Thursday, October 31, 2019

संत और सत्ता

आज मेरे सामने देश के विभिन्न अखबारों में छापी दो खबरें हैं। एक खबर है, समीना बानो के बारे में, जिन्होंने गरीब बच्चों को शिक्षा देने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनी से नाता तोड लिया। पुणे की रहने वाली समीना जो कि पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, अमेरिका में अच्छी-खासी पगार वाली नौकरी कर रही थीं। जिन्दगी काफी अच्छी दौड रही थी। तब भी समीना के मन में अक्सर यह विचार आता कि माता-पिता ने मुझे इतनी अच्छी शिक्षा दी, जिसकी बदौलत आज मैं यहां तक पहुंची हूं, लेकिन मेरे ही देश भारत के कई हिस्सों में अब भी बहुत सारे ऐसे बच्चे हैं, जिनको अच्छी शिक्षा मिलना तो दूर, वे तो स्कूल भी नहीं जा पाते। अचानक एक दिन समीना अपने देश लौटीं और गरीब बेसहारा बच्चों को पढाने-लिखाने लगीं। उन्होंने अपने इस काम की शुरुआत झुग्गी-झोपडियों में रहने वाले बच्चों से की है।
दूसरी खबर यानी दास्तान है क्लर्क से भगवान बन सैकडों करोड की बेहिसाबी दौलत जुटाने वाले विजय कुमार नायडू की जो कभी चेन्नई की बीमा कंपनी में था तो अदना-सा क्लर्क, लेकिन बिना मेहनत किए करोडों-अरबों कमाने की उसकी हसरत थी। वह चौबीस घण्टे धनवान बनने के रास्ते ढूंढता रहता था। इसी दौरान उसने श्रीमद् भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण के कहे इन शब्दों को पढा तो वह खुशी के मारे नाचने लगा, "जब कलयुग में अधर्म बढ जाएगा तब धर्म की स्थापना के लिए मैं यानी विष्णु भगवान कल्कि के रूप में अवतार लूंगा। अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करूंगा।" विजय कुमार ने तय कर लिया कि उसे अब खुद को विष्णु का दसवां अवतार भगवान कल्कि घोषित कर अपने सभी मायावी सपनों को पूरा करके ही दम लेना है।
शातिर विजयकुमार अच्छी तरह से जानता-समझता था कि देश और दुनिया में धर्म और अध्यात्म का रंगीन चोला ओढ कर कई धूर्तों ने अथाह माया बटोरने में सफलता पायी है। चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन धर्म का धंधा कभी मंदा नहीं होता। धोखे-पर-धोखे खाने के बाद भी अंधभक्त श्रद्धालुओं की आंखें नहीं खुलतीं। एक धूर्त का नकाब उतरता है तो दो-चार और 'उद्धारकर्ता' जन्म ले लेते हैं। हिन्दुस्तान तो वैसे भी देवी-देवताओं की धरती है, जहां इंसान कम और 'भगवान' ज्यादा हैं। आसाराम, रामपाल, राम-रहीम जैसे धूर्तों की तरह ही देखते ही देखते विजय कुमार ने देश और विदेश में भोले-भाले लोगों को सीधे मोक्ष यानी भगवान से मिलवाने का दावा करने वाली दुकानें शुरू कर दीं। बडे-बडे उद्योगपति, व्यापारी, राजनेता, मंत्री, अभिनेता उसके चरणों में माथा टेकते हुए चढावा चढाने लगे। करोडों श्रद्धालुओं के मन में यह बात बिठा दी गयी कि यह आधुनिक भगवान उनके सभी कष्टों का निवारण कर सकता है। वे भी दिल खोलकर धन की बरसात करने लगे। कुछ ही वर्षों में वह इतना मालामाल हो गया कि जमीनों की अंधाधुंध खरीदी करने लगा और टैक्स चोरी के लिए विदेशी कंपनियों में धन का निवेश करने लगा। चंद ही वर्षों में देश और विदेश में अपने लूट तंत्र का मायाजाल फैलाने वाले इस भगवान के देशभर के ४० आश्रमों में १६ अक्टूबर २०१९ को आयकर विभाग ने छापामारी की तो ५०० करोड से अधिक की बेनामी संपत्ति उजागर होने के साथ-साथ ४४ करोड नगदी, २५ लाख अमेरिकी डालर, पांच करोड के हीरे तथा और भी बहुतेरा चौंकाने वाला ऐसा कीमती सामान मिला।
