Thursday, August 27, 2020

मर्दानगी...?

खबर तो बहुत अच्छी है। अपने देश की शीर्ष अदालत ने बेटियों के पक्ष में सुनाये गये अपने निर्णय में साफतौर पर कहा है कि पैतृक सम्पति में बेटों की तरह बेटियां भी बराबर की हकदार हैं। कुछ लोगों को अदालत का यह कहना तो कतई अच्छा नहीं लगा कि बेटियों का अपने मां-बाप से जीवन के अंत तक लगाव और जुडाव बना रहता है, जबकि बेटे शादी के बाद काफी बदल जाते हैं। पत्नी के होकर रह जाते हैं। कुछ विद्वानों ने अदालत की इस सोच को एकपक्षीय बताते हुए कई लम्बे-लम्बे लेख तक लिख डाले। यह कलमकार भी उनके विचार से सहमत है। भारत वर्ष में ऐसे बेटों की कभी कमी नहीं रही जो अपने जन्मदाताओं को ही सर्वस्व मानते हैं। शादी होने के बाद भी उनके आदर-सम्मान में कोई कमी नहीं होने देते। संस्कारवान, आज्ञाकारी बेटे हर रिश्ते को निभाने में निपुण होते हैं, लेकिन 'अपवादों' के कारण ही अविश्वास तथा निराशा के बादल छाये रहते हैं। नालायक बेटों के मां-बाप के साथ घोर दुव्र्यवहार के कितने-कितने समाचार खून के रिश्ते की निर्मम हत्या का सच बयां कर देते हैं। लडकों के नालायक हो जाने के कई कारण हैं। एक ब‹डा कारण है, इक्कीसवीं सदी में भी हमारी आपकी वो पुरातन सोच और धारणा कि लडके तो कुलदीपक होते हैं, वारिस होते हैं। वे ही तो पिता का नाम जीवित रखते हैं। लडकियां तो पराया धन होती हैं। माता-पिता की कमर झुकाकर रख देने वाला भारी बोझ होती हैं। यही विचार और व्यवहार कितना घातक है, खुद के साथ किया गया छल है, इसका पता जब-तब चलता रहता है। जब तथाकथित कुलदीपक जमीन-जायदाद के लिए माता-पिता की हत्या कर देते हैं। बुढापे में उनकी जमापूंजी पर कब्जा कर उन्हें अकेला छोड देते हैं। खानदानी कुलदीपक और भी कैसे रंग दिखाते हैं, गुल खिलाते हैं उसकी भी खबरें समय-समय पर सुर्खियों में सामने आती रहती हैं। फिर भी भ्रम है कि टूटता नहीं। इस रोग के शिकार अमीर भी हैं और गरीब भी। सुप्रीम कोर्ट ने लडकियों को अपने पिता, दादा, परदादा की सम्पत्ति में बराबरी का हकदार होने का फैसला तो सुना दिया है, लेकिन... जब अब भी भारतवर्ष में बेटियों के बेशुमार कातिल हैं, तब यह सवाल भी जवाब मांग रहा है कि जब लडकियां ही नहीं रहेंगी तब यह फैसला किसके लिए...। किस काम का?
१५ अगस्त २०२० के स्वतंत्रता दिवस के दिन देश की राजधानी में एक ढाई माह की मासूम बच्ची को उसके पिता ने साठ हजार में बेच दिया। उनके परिवार में पहले से ही दो बेटियां थीं। तीसरी बेटी के जन्म लेने के बाद से ही पिता की रातों की नींद उड गई थी। बेटे की चाहत में पिता का धर्म भूलने वाले इस शख्स ने यह घोर अपराध कर तो डाला, लेकिन कुछ दिनों के बाद उसे अपने क्रूर कृत्य पर शर्म आई तो उसने पुलिस स्टेशन पहुंचकर बच्ची को वापस पाने की फरियाद की। पुलिस पता लगाते-लगाते बच्ची के खरीददार तक पहुंची तो उसने बताया कि उसने बच्ची किसी दूसरे को अस्सी हजार में बेच दिया है। पुलिस ने बिना समय गंवाये उसके बताये खरीददार के यहां दस्तक दी तो उसने यह कहकर खाकी वर्दी को चौंकाया कि बच्ची तो एक लाख रुपये में संजय नाम के कारोबारी को बेची जा चुकी है। संजय चावडी बाजार में रहता है। बच्ची को संजय के यहां से बरामद कर लिया गया। संजय का कहना था कि उसकी शादी हुए कई वर्ष हो गये हैं, लेकिन अभी तक वह निसंतान है। वह पिछले कुछ वर्षों से निरंतर बच्चा पाने की कोशिशों में लगा था। संयोग से यह मौका मिला, जो कतई घाटे का सौदा नहीं था। सौदागर यदि और भी ज्यादा धन मांगते तो मैं राजी हो जाता। उधर जब तीन बार बेची गई बच्ची के पिता से गहन पूछताछ की गई तो उसने अपनी विवशता का राग गाया..., कि मैं अदना-सा वाहन चालक हूं। मेरी पहले से ही दो