Thursday, June 30, 2016

नपुंसकता की नुमाइश

बडे लोगों की घटिया और ओछी बातें। घात-प्रतिघात। कुछ बातें और घटनाएं मन को विचलित कर देती हैं। ऐसे लोगों की तादाद बढती चली जा रही जो अपने मंसूबो को पूरा करने के लिए किसी भी गंदगी के गर्त में गिरने में देरी नहीं लगाते। आखिर यह कैसा दौर है? एक दिल दहलाने वाली घटना से उबर भी नहीं पाते कि दूसरी पीडा पहुंचाने वाली खबर सीना तान कर खडी हो जाती है। ऐसा भी लगता है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भी तकलीफें और चोटें पहुंचाने का दुष्चक्र चलाया जा रहा है। कोई रोकने-टोकने वाला नहीं। वैसे भी जिन्होंने बेहयायी की चादर ओढ ली है उन पर कोई भी शिक्षा-दीक्षा और समझाइश असर नहीं डालती। फिल्म अभिनेता सलमान खान को ऊल-जलूल बकने की आदत है। जब-तब वे कुछ भी बक देते हैं और उनके पिता सलीम खान हाथ जोड कर खडे हो जाते हैं कि बच्चों से भूल हो जाती है। सलमान भी अभी बच्चा है। बिना सोचे-समझे मुंह खोल देता है और बात का बतंगड बन जाता है। हर बच्चा अपने पिता का दुलारा होता है। बिगडैल बच्चे पर भी उसके पिता का वरदहस्त होता है। ५२ वर्षीय सलमान इस मामले में बहुत ज्यादा खुशकिस्मत हैं। वे गलती पर गलती करते चले जाते हैं और जब हंगामा मचता है तो पिता ढाल बन कर खडे हो जाते हैं। कई वर्षों से फिल्मों में नायक की भूमिका निभाते चले आ रहे सलमान की खलनायिकी इस बार कुछ ऐसे शब्दों में सामने आयी- 'सुल्तान फिल्म की शुटिंग के दौरान छह घंटो तक जो पटका-पटकी चलती थी उससे मेरे बदन का अंग-अंग लस्त पड जाता था। १२० किलो के पहलवान को दसियों बार उठाने और पटकने की यह क्रिया कोई आसान काम नहीं थी। शुटिंग के बाद जब मैं रिंग से बाहर निकलने को होता तो लगता था कि कोई दुष्कर्म पीडिता चल रही है। मैं कदम भी नहीं उठा पाता था।' इस अशोभनीय सोच के जगजाहिर होने के बाद वही हुआ जो बदनीयत अभिनेता चाहता था। चारों तरफ से निन्दा का सैलाब उमड पडा। हिसार (हरियाणा) की एक दुष्कर्म पीडिता इतनी आहत हुई कि उसने मानहानि का दावा करते हुए दस करोड रुपये की क्षतिपूर्ति का नोटिस भिजवा दिया। अपने नोटिस में उसने लिखा कि वह भी दुष्कर्म पीडिता है। सलमान के अपमानजनक बयान ने उसके जख्म हरे कर दिये हैं। उसे अपने साथ हुई भयानक व रोंगटे खडे कर देने वाली घटना की यादें ताजा हो गयी हैं। उसे डर है कि कहीं लगातार सोचते रहने से उसके दिमाग की नसें ही न फट जाएं। उसका मन कर रहा है कि वह आत्महत्या कर ले और ऐसे जहां से मुक्ति पा ले जहां पर सलमान जैसी घिनौनी सोच वाले लोग रहते हैं।
जयपुर की एक बलात्कार पीडिता ने कहा कि सलमान फिल्मों के हीरो हो सकते हैं। असल जिन्दगी में उनसे नीच इंसान और कोई नजर नहीं आता। असली नायक तो वो होता है जो लोगों की पीडा को देखकर चिंतित होता है। जख्मों पर मरहम लगाता है, नमक नहीं छिडकता। देशभर की जागृत महिलाओं ने सलमान को कोसा और चुल्लू भर पानी में डूब मरने के साथ-साथ बद्दुआओं की झडी लगा दी। जहां एक तरफ पूरा देश महिलाओं का अपमान करने की जुर्रत करने वाले सलमान पर लानतों की बरसात करता रहा वहीं सलमान के कुछ अंध भक्त तिलमिला उठे। उन्हें परदे के चमकदार हीरो की आलोचना बर्दाश्त नहीं हुई और वे अपनी असली औकात पर उतर आये। सलमान पर थू...