडकियों को उत्तर प्रदेश के बागपत, मुजफ्फरनगर, बिजनौर, मेरठ और बुलंदशहर में बेच चुकी है। गरीब और आदिवासी समाज के परिवारों की लडकियों को कलावती बडी आसानी से अपना शिकार बनाती रही है।

Thursday, January 9, 2020

शहीद की नई परिभाषा

लोकतंत्र में विपक्ष का काम ही होता है, सत्ता पार्टी पर नज़र रखना। जो कार्यक्रम और नीतियां उसे जनहितकारी न लगें उनका शांतिपूर्वक तरीके से विरोध करना। सच्चे लोकतंत्र में जितना महत्व जनता के द्वारा चुनी सरकार का होता है, उतना ही विपक्ष का भी होता है, लेकिन भारतवर्ष में काफी अलग मंजर नज़र आ रहा है। नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) को लेकर जिस तरह से विपक्षी दल विरोध कर रहे हैं और हंगामा करने वालों का साथ दे रहे हैं, उससे उनकी नीयत पर शक होना स्वाभाविक है। देश के गृहमंत्री अमित शाह बार-बार स्पष्ट कर चुके हैं कि नागरिकता संशोधन कानून से किसी भारतीय का कोई लेना-देना नहीं है। यह कानून किसी की नागरिकता नहीं छीन सकता। नागरिकता रजिस्टर यानी एनआरसी को नागरिकता संशोधन कानून के साथ जबरन जोडने का कोई मतलब ही नहीं है क्योंकि फिलहाल इसे लेकर कोई पहल नहीं हो रही है, लेकिन फिर भी विपक्ष ने अपना रवैया नहीं बदला। देश की जनता को भ्रमित और भयभीत करने का गंदा खेल निरंतर जारी रखा। किसी भी विपक्षी नेता ने हिंसक प्रदर्शन करने वाले उपद्रवियों को रोकने और समझाने की पहल नहीं की, उलटे लोगों को भडकाया और उकसाया। ऐसा लगता है कि विपक्षियों के लिए लोकतंत्र का अर्थ जनता को भ्रमित करना है, उन्हें वास्तविकता से अवगत कराना नहीं। उन्हें आग बुझाने में नहीं, लगाने में दिलचस्पी है।
देशभर में हुए हिंसक प्रदर्शन और आंदोलनों में मारे गए उपद्रवियों को हिन्दुस्तान की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस की नेता प्रियंका गांधी ने 'शहीद' घोषित कर हर किसी को स्तब्ध कर दिया। हिंसा की अनोखी पक्षधर प्रियंका यह भी भूल गईं कि इसी हिंसा ने उनकी दादी और पिता की जान ली थी। जिस महात्मा के उपनाम 'गांधी' को बडी शान से उनके खानदान और उन्होंने अपने नाम के साथ जोड रखा है, उनकी हत्या भी जिस नाथूराम गोडसे ने की थी वह हिंसा का पुजारी था। शहीद की यह नई परिभाषा पेश करने वाली इस महान अनोखी राजनीतिक हस्ती का अभिनंदन किया जाना चाहिए। फूलमालाओं से लाद दिया जाना चाहिए, ताकि इनका हौसला बरकरार रहे। ये नई-नई परिभाषाएं गढती रहें और देशवासियों का ज्ञानवर्धन होता रहे।
उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सार्वजनिक सम्पत्ति को नुकसान पहुंचाने वाले प्रदर्शनकारियों के होश ठिकाने लगाने और उन्हें सबक सिखाने के लिए एक क्रांतिकारी पहल करते हुए यह घोषणा की, कि अब सरकार चुप नहीं बैठेगी, जिसने सार्वजनिक सम्पत्ति को क्षति पहुंचायी है, उन्हीं से क्षतिपूर्ति की जाएगी। नुकसान की भरपाई नहीं करने पर सरकार उनके खिलाफ कुर्की जब्ती की कार्रवाई करने से नहीं चूकेगी। प्रदेश की पुलिस ने १०० से ज्यादा लोगों की शिनाख्त कर