बेटियां थीं। कोरोना के डर और लॉकडाउन ने कमायी-धमायी तो छीन ही ली और उस पर तीसरी बेटी हुई तो मुझे तनाव और चिन्ता ने घेर लिया। इस बीच मनीषा नामक महिला मिली। बच्ची की कीमत देते वक्त उसने वायदा किया था वह मासूम को अच्छी तरह से पाले-पोसेगी। उसे कभी भी कोई कष्ट नहीं होने देगी। ६० हजार रुपयों का मिलना मेरे लिए लाटरी लगने जैसा था, लेकिन जब मैंने अपनी नन्ही, मासूम बच्ची के लिए आंसू बहाती मां की तडपन और बेचैनी देखी तो मेरे लिए भी चैन से सो पाना मुश्किल हो गया। मुझे अपनी पत्नी को खोने का डर सताने लगा था।
राजधानी में ही जश्न-ए-आजादी से बेखबर एक जननी ने तीसरी बार बेटी होने पर उसे सराय रोहिल्ला रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म पर लावारिस छोडा और चुपचाप खिसक गई। महिला का पति चप्पल की फैक्टरी में काम करता है। आर्थिक स्थिति ठीक-ठाक है। उसे तीसरी बार बेटे के आने की उम्मीद थी। पत्नी भी लडके के होने की राह देख रही थी, लेकिन जब उसने स्वस्थ बेटी को जन्म दिया तो इतनी ज्यादा अवसादग्रस्त हो गई कि उसने अपनी ही जान देने की ठान ली। वह अपनी कलाई की नस काटने जा रही थी, लेकिन परिजनों के ऐन वक्त पर देखने की वजह से वह ऐसा नहीं कर सकी। उसने जब अपनी खुद की नवजात को प्लेटफार्म पर छोडा तब एक साधु की उस पर नज़र प‹ड गई। उसने पुलिस को खबर कर दी, लेकिन तब तक वहां से गायब हो चुकी थी, लेकिन पुलिस ने तीन घण्टे के भीतर नवजात के परिवार को ढूढ निकाला। जिस दिन यह बच्ची मिली उसी दिन हिमाचल प्रदेश के शहर मंडी में एक पिता ने बेटी को जन्म लेते ही जमीन में जिन्दा दफन कर दिया।
चाय की छोटी से दुकान चलानेवाले जितेंद्र भाटी को अब ताउम्र बेटी को खोने के गम के साथ जीना होगा। उनकी होनहार बेटी सुदीक्षा चार करोड की स्कॉलरशिप पर अमेरिका में बिजनेस मैनेजमेंट की पढाई कर रही थी। महत्वाकांक्षी, हंसती मुस्कुराती रहनेवाली सुदीक्षा अपने चचेरे भाई के साथ बाइक पर कहीं जाने के लिए निकली थी। इस दौरान किसी परिवार के 'कुलदीपक', 'कुलभूषण' दो बुलेट सवारों ने उनका पीछा करते हुए छेडछाड करनी शुरू कर दी। सुदीक्षा और उसके भाई को युवकों की गलत नीयत का अंदाजा लग गया। बदमाशों ने जहां से उनका पीछा शुरू किया था वहां आसपास घना जंगल है। यहां पर पहले भी दुष्कर्म की घटनाएं हो चुकी हैं। अपने मां-बाप के दुलारे हवसखोर शैतानों ने अचानक अपनी बाइक का ब्रेक लगाया तो पीछे आ रही सुदीक्षा की बाइक उनकी बाइक से टकरा गई, जिससे वह सडक पर गिर गई और मौत हो गई। सुदीक्षा, अमेरिका में रहने के बाद भी परिवार का पूरा ख्याल रखती थी। अपने परिवार की आर्थिक स्थिति में आमूल-चूल बदलाव लाने के सपने देखने वाली यह अकेली बेटी दस बेटों पर भारी थी। दरअसल अपने मां-बाप की वह ऐसी संस्कारी बेटी थी, जिस पर हर किसी को गर्व था। वह पार्ट टाइम जॉब करके बहनों की पढाई के लिए नियमित फीस भेजती थी। चार बहनों में सबसे बडी सुदीक्षा की मौत से परिवार पूरी तरह से टूट गया है। बहनों का तो भविष्य ही अंधकारमय हो गया है।

Thursday, August 20, 2020

हमाम में सब नंगे हैं


देखते और सुनते रहते थे कि विदेशी टीवी चैनलों पर समाचार पढते-पढते महिला एंकर यकायक वस्त्रहीन हो जाती हैं। उनका बेलिबास होना दर्शकों को मनोरंजित करता है। भारतवर्ष में नग्नता, फूहडता व बेहयायी को पेश करने का एक अलग अंदाज पिछले कुछ वर्षों से हलचल मचाये हुए है। अपने जिस्म के कपडे को उतारना ही नग्न होना नहीं है। बोलने, बतियाने, चीखने, चिल्लाने, देखने, दिखाने और विषैली प्रतिक्रियाएं जताने के अंदाज से नंगाई के कीर्तिमान रचे जा सकते हैं और यह काम हिन्दुस्तान के अधिकांश न्यूज चैनल वाले बखूबी कर रहे हैं। तिरस्कार तथा थू...