थू करने वालों में गायिका सोना महापात्रा का भी समावेश है। उन्होंने छिछोरे अभिनेता के रेप पीडित जैसी हालत वाले बयान को सोशल मीडिया में उछाला तो उन्हें बलात्कार की धमकियां मिलने लगीं। खलनायक के प्रशंसकों ने सोशल मीडिया पर गायिका को लेकर ऐसे-ऐसे भद्दे कमेंट्स किए जिन्हें शरीफों के दिमाग की उपज तो कतई नहीं कहा जा सकता। बलात्कारी, गुंडे मवाली ही ऐसी गंदी सोच वाले हो सकते हैं। विख्यात गायिका  महापात्रा को नग्न तस्वीरें भेजकर हजार बार उस पर बलात्कार करने की धमकी देने वालों की गुंडागर्दी को देखने के बाद इस कलमकार को जेल में बंद आसाराम के उन अंधभक्तों की याद हो आयी जिन्होंने अपने दुष्कर्मी 'गुरु' के खिलाफ गवाही देने वाले निर्भीक भुक्तभोगियों को तरह-तरह से प्रताडित किया और अपनी गोलियों का निशाना बनाया।
व्याभिचारियों, बलात्कारियों, महिलाओं का अपमान करने वालों तथा दहेज लोभियों के दिमाग को दुरुस्त करने के लिए लगता है कि कानून कहीं न कहीं कमजोर पड रहा है। आज भी हमारे समाज में बेटी और बहू में भेदभाव कर इंसानी दरिंदगी के भयावह तमाशे दिखाये जा रहे हैं। कुछ लोग ऐसे हैं जिन्होंने कभी भी न बदलने की कसम खा रखी है। उनके लिए धन-दौलत ही सर्वोपरि है। माया के लिए वे हैवानियत को भी शर्मिंदा करने से नहीं कतराते। ऐसे शैतानों की कमी नहीं है जो अपने बेटों की बोली लगाते हैं। उनकी बस यही चाह होती है कि उनके घर में जो भी बहू आए वो सोने-चांदी से लदी हो और लाखों-करोडो रुपये अपने साथ लाए। जब उनकी यह मंशा पूरी नहीं होती तो वे वहशी दरिंदे बन जाते हैं। दहेज के लिए बहूओं को मारने, पीटने और जलाने की खबरों की कोई सीमा नहीं है। लेकिन जयपुर के रहने वाले एक दहेजलोभी परिवार ने तो इंसानियत, मानवता और रिश्तों की ही नाक ही काट डाली। दहेजलोभियों ने अपनी बहू को जानवरों की तरह मारा-पीटा। जब वह बेहोश हो गयी तो उसके शरीर पर सात जगह गोदना (टैटू) करवा दिया और गंदी-गंदी गालियां लिखवा दीं। उसके माथे पर बनाए गए टैटू पर लिखवाया गया, 'मेरा बाप चोर है।' बहू का आरोप है कि ससुराल वालों ने उसे नशीला पदार्थ पिलाया और उसके साथ सामूहिक बलात्कार भी किया गया। एक जेठ ने तो उसकी जांघोें पर गालियां गुदवाकर अपनी नपुंसकता का नंगा नाच दिखाया।

Thursday, June 23, 2016

यही तो है असली चेहरा

महाराष्ट्र में वर्धा, गढचिरोली के बाद चंद्रपुर जिले में शराब बंदी की जा चुकी है। शराब बंदी के बाद सरकारें सोचती हैं कि पियक्कड पीना छोड देंगे और शराब माफिया भी किसी दूसरे धंधे में लग जाएंगे। सोचने और होने में बहुत फर्क होता है। इस लम्बे फासले को पाटना आसान नहीं। यही वजह है कि शराब पर बंदिश लगने के बाद भी पीने वालों को शराब उपलब्ध हो ही जाती है। इसके लिए भले ही उन्हें दुगनी-तिगुनी कीमत देनी पडती हो। ऐसी किसी भी बंदिश का सबसे ज्यादा फायदा अवैध धंधेबाज नेता-अधिकारी और खाकी वर्दी वाले उठाते हैं। कानून इनके पीछे रेंगता रहता है और यह नये-नये तरीके ईजाद कर छलांगे लगाते हुए दौडते चले जाते हैं। काली दौलत और काली कमायी जहां पेशेवर अपराधियों को लुभाती है वहीं अच्छे-अच्छों के ईमान को डगमगा देती है और उन्हें अपराधी के कठघरे में खडा कर देती है। फिर भी उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। पिछले महीने अहमदाबाद में गुजरात के विभिन्न शहरों और कस्बों में अवैध शराब की सप्लाई करने वाले एक बडे गिरोह का पर्दाफाश हुआ। उस गिरोह का सरगना एक बडे अखबार का पत्रकार था। देश के प्रदेश गुजरात में वर्षों से शराब पर पाबंदी लगी हुई है! अभी हाल ही में चंद्रपुर