उनकी तस्वीर वाले पोस्टर चौक-चौराहों पर लगवाये और उनके खिलाफ तेजी से कार्रवाई शुरू हो गई। खुद को सच्चे देशभक्त और अत्यंत बुद्धिमान समझने वाले कई बुद्धिजीवियों और नेताओं ने इस पर भी आपत्ति जतायी। उनका कहना था कि यह तो सरासर सरकारी गुंडागर्दी है। विरोध की आवाज़ों को दबाने के लिए सरकार दहशत फैलाकर अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का गला घोंट रही है। लोकतंत्र का अपमान कर रही है।
एक नारी है अरूंधती राय। अंग्रेजी लेखिका है। समाजसेवी होने का खूब ढोल पीटती है। उसने जिस तरह से खिलखिलाते हुए बिल्ला और रंगा जैसे हत्यारों का नाम लेकर देश के प्रधानमंत्री और गृहमंत्री के लिए घोर अपमानजनक टिप्पणी की उससे पूरे देश में उसकी थू-थू हुई। उल-जलूल बकवास करने और छात्र-छात्राओं को उकसाने वाली भाषा का इस्तेमाल करने वाली यह तथाकथित बुद्धिजीवी अपने नक्सली प्रेम के लिए भी कुख्यात रही है। यह अलग बात है कि अपनी इस कुख्याति को वह ख्याति समझती है। बडी बेशर्मी से अभद्रता और तुच्छता की सभी सीमाएं लांघने वाली यह बददिमाग नक्सलियों और आतंकियों के हाथों जवानों के मारे जाने पर जश्न और आतंकियों, नक्सलियों के ढेर होने पर मातम मनाती है। उनके पक्ष में लेख लिखती है, किताबें छपवाती है और विदेशी पुरस्कार पाती है। इतना ही नहीं, अपने साथियों के साथ उनके लिए अदालतों के दरवाजे भी खटखटाती है। दरअसल हिन्दुस्तान में ऐसे और भी कई चेहरे हैं, जिनका बस एक ही मकसद है, मानवाधिकार की बातें कर अपना उल्लू सीधा करते रहो और सरकार के विरोध करने के बहाने ढूंढते रहो। इनके गिरोह में कुछ पत्रकार भी शामिल हैं, जिन्हें देश में कुछ भी अच्छा होता नहीं दिखता। खुद को छोडकर इन्हें बाकी दूसरे सभी पत्रकार बिकाऊ लगते हैं। नागरिकता कानून में संशोधन के बाद देशभर में हुई हिंसा की वजह से करीब पच्चीस लोगों की मौत हो गई। अरबों-खरबों का नुकसान हुआ। जहां देश की अर्थव्यवस्था पर भी बहुत बुरा प्रभाव पडा, वहीं पूरी दुनिया में भारत की बदनामी भी हुई। दिल्ली के जामिया मिलिया विश्वविद्यालय में पुलिस तथा जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय (जेएनयू) में नकाबपोशों के द्वारा की गई गुंडागर्दी और बेतहाशा हिंसा के बाद तो कई विदेशों के विश्वविद्यालयों के छात्र-छात्राओं ने भी अपना तीव्र विरोध जताया और खुलकर निन्दा की। अमेरिका, ब्रिटेन और रूस सहित कई देशों की सरकारों ने भारत में फैली हिंसा की आग के चलते अपने देश के नागरिकों को भारत न जाने की सलाह देकर सतर्क कर दिया। असम में नब्बे फीसदी पर्यटकों ने अपनी बुकिंग कैंसिल कराई। जिन दो लाख से अधिक देशी-विदेशी पर्यटकों ने ताजमहल देखने के लिए आगरा में होटल आदि बुक कराये थे, उन्होंने भी अपना कार्यक्रम रद्द कर दिया। हर पर्यटक यही चाहता है कि उसकी यात्रा आरामदेय और चिंता मुक्त हो। कोई भी अपने जीवन को खतरे में नहीं डालना चाहता। सभी भारतवासी भी तो यही चाहते हैं कि देश में अमन-चैन बना रहे। कहीं कोई हिंसा और खून खराबा न हो।