थू का उपहार पाते हुए अपनी तथा तमाम मीडिया की हंसी उडवा रहे हैं, जब भी देश में कोई बडी घटना घटती है, हादसा होता है, दुर्घटना होती है। किसी बडी हस्ती के अपराधकर्म का पर्दाफाश होता है, या खुदकुशी की खबर आती है तो न्यूज चैनल वालों की बांछें खिल उठती हैं। भूखे कुत्ते को जैसे काफी भागदौड करने के बाद कहीं हड्डी पडी दिख जाती है और उसमें स्फूर्ति आ जाती है। वैसी ही कुछ हालत अधिकांश टीवी चैनल वालों की हो जाती है। पक्ष और विपक्ष के बहसबाजों, प्रवक्ताओं का मंच सजा दिया जाता है, जैसे कोई अदालत अपना फैसला सुनाने जा रही हो। इस काम के लिए हर न्यूज चैनल वाले के पास अपने-अपने वकील और जज हैं, जिनकी शिक्षा-दिक्षा का कोई पता नहीं। हर विषय पर इनकी बहसबाजी को देखकर असली विद्वानों को अपनी शिक्षा, दिमाग, धैर्य और ज्ञान पर शंका होने लगती है। उनका माथा चकराने लगता है। बेहोश होने तक की नौबत भी आ जाती है। वर्तमान में अनेकों लोगों के द्वारा न्यूज चैनलों से दूरी बनाने की वजह है उनकी शर्मनाक तमाशेबाजी। चैनलों के डिबेट में बार-बार शामिल होने वाले जाने-पहचाने चेहरे क्यों और कैसे बेवकूफियों का इतिहास दोहराने में लगे हैं, इसके सटीक उत्तर के लिए पहले इस शर्मनाक सच को याद कर लें...।
पांच साल पहले देश में पुरुष संतों, प्रवचकारों की भीड में एक नारी साध्वी, राधे मां का नाम बडी तेजी से उभरा था। उसे अपना अराध्य मानने वालों की जहां लंबी कतारें थीं, वहीं उसके विरोधी भी थे। हर तरफ स्वयंभू देवी राधा मां छायी थीं। अधिकांश न्यूज चैनलों पर तो उसका कब्जा सा हो गया था। उसकी नयी-पुरानी दास्तानें सुनाते चैनल वालों के लिए जैसे अच्छी खबरों का अकाल पड गया था। उसके भक्त उसके चमत्कारों का बखान करते दिखाये जाते तो विरोधी उसके काले अतीत के पन्ने खोल-खोलकर टीवी स्क्रीन पर उछलते नज़र आते। उसी दौरान रविवार के एक दिन समाचार चैनल पर राधे मां को लेकर डिबेट यानी बहस चल रही थी। उसके पक्ष में झंडा थामे था पाखंडी बाबा ओमजी तो विपक्ष यानी विरोध की कमान तथाकथित साध्वी दीपा शर्मा और उसकी सहयोगी किसी ज्योतिषाचार्य के लडाकू हाथों में थी। ओमजी राधे मां के गुणगान में लगा था तो दोनों नारियां राधे मां के अश्लील नृत्यों, अनैतिक रिश्तों और धन एेंठने के मायावी तौर तरीकों के साथ-साथ उसका तमाम घृणित काला इतिहास खोलने पर उतारू थीं। पूरे दमखम के साथ अपनी राधे मां के चमत्कारों के पिटारे खोलता ओमजी खुद को असहाय पाने लगा था। राधे मां के व्याभिचार और छलकपट के किस्सों को उजागर करने के साथ उस पर धडाधड जो व्यंग्य बाण छोडे जा रहे थे, उससे वह बुरी तरह से घायल हो चुका था। ऐसे में उसे वही रास्ता सूझा जिस पर दंभी और शातिर पुरुष हमेशा चलता आया है। उसने दोनों नारियों को चरित्रहीन कहते हुए कहा मेरी नजरों में तो तुम वेश्याओं से भी बदतर हो। मेरी राधे मां तो देवी हैं, जिनके लाखों अनुयायी हैं। यह अनुयायी उनके लिए अपनी जान तक दे सकते हैं। ओम आगे भी कुछ बकता, लेकिन उससे पहले दीपा शर्मा फटाक से उस तक पहुंची और उसके गाल पर जबरदस्त तमाचों की बौछार करते हुए मर्दानी गालियां देने लगी। ओम के लिए यह qहसक बर्ताव अकल्पनीय था। उसने जैसे-तैसे खुद को संभाला और घायल सांड की तरह दीपा से भिड गया। राधे मां को लेकर शुरू हुई बहस घूसों, जूतों और महाअश्लील गाली-गलौच की तूफानी बरसात पर जाकर खत्म हुई। इस पूरे तमाशे में एंकर मज़ा लेता रहा। करो‹डों मनोरंजन प्रेमियों की रविवार की छुट्टी साकार हो गई। न्यूज चैनल में लगातार एक हफ्ते तक यह अभूतपूर्व मनोरंजक 'लाइव शो' दिखाया जाता रहा। इस हैरतअंगेज घटना के बाद ओमजी की तो निकल पडी। उसे कई कार्यक्रमों में अपने विचार रखने के लिए बुलाया जाने लगा। दूसरे न्यूज चैनलों में भी उसकी खूब मेहमाननवाजी होने लगी। यहां तक कि देश और दुनिया में अत्यंत लोकप्रिय फूहड शो 'बिग बॉस' में भी लाखों रुपये देकर इस (भगवाधारी) शैतान को प्रतिभागी बना दर्शकों का दिल बहलाया गया, लेकिन यहां पर भी कुत्ते की पूंछ कभी सीधी नहीं होती, की कहावत उसने चरितार्थ कर ही दी। शो में महिला प्रतिभागियों के साथ बदसलूकी करने के कारण जब उसे बाहर किया गया तो उसके प्रशंसकों ने उसे नोटों के हारों से लाद दिया।