में अवैध शराब ले जा रहे दो शराब तस्करों को गिरफ्तार किया गया। पूछताछ में एक तस्कर पुलिस से भिड गया। वह धौंस दिखाने लगा कि वह पत्रकार होने के साथ-साथ एक बडी राजनीतिक पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता है। उसकी पहचान बहुत ऊपर तक है। खाकी वर्दी वाले भी लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की बदलती भूमिका पर सोचने को विवश हो गये। जिन्हें अपराधियों को बेनकाब करने और पकडवाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देनी चाहिए वही अगर आसानी से धन बनाने के लालच की नदी में डुबकियां लगाने लगेंगे तो देश का क्या होगा? असली तो असली, नकली पत्रकार भी देशभर में सक्रिय हैं। शहरों और गांवों में ऐसे कई पत्रकार हैं जिनके ठाठ देखते ही बनते हैं। कमाऊ सरकारी अधिकारियों, अवैध कारोबारियों और सरकारी ठेकेदारों को धमकाना और वसूली करना इनका पेशा है। इनके वाहनों पर 'प्रेस' लिखा होता है इसलिए पुलिस वाले इन पर हाथ नहीं डालते। आपसी मिलीभगत के खेल से भी इंकार नहीं किया जा सकता।
देश में नयी सरकार बनने के बाद यह उम्मीद बलवती हुई थी कि देश के चहुंमुखी विकास और भ्रष्टाचार के खात्मे में अवरोध पैदा करने वाली ताकतें पूरी तरह से कमजोर पड जाएंगी। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। मौका पाते ही बहती गंगा में हाथ धोने वालों की भीड बढती चली जा रही है। कोई भी किसी से पीछे नहीं रहना चाहता। पकडे गए तो चोर, नहीं तो साहूकार और पूरी तरह से ईमानदार और धर्मात्मा। यह भी सच है कि सभी चोर और डकैत पकड में नहीं आते। मुंबई में एक बहुत बडा सडक घोटाला कर ठेकेदारों ने बीएमसी को ३५२ करोड की चोट दे दी। घटिया सामग्री से घटिया सडक और पुल बनाने वाले ठेकेदार शातिर भी हैं और चालाक भी। इस लूटमारी को ठेकेदारों ने बीएमसी के कई अधिकारियों के साथ मिलकर अंजाम दिया। सडकों के निर्माण की गुणवता की जांच का काम दो कंपनियों को सौंपा गया। यह कंपनियां भी भ्रष्ट निकलीं। इनके इंजीनियरों और जानकारों ने सडक बनाने वाले ठेकेदारों को ईमानदार होने का प्रमाणपत्र देते हुए घोषित कर दिया कि सडक निर्माण में कहीं कोई घोटाला नहीं हुआ है। हर काम दुरुस्त हुआ है। ठेकेदारों के खिलाफ शिकायत करने वालों के निजी स्वार्थ पूरे नहीं हुए इसलिए उन्होंने सडकों के घटिया निर्माण का हल्ला मचा दिया।
महाराष्ट्र में चाहे किसी भी पार्टी की सरकार हो, भ्रष्टाचार होना आम बात है। ऊंचे भ्रष्टाचारियों के कारनामों को दबाने की भरपूर कोशिशें होती हैं, लेकिन कुछ 'लडाकूओं' के कारण सच बाहर आ ही जाता है। कई नेता कुछ ऐसी मिट्टी के बने हैं कि हकीकत को नकारने में ऐढी-चोटी का जोर लगा देते हैं। वैसे भी अपनी पार्टी के बेईमानों और बिकाऊ लोगों को बचाने के लिए हर राजनीतिक दल अपनी पूरी ताकत लगाने में कोई कसर नहीं छोडता। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस के लिए चुनौती बनने वाले सरकार के वरिष्ठ मंत्री एकनाथ खडसे को कहीं न कहीं अपने मंत्री होने का गुमान तो था ही इसलिए उन्होंने ऐसे-ऐसे काम कर डाले जिनके कारण उन्हें कुर्सी से हाथ धोना पडा। पहले खडसे के पीए की तीस करोड रुपये की रिश्वत लेने पर गिरफ्तारी हुई। मंत्री जी ने सफाई दी कि इस कांड से उनका कोई लेना-देना नहीं है। सवाल यह कि क्या कोई पीए अपने बलबूते पर इतनी बडी रिश्वत लेने की जुर्रत कर सकता है? सच तो यह है कि अधिकांश