Thursday, May 31, 2018

अति मारे मति

सभी नहीं पीते। लेकिन जो पीते हैं उन्हीं की बदौलत सरकारों को अरबों-खरबों की कमायी होती है। गरीब देसी पीता है। अमीर अंग्रेजी। कितने अमीरों और गरीबों को नशे की लत का शिकार होकर अपनी कब्र खुद खोदते देखा गया है। इसके मोहपाश का शिकार होकर कई लेखक, पत्रकार, उद्योगपति, नेता, कलाकार अपना सबकुछ गंवा कर फकीर बन गए, इज्जत लुटा बैठे फिर भी नशे के मोहपाश से मुक्त नहीं हो पाए। जिनकी छाती पर समझदार होने का तमगा लगा होता है, जिनकी समाज में अपार प्रतिष्ठा होती है, जिन्हें लोग अपना प्रेरणास्त्रोत मानते हैं, जिनकी वाहवाही के किस्से गूंजते रहते हैं, आखिर वे भी क्यों और कैसे नशे के शिकंजे में फंस ही जाते हैं। नशे में ऐसा कौन-सा सम्मोहन होता है जो पीछा नहीं छोडता? शराब और अन्य नशों के साथी बने कुछ लेखक, पत्रकार मित्र कहते हैं कि इन्हें ले लेने के बाद दिमाग के बंद दरवाजे खुल जाते हैं, सोच का घोडा छलांगें मारने लगता है और संकोच के ताले टूट जाते हैं, जिससे ऐसे-ऐसी रचनाएं जन्म लेती हैं जिन्हें जमाना वर्षों तक याद रखता है। नशे के आदी व्यापारी, उद्योगपति, ठेकेदार, नेता और दलाल मानते है नशा संबंधों को प्रगाढ बनाने में अभूतपूर्व भूमिका निभाता है। दूरियां घटाता है और ऐसे-ऐसे काम संभव कर दिखाता है जिनकी होश में कल्पना नहीं की जा सकती। गरीब अपनी गरीबी को चिढाने और कुछ समय के लिए सुध-बुध खोने के लिए पीते हैं तो अमीरों के पास होते हैं बहाने अपार।
अमूमन यह माना जाता है कि डॉक्टर नशे से दूर रहते होंगे। क्योंकि नशे से होने वाले नुकसानों से सबसे ज्यादा डॉक्टर ही वाकिफ रहते हैं। यह भी सच है कि यह दुनिया अपवादों से भरी पडी है। डॉक्टरों के जीवन में कई तरह की परेशानियां, चिंताएं और दुविधाएं होती हैं। अपने कर्तव्य को निभाने के लिए उन्हें अपनी नींद और सुख-चैन की तिलांजलि देनी पडती है। दिल्ली में रहने वाले सर्जरी के एक प्रसिद्ध डॉक्टर को मरीजों की सर्जरी के दौरान घंटों तक खडा रहना पडता था। जिसकी वजह से उन्हें कमर के दर्द ने घेर लिया। शुरुआती दौर में दर्द से छुटकारा पाने के लिए उन्होंने आम दर्द निवारक दवाएं लीं। जब बात नहीं बनी तो बुटरफेनॉल नामक इंजेक्शन लेने लगे जिसे मरीजों को सर्जरी के बाद दर्द से राहत के लिए लगाया जाता है। इस इंजेक्शन को लगाने के बाद मन-मस्तिष्क पर नशा हावी हो जाता है क्योंकि इसमें मार्फिन की मात्रा अधिक रहती है। शुरु में वह इस इंजेक्शन को सप्ताह में एक से दो बार लेते थे। धीरे-धीरे उन्हें इसकी ऐसी लत लगी कि नशे के तौर पर प्रतिदिन तीन से चार बार यह इंजेक्शन लेने लगे। जिससे राहत मिलने की बजाय सेहत बिगडने लगी। प्रेक्टिस पर भी असर पडने लगा। जहां पहले कभी मरीजों की लाइन लगी रहती थी अब वहां पर सन्नाटा छाया नजर आने लगा। डॉक्टर के नशे में रहने के कारण घर में भी लडाई-झगडा होने लगा। पत्नी ने उन्हें बहुतेरा समझाया, लेकिन इंजेक्शन के नशे के गुलाम हो चुके डॉक्टर ने एक भी नहीं सुनी। हालात इस कदर बिगडे कि पत्नी और बच्चे घर छोडकर चले गए। ऐसा भी नहीं था कि यह डॉक्टर महोदय कमर के दर्द से छुटकारा पाने के लिए केवल बुटरफेनॉल नामक दवा ही लेते थे। उन्हें शराब और सिगरेट का भी खास शौक था। नींद की गोलियां गटकने में भी कमी नहीं करते थे। एक इंसान और इतने सारे नशे! आखिरकार उनकी हालत इतनी बिगड गई कि बेहोशी के दौरे पडने लगे। साथी डॉक्टरों से उनकी यह हालत देखी नहीं गई तो वे उन्हें किसी तरह से समझाकर गाजियाबाद स्थित नेशनल ड्रग डिपेंडेंस ट्रीटमेंट सेंटर में इलाज के लिए ले गए। जहां उनका अभी भी इलाज चल रहा है।