अपने देश में हर राजनीतिक पार्टी के अपने-अपने प्रवक्ता हैं। कुछ धर्मगुरुओं ने भी ऐसे तेजतर्रार वक्ताओं की नियुक्ति कर रखी है, जो उनकी प्रखर आवाज तथा मजबूत ढाल बने नज़र आते हैं। इन प्रवक्ताओं का मूल धर्म ही अपनी पार्टी और अपने आकाओं के पक्ष में ऐसी दलीलें देना है, जिनका सामने वाला जवाब न दे पाए या फिर मर्यादा के बंधन में बंधा हिचकिचाता रह जाए। सन २०२० के अगस्त महीने में कांग्रेस के एक विधायक के करीबी रिश्तेदार की धार्मिक भावनाओं को भडकाने वाली एक पोस्ट के कारण पूरे बेंगुलुरु में दंगाई सक्रिय हो गये। विधायक के घर को खाक कर दिया गया। सरकारी संपत्ति को जी भर कर नुकसान पहुंचाया गया। इसके साथ ही वैसी बहसों का सिलसिला चल पडा, जिनके लिए न्यूज चैनल वाले तथा किस्म-किस्म के प्रवक्ता बदनाम हैं। देश के पुराने चैनल 'आज तक' पर शाम छह बजे डिबेट के तुरंत बाद कांग्रेस के जाने-माने प्रवक्ता राजीव त्यागी को इतना जबर्दस्त अटैक आया कि अस्पताल ले जाने से पहले उनकी मौत हो गई। उनकी आकस्मिक मौत ने पूरे देश को स्तब्ध कर दिया। राजीव की पत्नी का बयान आया कि अंतिम समय में वे कह रहे थे कि इन लोगों ने मुझे मार डाला। टीवी डिबेट में उन्हें तीन-चार बार जयचंद कहा गया। उनके माथे पर लगे टीके पर कटाक्ष किया गया। यह भी कहा गया कि यह आग लगाने वाले लोग हैं। भाजपा के धुरंधर प्रवक्ता संबित पात्रा पर हत्या का मुकदमा चलाने की भी मांग की गई।
अगर ऐसे जान जाती है, हत्या होती है, तो यह काम तो पिछले कुछ वर्षों से चैनलों पर हर रोज हो रहा है। दोनों पक्ष के प्रवक्ता अपना-अपना लोहा मनवाने के लिए ऐसी-ऐसी गंदगी उगलते हैं, जिससे समझदार दर्शकों को घिन्न आने लगती है। सभी बहसबाज यही समझते हैं कि उन्होंने फतह हासिल कर ली। बहुत बडा किला जीत लिया। सवाल यह भी है कि समझदार प्रवक्ता ऐसे टीवी डिबेट में शामिल ही क्यों होते हैं, जहां पर बदजुबानों तथा अपमानित करने वालों का वर्चस्व होता है। यहां तक कि एंकर भी स्पष्ट पक्षपाती नज़र आते हैं। सत्ताधारी पार्टी के प्रवक्ताओं के द्वारा विपक्ष के प्रवक्ताओं पर बेइंतहा दबाव बनाया जाता है, उनके धर्म, जात-पात और पहनावे पर तंज कसा जाता है। अपनी बात रखने के लिए उन्हें पर्याप्त समय तक नहीं दिया जाता। उनके बोलने पर आवाज धीमी कर दी जाती है। वे अकेले होते हैं और उनके सामने दो-तीन लडाकुओं की तैनाती कर दी जाती है। वे उनकी तर्कहीन बहस के सामने खुद को एकदम असहाय और अपमानित पाते हैं। न्यूज चैनल वाले अक्सर डिबेट का टायटल भी ऐसा चुनते हैं, जो समाज में घृणा और भेदभाव को बढावा देते हैं। जिसका नकारात्मक प्रभाव दर्शकों पर भी पडता है। दर्शकों में बच्चों का भी समावेश होता है, लेकिन इसकी कभी भी चिन्ता नहीं की जाती। सच तो यह है कि अधिकांश प्रवक्ता अपने-अपने दलों के 'आकाओं' के और एंकर अपने चैनल मालिकों के गुलाम हैं। अंधभक्त सेवक और प्रबल आज्ञाकारी हैं। गुड्डे-गु‹िडया हैं। उनके मालिक और संपादक सरकार की आरती और चम्मचागिरी पर ही जिन्दा हैं। निरंतर उनका विकास हो रहा है। सरकारी ठेके मिल रहे हैं। बिल्डिंगें तन रही हैं। तमाम ऐशोआराम झोली में टपक रहे हैं। प्रवक्ताओं के भी