Thursday, December 29, 2016

बदलाव की इबारत

उन दिनों प्रियंका समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे। उसका किसी काम में मन नहीं लगता था। घर में होने वाली रोज-रोज की कलह का उसकी पढाई पर भी असर पडने लगा था। सहेलियां भी हैरान थीं कि वह पढाई-लिखाई में लगातार पिछडती क्यों जा रही है। वह हर वक्त खामोश और उदास रहने लगी थी। सहेलियां उसकी परेशानी की वजह पूछतीं तो वह रूआंसी हो जाती। वह आखिर उन्हें कैसे बताती कि उसके शराबी पिता के कारण उनका घर नर्क बन चुका है। मां का तो जीना ही मुहाल हो गया है। शराब के नशे में धुत पिता जब-तब मां पर हाथ उठा देते हैं। गाली-गलौज का तो अनवरत सिलसिला चलता रहता है। आर्थिक हालात इतने खराब हो गये हैं कि किसी-किसी दिन तो पूरे परिवार को भूखे पेट सोना पडता है। छोटे-भाई बहन हमेशा डरे-सहमे रहते हैं। शराब के गुलाम हो चुके पिता ने काम पर जाना भी बंद कर दिया था। समाज में बदनामी होने लगी थी। एक दिन मां की सहनशीलता जवाब दे गई। वह आत्महत्या के इरादे से घर छोडकर चली गई। प्रियंका के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गई। उसकी आंखों के सामने अंधेरा छा गया। उसे लगा कि उसका दिमाग सुन्न हो गया है। वह काफी देर तक जडवत बैठी रही। फिर जैसे-तैसे उसने खुद को संभाला और अपनी मां को खोजने के लिए निकल पडी। काफी देर खोजने के बाद मां मिली तो दोनों मां-बेटी गले लगकर रोती रहीं। मां घर वापस आने को तैयार ही नहीं थी। बुरी तरह से बिखर चुकी मां को प्रियंका ने किसी तरह से मनाया और घर वापस ले आई। अंधेरा घिर आया था। पिता घर में बेसुध सोये थे। प्रियंका ने पहले कभी भी पिता के सामने मुंह नहीं खोला था, लेकिन आज वह किसी निष्कर्ष तक पहुंचने का दृढ फैसला कर चुकी थी। उसने पिता को झिंझोड कर जगाया। हडबडाये पिता ने उसे घूरा जैसे कह रहे हों कि तुमने मुझे नींद से जगाने की जुर्रत कैसे की? प्रियंका ने पिता के हाव-भाव के प्रत्युतर में कहा, 'पापा आज तो आप फैसला कर ही लीजिए कि आपको शराब के साथ जीना है, या हमारे साथ। हमें अब एक पल भी नहीं रहना है ऐसे नर्क में। आप तो नशे में धुत रहते हैं और आसपास के लोग हम पर हंसते हैं, ताने कसते हैं। आपको तो पता ही नहीं होगा कि हमें किस तरह से नज़रें झुका कर चलना पडता है। हर निगाह हमें देखकर यही कहती प्रतीत होती है कि इनके पिता तो हद दर्जे के शराबी हैं, निकम्मे हैं जो चौबीस घण्टे नशे में धुत रहते हैं। यदा-कदा जब कभी होश में आते हैं तो लडते-झगडते रहते हैं। पापा आप वर्षों से मम्मी को यातनाएं देते चले आ रहे हैं, लेकिन अब बर्दाश्त की हर सीमा पार हो चुकी है। आपके जुल्मों से तंग आकर आज मम्मी आत्महत्या करने चली थी। मैं उन्हें बडी मुश्किल से मना कर घर लाई हूं। अब आप बता ही दीजिए कि मम्मी तथा हम सबको आप जिन्दा देखना चाहते हैं या यह चाहते है कि हम सब आत्महत्या कर लें।'
एक ही झटके में इतना कुछ कह गई बेटी की धौंकनी की तरह चलती सांसों की आवाज़ ने पिता को हतप्रभ कर दिया। उन्होंने बेटी के इस उग्र रूप की कभी कल्पना नहीं की थी। बेटी ने भी तो कभी उनके सामने खडे होने की हिम्मत नहीं की थी। किसी भी पिता के लिए वो पल बहुत भारी होते हैं जब उसकी औलाद के मुख से उसके प्रति रोष का लावा और बगावती स्वर फूटते हैं। फिर बेटी का वार तो बहुत ज्यादा वार करता है। पिता के पास बेटी के सवालों का कोई जवाब नहीं था। उन्होंने अपनी नजरें झुका लीं। प्रियंका अपने पिता की आंखों से बहते आंसुओं को देखकर खुद को संभाल नहीं पायी और उनके गले से जा लगी। पिता ने भी बेटी का माथा चूमा और वादा किया कि अब वे शराब को कभी हाथ भी नहीं लगायेंगे। पिता के द्वारा शराब से हमेशा-हमेशा के लिए दूरी बनाने पर प्रियंका को जैसे दुनिया भर की खुशियां मिल गर्इं। घर में सुख-शांति लौट आई। प्रियंका को गांव के कुछ और लोगों के घोर शराबी होने के बारे में भी पता था। उसने सोचा कि जब उसके समझाने पर उसके पापा शराब छोड सकते हैं तो उसकी समझाइश का असर दूसरों पर क्यों नहीं हो सकता! धीरे-धीरे उसने हर पीने वाले के घर में दस्तक देनी शुरू कर दी। अपनी आपबीती से अवगत कराने के साथ-साथ शराब से होनेवाले भयंकर दुष्परिणामों के बारे में बताया। उसकी मेहनत रंग लायी। कई पियक्कडों ने शराब से तौबा कर ली। प्रियंका वर्तमान में ८-१० लडकियों के साथ मिलकर शराबबंदी और लडकियों को जागृत करने के अभियान में लगी है। सभी लडकियां आसपास के गांवों में जाकर अशिक्षा और नशे के खिलाफ अपना स्वर बुलंद कर लोगों को जगाती हैं। २०१६ के दिसंबर महीनें में नशाखोरी, अंधविश्वास और अशिक्षा के खिलाफ लडाई लडने वाली जिन लडकियों को इन्दौर में सम्मानित किया गया उसमे प्रियंका का भी समावेश है।
लोगों के जीवन में खुशियां और बदलाव लाने वाले देवदूत आसमान से नहीं टपकते। उनका जन्म तो इसी धरती पर होता है। वैसे भी हमारा देश बडा अनोखा है। यहां हवा-हवाई चमत्कारों को नमस्कार किया जाता है। कोई धूर्त किसी पत्थर पर सिंदूर लगाकर सडक के किनारे रख देता है तो हम उस पत्थर को ही देवता मान अपना सिर झुका लेते हैं। धीरे-धीरे अनुसरण करने वालों की भीड बढने लगती है और नियमित पूजा-पाठ का सिलसिला आरंभ हो जाता है। अपने यहां इंसानों को पहचानने में बहुत देरी लगा दी जाती है। देश की राजधानी दिल्ली के अनेक लोगों के लिए आज ओमनाथ शर्मा उर्फ मेडिसन बाबा का नाम खासा जाना-पहचाना है। पैरों से चालीस फीसदी दिव्यांग होने के बावजूद उनका जनसेवा का अटूट ज़ज्बा देखते बनता है। ८० वर्षीय यह मेडिसन बाबा लोगों से दवाएं मांग कर जरूरतमंदों को निशुल्क उपलब्ध कराने के लिए प्रतिदिन कई किमी पैदल चलते हैं। उन्होंने २००८ में लक्ष्मीनगर में मेट्रो हादसे के बाद कई लोगों को दवा की कमी के चलते तडपते और रोते-बिलखते देखा। उस दर्दनाक मंजर ने उन्हें अंदर तक झकझोर दिया। तब उन्होंने अपनी जमा-पूंजी से दवाएं खरीदीं और जरूरतमंदों की सहायता की। वो दिन था और आज का दिन है कि उनका असहायों और गरीबों को सहायता पहुंचाने का सिलसिला थमा नहीं है। उन्होंने मेट्रो की दुर्घटना के बाद ही निर्णय कर लिया था कि अब वे अपना समस्त जीवन जनसेवा को समर्पित कर देंगे। तभी से उन्होंने घर-घर जाकर दवाईयां इकट्ठी करनी शुरू कर दीं। शुरू-शुरू में जब वह किसी अनजान घर में जाकर दवा की मांग करते तो लोग सवाल-जवाब करने के साथ-साथ तानाकशी और हंसी उडाने से नहीं चूकते थे। उन्हें जरूरतमंदो की सेवा के अभियान में लगे एक वर्ष ही हुआ था कि एक दिन कुछ व्यक्तियों ने उन्हें रोका और कहा कि आप न तो फार्मासिस्ट हो और न ही डॉक्टर, फिर ऐसे में दवाएं कैसे बांट सकते हैं? उसके बाद उन्होंने दवाइयां चैरिटेबल ट्रस्ट और अस्पतालों में देनी शुरू कर दीं। लोगों का उनपर विश्वास बढने लगा। धीरे-धीरे आर्थिक मदद की बरसात होने लगी। दवाओं का ढेर लगने लगा। ऐसे में मेडीसन बाबा ने किराये का घर लेकर एक हिस्से में आशियाना और दूसरे हिस्से में दवाखाना बनाकर फार्मासिस्ट रख लिया। जरूरतमंदो को इस दवाखाने से दवाएं तो मिलती ही हैं साथ ही अगर कोई चिकित्सक या अस्पताल गरीबों के लिए दवा या जीवनरक्षक उपकरण मांगते हैं तो उन्हें उपलब्ध कराए जाते हैं। उनके यहां आज लाखों रुपये की दवाएं जमा हो चुकी हैं। बहुत से लोग खुद दवा पहुंचाने आते हैं। देश-विदेश से लोग दवाइयों के पार्सल भी भेजते हैं, लेकिन मेडिसन बाबा अभी भी लोगों के घरों में जाकर दवा मांगते है। वे उन्हें जागरूक करते हैं कि घर में बची दवा फेंके नहीं, इसे किसी जरूरतमंद तक पहुंचाएं।
यदि किसी गरीब मरीज की किडनी फेल है या कैंसर पीडित है तो बाबा अपने पास से दवाएं खरीदकर देते हैं। हर माह ४० हजार रुपये से ज्यादा की दवा खरीदते हैं। बाबा कहते हैं कि बाजार में दवाएं बहुत महंगी बिकती हैं। कई परिवार दवा खरीदने में ही तबाह हो जाते हैं। सरकार को कोई ऐसा रास्ता निकालना चाहिए जिससे कम अज़ कम गरीबों को तो दवाएं सस्ती मिलें।
कुछ लोग अपने-अपने तरीके से प्रेरक बदलाव की इबारत लिख रहे हैं। उन्हें न नाम की भूख है और ना ही ईनामों की। वे तो बडी खामोशी से अपने काम में लगे हैं। बिहार के गोपालगंज के डीएम ने वो काम कर दिखाया जिसे अधिकांश अधिकारी करने से कतराते हैं। दरअसल उच्च पदों पर विराजमान अफसर बने-बनाये सांचे और किताबों से बाहर निकल ही नहीं पाते। हुआ यूं कि गोपालगंज के एक गांव के दबंगों ने स्कूल में मिड-डे मील बनाने वाली सुनीता देवी के हाथ से बना खाना खाने पर पाबंदी लगाने का फरमान सुना दिया। उनका तर्क था कि विधवा के हाथों से बना खाना अशुद्ध हो जाता है। उसे खाने से सेहत और दिमाग पर बहुत बुरा असर पडता है। इस घटिया और शर्मनाक फरमान की खबर जब राहुल कुमार तक पहुंची तो वे खुद स्कूल जा पहुंचे। वहां पर उन्होंने जमीन पर बैठकर सुनीता देवी के हाथों से बना खाना सबके सामने खाया। राहुल कुमार को उन लोगों से सख्त नफरत है जो अंधविश्वास फैलाते हैं और तरह-तरह की बुराइयों को पालने-पोसने में अपनी सारी ताकत झोंक देते हैं।

Thursday, December 22, 2016

अब नहीं तो कब?

१६ दिसंबर २०१२ को राजधानी दिल्ली में चलती बस में एक लडकी के साथ ६ वहशियों ने सामूहिक बलात्कार किया था और उसे बस से फेंक दिया था। बाद में २९ दिसंबर को उसकी मौत हो गई थी। पीडिता का नाम सामने नहीं आने देने के उद्देश्य से उसे नाम दिया गया था... 'निर्भया'। निर्भयाकांड ने देश के संपूर्ण जनमानस को भीतर तक हिला कर रख दिया था। पूरे देश में रोष की ज्वाला भडक उठी थी। जगह-जगह पर कैंडल मार्च निकाले गए थे। बलात्कारियों को नपुंसक बनाने और भरे चौराहे फांसी पर लटकाने की पुरजोर मांग की गई थी। निर्भयाकांड की चौथी बरसी पर राजधानी फिर शर्मसार हो गई। वक्त बीत गया, लेकिन दिल्ली नहीं बदली। बलात्कारियों के हौसले पस्त नहीं हुए। दिल्ली के समीप स्थित नोएडा की रहने वाली एक बीस वर्षीय युवती रात करीब दस बजे एम्स के पास बस स्टैंड पर खडी थी। तभी वहां एक गाडी वाला आया और उसने लिफ्ट देने की पेशकश की। युवती उस कार में बैठ गई। बीच रास्ते में मोतीबाग के पास कार चालक ने उसके साथ छेडछाड शुरू कर दी और फिर दुष्कर्म कर मौके से फरार हो गया। जिस कार में दुष्कर्म किया गया उस पर गृह मंत्रालय का स्टीकर लगा हुआ था। इसी स्टीकर को देखकर ही युवती आश्वस्त हो गई थी कि वह अपने गंतव्य स्थल तक सुरक्षित पहुंच जाएगी। यह घटना यह भी बताती है कि मनचलों, अय्याशों के दिलों में किसी किस्म का कोई खौफ नहीं है। कार चालक तीन घण्टे तक कार को दिल्ली की सडकों पर घूमाता रहा, लेकिन कहीं भी उसे किसी पुलिस वाले ने नहीं रोका। इससे ही स्पष्ट हो जाता है कि हमारे यहां की पुलिस कितनी सजग रहती है।
राजधानी के उतमनगर में एक नाबालिग लडकी को पहले शराब पिलायी गई फिर उस पर सामूहिक बलात्कार किया गया। नशे में धुत पीडिता किसी तरह से घर पहुंची और मामले की जानकारी परिजनों को दी। निर्भया सामूहिक बलात्कार कांड के बाद महिलाओं की सुरक्षा को लेकर बडे-बडे वादे किए गए थे, लेकिन हकीकत में हालात जस के तस हैं। निर्भया कांड के बाद कानून में बदलाव किया गया। फिर भी बलात्कार की घटनाओं में कमी नहीं आयी। दिल्ली में आज भी महिलाएं असुरक्षित हैं। दिल्ली पुलिस से महिला अपराध पर मिले आंकडे बताते हैं कि वर्ष २०१२ से २०१४ में महिलाओं के खिलाफ अपराध में ३१४४६ एफआइआर दर्ज हुर्इं और सिर्फ १४६ लोगों को सजा मिली। यानी अधिकांश अपराधी किसी न किसी तरह से बच निकलते हैं। वैसे यह भी सच है कि दुराचार के कई मामले तो पुलिस थानों तक पहुंचते ही नहीं। इसी से पता चल जाता है कि अपराधियों के मन में कोई खौफ क्यों नहीं है। ऐसा कोई दिन नहीं गुजरता जब राजधानी से दस-बारह महिलाओं और लडकियों के गायब होने और उन पर बलात्कार होने की खबर न आती हो। राजधानी की जनसंख्या १ करोड ७५ लाख के आसपास है। इसमें महिलाएं करीब ८० लाख हैं। महिलाओं की इतनी बडी आबादी पर दिल्ली पुलिस में सिर्फ ७४५४ महिला पुलिस कर्मी तैनात हैं। थानों में उनकी तैनाती न के बराबर है। ऐसे में अधिकांश महिलाओं की सुरक्षा रामभरोसे है। दिल्ली में गुंडे और बदमाश जिस तरह से बेखौफ होकर महिलाओं का जीना हराम करते हैं उससे लगता नहीं कि यह देश की राजधानी हैं जहां प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति, मुख्यमंत्री, मंत्री, सांसद, नौकरशाह आदि बडी शान से रहते हैं। ४० फीसदी महिलाओं के साथ आते-जाते समय छेडछाड की जाती है। वहीं, करीब ४१ फीसदी महिलाएं बसों, मेट्रो व ट्रेनों में छेडछाड का शिकार होती हैं। बाकी महिलाओं से बाजार व भीड वाले स्थानों पर बदसलूकी की जाती है।
१६ दिसंबर २०१६ को दिल्ली एवं देश के विभिन्न शहरों में श्रद्धांजलि सभा आयोजित कर निर्भया को याद किया गया। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर था कि चार साल बीत गए, लेकिन निर्भया को न्याय नहीं मिल पाया है। देश-दुनिया को झकझोरने वाली इस घटना के बाद महिला सुरक्षा को लेकर जो तमाम इंतजाम के दावे किये थे, सिर्फ कोरे वादे ही रह गए। अपनी बेटी के इंसाफ के लिए घर की दहलीज पार करने वाली निर्भया की मां आशादेवी ने अपना दर्द इन शब्दों में उजागर किया : बेटी की पीडा को याद कर आज भी मैं सिहर उठती हूं। उस घटना के बाद से हमारी जिन्दगी पूरी तरह से बदल गई है। शायद ही कोई दिन ऐसा आया हो जब हम खुलकर हंस पाए हों। कभी-कभी मुझे लगता है कि ठीक ही हुआ उनकी बेटी मर गई, नहीं तो अब तक न्याय न मिलने के कारण वह शायद घुट-घुट कर मर जाती।
यह कहा भी जाता है कि देरी से मिला न्याय भी अन्याय के बराबर होता है। निर्भया के माता-पिता भी ऐसी ही पीडा के दौर से गुजर रहे हैं। उनका दु:ख देश की हर निर्भया का दु:ख है। ध्यान रहे कि निर्भया गैंगरेप में छह आरोपी शामिल थे। इसमें एक आरोपी राम सिंह ने तिहाड जेल में फांसी लगा ली थी जबकि छठा आरोपी जुवेनाइल था। जिसे जुवेनाइल कोर्ट ने तीन साल तक जुवेनाइल होम में रखने का आदेश दे रखा था। तीन साल जुवेनाइल होम में रखने के बाद उसे छोड दिया गया था। निचली अदालत से चारों को फांसी की सजा सुनाई गई थी जिसके बाद इन्होंने हाईकोर्ट में अपील की थी और हाईकोर्ट ने भी इन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। जिसके बाद इनकी ओर से सुप्रीम कोर्ट में विशेष अनुमति याचिका दायर की गई थी जिस पर सुनवाई हो रही है। यह बेहद चिन्ता की बात है कि निर्भया कांड के बाद जिस तरह से देशभर में विरोध प्रदर्शन हुए थे, जागृति की लौ दिखायी दी थी वह धीरे-धीरे धीमी पड गई। इस घटना के बाद राजधानी में महिला अपराध में ५३ प्रतिशत से लेकर २०० फीसदी तक का ग्राफ बढा है। नया कानून भी वो खौफ पैदा नहीं कर सका जिसकी उम्मीद थी। यह तथ्य भी गौर करने लायक है कि निर्भया गैंगरेप के आरोप में पकडे गए सभी आरोपियों का शैक्षणिक, सामाजिक स्तर पिछडा हुआ था। वे नशे के आदी थे। गलत संगत में पड जाने के कारण वे भटक चुके थे। १५ से १८ साल की उम्र में यदि कोई समझाने-बुझाने वाला नहीं हो तो भटकाव की कोई सीमा नहीं होती। इस उम्र के लडकों को कानून और समाज का भय नहीं लगता। उन्हें लगता है कि पकड भी गए तो ज्यादा से ज्यादा पिटाई होगी और जेल जाने की नौबत आएगी। किसी भी अपराध को अंजाम देने के बाद होने वाली बदनामी और भविष्य के बर्बाद होने का उनके मन में ख्याल ही नहीं आता। देखने में यह भी आया है कि कुछ नाबालिग लडके जानबूझकर बार-बार अपराध करते है। कुछ को अपराध करने के लिए प्रेरित किया जाता है। देश के बेरोजगार, अशिक्षित युवकों की भी कुछ ऐसी ही सोच है। उन्हें कानून का डर नहीं सताता। इसलिए अपराधों को अंजाम देने से नहीं कतराते। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि बच्चियां घरों में भी महफूज नहीं हैं। बाहर के हालत किसी से छिपे नहीं हैं। उन पर सरेआम फब्तियां कसी जाती हैं। छेडछाड की जाती है और हम तमाशबीन बने रहते हैं। यह सच बहुत पीडा देता है कि जब हमारी बहन-बेटी पर कोई बुरी नजर डालता है तो हमारा खून खौल उठता है। मरने-मारने पर उतारू हो जाते हैं और दूसरों की बहन बेटियों की अस्मत लुटते देखकर भी आंखें बंद कर लेते हैं। चुप्पी साध लेते हैं। हमारी यही प्रवृत्ति अपराधियों का मनोबल बढाती है। इस हकीकत से भी इंकार नहीं किया जा सकता कि पुलिस हर जगह मौजूद नहीं रह सकती। युवतियों के लिए भी सतर्कता बरतना जरूरी है। उन्हें किसी भी अपरिचित से कभी लिफ्ट नहीं लेनी चाहिए। बलात्कार की घटनाएें किसी सबक से कम नहीं हैं। अगर अब नहीं जागे तो फिर कब जागेंगे?