Thursday, January 2, 2020

इनकी पीडा को भी तो समझो...

चित्र -१ : हिन्दुस्तान दुनिया का सबसे विशाल लोकतांत्रिक देश है। यहां पर असहमति दर्शाना और विरोध प्रदर्शन करना हर नागरिक का संवैधानिक अधिकार है, परंतु आंदोलन और विरोध के नाम पर अराजकता फैलाना कैसे जायज़ हो सकता है? नागरिकता संशोधन कानून-२०१९ के विरोध में देश के विभिन्न हिस्सों में तोडफोड और आगजनी की गई। अरबों रुपये की सरकारी और गैर सरकारी संपत्ति को स्वाहा कर दिया गया। कई पुलिस कर्मी घायल हुए। आम नागरिकों के साथ-साथ छात्र भी बुरी तरह से पिटे और लहुलूहान हुए। नागरिकता संशोधन कानून बनाने के पीछे भारत सरकार का यही संकल्प है कि पाकिस्तान, बंगलादेश और अफगानिस्तान के उन गैर मुस्लिम अल्पसंख्यको को भारतीय नागरिकता प्रदान कर उनका जीवन सुखमय बनाया जाए, जिन्हें उपरोक्त देशों में वर्षों तक बदसलूकी और प्रताडना का शिकार होना पडा है। हिन्दू, सिख, ईसाई, पारसी, बौद्ध और जैन जैसे अल्पसंख्यक समुदायों को भारतीय नागरिकता देने वाले इस साहसिक कदम पर विरोध जताने वालों ने समानता के अधिकार की दुहाई देते हुए जहां पूरे देश में उथलपुथल मचायी, लोगों को भडकाया, वहीं घटिया और निकृष्ट शब्दावली का इस्तेमाल करने में भी कोई कसर बाकी नहीं रखी।
चित्र - २ : जिन्हें ज़हर उगलना है, उगलते रहें, मातम मनाना है, मनाते रहें, लेकिन बंटवारे के बाद पाकिस्तान में लंबे समय तक प्रताडना झेलने के बाद बीते कुछ सालों में भारत लौटे हिन्दू परिवार काफी खुश हैं। इस कलमकार को दिल्ली में स्थित मजनू का टीला एवं मजलिस पार्क मेट्रो स्टेशन के निकट स्थित रिफ्यूजी कैंप में रह रहे सैकडों शरणार्थियों से करीब से मिलने और जानने का अवसर मिला। वासनमल २०११ में कुंभ के बहाने टूरीस्ट वीजा पर दिल्ली आए थे। पाकिस्तान में बहुसंख्यक समुदाय के आतंक और जुल्मों-सितम ने उनके पूरे परिवार का जीना दुश्वार कर दिया था। बहन, बहू, बेटियों की आबरू खतरे में पड चुकी थी। रेहडी लगाकर किसी तरह से अपना परिवार पाल रहे वासनमल जैसे हर शरणार्थी का अपना दर्द और अपनी शिकायत है।
ईश्वर तो बोलते-बोलते रूआंसें होकर सवाल करने लगते हैं कि आप ही बताइए कि कोई अपना बसा-बसाया घर कभी छोडता है? मेरी तो वहां पर अच्छी खासी कपडे की दुकान थी। खेती-बाडी भी थी, लेकिन जब बहू-बेटियों के साथ बदसलूकी होने लगी तो सबकुछ छोडकर यहां चले आए। २०११ में ही पाकिस्तान से भारत आए रामनाथ के पास भी किसी चीज की कमी नहीं थी, लेकिन बहुसंख्यक समुदाय के गुंडे-बदमाशों की चौबीस घण्टे उनकी बहन-बेटियों पर गंदी नज़रें लगी रहती थीं। कभी भी घर में घुस जाते थे और मारते-पीटते थे। पाकिस्तान में अपने परिवार के साथ हुई बदसलूकी और प्रताडना को याद कर अस्सी वर्षीय रामप्यारी की आंखों के आंसू थमने का नाम नहीं लेते। वे बताती हैं कि पाकिस्तानी गुंडों का हमेशा दबाव बना रहता था कि अगर हमें पाकिस्तान में रहना है, तो अपना धर्म परिवर्तन करना ही होगा। हमारे विरोध करने पर गंदी-गंदी गालियां देते थे और बहू-बेटियों की इज्जत लूटने पर उतारू हो जाते थे। ७५ वर्षीय देवराज का दर्द भी उनकी आंखों से आंसू बन बार-बार छलकता रहा : "हिन्दुओं के लिए पाकिस्तान नर्क से भी बदतर देश है, जहां पर उनके साथ बेहद घटिया बर्ताव किया जाता है। दिनदहाडे हिन्दुओं की बहन-बेटियों को मदरसे से जुडे लडके जबरन उठा ले जाते हैं। फिर कुछ दिनों के बाद यह ऐलान कर देते हैं कि लडकी ने इस्लाम कुबूल करते हुए शादी कर ली है। विगत कुछ वर्षों में हजारों हिन्दू लडकियों का अपहरण हो चुका है। गुंडागर्दी का तो यह आलम है कि कोई लडकी सामने आने की हिम्मत ही नहीं दिखा पाती। वहां पर सामूहिक धर्म परिवर्तन कराये जाने की तो जैसे परंपरा बन गई है। पहले जहां पाकिस्तान में हिन्दू करोडों की संख्या में थे, अब लाखों में सिमटते जा रहे हैं। मजनू का टीला में रहने वाले दादा दयालदास इज्ज़त और सुख-चैन की जिन्दगी जीने के लिए मार्च २०१३ में पाकिस्तान के हैदराबाद (सिंधप्रांत) को छोडकर दिल्ली आए। उनकी बहू ने जब बेटी को जन्म दिया तो उन्होंने अपनी पोती का नाम 'नागरिकता' रखा। 'नागरिकता' की दादी से जब पूछा गया कि उन्होंने अपनी पोती का यह नाम क्यों रखा तो उनका कहना था कि मोदीजी ने कोई कानून बनाया है, जिससे हम लोगों को अब हिन्दुस्तान की नागरिकता मिल जाएगी। इसलिए बिटिया का नाम 'नागरिकता' रख दिया है। वैसे तो हम लोगों के यहां सवा महीने में नामकरण संस्कार किया जाता है, लेकिन कानून जिस दिन बना उसी दिन नामकरण संस्कार कर दिया गया। हमारी आप सभी से हाथ जोडकर विनती है कि कानून का विरोध मत कीजिए। हम लोगों को स्वीकार कीजिए। हम लोग मजदूरी कर गुजर-बसर कर लेंगे। हम लोग आपके हैं, कृपया हमें मत दुत्कारिए। आप लोग हमारी खुशी का अंदाजा नहीं लगा सकते। यह सोचकर हमारे पांव जमीन पर नहीं पड रहे हैं कि अब हमें हिन्दुस्तान में रहने का कानूनी हक मिलने वाला है। अब हमें कोई शरणार्थी नहीं कहेगा। हम और हमारे बच्चे बडे गर्व से कहेंगे, हम हैं हिन्दुस्तानी। सच्चे हिन्दुस्तानी।