इतिहास गवाह है कि अपने देश में धनलोभी, सौदागर प्रवृत्ति के प्रवचनकारों, योग गुरुओं, तांत्रिकों और तथाकथित भगवानों को सत्ता और राजनेताओं का भरपूर साथ मिलता है। जेल में बंद आसाराम के प्रवचनों के कार्यक्रमों के मंचों पर बडे-बडे राजनेता, मुख्यमंत्री, मंत्री और प्रधानमंत्री तक शोभायमान होकर उसकी तारीफों के पुल बांधा करते थे। आसाराम उनके साथ ली गई तस्वीरों का विज्ञापन की तरह इस्तेमाल कर अपने कारोबार का विस्तार करता था। कहीं न कहीं यह काम योग गुरु बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर ने भी बडी चालाकी से किया है और अरबों-खरबों का व्यावसायिक साम्राज्य खडा कर देश और विदेश के नामी-गिरामी उद्योगपतियों, व्यापारियों को चिंता और हैरत में डाल दिया है। गनीमत है कि यह धुरंधर दवाएं, बिस्कुट, टूथपेस्ट, शैम्पू, साबुन, क्रीम, पाउडर, तेल, घी, शर्बत, चाकलेट, च्यवनप्राश, यौनवर्धक कैप्सूल आदि बनाते और बेचते हैं। जबकि इनके असली प्रेरणास्त्रोत योग गुरु धीरेंद्र ब्रम्हचारी तो बंदूकें बनाया और बेचा करते थे। जम्मू में उनकी गन बनाने की फैक्टरी थी। यह अनोखे स्वामी स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के खास राजदार और राजनीतिक गुरु थे। साउथ दिल्ली में स्थित फ्रेंडस कॉलोनी में धीरेंद्र की आलीशान कोठी थी, जहां पर उस जमाने के शक्तिशाली नेताओं, मंत्रियों, उद्योगपतियों, अभिनेताओं का दिन-भर आना-जाना लगा रहता था। उन्हें पता होता था कि ब्रह्मचारी प्रधानमंत्री के खास हैं। मुश्किल से मुश्किल काम को आसानी से करवा सकते हैं। उस दौर में प्रधानमंत्री आवास सफदरजंग रोड तक उन जैसी किसी और की पहुंच नहीं थी। वे प्रतिदिन सुबह इंदिरा गांधी को योग करवाने जाते थे। इसी दौरान उन्हें दूसरे 'हाल-चाल' से अवगत करवाकर उन कामों की भी स्वीकृति हासिल कर लेते थे, जिनसे उन्हें करोडों की दक्षिणा मिलती थी। उस जमाने में जहां नाम-मात्र के लोग ही हवाई सफर किया करते थे, वहीं इस सत्ता के दलाल के पास अपना लग्जरी जेट था। तब के उद्योगपति, व्यापारी और सेलिब्रिटीज उनके आलीशान जीवन जीने के तौर-तरीकों के सामने खुद को काफी बौना पाते थे और उनसे मिलना अपना सौभाग्य समझते थे।

Friday, October 25, 2019

कैसी-कैसी पाठशालाएं

भारत में सब चलता है। कानून तोडने वाले दबंग और मालदार मस्त रहते हैं। खाकी उनकी दासी बन मलाई खाती रहती है। यहां संस्कारों और संस्कृति का भी खूब ढोल पीटा जाता है। घर की चारदिवारी में ऐसे-ऐसे अपराध होते रहते हैं, जिन्हें इज्जत की खातिर कभी उजागर नहीं होने दिया जाता। अपने घरों को ही नशाखोरी और नारी देहशोषण के लिए सुरक्षित स्थल मान कर  मनमानी चलती रहती है, जिन्हें विरोध करना चाहिए वे भी खामोश रहने में अपनी भलाई समझते हैं।
दुनिया में थाईलैंड एक ऐसा देश है, जहां पर अपने ही घर में सिगरेट पीना कानूनन अपराध माना जाता है। यहां पर यदि कोई नागरिक घर में सिगरेट पीते पकडा जाता है तो उसे जेल में डाल दिया जाता है। साथ ही स्मोकर पर घरेलू हिंसा का केस भी चलाया जाता है। घर के बच्चों और परिवार वालों की सेहत का ख्याल रखने के लिए थाईलैंड की सरकार को इतना कडा फैसला लेने को मजबूर होना पडा। जब यह हकीकत सरकार की समझ में आयी कि सिगरेट और सिगार पीने का चलन अपनी हदें पार कर चुका है और इनके धुएं की चपेट में आकर हर साल छह लाख लोग अपनी जान गंवा रहे हैं, जिनमें साठ प्रतिशत तो मासूम बच्चे ही हैं तो उसने यह कानून बनाया और फिर लागू करने में किंचित भी देरी नहीं लगायी। विशेषज्ञों का मानना है कि धूम्रपान की लत इमोशनल और फिजिकल वायलेंस का कारण बनती है। एक सर्वे में पता चला कि परिवार के सदस्यों की देखा-देखी बच्चे भी धूम्रपान के प्रति आकर्षित होते हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब वे धूम्रपान करने लगते हैं। थाईलैंड की जेलों में कैदियों को अनुशासन के सूत्र में बांध कर रखा जाता है। जेल के अधिकारी बडी सख्ती के साथ पेश आते हैं। उन्हें किसी भी प्रलोभन के जाल का शिकार नहीं बनाया जा सकता। 