Thursday, December 15, 2016

कुछ तो सोचा होता...

जेल में बंद नेताजी की तस्वीर देखी। सफेद दाढी और उतरा हुआ चेहरा। यही नेताजी जब आजाद थे तो उनके चेहरे की रौनक देखते बनती थी। सत्तर साल की उम्र में भी उनके सिर के काले बालों को देखकर लगता था कि वे अपने चेहरे-मोहरे के प्रति कितने सजग रहते हैं। खुद को दलितों और शोषितों का नेता घोषित करने वाले इस शख्स ने कम समय में नाम भी पाया और कुख्याति भी बटोरी। जिधर दम, उधर हम की नीति पर चलने वाले नेताजी की सत्ता परिवर्तन के बाद ऐसी दुर्गति होगी इसकी तो किसी ने कल्पना ही नहीं की थी। उनके विरोधी भी मानते थे कि इस भुजबली का सूरज कभी भी अस्त नहीं होगा। नेताजी महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री भी रह चुके हैं। सत्ता का सुख भोगने और माया हथियाने में उन्होंने कोई कसर बाकी नहीं रखी। अपने घर-परिवार के सभी सदस्यों को कुछ ही वर्षों में खाकपति से अरबपति बनाने वाले इस धुरंधर ने अपने उन साथियों का भी पूरा-पूरा ध्यान रखा जिन्होंने उनका हर मौके पर साथ दिया। जब उन्होंने शिवसेना छोडी और राष्ट्रवादी कांग्रेस का दामन थामा तो कई शिवसैनिक उनके साथ हो लिए। उनके ऐसे सभी साथी आज आर्थिक बुलंदी पर विराजमान हैं। लेकिन जैसे ही नेताजी के बुरे दिन आए सभी ने मुंह फेर लिया। उनको जेल में भेजे जाने के बाद सभी ने ऐसी चुप्पी साध ली जैसे कि वे नेताजी को जानते ही न हों। भारतीय राजनीति में अक्सर ऐसा ही होता आया है। उगते सूरज को सभी सलाम करते हैं। महाराष्ट्र के इस स्वयंभू दलित नेता का जो हश्र हुआ उससे कितनों ने शिक्षा ली इस बारे में बता पाना मुश्किल है। राजनीति और भ्रष्टाचार के बाज़ार में एक कहावत प्रचलित है कि जो पक‹डा गया... वह चोर... बाकी सभी ईमानदार और साहूकार। अपने देश का यह इतिहास रहा है कि सत्ता पर काबिज होने के बाद सौ में से नब्बे नेता बेइमान हो ही जाते हैं। लालच उन्हें अपनी गिरफ्त में ले ही लेता है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार करते चले जाते हैं। यह भी सच है कि सभी बेईमान, रिश्वतखोर नेता पकड में नहीं आते। नेताजी को इसी बात का गम है। अकेले उन पर ही गाज क्यों गिरी! उन्हीं की पार्टी में सत्ता की मलाई खाने वाले और भी कई बदनाम चेहरे थे, लेकिन उन पर आंच भी नहीं आयी। उनकी पार्टी के दिग्गजों ने भी उनका साथ नहीं दिया। बडी बेदर्दी से मुंह फेर लिया। कार्यकर्ताओं ने भी ज्यादा शोर-शराबा नहीं मचाया। हां कुछ कार्यकर्ताओं ने सरकार पर यह आरोप जरूर लगाया कि दलितों के मसीहा को जबरन फंसाया गया। आज के जमाने में कमाता कौन नहीं। राजनीति भी तो एक धंधा है। सितारा चमकने के बाद भी यदि फक्कड के फक्कड रह जाएं तो राजनीति में आने का मतलब ही क्या...?
नेताजी का जब सितारा बुलंदी पर था तब वे सिर्फ चाटूकारों से ही घिरे रहते थे। दलितों और शोषितों के हित में उन्होंने कभी कोई ऐसा काम नहीं किया जिसका डंके की चोट पर उल्लेख किया जा सके। वे तो बस बेखौफ माल बनाने में ही व्यस्त रहे। उन्हें यकीन था कि वे राजनीति के अजेय यौद्धा हैं। किसी में इतना दमखम नहीं जो उन्हें परास्त कर सके। यही अहंकार आखिरकार उन्हें ले डूबा। आय से अधिक अथाह सम्पत्ति बनाने के खेल में धरे गए। वैसे काली कमायी के मामले में अम्मा यानी जयललिता भी पीछे नहीं थीं। फिर भी उनका व्यक्तित्व कुछ ऐसा था कि प्रदेश की जनता उन्हें अपने करीब पाती थी। दरअसल, जयललिता ने लोगों के दिलों पर राज किया। जयललिता ने नेताजी की तरह धन को ही सर्वोपरि नहीं माना। उन्होंने गरीबों का पूरा-पूरा ख्याल रखा। उन्हें मुफ्त भोजन की सुविधाएं उपलब्ध करवायीं। सरकारी अस्पतालों में गरीबों का निशुल्क इलाज और बच्चों के लिए स्कूली शिक्षा मुहैय्या करवाकर तामिलनाडु के जन-जन की प्रिय नेता बन गयीं। उनके नहीं रहने पर प्रदेश के असंख्य लोग खुद को असहाय समझने लगे। अथाह दु:ख के सागर में डूब गए। लगभग पांच सौ लोगों ने आत्महत्या कर ली। भारत वर्ष में किसी नेता के प्रति इतना समर्पण और आत्मीयता कभी नहीं देखी गयी।
अपने यहां उन भ्रष्टाचारी नेताओं को भी बर्दाश्त कर लिया जाता है जो ईमानदारी से जनसेवा करते हैं। लेकिन वो महाभ्रष्ट जनता को चुभने लगते हैं जो सिर्फ अपना घर भरने का काम करते हैं। भारतवर्ष के अधिकांश राजनीतिक दल भी भ्रष्टाचार के जन्मदाता हैं। बहुजन समाज पार्टी की सर्वेसर्वा मायावती के बारे में तो यही कहा और माना जाता है कि बहनजी उन्हीं धनवानों को चुनावी टिकट देती हैं जो उन्हें मोटी थैलियां थमाते हैं। पार्टी फंड के नाम पर भी विभिन्न दलों के द्वारा जमकर वसूली की जाती है। २००५ से २०१३ के बीच भाजपा, कांग्रेस, बसपा, राष्ट्रवादी कांग्रेस, सीपीआई और सीपीएम ने ६००० हजार करोड के लगभग चंदा बटोरा। इस चंदे को देने वाले अधिकांश लोगों के अते-पते नदारद थे। राजनीति दलों को अपना काला धन सफेद करने में कभी भी दिक्कत का सामना नहीं करना पडता। आयकर कानून उनपर मेहरबान रहता है। यह कितनी हैरानी की बात है कि जो दल देश और प्रदेश चलाते हैं उन्हें २० हजार रुपये से कम मिलने वाले चंदे की राशि का स्त्रोत यानी दानदाता का नाम ही नहीं बताना पडता। अपने देश में चुनाव कैसे लडे जाते हैं इसका भी सभी को पता है। लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में काले धन की बरसात कर दी जाती है। ऐसे नाममात्र के प्रत्याशी होते हैं जो चुनाव आयोग द्वारा निर्धारित राशि खर्च करते हैं। अब तो स्थानीय निकाय के चुनावों में भी अंधाधुंध खर्च किया जाने लगा है। खर्च की सीमा २ लाख रुपये तय होने के बावजूद २५ से पचास लाख रुपये फूंक दिया जाना तो आम हो चुका है। राजनेता और विभिन्न दल लोगों के जीवन में सुधार लाने के कितने इच्छुक हैं इसकी खबर, समझ और जानकारी तो हर देशवासी को है। वह अंधा नहीं है। उसे स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि जिसे भी लूट का मौका मिलता है वह बेखौफ अपनी मनमानी कर गुजरता है। सरकार की किसी भी नयी योजना का बंटाढार करने के लिए भ्रष्टाचारी हमेशा कमर कसे रहते हैं। नोटबंदी के बाद कई सफेदपोश नकाब हो गये। यहां तक की इस अभियान को पलीता लगाने में कई बैंक वाले भी पीछे नहीं रहे। गुजरात और महाराष्ट्र के कई सहकारी बैंकों में करोडों रुपये के काले धन को सफेद किया गया। यह भ्रष्टाचार का ही कमाल है कि नोटबंदी के बाद आम आदमी एक-एक नोट के लिए परेशान होता रहा वहीं काले धन को सफेद करने के खिलाडी नये नोटों की गड्डियों और बंडलों से खेलते देखे गए। बडे-बडे बैंक अधिकारियों ने ही काले धन को सफेद करने के लिए भ्रष्टाचारियों का पूरा-पूरा साथ देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। करोडों रुपयों के नोट अवैध रूप से बदलवाने के आरोप में आरबीआई के एक अधिकारी को गिरफ्तार कर लिया गया। इस सच से इंकार नहीं किया जा सकता कि लगभग नब्बे प्रतिशत बैंक कर्मी और अफसर पूरी ईमानदारी से दिन-रात काम करते रहे। कुछ की काम करते-करते मौत भी हो गयी। लेकिन पांच-दस प्रतिशत भ्रष्टों ने पूरा खेल बिगाड दिया। नोटबंदी के घपले में २०० से अधिक बैंक कर्मियों-अफसरों को निलंबित किया गया। तीस के आसपास की गिरफ्तार भी हुई। २०१६ के दिसंबर महीने में हिन्दुस्तान के पूर्व वायु सेना प्रमुख ए.पी.त्यागी की गिरफ्तारी ने तो पूरे देश को चौंका दिया। भारत के इतिहास में यह पहली घटना है जब सेना प्रमुख रहे किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के आरोप में गिरफ्तार किया है। यह सवाल कलमकार को सतत परेशान करता है कि उच्च शिखर पर विराजमान महानुभाव ऐसे भ्रष्टाचार को कैसे अंजाम दे देते हैं जो राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में भी आता है। किसी विद्वान ने कहा है कि, जिस देश के शासक पूरी तरह से ईमानदार नहीं होते वहां भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को पहचानना मुश्किल होता चला जाता है। भ्रष्ट नेताओं की लीक पर चलने वाले तमाम भ्रष्टाचारी यह भी जानते हैं कि पक‹ड में आने के बाद भी उनका कुछ नहीं बिगडने वाला। नेताजी की तरह उन्हें भी जेल में कम और आलीशान निजी अस्पताल में ज्यादा से ज्यादा रहने से कोई नहीं रोक सकता। किसी भी बडी बीमारी का बहाना बनाओ और जेल जाने की बजाय अस्पताल के बिस्तर पर आराम से लेटे रहो। मिलने-मिलाने के लिए आने वालों की भीड यही आभास देगी कि किसी फाइव स्टार होटल में छुट्टियां मना रहे हैं।

Thursday, December 8, 2016

इन्हें कौन सुधारे?

अचलपुर तहसील के येलीकापूर्णा मठ के मठाधिपति संत बालयोगी महाराज का नाम भले ही ज्यादा जाना-पहचाना न हो लेकिन उनके श्रद्धालुओं की संख्या अच्छी खासी है। ब्रह्मचारी की महान उपाधि से विभूषित महाराज के भक्त उन्हें भगवान मानते हैं। उनकी फोटो की पूजा करते हैं। लगभग एक हजार की जनसंख्या वाले येलकीपूर्णा गांव के किनारे महाराज का मठ है। उनके सभी भक्त यही समझते थे कि उनके आराध्य तलघर में ध्यान साधना में तल्लीन रहते हैं। लेकिन जैसे ही इस खबर का धमाका हुआ कि ब्रह्मचारी महाराज तो तलघर में रास लीला करते हैं तो सभी हतप्रभ रह गए। उन्होंने तलघर में छिपे कैमरे लगा कर रखे थे। इन्हीं कैमरों के जरिए यह शर्मनाक सच सामने आया कि जिनकी तस्वीर को घर-घर में पूजा जाता है वह साधु ईश्वर की आराधना की बजाय नारी की देह की साधना करता है। वह संत नहीं शैतान है। घोर भोगी और विलासी है। उनके देहपिपासु होने के सबूत के तौर पर नौ महिलाओं ने अपना दुखडा सुनाया और छह वीडियो फुटेज पुलिस को सोंपे गए जिनमें महाराज युवतियों के साथ बेखौफ वासना-साधना में लिप्त नजर आए।
सारा विश्व जानता है कि हिंदुस्तान धर्म की बहुत बडी मंडी है। इस मंडी में कुछ साधु- संत ऐसे हैं जो निष्कंलक हैं। धर्म के उपासक और मानवता के सच्चे पुजारी। उनसे मिलने और सुनने में आत्मिक सुख की अनुभूति होती है। लेकिन बीते कुछ वर्षों से जिस तरह से कुछ साधुओं, बाबाओं, बापुओं, आचार्यों और प्रवचनकारों का नंगा सच उजागर होता चला आ रहा है उससे लोगों की आस्था तार-तार हुई है। इस श्रृंखला में सबसे पहले एक नाम आता है प्रवचनकार आसाराम बापू का, जिसने २०१२ में दिल्ली हुए सामूहिक बलात्कार के बाद यह प्रतिक्रिया दी थी कि जितने दोषी बलात्कारी हैं उतनी ही दोषी बलात्कार का शिकार हुई युवती भी है। अगर वह भगवान का नाम लेकर आरोपियों में से एक-दो का हाथ पकडकर उन्हें भाई कहकर संबोधित करती और उनके सामने गिडगिडाती तो उसकी इज्जत और जान बच सकती थी। ताली कभी एक हाथ से नहीं बजती है। इसलिए बलात्कारियों के लिए मौत का सजा का कानून नहीं बनना चाहिए। ऐसा निर्लज्ज बयान कोई सजग नागरिक तो नहीं दे सकता। कानून को तोडने और उसके भय से इधर-उधर भागने वाले अपराधी ही ऐसी शब्दावली उगल सकते हैं। आसाराम भी प्रवचनकार के चोले में दरअसल एक दुराचारी ही था। इसलिए तो उसने बलात्कारियों के प्रति सहानुभूति दर्शायी और बलात्कार का शिकार होने वाली युवतियों को भी बराबर का दोषी ठहराया।  इसी आसाराम को जब एक नाबालिग कन्या के साथ दुराचार करने के आरोप में जेल की  सलाखों के पीछे भेजा गया तो अधिकांश प्रबुद्ध जनों को हैरानी नहीं हुई। विचार ही इंसान की पहचान होते हैं। उसके चरित्र का दर्पण होते हैं। ऐसे गंदी सोच वाले प्रवचनकार का जब पर्दाफाश हुआ तो उसके लाखों अंधभक्त ठगे के ठगे रह गए। यह उसकी खुशकिस्मती थी कि उसका सिक्का वर्षों तक चलता रहा। उसके लाखों भक्त उसे भगवान से कम नहीं मानते थे। यह तो अच्छा हुआ कि उसका भांडा फूट गया, नहीं तो एक व्याभिचारी की तस्वीर की पूजा जारी रहती और उसका अनुसरण करने वाले भी बेखौफ दुराचार करने से नहीं कतराते। भक्तों की आस्था की धज्जियां उडाने वाले बाबाओं की कतार बहुत लम्बी है। कुछ बाबाओं ने तो शैतानों को भी मात देने का काम किया है। मालेगांव धमाकों के मास्टरमाइंड तथाकथित संत दयानंद पांडे ने भगवा वस्त्र धारण कर न जाने कितने दुष्कर्म किए। जब वह पकड में आया तो उसके लैपटाप ने जो सच उगले उससे खाकी वर्दीधारी भी अचंभित रह गए। उसे खुद याद नहीं था कि उसने कितनी महिलाभक्तों की अस्मत लूटी। उसका यह भी कहना था कि उसने कभी किसी के साथ जोर जबरदस्ती नहीं की। महिलाएं उसके प्रभावी व्यक्तित्व से आकर्षित होकर खुद-ब-खुद समर्पण कर देती थीं। साधु के भेष में शैतानी का तांडव करने वाले दयानंद पांडे में तनिक भी मानवता नहीं बची थी। उसने यह कबूल कर  अपने अंदर के हैवान का पर्दाफाश कर दिया कि वह तो ज्यादातर उन विधवाओं का देह शोषण करता था जिनका कोई सहारा नहीं होता था। वे सांत्वना और आश्रय के लिए उसके पास आती थीं और वह उनसे शारीरिक रिश्ते बनाने के जोड-जुगाड में लग जाता था। असंख्य महिलाओं की जिन्दगी बरबाद करने वाले इस शैतान ने अपने बेडरुम में हिडन कैमरे लगा रखे थे। महिला भक्तों के साथ अश्लील फिल्में बनाने की उसे लत लग चुकी थी। इसी तरह से जबलपुर का एक बाबा था विकासानंद। उसकी हर रात महिला भक्तों के साथ रंग रेलियां मनाने में बीतती थी। दिन में बाबागिरी और रात में भोग विलास की सभी सीमाएं लांघने वाला यह धूर्त यह दावा करता था कि वह भगवान और इंसान के बीच सशक्त माध्यम की भूमिका निभाता है। नीली छतरी वाले से उसके काफी  करीबी रिश्ते हैं। वह युवतियों के साथ झूला झूलते और स्विमिंग पूल में डुबकियां लगाते-लगाते भगवान से मिलाने के बहाने संत और भक्त के बीच के पवित्र रिश्ते को कलंकित कर प्रफुल्लित होता था।
देश की राजधानी दिल्ली में एक आधुनिक लिबासधारी बाबा कुछ वर्ष पूर्व पकड में आया था। उसकी इच्छाएं अनंत थीं। लोग उसे इच्छाधारी के नाम से जानते-पहचानते थे। कहने को तो वह संत था लेकिन असल में यह  कालगर्ल्स  सप्लायर था। कई वेश्याएं उसके संपर्क में रहती थीं। जब पुलिस का छापा पडा तो उसके आश्रम से कई डायरियां बरामद हुई थी जिनमें उसके नामी-गिरामी ग्राहकों के नाम दर्ज थे। कई राजनेताओं, नौकरशाहों और उद्योगपतियों का उसके यहां आना-जाना था। वह दिन में भगवा वस्त्र धारण कर प्रवचन देता, रात को टी-शर्ट और जींस पैंट धारण कर अपने अनैतिक कारोबार में लिप्त हो जाता था।