नशे में इंसान क्या-क्या नहीं कर गुजरता। उसे रिश्तों का भी भान नहीं रहता। नई दिल्ली में स्थित जामियानगर में एक शराबी बेटे ने दो साथियों के साथ मिलकर अपने माता-पिता को मौत के घाट उतार दिया। पच्चीस वर्षीय इस हत्यारे को शराब के अलावा ड्रग्स लेने की भी लत थी। माता-पिता उसे टोकते रहते थे। पत्नी भी छोडकर चली गई थी। तलाक का केस चल रहा था। इसी बीच उसकी फेसबुक के जरिये कानपुर की एक युवती से दोस्ती हो गई थी। वह इस युवती से शादी करना चाहता था, जबकि माता-पिता इस शादी के खिलाफ थे। एक दिन उसने जमकर शराब पी और अपने दो दोस्तों को ढाई लाख की सुपारी देकर बूढे मां-बाप की हत्या करवाकर फेसबुक फ्रेंड से शादी करने की तैयारी शुरू कर दी। शुरू में पुलिस यह मानकर चलती रही कि दंपति ने खुदकुशी की है। लेकिन पोस्टमार्टम में पता लग गया कि मुंह दबाकर दोनों की हत्या की गई है। पुलिस ने आसपास लगे सीसीटीवी फुटेज और बेटे के मोबाइल की कॉल डिटेल को खंगाला तो आखिरकार सच सामने आ गया। शराब पीकर घर को कलह का मैदान बनाने और मारपीट करने वाले पिताओं की खबरें तो हम अक्सर सुनते और पढते रहते हैं। लेकिन पिता की शराब की लत से परेशान होकर बेटे के द्वारा खुदकुशी कर लेने की खबरें कम ही सुनने और पढने में आती हैं। तामिलनाडु के तिरुनेलवेली में रहने वाला दिनेश अपने पिता की शराबखोरी से त्रस्त हो चुका था। वह पिता को टोक-टोक कर थक गया था। पर शराबी पिता को शराब के अलावा और कुछ सूझता ही नहीं था। ऐसे में नशे में धुत होकर रोज घर में मारपीट, गाली-गलोच करने वाले पिता से उसे इतनी घृणा हो गई कि उसने उन्हें कोई चोट पहुंचाने की बजाय खुदकुशी कर ली। डॉक्टर बनने की चाहत रखने वाले इस बेटे के मन में अपने शराबी पिता के प्रति कितनी नफरत थी उसका पता उसके सुसाइड लेटर में लिखी इन पंक्तियों से लग जाता है - "अप्पा आप शराबी हैं, इसलिए मेरी चिता को छूना भी नहीं।"

Thursday, May 24, 2018

बचपन की तस्करी

यह सच किसी भी संवेदनशील भारतीय को स्तब्ध कर सकता है कि अपने देश में प्रतिवर्ष हजारों बच्चे गुम हो जाते हैं, गायब कर दिये जाते हैं। बच्चों की सुरक्षा को लेकर भी हमारे यहां काफी ज्यादा लापरवाही बरती जाती है। बच्चों के खिलाफ होने वाली हिंसा के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद करने वाले नोबल पुरस्कार विजेता कैलाश सत्यार्थी का कहना है कि देश में हर घंटे में दो बच्चों के साथ यौन उत्पीडन होता है। हर ८ मिनट में किसी बच्चे को चुराया जाता है। घरों में, स्कूलों में, पडोस में कही भी बच्चे सुरक्षित नहीं हैं। दोस्त, रिश्तेदार, शिक्षक, डॉक्टर और पुलिसवाले तक किसी के भी इरादे गंदे हो सकते हैं। घर की इज्जत और मान मर्यादा के नाम पर बच्चों की आवाज को दबा दिया जाता है। अपराधी बेखौफ घूमते हैं। दुनियाभर में अस्सी प्रतिशत से ज्यादा मानव तस्करी यौन शोषण के लिए की जाती है और बाकी बंधुआ मजदूरी के लिए। भारत को एशिया में मानव तस्करी का गढ माना जाता है।
मानव तस्करी और मानव व्यापार इंसानों का काम नहीं हो सकता। यह तो राक्षसी कृत्य है। अफसोस... मानवता को शर्मसार करने और धन-दौलत को सर्वोपरि मानने वालो की संख्या इक्कीसवीं सदी में बहुत ज्यादा है। इसी प्रगतिशील सदी में मासूम बच्चे कूडे में से खाना तलाशते हैं। गगनचुंबी इमारतों के निर्माण के लिए अपने मासूम कंधों पर र्इंटे ढोते हैं, अपने सिर पर रेत और सीमेंट की बोरियां रख कर अपने बचपन को लुटता देखते हैं। अखबार बेचते हैं, सब्जी बेचते हैं और चाय आदि के ठेले लगाने के साथ-साथ विभिन्न अपराधों में लिप्त हो जाते हैं। शासक नेता, नौकरशाह, समाजसेवक, धनपति यह मानकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं कि यही इनका मुकद्दर है और मुकद्दर तो ऊपर वाला तय करता है।  जिन परिवारों के बच्चे गुम हो जाते हैं उनका तो जीना ही मुहाल हो जाता है। पुलिस थानों के चक्कर काटते-काटते महीनों गुजर जाते हैं। पुलिस की बेरुखी भी उन्हें तोडकर रख देती है। कई मां-बाप ऐसे भी होते हैं जो अपने बच्चे की गुमशुदगी की रिपोर्ट थाने में दर्ज करवाने जाते ही नहीं। दरअसल उन्हें पता होता है कि अधिकांश पुलिस वाले बिना रिश्वत के काम ही नहीं करते। जिन बच्चे और बच्चियों की तस्करी और अपहरण कर लिया जाता है उन्हें अमानवीय यातनाएं और अपंग बनाकर भीख मंगवाने और देह व्यापार में झोंक देने की खबरें हम और आप वर्षों से पढते और सुनते चले आ रहे हैं। कई सफेदपोश और संगठित गिरोह बच्चों को गायब करने के काम में लगे हैं। उनके लिए यह उनका धंधा है, कारोबार