जेलें अपराधियों के सुधार के लिए बनी हैं। हर सुधारगृह सुरक्षा  और अनुशासन का भी बोध कराता है। इनकी स्थापना का एकमात्र उद्देश्य होता है अपराधियों को नेक इंसान बनने के लिए प्रेरित करना। उन्हें यह बताना और समझाना कि आजादी और कैद में क्या फर्क होता है, लेकिन कई भारतीय जेलों में रिश्वत की परिपाटी को निभाते हुए किस तरह से कैदियों को सुविधाभोगी बनाया जाता है, इसका पता इस खबर को पढकर चलता है : "अक्सर कहा और सुना जाता है कि जेल में बंद कैदियों को तरह-तरह की यातनाएं झेलनी पडती हैं। उनके जीवन में खुशी के पल तो कभी आते ही नहीं। उन्हें हमेशा घुट-घुट कर रहना पडता है, लेकिन यह बात मंडोली जेल नंबर -१३ में बंद कैदियों पर लागू नहीं होतीे, क्योंकि यहां के कैदी जेल के वरिष्ठ अधिकारी को मोटी रकम चुका कर भरपूर विलासिता का आनंद लूट रहे हैं। रिश्वतखोर अधिकारियों की शह पर धनवान और खूंखार कैदी बडे मजे से स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते हैं। जब भी किसी कैदी को अपना जन्मदिन या अन्य खुशी का जश्न मनाना होता है तो वह अपने घर में पेटीएम या फोन-पे पर पैसे मंगवाता है। उसके बाद दारू और चिकन पार्टी के लिए मोटी रकम जेल के अधिकारी को देकर इसका ऑर्डर करता है। इसके बाद तय समय पर उस कैदी को सबकुछ उपलब्ध करा दिया जाता है, जिससे कैदी अपने दोस्तों के साथ मिलकर जमकर जश्न मनाते हैं।"
कोटला में नशा मुक्ति केंद्र की स्थापना की गई है। यहां पर नशेडियों को नशे की आदत से मुक्त कराने के लिए भर्ती किया जाता है, लेकिन यह मुक्ति केंद्र उन लोगों के लिए सिर दर्द बन गया है, जो इसके आसपास रहते हैं। महिलाएं तो इसके पास जाने से ही खौफ खाती हैं। दरअसल यह नशा मुक्ति केंद्र तो नाम का है। असल काम तो यहां पर लोगों को नशे की और आदत डालना है। यहां जिन लोगों को नशा छुडाने के लिए भर्ती कराया जाता है उन्हें यहां पुराने ड्रग्स के नशाखोरों का साथ मिल जाता है, जो उन्हें नशा करने के ऐसे-ऐसे गुर सिखाते है, जिनके बारे में उन्हें पहले पता ही नहीं होता। सुबह-शाम केंद्र के बाहर ही ये लोग एक-दूसरे को ड्रग्स के इंजेक्शन लगाते रहते हैं। कोई उन्हें रोकता-टोकता नहीं। ड्रग्स खरीदने के लिए यह नशेडी इलाके में चोरी-चकारी करते हैं। महिलाओं और ऑटोवालों से लूटपाट करते हैं। कुछ हफ्ते पूर्व नशा मुक्ति केंद्र के अंदर चाकू से गोदकर एक युवक की हत्या कर दी गई। हत्यारा इसी सेंटर में रहता था। वह ड्रग्स का लती था। उसके पिता ने २०१५ में उसे नशा मुक्ति केंद्र में यह सोचकर भर्ती कराया था कि वह कुछ महीनों में सुधर जाएगा, लेकिन पुराने नशेडियों की संगत में उसने और भी कई दुर्गुण अपना लिए। नशा करने के बाद वह इस कदर हिंसक हो उठता था कि किसी पर भी हाथ उठा देता था। नशा केंद्र के अधिकारियों से मारपीट करने के बाद उसे गिरफ्तार भी किया गया था। कई महीनों तक जेल में रहने के बाद जब वह जमानत पर बाहर आया तो उसका हौसला और बुलंद हो चुका था। जेल में उसे हत्यारों और बलात्कारियों की भरपूर संगत मिली थी। नशा मुक्ति केंद्र में उसने अपने एक साथी की हत्या को ऐसे अंजाम दिया जैसे यह कोई बच्चों का खेल हो। इंसानी जान का कोई मोल ही न हो।

Thursday, October 17, 2019

सत्ता की लीला