Thursday, December 1, 2016

डायरी का पन्ना

पिता के द्वारा बेटी के साथ बर्बरता और दुराचार की हर खबर व्यथित कर देती है। आज तो हद ही हो गई। एक ही दिन में मानवता को कलंकित करती कई खबरों से रूबरू होना पडा। मन विचलित हो गया। नोएडा के नामी स्कूल में पढने वाली एक छात्रा ने अपने प्रधानाचार्य को रोते हुए बताया कि उसके पिता बीते दो साल से उसके साथ दुष्कर्म करते चले आ रहे हैं। उसकी मां की मौत हो चुकी है। उसके विरोध का पिता पर कोई असर नहीं होता। वे रोज रात को शराब के नशे में धुत होकर आते हैं और हर मर्यादा भूल जाते हैं। एक बेटी के द्वारा उजागर किये इस शर्मनाक सच ने प्रधानाचार्य के पैरों तले की जमीन खिसका दी। उन्होंने तुरंत पुलिस में रिपोर्ट दर्ज करवायी और वासना के गुलाम पिता को गिरफ्तार कर लिया गया। पानीपत में एक १७ वर्षीय बेटी ने अपने पिता के खिलाफ थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी कि उसके पिता पिछले डेढ साल से उसका तथा उसकी छोटी बहन का यौन शोषण करता चला आ रहा है। छोटी बहन की उम्र मात्र बारह वर्ष है। मेडिकल रिपोर्ट में दोनों बहनों के साथ बलात्कार किये जाने की पुष्टि हुई। राजधानी दिल्ली में अपनी बारह वर्षीय बेटी पर बलात्कार का कहर ढाने वाले एक शैतान पिता को गिरफ्तार किया गया है। पिता शराबी है और मां दूसरों के घरों में झाडू-पोंछा कर परिवार चलाती है। वह एक शाम को जब घर लौटी तो बेटी का रो-रो कर बुरा हाल था। उसने मां को पिता की दरिंदगी के बारे में बताया। मां ने अपने भाई को खबर दी और दोनों ने यही निर्णय लिया कि ऐसे अधर्मी पिता को हर हालत में सज़ा दिलवायी ही जानी चाहिए। नागपुर में भी एक वहशी पिता ने अपनी मनमानी कर पिता के नाम को कलंकित कर दिया। ५६ वर्षीय रामू नामक पिता की दो पुत्रियां और एक पुत्र है। वह अक्खड शराबी है। पत्नी और बच्चों की हाडतोड मेहनत की बदौलत घर चलता है। छह महीने पूर्व रामू की १६ वर्षीय भतीजी उसके यहां रहने के लिए आई थी। उसके माता-पिता का देहांत हो चुका है। किशोरी छठवीं तक पढी है। गांव में छिछोरे किस्म के लडके छेडछाड करते थे इसलिए वह भयभीत रहती थी। उसे बेहद असुरक्षा का अहसास होता था। इसलिए वह अपने बडे पिता के यहां रहने के लिए आ गई। एक दिन जब पत्नी और बच्चे कहीं बाहर गए हुए थे तब रामू ने उसे अपनी हवस का शिकार बना डाला। किशोरी ने जब अपनी चाची और सौतेली बहनों को अपने साथ हुए दुष्कर्म की जानकारी दी तो उन्होंने उसे परिवार की इज्जत की खातिर मुंह बंद रखने की नसीहत दे डाली। रामू का हौसला बुलंद हो गया। उसने फिर से नीच हरकत को अंजाम देने की कोशिश की तो किशोरी सीधे थाने पहुंच गयी और वहां पर मौजूद पुलिस अधिकारियों को वह सब कुछ बता दिया जिसे घर वाले छुपा कर अपनी इज्जत बचाये रखना चाहते थे। संतरानगरी नागपुर में ही एक पिता ने अपनी १४ वर्षीय बेटी के साथ दुष्कर्म का प्रयास किया तो बेटी ने उसका मुंह नोंच लिया। यह लडकी सातवीं कक्षा में अध्यन्नरत है। पिता की उम्र है ५६ वर्ष। एक दिन अकेले में पिता की अपनी बेटी पर ही नीयत खराब हो गई और उसने उसे निर्वस्त्र कर डाला। बेटी ने बचाव के लिए शोर मचाया, लेकिन कोई बचाने के लिए नहीं आया। आखिरकार बेटी ने शैतान पिता के चंगुल से बचने के लिए हाथ-पैर चलाने शुरू कर दिये। नाखूनों से उसका मुंह नोंचने के बाद वहां से भागते हुए वह पुलिस की शरण में पहुंच गयी। तब उसके शरीर पर एकमात्र तौलिया लिपटा हुआ था। बेटियों को बचाने के लिए एक ओर केंद्र और प्रदेश की सरकारें अभियान चला रही हैं वहीं दूसरी ओर कुछ लोग अपनी ही बेटियों के शत्रु बने हुए हैं। इस इक्कीसवीं सदी में भी बेटी होने की सज़ा महिलाओं और नवजात बच्चियों को दी जा रही है। दिल्ली के तिमारपुर में रहने वाले एक शख्स ने अपनी पहली बेटी को अल्ट्रासाउंड से जांच कराकर गर्भ में ही मार डाला। दूसरी बेटी पैदा हुई तो पत्नी का जीना हराम कर दिया। पत्नी ने बेटी को जन्म दिया इसलिए उसने अपने ससुर पर २० लाख का प्लाट देने का दबाव बनाया। जब ससुर ने असमर्थता जतायी तो जालिम और लालची पिता ने सारा का सारा गुस्सा अपनी नवजात पर उतारते हुए उसे जमीन पर पटक दिया। नरपशु का इतने में से भी दिल नहीं भरा। उसने अपने मां-बाप के साथ मिलकर पत्नी को जबरदस्ती जहर पिला दिया।
समझदार, संवेदनशील और परिपक्व माता-पिता सदैव अपनी संतान का भला चाहते हैं। उन्हें लगनी वाली छोटी-सी खरोंच उन्हें बेहद पीडा देती है। बच्चों की शरारतें उनमें नयी ऊर्जा का संचार करती हैं। वे अपने आंखों के सामने बच्चों को बडा होता देखना चाहते हैं। हर बेटी अपने पिता को अपना रक्षक मानती है। पिता की छत्रछाया में उसे अपार सुरक्षा की अनुभूति होती है। दुनिया की हर बेटी को यकीन होता है कि पिता के होते दुनिया की कोई काली छाया उसे छू तक नहीं सकती। बेटियां भी बेटों से कमतर नहीं हैं इसका जीता-जागता उदाहरण नागपुर की एक सडक पर देखने को मिला। छोटी उम्र में बडा काम उसका नाम है पारो। उम्र है महज दस वर्ष, लेकिन खेलने कूदने की उम्र में छह मीटर की ऊंचाई पर लटकी रस्सी पर चलकर जब वह हैरतअंगेज करतब दिखाती है तो देखने वालों के दिल की धडकन बढ जाती है। यकीनन यह हैरतअंगेज करतब दिखाना कोई बच्चों का खेल नहीं है। लेकिन फिर भी यह बच्ची दिन में कई बार जान हथेली पर रखकर तमाशा दिखाती है और अपने पूरे परिवार के लिए दो जून की रोटी जुटाती है। तमाशा दिखाने से पहले सडक पर दोनों तरफ मोटी लकडी के सहारे रस्सी बांधी जाती है। करीब चार मीटर लम्बी व आठ-दस फीट ऊंची इस रस्सी पर पारो बडे सधे पांव से चलती है। तमाशे को और रोमांचक बनाने के लिए वह साइकिल रिंग रखकर पानी भरा लौटा सिर पर रखती है इसके बाद वह जब रस्सी पर चलती है तो देखने वाले स्तब्ध रह जाते हैं और तालियां गूंजने लगती हैं। पारो के पिता को ब्लड कैंसर है। अपनी इस बीमारी का उन्हें साल भर पहले पता चला। पहले वे ही रस्सी पर करतब दिखाते थे। जब उनकी तबीयत ज्यादा बिगडने लगी तो उन्होंने पारो को यह हुनर सिखाया। पिता जानते हैं कि वे कुछ ही दिन के मेहमान हैं। बेटी अपने पिता को स्वस्थ देखना चाहती है, इसलिए बिना थके दिन भर रस्सी पर चलकर इतना कमा लेना चाहती है, जिससे पिता की बीमारी का इलाज भी होता रहे और माता-पिता को दूसरों का मुंह न ताकना पडे। बेटियों को दुनिया में आने से रोकने और उनके साथ दुराचार करने वाले पिताओं की शर्मनाक खबरें वाकई चिन्ता में डाल देती हैं। ऐसे वहशियों के कारण ही पिता की श्रद्धेय छवि कलंकित हो रही है। पिता के अस्तित्व, कर्तव्य और अहमियत की जीवंत तस्वीर पेश करती अज्ञात कवि की यह पंक्तियां यकीनन काबिलेगौर हैं :
"पिता रोटी है
कपडा है, मकान है,
पिता नन्हे से परिंदे का आसमान है।
पिता है तो घर में प्रतिपल राग है,
पिता से मां की चूडी,
बिंदी सुहाग है,
पिता है तो
बच्चों के सारे सपने हैं
पिता है तो... बाजार के
सारे खिलौने अपने हैं...।"

Thursday, November 24, 2016

करे कोई, भरे कोई

"बदलना तो इंसान को है...
नोट तो एक बहाना है...
अगर कुछ लोग
बेइमान नहीं होते,
तो आज इतने लोग
परेशान नहीं होते।"
सीधी-सादी भाषा में लिखी गयी कविता की उपरोक्त पंक्तियां देश के चिंताजनक हालात के असली सच को बयां करती हैं। भारतवर्ष में काले धनवानों और उनकी अमीरी का जो चेहरा है वह बहुत डराता है। गुस्सा भी बहुत आता है। यह कैसी व्यवस्था है जहां करोडों लोग भूखे सोने को विवश हैं और चंद लोग करोडों में खेल रहे हैं। कुछ पढे-लिखे लोगों की अमानवीयता को देखकर उनके इंसान होने पर शंका होने लगती है। देश में पांच सौ और हजार के नोट बंद होने के बाद अपने ही धन को पाने की खातिर कई भारतीयों ने कतार में लगकर अपनी जान गंवा दी। उत्तरप्रदेश के मैनपुरी में एक डॉक्टर ने इंसानियत की कब्र खोद दी। एक पिता अपने एक साल के बीमार बेटे को लेकर डॉक्टर के पास इस उम्मीद से पहुंचा था कि वह उसे भला चंगा कर देगा। भारत वर्ष में डॉक्टर को भगवान का दर्जा दिया जाता है। लेकिन यह डॉक्टर तो धन का भूखा था। उसने बीमार बच्चे का तब तक इलाज किया जब तक पिता के पास उसे देने के लिए छोटे नोट थे। जब उनके पास पांच सौ के नोट रह गए तो डॉक्टर ने नोट लेने से मना कर दिया और इलाज बंद कर दिया। पिता ने लाख मिन्नतें कीं, लेकिन डॉक्टर नहीं पसीजा। उसे हैवान बनने में देरी नहीं लगी। उस शैतान ने बीमार बच्चे और माता-पिता को अस्पताल से बाहर खदेड दिया। इलाज के अभाव में बच्चे की मौत हो गई।
उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में स्टेट बैंक से दो हजार रुपये बदलवाने पहुंचा एक मजदूर मौत के मुंह में समा गया। ६५ वर्षीय यह शख्स पावरलूम फैक्टरी में मजदूरी करता था। चार घण्टे तक लाइन में लगने पर भी उसका नम्बर नहीं आया। इस बीच खाली पेट होने के कारण उसे चक्कर आया और वह बेहोश होकर गिर पडा। कुछ लोगों ने रिक्शे पर डालकर उसे अस्पताल पहुंचाया जहां उसे मृत घोषित कर दिया गया? प्राइवेट अस्पतालों में इलाज कराने में आम लोगों को काफी परेशानी का सामना करना पडा है। राजधानी दिल्ली में एक मरीज की मौत के बाद उसके परिजनों को नए नोटों में अस्पताल का बिल न चुका पाने के कारण घण्टों डेडबॉडी का इंतजार करना पडा। अस्पताल वाले पुराने नोट नहीं लेने पर अड गये। मीडिया ने जब बहुत समझाया-बुझाया और दबाव डाला तो तब कहीं जाकर पुराने नोट लिए गए और डेडबॉडी सौंपी गई। गाजियाबाद में परचून की दुकान चलाने वाले हर्षवर्धन त्यागी ने पाई-पाई जुटाकर बैंक में रकम जमा की थी। बेटी की शादी के लिए जीवन बीमा पालिसी के अगेंस्ट लोन लिया और वह रकम भी बैंक खाते में जमा करा दी। शादीवाले परिवारों को बैंक से एक मुश्त ढाई लाख रुपये निकालने की अनुमति के सरकार के आदेश के बावजूद बैंक ने रकम देने से मना कर दिया। बैंक मैनेजर की दलील थी कि अभी सरकार का आदेश नहीं आया है। काफी हील-हुज्जत के बाद बैंक ने मात्र बीस हजार रुपये दिए। हर्षवर्धन ने रिश्तेदारों और दोस्त यारों से उधार लेकर जैसे-तैसे बेटी की शादी निपटायी। नोटबंदी की घोषणा ने अनेकों परिवारों के यहां होने वाली शादियों को बेरौनक कर दिया। सोनीपत में बेटे की शादी में बैंक से नोट नहीं मिलने के कारण एक व्यक्ति ने रेलवे स्टेशन पर ट्रेन के आगे कूदकर जान दे दी। रकम जमा करवाने और नोट बदलने के लिए करोडों लोगों को घंटों लंबी लाइनों में खडा होना पडा। बैंकों और डाकघरों के कर्मचारियों ने अपने दायित्व का पालन करने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। कई कर्मचारी तो सैनिकों की तरह रात-दिन अपने-अपने कार्यस्थल पर डटे रहे। नागपुर स्टेट बैंक ऑफ इंडिया के एक अधिकारी की काम के दौरान मृत्यु हो गई। सेना में काम कर चुके यह अधिकारी जब घर से निकल रहे थे तब उनके सीने में दर्द हो रहा था। पत्नी ने डॉक्टर के पास जाने की सलाह दी, लेकिन उन्होंने बैंक में पुराने नोट बदलने और जमा कराने वालों की भीड को देखते हुए अपने काम पर जाना जरूरी समझा।
जब देश के करोडों व्यापारी, मजदूर, रिक्शे, रेहडी वाले और छोटे-मोटे कारोबारी बैंकों के समक्ष लगी लाइनों में धक्के खा रहे थे तब एक तबका ऐसा भी था जो अपने काले धन को सोने की चमक में तब्दील कर रहा था। ५०० व १००० रुपये के नोटों पर पाबंदी लगने के बाद देश के कई हिस्सों में सोने के जरीए अरबों का काला धन सफेद हो गया। यह सारा धंधा बेहद गोपनीय तरीके से चला। सच तो यह है कि इस देश के आम आदमी के पास काला धन होने का सवाल ही नहीं उठता। वह तो लगभग रोज कमाने और खाने की स्थिति में जीता है। देश में नब्बे प्रतिशत काली माया सोने, शेयर्स, रियल इस्टेट, काले और नशीले धंधो में लगी हुई है, जिनकी सारी की सारी बागडोर बडे-बडे उद्योगपतियों, व्यापारियों, बिल्डरों, नेताओं और अफसरों के हाथ में है। कर्नाटक के पूर्व मंत्री जनार्दन रेड्डी ने अपनी बेटी के विवाह पर ५०० करोड रुपये खर्च कर डाले। इस शाही शादी में पचास हजार से अधिक मेहमानों ने अपनी उपस्थिती दर्ज करायी। उपमहाद्वीप की सबसे महंगी शादियों में शामिल इस शादी ने यह स्पष्ट कर दिया कि भ्रष्ट कारोबारी कितने निर्मम हैं और उनके यहां कितना-कितना काला धन जमा है। जिसे खर्च करने के लिए वे मौके तलाशते रहते हैं। नोटबंदी के बाद यह तथ्य भी पुख्ता हो गया कि भारतवर्ष में धन की कोई कमी नहीं है। लेकिन यह धन अच्छे लोगों के पास पहुंचने की बजाय वह गलत लोगों के यहां जा पहुंचा है। इन्हीं बेइमानों की वजह से ईमानदार जनता को कई तरह की तकलीफें सहनी पड रही हैं। गौरतलब है कि इस शादी के लिए निमंत्रण पत्र एक बक्से में भेजा गया था, जिसमें एलसीडी स्क्रीन पर प्रकट होकर पूरा परिवार न्योता देता दिखायी दिया था। इस विवाह में बेंगलुरू पैलेस ग्राउंड में बालीवुड के आर्ट डायरेक्टरों की मदद से बडे-बडे आकार के सैट लगाकर खाने-पीने का इंतजाम किया गया। और भी कई शाही नजारे थे जिसके चलते इस शादी ने कुख्याति पायी। जनार्दन रेड्डी की कर्नाटक के सबसे ताकतवर लोगों में गिनती की जाती है। यह खनन माफिया ४० माह तक जेल की सलाखों के पीछे भी रह चुका है।
बिहार के एक व्यवसायी ने अपने काले धन को सफेद करने के लिए एक चार्टर्ड प्लेन किराये पर लिया और उडकर नागालैंड जा पहुंचा। जैसे ही विमान की दीमापुर में लैंडिंग हुई, सुरक्षा बलों ने उसे घेर लिया। जांच के दौरान ५ करोड ५ लाख रुपये बरामद किये गए। व्यापारी के बडी मात्रा में बंद हो चुके नोटों को लेकर उग्रवाद प्रभावित नागालैंड जाने से अन्य गंभीर सवाल भी खडे हो गये। कर्नाटक में ९ ट्रकों में पुराने नोट ले जाए जा रहे थे। तभी एक ट्रक रास्ते में पलट गया। ट्रक के पलटने से ५०० और १००० के नोट सडक पर बिखर गए। ट्रकों में नोटों को रद्दी कागजों से ढका गया था। महाराष्ट्र के उस्मानाबाद में छह करोड रुपये के बंद हो चुके नोट एक गाडी से बरामद किये गए। पकडे गये लोग शहरी सहकारी बैंक के कर्मचारी हैं। नागपुर के एक फ्लैट में पुलिस ने छापा मार कर एक करोड ८७ लाख रुपये के पुराने नोट बरामद किए। बताया जाता है कि यह किसी नेता का धन है। इस मामले में गिरफ्तार चार लोगों में एक चार्टर्ड अकांउटेंट भी है। नोट बंदी के पश्चात देश में जहां-तहां जिस बडी तादाद में बोरों में, ट्रकों में, नालों और नदियों में पुराने नोट मिले हैं उससे यह तो तय हो गया है कि देश में अपार काला धन है। नब्बे प्रतिशत लोगों ने सरकार के फैसले का समर्थन किया है। कुछ भ्रष्टाचारियों के दुष्कर्मों की सज़ा पूरे देश को भुगतनी पड रही है।