है जिससे मोटी कमायी होती है। इस मोटी और काली कमायी के लिए कई लोग नवजातों की तस्करी में लगे हुए हैं। पिछले वर्ष पश्चिम बंगाल के नार्थ २४ परगना इलाके में एक नर्सिंग होम के कर्ताधर्ता नवजातों के सौदे का काला कारोबार करते हुए पकडे गए। देश में ऐसे सैकडो 'कारोबारी' हैं। सभी तो पकड में नहीं आते। देश और विदेश में जिन दंपत्तियो के बच्चे नहीं होते, उन्हें मोटी कीमत पर नवजातों को बेचा जाता है। नवजातों की अलग-अलग कीमत होती है। जिन बच्चों का रंग गोरा होता है उन्हें दो लाख रुपये और काले और सांवले बच्चों को एक से डेढ लाख में बेचा जाता है। अगर कोई महिला अबॉर्शन कराने आती है तो उसे भी पैसे देकर बच्चे को जन्म देने को कहा जाता है। इस तरह का कारोबार करने वाले नर्सिंग होम और पॉली क्लिनिक में जो बच्चे पैदा होते हैं उनके मां-बाप को बताया जाता है कि नवजात जिन्दा नहीं पैदा हुआ। गरीब मां-बाप आसानी से यकीन कर लेते हैं। कम ही होते हैं जो ज्यादा पूछताछ करते हैं। ज्यादा विरोध करने वाले गरीब मां-बाप का चंद रुपये देकर मुंह बंद कर दिया जाता है।
पचास-साठ साल बाद पूरी तरह से जागृत हो चुके भारतीय यह पढ और सुनकर यकीनन चकरा जाएंगे कि एक दौर ऐसा भी था जब देश में बचपन बिकता था। बेटे और बेटियों की तस्करी कर उन्हें अमानवीय यातनाएं दी जाती थीं और उन्हें तरह-तरह की मंडियों के हवाले कर दिया जाता था। मासूमों को सामान की तरह बेचा-खरीदा जाता था। उनकी फरियाद और चीखें अनसुनी कर दी जाती थीं। पैसा कमाने के लिए ईमानदार रास्तों और तरीकों के होने के बावजूद यह अमानवीयता और दरिंदगी चरम पर थी। उस सचेत पीढी के मन में यह विचार भी जरूर आयेगा कि जब बचपन पर ऐसा जुल्म हो रहा था तब सजग देशवासी कहां थे। ऐसी कौन-सी मजबूरी थी जिसके चलते राजनेताओं, सत्ताधीशों, समाज सेवकों और बुद्धिजीवियों ने आंखें बंद कर ली थीं और जुबानों पर ताले जड लिए थे? इन पंक्तियों को पढने के बाद मेरे पाठक मित्र यह सवाल भी कर सकते हैं कि यदि पचास-साठ साल बाद भी हालात नहीं बदले तो? ऐसे में मेरा जवाब है हमें आशावादी होना ही होगा।

Thursday, May 17, 2018

खुद के हत्यारे

वो पुलिस अधिकारी जिससे अपराधी कांपते हों, जिसकी कर्तव्यपरायणता के किस्से लोग वर्षों से सुनते चले आ रहे हों, जो असंख्य लोगों का प्रेरणास्त्रोत हो, आदर्श हो उसकी एकाएक आत्महत्या की खबर आए तो दिमाग का सुन्न हो जाना और सवालों का खडा होना लाजिमी है। महाराष्ट्र के अतिरिक्त पुलिस महानिदेशक हिमांशु रॉय की खुदकशी की खबर सुनकर मन में यह विचार आया कि क्या इसके सिवाय और कोई चारा नहीं था? क्या जीने के सभी रास्ते बंद हो गये थे? ऐसे कौन से कारण हैं जो जिद्दी और जुनूनी व्यक्ति को भी मिट्टी में मिलने को विवश कर देते हैं। महज ५५ वर्ष की उम्र में रिवॉल्वर को अपने मुंह में रखकर गोली चला खुदकुशी करने वाले हिमांशु रॉय के ऐसे कई किस्से हैं, जिन्होंने ऐसे लौहपुरुष के रूप में स्थापित किया जो हारना नहीं, जीतना जानता था। १९८८ बैच के इस आईपीएस अधिकारी ने कुख्यात माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम की सम्पत्ति को जब्त कराने के अभियान में प्रमुख भूमिका निभायी थी। दाऊद के भाई इकबाल कासकर के ड्राइवर आशिफ के एनकाउंटर, पत्रकार जेडे हत्या प्रकरण, लैला खान एवं लॉ ग्रेजुएट पल्लवी पुरकायस्थ डबल मर्डर केस जैसे मामलों की जांच को अंजाम तक पहुंचा कर ही दम लिया था।
पाकिस्तानी मूल के अमेरिका में जन्मे लश्कर-ए-तैयबा आतंकी डेविड हेडली के मामले की जांच करने वाली टीम में भी वे शामिल थे। आइएस में शामिल होने जा रहे अरीब मजीद को वापस लाने में उनकी प्रमुख भूमिका थी। साल २०१३ के आईपीएल स्पॉट फिक्सिंग केस को भी सुलझाने में आगे रहने वाले इस वर्दीधारी के लिए सभी अपराधी बराबर थे। वे किसी के रुतबे और पहुंच की परवाह नहीं करते थे। उन्होंने १९९१ में मालेगांव में हुई अपनी पहली नियुक्ति में बाबरी मस्जिद ढहाए जाने के बाद भडके दंगों को बडी सूझ-बूझ के साथ नियंत्रित कर अपनी योग्यता का परिचय दे दिया था। बडी से बडी कठिनाइयों के सामने डटकर