भ्रष्ट मंत्रियों, सांसदों, विधायकों के पीए उनके दलाल की तरह काम करते हैं। अपने आका के इशारे पर मोटे ग्राहक फांसते हैं और आका को मालामाल कर मोटी दलाली पाते हैं। आपको ऐसे कई पेशेवर पीए मिल जाएंगे जिनके पास महंगी कारें और आलीशान कोठियां हैं तथा दुनिया भर की सुख-सुविधाओं की भरमार है। अंडरवर्ल्ड सरगना दाऊद इब्राहिम से मंत्री खडसे की फोन पर बातचीत होने की धमाकेदार खबर ने भी ने भी खूब सुर्खियां बटोरीं। इस खबर को दबाने की कोशिशें चल ही रही थीं कि यह विस्फोट हो गया कि मंत्री महोदय ने अपनी पत्नी और दामाद के नाम पर करोडों की सरकारी जमीन एकदम माटी के दाम पर खरीदी है। महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनने के सपने देखने वाले खडसे ने कभी कल्पना भी नहीं की होगी कि उन्हें मंत्री पद से इस्तीफा देने को विवश कर दिया जाएगा। उन्हें बेनकाब करने में आम आदमी पार्टी की पूर्व नेता अंजली दमानिया ने जो हिम्मत दिखायी उसकी कहीं कोई चर्चा नहीं है! अंजली अगर साहस नहीं दिखातीं तो खडसे का असली चेहरा सामने नहीं आ पाता।

Thursday, June 16, 2016

शैतान की उडान

मथुरा का कंस। रावण वृक्ष। आधुनिक डाकू और लुटेरा। शातिर राजनेताओं की नाजायज़ औलाद। उसे न जाने और भी कितने नाम दिये गए। दरअसल, उसे किसी भी नाम के दायरे में कैद करना आसान नहीं। ऐसे लोग कई-कई बहुरूपों के साथ बडे मजे से जिंदा रहते हैं। एक मरता है तो दस पैदा भी हो जाते हैं। समाज और देश के शत्रुओं से इन्हें खाद पानी मिलता रहता है और देखते ही देखते यह बीज से दरख्त बन जाते हैं। एक हवा-हवाई संगठन... स्वाधीन भारत सुभाष सेना के कर्ताधर्ता रामवृक्ष यादव ने जब धार्मिक नगरी मथुरा के जवाहरबाग में डेरा डाला तो देखने वालों ने भी अनदेखा कर दिया। उसने प्रशासन से मात्र तीन दिन तक ठहरने की इजाजत मांगी थी लेकिन उसके इरादे कुछ और ही थे। धीरे-धीरे उसने २७० एकड में फैले पूरे बाग पर अपने तीन हजार से अधिक चेले-चपाटों के साथ ऐसा कब्जा जमाया, जैसे यह बाग सरकारी न होकर उसकी खरीदी हुई सम्पत्ति हो। जनता तो जनता है। शासन और प्रशासन भी भविष्य के खतरे को भांप नहीं पाये। रामवृक्ष खुद को सुभाषचंद्र बोस का अनुयायी, सत्याग्रही और जयगुरुदेव का कट्टर चेला प्रचारित करता था। वह देश में सोने के सिक्के चलाने और पानी की कीमत से भी कम दाम पर पेट्रोल और डीजल दिलाने के सपने दिखाता था। ऐसे सपने किसे अच्छे नहीं लगते। यही वजह थी कि लोग उससे प्रभावित होने लगे। वह उन्हें इस सदी का मसीहा लगने लगा। उसकी टकराने की हिम्मत देखकर कई लोगों को यह भ्रम भी हुआ कि वह देश का कायाकल्प करने के लिए भारत की धरा पर आया है। शासन और प्रशासन भी इसकी मुट्ठी में है। तभी तो इसने सरकारी जमीन पर बेखौफ कब्जा जमा लिया है और बडे-बडे अधिकारी उससे खौफ खाते हैं। कई नेता और मंत्री उसके यहां हाजिरी लगाने के लिए आते हैं। मथुरावासियों ने बहुत से नेता देखे थे, लेकिन ऐसा अनोखा 'क्रांतिकारी' पहले कभी नहीं देखा था जो डंके की चोट पर कहता था कि अंग्रेजों के समय के कानून खत्म किए जाएं। पूरे देश में आजाद हिन्द बैंक करेंसी से लेन-देन हो और मांसाहार पर पूरी तरह से पाबंदी हो। यह रामवृक्ष के अजूबे बोलवचन और बगावती तेवर ही थे जिनकी वजह से उसके समर्थकों की संख्या में सतत इजाफा होता चला गया। सत्याग्रह के नाम पर रामवृक्ष अपनी मनमानी करने पर उतर आया। उत्तरप्रदेश में उसका डंका बजने