Thursday, February 24, 2022

रिश्ते... रिश्ते

    पति का नाम सौरभ, पत्नी का स्वाति। छह साल की एक बेटी। देहरादून के रहने वाले। सब कुछ ठीक चल रहा था। अचानक अवतरित हुए कोरोना ने गड़बड़ कर दी। सौरभ की नौकरी जाती रही। कुछ महीने जमा धन काम आया। बाद में इधर-उधर से कर्ज लेकर गृहस्थी की गाड़ी खींचते रहे। इसी दौरान सौरभ की बहन की शादी भी तय हो गई। सौरभ ने किसी साहूकार से मोटे ब्याज पर पांच लाख का कर्जा ले लिया। घर में आई इस लक्ष्मी को देखकर पत्नी ने विवाह में पहनने के लिए सोने के हार की मांग कर दी। सौरभ को बड़ा गुस्सा आया। कैसी जीवनसाथी है, जिसे बस अपने शौक की पड़ी है। उसने गुस्से में पत्नी को फटकारा, लेकिन वह सोने का हार दिलाने की जिद पर अड़ी रही। इतना ही नहीं उसने बिना हार के ननद की शादी में शामिल होने से भी इंकार कर दिया। पति और पत्नी के बीच कहा-सुनी इस कदर गर्मा-गर्म हो गई कि दोनों के बीच हाथापायी  की नौबत आ गयी। स्वाति का आक्रामक होना सौरभ से सहा नहीं गया। उसने अपना आपा खोते हुए बेटी के सामने स्वाति को बिस्तर पर पटका। पहले तो बेल्ट और आयरन की तार गले में कसी फिर चाकू से गला रेतकर हत्या कर दी।
    नागपुर में एक 28 वर्षीय शराबी पति की पत्नी जब शारीरिक संबंध बनाने से मना करती तो वह उसके हाथ-पाव बांधकर अपनी वासना की आग बुझाता था। पत्नी शोर न मचाए, इसलिए वह उसके मुंह में कपड़ा भी ठूंस देता था। पति की हैवानियत से त्रस्त हुई पत्नी ने पारिवारिक न्यायालय की शरण ली। कानून तो यही कहता है कि बिस्तर पर पत्नी के साथ पूरे सम्मान के साथ पेश आना चाहिए। वह गुलाम नहीं, इंसान है। उसकी भी अपनी भावनाएं हैं।  
    मेरठ शहर में एक युवक ने अपनी वर्षों पुरानी प्रेमिका की भरे चौराहे पर इसलिए हत्या कर दी, क्योंकि पिछले कुछ दिनों से वह उससे मिलने में आनाकानी कर रही थी। दो हफ्ते बाद ही उनकी शादी होने वाली थी। ब्याह हुए एक महीना भी नहीं हुआ था कि पत्नी बिना बताये पति का घर छोड़कर भाग खड़ी हुई। कुछ दिनों के बाद उसने तलाक का नोटिस भी भिजवा दिया। मामला कोर्ट में पहुंच चुका है। युवती पचास लाख रुपये की मांग कर रही है। कोर्ट-कचहरी के चक्कर काटते युवक और उसके मां-बाप को अभी तक अपने कसूर का पता नहीं चला है। ऐसे पता नहीं कितने तलाक के मामले कोर्ट में फैसले का इंतजार कर रहे हैं। इनमें कई तलाक के मामले तो ऐसे जोड़ों के हैं, जिनकी शादी वर्षों पहले हुई थी, लेकिन अंदर ही अंदर पता नहीं क्या हुआ कि अलग होने का निर्णय ले लिया गया। यह भी देखा जा रहा है कि कुछ माता-पिता अपनी बेटियों की शादीशुदा जिंदगी में जहर घोलने में लगे हैं। हां यह भी सच है कि अधिकांश मां-बाप अपनी बेटी को दु:खी नहीं देखना चाहते। उन्हें अपनी बेटियों को दूर ब्याहने में भी डर लगता है। मांओं की तो हमेशा अपनी बेटियों को अपने नजदीक रखने की इच्छा रहती है। देश के प्रदेश झारखंड के दो गांवों के लोगों ने तो अपनी बेटियों से नजदीकी बनाये रखने के लिए अपने गांव के निकट ही दामादों यानी जमाइयों का पूरा गांव ही बसा दिया। 