खडे होने वाले लडाकू के द्वारा हड्डियों के कैंसर से भयभीत होकर मौत से पहले मौत को गले लगाने की सच्चाई जिन्दगी से धोखाधडी से कम नहीं। लडाकू कभी भी ऐसी मौत नहीं मरा करते। वे तो आखिर तक लडा करते हैं। उनके इस कदम से उन लोगों को बेहद निराशा हुई है जो उन्हें असली नायक मानते थे। कई गंभीर कैंसर रोगी समुचित इलाज से ठीक होते देखे गए हैं। कैंसर से छुटकारा पाने के लिए उन्हें वर्षों तक निर्भीक यौद्धा की तरह लडते देखा गया है। रॉय ने अपने मित्रों से कहा था कि उन्होंने नौकरी के दौरान कई दबावों और तकलीफों को झेला है। इस दर्द को भी बडी बहादुरी के साथ सह लेंगे। कौन नहीं जानता कि पुलिस के उच्च अधिकारियों पर मंत्रियों और नेताओं का दबाव रहता है। वे उन्हें अपने इशारों पर नचाना चाहते हैं। हिमांशु रॉय ने इसी तकलीफ की तरफ इशारा किया था। रॉय जैसे अधिकारी अपने कर्तव्य को ही प्राथमिकता देते हैं। इसलिए प्रताडना के शिकार होते हैं।
हिमांशु की दु:खद आत्महत्या ने मुझे मुकेश पांडे की याद दिला दी जिन्होंने २०१७ के अगस्त माह में खुदकुशी कर ली थी। राजधानी दिल्ली से सटे गाजियाबाद के स्टेशन से एक किमी दूर रेलवे ट्रैक के पास उनका क्षत-विक्षत शव मिला था। २०१२ के बैच के इस युवा आइएएस अधिकारी ने अपने सुसाइड नोट में लिखा था- "मुझे जिंदगी ने बहुत थका दिया है। इसके दांव-पेच से मैं इस कदर परेशान हो गया हूं कि मेरा इंसान के अस्तित्व से ही विश्वास उठ गया है। मेरे मां-बाप और पत्नी हमेशा आपस में लडते-झगडते रहते हैं। उनके बीच की तनातनी ने मेरा जीना दुश्वार कर दिया है। मेरी पत्नी और मेरे विचारों में जमीन-आसमान का अंतर है। हमारी एक बेटी भी है। मैं पत्नी और बेटी से बेहद प्यार करता हूं। मेरी मौत के लिए मेरी छवि भी जिम्मेदार है। मैं स्वीकार करता हूं कि मैं खुले दिल का नहीं हूं। पत्नी को बदल पाना मेरे बस की बात नहीं है। मेरा जीवन से मन भर गया है इसलिए खुदकुशी कर रहा हूं। रेलवे ट्रैक पर गर्दन रखकर आत्महत्या करने से पहले मुकेश एक गगनचुंबी इमारत के दसवें माले पर छलांग लगाने के लिए चढे थे पर पता नहीं उनके मन में कौन-सा विचार आया कि वे वहां से उतरकर गाजियाबाद की तरफ चल दिए। तय है कि उन्होंने एकाएक खुदकुशी नहीं की। कई तरह के विचारों से जूझते रहे। यह कितनी हैरानी की बात है कि जो बुद्धिमान प्रशासनिक अधिकारी दूसरों की समस्याओं को चुटकी बजाकर हल कर देता था वह अपने घरेलू झगडों का हल नहीं निकाल सका। यह भी सच है कि देश में होने वाली आधी से ज्यादा आत्महत्याएं पारिवारिक कलह का परिणाम होती हैं।
यह सच बेहद चौंकाने वाला है कि दुनिया में हर ४० सेकंड में एक आत्महत्या हो जाती है। प्रतिवर्ष औसत आठ लोग आत्महत्या कर लेते हैं मनोविज्ञानियों का कहना है कि यदि समय रहते आत्महत्या करने की ठान चुके शख्स को भावनात्मक संबल मिल जाए तो वह अपना इरादा बदल सकता है, कोई भी व्यक्ति हताश और निराशा होने पर नहीं, बल्कि सही सलाह और सहारा नहीं मिलने पर आत्महत्या कर गुजरता है वह अंत तक इंतजार करता है कोई उसकी पी‹डा को समझे। उसे अपनी अवहेलना बर्दाश्त नहीं होती। जीवन से निराश हो चुके व्यक्ति का चेहरा ही उसका दर्पण होता है। उसकी उदासी, समस्याएं, तकलीफें, चिंताएं चेहरे पर ही नजर आ जाती हैं। उसके स्वभाव और दिनचर्या में भी काफी बदलाव आ जाता है। वह सभी से दूरी बनाने की कोशिश करने लगता है। यह वो संकेत हैं जो परिवार के सदस्यों, दोस्तों और करीबियों का ध्यान खींचने के लिए काफी हैं। यह ध्यान रहे कि ऐसे व्यक्ति से ज्यादा पूछताछ और सवाल करने की बजाए उसकी ही बात सुनी और समझी जानी चाहिए। खाने-पीने, सोने और सेहत का पूरी तरह से ख्याल रखा जाना चाहिए। अपनों का करीब रहना, उनका खुलकर बात करना, खुश रहने के मौके उपलब्ध करवाना और हर तरह की मदद के लिए तत्पर रहना किसी अच्छे चिकित्सक के गहन इलाज से कम नहीं होता। उसे ज्यादा से ज्यादा समय देकर प्रेम और सांत्वना से सकारात्मक विचारों से जोडने की कोशिश उसके लिए हितकारी साबित होती है।

Thursday, May 10, 2018

ईमानदारी का अपमान, भ्रष्टों का सम्मान!