कई-कई स्वार्थ हैं। जितनी अपनी पार्टी की घंटी बजायेंगे, गालियां खायेंगे, अपमानित होंगे उतनी ही सहानुभूति के पात्र बनने के साथ-साथ 'आकाओं' की निगाह में भी सितारे की तरह चमकेंगे। विधानसभा, लोकसभा की टिकट नहीं तो राज्यसभा और विधान परिषद तो पहुंचा ही दिये जाएंगे और भी कई सपने पूरे हो जाएंगे। इसलिए अधिकांश प्रवक्ता सर्कस के जानवर की तरह नाचते हैं। एंकरों की जी-हजूरी करते हैं। उन्हें तरह-तरह के उपहार तथा अपने बागों के आम खिलाकर खुश रखते हैं ताकि उनकी उपस्थिति बनी रहे। इसलिए किसी को दोष देना बेनामी है। सबके अपने स्वार्थ हैं। जब केंद्र में भाजपा की सरकार नहीं थी तब कांग्रेस और उनके साथी दल के प्रवक्ता भी वही करते थे, जो आज भाजपा के प्रवक्ता कर रहे हैं। याद कर लें संजय निरूपम को जो कभी शिवसेना में थे तो सोनिया गांधी का जी भरकर मजाक उडाते थे। जब कांग्रेस में आये तो इस शख्स ने प्रवक्ता के तौर पर स्मृति ईरानी का न्यूज चैनलों पर जो चरित्र हनन किया था उसको भी भुलाया नहीं जा सकता। इसलिए भले ही कोई माने या न माने हम तो यही कहेंगे कि इस हमाम में तो सभी नंगे हैं।

Thursday, August 13, 2020

समय के सीने में खंजर



चित्र - १ : महाराष्ट्र में स्थित है शहर औरंगाबाद। यहां के एक कुपूत ने अपनी ९० वर्षीय बुजुर्ग मां को जंगल में ले जाकर मरने के लिए छोड दिया। चलने-फिरने में लाचार मां को कोरोना हो गया था। भरे-पूरे परिवार के सभी सदस्यों को यह डर सताने लगा था कि बु‹िढया के कारण कहीं वे सभी कोरोना की चपेट में न आ जाएं। उसके तो वैसे भी कब्र में पैर लटके हैं। चंद दिनों की मेहमान है, उसे अब अपने साथ रखकर मौत को दावत क्यों दी जाए। सभी को इस घोर समस्या से निजात पाने का यही अंतिम हल नजर आया कि कोरोना संक्रमण से ग्रसित मरणासन्न मां के इलाज पर अपनी मेहनत की कमायी लुटाने की बजाय घने जंगल में ले जाकर छो‹ड दिया जाए, जहां खूंखार जंगली जानवर उसे खा, चबाकर सफाचट करने में देरी नहीं लगाएंगे। न रहेगा बांस, न बजेगी बांसुरी। वैसे भी इस 'मौत काल' में जब सभी को अपनी जान बचाने की प‹डी है, तो कौन हमसे बु‹िढया के बारे में पूछेगा। दूर-दराज के रिश्तेदारों को बता देंगे कि माताजी को कोरोना ने हमसे छीन लिया है। हम आपकी सलामती के आकांक्षी है, इसलिए हमारा आग्रह है, अपने-अपने घरों में रहकर कोरोना से बचे रहें। यह समय दूर से ही संवेदना व्यक्त करने का है। घरवालों के सुझाव का पालन करते हुए नालायक बेटा अपनी मां को जंगल में किसी फालतू सामान की तरह फेंक कर आने के बाद घर में आकर चैन की नींद सो गया। बरसात का मौसम होने के कारण घने हरे-भरे जंगल में ठंडी हवाएं चल रही थीं। वृद्धा एक पतली-सी चादर में सिमटी-दुबकी घण्टों तडपती रही। तब उसके मन में कैसे-कैसे विचार आये होंगे इसकी सहज ही कल्पना की जा सकती है। यह तो उसकी किस्मत अच्छी थी कि जानवर का निवाला बनने से पहले किसी की उस पर नजर प‹ड गयी। पुलिस ने वृद्धा को अस्पताल में भर्ती कराया। पूछताछ में जब मानवता को शर्मसार करने वाली यह हकीकत सामने आयी तो देखने व सुनने वाले हतप्रभ रह गये। आंखें भीग गर्इं।
चित्र - २ : कल रात को फेसबुक से पता चला कि आनंद नहीं रहा। कोरोना ने उसके प्राण ले लिए। हमारी ब‹डी पुरानी दोस्ती थी। तीस साल की सरकारी नौकरी के बाद २०२० के अप्रैल महीने में आनंद रिटायर हुआ था। तेजी से फैलते कोरोना संक्रमण ने पूरी दुनिया को भयभीत कर रखा था। रिटायरमेंट के बाद अपने कुछ छूटे कार्यों और सपनों को साकार होते देखने की उसकी ब‹डी तमन्ना थी। बेफिक्र होकर जीना चाहता था। दोनों बेटे अच्छी नौकरी का लुत्फ उठा रहे हैं। उसे अपने बहू-बेटे और पोते-पोती से भी असीम लगाव था। रिटायरमेंट के