54 साल पहले तीन परिवारों ने यह अनोखी पहल की थी। जमाइयों के इस गांव को जमाईपाड़ा नाम दिया गया है, जहां पर 100 परिवारों में से 60 परिवार जमाइयों के ही हैं। बेटी को लक्ष्मी और जमाई को राजा का सा मान-सम्मान देने वाले माता-पिता बेफिक्र हैं। गांव के नाम को लेकर जब लोगों ने मजाक उड़ाना प्रारंभ किया तो अब जमाईपाड़ा को लक्ष्मीनगर कहा जाने लगा है। ऐसी कई खबरें हैं, जो इंसानी बर्बरता का दस्तावेज हैं। वहीं कुछ हकीकतें ऐसी भी हैं, जो आग-सी तपती धूप में ठंडक का एहसास कराती हैं...।
    नब्बे वर्ष के हो चुके भोलानाथ आलोक साहित्यकार हैं। उन्होंने कई कथाएं और कविताएं लिखी हैं, लेकिन उनकी सबसे अच्छी रचना जो अभूतपूर्व है और यादगार बन कर रहने वाली है, वह है उनका अपनी पत्नी के प्रति अटूट प्रेम और पवित्र समर्पण भाव। आलोक और उनकी पत्नी की बस यही चाहत थी कि उनकी एक साथ ही इस दुनिया से विदायी हो, लेकिन ईश्वर ने उनकी यह इच्छा पूरी नहीं होने दी। 25 सितंबर, 1990 को उनकी पत्नी की अचानक मौत हो गई। तब आलोक के मन में आत्महत्या करने का भी विचार आया, लेकिन छोटे-छोटे बच्चों के अनाथ हो जाने की चिंता ने उनकी इच्छा का गला घोट दिया। फिर उन्होंने वो किया, जिसने हर किसी को यह कहने और मानने के लिए मजबूर कर दिया कि प्रेम एक पवित्र एहसास है, जो दिमाग से नहीं दिल से होता है। सच्चे प्रेमी अपनी जिन्दगी को एक-दूसरे के नाम कर देते हैं। जब तक मौत नहीं आती तब तक एक-दूसरे के बने रहते हैं। भावुक साहित्यकार ने उसी पल पत्नी की अस्थियों को जीवन के अंतिम क्षणों तक संभालकर रखने का निर्णय ले लिया। उनकी पत्नी को गुजरे 32 वर्ष हो चुके हैं। घर के बरामदे में लगे पेड़ पर उन्होंने पत्नी की अस्थियां लटका रखी हैं। उन्होंने अपने बच्चों को कसम दी है कि जब उनकी मौत हो तो पत्नी की अस्थियों के साथ ही उनका दाह-संस्कार कराएं। आलोक तो रोज अस्थियों की पूजा करते ही हैं, उनके परिजन भी भगवान की पूजा के बाद पेड़ पर टंगी अस्थियों की पूजा करना नहीं भूलते। घर में जब भी बाहर से कोई रिश्तेदार आते हैं या घर के कोई भी सदस्य बाहर जाते हैं, तो पेड़ के पास में जाकर प्रणाम करते हैं। घर-परिवार में होने वाले मांगलिक कार्यों में उनका आशीर्वाद लिया जाता है।
    प्यार तो प्यार होता है। हिंदुस्तान हो या अमेरिका। इसकी पवित्रता और तड़प कहीं भी नहीं बदलती। जब पूरी दुनिया कोरोना के चंगुल में थी तब कई जोड़ों को अपने साथी को खोना पड़ा। उनकी जुदाई में बिलख-बिलख कर रोना पड़ा। ऐसी ही एक तस्वीर आज भी मेरे दिल-दिमाग में ताजा है...। 89 साल के एक पति को 87 साल की पत्नी से कोरोना की वजह से मजबूरन अलग रहना पड़ा। पूरे चालीस दिनों के बाद दोनों जब मिले तो उनके आंसू रुक नहीं रहे थे। दोनों ने एक-दूसरे का हाथ थामकर वादा किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, अब बाकी बची जिंदगी का एक-एक पल एक साथ जीएंगे। उनके मिलन की तस्वीर जिसने भी देखी वह अपने जज्बात पर काबू नहीं रख पाया। बरबस आखें गीली होती रहीं...।