चुनावों के मौसम में अब गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और अव्यवस्था की बात नहीं होती। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में हर तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। सभी देशवासी आनंद के सागर में गोते लगा रहे हैं। सरकार भी कहती है देश अभूतपूर्व तरक्की कर रहा है। लोगों की जेबें भरी हुई हैं। तभी तो कोई भी फिल्म पांच-सात दिन में सौ-डेढ सौ करोड रुपये की कमायी कर लेती है। लजीज भोजन का स्वाद चखने के लिए होटलों और रेस्तरां में लोग कतारें लगाकर घण्टों इंतजार करते देखे जा सकते हैं। देशी और विदेशी शराब की दुकानों पर खरीददारों की भीड कभी कम नहीं होती। पब और बीयर बारों में जब देखो तब मेला लगा रहता है। अपने देश भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। लाखों गोदाम ठसाठस भरे पडे हैं। सरकार को सभी की चिंता है। अब तो मीडिया में भी भूख और गरीबी के कारण परलोक सिधार जाने वालों की खबरें नहीं आतीं। बडे-बडे अखबार कभी भूले से इन दुखियारों की खबर छापते भी हैं तो एकदम हाशिए में जहां पाठकों की नजर तक नहीं जाती। न्यूज चैनल वालों को हिन्दू, मुस्लिम, धर्म, राष्ट्रवाद से ही फुर्सत नहीं मिलती।
देश के नेताओं और सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि देश में करोडों लोग बेरोजगार क्यो हैं। वे आखिर कब तक मारे-मारे भटकते रहेंगे? पहले अखबारों में नौकरी देने के विज्ञापन छपते थे। अब नौकरी छूटने की खबरें छप रही हैं। उद्योगधंधों पर ताले लग रहे हैं। करोडो लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट भोजन ही नहीं मिलता। अनाज खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। चांद पर इन्सानी महल बनाने की तैयारी कर चुके देश में किसानों का फांसी के फंदे पर झूलने का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि महाराष्ट्र में ऐन विधानसभा चुनाव के दौरान जलगांव-जामोद निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले एक गांव में किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। महज ३८ वर्षीय यह शख्स भारतीय जनता पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था। जब वह मौत के फंदे पर झूला तब उसने भाजपा की टी-शर्ट पहन रखी थी जिस पर यह वाक्य लिखा था, "पुन्हा आणूया आपले सरकार।" यानी फिर से चुनकर लाओ अपनी सरकार। हम और आप वर्षों से देखते चले आ रहे हैं कि चुनावों के समय वोट हथियाने के लिए नेता बहुत ऊंची-ऊंची हांकते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात उनके द्वारा कितने वादों को पूरा किया इसकी सच्चाई भी किसी से छिपी नहीं है? किसानों के जीवन में खुशहाली लाने का वादा हर चुनाव में किया जाता है। उन्हें तरह-तरह की सौगातें देने की घोषणाएं करने की तो प्रतिस्पर्धा-सी चल पडती है। २०१९ के जून महीने में राजस्थान के श्रीगंगानगर में कर्ज से परेशान एक किसान ने आत्महत्या कर ली। उसने सुसाइड नोट और एक वीडियो में कहा था कि इस देश के नेता हद दर्जे के निर्मोही और झूठे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद सभी किसानों का पूरा कर्ज माफ कर दिया जाएगा, लेकिन गहलोत सरकार ने कर्ज माफी का वादा पूरा नहीं किया, जिसकी वजह से मैं इस दुनिया से विदा हो रहा हूं।