बाद कुछ महीने तो उसने परिवार के साथ अच्छी तरह से गुजारे फिर उसे समय काटने की परेशानी ने घेर लिया। वह शहर की एक समाजसेवी संस्था से जुड गया और लॉकडाउन से परेशान, घबराये गरीबों की सेवा में लग गया। मेरी उससे मोबाइल पर बात होती रहती थी। अक्सर कहता था कि एक्टिव लाइफ में ही असली मज़ा है। मैं तो चलते-फिरते ही इस दुनिया से विदा होना चाहता हूं। यह क्या कि बीमार होकर बिस्तर पडे रहो और बच्चे परेशान होते रहें। इस दौरान उसने अपनी लगभग सारी जमापूंजी भी बेटों के हवाले कर दी। दो महीने तक अपनी संस्था के साथियों के साथ सडकों पर भटकते और घरों में कैद लोगों को राशन, दवाएं, दूध के पैकेट आदि पहुंचाते-पहुंचाते खुद भी कोरोना का शिकार हो गया। उसी दौरान उसने अपनी पी‹डा व्यक्त करते हुए बताया कि बेटों से मिलने को तरस गया हूं। पोते-पोती की बहुत याद आती है, लेकिन इतने दिन हो गये कोई मिलने नहीं आया। अपनों की राह देखते-देखते आनंद दो हफ्ते अस्पताल में रहने के बाद स्वर्ग सिधार गया। उसके बेटों ने पिता की मौत की जानकारी मिलने के बाद भी उसके अंतिम दर्शन करना जरूरी नहीं समझा। अस्पताल प्रशासन ने उनसे बार-बार अनुरोध किया कि शव को आकर ले जाएं, लेकिन वे नहीं पहुंचे। अंतत: संतान के मोह का कैदी आनंद लावारिस की तरह दाह संस्कार के बाद आज़ाद हो गया।
चित्र - ३ : दिल्ली के भाई-बहन बिजेंद्र, सुमन ने कोरोना को हरा दिया, लेकिन लोगों के व्यवहार ने उन्हें डरा दिया। वे यह देखकर विचलित हो गये कि जिन लोगों के साथ उनका बचपन बीता, साथ-साथ खेले, पढे-लिखे, बडे हुए उन्हीं ने कोरोना होने पर उनसे मुंह मोड लिया। यही नहीं जब उन्होंने कोरोना को मात दे दी, पूरी तरह से स्वस्थ हो गये, तब भी उनकी परछाई तक से दूरी बनाते रहे। सामाजिक बहिष्कार झेलने वाले इस भाई-बहन ने ठीक होने पर दो अनजान लोगों की जिन्दगी बचाने के लिए खुशी-खुशी प्लाज्मा डोनेट किया। गली-मोहल्ले वालों के बर्ताव से दुखी सुमन और ब्रिजेंद्र कहते हैं कि उन्हें अस्पताल में भर्ती होने पर उतना दुख नहीं हुआ था, जितना कोरोना से मुक्त होने के बाद अस्पताल से बाहर आने पर हुआ। क्या कोई प‹ढा-लिखा सभ्य समाज ऐसा होता है?
चित्र - ४ : देश की राजधानी में दस सदस्यों के परिवार के मुखिया रामनंदन को कोरोना की चपेट में आने के बाद राजीव गांधी सुपर स्पेशियलिटी अस्पताल में भर्ती कराया गया। रामनंदन के लिए उसका परिवार ही सबकुछ था। हमेशा अपनों की देखरेख व चिन्ताफिक्र करने वाले कोरोना ग्रस्त रामनंदन पांच दिन बाद चल बसे। अस्पताल की ओर से जब परिवार को उनके गुज़र जाने की सूचना देते हुए शव ले जाने को कहा गया तो सभी ने एकमत से शव लेने से मना कर दिया। सभी को अपनी जान प्यारी थी इसलिए उन्होंने अस्पताल प्रशासन और लावारिस लाशों का अंतिम संस्कार करने वाली संस्था को फार्म भरकर अंतिम संस्कार का जिम्मा सौंप दिया। किसी ने भी श्मशान घाट तक जाने की जहमत नहीं उठाई।
हर तरह से साधन-संपन्न बेटों, भतीजों, भाई-बहनों, चाचा-मामा एवं अन्य करीबी रिश्तेदारों के होने के बावजूद, जिन्हें कोरोना की चपेट में आने एवं दुनिया छोडने के बाद लावारिस छोड दिया गया! उनकी दुर्दशा और अपमान को देखकर श्मशान घाट व कब्रिस्तान में कार्यरत सेवकों की आंखों से आंसू छलक आये। इन मानवता के पुजारियों ने स्वयं के पैसों से शवों के कफन के इंतजाम से लेकर पूरे रस्मों-रिवाज के साथ 'लावारिसों' का दाह संस्कार और दफन क्रिया सम्पन्न की। एक बीमारी की वजह से दुनिया कितनी बदल गयी है। क्या कभी किसी ने सोचा था कि ऐसा भी होगा? अस्पताल के एंबूलेंस से माता-पिता का शव लाने वाले कर्मचारी को चंद रुपये थमाकर कहा जाता है कि इनका अंतिम संस्कार आप ही जाकर कर दो!!