Thursday, February 17, 2022

खुद को मुसलमान और हिन्दू दिखाने की होड़

    जब देखो तब कोई न कोई सनसनी फैलाती फिल्म, तस्वीरें, वीडियो और अशांति फैलाती भाषणबाजी। राजनीति और धर्म के अलावा जैसे और कुछ बचा ही नहीं है! नारों पर नारे, शोर शराबा, धमकियां और चेतावनियां ही क्या भारत देश की पहचान बनती चली जा रही हैं? देश की तो छोड़िए अब विदेशों में भी यही संदेश जा रहा है कि यहां का आपसी भाईचारा और एकजुटता बेहद खतरे में है। लड़कियों की आजादी छीनी जा रही है। महिलाओं पर जुल्म ढाये जा रहे हैं। हर कोई सकते में है। जिस पार्टी के हाथ में केंद्र की सत्ता है वह अंधी और बहरी बनी हुई है। क्या वाकई यह सच है? अपने देश भारत में नामवर होने का सबसे आसान तरीका है, जलती आग में तेल नहीं, पेट्रोल डालो ताकि हजारों मील दूर बैठे लोगों को भी उसकी तपन का एहसास हो।
    कर्नाटक के कॉलेज की छात्रा मुस्कान जानती थी कि कॉलेज में हिजाब पहनकर जाने की पाबंदी है फिर भी वह डंके की चोट पर पहुंची तो वहां पर पहले से मौजूद भगवा गमछा और स्कार्फ पहने छात्रों के उग्र झुंड ने जय श्रीराम के नारे लगाते हुए मुस्कान का रास्ता रोक लिया। अति उत्साह से भरी मुस्कान ने भी उन्हें ललकारने के अंदाज में ‘अल्लाह हू अकबर’ के नारे लगाते हुए सवाल किया कि वे मेरे हिजाब के पीछे क्यों पड़े हैं। यह हक उन्हें किसने दिया है? सोशल मीडिया पर मुस्कान के वीडियो के वायरल होने भर की देरी थी कि मौके की तलाश में बैठे इधर और उधर के अपने-अपने धर्म के कुछ ठेकेदारों ने अपने अस्त्र-शस्त्र बाहर निकाल लिए। राजनीति और सोशल मीडिया के पेशेवर खिलाड़ी भी छाती तानकर कूदने-फादने लगे। रातोंरात उनके आकाओं ने उन्हें पढ़ा और रटा दिया कि उन्हें किस तरह से चीखना-चिल्लाना है। देखते ही देखते कर्नाटक से निकले हिजाब विवाद की सात-समंदर पार तक तेजाबी बरसात होने लगी। अमेरिका तथा अन्य कुछ देशों को भारत पर उंगली उठाने और चेताने का मौका मिल गया। यह बात दीगर है कि भारत के ताकतवर हुक्मरानों ने उसे अपना घर संभालने और दूसरे के यहां नहीं झांकने का तीखा सुझाव देकर बेजुबान कर दिया। देश के कई नगरों-महानगरों की कॉलेज गर्ल हिजाब पहन कर पहुंचने लगीं। मध्यप्रदेश के सतना के एक कॉलेज की छात्रा जब परीक्षा देने पहुंची तब उसने मुस्कान के अंदाज में हिजाब पहन रखा था। यहां भी छात्रों ने उसका पुरजोर विरोध किया। महाराष्ट्र के पुणे में हिजाब के समर्थन में निकाले गये जुलूस में महिलाओं के अलावा छोटी-छोटी बच्चियों को भी शामिल कर लिया गया। उनके हाथ में जबरन बैनर भी थमा दिये गए जिन पर लिखा था कि हिजाब पहनना हमारा अधिकार है। धार्मिक नगरी चित्रकूट में चुनाव प्रचार करने गईं कांग्रेस की एक महिला प्रत्याशी मुस्लिम बहुल क्षेत्र पहुंचीं तो उनका सोया जोश जाग गया और उन्होंने एक मुसलमान को भगवा टोपी पहना दी। इसके बाद वहां जय श्रीराम के नारे गूंजवाये गये।