Thursday, November 17, 2016

जैसा राजा, वैसी प्रजा

एक हजार और पांच सौ के नोटों के चलन पर एकाएक प्रतिबंध लगाकर नरेंद्र मोदी की सरकार ने प्रशंसा भी पायी है और विरोध भी झेलना पड रहा है। देश के अधिकांश लोगों ने सरकार के फैसले के प्रति सहमति जतायी है। हर समझदार शख्स जानता है कि यह फैसला देशहित में ही लिया गया है। विरोधी पार्टी के नेताओं की तो विरोध करने की आदत है। दरअसल, रातोंरात हुई नोटबंदी ने काले धन के पोषक नेताओं और उद्योगपति और तरह-तरह के धनपतियों को गहन चिन्ता में डाल दिया। वे हक्के-बक्के रह गए हैं। काले धन के भंडारों के मालिक व्यावसायियों ने हैरतअंगेज चुप्पी साध ली है और नेता अंदर ही अंदर बौखला गए हैं। भ्रष्ट नौकरशाहों का भी यही हाल हुआ है। सारा देश जानता है कि नेताओं, नौकरशाहों और कारोबारियों की तिकडी के यहां अधिकांश काला धन भरा पडा है। उद्योगपति और व्यापारी तो मेहनत भी करते हैं, लेकिन भ्रष्ट अफसरों और नेताओं को तो हाथ-पैर भी नहीं हिलाने पडते फिर भी उनकी तिजोरियां भरती चली जाती हैं। उनकी काली कमायी के कई रास्ते हैं। गरीबों के हिन्दुस्तान में पचासों ऐसे नेता हैं जिनके यहां हजारों करोड रुपये बोरों में पडे सड रहे हैं। उद्योगपतियों और व्यापारियों के यहां छापामारी करने वाला तंत्र नेताओं के यहां छापामारी करने का कब साहस दिखायेगा इसी का देशवासियों को बेसब्री से इंतजार है।
आमजनों की बैंको के सामने भीड लगी है, लेकिन जिनके यहां हजार पांच सौ करोड की काली माया का भंडार है वे अंदर ही अंदर जोड-जुगाड में लगे हैं। चलन से बाहर हो चुके नोटों यानी काले धन को कैसे सफेद करना है इसके लिए कई तरह की कलाकारियां शुरू हो चुकी हैं। नोट बदलने के लिए बैंको के सामने उमड रही भीड में काले धन के सरगना तथाकथित समाजसेवक और धनपतियों का नजर नहीं आना यही बताता है कि वे कितने ताकतवर हैं और आम आदमी कितना बेबस है। सभी कष्ट उसी के नाम लिखे हैं जिन्हें उसे किसी भी हाल में सहते रहना है। अगर सरकार वाकई काले धन का खात्मा करना चाहती है, भ्रष्टाचार को जड से समाप्त करना चाहती है तो उसे सबसे पहले अपने इर्द-गिर्द डेरा जमाये सफेदपोशों की नकेल कसनी होगी। उन नेताओं को नानी याद दिलानी होगी, जिन्होंने सत्ता पर काबिज होने के बाद अपार दौलत कमायी है और लोकतंत्र को बाजार बना दिया है। ऐसे कुख्यात बाजीगरों को सारा देश जानता है। इस देश का आम आदमी इस सच से पूरी तरह से वाकिफ है कि अधिकांश नेता चुनाव के समय कैसे-कैसे करतब दिखाते हुए काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने में कामयाब हो जाते हैं। भूमाफियाओं, बिल्डरों, खनन माफियाओं, दारू माफियाओं, सरकारी ठेकेदारों, शिक्षा माफियाओं के सहयोग और साथ के बिना इस देश के अधिकांश नेताओं का पत्ता भी नहीं हिलता। मतदाताओं को लुभाने और उन्हें खरीदने के लिए बांटी जाने वाली शराब, साडियां, कंबल और नगदी धन यही लोग मुहैया कराते हैं। जब नेताजी काले धन की बदौलत चुनाव जीतने के बाद सत्तासीन हो जाते हैं तो इन्हें डंके की चोट पर लूटपाट मचाने की छूट मिल जाती है। यह सिलसिला वर्षों से चलता चला आ रहा है। काले धन की ताकत के चलते पता नहीं कितने खोटे सिक्के विधायक और सांसद बन जाते हैं। सभी राजनीतिक पार्टियां यह दावा करते नहीं थकतीं कि उनमे कोई खोट नहीं है। वे अपराधियों, बेईमानों और लुटेरों को अपनी पार्टी में घुसने नहीं देतीं। लेकिन सच तो सभी के सामने है। देश में ऐसा कोई राजनीतिक दल नहीं है जिसका चक्का बिना काले धन के बिना चलता हो। नोट लेकर टिकटे बांटने के आरोप राजनीतिक दलों पर लगते ही रहते हैं। चुनावी चंदे की अधिकांश राशि नगदी में ली जाती है जिसमें पारदर्शिता का अभाव रहता है। २०१४ के लोकसभा चुनाव के दौरान करोडों रुपये आयोग द्वारा जब्त किये गये जो नेताओं और विभिन्न दलों के थे। इस देश में ईमानदार नेताओं की कमी नहीं है। फिर भी उन्हें समझौते करने को विवश होना प‹डता है। हमारा दावा है कि यदि भारतवर्ष के सभी राजनेता और राजनीतिक पार्टियां काले धन का इस्तेमाल करना बंद कर दें तो जनता भी काले धन से लगाव रखने से घबरायेगी। हमारे यहां एक दूसरे का अनुसरण करने की गजब की परिपाटी है। लोग बडे गर्व के साथ 'ऊंचे लोगों' को अपना आदर्श मानने लगते हैं। आज की तारीख में ऊंचे लोगों में शामिल हैं, सत्ताधारी, नेता, राजनेता, समाजसेवक, अभिनेता और तरह-तरह के माफिया आदि। इनकी लीक पर चलने से लोगों की छाती तन जाती है। एक कहावत भी है 'जैसा राजा, वैसी प्रजा।' इसलिए शासकों को सबसे पहले खुद में बदलाव लाना ही होगा। जनता अब पूरी तरह से सफाई चाहती है। ऊपर दिखावे से काम नहीं चलने वाला।
देश के अधिकांश राजनीतिक दल अवैध धंधेबाजों और अपराधियों को चुनाव लडवाने के लिए बेहद उत्सुक रहते हैं। उनके लिए चरित्र कोई मायने नहीं रखता। अगर उनमें धन की बरसात करने की क्षमता है तो उनके सभी दुर्गणों की अनदेखी कर दी जाती है। यही वजह है कई राजनीतिक दल और उनके सर्वेसर्वा नोट बंदी का विरोध कर रहे हैं। जनता को हो रही असुविधाओं का शोर मचाकर वे सरकार को कोस रहे हैं। नोटबंदी के बाद कुछ-कुछ परिवर्तन के आसार भी नजर आने लगे हैं। झारखंड, छत्तीसगढ और ओडिसा में नक्सलियों के पैरों तले की जमीन खिसकने लगी है। उनके द्वारा लोगों को डरा-धमकाकर लेवी के तौर पर वसूले गए छह सौ करोड रुपये रद्दी कागज बनकर रह गए हैं। नक्सली भ्रष्ट नेताओ, अवैध कारोबारियों, ठेकेदारों, लकडी तस्करों और बीडी निर्माताओं को डरा-धमकाकर हर वर्ष सैकडों करोड की वसूली करते हैं। कश्मीर में पत्थरबाजी कम हो गयी है। अलगाववादी पत्थरबाजों को ५००-१००० के नोट देकर पत्थर फेंकवाने के साथ-साथ आगजनी करवाते रहे हैं। काले धनपतियों को कोई रास्ता नहीं सूझ रहा है। उन्हें छापों का डर सताने लगा है। काले धन को सफेद करने के लिए उनके सीए काम में लग चुके हैं। अपराधियों के हौसले पस्त हो रहे हैं। हवाला कारोबार में अस्सी प्रतिशत तक की गिरावट आई है। मिर्जापुर में स्थित नरघाट किनारे गंगा में लाखों रुपये तैरते देखे गये। यह नोट ५०० और १००० के थे। मिर्जापुर में जैसे ही यह खबर फैली तो यह नजारा देखने के लिए लोगों की भीड उमड पडी। कुछ जोशीले लोगों ने नदी में छलांग लगा दी। लेकिन निराशा ही उनके हाथ लगी। दरअसल, इन नोटों को नदी में फाडकर फेंका गया था। इससे पहले बरेली तथा देश के विभिन्न शहरों में नोट जलाने की खबरें आयीं। नोटबंदी के बाद सबसे ज्यादा परेशानियों का सामना उन्हें करना पड रहा हैं जिनके परिजन अस्पताल में भर्ती हैं। कोलकाता में एक निजी अस्पताल में भर्ती डेंगू मरीज के परिजनों ने छोटे नोट नहीं होने पर अस्पताल का चालीस हजार का बिल उन सिक्कों से चुकता किया जो घर की महिलाओं और बच्चों की गुल्लक में कई वर्षों तक जमा किये गये थे। मेरठ में एक ७० वर्षीय महिला की तब मौत हो गयी। मृतक के बेटों के पास बडे नोट थे, जो बेकार थे। ऐसे में मां के दाह संस्कार का संकट उनके सामने खडा हो गया। ऐसे में मोहल्ले के कुछ लोगों ने चार हजार रुपये जुटाए तब कहीं जाकर अंतिम संस्कार सम्पन्न हो पाया। नये नोटों को पाने की जद्दोजहद में कई मौतें हो चुकी हैं। आम आदमी को अपार तकलीफें हो रही है। लोगों का गुस्सा इस बात को लेकर भी है कि सरकार ने इतना बडा कदम तो उठा लिया, लेकिन उससे होने वाले परेशानियों के समुचित समाधान की तैयारी पहले से नहीं की।

Thursday, November 10, 2016

हैवानियत का चेहरा

दूसरों की मासूम बहन, बेटियों का यौन शोषण करने और उन पर दानवी बर्बरता बरपाने वालों के दिल क्या पत्थर के होते हैं? क्या उनके घर-परिवार में मां, बहन, बहू, बेटियां नहीं होतीं? देश के प्रदेश महाराष्ट्र में स्थित बुलढाणा की एक आश्रमशाला में बारह नाबालिग आदिवासी लडकियों को नराधमों ने अपनी अंधी वासना का शिकार बना डाला। खुद आश्रमशाला के प्राचार्य, टीचर और अन्य कर्मचारी लडकियां का यौनशोषण कर मानवता को कलंकित करते रहे। कई महीनों तक जिन लडकियों पर जुल्म ढाया जाता रहा उनकी उम्र मात्र १२ से १४ वर्ष के बीच है। शोषित लडकियां किसी के सामने मुंह न खोलने पाएं इसके लिए उन्हें सतत तरह-तरह से दबाने और यातनाएं देने का दुष्चक्र चलता रहा। बेबस लडकियां दुराचारियों के हाथों का खिलौना बनी रहीं। तीन लडकियों के गर्भवती होने की शर्मनाक खबर जब बाहर आयी तो शासन और प्रशासन के होश उड गये। लोगों का गुस्सा भी सातवें आसमान पर पहुंच गया। महाराष्ट्र सरकार ने बच्चों के सर्वांगीण विकास और उत्थान के लिए आश्रमशालाओं की शुरुआत की है। इन आश्रमशालाओं पर सरकार प्रतिवर्ष करोडों रुपये खर्च करती है। महाराष्ट्र में ५२९ सरकारी और ५५० अनुदानित आश्रमशालाओं में करीब चार लाख पैंतालीस हजार विद्यार्थी हैं। इनमे एक लाख ९९ हजार छह सौ सत्तर आदिवासी छात्राएं हैं। इन शालाओं में विभिन्न संदिग्ध कारणों से बच्चों की मौतों और लडकियों के यौन शोषण की खबरें निरंतर आती रहती हैं। अधिकांश आश्रमशालाएं नेताओं और उनके शागिर्दों के द्वारा चलायी जाती हैं। जिस सरकारी धन को आदिवासी बच्चों के कल्याण के लिए खर्च किया जाना चाहिए उसका बहुत बडा हिस्सा भ्रष्टाचार की भेंट चढ जाता है। आश्रमशालाओं के कामकाज पर नज़र रखने की जिनकी जिम्मेदारी है, वे बहती गंगा में हाथ धोकर अपनी आंखें बंद कर लेते हैं। यही वजह है कि कई आश्रमशालाएं अय्याशी का अड्डा बनकर रह गयी हैं। बुलढाना की आश्रम शाला का सच अचानक उजागर हो गया। तीन लडकियां दीपावली की छुट्टी पर अपने घर जलगांव गयीं थीं। उनके माता-पिता को उनका चेहरा उतरा-उतरा और व्यवहार बदला-बदला-सा लगा। उन्होंने अपने-अपने तरीके से पूछताछ की। बहुत कुरेदने पर लडकियों ने हकीकत बयां करते हुए बताया कि शाला में उनकी अस्मत लूटी जाती है। पिछले कुछ दिनों से वे पेट दर्द से परेशान हैं। यह सुनते ही घर वालों के पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। आश्रमशाला के भयावह सच ने उनकी नींद उडा दी। उन्होंने अपनी बच्चियों को वहां कभी भी न भेजने का निर्णय ले लिया।
महाराष्ट्र के प्रगतिशील नगर नागपुर में भी छात्राओं के यौन क्रूरता का शिकार होने से लोग चिंतित हैं। फेसबुक पर हुई दोस्ती भी लडकियों के लिए मुसीबत का कारण बनती चली जा रही है। एक इक्कीस वर्षीय कालेज छात्रा, जो कि होस्टल में रहती है ने पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट दर्ज करवायी कि उसके फेसबुकी प्रेमी ने उसका जीना दुश्वार कर दिया है। तीन साल तक उसे यौन शोषण और ब्लैकमेलिंग का शिकार होना पडा। छात्रा की २०१३ में फेसबुक के माध्यम से कोलकाता निवासी २४ वर्षीय युवक से पहचान हुई थी। वह फेसबुक पर डाली गयी युवक की तस्वीरों से प्रभावित हो गई। दोनों में चैटिंग शुरू हो गयी। धीरे-धीरे मामला यहां तक पहुंच गया कि युवक उससे मिलने के लिए नागपुर आने लगा। शहर के विभिन्न होटलों में शामें बीतने लगीं और युवक ने जबरन छात्रा से शारीरिक संबंध भी बना लिए। वह छात्रा से धन भी एेंठने लगा। छात्रा को जब उसकी असलियत समझ में आयी तो उसने उससे दूरी बनानी शुरु कर दी। युवक अपनी असली औकात पर उतर आया। तिरस्कार से बौखलाये युवक ने छात्रा का फर्जी फेसबुक और जी-मेल अकाउंट बनाया और फिर इसके माध्यम से उसकी आपत्तिजनक तस्वीरें उसके मित्रों और रिश्तेदारों को भेजने लगा। बदनामी की वजह से छात्रा का जीना दूभर हो गया। उसने कई बार युवक को मुंहमांगी रकम दी, लेकिन ब्लैकमेलिंग का सिलसिला बंद नहीं हुआ। बेटी के द्वारा घर से बार-बार पैसे मंगवाये जाने के कारण माता-पिता को शंका होने लगी। मां ने भरोसे में लेकर जब बेटी से पूछताछ की तो उसने आपबीती बता कर स्तब्ध कर दिया। फरेबी प्रेमी के चक्कर में चार लाख लुटा चुकी छात्रा ने जब थाने पहुंचकर अपने साथ हुई धोखाधडी की सारी दास्तान सुनायी तो पुलिस वाले भी हैरान रह गये। फेसबुक पर दोस्त बनाकर शारीरिक शोषण का शिकार होने वाली इस छात्रा की तरह शहर की अन्य कई युवतियां ऐसे छल, कपट का शिकार हो चुकी हैं। यह सिलसिला थमने का नाम नहीं ले रहा है।
देश का ही प्रदेश है केरल। यहां पर शिक्षितों की तादाद दूसरे प्रदेशों की तुलना में कहीं बहुत ज्यादा है, लेकिन यहां की पुलिस के सोचने और काम करने का रंगढंग दूसरे प्रदेशों से जुदा नहीं है। केरल के त्रिचूर की रहने वाली एक महिला पर उसके पति के ही चार दोस्तों ने सामूहिक बलात्कार कर इंसानियत का गला घोंट दिया। इस घिनौने अपराध में एक स्थानीय नेता भी शामिल था। पीडिता पति के दोस्तों को भाई मानती थी। उसे उनपर बहुत भरोसा था, लेकिन एक रात उन्होंने अपना असली चेहरा दिखा दिया। नराधमों ने बलात्कार का वीडियो भी बनाया और किसी के सामने मुंह न खोलने की धमकी दी। लेकिन उसने बलात्कारियों को सबक सिखाने की ठान ली और पुलिस की शरण में जा पहुंची। चारों बलात्कारी दोस्तों को थाने बुलवाया गया। वहां पर उनकी इज्जत के साथ मेहमाननवाजी की गयी और पीडिता को जलील करते हुए शर्मनाक सवालों की बौछार लगा दी गयी। उससे पूछा गया कि बलात्कार के दौरान उसे किसने ज्यादा संतुष्ट किया। वह पुलिस का यह घिनौना रूप देखकर पानी-पानी हो गई। उसका खून खौल गया। लाचारी और बेबसी ने उसे अधमरा कर दिया। दरिंदे धनवान थे। उनकी ऊपर तक पहुंच और पहचान थी। इसलिए पुलिस ने पीडिता को अपमानित करने के लिए नीचता की सभी हदें पार कर दर्शा दिया कि उसका महिलाओं के साथ कैसा शर्मनाक व्यवहार रहता है। जिन अपराधियों की ऊपर तक पहुंच होती है उन्हें मान-सम्मान और असहायों और गरीबों की इज्जत के परखच्चे उडा दिये जाते हैं।