लगा। धीरे-धीरे उसने पूरे देश में अपना नेटवर्क फैलाना शुरू कर दिया। एक समय ऐसा भी आया जब बिहार में भी उसकी तगडी पकड बन गयी। उसके हजारों समर्थक ऐसे थे जो उसकी एक आवाज पर कुछ भी करने को तैयार रहते थे। जिस तरह से आतंकी धर्म से जोडकर जिहाद के नाम पर हिंसा करते हैं ठीक उसी राह पर चल रहा था वह। उसके कई प्रभावशाली लोगों को भी अपना दास बना लिया था। छत्तीसगढ, झारखंड, महाराष्ट्र और उडीसा के नक्सलग्रस्त इलाकों से उसके यहां लोगों का आना-जाना शुरू हो गया था। वह सत्ता परिवर्तन की बात कर लोगों को उकसाता था। उसके यहां जुटने वाली भीड को भी यकीन था कि यह शख्स जो कहता है, वो करके दिखायेगा। एक दिन ऐसा जरूर आयेगा जब भारतवर्ष में एक रुपये में चालीस लीटर पेट्रोल और ६० लीटर डीजल  मिलने लगेगा। रामवृक्ष सत्ता हासिल करने में सफल होगा। देश में उसकी करेंसी चलेगी। सबकुछ बदल जायेगा। चारों तरफ खुशहाली होगी। कोई भी बेरोजगार और गरीब नहीं होगा।
सत्तर साल के रामवृक्ष की अकड देखते बनती थी। वह था तो अनपढ लेकिन उसमें नेताओं वाले सभी दुगुर्ण थे। उसे नक्सलियों और देश के अन्य शत्रुओं से हर माह लाखों रुपये की देन मिलती थी जिससे वह अपने संगठन का खर्चा चलाता था। जवाहर बाग को उसने अच्छी-खासी रिहायशी बस्ती में तब्दील कर दिया था। सबकुछ था यहां। यहां का एकमात्र राजा था रामवृक्ष। वह बेफिक्र और बेखौफ अपनी सत्ता चला रहा था। लेकिन हर शैतान का एक न एक दिन अंत तो होता ही है। १४ मार्च २०१४ को मथुरा के सरकारी बाग में कब्जा जमाकर आतंक का पर्याय बने इस कपटी के नेतृत्व में २ जून २०१६ को मथुरा में ऐसा खून-खराबा हुआ जिसमें दो पुलिस अधिकारियों सहित लगभग तीस लोग मारे गये और पचास से ज्यादा लोगों को लहुलूहान होकर अस्पताल की शरण लेनी पडी। देश का भाग्य बदलने  के नाम पर दहशतगर्दी करने वाले इस बाहुबलि को यह भ्रम भी था कि वह लोगों को जो सपने दिखाता है उससे उसकी प्रतिष्ठा शिखर पर जा पहुंची है। वक्त आने पर लाखों लोग आंखें मूंदकर उसके साथ चल पडेंगे। लेकिन सच तो यह है कि उसकी मौत के बाद उसके परिवार के लोगों ने ही उसका शव लेने से इंकार कर दिया। लगता है कि भले ही उसके हजारों समर्थक उस पर आंख मूंदकर भरोसा करते थे, लेकिन उसके परिवार वाले उसके असली चरित्र से वाकिफ थे। उसकी मौत के बाद कई चौंकाने वाले सच सामने आये। दूसरों को आलीशान भविष्य के सपने दिखाने वाला यह सरगना अपने वर्तमान को रंगीन बनाये हुए था। मुफ्त में बरसने वाले धन ने उसकी नीयत खराब कर दी थी। बाग के बीचों-बीच उसने अपना आलीशान आवास बना रखा था। जहां ब्युटी पार्लर था, जिसमें फेसवाश से लेकर विभिन्न ब्रांड के तेल और भी बहुत सी ऐसी-ऐसी महंगी अय्याशी की चीज़ें थीं जो रईसों के शौक का अहम हिस्सा हुआ करती हैं। उसके अनुयायी झोपडियों में गर्मी के मारे बेहाल होकर आधी-अधूरी नींद ले पाते थे, लेकिन वह वातानुकूलित आवास के मजे लूटता था! वह बीयर की बोतलें खाली करने का जबर्दस्त शौकीन था। वह स्वीमिंग पुल में नहाता था। और उसके समर्थकों को शुद्ध पीने के पानी के लिए तरसना पडता था। रामवृक्ष के दानवी कृत्यों की भी दास्तान बहुत लम्बी है। अच्छा हुआ जो उसका अंत हो गया। नहीं तो भविष्य में एक और कपटी और फरेबी नेता इस देश की छाती पर मूंग दलता नजर आता और आप और कुछ भी नहीं कर पाते...।

Thursday, June 9, 2016

हालात बदल भी सकते हैं