भारत के अधिकांश मौकापरस्त नेता देश के बंटवारे के बाद से ही ऐसी नाटक-नौटंकियां करते चले आ रहे हैं। कोई हिंदुओं को खुश करना चाहता है, कोई मुसलमानों को। तो किसी को दलित अति प्रिय हैं। हिजाब भी उनके लिए जलती आग की भट्टी है, जिस पर वे अपनी राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं। इन्हें संविधान से भी कुछ नहीं लेना और देना। सच तो यह भी है कि यदि इन्होंने भारतीय संविधान का आदर किया होता तो कि किसी की क्या मजाल जो वह अपनी मनमानी और दादागिरी दिखा पाता। हिजाब के पक्ष और विपक्ष में अपने-अपने तर्क हैं...। हिजाब पहनने से लड़कियां बदमाशों की गंदी निगाहों से बची रहती हैं। देश में आज जो हालात हैं वे महिलाओं के लिए सुरक्षित और सुखद नहीं हैं। कदम-कदम पर वहशी-बलात्कारी चहल-कदमी करते नजर आते हैं। अकेली लड़कियों और औरतों के लिए हिजाब और बुर्का किसी मजबूत कवच से कम नहीं। जब उनका बदन और चेहरा ही नहीं दिखेगा तब दुष्कर्म भी नहीं होंगे। हिजाब के विरोधी कहते हैं कि शिक्षा के मंदिरों में नारियों पर खतरे की बात वही लोग करते हैं, जिन्हें अपनी बेटियों पर भरोसा नहीं और उनके भविष्य की भी कतई चिंता नहीं। दरअसल वे पूरे मन से बेटियों को आगे बढ़ता नहीं देखना चाहते। ऐसे लोग आज भी बाबा आदम के जमाने की जमीन पर ठिठके खड़े हैं। इन्हें पता ही नहीं है कि आज नारियां पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। पग-पग पर उन्हें चुनौती और टक्कर दे रही हैं। ऐसे में उन्हें पर्दे में कैद करना, उन पर पहरे लगाना घोर अपराध ही है। दुनिया के जिन-जिन देशों में सार्वजनिक स्थानों पर चेहरा ढंकने या इस्लामिक नकाबों पर रोक लगायी गई वहां पर महिलाओं में काफी उत्साह तथा परिवर्तन आया है। पुरुषों की तरह वे भी बेझिझक कहीं भी आना-जाना करती हैं और ऊंची से ऊंची शिक्षा अर्जित करते हुए सफलता के नये-नये शिखरों को छू रही हैं।
    हिजाब को लेकर जो शोर-शराबा और अशांति फैली और बड़े ही सुनियोजित तरीके से फैलायी गयी उस पर कलम चलाना व्यर्थ है। कलमकार को तो उन हुक्मरानों पर गुस्सा आता है, जिनकी प्राथमिकताएं ही समझ में नहीं आतीं। जो काम पहले करना चाहिए उसे तो करना ही भूल जाते हैं। जिस देश में बेइंतहा गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और अशिक्षा का घनघोर अंधेरा है, वहां पर सरकारें जनता की आंख में धूल झोंकती चली आ रही हैं। तरह-तरह के सपनों और जुमलों से दिल बहलाती चली आ रही हैं। कोरोना काल में हम सबने देख ही लिया है कि स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में हम कितने गरीब और नकारा हैं। डॉक्टरों और अस्पतालों की कमी की वजह से हजारों मौतें हो गईं और हम बेबस देखते रह गये। ऐसी और भी कितनी-कितनी गंभीर समस्याएं हैं, जो देश के विकास में बाधा बनी हुई