पिछले बीस वर्षों में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बडे जोर-शोर के साथ 'जय किसान' का नारा लगाने वाले भारत वर्ष में जैसे यह परंपरा बन गई है कि किसान खेती के लिए बैंक या इधर-उधर से कर्ज लेता है और न चुका पाने पर आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। सरकार किसान के परिवार के हाथ में मुआवजे की राशि थमा कर यह मान लेती है कि उसने तो अपना कर्तव्य निभा दिया है। आजादी के ७२ वर्ष बीतने के बाद भी ऐसी योजनाएं नहीं बनाई जा सकीं, जिनसे किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत मिले। यह कैसी स्तब्धकारी हकीकत है कि अगर किसान के खेत में बम्पर फसल होती है तो उसे खुशी की बजाय चिंता और परेशानी घेर लेती है। उसकी फसल को उचित दाम नहीं मिलता, लेकिन दूसरे धंधों में तो ऐसा नहीं होता। वहां तो कंगाल भी मालामाल हो जाते हैं और यहां किसान को निराशा और हताशा झेलनी पडती है। देश की दशा और दिशा पर पिछले कई वर्षों से बडी पैनी निगाह रखते चले आ रहे चिन्तकों का कहना है कि देश के सत्ताधीश और राजनेता किसानों की बदहाली पर सिर्फ घडियाली आंसू ही बहाते हैं। किसानों की सतत बरबादी और आत्महत्याएं एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी हैं। सरकारें किसानों के उद्धार के लिए हजारों करोड की राशि का ऐलान करती रहती हैं, फिर भी उनकी हालत जस की तस है! आखिर कहां जाते हैं यह रुपये? इसका जवाब पाना हो तो उन भ्रष्ट नेताओं, विधायकों, सांसदों का नाप-जोख कर लें, जिन्होंने जनसेवा का नकाब ओढकर करोडों, अरबों का साम्राज्य खडा कर लिया है।
इन भ्रष्टों को पता नहीं है कि, जो किसान अपनी जान दे रहे हैं, वे दूसरों की भी बेहिचक जान ले सकते हैं। इससे पहले कि स्थिति और खतरनाक हो जाए भ्रष्ट राजनेताओं को चौकन्ना हो जाना चाहिए, सुधर जाना चाहिए। अपने देश में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की, कमी है तो ईमानदारी और प्राथमिकता की। जिस जनहित के कार्य और समस्या का समाधान सबसे पहले होना चाहिए उसका नंबर बहुत बाद में लगता है। जहां मेट्रो और बुलेट ट्रेन की जरूरत ही नहीं, वहां अरबों, खरबों स्वाहा किये जा रहे हैं और मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इसके पीछे के 'खेल' और 'लीला' को जनता अब अच्छी तरह से समझने लगी है। वह चुप है, इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह बेवकूफ और अंधी है।

Thursday, October 10, 2019

ऐसे होते हैं जननायक

आजकल मोटिवेशनल स्पीच देने वाले का जबर्दस्त बोलबाला है। पिछले कुछ साल से तो इनकी खूब चांदी कट रही है। महानगरों में तो लोग इन्हें सुनने के लिए तीन से पांच हजार तक के टिकट कटवा कर बडे बुलंद इरादों के साथ फाइवस्टार होटलों में आयोजित होने वाले कार्यकर्मों में अपने इष्ट मित्रों के साथ पहुंचते हैं और खूब तालियां पीटते हैं। इनमें से अधिकांश नवधनाढ्य होते हैं, जिन्हें दिखावे की आदत होती है। जब मोटिवेशनल स्पीकर बुलंदियों पर पहुंचने के रास्ते बता रहा होता है तब इनका दिमाग कहीं और छलांगे लगा रहा होता है। जब दूसरे तालियां पीटते हैं तो यह भी शुरू हो जाते हैं। लोगों को जगाने और ऊर्जा का भंडार भरने का दावा करने वाले अधिकांश मोटिवेशनल स्पीकरों के पास कुछ वर्ष पहले तक खुद का स्कूटर नहीं था, आज वे महंगी से महंगी कारों की सवारी करते हैं। उन्होंने आलीशान कोठियां भी तान ली हैं। उनके बच्चे भी बढिया या से बढिया स्कूल-कॉलेज में पढ रहे हैं और सभी सुख-सुविधाओं का आनंद ले रहे हैं, लेकिन अधिकांश तालियां पीटने वाले वहीं के वहीं हैं। कुछ ही की किस्मत ने पलटी खायी है।