Thursday, November 3, 2016

दलालों की दिलेरी

उत्तरप्रदेश में चले राजनीतिक तमाशे ने एक बार फिर से सत्ता के लालची नेताओं को बेनकाब कर दिया। यह सच भी पूरी तरह से उजागर हो गया कि सत्ता और राजनीति में चापलूसों और दलालों की कितनी अहमियत है। नेताजी को वाकई बधाई जो उन्होंने राजनीति में दलालों की जरूरत और नेताओं की मजबूरी का पर्दाफाश करते हुए कबूला कि बुरे वक्त में अमर सिंह ने उनकी बडी मदद की थी। अगर वह साथ नहीं देते तो उन्हें जेल जाना पडता। वह मेरे भाई जैसे हैं।
नेताजी ने यह स्पष्ट नहीं किया कि उन्होंने ऐसा कौन-सा अपराध किया था जो उन पर जेल जाने की नौबत आ गयी थी और उन्हें उनके तथाकथित छोटे भाई ने सलाखों के पीछे जाने से बचाया था। वैसे यह सर्वविदित है कि नेताजी और अमर सिंह पर वर्षों से आय से अधिक संपत्ति के मामले अदालतों में घिसट-घिसट कर चल रहे हैं। समाजवादी पार्टी के मुखिया ने सत्ता और राजनीति के दबदबे की बदौलत हजारों करोड की जो दौलत कमायी है उसकी इसलिए ज्यादा बात नहीं होती क्योंकि भारत के अधिकांश राजनेता भ्रष्टाचार के हमाम में इस कदर नंगे हैं कि वे एक दूसरे पर उंगली नहीं उठा सकते। 'तेरी भी चुप, मेरी भी चुप' के सिद्धांत पर चलने के सिवाय उनके पास और कोई चारा नहीं है। चापलूसों, दरबारियों और दलालों में यह खासियत तो होती ही है कि वे किसी को भी प्रभावित और चमत्कृत करने की कला में पारंगत होते हैं। उनमें जोडने और तोडने का गुण भी कूट-कूट कर भरा होता है। अमर सिंह को इस कला में महारत हासिल है। उन्होंने अपने और नेताजी के आर्थिक साम्राज्य को विस्तार देने के लिए कई कलाकारियां कीं। वे १९९६ में औपचारिक रूप से समाजवादी पार्टी में शामिल हुए। उसके बाद समाजवादी मुलायम सिंह का चेहरा-मोहरा बदलता चला गया। समाजवादी पार्टी विचारधारा विहीन पार्टी बनती चली गयी। आदर्श और सिद्धांतों का गला घोंटना शुरू कर दिया गया है। अमर सिंह ने यूपी में बहुजन समाज पार्टी में दल-बदल करवाते हुए समाजवादी पार्टी की सरकार बनवाने का जब चमत्कार कर दिखाया तभी नेताजी की निगाह में उनका कद और बढ गया। समाजवादी पार्टी के लिए धन जुटाने के लिए अमर सिंह ने देश के तमाम बडे-बडे उद्योगपतियों से मधुर संबंध बनाये और समाजवादी पार्टी के लिए मोटे चंदे बंटोरने के साथ खुद को भी मालामाल कर दिया। उन्होंने मुलायम को भी भ्रष्टाचार करने के नये-नये गुर सिखाए। देखते ही देखते दोनों ने ऐसी आर्थिक बुलंदी हासिल कर ली, कि बडे-बडे उद्योगपति उनके सामने बौने नजर आने लगे। उनके यहां अंधाधुंध बरसी लक्ष्मी का असली सच जब धीरे-धीरे बाहर आया तो उनके लूटतंत्र की खबरें मीडिया में सुर्खियां पाने लगीं।
मनमोहन सरकार के कार्यकाल में तो सीबीआई ने नेताजी पर आय से अधिक सम्पत्ति मामले में ऐसा शिकंजा कसा कि उनका बचना मुश्किल हो गया। सिर पर गिरफ्तारी की नंगी तलवार लटकने लगी। ऐसे संकट के काल में अमर सिंह ने दिमाग दौडाया। परमाणु समझौते पर केंद्र सरकार को सपा की सहमति दिलाकर नेताजी को सीबीआई जांच से राहत दिलवायी। समाजवादी पार्टी में मची कलह ने सत्ता के भूखे यादव परिवार की पोल खोल दी हैै। देशवासी इस सच से अवगत हो गये हैं कि नेताजी का समाजवाद पूरा का पूरा ढकोसला है। उसका मूल विचारधारा से कोई लेना-देना नहीं है। राममनोहर लोहिया ने जिन उद्देश्यों के लिए समाजवाद की नींव रखी थी और जन-जन के उद्धार के जो सपने देखे थे, वे सब चूर-चूर हो चुके हैं। लोहिया तो ईमानदारी और सादगी की जीती-जागती मिसाल थे। लेकिन मुलायम तो भौतिक सुखों के गुलाम हो चुके हैं। उन्हें तरह-तरह के समझौते करने वाले मौकापरस्त नेता के रूप में जाना जाने लगा है। यह भी सच हैै कि उन्होंने सच्चे समाजवादी नेता राममनोहर लोहिया के सानिध्य में रहकर अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की थी। लेकिन सत्ता और परिवार मोह ने उन्हें पथभ्रष्ट कर दिया। चापलूस, बाहुबली और भ्रष्टाचारी उन्हें भाने लगे। परिवारवाद के चक्कर ने तो उन्हें कहीं का नहीं छोडा। आज हालात यह हैं कि जिस पार्टी की उन्होेंने स्थापना की वही उनके हाथ से छूटती नजर आ रही है। इतना सब कुछ होने के बावजूद भी वे उस अमर सिंह का साथ छोडने को तैयार नहीं हैं जिनका काम ही परिवारों को तोडना और आपस में लडाई-झगडे करवाना है।
मुलायम के दरबार में बाहुबलियों और तरह-तरह के अपराधियों को मान-सम्मान मिलता है। वे घोर विवादास्पद चेहरों को भी अपनी पार्टी में लेने में गुरेज नहीं करते। आज परिवार की लडाई के कारण उनकी जगहंसाई हो रही है। सिद्धांतों को दर किनार कर चुके नेताजी की लोकप्रियता का ग्राफ घटता जा रहा है और उनके बेटे अखिलेश यादव एक ईमानदार जननेता के रूप में पहचाने जाने लगे हैं। जनता यह समझ चुकी है कि मुख्यमंत्री अखिलेश यादव भ्रष्टों और बेईमानों को घास नहीं डालते, जबकि नेताजी का उनके बिना काम नहीं चलता। मुलायम सिंह को अपना आदर्श मानने वालों ने प्रदेश में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार करने के अनेकों कीर्तिमान रचे हैं जिनका मुलायम पुत्र अखिलेश विरोध करते चले आ रहे हैं। यह अखिलेश सिंह का ही दम है जो उन्होंने अपने पिता के प्रिय भाई को 'दलाल' कहने की हिम्मत दिखायी हैै। अमर सिंह मात्र एक व्यक्ति का नाम नहीं है। यह तो पाखंड, धूर्तता और स्वार्थ का प्रतीक है जो राजनीति को कलंकित करने के साथ-साथ देश को खोखला कर रहा है।
अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले भी ढेरों हैं। यह भी कह सकते हैं कि देश में कई अमर सिंह पैदा हो चुके हैं। इनके कई प्रतिरूप हैं। कुछ मंत्रियों, सांसदों, विधायकों के कई पीए भी बखूबी  दलालों की भूमिका निभा रहे हैं। दलाली की अपार कमायी अच्छे-अच्छों को ललचाती है। सत्ता के दलाल छोटी-मोटी दलाली नहीं करते। करोडों-अरबों के वारे-न्यारे किये जाते हैं। अरबों के बोफोर्स सौदे में ६४ करोड की दलाली ने राजीव गांधी की खटिया खडी कर दी थी। ऐसी सौदेबाजी और दलाली आज भी खायी और पचायी जाती है और इसे अंजाम देते हैं अमर सिंह जैसे दलाल। केंद्र में मोदी सरकार के बनने पर जब शहर के एक सांसद को केंद्रीय मंत्री बनाया गया तो उनका पीए बनने के लिए कुछ तथाकथित समाजसेवकों, पत्रकारों और संपादकों में होड मच गयी। शहर के एक दैनिक अखबार के संपादक ने तो मंत्री जी का पीए बनने के लिए उनकी चरणवंदना ही शुरु कर दी। शहर की सफेद, काली, पीली वजनदार हस्तियों से अपनी भरपूर सिफारिश करवायी। लेकिन मंत्री जी ने घास नहीं डाली। दरअसल, उन्हें पता था कि यह संपादक पुलिस और अपराधियों के 'मध्यस्थता के धंधे' का पुराना खिलाडी है। घाट-घाट का पानी पी चुके मंत्री जी 'आ बैल मुझे मार' की कहावत से भी वाकिफ हैं। इसलिए अमर सिंह को अपना आदर्श मानने वाले संपादक की दाल नहीं गल पायी। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी है। ऐसे लोग लाख दुत्कारे जाने के बाद भी दुम हिलाते रहते हैं और 'मान-न-मान मैं तेरा मेहमान' की तर्ज पर कहीं भी पहुंच जाते हैं।

Thursday, October 27, 2016

राष्ट्रभक्ति का प्रमाणपत्र

बात निकलती है तो दूर तक जाती ही है। फिर भी इस हकीकत को नजरअंदाज कर नामी लोग सनसनी फैलाते रहते हैं। वैसे भी इन दिनों देश में गजब की तमाशेबाजी चल रही है। इस खेल में नेता भी शामिल हैं और अभिनेता भी। फिल्म अभिनेता ओमपुरी एक जाने-माने फिल्मी कलाकार हैं। कोई जमीन से जुडा कलाकार ऐसा विवादास्पद बयान नहीं देता जो ओमपुरी ने देकर तमाम भारतीयों का सर शर्म से झुका दिया। उन्होंने बारामूला में शहीद हुए सैनिक नितिन यादव की शहादत का मजाक उडाते हुए कहा कि हमने किसी जवान पर कभी यह दबाव तो नहीं डाला कि वह सेना में जाए और बंदूक उठाए। सैनिकों की शहादत को कटघरे में करते-करते अभिनेता ने सवाल कर डाला कि 'क्या देश में १५-२० लोग ऐसे हैं जिन्हें बम बांधकर पाकिस्तान भेजा जा सके? किसी को जबरदस्ती तो फौज में नहीं भेजा जाता।' ओमपुरी ने खून खौलाने वाले बोल उगल कर पूरे देश में अपनी खूब थू...थू करवायी। न्यूज चैनलों पर भी उनकी खिल्ली उडायी गयी। उनकी अक्ल जब ठिकाने आयी तब तक बहुत देर हो चुकी थी। उनकी हिम्मत को दाद देनी पडेगी। जब उन्हें लगा कि देशवासी उन्हें माफ करने को तैयार नहीं हैं तो वे एलओसी में शहीद हुए जवान नितिन यादव के घर इटावा जा पहुंचे। वहां पहुंचकर उन्होंने शहीद को न सिर्फ श्रद्धांजलि दी, बल्कि अपने शर्मनाक बयान पर शहीद के माता-पिता के चरणों में गिरकर माफी भी मांगी। इस दौरान फूट-फूट कर रोते हुए उन्होंने कहा कि उनके मुंह से सैनिकों के लिए गलत बात निकल गई थी। श्रद्धांजलि देने के बाद उन्होंने शहीद के घर में हवन करने की इच्छा जतायी। उनका मान रखते हुए घर में हवन की व्यवस्था की गयी जिसमें एक पंडित ने मंत्रोच्चारण किया और अभिनेता समेत पिता एवं अन्य लोगों ने हवनकुंड में आहुतियां डालीं।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उनकी सरकार ने सर्जिकल स्ट्राइक के जरिए पाकिस्तान तथा सारी दुनिया को यह संदेश तो दे ही दिया है कि अब भारत सीमा पर आतंकवाद को किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। सर्जिकल स्ट्राइक के बाद देशवासियों में भी अभूतपूर्व उत्साह और जागरूकता दिखायी दी। सर्जिकल स्ट्राइक पर अविश्वास करने वालों को लगभग अनदेखा कर दिया गया। यह भी लोगों की सचेतना का ही परिणाम है कि ऐसी फिल्मों पर निशाना साधा गया जिनमें पाकिस्तानी कलाकारों को काम दिया गया। कई लोगों का यही मत सामने आया कि दुश्मन देश पाकिस्तान के कलाकारों को हिन्दुस्तानी फिल्मों में काम करने की इजाजत देकर देश के लोगों की भावनाओं के साथ खिलवाड नहीं किया जाना चाहिए। कुछ लोगों को पाकिस्तानी कलाकारों का विरोध रास नहीं आया। उनका मत है कि कला और कलाकार पुल का काम करते हैं, एक दूसरे को करीब लाते हैं। कलाकारों की कोई सरहद नहीं होती। सीमा की लडाई में कलाकारों को घसीटना ठीक नहीं है। लोकतंत्र में मान और मर्यादा के साथ सभी को अपनी बात रखने का अधिकार है। यही तो हमारे लोकतंत्र की खासियत है। समर्थन और विरोध करने की खुली छूट है। लेकिन कुछ लोग लोकतंत्र को ठोकतंत्र और रोषतंत्र बनाने पर तुले हैं। भारतीय फिल्मों में पाकिस्तानी कलाकारों के अभिनय करने को लेकर जब विवाद ने बहुत ज्यादा जोर पकडा तो कुछ नेताओं की राष्ट्रभक्ति ने बहुत ज्यादा  जोर मारना शुरु कर दिया। जिन फिल्म निर्माताओं की फिल्मों में पाकिस्तान के कलाकारों ने अभिनय किया उन्हें अपने-अपने तरीके से धमकाया और चेताया गया। सबसे ज्यादा मुश्किल हुई करण जौहर की फिल्म 'ए दिल है मुश्किल' के साथ।
महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना के सुप्रीमों राज ठाकरे घोषणा कर दी कि उनकी फिल्म को किसी भी हालत में प्रदर्शित नहीं होने दिया जायेगा। जो पाकिस्तान भारत का कट्टर शत्रु है उसके यहां के कलाकारों की फिल्में भारत में दिखायी जाएं, हमें कतई मंजूर नहीं। जो फिल्म निर्माता दुश्मन देश के फिल्मी कलाकारों को करोडों की फीस देकर अपनी फिल्मों में अभिनय कराते हैं वे भी बख्शने के लायक नहीं हैं। उनका यह कृत्य राष्ट्रद्रोह है। करण जोहर के तो पसीने ही छूट गये। राज ठाकरे को मनाने के लिए उन्होंने हर उस चौखट पर शीश नवाया जो उन्हें इस मुश्किल से निजात दिला सकती थी। आखिरकार मामला प्रदेश के मुख्यमंत्री के दरबार तक जा पहुंचा। मुख्यमंत्री भी जैसे मध्यस्थता करने को तैयार बैठे थे। जिस गंभीर मसले की आसानी से नहीं सुलझने की उम्मीद की जा रही थी वह घण्टे भर में ही सुलझ गया! दरअसल, यह समझौता नहीं डील थी, जिसने राजनेताओं और सत्ताधीशों के काम करने के तौर-तरीकों को उजागर कर दिया। मनसे प्रमुख ने तीन शर्तें पूरी करने पर ही पाकिस्तानी कलाकारों वाली सभी फिल्मों के प्रदर्शन में रोडा नहीं अटकाने की बात मानी। पहली शर्त थी : जिन निर्माताओं ने पाकिस्तानी कलाकारों को लेकर फिल्में बनायी हैं उन्हें आर्मी रिलीफ फंड में पांच करोड रुपये देने होंगे। दूसरी शर्त थी : पाक कलाकारों वाली फिल्म की शुरुआत में सेना और शहीद सैनिकों के प्रति सम्मान जताने वाला संदेश देना होगा। कोई भी फिल्म निर्माता आगे से पाक कलाकारों को फिल्मों में काम नहीं देगा। यकीनन तीनों शर्तें, शर्तें कम चेतावनी ज्यादा हैं। यह चेतावनी किसी को भी दहशत के हवाले करने में सक्षम है। इस समझौते की खबर के मीडिया में छाते ही मुख्यमंत्री पर भी सवाल दागे जाने लगे कि आखिर उन्होंने बिचौलिए की भूमिका क्यों निभायी? सेना फंड के लिए किसी से भी भीख मांगने नहीं जाती। सेना को जबरन वसूली का मोहरा बनाने वाले यह कैसे भूल गये कि आर्मी वेलफेयर फंड में डोनेशन के लिए किसी को विवश करना सैनिकों का अपमान है। सैनिक तो देश के सच्चे सपूत हैं। भारत मां के कलेजे के टुकडे हैं। भारतीय वीरों की कुर्बानी का लंबा स्वर्णिम इतिहास है। यह इतिहास अनमोल है। जो लोग सैनिकों के सम्मान की बोली लगाने से नहीं हिचकते उनके लिए यकीनन धन ही सबकुछ है। धन से गलत भी सही हो जाता है। इस सोच ने देश को बहुत नुकसान पहुंचाया है। जिन नेताओं के हाथों में इस विशाल देश की बागडोर है उन्होंने पता नहीं क्यों असली समस्याओं को नजरअंदाज करने की आदत बना ली है। देश अनेकानेक समस्याओं से जूझ रहा है। भुखमरी व कुपोषण के चलते बच्चों की मौतों के आंकडे बढते चले जा रहे हैं। आज भी १९.४ करोड लोग भुखमरी का शिकार हैं। आम आदमी की मूलभूत समस्याएं हैं रोटी, कपडा और मकान। पहले इनका हल होना जरूरी है, लेकिन राजनीति और राजनेता भटकाने के काम में लगे हैं। उत्तरप्रदेश में कुछ महीने बाद विधानसभा चुनाव हैं और राम नाम की लूट मच चुकी है। अभिनेता ने तो अपनी गलती का प्रायश्चित कर लिया, लेकिन इन नेताओं की बिरादरी का क्या... जो जोडना छोड तोडने और बांटने में लगी रहती है। गजलकार अदम गोंडवी की यह पंक्तियां काबिलेगौर हैं :
"हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेडिये
अपनी कुरसी के लिए ज़ज्बात को मत छेडिये
हममें कोई हूण, कोई शक कोई मंगोल है
दफन है जो बात, अब उस बात को मत छेडिये
ग़र गलतियां बाबर की थीं, जुम्मन का घर क्यों जले
ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेडिये
है कहां हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज खां
मिट गये सब, कौम की औकात को मत छेडिये
छेडिये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के खिलाफ
दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेडिये।"
'राष्ट्र पत्रिका' के सभी सजग पाठकों, लेखकों, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, शुभचिंतकों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 20, 2016