राजा अपनी पीठ थपथपा रहे हैं। उनकी खुशी की कोई सीमा नहीं है। जनता खुश भी है, निराश भी। राजा उसकी उम्मीदो पर पूरी तरह से खरे नहीं उतरे हैं। राजा ने जो वादे किये थे उनके पूरे होने पर संशय के बादल मंडरा रहे हैं। राजा का कहना है कि अभी तो तीन साल बाकी हैं। दो वर्ष में जितना कर सकते थे उससे कहीं अधिक करने का उन्होंने कीर्तिमान बनाया है। पहले वाले राजा से उनकी तुलना करके देख लो। हम उनसे लाख बेहतर हैं। वे तो अपनी मालकिन के इशारे पर चलते थे। हम अपने दिल और दिमाग के साथ दौड रहे हैं। उनके राज में बेईमानो की चांदी थी। भ्रष्टाचारियों का बोलबाला था। हमने तो सत्ता पर काबिज होते ही ऐलान कर दिया था कि न खाएंगे और ना ही खाने देंगे। कोई माई का लाल मेरी सरकार पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद का आरोप नहीं लगा सकता। मेरे सभी मंत्री-संत्री गंगाजल की तरह पवित्र हैं। बस अपने काम से मतलब रखते हैं। किसी के फटे में टांग नहीं अडाते।
विरोधी कहते हैं वे तो खुद को शहंशाह समझते हैं, लेकिन वे खुद को प्रधानसेवक की पदवी से नवाज कर बार-बार यही उलाहना देते हैं कि मेरे शत्रुओं को एक चाय वाले का देश की सत्ता पर काबिज होना रास नहीं आ रहा है। उनके शोर मचाने और माथा पीटने से सच नहीं बदलने वाला। जो काम करेगा वो ढिंढोरा तो पीटेगा ही। यह प्रचार का जमाना है। लोगों तक अपनी उपलब्धियों की जानकारी पहुंचाने के लिए ढोल पीटना जरूरी है। जिन्हें विरोध करना है, करते रहें। किसानों के सच्चे हमदर्द एक फिल्म अभिनेता ने सरकार की कार्यप्रणाली से नाराज होकर कहा है कि सरकार ने अपने दो साल के कामकाज के प्रचार के लिए १००० करोड फूंकने से पहले कम-अज़-कम इस तथ्य का तो ध्यान रखा होता कि भारतवर्ष एक ऐसा देश है जहां अन्नदाता को कर्ज की मार के चलते आत्महत्या करनी पडती है। शासक यह कैसे भूल गये कि महज सात सौ करोड के कर्ज के कारण महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्याओं का अनवरत सिलसिला चला आ रहा है। यदि सरकार ने सर्व जनहित के कामों को अंजाम दिया हो तो उसे अपनी उपलब्धियों को गिनाने के लिए इतनी बैंड-बाजे बजाते हुए करोडों रुपये स्वाहा नहीं करने पडते। इन रुपयों से तो दो राज्यों के किसानों का कर्जा माफ हो सकता था। वैसे भी देश इन दिनों सूखे से जूझ रहा है। इस सरकार को भी अपने भविष्य की चिन्ता खाये जा रही है। वह भी पहले वाली सरकार के रास्ते पर चल रही है। खुद को प्रजा का सेवक कहने वाले राजा ने परदेस में तो अपनी शानदार छवि बनायी है, लेकिन देश के अधिकांश लोग नाखुश हैं। ऐसे में किसी विद्वान की यह पंक्तियां याद हो आती हैं कि पारिवारिक मोर्चे पर असफल व्यक्ति बाहर कितने भी झंडे गाड ले, कितना ही नाम कमा ले, निरर्थक है। पहले घर यानी देश में जय-जय होना जरूरी है। यकीनन मोदी इस मामले में पिछड गए हैं। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि लोकतंत्र पर राजतंत्र हावी हो चुका है। सांसद खुद को राजा-महाराजा से कम नहीं समझते। जनता की तकलीफों को अनदेखी करने की उन्हें आदत पड चुकी है। कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। प्रशासन भी उनकी जी-हजूरी करने में जमीन आसमान एक कर देता है। सत्ताधारी दल की सांसद पूनम महाजन को बीना से तत्काल भोपाल पहुंचाने के लिए स्पेशल ट्रेन दौडाने वालों को आम यात्रियों की तकलीफें कभी दिखायी नहीं देतीं। जनता कष्ट भोगती रहे और सांसद-मंत्री मौज करते रहें यही आज का