आज के इन घोर पीडादायी, भयावह हालात पर देश के विख्यात कवि, गीत, गज़लकार राजेंद्र राजन की लिखी यह पंक्तियां कितनी-कितनी मौजूं लगती हैं :

"आजकल जी भर गया कुछ इस तरह संसार से
अच्छी खबरें खो गर्इं जैसे अखबार से
वो जो बरसों तक लडा बीमारियों से हर घडी
एक पल में मर गया संतान के व्यवहार से
फसल ऐसी लहलहाई, जिन्दगी में स्वार्थ की
सारे रिश्ते दीखते हैं, आज खरपतवार से।"

Thursday, August 6, 2020

कहां हैं भगवान?

डॉक्टर आयशा। खिला-खिला मुस्कुराता चेहरा। तीस से ज्यादा की नहीं लग रहीं थीं। कोरोना संक्रमितों का इलाज करते-करते चल बसीं। इस युवती ने कई सपने देखे होंगे। बहुत कुछ कर गुजरने की चाहत रही होगी, लेकिन जब उसने देखा कि कोरोना ने लोगों का जीना मुहाल कर दिया है और मरीजों का तांता लगा है, तो वह सबकुछ भूलकर उनकी सेवा में लग गर्इं। न दिन देखा, न रात। अपनी जान को जोखिम में डालकर अपना फर्ज़ निभाने वाली आयशा कब कोरोना वायरस से संक्रमित हुर्इं, इसका भी उसे पता नहीं चला। पता चलता भी कैसे... वह तो मरीजों की देखभाल में सबकुछ भूल चुकी थी। उसे अपना होश ही कहां था! जब सभी ‘ईदङ्क मना रहे थे तभी हमेशा हंसती मुस्कुराती रहनेवाली मनमोहक आयशा ने इस जहां से हमेशा-हमेशा के लिए विदायी ले ली।
मध्यप्रदेश के नीमच शहर के छोटे से गांव में रहने वाले राजेंद्र कुमार चौधरी की यही ख्वाहिश थी कि गरीबी के कारण किसी को इलाज से वंचित न रहना प‹डे इसलिए उन्होंने अपने बेटे जोगेंद्र qसह को डॉक्टर बनाया। इसके लिए उन्हें अपना पुश्तैनी घर भी बेचना प‹डा, लेकिन उनकी दिली तमन्ना पूरी हो गई थी, इसलिए खुशी और तसल्ली से हमेशा उनका चेहरा चमकता रहता था। बाबा साहब अस्पताल में पदस्थ डॉ. जोगेंद्र की चुंबकीय मुस्कान के सभी कायल थे। मिलनसार इतने कि कुछ ही दिनों में अस्पताल के समस्त साथी डॉक्टरों, नर्सों और कर्मचारियों का दिल जीत लिया। कोरोना काल में मरीजों का उपचार उनकी पहली प्राथमिकता थी। खाना-पीना, सोना तक भूल गये। पूरी जागरुकता के साथ मरीजों का उपचार करते-करते जोगेंद्र स्वयं कोरोना के शिकार हो गये, लेकिन फिर भी अपनी qचता छो‹ड फर्ज निभाते रहे। इस बीच तबीयत ज्यादा बिग‹ड गई तो अस्पताल में भर्ती करवाना प‹डा। करीब एक माह तक पूरे दमखम के साथ कोरोना से जंग जारी रही। अंतत: चल बसे। डॉ. जोगेंद्र के पिता एक साधारण किसान हैं। दिल्ली में जब कोरोना ने लोगों को ब‹डी तेजी से अपने चंगुल में लेना प्रारंभ कर दिया था तब उनकी माताजी ने उन्हें वापस लौटने को कहा था, लेकिन जोगेंद्र ने कहा था कि ऐसे संकट के समय में कोरोना पी‹िडतों को मेरी सख्त जरूरत है। खुद को सुरक्षित करने की बजाय महामारी की गिरफ्त में आये लोगों को बचाना मेरी पहली जिम्मेदारी है। पिताजी ने मुझे जिस मकसद से डॉक्टर बनाया है उसे अधूरे में कैसे छो‹ड दूं? डॉक्टर जोगेंद्र की सगाई व शादी मार्च में होनी थी। परिवार ने सभी तैयारियां भी कर ली थीं, लेकिन कोरोना के कारण लॉकडाउन लगने की वजह से जून माह में शादी करने का निर्णय लिया गया। जून माह के अंत में पूरी तैयारी कर ली गयी, लेकिन बेटा कोरोना की चपेट में आ गया। करीब एक माह तक अस्पताल में रहने के दौरान भी उसे अपने घर बसाने की बजाय मरीजों की चिन्ता थी। वह बार-बार कहता कि ठीक होते ही मुझे मरीजों की सेवा में लग जाना है...। वे मुझे बुला रहे हैं...।