जंग की तैयारी

देश की राजधानी दिल्ली से ज्यादा दूर नहीं है मेरठ शहर। इसी बुलंद शहर में एक युवती अपने पति के साथ बाइक पर बाजार में सब्जी खरीदने जा रही थी। रविवार का दिन था। सडक पर अच्छी-खासी चहल-पहल थी। दोनों की नयी-नयी शादी हुई थी। रास्ते में दो बाइक सवार युवकों ने सजी-धजी युवती को देखते ही फब्तियां कसनी शुरू कर दीं। पति ने देखकर भी अनदेखा कर दिया। सडक छाप मजनूओं का हौसला ब‹ढ गया। वे अभद्रता पर उतर आये। पति ने बाइक की रफ्तार धीमी कर दी और उन्हें डांटा-फटकारा। उल्टा चोर कोतवाल को डांटे की तर्ज पर युवकों ने दादागिरी करते हुए उनकी बाइक को जोरदार टक्कर मार दी। पति-पत्नी बाइक समेत सडक पर गिर पडे। पति के माथे से खून बहने लगा। उसने एक युवक का कालर पकडा तो दोनों युवकों ने उसकी अंधाधुंध पिटायी शुरु कर दी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। वहां पर मौजूद दो पुलिस जवान भी चुपके से खिसकते बने। पति को पिटता देख युवती का खून खौल उठा। वह घायल शेरनी की तरह युवकों पर टूट पडी। उसने अपनी सैंडिल निकाली और धडाधड उनके माथे और सिर पर वार करने लगी। अंधाधुंध पिटायी से लहुलूहान युवकों ने वहां से भागने में ही अपनी भलाई समझी। मेरठ की इस खबर की तस्वीर अभी धुंधली भी नहीं हुई थी कि महाराष्ट्र के नारंगी शहर नागपुर की विचलित करने वाली खबरों ने हिलाने के साथ-साथ आश्वस्त भी किया कि नारी शक्ति अब संकोच और दकियानूसी सोच की दीवारों को लांघने और तोडने के लिए कमर कस चुकी है। संतरों की स्वास्थ्यवर्धक मिठास वाले शहर में एक मां को दो बेटियों को जन्म देने के कारण आधी रात को घर से निकाल दिया गया। भावना नामक महिला ने पुलिस स्टेशन में पहुंचकर अपना दर्द बयां करते हुए बताया कि उसने अंतरजातीय शादी की है। शादी के बाद पहली पुत्री पैदा हुई। पति तथा समस्त परिवार वालों को पुत्र की चाहत थी। ऐसे में जब उसने दूसरी बार भी बेटी को जन्म दिया तो उस पर प्रता‹डना का दौर शुरू हो गया। महिला का कहना है कि पति के साथ-साथ उसके ससुर ने भी अमानवीय व्यवहार किया। उस पर मायके से ५० हजार रुपये लाने के लिए दबाव डाला गया। यहां तक कि छोटी बच्ची को भी कई मारा-पीटा गया। पडोसियों ने अगर बीच-बचाव नहीं किया होता तो पति अब तक मेरी जान तक ले चुके होते। असहाय समझकर निर्दयी ससुराल वालों ने मुझे आधी रात को घर से बाहर कर दिया। उसके बाद मैंने अपने पिता को बुलवाया और नागपुर छोडकर अपने मायके बालोद (छत्तीसगढ) चली गई।
नागपुर की एक बारह वर्षीय बेटी एक दुष्कर्मी युवक की हवस की शिकार हो गयी। २० जुलाई २०१६ की रात ९ बजे वह कराटे का प्रशिक्षण लेकर अपने घर जा रही थी। रास्ते में उसे एक परिचित युवक मिला। वह उसे जबरन समीप स्थित एक खंडहरनुमा कर्मचारी क्वार्टर में ले गया। वहां पर उसने डरा-धमका कर यौन शोषण किया और फरार हो गया। माता-पिता को जैसे ही बेटी के साथ दुराचार होने की खबर मिली तो उनका मन-मस्तिष्क और आत्मा कराह उठी। किसी भी माता-पिता के लिए इससे ब‹डा दर्द और जख्म और कोई नहीं हो सकता। जिसने भी बालिका के साथ हुए दुराचार के बारे में सुना उसका खून खौल उठा। सभी ने दुष्कर्मी को मौत के घाट उतारने की मांग की। यह बालिका कराटे के प्रति पूरी तरह समर्पित है। कराटे ही उसका जुनून है। उसके साथ जब यह घिनौनी हरकत हुई तो वह कुछ दिनों बाद होने वाली कराटे की राष्ट्रीय स्पर्धा की तैयारी में तल्लीन थी। घरवालों ने मान लिया कि बेटी का भविष्य अंधेरे के हवाले हो गया है। सब कुछ लुट गया है। लेकिन बच्ची ने खुद को संभाल लिया। जब उसके कोच ने बच्ची से कहा कि इस साल तुम आराम करो, अगले साल खेलेंगे, तब बच्ची ने कहा कि सर ऐसा कभी हो नहीं सकता कि इस साल मैं न खेलूं। अगर आप साथ नहीं देंगे तो मैं अकेले खेलने जाऊंगी। यह बहादुर बेटी भले ही बदनामी के भय और पी‹डा के चलते घर में रोती-बिलखती रही, लेकिन चौथे दिन उसने यह निश्चय कर लिया कि किसी भी हालत में कुछ दिनों बाद होने वाली राष्ट्रीय स्पर्धा में भाग लेकर जीत हासिल करनी ही है। उसने पसीना बहाने में दिन-रात एक कर दिया और घटना के दसवें दिन राष्ट्रीय प्रतियोगिता जीतकर यह बता दिया कि भारतीय बेटियां किस मिट्टी की बनी हैं। इसके पश्चात वह विश्व स्तरीय प्रतियोगिता में शामिल होने के लिए दक्षिण अफ्रीका रवाना हो गई। इस बेटी का यही कहना था कि मैं सबकुछ भूलना चाहती हूं। केवल यही याद रखना है कि मुझे हर हाल में विजयी होना है। मुझे किसी भी हालत में अपने सपने पूरे करने हैं। अपनी शिष्या के ल‹डाकू तेवर देखकर कोच ने कहा कि मैंने अपने जीवन में ऐसा ज़ज्बा नहीं देखा। यह लडकी सदैव जीत की बात करती है। खेल के मैदान में प्रशिक्षण के दौरान उसका व्यवहार ऐसा रहता है मानो वह किसी जंग की तैयारी कर रही हो।
असीम आत्मबल, आत्मविश्वास और जागृति का ही परिणाम है कि कई भारतीय नारियां घुट-घुट कर मरने की बजाय अपने अधिकारों के लिए मर-मिटने से नहीं घबरातीं। फिर भी यही सच है कि इस देश में नारी आज भी पूरी तरह से सुरक्षित नहीं है। इतनी बडी संख्या में बलात्कार, दहेज प्रताडना, एसिड अटैक और आनरकिqलग की शर्मनाक खबरें असली सच बयां कर देती हैं। यह हकीकत भी बेहद परेशान करने वाली है कि दुष्कर्म की अधिकांश घटनाएं दलित, गरीब और पिछ‹डे वर्ग की महिलाओं के साथ ही हो रही हैं। यह जानकर भी बेहद ताज्जुब होता है कि बेटियों की तुलना में बेटों को बेहतर मानने वालों में सम्पन्न और प‹ढे-लिखे लोग भी शामिल हैं। तामिलनाडु की मशहूर अभिनेत्री खुशबू लिखती हैं : 'मैं जब पैदा हुई तो अस्पताल में मुझे देखने के लिए पिता नहीं आए क्योंकि मैं कन्या थी। यह तब हुआ जब मैं तीन भाइयों के बाद पैदा हुई थी। इस देश में महिलाओं के लिए सम्मान क्यों नहीं है? उन्हें उपेक्षा की नजरों से क्यों देखा जाता है? पुरुष का मन होता है तो कभी उन्हें लक्ष्मी, कभी सरस्वती और कभी शक्ति का अवतार बता देता है...'
यह लोगों के न सुधरने का ही परिणाम है कि देश में सख्त दहेज विरोधी कानून होने के बावजूद दहेज लोभी बहुओं को आतंकित करने से बाज नहीं आते। यह भी अत्यंत चिंतनीय बात है कि ल‹डकियां अपने परिजनों के द्वारा ही ज्यादा शोषित और प्रताडित की जाती हैं। आंक‹डे बताते हैं कि नब्बे प्रतिशत बलात्कार परिचितों के द्वारा अंजाम दिए जाते हैं। गर्भ में लडकी को उसके परिवार वाले ही मारते हैं ल‹डके की चाहत में यदि लडकी हो जाए तो कूडे के ढेर के हवाले करने और कुत्तों से नुचवाने जैसी क्रूरता करने से भी बाज नहीं आते। बलात्कारियों के होश ठिकाने लगाने के लिए जो नया कानून बनाया गया है उसके अनुसार न्यूनतम सात वर्ष और अधिकतम उम्रकैद की सजा हो सकती है। फिर भी बलात्कार हैं कि थमने का नाम नहीं ले रहे। कानून के रखवाले अपना कर्तव्य किस तरह से निभाते हैं उसका पता मेरठ की घटना से चल जाता है। यदि वहां पर मौजूद खाकीवर्दी वाले घटनास्थल से भाग खडे होने के बजाय गुंडों पर डंडे बरसाते तो पुलिस की छवि कलंकित नहीं होती। उसके प्रति विश्वास जागता। अदालत के फैसलों में होने वाली देरी भी अराजकतत्वों का मनोबल बढाती है। जब तक समाज के लोग जागृत नहीं होंगे, अपराधों में कमी नहीं आएगी। तमाशबीन बने रहना भी अपने कर्तव्यों से भागना है और इस भयावह सच से मुंह मोडना है कि कल को हमारे घर की बहन-बेटियों पर भी शैतानों की गाज गिर सकती है। तब हम किसी को कोसने के भी अधिकारी नहीं होंगे।

Thursday, October 13, 2016

धूर्त और मौकापरस्त नेता

"मेरे पांव के छालों जरा
लहू उगलो... सिरफिरे
मुझसे सफर के निशान मांगेंगे!!"
जिसने भी यह पंक्तियां लिखी हैं उसके दर्द को समझा जा सकता है। वैसे इन शब्दों में देश के हर सैनिक की पीडा छिपी है। वाकई बडा शर्मनाक दौर है यह। सैनिकों की शहादत पर राजनीति करने वाले नेताओं को तो डूब मरना चाहिए। पर यह मोटी चमडी वाले इतने संवेदनहीन हो गए हैं कि इन्हें शहीदों का अपमान और उन्हें कठघरे में खडा करने में भी लज्जा नहीं आती। इन्हें हमेशा अपने चुनावी फायदे की चिन्ता रहती है। यकीनन यह निर्लज्जता की पराकाष्ठा है। राहुल गांधी देश के प्रधानमंत्री बनते-बनते चूक गए। शायद इसी पीडा ने उन्हें बेहद मुंहफट बना दिया है। कुछ लोग इसे आक्रमकता कहते हैं, जो हर नेता में होनी चाहिए, लेकिन सवाल यह है कि ऐसी आक्रमकता किस काम की जो आपको शर्मिन्दा होने को विवश कर दे। कहते हैं कि नेताओं की चमडी बहुत मोटी होती है। उन पर लोग स्याही फेंके, जूते-चप्पलें चलाएं, गंदी-गंदी गालियों से नवाजें, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। राजनीति में प्रवेश करने से पहले उन्हें यही घुट्टी पिलायी जाती है कि विरोधी दल के नेताओं की ऐसी-तैसी करने में कोई कमी नहीं करना। सत्ता पानी है तो आकाश पर भी थूकते रहना। भले ही थूक वापस खुद पर ही आकर क्यों न गिरे।
पाक अधिकृत कश्मीर में २९ सितंबर २०१६ को आतंकी शिविरों में सेना के सर्जिकल स्ट्राइक पर राहुल गांधी ने जब यह कहा कि जवानों ने अपना खून दिया और आप (प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी) शहीदों के खून की दलाली कर रहे हैं... तो देश के अधिकांश सजग देशवासी हतप्रभ रह गये। उन्होंने खुदा का शुक्र माना कि अच्छा हुआ कि यह गांधी-नेहरू परिवार का चिराग देश का प्रधानमंत्री नहीं बना। इनका तो अपनी जुबान पर भी नियंत्रण नहीं। वैसे सर्जिकल स्ट्राइक के और भी कई नेताओं ने सबूत मांग कर अपनी खिल्ली उडवायी और सजग देशवासियों का गुस्सा झेला। कभी शिवसेना में उछलकूद मचाने वाले कांग्रेस के नेता संजय निरुपम ने भी सर्जिकल स्ट्राइक को नितांत फर्जी बता कर अपनी राजनीति की दुकानदारी चमकाने की भरपूर कोशिश की। लेकिन सोशल मीडिया पर उन्हे इतना लताडा गया की नानी याद आ गयी और मुंह छिपाने की नौबत आ गयी। गैंगस्टर रवि पुजारी ने भी उन्हें सोच समझ कर बोलने और माफी न मांगने पर गंभीर परिणाम भुगतने की धमकी दे डाली। संजय तो नेता हैं इसलिए अंदर से भयभीत होने के बावजूद उन्होंने अपनी मोटी चमडी की चमक कम नहीं होने दी। लेकिन उनकी धर्म पत्नी इतनी घबरायीं कि उन्होंने प्रधानमंत्री जी को पत्र लिखा कि वह भारत में खुद को बेहद असुरक्षित महसूस कर रही हैं। उन्हें और उनके परिवार को न केवल सोशल मीडिया पर गालियां दी जा रही हैं बल्कि फोन करके उनके खिलाफ अश्लील टिप्पणी भी की जा रही हैं। हमारा परिवार बहुत खौफ में जी रहा है। हमें सुरक्षा प्रदान की जाए। परेशानी यह है कि सत्ता के भूखे इस देश के अधिकांश नेताओं को बयान के गोले दागने की बहुत जल्दी रहती है। मीडिया में छाने के लिए कौन पहले विष उगलता है इसकी भी प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। राहुल गांधी से पहले आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल ने सरकार से सर्जिकल स्ट्राइक का प्रूफ मांगकर अपनी जमकर किरकिरी करवायी। राहुल गांधी और अरविंद जैसे तमाम नेताओं के सैनिकों की शहादत पर सवाल खडे किये जाने से आम लोगो को बहुत चोट पहुंची। सबकी समझ में यह सच आ गया कि सत्ता के भूखे नेताओं का कोई ईमान-धर्म नहीं है। सजग लेखकों और कवियों ने भी ऐसे नेताओं पर शब्दवार कर अपनी भडास निकाली। कवि पंकज अंगार की कविता की यह पंक्तियां तो सोशल मीडिया में छा गयीं :
 फिर सेना के स्वाभिमान पर
जयचंदों ने वार किया।
राजनीति ने फिर बलिदानी
पौरुष को धिक्कार दिया।
कायरता की भाषा बोली
वोट के ठेकेदारों ने
कुर्बानी को खेल बताया
कुछ ओछे किरदारों ने।
जिस तरह से भारत के बहादुर सैनिकों ने पाकिस्तान के घर में घुसकर सात आतंकी कैम्पों को ध्वस्त कर ३० से ३५ आतंकियों को ढेर करने के साथ-साथ सात सैनिकों को मार गिराया उससे तो हर देशवासी को सैनिकों की जय-जयकार करनी चाहिए थी। लेकिन घटिया मनोवृति के कुछ नेता यहां भी राजनीति करने से बाज नहीं आए! एक-दूसरे के कपडे उतारने पर तुल गये। सेना की सर्जिकल स्ट्राइक का वीडियो जगजाहिर नहीं करने को लेकर सरकार पर उंगलियां उठाने वालों ने पूर्व थल सेनाध्यक्ष जनरल शंकर राय चौधरी के बयान को ही नजरअंदाज कर यह दर्शा दिया कि उन्हें किसी भी हालत में नरेंद्र मोदी का विरोध करते रहना है। श्री चौधरी के कथनानुसार यह वीडियो पाकिस्तान की सेना और उनकी खुफिया एजेंसी आईएसआई के लिए अनमोल खजाना है। विरोधी दलों के नेता चाहे कितना भी शोर मचाएं, लेकिन हिन्दुस्तान की सरकार को इसे सार्वजनिक नहीं करना चाहिए। दुनिया की कोई भी फौज ऐसी भूल नहीं करती। जो लोग सर्जिकल स्ट्राइक पर शंका कर रहे हैं उनके दिमाग का दिवाला निकल चुका है। वे परले दर्जे के धूर्त भी हैं और मौकापरस्त भी।

Thursday, October 6, 2016

अंधभक्तों का तमाशा

महाराष्ट्र के पूर्व उपमुख्यमंत्री छगन भुजबल का नाम प्रदेश और देश के चतुर और दबंग नेताओ में शुमार रहा है। मुंबई के फुटपाथ पर आलू-प्याज बेचते-बेचते उनके मन में नेता बनने का ख्याल आया और वे राजनीति में कूद पडे। उन दिनों राजनीति के मैदान में सपने बेचने वाले नये नेताओं के लिए काफी गुंजाइश थी। दलितों और शोषितों के उद्धार के नारे लगाकर छगन ने सबसे पहले शिवसेना का दामन थामा। तब मुंबई में शिवसेना का सिक्का चलता था। शिवसेना सुप्रीमों बालासाहेब ठाकरे की एक दहाड पर गुंडे-बदमाशों की घिग्गी बंध जाती थी। बडे-बडे माफिया उनकी चौखट पर मस्तक झुकाते थे। भुजबल ने शिवसेना में रहकर राजनीति के सभी गुर सीखे और कमायी के रास्तों की खोज कर अपनी आर्थिक स्थिति सुधारी। जब शिवसेना की नैय्या डूबने लगी तो शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया। पवार ने भी दबे-कुचले लोगों के लिए अपनी आवाज बुलंद करने वाले इस मजबूत कद-काठी वाले नेता को हाथों-हाथ लिया। जब महाराष्ट्र में कांग्रेस, राकां गठबंधन की सरकार बनी तो भुजबल की निकल पडी। उन्हें महाराष्ट्र का उपमुख्यमंत्री और गृहमंत्री बनने का सौभाग्य हासिल हो गया। उन्होंने अपने मंसूबों को पूरा करने के लिए रात-दिन एक कर दिया। मालामाल होने के लिए सभी तरह के हथकंडे आजमाने शुरू कर दिये। उन्हीं के कार्यकाल में तेलगी का अरबों-खरबों रुपयों का स्टैम्प घोटाला सामने आया। यह भी रहस्योद्घाटन हुआ कि इस 'क्रांतिकारी नेता' के नकली स्टाम्प घोटाला के नायक से बेहद करीबी रिश्ते हैं। तेलगी को तो जेल भेज दिया गया, लेकिन भुजबल पर कोई आंच नहीं आयी। वे भ्रष्टाचार की सभी हदें पार करते चले गये। मुंबई, पुणे, ठाणे नासिक में करोडों की जमीने, बंगले, फार्म हाऊस बनते चले गए। कई उद्योगधंधे शुरू हो गए। आयात-निर्यात के कारोबार में भी पांव पसार लिए। अपने भाई-भतीजों, रिश्तेदारों, यार-दोस्तों के नाम से सरकारी ठेके लेने के लिए हर मर्यादा को ताक पर रख दिया गया। मीडिया में उनके भ्रष्टाचार की खबरें छपती रहीं, लेकिन अपनी सरकार होने के कारण उनका बाल भी बांका नहीं हुआ। प्रदेश की नयी सरकार ने जब अपना शिकंजा कसा तो पूरी दुनिया जान गयी कि छगन और उसके परिवार के पास हजारों करोड की धन-दौलत है। यह सारी माया सत्ता के सिंहासन पर विराजमान होने के बाद जुटायी गयी। कोई आंख का अंधा भी समझ सकता है कि छगन कोई धर्मात्मा नहीं है। उसने राजनीति को भ्रष्टाचार का अखाडा बनाकर अपार धन-दौलत के अंबार खडे किये। ऐसे लुटेरे की असली जगह तो जेल ही है। लेकिन उसके अंध भक्त बडे भोले बनकर सवाल करते हैं कि जब दूसरे भ्रष्टाचारी बाहर हैं तो दलितों और शोषितों का यह मसीहा सलाखों के पीछे क्यों सड रहा है? छगन को जेल से छुडाने की मांग को लेकर नाशिक में एक विशाल मोर्चा निकाला गया। मोर्चों में एक लाख से ज्यादा लोग शामिल हुए। जगह-जगह अपने नेता के समर्थन में बैनर और पोस्टर लगाये गये थे। समर्थक बेहद गुस्से में थे। उनका कहना था कि ओबीसी नेता पर सरकार अन्याय कर रही है। यदि उन्हें नहीं छोडा गया तो इसके नतीजे अच्छे नहीं होंगे। वे पूरी तरह से निर्दोष  हैं। उन्हें उन लोगों ने फंसाया है जो उनके राजनीतिक उत्थान से जलते हैं।
राजद के पूर्व सांसद मोहम्मद शहाबुद्दीन को भी दोबारा जेल में भेजे जाने से उनके समर्थकों के तन-बदन में आग लग गयी। ऐसा कम ही देखने में आता है कि सरकार में शामिल कोई पार्टी सरकार के खिलाफ ही प्रदर्शन करने पर उतारू हो जाए। बाहुबली, हत्यारे, लुटेरे, आतंकी शहाबुद्दीन के जबरदस्त प्रभाव का ही कमाल कहेंगे कि आरजेडी समर्थकों ने सरकार पर शहाबुद्दीन को एक साजिश के तहत दोबारा जेल भेजने का आरोप लगाते हुए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के खिलाफ नारेबाजी की। शहाबुद्दीन के अंध भक्तों ने मीडिया को भी अपना निशाना बनाया। उनका मानना था कि शहाबुद्दीन के जमानत पर छूटने के बाद जिस तरह से मीडिया ने हो-हल्ला मचाया उनके पुराने इतिहास के पन्ने खोलकर दहशत पैदा की, उससे उन्हें फिर से जेल जाना पडा। अपराधियों के लिए राजनीति वाकई कवच का काम करती है। राजनीति में पदार्पण करने के बाद शातिर से शातिर अपराधी लोगों को भ्रमित करने की कला में पारंगत हो जाते हैं। कब क्या बोलना और बुलवाना है इसका उन्हें पूरा ज्ञान हो जाता है। वे यह भी जानते हैं उनके चहेतों को छोडकर दूसरे उनकी बातों पर यकीन नहीं करते। पटना हाईकोर्ट से जमानत मिलने के बाद जेल से छूटे शहाबुद्दीन का जिस तरह से आदर सत्कार किया गया उससे उसने खुद को बहुत बडा नेता मान लिया। बदनामी और लोकप्रियता के अंतर को वह समझ ही नहीं पाया। सच तो यह है  कि राजनीति में पैठ जमाने वाले अपराधियों के हौंसले बुलंद करने की बहुत बडी वजह होते हैं उनके वे अंधभक्त जो हर वक्त पलक पावडे बिछाने को तत्पर रहते हैं और किसी भी हालत में उनका साथ नहीं छोडते। शहाबुद्दीन जितने दिन भी बाहर रहा, उसके घर मेला-सा लगा रहा। सैकडों लोग उसके इर्द-गिर्द बने रहे। भ्रष्टाचारियों के सरगना लालू प्रसाद यादव को अपना एकमात्र नेता मानने वाला शहाबुद्दीन भी यही कहता है कि मीडिया ने मुझे बेवजह बदनाम कर दिया है। मैंने तो एक चिडिया तक नहीं मारी। छगन भुजबल के समर्थकों की तरह उसके समर्थक भी उसे मसीहा ही मानते हैं...।