लोकतंत्र है। लोग सब जानते-समझते हैं। बार-बार छले जाने की पीडा ने लोगों की नींद हराम कर दी है। पिछले दो सालों में दलितों, शोषितों, अल्पसंख्यकों पर हमले बढे हैं। सत्ताधारी दल के ही कुछ सांसदों और उनके चेले चपाटों ने देश में दहशत का वातावरण बनाने में कोई कसर नहीं छोडी है। इस सच से मुंह नहीं मोडा जा सकता कि जब तक देश के जन-जन को सुरक्षित होने का यकीन नहीं होता तब तक हर तरक्की बेमानी है। देश का हर नागरिक अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता चाहता है। वह क्या खाना चाहता है क्या उसे पहनना पसंद है इसका फैसला दूसरे करें यह भला कैसे हो सकता है? खाद्य पदार्थों की कीमतों में अंधाधुंध वृद्धि, रुपये की कीमत में गिरावट और रोजगार न बढने से लोगों में अपार निराशा है। राजा का यह दावा भी खोखला साबित होकर रह गया है कि उनके राज में खाने और खिलाने की परिपाटी का खात्मा होगा। देश की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज, राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे और उनके बेटे व सांसद दुष्यंत सिंह पर भ्रष्टाचार और भाई-भतीजा वाद के संगीन आरोपों के साथ-साथ छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री रमन सिंह का ३६ हजार करोड का घोटाला सामने आया, लेकिन राजा चुप्पी साधे रहे। कहीं कोई कार्रवाई नहीं हुई। महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पंकजा मुंडे के करोडों रुपये के भ्रष्टाचारी कांड पर भी कोई हलचल नहीं हुई। महाराष्ट्र के ही राजस्वमंत्री एकनाथ खडसे का भ्रष्टाचारी कारनामा सामने आने के बाद भी उन्हें बचाने की कोशिशें की गयीं। यह भी सच है कि सरकार ने कई जनहितकारी योजनाओं को लागू करने की घोषणा तो की हैं, लेकिन उनका वास्तविक प्रतिफल दिखायी नहीं दे रहा है। यकीनन क्रियान्वयन में कहीं न कहीं बहुत बडी कमी है। इसलिए देश का गरीब तबका, किसान, मजदूर और युवा वर्ग बेहद आहत है। अभी तो दो ही साल बीते हैं। सरकार के पास तीन साल का समय बाकी है। वह अगर लोगों के सपनों को पूरा करने में अपनी पूरी ताकत लगा देती है तो यकीनन हालात बदल भी सकते हैं।

Thursday, June 2, 2016

ऐसे भी बदलती है दुनिया

नशे के अंधेरे में पूरी तरह से खो गया था भूषण पासवान। वह रिक्शा चलाता था। खून-पसीना बहाकर जो कुछ भी कमाता शराब और जुए पर लुटा देता। परिवार  भुखमरी के कगार पर जा पहुंचा था। मां कलावती देवी लोगों के घर बर्तन-झाडू कर कुछ रुपये कमाती तो ही चूल्हा जल पाता। कई बार तो भूषण मां से भी पैसे छीनकर नशाखोरी में उडा देता। पंजाब के लाखों नौजवान नशे के गुलाम हो चुके हैं। पूरे देश को यही चिंता खाए जा रही है कि नशे की अंधेरी दुनिया की तरफ भागते नौजवानों को कैसे सही रास्ते पर लाया जाए। नशे के गर्त में समा चुका भूषण अनपढ नहीं था। पानी की तरह शराब पीने से होने वाली तमाम बीमारियों से वाकिफ था। फिर भी नशे को उसने अपना सच्चा साथी मान लिया था। वर्ष २००४ का एक दिन था जब संत बलबीर सिंह सीचेवाल उस झुग्गी बस्ती में पहुंचे जहां भूषण रहता था। उन्होंने आसपास के लोगों के साथ बैठक की। लोगों को नशे की बुराइयों से अवगत कराते हुए उससे मुक्ति पाने का संदेश दिया। संत को यह देखकर बहुत पीडा हुई कि झुग्गी बस्ती में रहने वाले बच्चे शिक्षा के अभाव में दिशाहीन होते चले जा रहे हैं। अशिक्षा और धनाभाव के चलते मां-बाप उन्हें स्कूल भेजने में असमर्थ हैं। उन्होंने बच्चों को शिक्षित करने के उद्देश्य से गांववासियों को प्रेरित करते हुए कहा कि अगर उनके बीच ही कोई पढा-लिखा व्यक्ति हो तो यह काम असानी से हो सकता है। भूषण मैट्रिक पास था इसलिये सभी ने उसे यह दायित्व सौंपने का सुझाव दिया। भूषण को तो शराब और जुए से ही फुर्सत नहीं थी। मां के कहने पर बमुश्किल वह संत के पास पहुंचा।