सीधे-सादे लफ्जों में कहें तो आज अधिकांश लोग भ्रष्टाचार से परहेज नहीं करते। भ्रष्टाचारी को दुत्कार नहीं सत्कार देते हैं। ईमानदारों को अजीब निगाहों से देखा जाता है और उनकी बोली लगाने में संकोच नहीं किया जाता। सभी सरकारी कर्मचारियों, अधिकारियों को बिकाऊ समझने वालों के हौसले कितने बुलंद हैं इसका उदाहरण बीते सप्ताह हिमाचल प्रदेश के कसौली में देखने में आया। अतिक्रमण विरोधी अभियान का नेतृत्व कर रही महिला अधिकारी की एक गेस्ट हाऊस मालिक ने गोली मार कर हत्या कर दी। एक कर्मचारी व एक मजदूर भी गोली लगने से घायल हो गए। काफी भागदौड के बाद पुलिस ने हत्यारे को दबोचने में सफलता पायी। हत्यारे को कर्तव्यपरायण अधिकारी की हत्या करने का कोई गम नहीं था। उसे सिर्फ अपने गेस्ट हाऊस के अवैध हिस्से को गिराये जाने का दु:ख था। उसका कहना था कि इसी गेस्ट हाऊस से उसका घर-परिवार चलता है। उस दिन जब तोडफोड करने के लिए महिला अधिकारी पहुंची थीं तो उसकी मां ने पैर छूकर उनसे राहत की गुहार लगाई थी, लेकिन वे नहीं मानीं। वह तो उन्हें मोटी रिश्वत देने को भी तैयार था जिसे उन्होंने लेने से स्पष्ट इनकार कर दिया। ऐसे में उसे गुस्सा आ गया और अंधाधुंध गोलियां चला दीं।
गौरतलब है कि यह अतिक्रमण विरोधी अभियान सुप्रीम कोर्ट के आदेश से चलाया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने पंद्रह दिन के भीतर कसौली के तेरह होटलों का अतिक्रमण हटाने का आदेश दिया था। कोर्ट के आदेश का पालन करने के लिए असिस्टेंट टाउन एन्ड कंट्री प्लानर शैलबाला शर्मा कसौली के नारायणी गेस्ट हाऊस में भी अवैध निर्माण गिराने की निगरानी के लिए गई थी। तभी उनकी निर्मम हत्या कर दी गई! पुलिस वाले भी देखते रह गए। उन्हीं के सामने से हमलावर भाग खडा हुआ। ज्ञातव्य है कि कसौली एक पर्वतीय क्षेत्र है जहां पर सुरक्षा की दृष्टि से दो मंजिला होटल निर्माण की स्वीकृति दी गई है, लेकिन कई लोगों ने छह-छह मंजिला होटल खडे कर लिए हैं। यह अवैध निर्माण आज के नहीं हैं। अतिक्रमणकारियों को अतिक्रमण का सफाया करने का भय दिखाकर अधिकारी वर्षों से वसूली करते रहे हैं। इसी वसूली अभियान के चलते होटल मालिक बेफिक्र थे। उन्होंने महिला अधिकारी को भी बिकाऊ समझ लिया था। जब उन्होंने वर्षों से चली आ रही परंपरा निभाने से इनकार कर दिया तो उन्हें मौत की सौगात दे दी गई? एक ईमानदार महिला अधिकारी की शहादत के बाद क्या कोई इस सवाल का जवाब देगा कि इस देश में ईमानदार होना गुनाह है और क्या उन भ्रष्ट अधिकारियों पर कार्रवाई होगी जिनके कारण अतिक्रमणकारी वर्षों तक बेखौफ होकर अपना धंधा चलाते हुए मालामाल होते रहे? यह भी सच है कि ऐसे भ्रष्ट अधिकारी देश में कहां नहीं है। हर जगह इन्हीं का तो सिक्का चलता है। सरकारी जमीनों पर अवैध कब्जे के पीछे राजनीतिक ताकतों का हाथ तो होता ही है, सरकारी मशीनरी भी इसमें खासी भूमिका निभाती है। देश भर में कई राजनेताओं, समाजसेवकों और धंधेबाज कथित संतो, प्रवचनकारों ने करोडों-अरबों की जमीनों पर कब्जा कर रखा है। शासन और प्रशासन तभी जागता है जब इन अवैध कब्जा करने वालों के खिलाफ कोई बडा धमाका होता है। अन्यथा लेन-देन के खेल के चलते बडे से बडे महल खडे होते चले जाते हैं। यहां यह याद दिलाना जरूरी है कि पाखंडी आसाराम, राम रहीम, रामपाल जैसों के द्वारा हडपी गयी जमीनों पर खडे किये गए आलीशान आश्रमों पर तभी हथौडा चला जब उनका काला सच सारी दुनिया के समक्ष उजागर हो गया। अगर इनका पर्दाफाश न हुआ होता तो इनकी अवैध सल्तनत में और विस्तार होता ही चला जाता।