हैं। शासकों का तो पहला कर्तव्य है कि जन-जन की नींद उड़ाती समस्याओं का पहले हल खोजा जाए। देश में कानून व्यवस्था की जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है। कोई भी मां-बाप अपनी बेटियों को किसी तरह की बंदिशों की बेड़ियां पहनाकर खुश नहीं होते, लेकिन लगभग हर रोज सामने आने वाली बलात्कार और व्याभिचार की खबरें उन्हें डराती हैं। शासन-प्रशासन की कमी और कमजोरी ने ही गुंडे-बदमाशों के हौसलों को बेलगाम कर रखा है। यह देखने में आया है कि जिन देशों में शासन-प्रशासन लुंज-पुंज नहीं, बेरोजगारी नहीं, गरीबी नहीं, शिक्षा का भरपूर उजाला है, वहां पर किसी भी बदलाव और पहल को खुशी-खुशी स्वीकार कर लिया जाता है। भारत में  बरगलाने और उकसाने वालों की कतारें लगी हैं। मैंने जो जाना और समझा है वह यह भी है कि भारतीय जनता पार्टी की बजाय कांग्रेस या किसी अन्य राजनीतिक पार्टी की प्रदेश सरकार ने हिजाब पर रोक लगाने का निर्णय किया होता तो इतना हो-हल्ला नहीं होता। इस पार्टी की मुस्लिम विरोधी छवि बनाने में इसी पार्टी के कुछ मुंहफट नेताओं का भी खासा योगदान रहा है, जो किसी की भी राष्ट्रभक्ति पर सवाल खड़े करने लगते हैं। यह देश समावेशी विकास बदलाव और व्यवहार चाहता है, लेकिन कुछ लोग विनाश के सपने देख रहे हैं। उन्हें तो बस खुद को हिंदु और मुसलमान दिखाने के महारोग ने जकड़ रखा है। जहां मन पहले से शंकाग्रस्त हो, आहत हो, भरोसे की डोर कमजोर हो चुकी हो, वहां पर अपने हित में हुए फैसलों में भी साजिश की शंका होती है...और यही भारत देश में हो रहा है।

Thursday, February 10, 2022

पहेली...

    अमेरिका के न्यूयार्क में रहते हैं शौकीन मस्तमौला पुरुष माइकल अमोइया। माइकल को अपने शरीर पर टैटू बनवाने का ऐसा भूत सवार हुआ कि उन्होंने अपने शरीर पर कीड़ों के 864 टैटू बनवाकर गिनिज वर्ल्ड रिकॉर्ड बुक में अपना नाम दर्ज करा लिया। माइकल का पूरा शरीर टैटू से भर चुका है। फिर भी अपने शरीर पर टैटू बनवाने की उनकी तमन्ना में विराम नहीं लगा है। जब वे मात्र इक्कीस बरस के थे, तब उन्होंने पहली बार अपनी बांह पर लाल चींटी का टैटू बनवाया था। फिर उसके बाद तो उन्हें इसका चस्का ही लग गया। माइकल के बारे में बड़ी दिलचस्प और चौंकाने वाली जानकारी यह भी है कि उन्हें कीड़ों से सख्त घृणा है। बचपन में किसी कीड़े ने उनके जिस्म को काट खाया था, तभी से उनके मन में कीड़ों के प्रति भय और नफरत ने स्थायी जगह बना ली। माइकल के शरीर पर इतने अधिक कीड़ों के टैटू देखकर कोई भी यह मानने लगता है कि इस शख्स को कीड़ों से बेइंतहा प्यार... मुहब्बत है, लेकिन माइकल हर किसी को बता नहीं सकता कि असली सच क्या है...। सच तो यह भी है कि वह सभी को हकीकत से रूबरू नहीं कराना चाहता।