संत ने भूषण से सवाल किया, क्या तुम अपनी जिन्दगी यूं ही बरबाद कर दोगे?... क्या तुम्हें पता है कि झुग्गी के बच्चे शिक्षा के अभाव में पिछड रहे हैं! क्या तुम इन बच्चों को पढाना पसंद करोगे? ‘संत की भेदती आंखों और उनके शब्दों ने भूषण पर कुछ ऐसा असर डाला कि वह राजी हो गया। पेड के नीचे झुग्गी बस्ती के बारह बच्चों से क्लास की शुरुआत हुई। भूषण के लिए यह नया अनुभव था। शुरू -शुरू में शराब से दूरी बनाना उसे किसी मुसीबत से कम नहीं लगा। लेकिन धीरे-धीरे बच्चों को पढाना उसे अच्छा लगने लगा। वो दिन भी आया जब उसने नशे से तौबा कर ली। २००६ में भूषण ने इंटरमीडियट किया, २०१० में बीए भी कर लिया। कभी रिक्शा चलाने वाला शराबी और जुआरी भूषण पासवान आज शानदार इमारत में चल रहे ननकाना चेरिटेबल स्कूल में प्रिंसीपल है। लाचार बच्चों की जिंदगी संवारने में लगे भूषण की जिंदगी पूरी तरह से बदल चुकी है। गांव के लोग इज्जत से पेश आने लगे हैं। दूर-दराज के गांव वाले भी विभिन्न कार्यक्रमों में बुलाते हैं और मंच पर बिठाकर सम्मानित करते हैं। अब तो प्रिंसिपल साहब ने नशे के खिलाफ भी अभियान चला दिया है। किसी को पीते देखते हैं तो बडे सलीके से समझाते हैं और अपनी बीते कल की काली कहानी दोहराते हैं।
इसी देश में एक गांव है, नानीदेवती। मात्र पैंतीस सौ के आसपास की जनसंख्या वाले इस छोटे से गांव में देसी शराब के दस अड्डे थे। सभी अड्डों पर जमकर शराबखोरी होती थी। सुबह, शाम गुलजार रहते थे सभी ठिकाने। अपने काम धंधे को छोडकर युवक इन्हीं मयखानों पर जमे और रमे रहते थे। कुछ बुजुर्ग भी रसरंजन के लिए पहुंच जाते थे। अपराध भी बढते चले जा रहे थे। पांच साल के भीतर १०० से अधिक युवक शराब की लत के चलते चल बसे। युवा बेटों की मौत के सिलसिले ने मां-बाप को तो रूलाया ही, गांव के चिंतनशील तमाम बुजुर्गों को भी झकझोर कर रख दिया। आखिर ऐसा कब तक चलता रहेगा? शराब की लत के शिकार होकर उनके गांव के बच्चे यूं ही अपनी जान गंवाते रहेंगे! शराबखोरी से लगातार हो रही मौतों से शराब कारोबारी भी पूरी तरह से अवगत थे। बुजुर्ग पुरुषों और महिलाओं ने उनसे कई बार गांव से अपने शराब के अड्डे हटाने की फरियाद की थी। धनपशुओं में इंसानियत होती तो मानते! उनके लिए तो कमाई ही सबकुछ थी। युवकों की बरबादी और बदहाली उनके लिए कोई मायने नहीं रखती थी। जागरूक गांव वालों को समझ में आ गया कि धनलोभियों से किसी भी तरह की उम्मीद रखना बेकार है। इस समस्या का हल निकालने के लिए गांव वालों ने बैठक ली। स्त्री-पुरुष सभी एकत्रित हुए। यही निष्कर्ष निकला कि गांव में शराब पीने पर  प्रतिबंध लगाये बिना युवकों की मौत पर विराम नहीं लगाया जा सकता। सभी ने शराब को हाथ भी न लगाने की कसम खायी। यह भी तय किया गया कि जो भी व्यक्ति शराब पीता पाया गया उससे पांच हजार से लेकर पचास हजार तक का जुर्माना वसूला जायेगा। बुजुर्गों की सीख का युवकों पर भरपूर असर पडा। उनकी आंखें खुल गयीं। अब नानीदेवती गांव शराब से मुक्ति पा चुका है। शराब के सभी अड्डे भी बंद हो चुके हैं।