देश के सबसे ब‹डे अस्पतालों में से एक अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स) के झज्जर कैंप में अपनी सेवाएं देने वाले नंद भंबर की जनवरी, २०२० में शादी हुई। तीन दिन बाद ही उन्हें ड्यूटी पर वापस बुलाया गया तो वे हाजिर हो गए। पिछले पांच माह से कोरोना संक्रमित मरीजों को उनके बिस्तर पर डायलिसिस की सेवा दे रहे नंद को उसकी मां ने पीपीई किट में पसीने से तर-बतर देखा तो उनके होश उ‹ड गये। नंद लगभग बेहोशी की हालत में थे और मां से वीडियो कॉल पर बात करने का प्रयास कर रहे थे, लेकिन कमज़ोरी और थकावट के कारण कुछ बोल नहीं पा रहे थे। बेटे को इस हालत में देख मां बुरी तरह से घबरा गयी। खुद को संभालने के बाद बेटे ने मां से बात की तो मां की सांस में सांस आयी और खुशी से उसका उदास मुरझाया चेहरा खिल गया। बेटा मां की आवाज सुनने को आतुर था। मां ने इतना ही कहा कि बेटा तू वाकई भगवान है। तेरे जैसा लाल ईश्वर हर मां को दे। आज तुझे मरीजों की सेवा करते देख मेरा जीवन धन्य हो गया। तू मेरी चिन्ता मत कर, बस मरीजों की सेवा में खुद को पूरी तरह से अर्पित कर दे। नंद बारह-बारह घण्टे तक पीपीई किट पहनकर मरीजों की देखरेख करते रहते हैं। हकीकत यह है कि अगर किट को ९ से १२ घण्टे तक पहना जाए तो पसीना, डिहाइड्रेशन, घबराहट जैसी तकलीफ होने लगती है, लेकिन नंद के लिए यह रोजमर्रा की बात है। घण्टों पीपीई किट पहने रहने के बाद जब वह उसे उतारते हैं तो नीचे (जूते की ओर) पसीना पानी की तरह भर जाता है, लेकिन नंद को फर्क नहीं प‹डता। यह सच दीगर है कि उनकी तकलीफ को देखकर देखने वाले घबरा जाते हैं।
लॉकडाउन के दौरान जब मजदूर अपने गांव जाने को बेचैन थे। भूख से बेहाल थे। यह सोच-सोच कर निराश हो चले थे कि उनकी अब ऐसे ही मौत हो जाने वाली है। कोई नहीं उनका हाल-चाल जानने वाला। सभी को अपनी प‹डी है। गरीबों की किसी को कोई फिक्र नहीं। तब एक्टर सोनू सूद अचानक उनके लिए फरिश्ता बनकर सामने आये। इस असली जननायक ने हजारों श्रमिकों को उनके घर पहुंचाने के लिए अपनी सारी जमापूंजी और ताकत लगा दी। जो काम सरकार नहीं कर पायी उसे इस शख्स ने अपनी जुनूनी टीम के सहयोग से कर दिखाया। हजारों श्रमिकों, गरीबों, बदहालों को बसों, रेलगा‹िडयों से उनके गांव तक पहुंचाया। सभी के लिए भोजन, पानी, दवाएं, बच्चों के लिए दूध आदि की भी व्यवस्था की। हजारों मांओं ने सोनू को सदा सुखी रहने, फलने-फूलने का आशीर्वाद दिया। बहनों ने बार-बार सराहना की। बुजुर्गों के मुंह से यही शब्द निकलते रहे, यह शख्स इंसान नहीं, भगवान है।
आंधप्रदेश के एक गरीब किसान की दो बेटियों की वो तस्वीर करो‹डों लोगों ने देखी होगी, जिसमें वे हल में बैलों की जगह खुद जुती थीं। समाजसेवकों, उद्योगपतियों, बुद्धिजीवियों ने बदनसीब गरीब किसान के प्रति भरपूर दया और सहानुभूति जतायी। सरकार और व्यवस्था को भी कोसा। यह तस्वीर देख कर सोनू का दिल पसीज गया। प‹ढने-लिखने की उम्र में देश की बेटियों की यह दुर्दशा और मजबूरी! उन्होंने उनके खेत को जोतने के लिए ट्रेक्टर भिजवा दिया। बाद में उनके भेजे ट्रेक्टर के साथ दोनों बेटियां और मां की मुस्कुराती तस्वीर भी सबके सामने आयी। पिता का कहना था कि ऊपर वाले भगवान को तो किसी ने नहीं देखा, लेकिन धरती के भगवान को हमने देखा भी और साथ ख‹डे पाया भी है।
हर कोई कहता है कि जमाना ब‹डा खराब है। सभी चाहते हैं कि यह दुनिया बदल जाए। किसी भी संकट काल में कोई भी खुद को असहाय और अकेला न पाए। बातों, उपदेशों, सीखों, संदेशों के जमा-खर्च करनेवालों की भी‹ड में कोरोना काल में हमने कितने ऐसे लोग देखे, जिन्होंने बिना किसी भेदभाव के इंसानियत के परचम को लहराया है। हम में से किसी ने भी ईश्वर को नहीं देखा। भगवान की भी केवल कल्पना ही की है। यह जो सच्चे सेवक हमारे सामने हैं, इन्हें भी क्यों न हम अपना भगवान मान लें?