    सीताराम दास जैसा इंसान मैंने तो कभी नहीं देखा था। जब मिला तो बस देखता ही रह गया। उसका एक हाथ गायब है। इस हाथ को पंद्रह वर्ष पूर्व एक मगरमच्छ ने खा-पचा लिया था। कोई और होता तो वह मगरमच्छों का जानी दुश्मन बन जाता। सत्तर की उम्र पार कर चुका सीताराम तो किसी अलग मिट्टी का बना है। जिस मगरमच्छ ने उसे हमेशा-हमेशा के लिए अपंग बना दिया उसी की सेवा और देखभाल करना उसके जीवन का एकमात्र मकसद बनकर रह गया है। सीताराम से अगर आपको रूबरू मिलना है, तो छत्तीसगढ़ के कोटमी सोनार गांव में पहुंच जाएं। वह आपको यहां के भरे-पूरे तालाब के किनारे ‘‘आओ, आओ’’ की धीमी आवाज़ें लगाते दिख जाएगा। किसी मंत्र की तरह हवा में तैरने वाली उसकी स्वर लहरी के जादू का कुछ ऐसा असर होता है कि देखते ही देखते तीन मगरमच्छ उनकी तरफ इस तरह से मस्त-मस्त अंदाज में बढ़ने लगते हैं, जैसे उसके चरणों में लोटपोट हो जाना चाहते हों। इनमें एक मगरमच्छ, जिसकी लंबाई लगभग 10 फुट है वह किसी के भी मन में खौफ पैदा कर देता है, लेकिन सीताराम को अपना जन्मों-जन्मों का दोस्त... हितैषी मानता है। मगरमच्छों के करीब जाने से सभी को डर लगता है। सीताराम सभी को आश्वस्त करता रहता है, कि यदि हम जानवरों को नहीं छेडें तो वे भी अपने में मस्त रहते हैं। सीताराम को गांव के लोग बाबाजी कहकर बुलाते हैं। बाबाजी पक्षियों पर भी खूब जान छिड़कता है। घायल पक्षियों की जान बचाने के लिए अपने सुख-चैन की कुर्बानी देने में ज़रा भी देरी नहीं लगाता। बाबाजी मंदिर में पुजारी भी है। गायें पालने का भी उसे खासा शोक है। यह उसकी प्रेम भावना ही है, जो हिंसक जानवरों को भी अपना बना देती है। खूंखार से खूंखार जानवरों को प्यार-दुलार से अपने काबू में लाते देखकर अधिकांश लोग भी समझने लगे हैं कि यदि जानवरों को उकसाया नहीं जाए तो वे किसी पर भी आक्रमण नहीं करते।
    ‘घर की मुर्गी दाल बराबर’ जिसने भी इस कहावत को सबसे पहले गढ़ा, रचा और प्रचलन में लाया होगा उसका कहीं न कहीं ऐसे लोगों से वास्ता पड़ा होगा, जिन्हें दूर के ढोल सुहावने लगते हैं। बेगाने महान और अपने कमतर लगते हैं। मैंने जब 85 वर्षीय कात्सू सान के महात्मा गांधी और भारतवर्ष के प्रति अटूट समर्पण भाव के बारे में पढ़ा और जाना तो मुझे बरबस उपरोक्त कहावत याद हो आयी। अपने यहां ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो महात्मा गांधी की कमजोरियों का ढिंढोरा पीटते हुए खुद को बेहद अक्लमंद दर्शाते रहते हैं। जिस देश का अन्न खाते हैं उसी से गद्दारी करने से भी नहीं चूकते। भारत माता की गोद में जन्मने को वे अपनी बदकिस्मती मानते हैं। जापान में जन्मीं कात्सू सन 1956 में भारतवर्ष में आईं तो थीं भगवान बुद्ध की खोज में, लेकिन महात्मा गांधी के विचारों से इस कदर प्रभावित हुईं कि अपने देश जापान को ही भुला बैठीं। उन्होंने यहीं बसने का पक्का इरादा कर लिया। अब तो कात्सू ने हिंदुस्तान को अपना देश मान लिया है, यहीं जीना और मरना है। वे हर वर्ष 30 जनवरी को राजघाट जाती हैं। शाम को गांधी दर्शन में होने वाली सर्वधर्म प्रार्थना सभा में जाना भी नहीं भूलतीं। उन्हें साफ-सुथरी हिंदी बोलते देख कोई भी