हमारे यहां का एक बडा सच यह भी है कि जो पकडा गया वो चोर बाकी सब साहुकार। वतन में अभी कई ठग हैं जो श्रद्धालुओं की अंधभक्ति की बदौलत अपने अवैध सिंहासनों को बरकरार रखे हुए हैं। जानते-समझते हुए भी लोगों की चुप्पी बनी हुई है। यही चुप्पी ही पाखंडियों का साहस बढाती है। अपराधियों को बेनकाब करने का साहस दिखाने वाले पत्रकारों को अपने यहां वो सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार होते हैं। अय्याश राम रहीम के घृणित चरित्र के रेशे-रेशे को देशवासियों के समक्ष प्रस्तुत करने वाले साहसी पत्रकार रामचंद्र छत्रपति को तब किसी ने प्रोत्साहित नहीं किया था जब वे अपने छोटे से अखबार में भोगी और अहंकारी असंत राम रहीम का बेखौफ होकर पर्दाफाश करने में लगे थे। तब तो उसके अंधभक्त सेवक-भक्त रामचंद्र के ही पीछे पड गये थे। अपने आपको जागरूक नागरिक कहने वाली भीड भी पत्रकार की कलम पर यकीन नहीं करती थी। सभी की आंखों पर धर्म की पट्टी बंधी थी। पाखंडी ही उनका भगवान था। पत्रकार वर्षों तक अपने अभियान में लगा रहा। तब तो सभी ने उन्हें मरने के लिए अकेला छोड दिया था, लेकिन जब दुराचारी राम रहीम को बलात्कार के आरोप में उम्रकैद की सजा हुई तो सजग पत्रकारिता के लिए कुर्बान हो जाने वाले पत्रकार की तारीफों की झडी लग गई और उनके परिवार को भी याद किया जाने लगा।
घाघ साधु-संत हों या नेता इनके उभार का चमत्कार इनके अंध भक्तों, समर्थकों के कारण होता है। अगर देश के मतदाता धर्म-जाति के महाजाल और अपनी बिरादरी वाला है की सोच से मुक्त होते तो जन्मजात भ्रष्ट और लुटेरे नेताओं की कब से राजनीति से विदायी हो चुकी होती। कौन नहीं होगा जिसने भ्रष्ट, बिकाऊ मर्यादाहीन नेता लालू प्रसाद यादव का नाम नहीं सुना होगा। लालू की भ्रष्टपत्री से देश का बच्चा-बच्चा वाकिफ है। बेशर्म लज्जाहीन नेता का सर्वोत्तम उदाहरण बना लालू प्रसाद यादव जेल में कैद होकर अपने भ्रष्ट कर्मों का फल भुगत रहा है। उसके हावभाव और अकड दर्शाती है कि नकली संतों, बाबाओं की तर्ज पर जनता को बेवकूफ बनाना और देश को लूटना वह अपना जन्म सिद्ध अधिकार मानता है। भ्रष्ट नेताओं को जब भी जेल में डाला जाता है तो वे बीमारी का ढोंग करने लगते हैं। इस मामले में लालू को महारत हासिल है। चतुर-शातिर लालू का कहना है उसे कई रोग हैं। इन्हीं बीमारियों के इलाज के लिए उसे दिल्ली के एम्स में भर्ती किया गया था। कुछ दिन के बाद जब डाक्टरों ने पाया कि लालू पूरी तरह से स्वस्थ हो गया है तो एम्स से छुट्टी देने की घोषणा कर दी गई। लालू भडक उठा। कहने लगा कि मेरी जान लेने की साजिश की जा रही है। मेरी बीमारियां तो जस की तस हैं। उसके कई समर्थकों ने एम्स की कैथलेब में तोडफोड कर दी और वहां पर मौजूद सुरक्षा गार्डों के साथ भी मारपीट की। दिल्ली का एम्स ऐसा अस्पताल है जहां आम लोगों को अगर उपचार कराना होता है तो उन्हें कई हफ्तों तक इंतजार करना पडता है। अथाह भ्रष्टाचार करने के कारण सजायाप्ता लालू को तुरंत एम्स में इलाज कराने की सुविधा मिल गई! लालू ने घोटाले किये हैं, धोखाधडी की है, कोई देशसेवा का काम नहीं किया है तो फिर ऐसे में उसे मनचाहे अस्पताल में इलाज उपलब्ध करवाना देश के ईमानदार नागरिकों का हक छीनना है। ईमानदारी का अपमान करना है और बेईमानी को सम्मानित करना है।

Thursday, May 3, 2018

मुखौटो से मुठभेड की पत्रकारिता

इन दिनों पत्रकार, पत्रकारिता और अखबार निशाने पर हैं। इसकी कई वजहें गिनायी जाती हैं। प्रिंट मिडिया पर सबसे बडा आरोप यह है कि वह निष्पक्ष होकर अपना दायित्व नहीं निभा रहा है। साहसी और धारा के विरुद्ध चलने और लिखने वाले पत्रकारों का घोर अकाल पड गया है। सत्ता के कदमों में झुकने को आतुर घोर व्यापारी किस्म के लोगों के हाथों में अधिकांश अखबारों की कमान जा चुकी है। अधिकांश संपादक दलाल बनकर रह गए हैं। चाटूकार पत्रकारों की फौज बढती चली जा रही हैं। किसी कवि की लिखी कविता की पंक्तियों का सार है कि अभी दुनिया खत्म नहीं हुई। अभी बहुत कुछ बाकी है। निराश होने की जरूरत नहीं है। पत्रकारिता के विशाल क्षेत्र में अंधेरे से लडने और बदलाव लाने की क्षमता रखने वाले ढेरों लोग हैं जो शांत और चुप नहीं बैठने वाले। दरअसल, कुछ लोगों को अच्छाई दिखती ही नहीं। उनका सारा ध्यान बुराइयों, कमियों और कमजोरियों पर केंद्रित रहता है। हम मानते हैं कि दूसरे क्षेत्रों की तरह पत्रकारिता में भी गलत लोगों का डंका कुछ ज्यादा ही बज रहा है। पत्रकारिता को समाज का दर्पण माना जाता है और कुछ समर्पित पत्रकार अपनी भूमिका बखूबी निभा रहे हैं।