Thursday, September 29, 2016

तमाशबीन भीड

ऐसा लगता है कि कुछ लोगों ने कभी न सुधरने की कसम खा रखी है। निर्भया कांड के बाद लगा था कि काफी परिवर्तन आयेगा, लेकिन आया नहीं। दिल्ली से सटे गुडगांव में एकतरफा प्रेम में शादी का प्रस्ताव ठुकराये जाने पर प्रेमी ने लडकी पर गोली चला दी। नोएडा में ट्यूशन पढकर घर लौट रही ११ वीं की छात्रा का दो युवकों ने अपहरण कर लिया। कार में उनके साथ एक महिला भी थी। युवकों ने छात्रा को कुछ सुंघाया जिससे वह बेहोश हो गयीं। सुबह होश आने पर उसने खुद को एक मकान में पाया। बाद में आरोपी कार में बैठाकर एनएच-२४ पर फेंक कर चलते बने। हरियाणा के शहर रोहतक में कार में सवार पांच बदमाशों ने तीन बेटियों की मां को घर से अगवा किया और ११ घण्टे तक अपनी हैवानियत का शिकार बनाया। दुष्कर्मियों का इरादा तो महिला को मौत के घाट उतारने का था। बेटियों की परवरिश का हवाला देकर महिला ने दरिंदो से तो मुक्ति पा ली, लेकिन कुछ घण्टों के बाद खुद ही मौत को गले लगा लिया। देश की राजधानी दिल्ली में दिन-दहाडे बीच सडक पर २१ साल की एक युवती को ३४ साल के एक युवक ने बाईस बार कैंची घोंपी। युवती ने भीड के समक्ष दम तोड दिया। हत्यारे का कहना था कि वह युवती से बेइंतहा प्यार करता था। उसकी इच्छा थी कि युवती उसकी पत्नी बने, लेकिन उसने उसके प्रस्ताव को ठुकरा दिया तो उसका खून खौल उठा। वह अपनी प्रेमिका को किसी और की होते नहीं देख सकता था, इसलिए उसकी हत्या कर दी।
देश के विभिन्न नगरों, महानगरों और ग्रामों तक में ऐसी घटनाओं को अंजाम दिये जाने की खबरें आम हो गयी हैं। न जाने कितनी ऐसी और भी वारदातें होती हैं जिनकी खबर हमें नहीं लग पाती। निर्भया कांड के बाद २०१३ में बने कानून के तहत किसी लडकी का पीछा करना अपराध है। मगर एक तो यह जमानती अपराध है। दूसरे इसमें पीडिता की सुरक्षा का कोई प्रावधान नहीं है। कानून की इसी कमजोरी का फायदा उठाते चले आ रहे हैं सिरफिरे प्रेमी और छंटे हुए अपराधी। राह चलती लडकियों को छेडने, स्कूल, कॉलेज, घर में प्रेम पत्र भेजने, दुपट्टा खींचने जैसी कई घटनाओं को बेखौफ अंजाम देकर युवतियों का सुख-चैन छीनना आज के बेलगाम आशिकों का मनपसंद खेल बन गया है। भीड भरी सडकों, गलियों-चौराहों पर जबरन लडकियों का रास्ता रोका जाता है। प्यार का इजहार किया जाता है जैसे जिन्दगी कोई फिल्म हो कोशिश करते रहो, लडकी पट ही जाएगी। आज नहीं तो कल उसे हां कहनी ही पडेगी। ना कहेगी तो उसे सबक भी सिखा देंगे। आजकल यही हो तो रहा है। अब यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं कि चाहे दिल्ली हो, रोहतक हो, नोएडा हो या फिर देश का कोई भी शहर-कस्बा हो महिलाएं असुरक्षित हैं। पुरुष आज भी महिलाओं को खुद से कमतर समझते हैं। उन्हें अपने विवेक पर चलने वाली नारियों को दबाने और सताने में असीम खुशी हासिल होती है। यह भी तो नहीं माना जा सकता कि सभी पुरुषों एक जैसी मानसिकता वाले होते हैं। फिर ऐसे में यह सवाल भी उठता है कि महिलाओं पर बर्बरता होते देख संवेदनशील और सभ्य पुरुषों का खून क्यों नहीं खौलता? उनका तमाशबीन बने रहना उनकी संवेदना और मर्दानगी पर सवाल तो खडे करता ही है। यह भी जान लें कि तमाशबीन सिर्फ पुरुष ही नहीं होते, महिलाएं भी होती हैं। इतिहास गवाह है कि खुद महिलाओं ने ही जितना नुकसान, अपमान महिलाओं का किया उतना तो पुरुषों ने भी नहीं किया। यदि स्त्री और पुरुषों की भीड मिलकर किसी दुराचारी हत्यारे को ललकारे तो उसके हौसले ठंडे होने में देरी नहीं लगेगी। हत्यारों, व्याभिचारियों में मनोबल का नितांत अभाव होता है उनमें अपने पांव पर खडे होने की ताकत ही नहीं होती। वे बाहर से शेर और अंदर से गीदड होते हैं। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि घर परिवार में युवाओं को मिलने वाली शिक्षा-दीक्षा और वातावरण भी ऐसी घटनाओं के लिए उत्तरदायी है। प्यार में असफल तथाकथित प्रेमियों की हिंसक प्रवृत्तियां सभ्य समाज के मुंह पर तमाचा हैं। आज कुआंरी लडकियां तो निशाने पर है ही शादीशुदा महिलाओं को भी नहीं बख्शा जा रहा है। पहले अंधेरे में अपराध होते थे, अब उजाले में, दिन दहाडे किसी राह चलती लडकी और महिला की आबरू लूट ली जाती है, हत्या कर दी जाती है, लेकिन कोई हलचल नहीं होती। प्रेमी से हत्यारे बने ऐसे नौजवानों से पूछताछ करने वाले कुछ पुलिस अफसर काफी हद तक उनकी मानसिकता को समझने में सफल हुए हैं। दिल्ली के राजौरी गार्डन के अस्पताल की लेडी डॉक्टर पर दो लडकों को रकम का लालच देकर तेजाब डलवाने के आरोप में एक डॉक्टर को गिरफ्तार किया गया था। उस डॉक्टर की मानसिकता का अध्ययन करने वाले एक पुलिस अधिकारी ने स्पष्ट किया कि ऐसे लोग रिजेक्शन यानी इनकार स्वीकार नहीं कर सकते। यह साइको-एनालिसिस का मामला है। यह लोग अचानक ऐसा भीषण अपराध नहीं करते, बल्कि काफी लंबे वक्त तक सोच विचार करने के बाद जुर्म करते हैं। इन पर आसपास के समाज का भी प्रभाव पडता है। इन नौजवानों के मन में यह बात घर कर जाती है कि लडकी अगर मेरी नहीं हो सकती तो किसी और की भी नहीं हो सकती। कुछ नौजवानों पर जैसे जुनून सवार हो जाता है। उनकी हालत पूरी तरह फियादीन आतंकवादी जैसी होती है। उन्हें आसपास की भीड की भी चिन्ता नहीं रहती। उन्हें यह भी अच्छी तरह से मालूम होता है कि उनकी गिरफ्तारी तय है। भीड से पिटने का भय भी उन्हें नहीं सताता। कई आशिक ऐसे होते हैं जो अकेलेपन का शिकार होते हैं। एकतरफा प्यार करते हैं। सोशल साइटस पर लडकी को फॉलो करते हैं। उन पर नजर रखते हैं ब्लैंक कॉल करते हैं। अनजान लडकी को देर रात फोन करने में उन्हें सुकून मिलता है। थोडी सी जान-पहचान होते ही प्रेमपत्र और उपहार भेजने लगते हैं। मानसिक रूप से बीमार होने के कारण ये इस भ्रम को पालने में देरी नहीं लगाते कि कहीं न कहीं लडकी उनसे प्यार करती है इस तरह के लोगों को समझाना या इनका इलाज करना बहुत मुश्किल होता है। यह लोग शिकार तलाशते रहते हैं और मौका पाते ही यौन उत्पीडन कर आनंदित होते हैं।

Thursday, September 22, 2016

दिमाग के दरवाजे बंद रखने की जिद

डायन, चुडैल, भूतनी, टोनहिन, प्रेतनी कलंकिनी, डाकिन आदि ऐसे दिल और दिमाग को छलनी कर देने वाले शाब्दिक बाण हैं जिनसे गरीब, असहाय, दबी कुचली महिलाओं को अपमानित किया जाता है। उन्हें मनचाही शारीरिक यातनाएं दी जाती हैं। भारत के विभिन्न राज्यों में डायन बताकर अब तक कितनी महिलाओं को मौत के घाट उतार दिया गया इसका कोई आंकडा दे पाना कतई संभव नहीं है। डायन घोषित की गई महिलाओं के बाल काटने, उनके साथ बलात्कार करने, उनको नंगा करके गांव में घुमाने, उनके जननांगों को क्षति पहुंचाने और मुंडन कर देने के साथ-साथ उन्हें समाज के लिए खतरनाक बताने के लिए कई कहानियां और कहावतें गढ ली जाती हैं।
उनकी उम्र है ६३ वर्ष। नाम है बीरूबाला रामा। उन्होंने असम में डायन हत्या जैसे अंधविश्वास के खिलाफ लडाई लडते हुए कई हमले झेले, अपमान का शिकार हुर्इं, लेकिन फिर भी नहीं घबरायीं। असम के कई गांव आज भी अंधविश्वास की जंजीरों में कैद हैं। झाड फूंक करने वाले बाबाओं पर ग्रामवासी इस कदर विश्वास करते हैं कि यदि कोई उनके खिलाफ आवाज उठाता है तो उसकी हत्या तक कर दी जाती है। सजग आदिवासी ग्रामीण महिला बीरूबाला ने ढोंगी बाबाओं के खिलाफ अपना स्वर बुलंद किया तो उन्हें तरह-तरह से प्रताडित किया गया। अंधविश्वास के खिलाफ उनकी लडाई की शुरुआत तब हुई जब १९९६ में उनके बडे बेटे को मलेरिया हो गया था। गांव के कुछ लोगों ने उसे देवधोनी (कथित अवतार) के पास ले जाने की सलाह दी। वे उनका कहा मानकर उसके पास चली गयीं। देवधोनी ने बेटे को देखते ही कहा उनके बेटे को किसी पहाडी देवी की आत्मा ने जकड लिया है जिससे छुटकारा मिलना असंभव है। उनका बेटा बस अब तीन दिन का ही मेहमान है। उसे दुनिया की कोई ताकत नहीं बचा सकती। वे चुपचाप अपने बेटे को घर ले आयीं। दो दिन के बाद बेटा बिस्तर से उठ खडा हुआ। तभी से वे बाबाओं के खेल को समझ गयीं। उन्होंने अंधविश्वास के खिलाफ कमर कसने की ठान ली। लेकिन यह काम उतना आसान नहीं था। बीरूबाला के कथित अवतार और भूत प्रेत के खिलाफ मुंह खोलते ही बाबाओं के अनुयायियों में खलबली मच गयी। उन्होंने बीरूबाला के खिलाफ मोर्चा खोलते हुए समाज से बाहर करने के साथ-साथ गांव से चले जाने का फरमान सुना दिया। उन्हें तीन साल तक गांव से बाहर रहना पडा। वे डायन प्रथा और पाखंडी बाबाओं का पर्दाफाश करने की ठान चुकी थीं, इसलिए उनकी आवाज बुलंद होती चली गयी। कई हमले झेल चुकी इस जुनूनी महिला को गोवाहाटी विश्वविद्यालय ने मानद डॉक्टरेट की उपाधि से नवाजा है।
यह हकीकत वाकई हैरान-परेशान करने वाली है कि मध्यप्रदेश में १०० में से ४० बच्चे कुपोषित हैं। यह खबर २०१६ के सितंबर महीने की है। देश को आजाद हुए ६९ वर्ष बीत गये, लेकिन हम बच्चों को स्वस्थवर्धक भोजन और चिकित्सा सुविधाएं तक उपलब्ध नहीं करवा पाये! उस पर अंधश्रद्धा के नाग ने लोगों को बुरी तरह से जकड रखा है। इसलिए कई मां-बाप अपने कुपोषित बच्चों को इलाज के लिए डॉक्टरों के पास ले जाने की बजाय बाबाओं के तंत्र-मंत्र पर ज्यादा भरोसा करते हैं। खांसी और बुखार से ग्रसित बच्चों को लहसुन और पीपल के पत्तों की माला पहनाने तथा पेट पर नाडा बांध देने से वे यह मान लेते हैं कि उनके कमजोर बच्चे तंदुरुस्त हो जाएंगे। यह देखकर घोर ताज्जुब होता है कि इस आधुनिक दौर में भी किस कदर अंधश्रद्धा का बोलबाला है। कई लोगों का यह भ्रम भी निरर्थक है कि अशिक्षित और ग्रामीण ही तंत्र-मंत्र और अंधविश्वास की काली छाया के शिकार हैं। महाराष्ट्र के शहर नागपुर में सैकडों मनोरोगी ऐसे हैं जो घरों में कैद होकर रह गये हैं। यह लोग कभी अच्छे भले थे। अचानक उन्हें मानसिक रोग ने अपनी चपेट में ले लिया तो उनका जीवन नरक से भी बदतर हो गया। परिजन यही समझते रहे कि किसी भूत या बाहरी हवा ने उन्हें अपने चंगुल में ले लिया हैं। २२ साल के रामलाल की जिन्दगी की गाडी बडे मज़े से चल रही थी। वह शहर की नामी ट्रांसपोर्ट कंपनी में काम करता था। पाच साल पूर्व अचानक उसकी दिमागी हालत गडबडा गयी। अपना काम-धाम छोडकर वह बस्ती की गली में पागलों की तरह गाना गाते घूमता नजर आने लगा। उसकी इस हालत को देखकर लोग अपनी-अपनी राय व्यक्त करने लगे। ज्यादातर का यही कहना था कि किसी ने उस पर जादू-टोना कर दिया है। अब तो कोई पहुंचा हुआ ओझा ही उसे ठीक कर सकता है। परिवार वाले उसे भूत भगाने वाले तांत्रिक के पास ले गये, लेकिन उसकी हालत नहीं सुधरी। उसके इधर-उधर भटकने पर अंकुश लगाने के लिए उसके हाथ-पैर जंजीरों से बांध दिए गए और घर में कैद कर दिया गया। जंजीरों में बंधा रहने से उसकी हालत जब बिगड गयी तो उसे आजाद कर दिया गया। लेकिन इससे तो मामला और भी बिगड गया। एक दिन वह बिजली के ट्रांसफार्मर पर चढ गया तो उसके हाथ-पैर बुरी तरह से जल गए। सरकारी अस्पताल में ले जाने पर डॉक्टर ने कहा कि वह तो मनोरोगी है। भूत का कोई चक्कर नहीं है। उसका समुचित इलाज होने पर वह शीघ्र ठीक हो जाएगा। मगर परिवार वालों को डॉक्टर की सलाह रास नहीं आयी। लोगों की सलाह पर फिर से उन्होंने तंत्र-मंत्र करने वाले किसी बाबा की शरण में जाना उचित समझा।
नागपुर में स्थित कलमना, निवासी संजीवन के पांच में से तीन पुत्रों ने अपना मानसिक संतुलन खो दिया है। हालात यह हैं कि तीनों घर में ही पडे रहते हैं। कभी बॉथरूम में छिप जाते हैं तो कभी किसी चीज़ के लिए बच्चों की तरह जिद करने लगते हैं। बुजुर्ग पिता को कुछ तांत्रिकों ने बच्चों पर भूत-प्रेत का साया बताकर ऐसा डराया कि उनसे तीस-चालीस हजार रुपये एेंठ लिए। इसके लिए उन्हें अपनी जमीन गिरवी रखनी पडी। जब तंत्र-मंत्र से कोई फर्क नहीं पडा तो उन्होंने जानकार डॉक्टरों की सलाह पर मनोचिकित्सालय में भर्ती कराया है।
नारंगी शहर नागपुर में कई मनोरोगी उचित इलाज के अभाव के कारण मौत के मुंह में समा चुके हैं। सैकडों मनोरोगी घरों में कैद हैं। उन्हें मनोरोग ने कब जकड लिया इसकी खबर परिवार वालों को भी तब लगी जब मामला बिगड गया। परिवार वाले यही समझते रहे कि किसी ने जादू-टोना कर दिया है। किसी तंत्र-मंत्र के जानकार को दिखाने पर सब ठीक हो जाएगा। लेकिन किसी ओझा, बाबा का तंत्र-मंत्र उन्हें ठीक नहीं कर पाया। ऐसा परिवार कम ही है जो मनोरोगी को इलाज के लिए डॉक्टर के पास ले जाते हैं। उनका तो यही मानना है कि तांत्रिक-मांत्रिक ही भूतप्रेत के साये से मुक्ति दिला सकते हैं।

Thursday, September 15, 2016

राष्ट्रभक्तों का खून खौलता है

समय बदल रहा है। तारीखें बदल रही हैं। लेकिन भारतीय राजनीति के रंग-ढंग नहीं बदल रहे हैं। कई नेता ऐसे हैं जिन्हें हमेशा धनपतियों, बाहुबलियों, कट्टरपंथियों, माफियाओं, इंसानियत के शत्रुओं और किस्म-किस्म के गुंडों-बदमाशों की जरूरत बनी रहती है। राजनीति के रंग में रंगे अराजक तत्वों का भी नेताओं की छत्रछाया के बिना काम नहीं चलता। ११ साल बाद शहाबुद्दीन जेल से बाहर निकला तो हजारों समर्थकों का हुजूम उसके स्वागत के लिए उमड पडा। सैकडों कारों के काफिले के साथ जब उसकी सवारी सडकों से गुजरी तो उसके चाहने वालों के चेहरे की चमक को देखकर ऐसा प्रतीत हुआ कि जैसे किसी क्रांतिकारी नेता की रिहायी हुई है जिसका वर्षों से बडी बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। कई वर्दीवाले भी दहशतगर्द शहाबुद्दीन के करीबी हैं। इसलिए उन्होंने भी अपने अंदाज में उसका स्वागत किया। बाहुबलि के काफिले की किसी भी कार ने टोल प्लाजा पर टोल टैक्स देने के लिए रूकना जरूरी नहीं समझा। कहते हैं मेहरबान पुलिस ने टोल नहीं लेने का आदेश जारी कर दिया था। कभी पूरे बिहार को थर्रा देने वाले सीवान के इस हत्यारे, लुटेरे डॉन पर कई गंभीर मामले दर्ज हैं। १३ मई २०१६ को ४२ साल के पत्रकार राजदेव रंजन की सीवान रेलवे स्टेशन के पास हत्या कर दी गयी थी। शहाबुद्दीन के अपहरण, उद्योग और घातक कारगुजारियों के खिलाफ सजग पत्रकार रंजन बेखौफ कलम चलाया करते थे। माफिया से नेता बने पूर्व सांसद शहाबुद्दीन ने अपने खिलाफ लिखने और आवाज उठाने वालों को ठिकाने लगाने में कभी कोई देरी नहीं की। निर्भीक कलमकार रंजन को अपनी खोजबीन में २०१४ में राजनीतिक कार्यकर्ता श्रीकांत भारती की हत्या में जेल में बंद शहाबुद्दीन का हाथ होने के पुख्ता संकेत मिल चुके थे। रंजन हत्याकांड के तुरंत बाद हिरासत में लिए गए तीन लोगों में हिस्ट्रीशीटर अपराधी उपेंद्र सिंह था, जिसके तार शहाबुद्दीन से जुडे पाये गये। जवाहरलाल नेहरू विश्व विद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के सक्रिय नेता चंद्रशेखर की हत्या के पीछे भी शहाबुद्दीन का हाथ माना जाता है। आपराधिक तत्वों के इस सरगना की यह खुशकिस्मती है कि बिहार में उसके आका लालू की पार्टी सत्ता में है और उनके पुत्र बिहार के उपमुख्यमंत्री हैं। ऐसे में शहाबुद्दीन को उडने के लिए खुला आसमान मिल गया है। उसके द्वारा सताये गये अनेकों लोगों को चिन्ता और दहशत ने घेर लिया है। यह सच भी जगजाहिर है कि जहां लालू अपराधियों को संरक्षण देने के लिए जाने जाते हैं वहीं बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को आपराधिक तत्वों से समझौता न करने वाले सिद्धांतवादी नेता के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन यह भी सच है कि नेता अपनी कुर्सी बचाने के लिए क्या से क्या हो जाते हैं यह भी देशवासी बखूबी जानते हैं। कुर्सी के लिए नीतीश कुमार ने जब भ्रष्ट लालू की पार्टी से गठबंधन करने में परहेज नहीं किया तो ऐसे में उनपर भी शंका होने लगी है।
यह देश की बदकिस्मती ही है कि चुनाव जीतने के लिए और सत्ता पर बने रहने के लिए शहाबुद्दीन जैसे गुंडे बदमाशों को पाला-पोसा जाता है। यह वो आतंकी हैं, जिनके एक इशारे पर पुलिस अधिकारियों को गोली मार दी जाती है। बसे-बसाये परिवार उजाड दिये जाते हैं। आपसी भाईचारे की हत्या कर दी जाती है। सरकारें इनपर हाथ डालने से कतराती हैं। क्योंकि इनके चंदे, धंधे और गुंडो की फौज की बदौलत सत्ता पायी और हथियायी जाती है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस ने विवादित इस्लामी उपदेशक जाकिर के एनजीओ 'इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन' (आरजीएफ) से ५० लाख रुपये का चंदा लेकर एक बार फिर से यह स्पष्ट कर ही दिया कि देश में राजनीति दल अपना कामकाज कैसे करते हैं। आतंकियों को अपने भडकाऊ उपदेशों से प्रेरित करने वाले डॉ. जाकिर ने यह चंदा राजीव गांधी फाउंडेशन को समर्पित किया था। गौरतलब है कि नाइक धर्म के नाम पर आतंकवाद फैलाने वाला ऐसा शख्स है जो कई सालों से समूचे भारत में धर्मांध राष्ट्रद्रोही ताकतों को बढावा देने का काम करता चला आ रहा है। कथित तौर पर अमन और शांति का संदेश देने वाले जाकिर के ये भडकाऊ भाषण उसकी असलियत बयां कर देते हैं, "मैं सारे मुस्लिमों को कहता हूं कि हर मुसलमान को आतंकवादी होना चाहिए। आतंकी का मतलब ऐसा आदमी, जो भय फैलाए।" पुलिस की जांच और गिरफ्तारी के डर से विदेश में जा दुबका जाकिर अपने भाषणों में हिन्दू देवी-देवताओं को अपमानित कर गर्व महसूस करता है। गीता के श्लोक की गलत व्याख्या कर कट्टरवाद को बढावा देते-देते वह चर्चित होता चला गया। आतंक का यह अध्यापक कभी दक्षिण मुंबई के भिंडी बाजार की तंग गलियों में एक छोटे से घर में रहता था। लेकिन उसने धर्म का गलत प्रचार और हिन्दू देवी-देवताओं का घोर अपमान करते-करते इतनी दौलत और शोहरत कमा ली कि वह आज मुंबई के एक पॉश इलाके में खडी की गयी आलीशान कोठी में रहता है। उसने कई मदरसे भी खोल रखे हैं। आतंक का परचम लहराने के लिए उसे भारत और दुनियाभर के देशों से करोडों रुपये का डोनेशन मिलता है। वह पीस टीवी (चैनल) का कर्ताधर्ता भी है जिसके २० करोड दर्शक हैं और इसे १०० से अधिक देशों में देखा जाता है। बेगुनाहों के कत्ल को जायज ठहराने वाले जाकिर पर कांग्रेस के बडे नेता काफी मेहरबान रहे हैं। २०१२ के एक कार्यक्रम में कांग्रेस के दिग्गज नेता दिग्विजय सिंह उसके साथ एक मंच पर नजर आये थे। यह कहना गलत तो नहीं लगता कि राजीव गांधी फाउंडेशन को जो चंदा दिया गया वह दरअसल रिश्वत ही था जिसकी बदौलत जाकिर बेखौफ होकर युवकों को आतंक के मार्ग पर जाने और कट्टरपंथी बनने की शिक्षा-दीक्षा देता रहा और तब की सरकार तमाशबीन बनी रही। शहाबुद्दीन और जाकिर जैसे चेहरे आखिर हैं तो समाज और देश के दुश्मन ही। राजनीतिक दलों का इनसे किसी भी तरह का जुडाव हर राष्ट्रभक्त के खून को खौलाता है।