उन्हें विदेशी नहीं कह सकता। जबसे उनका भारत भूमि पर आगमन हुआ है, तभी से गांधी साहित्य के गहन अध्ययन में लगी हैं। सच्ची गांधीवादी कात्सू कहती हैं, कि गांधी का यह भारत देश सारे संसार का आध्यात्मिक गुरु है। मुझे तो दुनिया में और कोई देश नज़र ही नहीं आता, जहां भारत की तरह सभी धर्मों का जी-जान से सम्मान किया जाता हो। यहां के लोगों में जो सादगी और सहनशीलता है वह और कहीं दुर्लभ है। हिन्द के अनेकों ग्रामों, कस्बों, नगरों, महानगरों में भ्रमण करने वाली कात्सू सान लिखती हैं कि भगवान बुद्ध और गांधी के रास्ते एक जैसे ही हैं। इन दोनों ने ही दीन-दुखियों का कल्याण करने तथा अन्याय को मिटाने के लिए अपना पूरा जीवन समर्पित कर दिया। जब तक यह सृष्टि है, तब तक दोनों जिन्दा रहेंगे। हमेशा नौजवानों की तरह उत्साहित रहने वाली गांधीवादी कात्सू बहन दिल्ली में स्थित विश्व शांति स्तूप में अक्सर दिखायी दे जाती हैं। उनका नमस्कार कहने और करने का अंदाज हर मिलने वाले पर अपना अटूट प्रभाव छोड़ जाता है।

Thursday, February 3, 2022

जय हिन्द

    इन तीन खबरों ने मन-मस्तिष्क में जो तस्वीर बनाई उसे मैं आपको भी दिखाने को आतुर हूं। इन बोलती तस्वीरों ने जितना कुछ बताया और समझाया उतनी क्षमता तो विद्वानों की लिखी पचासों किताबों में भी नहीं दिखी। अपने छोटे-बड़े जीवनकाल में मनुष्य कहां-कहां नहीं भटकता। दिन-रात पता नहीं कैसे-कैसे विचार उसके मन-मस्तिष्क में हलचल मचाये रहते हैं। आज के दौर की भागदौड़ की जिन्दगी और आगे बढ़ने की अंधी प्रतिस्पर्धा में शामिल रहने की ललक ने आम इंसान के जीवन को तनाव और अवसाद से भर दिया है। जिसे देखो, वही असंतोष और घबराहट की कैद में छटपटाता प्रतीत होता है। भगवद गीता कहती है कि जो जिन्दा है उसकी मौत भी तय है। इसलिए जो होना है उसके लिए चिंतित और दुखी होना व्यर्थ है। फिर भी अनेकों इंसान मौत के भय में जकड़े हैं। ऐसे लोगों की भीड़ में ऐसे लोग भी हैं, जो कल की चिंता का त्याग कर आज के पल-पल का आनंद लेने में यकीन रखते हैं। वे खूब मेहनत कर कमाते हैं। अच्छा भोजन करते। अपने मनपसंद कपड़े पहनते हैं। देश-दुनिया की यात्राएं करते हैं। प्रकृति की अलौकिक सुंदरता का आनंद उठाते हैं और अपने परिवार की खुशियों के लिए कोई भी कुर्बानी देने को तत्पर रहते हैं। उनके पास लोगों की बातें और शिकायतें सुनने की फुर्सत नहीं।
    किसे क्या अच्छा लगता है, बता पाना आसान नहीं। यहां हर जिन्दा इंसान की अपनी-अपनी इच्छा, चाहत, जरूरत और पसंद है। छत्तीसगढ़ के शहर राजनांदगांव के करोड़पति डाकलिया परिवार के पांच सदस्यों ने बीते हफ्ते अपने तमाम सुख, धन, दौलत और सम्पत्ति का त्याग कर दीक्षा ले ली। देश के महान साधु-संत हमेशा कहते आये हैं कि यह सारा संसार मिथ्या है। क्षणभंगुर है। यहां की घोर आपाधापी में मनुष्य करोड़ों की माया जुटाता है। इसके लिए कई बार मान-मर्यादायें भी दांव पर लगा देता है, लेकिन जब ऊपर वाले का बुलावा आता है, तो उसे सबकुछ छोड़कर खाली हाथ ही जाना पड़ता है। इसी तरह के उपदेशों को सुनते-सुनाते तो कई लोग हैं, लेकिन अपनी खून-पसीने की कमायी और भौतिक सुख-सुविधाओं को सदा-सदा के लिए त्यागने की हिम्मत विरले ही दिखाते हैं। कोई भी त्याग बहुत बड़ा हौसला और धैर्य मांगता है, जो हर किसी में नहीं होता।