हम अधिकांश भारतीय बडे ही भावुक किस्म के प्राणी हैं। भेडचाल चलने में जरा भी नहीं सकुचाते। किसी भी भावनाप्रधान प्रेरक किताब, फिल्म या वीडियो को पढ व देखकर अपनी आंखें नम कर लेते हैं। खुद में फौरन बदलाव लाने की सोचने लगते हैं, लेकिन यह भाव ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता। किताब, फिल्म, वीडियो, मोटिवेशनल स्पीकर यानी परामर्शदाता के प्रभाव का असर कुछ ही समय के बाद लगभग खत्म हो जाता है और फिर अपनी दुनिया और आदतों में रम जाते हैं। सच तो यह है कि जिनमें ज्ञान अर्जित करने की कामना होती है उन्हें यहां-वहां भटकना नहीं पडता। स्थितियां, परिस्थियां, हालात, अच्छे-बुरों का साथ भी किसी किताब, पाठशाला से कम नहीं होता। इन्सानी इच्छाशक्ति पहाड को समतल बना सकती है। रेत में भी फूल खिला सकती है। सदी के नायक अमिताभ बच्चन के 'कौन बनेगा करोडपति' कार्यक्रम में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा कर १ करोड रुपये की इनाम राशि जीतने वाली बबीता ताडे स्कूल में बच्चों के लिए खिचडी पकाती हैं। उनका कभी काम चलाऊ मोबाइल लेने का सपना था। एक करोड तो क्या दस-बीस हजार रुपये की कल्पना भी नहीं की थी इस जुझारू नारी ने। बस अपना कर्म करती जा रही थी। कर्मठ बबीता ने जब अपने जीवन के संघर्षों की दास्तान सुनाई तो सुनने वाले स्तब्ध रह गये। कुछ की तो आंखें ही भीग गईं। जब वे हॉट सीट पर विराजमान थीं अनेकों दर्शक प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे थे कि वे इतनी राशि तो जीत ही जाएं, जिससे उनके दुखों और संघर्षों का अंत हो जाए। कभी महज १५०० रुपये की पगार पाने वाली बबीता आज करोडपति हैं। फिर भी इरादे में कोई बदलाव नहीं। ताउम्र बच्चों को खिचडी बनाकर खिलाते रहना चाहती हैं। अपनी जीवन यात्रा में जो थपेडे खाए और शब्द ज्ञान हासिल किया उसे इस भारतीय नारी ने कभी विस्मृत नहीं होने दिया। दिन में घर के कार्य और खिचडी बनाने के बाद रात को तानकर सोने की बजाय वे घण्टों ज्ञानवर्धक किताबे पढती थीं। जमीनी यथार्थ और किताबी ज्ञान ने उन्हें देश और दुनिया में ख्याति भी दिलायी और करोडपति भी बनाया।
सजग, सतर्क और कर्मशील मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जो उसका कायाकल्प कर देती हैं। हिन्दुस्तान की राजनीति में धन का खासा महत्व है। बिना इसके चुनाव लडना काफी कठिन है। स्थापित पार्टी का टिकट पाने के लिए भी धन बल का होना जरूरी माना जाता है। यानी ऊपर से लेकर नीचे तक धन बरसाना पडता है, लेकिन कभी-कभी चमत्कार भी हो जाते हैं, जो कभी सोचा नहीं होता वो भी हो जाता है। विदर्भ के चंद्रपुर जिले के निवासी श्याम वानखेडे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता थे। मूलत: किसान। राजनीति में भी खासी अभिरुचि थी। वर्ष १९८५ का चुनावी दौर था। विधानसभा की टिकट पाने के लिए दिग्गज कांग्रेसियों में होड मची थी। सभी एक दूसरे की टांग खींचने में लगे थे। ऐसे में श्याम वानखेडे ने भी अपनी किस्मत आजमाने की सोची और दिल्ली जाने के लिए टिकट कटवा ली। कंफर्म बर्थ न मिल पाने के का द्वितीय श्रेणी के उस डिब्बे में जाकर बैठ गये, जहां कांग्रेस पार्टी के ही टिकट आकांक्षी नेता बैठे थे। रात को सभी नेता अपनी सीट पर सोने की तैयारी करने लगे। श्याम वानखेडे अखबार को फर्श पर बिछाकर सो गये। सभी ने उनकी यह कहकर खूब खिल्ली उडायी कि जब औकात नहीं है तो गाडी में सफर ही क्यों करते हो। बडा नेता बनने के लिए मालदार होना जरूरी है। तुम जैसों को अगर विधानसभा की टिकट मिलने लगी तो भगवान ही इस देश का मालिक होगा, लेकिन श्याम वानखेडे पर दिल्ली कुछ ऐसी मेहरबान हुई कि बडे नेता हाथ मलते रह गये और उन्हें टिकट मिल गई। एक साधारण कार्यकर्ता को विधानसभा की टिकट मिलने से महाराष्ट्र की राजनीति में तो हलचल मच गई। तब वानखेडे के पास खुद की साइकिल तक नहीं