'राष्ट्र पत्रिका' की प्रारंभ से ही सजगता के साथ अपना दायित्व निभाने की नीति रही है। अराजकतत्वों को बेनकाब करने की राह में आने वाली बडी से बडी तकलीफों का हमने निर्भय होकर सामना किया है। इस सच से कोई भी इंकार नहीं कर सकता कि तीन वर्ग ऐसे हैं जिन्होंने देशवासियों को त्रस्त कर रखा है। सबसे पहला नंबर आता है राजनीति के खिलाडियों का जो खुद को जनता का सेवक बता कर वर्षों से वादाखिलाफी और धोखाधडी करते चले आ रहे हैं। अधिकांश राजनेताओं ने अपने चमचों की फौज पाल रखी है। देश में कुछ ही नेता है जो वास्तव में जनसेवा करते हैं। अधिकांश तो अपने चम्मचों, रिश्तेदारों और अपने परिवारों के हित में राजनीति करते हैं। दूसरे नंबर पर हैं भ्रष्ट नौकरशाह यानी सरकारी अफसर। जिन्हें अपनी तनख्वाह से सैकडों गुना ज्यादा दौलत जमाने की जादूगरी आती है। तीसरे नंबर पर हैं तथाकथित साधु-संत जो अपने भक्तों को मोहमाया त्यागने और रागद्वेष से दूर रहने की सीख देते हैं, लेकिन खुद धर्म की आड में लुटेरे और व्याभिचार बन कर रह गये हैं। 'राष्ट्र पत्रिका' ने प्रारंभ से इस तिकडी के 'मुखौटों' को तार-तार कर दिखाया है। जो भी राष्ट्रविरोधी ताकतें देश को नुकसान पहुंचाती दिखती हैं उन्हें बेनकाब कर उनका असली चेहरा शासन और प्रशासन के समक्ष लाना हम अपना धर्म मानते हैं।
हमारा सदैव यह प्रयास रहता है कि 'राष्ट्र पत्रिका' में सकारात्मक खबरों को प्राथमिकता दी जाए। प्रेरणास्पद लेख और जानकारियां समाहित कर पाठकों के मनोबल को बढाया जाए। 'राष्ट्र पत्रिका' के नियमित सजग पाठक इस सच से भी पूरी तरह से अवगत हैं कि इस राष्ट्रीय साप्ताहिक में अपराध से जुडी खबरों को भी काफी अहमियत दी जाती है। अपराध और अपराधियों के बारे जानकारी पूर्ण समाचार प्रकाशित करने के पीछे हमारा यही ध्येय रहता है कि लोग सचेत हो जाएं। यह जान लें कि अपराधी का अंत हमेशा बुरा ही होता है। लाख चालाकियां उसे कानून के शिकंजे से बचा नहीं सकतीं। पाठकों और अपराधियों से परिचित कराने का यही मकसद होता है कि वे आसपास के संदिग्ध लोगों से सतर्क हो जाएं। अपराधियों से दूरी बना लें। उन्हें संरक्षण देना भी अपराध है। अपराधियों को नायकों की तरह पेश करने के हम कभी पक्षधर नहीं रहे। यह भी सच है कि अपराधी आसानी से पहचान में नहीं आते। राजनीति, धर्म, समाजसेवा और व्यापार के क्षेत्र में कई लोग ऐसे-ऐसे मुखौटे लगाये रहते हैं जिनकी एकाएक हकीकत सामने नहीं आ पाती। देश में कितने आसाराम, राम रहीम, नित्यानंद, भीमानंदा, परमानंद, मेहंदी कासिम और चंद्रास्वामी भरे पडे हैं जो ढोंग और पाखंड का जाल फैलाकर लोगों को बेवकूफ बनाते रहते हैं। यह धूर्त आज के युग के शोषक हैं, लुटेरे हैं, माफिया हैं। हवसखोर आसाराम, जिसे एक नाबालिग लडकी पर बलात्कार करने के कारण उम्र कैद की सजा दी गई है, कभी परमपूज्य था। न जाने कितने घरों के पूजाघरों में उसकी तस्वीर लगी हुई थी। यदि हवस की शिकार होने वाली लडकी हिम्मत नहीं दिखाती तो आसाराम के स्वागत, पाठ-पूजा और सत्कार का जलवा बरकरार रहता। उसके दरबार में सत्ता, राजनीति, व्यापार, उद्योग के सभी दिग्गजों की हाजिरी लगती थी और वे इस ढोंगी प्रवचनकार के समक्ष नतमस्तक होकर गौरवान्वित होते थे। मुझे १९९६ का वो काल याद आ रहे हैं जब नागपुर में आसाराम का पहला कार्यक्रम आयोजित होने जा रहा था। कार्यक्रमों के आयोजकों ने गांधी सागर में स्थित हॉल में मीटिंग आयोजित की थी जिसमें मुझे भी आमंत्रित किया गया था। क्या-क्या तैयारियां करनी हैं कैसे अधिक से अधिक चंदा जमा करना है, आदि की योजना, रूपरेखा बनाने के लिए शहर के धर्मप्रेमी, व्यापारी, उद्योगपति, समाज सेवक उपस्थित थे। मीटिंग में यह तय किया गया था कि बापू का ऐसा