Thursday, September 8, 2016

भ्रमित करने का खेल

अब तो जब भी किसी बडे नेता, मंत्री, उपदेशक, प्रवचनकार और समाज सेवक आदि के दुराचारी और व्याभिचारी होने की खबरें सुर्खियां पाती हैं तो उतनी हैरानी नहीं होती। आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के महिला और बाल विकास मंत्री संदीप कुमार का सैक्स स्कैडल सामने आने के बाद भले ही देश की राजनीति गरमा गयी, लेकिन सजग देशवासियों के लिए यह रोजमर्रा की खबर थी। अखबारों और न्यूज चैनलों पर छा जाने वाली ऐसी खबरों को पढने और सुनने के अभ्यस्त हो चुके हैं देशवासी। इस खबर ने संदीप कुमार को कम और 'आम आदमी पार्टी' को ज्यादा नुकसान पहुंचाया। पार्टी के सर्वेसर्वा यह दावा करते थे कि उन्होंने काफी जांचने-परखने के बाद चरित्रवान, पाक-साफ लोगों को पार्टी में जगह दी है। ऐसे में संदीप कुमार जैसे पथभ्रष्ट चेहरे पार्टी के टिकट से चुनाव लडकर विधायक और मंत्री बनने में कैसे कामयाब हो गये? यह सवाल उन मतदाताओं से भी जवाब मांगता है जो भावुकता के पाश में बंधकर किसी भी ऐरे-गैरे को अपना कीमती वोट देने की भूल कर देते हैं और बाद में पछतावे के सिवाय और कुछ नहीं पाते।
२०१५ में राजनीति में आने से पहले वकील रह चुके संदीप को लोगों की आंखों में धूल झोंकने और अपनी छवि चमकाने के सभी तौर तरीके आते हैं। तभी उसने यह प्रचारित कर रखा था कि वह अपनी पत्नी के पैर छूकर अपने दिन की शुरुआत करता है। जब उसकी सेक्स सीडी में ९ मिनट लंबा वीडियो और दो महिलाओं के साथ विभिन्न आपत्तिजनक तस्वीरें सामने आयीं तो लोगों को यह भी पता चल गया कि उसमें शातिर नेताओं वाले सभी गुण मौजूद हैं। बेशर्म संदीप ने सबसे पहला बयान दागा कि मैं दलित हूं और मैंने अपने निवास स्थान पर डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की प्रतिमा स्थापित की है। जिसकी वजह से कुछ लोग मुझसे ईर्ष्या करते हैं और वही मुझे बदनाम करने की साजिश कर रहे हैं। मैं तो महिलाओं का अपार सम्मान करता हूं ऐसे में भला मैं किसी की मां-बहन के साथ दुष्कर्म कैसे कर सकता हूं!
आम आदमी के मुखर प्रवक्ता आशुतोष जो कभी पत्रकारिता में अपना परचम लहरा चुके हैं और बेडरूम में झांकने की गुस्ताखी के चलते बसपा के संस्थापक स्वर्गीय कांशीराम से थप्पड भी खा चुके हैं, ने जोश में होश खोते हुए अपने शोध और आधुनिक बोध से आग में घी डालते हुए कुछ यूं फरमाया कि, संदीप तो भोला-भाला इंसान है। उसने जो कुछ भी किया है उसकी प्रेरणा उसे इस देश के नेताओं से ही मिली है। भारतीय इतिहास ऐसे नेताओं और नायकों के उदाहरणों से भरा पडा है, जिन्होंने अपनी सामाजिक सीमाओं के आगे जाकर अपनी इच्छाओं के मुताबिक भरपूर जीवन जीया। संदीप के मौज-मज़ा करने पर इतना हंगामा क्यों? आशुतोष ने यह सवाल उठाते हुए लिखा कि, अगर दो व्यस्क सहमति से आपस में सेक्स करते हैं तो क्या यह अपराध है? वैसे भी सेक्स हमारी मूल प्रवृत्ति का हिस्सा है। जैसे हम खाते हैं, पीते हैं और सांस लेते हैं... ठीक उसी तरह से सेक्स भी इंसान की जरूरत है। जो लोग संदीप पर उंगलियां उठा रहे हैं उन्हें इस ऐतिहासिक सच का भी ज्ञान होना चाहिए कि देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के विभिन्न सहयोगी महिलाओं से प्रेम के किस्से चटखारे लेकर सुने-सुनाये जाते थे। एडविना माउंटबेटेन के साथ उनके अंतरंग रिश्तों की खूब चर्चा हुई। पूरी दुनिया इसके बारे में जानती थी। नेहरू का आखिरी सांस तक उनसे लगाव बना रहा। क्या यह पाप था? इतिहास इस तथ्य का भी गवाह है कि १९१० में कांग्रेस के बडे नेता सरला चौधरी से महात्मा गांधी के रिश्तों को लेकर बेहद चिंतित थे। महात्मा गांधी ने खुद स्वीकारा था कि सरला उनकी आध्यात्मिक पत्नी हैं। बाद के दिनों में अपने ब्रह्मचर्य के प्रयोग के लिए गांधी अपनी दो भतीजियों के साथ नग्न सोते थे। पंडित नेहरू एवं अन्य कुछ बडे नेताओं ने बापू से कहा था कि वे ऐसा न करें। इससे उनकी छवि खराब होती है। लेकिन फिर भी वे नहीं माने। आशुतोष ने संदीप को सही ठहराने के लिए पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी, समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, जार्ज फर्नाडीस, चीनी नेता माओ के महिला सहयोगियों के साथ के रिश्तों को कठघरे में खडा कर खुद को निष्पक्ष और निर्भीक बुद्धिजीवी दर्शाने की भरपूर कोशिश करते हुए यह भी कह डाला कि उस समय के नेता खुशनसीब थे। क्योंकि तब न टीवी चैनल थे, कोई स्टिंग भी नहीं होता था और तो और किसी नेता का राजनीतिक जीवन भी प्रभावित नहीं होता था। आशुतोष का यह भी कहना था कि जब संदीप के खिलाफ किसी महिला ने कोई रिपोर्ट दर्ज नहीं करायी है तो इससे तय हो जाता है कि आपसी सहमति से ही हमबिस्तरी की गयी। ऐसे में संदीप को बलात्कारी और व्याभिचारी की संज्ञा देने वाले लोग हद दर्जे के अज्ञानी हैं। चार-पांच दिन तक संदीप के पक्ष और विपक्ष में बयानबाजी के तीर चलते रहे। विभिन्न विद्वान आपस में भिडते रहे। फिर अचानक आपत्तिजनक सीडी में दिखायी देने वाली महिला ने सामने आकर जैसे बाजी ही पलट दी। थाने में शिकायत करने पहुंची महिला ने बताया कि यह घटना लगभग एक वर्ष पहले की है। वह मंत्री के कार्यालय में राशन कार्ड बनवाने के लिए गई थी। मंत्री ने उसे एक कमरे में बैठने का निर्देश दिया। जहां उसे कोल्ड ड्रिंक पीने के लिए पेश की गयी। इसे पीते ही वह अपने होश खो बैठी। इसके बाद उसके साथ दुष्कर्म किया गया। होश में आने के बाद ही उसे पता चला कि उसकी अस्मत लूटी जा चुकी है। उसने मंत्री को कहा कि यह आपने ठीक नहीं किया। यह तो बहुत बडा गुनाह है, धोखाधडी है। मंत्री ने उसे समझाते हुए कहा कि वह यह क्यों भूल रही है कि उसे राशन कार्ड भी तो बनवाना है। महिला के अनुसार इस दुष्कर्म कांड को खुफिया कैमरे में कैद किये जाने की उसे कतई कोई जानकारी नहीं थी। उसे तो समाचार चैनलों से ही पता चला कि उस पर हुए बलात्कार की वीडियो बनायी गयी। यह भी गौरतलब है कि मंत्री ने जिस राशन कार्ड को बनवा कर देने के नाम पर कुकर्म किया वह भी उसे नहीं मिला।
जब यह सवाल उठाया गया कि वह इतने महीनों तक चुप्पी क्यों साधे रही तो उसका कहना था कि मेरे छोटे-छोटे बच्चे हैं। मुझे उनकी परवरिश करनी हैं। मैं नहीं चाहती मेरे परिवार की बदनामी का ढोल पीटा जाए। मैं तो अपना नाम और पहचान भी किसी हालत में उजागर नहीं करना चाहती। इसे विडंबना कहें या कुछ और कि अपने देश में मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए नारी को यौन शोषण का शिकार होना पडता है। इस पर शासकों को जरूर चिन्तन-मनन करना चाहिए। वैसे यह उनकी ही जबरदस्त चूक और अनदेखी का नतीजा है। एक सवाल यह भी कि कुछ महिलाएं इतनी आसानी से कैसे शोषकों के हाथों का खिलौना बन जाती हैं? संदीप कुमार जैसे नकाबपोशों के कुकर्मों का ढिंढोरा पिट चुकने के बाद भी उनकी मंशा आसानी से पूरी हो जाती है!! अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर भी अपने देश में बहुत खतरनाक खेल खेला जा रहा है। जिसके मन में जो आता है, बोल देता है। कई तथाकथित बुद्धिजीवी उंगलियां उठाने में माहिर हैं। उनके लिए बडा आसान है किसी दूसरे की मिसाल देकर अपने आपको तथा अपने संगी-साथियों को साफ-सुथरा बताना। यह भी सच है कि हमारे समाज में अनैतिकता को स्वीकृति दिये जाने की कभी कोई गुंजाइश नहीं रही है। बडी से बडी हस्ती को नैतिक पतन का न कभी बर्दाश्त किया गया है, न कभी किया जायेगा। ढोंगी प्रवचनकार आसाराम के दुष्कर्मों की पोल खुलने के बाद उनका कैसा हश्र हुआ यह किसी से छिपा नहीं है। कांग्रेस के उम्रदराज दिग्गज नेता नारायण दत्त तिवारी महिलाओं के साथ रंगरेलियां मनाने के चक्कर में ऐसे बदनाम हुए कि उन्हें राजनीतिक वनवास भोगने को विवश होना पडा। और भी ऐसे कई नाम हैं जिनका कभी दौर था, लेकिन अय्याशी के भंवर में फंसने के बाद सदा-सदा के लिए अपनी इज्जत गंवा बैठे।

Thursday, September 1, 2016

शराब बंदी की हकीकत

बिहार में जहरीली शराब पीने से १८ लोग मौत के मुंह में समा गए। कुछ को अपनी आंखों की रोशनी गंवानी पडी। नीतीश कुमार ने प्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही सबसे पहले शराब पर पूर्ण प्रतिबंध लगाकर अपनी पीठ थपथपायी थी। वे यकीनन इस सच को भूल गये थे कि शराबबंदी की घोषणा करना आसान है, उसे यथार्थ का जामा पहनाना बेहद मुश्किल है। इतिहास गवाह है कि पहले भी जिन-जिन प्रदेशों में शराब बंदी की गयी, वहां वास्तव में शराब मिलनी बंद नहीं हो पायी। अवैध शराब बनाने और बेचने वालो की निकल पडी। ऐसा तो हो नहीं सकता कि बंदी के बाद खुलने वाले विभिन्न दरवाजों के असली सच से मुख्यमंत्री अनभिज्ञ रहे हों। गोपालगंज में विषैली शराब पीने से १८ लोगों की हुई मौत ने यह संकेत तो दे ही दिये हैं कि बिहार में भी शराब बंदी का वही हश्र हो रहा है जो कभी हरियाणा में हुआ था और गुजरात तथा अन्य बंदी वाले प्रदेशों और शहरों में होता चला आ रहा है। लोग अवैध शराब पीकर मरते रहते हैं और शासन और प्रशासन की जिद और अकड का तंबू तना रहता है।
गोपालगंज में जब जहरीली शराब पीने की वजह से लोगों के मौत के मुंह में समाने और बीमार पडने की खबरें आयीं तो जिला प्रशासन ने पहले तो यही प्रचारित किया कि यह आम मौते हैं। इनका नकली शराब से कोई लेना-देना नहीं है, लेकिन मीडिया ने जब प्रशासन को बेनकाब करने का अभियान चलाते हुए विषैली शराब को ही मौतों की असली वजह बताया तो सरकार को मजबूरन सच को स्वीकार करना पडा। पोस्टमार्टम रिपोर्ट ने भी उस हकीकत को उजागर कर दिया जिसे दबाया और छिपाया जा रहा था। यह कहना कतई गलत नहीं कि विषैली शराब के कहर से हुई मौतों की असली दोषी सरकार और पुलिस ही है। लोग शराब से तौबा कर लें इसके लिए सरकार ने कानून तो यकीनन बहुत क‹डा बनाया है, लेकिन लोगों में उसकी दहशत का नितांत अभाव है। बिहार के निवासी घर या बाहर शराब नहीं पी सकते। घर में शराब का रखना भी घोर अपराध है। किसी दूसरे प्रदेश से बिहार में जाने वालों के लिए शराब लेकर जाने पर भी बंदिश है। बिहार में शराब बंदी का उल्लंघन करना बहुत महंगा पड सकता है। अगर शराब के उत्पादन और विक्रय के चलते किसी ग्राहक की मौत हो जाती है तो उत्पादक और विक्रेता को फांसी तक की सजा हो सकती है। अवैध शराब पीने की वजह से यदि कोई शारीरिक अपंगता का शिकार हो जाता है तो भी फांसी की सजा या दस लाख रुपये जुर्माना देना पड सकता है। सार्वजनिक जगहों पर शराब पीने वालों को एक लाख रुपये तक का जुर्माना और पांच से सात साल तक की जेल हो सकती है। ताज्जुब है कि इतना कडा कानून भी शराब बंदी को सफल नहीं बना पाया। एक सच यह भी खुलकर सामने आया है कि शराब पर प्रतिबंध लगाये जाने के बाद से भ्रष्ट पुलिस वालों और नेताओं की चांदी हो गयी है। कई आबकारी विभाग वाले भी मालामाल हो रहे हैं। जब शराब पर पाबंदी नहीं थी तब विभिन्न करों के रूप में धन सरकारी खजाने में आता था, अब शराब के अवैध धंधेबाजों की तिजोरियों में समा रहा है। अवैध शराब के निर्माता, विक्रेता तस्करी के नये-नये तरीके इजाद कर प्रशासन की आंखों में धूल झोंक रहे हैं। यह भी देखने में आ रहा है कि प्रशासन के कई बिकाऊ चेहरों की अवैध शराब के धंधे में सहमति और साझेदारी है। शराब माफियाओं को नेताओं का भी भरपूर संरक्षण मिला हुआ है। रेलगाडियों, बसों, ट्रकों, कारों आदि से जहां-तहां शराब पहुंचाने के परंपरागत तरीकों के साथ-साथ जलमार्ग से भी शराब तस्करी को अंजाम दिया जा रहा है। शराब तस्कर गंगा व कोसी के अलावा अन्य नदियों के रास्ते बंगाल, झारखंड, उत्तरप्रदेश तथा नेपाल से शराब मंगाकर बिहार के कोने-कोने में पहुंचा रहे हैं। मरीजों के अस्पताल पहुंचाने वाली एम्बुलेंस भी शराब तस्करी का सुरक्षित माध्यम बन चुकी हैं। गत माह कुछ प्राइवेट नर्सिंग होम के एम्बुलेंस चालकों को पुलिस के द्वारा गिरफ्तार करने के बाद यह चौंकाने वाला सच सामने आया कि अनेकों प्राइवेट नर्सिंग होम के एम्बुलेंस चालक शराब माफिया के हाथों का खिलौना बन चुके हैं। शराब माफिया जानते हैं कि अस्पतालों की एम्बुलेंस मरीजों की सुविधा के लिए चलायी जाती हैं। इसलिए पुलिस उन्हें रोकती-टोकती नहीं है। हमारे देश की पुलिस का काम करने का तरीका किसी से छिपा नहीं है। जब से बिहार में शराब बंदी हुई है, पुलिस की मनमानी में अभूतपूर्व ईजाफा हुआ है। ईमानदार वर्दीधारी तकलीफ में हैं और बेइमानों की तानाशाही ने कानून का पालन करने वाले नागरिकों का जीना हराम कर दिया है। नये-नये माफियाओं का जन्म हो रहा है जो साम, दाम, दंड, भेद की नीति पर चलने में यकीन रखते हैं। इन्हें अवैध धंधों को अंजाम देने में महारत हासिल है। शराब बंदी का फायदा उठाने वाले एकजुट हो चुके हैं ऐसे में यह तय है कि शराब पर प्रतिबंध से दबंगों की किस्मत खुल गयी है। सरकार अगर सख्त नहीं हुई तो बिहार का भी हरियाणा जैसा हश्र होगा जहां पर शराब बंदी के लागू होने के बाद ऐसा राजनीतिक विद्रोह हुआ था, जिसके चलते मुख्यमंत्री बंसीलाल को मुंह की खानी पडी थी।