थी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी पुराने नेताओं से ही जुडाव था, जो वर्षों से विधायक और सांसद बनते चले आ रहे थे। ऐसी स्थिति में वानखेडे ने अपने चंद साथियों के साथ पैदल चुनाव प्रचार कर जीत हासिल की और विरोधियों के पैरों तले की जमीन खिसका दी। मतदान के दिन पैरों में पडे छालों के कारण उनसे चलना नहीं हो रहा था। फिर भी उनके कदम नहीं थमे। उनकी कर्मठता और जुनून ने हर दल के नेता को हतप्रभ कर दिया। करोडों रुपये फूंकने के बाद भी चुनाव में मात खाने वाले विरोधियों की नींद उ‹ड गई। उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि बिना धन लुटाये भी विधानसभा का चुनाव लडा जा सकता है। उनके लिए यह कोई जादू था और श्याम वानखेडे जादूगर। इस महाजादूगर ने अपने कार्यकाल में जनसेवा को ही प्राथमिकता दी। इसी के परिणाम स्वरूप १९९० में कांग्रेस की टिकट पर दोबारा चुनाव लडकर विजयी हुए तो उन्हें मंत्री बनाकर ९ विभागों की जिम्मेदारी सौंपी गयी। अक्सर देखा जाता है कि जब कोई कार्यकर्ता या छोटा नेता अचानक विधायक और मंत्री बन जाता है तो उसके रंग-ढंग बदल जाते हैं। वह अपने क्षेत्र के लोगों को पहचानना भूल जाता है। उसे तो बस चंद चेहरे याद रहते हैं जो उसकी चाटूकारी करते हैं, लेकिन वानखेडे तो किसी और मिट्टी के बने थे। उन्होंने कभी आम जनता से मिलना-जुलना बंद नहीं किया। उनके घर के दरवाजे सभी के लिए खुले रहते थे। कई बार वे सुरक्षा घेरे से निकलकर क्षेत्र के किसी परिवार के बीमार सदस्य को अस्पताल में देखने और उसकी सहायता करने के लिए पहुंच जाते थे। सभी के सुख-दुख के साथी होने के कारण ही उन्हें सच्चा जननायक कहा जाता था। मंत्री होने के बावजूद वे पैदल भ्रमण करते थे और जनता की समस्याओं से रूबरू होते थे। आम जन के सुख-दुख के इस सच्चे साथी को लोग आज भी याद कर बस यही कहते हैं कि नेता हो तो बस ऐसा ही हो...।

Thursday, October 3, 2019

जनता का आतंकी चेहरा

सब्जी का कारोबार करने वाली दो सगी बहनें रांची के निकट स्थित एक गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जी खरीदने के लिए गईं  थीं। शाम को जब वे लौट रही थीं तो रास्ते में इनका ऑटो खराब हो गया। जहां ऑटो बिगडा था वहां से कुछ ही दूरी पर उनके परिचित रहते थे। रात दोनों वहीं रुक गईं । सुबह-सुबह हाथ में सब्जी के थैले पकडे शहर की तरफ बढ रही थीं तभी किसी ने अफवाह उडायी कि दो अनजान महिलाएं खेतों से सब्जी चोरी कर ले जा रही हैं। बस फिर क्या था। कुछ ही मिनटों में दर्जनों ग्रामीण उन्हें घेर कर अंधाधुंध मारने लगे। इतने में भी उनका मन नहीं भरा। दोनों को पेड से बांधकर तब तक पिटायी की गई जब तक वे अधमरी नहीं हो गईं। भीड में शामिल कुछ लोगों ने मौका पाते ही दोनों के बाल भी काट डाले। यह अच्छा हुआ, सूचना पाते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई। वर्ना भीड तो दोनों को खत्म कर देने पर उतारू थी।
मुजफ्फरपुर के माडीपुर चित्रगुप्त नगर में बच्चा चोरी के शक में भीड ने दो महिलाओं को पकडा और जमकर पीटा। पुलिस के पहुंचने से पहले दोनों बुरी तरह से जख्मी हो चुकी थीं। सडक भी खून से लाल हो गई थी। इस घटना से दो दिन पूर्व भी कुछ लोगों ने एक विक्षिप्त उम्रदराज महिला को बच्चा चोरी के आरोप में सडक पर डंडों और लातों से पीटकर अपंग बना दिया। राजस्थान के झालावाड जिले में मोटर पंप चोरी के आरोप में ४० वर्षीय दलित की बेरहमी से पिटायी की गई। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। ३ सितंबर २०१९ के दिन दिल्ली के अशोक विहार में भी बच्चा चोरी के शक में लोगों ने एक युवक की निर्मम हत्या कर दी। हुआ यूं कि वह युवक तडके करीब चार बजे रेलवे पटरी पर शौच के लिए गया था। उसी दौरान वहां दो बदमाशों ने उसे घेर लिया। बदमाशों ने रुपये और मोबाइल लूटने के लिए युवक को चाकू दिखाकर जान से मारने की धमकी दी। युवक अपनी जान बचाने के लिए भागा। इसी दौरान उसने कई घरों के दरवाजे खटखटाये, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। फिर एक घर के दरवाजे को हल्का-सा धक्का देने पर वह खुल गया। उसके अंदर जाते ही घर के सभी सदस्य बच्चा चोर का हल्ला मचा कर उसे पीटने लगे। वह युवक हाथ जोडकर गिडगिडाता रहा कि उसके पीछे बदमाश लगे हैं। वह बच्चा चोर नहीं है, लेकिन उसकी बिलकुल नहीं सुनी गई। आसपास के लोग भी जाग गये और भूखे जानवर की तरह उस पर टूट पडे। देश में ऐसी हिंसक घटनाओं की कतार-सी लग गई है। अकेले बिहार में ढाई महीनों के दौरान भीड की हिंसा ने १४ लोगों की जान ले ली और ४५ लोग घायल हो गये। जागरुकता अभियान चलाये जाने के बाद भी मॉब लिंचिंग शासन और प्रशासन के लिए गहन चिन्ता का विषय बनी हुई है। यह भी देखा जा रहा है कि पीडितों को बचाने की कोशिश करने वाले पुलिस अधिकारियों पर भी उन्मादी भीड हमला करने से नहीं घबराती। गौरतलब है कि बंगाल में मॉब लिंचिंग के खिलाफ विधानसभा में बिल पारित कर नया कानून बनाया गया है, जिसमें दोषियों को मृत्युदंड देने का प्रावधान किया गया है, फिर भी लोग सुधरे नहीं हैं। इस नये कानून के बाद भी तीन निर्दोषों की हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं जब पुलिस मौके पर पहुंची तो उसे भी पीटा गया। ऐसा लगता है कि देशभर में अफवाहों का बहुत बडा बाजार आबाद है। लोग सच की तह में जाए बिना हिंसक और हत्यारे बन रहे हैं। भीड हिंसा यानी मॉब लिंचिंग एक भयानक महामारी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है, जो हर किसी को डराने लगी है। अफवाह फैलते ही भीड एकत्रित हो जाती है और बिना कोई पडताल किये किसी निर्दोष को अधमरा कर देती है या मार गिराती है।
अगर किसी ने कोई अपराध किया भी है तो भीड को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह न्यायाधीश बन जाए। यह तो सरासर जल्लादगिरी है, हैवानियत है। भीड यानी जनता के हाथ यदि कोई अपराधी आता भी है तो उसे पुलिस को सौंपा जाना चाहिए। उसे दंडित करने का अधिकार जनता को किसने दिया है? यह तो बेहद जहरीली मानसिकता है। देश के कोने-कोने से अफवाहों के चलते की जा रही हिंसा और हत्याओं की खबरें किसी बारूद से कम नहीं हैं। इस बारूद के धमाकों ने देश को हिलाकर रख दिया है। जनता की यह गुंडागर्दी कानून के पंगु होने का भी एहसास करा रही है। ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास कम होता चला रहा है। उन्हें लगने लगा है कि अपराधियों पर शिकंजा कसने में पुलिस अपनी सही भूमिका नहीं निभा रही है। इसलिए जब भी कोई अपराधी जनता की पकड में आता है तो वह उसे पुलिस को नहीं सौंपती। खुद ही उस पर टूट पडती है। पुलिस के प्रति यह अविश्वास निराधार नहीं है। फिर भी भीड की हिंसा को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। किसी की जान लेने और उसे अपमानित करने का हक तो किसी को भी नहीं। अब तो लोगों में पुलिस प्रशासन के प्रति विश्वास पैदा करना भी बहुत जरूरी हो गया है। वहीं जनता में भी जागरुकता लानी जरूरी है कि अफवाहें सच नहीं होतीं। हर जान कीमती होती है। उनके साथ और पीछे भी उनके परिजन, रिश्तेदार और स्नेही दोस्त होते हैं, जिन्हें उनकी हत्या की पीडा ताउम्र रूलाती है। जख्मों के जंग में बदलने और बदला लेने की शंका भी बनी रहती है।