स्वागत सत्कार किया जाए कि वे गदगद हो जाएं। वर्षों तक उनके मन में नागपुर बसा रहे। कुछ दिनों के बाद बापू नागपुर में पधारे थे। प्रथम प्रवचन कार्यक्रम के दौरान ही कुछ ऐसे नजारे देखने को मिलते चले गए जिन्होंने सजग लोगों को अचंभित कर दिया। एक स्वतंत्र पत्रकार मित्र को बापू के इर्द-गिर्द रहने वाली महिलाओं ने बताया कि वे उनकी सच्ची सेविकाएं हैं। आसाराम बहुत रसिक किस्म के संत हैं। उन्हें महिलाओं की संगत बहुत भाती है। उन्हें पानी के टब में नहाने का शौक है। वे उन्हें नियमित गुलाब जल और इत्र वाले जल से नहलाती हैं। दरअसल, उन्हें महिलाओं के हाथों नहाने से ही अपार संतुष्टि मिलती है। कार्यक्रम आयोजन समिती से जुडे पत्रकार को बाबा के काले चरित्र के बारे में और भी कई जानकारियां मिली थीं। विरोध स्वरूप उन्होंने अपने मुंह पर पट्टी बांध ली थी। यह पट्टी तब हटी थी जब बाबा का काफिला नागपुर से विदा हो गया था। पत्रकार मित्र ने उसके बाद फिर कभी आसाराम के किसी भी प्रवचन कार्यक्रम में जाने की सोची भी नहीं।
उनके प्रवचन, सत्संग कार्यक्रम में जो वैभवशाली पंडाल लगाया गया था वह विशेष रूप से अहमदाबाद से आया था। इसके साथ ही विभिन्न प्रचार सामग्री, बडे-बडे आकर्षक पोस्टर, बैनर, पम्पलेट, स्टीकर जो शहर और कार्यक्रम स्थल पर लगाये गये थे वे सभी भी बापू के कारखाने से निर्मित होकर आये थे। इन सबकी बहुत बडी फीस वसूली गई थी। जिस तरह से कार्यक्रम स्थल पर ऑडियो-विडियो, कैसेट, कैलेंडर, मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद, चाय, च्यवनप्राश, शहद, चावी के छल्ले, डायरियां और विभिन्न दवाइयों की दुकाने सजायी गई थीं, उससे यही तय हो गया था कि यह संत तो बहुत बडा सौदागर है। मेरे अंदर के खोजी पत्रकार को आसाराम के संदिग्ध कारोबारों से अवगत होने में देरी नहीं लगी थी। १९९६ के पहले कार्यक्रम के बाद उनका हर दो-तीन साल में नागपुर आकर नोट कमाने का सिलसिला प्रारंभ हो गया था। मेरी आस्था के तो चिथडे ही उड चुके थे और मैं बेखौफ होकर उनके खिलाफ लिखने लगा था। उन दिनों हमारे द्वारा राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' का प्रकाशन, संपादन किया जाता था। उस दौर में 'विज्ञापन की दुनिया' इकलौता ऐसा अखबार था जिसने आसाराम के असली चरित्र से पाठकों को अवगत कराने का अभियान चलाया था। भ्रष्ट नेताओं, सत्ताधीशों, नकली समाज सेवकों, तमाम अपराधियों और ढोंगी संतों के खिलाफ आज भी यह अखबार बेखौफ लिखने में पीछे नहीं रहता।
अपने प्रकाशन के दसवें वर्ष में प्रवेश कर रहे 'राष्ट्र पत्रिका' की जीवंत पत्रकारिता से देश के लाखों सजग पाठक अच्छी तरह से वाकिफ हैं। देश, दुनिया और समाज का स्वच्छ दर्पण बना 'राष्ट्र पत्रिका' अपने सहयोगियों के अटूट साथ और सहयोग की बदौलत निष्पक्षता और निर्भीकता का कीर्तिमान स्थापित करता चला आ रहा है। हम अपने शहरी और ग्रामीण संवाददाताओं के अत्यंत आभारी हैं, जिनकी खोजी खबरों ने इस साप्ताहिक को ऊचाइयां प्रदान की हैं। हमें यह अच्छी तरह से मालूम है कि स्थानीय पत्रकारिता करना अत्यंत जोखिम वाला कर्म है। छोटे शहरों और ग्रामों के सजग पत्रकार जिनके खिलाफ लिखते हैं वे उनके करीब ही रहते हैं। जनहित के कार्यों के लिए आने वाले सरकारी धन के लुटेरे सरकारी ठेकेदारों और जनप्रतिनिधियों से रोज उनका आमना-सामना होता रहता है। ईमानदार पत्रकार इनकी पोल खोलकर ही दम लेते हैं। हर किस्म के अपराधी, माफिया, डकैत, हत्यारे भी इनके आसपास मौजूद रहते हैं इसलिए पत्रकारों को प्रतिक्रिया स्वरूप बहुत कुछ झेलना पडता है। कई बार बात मारपीट और हत्या तक पहुंच जाती है। ऐसे पत्रकारों के कारण भी पत्रकारिता की साख बरकरार है। अपराधियों से सतत लोहा लेने वाले ऐसे पत्रकारों को हमारा सलाम। 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ पर समस्त सहयोगियों, संवाददाताओं, पत्रकारों, लेखकों, एजेंट बंधुओं, पत्र विक्रेताओं को बधाई...शुभकामनाएं।