    डाकलिया परिवार का 2011 में जब रायपुर स्थित कैवल्यधाम की यात्रा पर जाना हुआ था, तभी उनके परिवार के सबसे छोटे बच्चे हर्षित के मन में दीक्षा लेने का विचार आया था। मात्र छह साल के मासूम बच्चे के मन-मस्तिष्क में मायावी संसार से दूरियां बनाने का भाव कालांतर में भी बना रहा। उसने तब गुरु के सानिध्य में खुशी-खुशी अपना केशलोचन कराया था। साहसी और सहनशील हर्षित से ही प्रेरित होकर परिवार के अन्य चार बच्चों के मन में भी दीक्षा लेने की इच्छा बलवति हुई थी। तब बच्चों की उम्र दीक्षा लेने के लायक नहीं थी इसलिए उनके और परिपक्व होने की राह देखी गई। दस साल बाद जब वे सभी सबकुछ जानने-समझने लगे और उनकी दीक्षा लेने की ललक में कोई कमी नहीं आयी तो परिवार के पांच सदस्यों ने दीक्षा लेने का अंतिम फैसला करते हुए जगत की मोहमाया का हमेशा-हमेशा के लिए त्याग करते हुए संयम के पथ को अपना लिया। उन्होंने अपनी 30 करोड़ की संपत्ति भी समाज कल्याण के लिए दान कर दी।
ब्रिटेन के निवासी ब्रायन चोर्ले 83 साल के हो चुके हैं। यह वो उम्र है जब लगभग हर आदमी खुद को थका पाता है। हाथ-पांव जवाब दे देते हैं। कई तो बिस्तर ही पकड़ लेते हैं, लेकिन ब्रायन आज भी भागदौड़ करते नज़र आते हैं। वे थकना नहीं सतत चलना चाहते हैं। धन कमाने की अपार चाह में सत्तर वर्ष पूर्व जिस जूता फैक्टरी में 15 साल के ब्रायन ने काम करना शुरू किया था आज उसका चेहरा-मोहरा बदल चुका है, लेकिन ब्रायन नहीं बदले। कितनी भी ठंड हो, गर्मी हो या फिर बरसात और आंधी तूफान का बवंडर हो, लेकिन ब्रायन कभी छुट्टी नहीं लेते। आठ साल पहले पत्नी को हमेशा-हमेशा के लिए खोने के बाद भी इस उम्रदराज ने मातम और अकेलेपन की स्याह चादर ओढ़ने की बजाय अपने कार्य और कर्तव्य को ही अपना धर्म मानने की परंपरा से मुंह नहीं मोड़ा। लॉकडाउन में जब कुछ समय के लिए फैक्टरी का काम बंद हुआ था तब भी वे हाथ पर हाथ धरे बैठे नहीं रहे। तब फैक्टरी के शापिंग सेंटर में तब्दील होने पर वे कतई नहीं घबराये। उन्होंने युवकों की तरह नये काम को ठीक से समझा और भरपूर ट्रेनिंग लेने के बाद शापिंग सेंटर में युवकों की तरह काम करने लगे।
    कई सवाल ऐसे होते हैं, जिनके जवाब भी जीते-जागते इंसान होते हैं। डॉक्टर जयदीप शर्मा से वाकिफ होने के बाद मैंने तो यही माना है। 29 वर्ष पूर्व ट्रक से कुचले जाने के बाद उनका पूरा परिवार खत्म हो गया। वे स्वयं बच तो गये, लेकिन वह बचना नहीं था। उनके शरीर के अंग-अंग के चिथड़े उड़ चुके थे। आखों की रोशनी भी चली गई थी। जब उन्हें अस्पताल में लाया गया तब डॉक्टरों ने उनकी हालत देखकर उन्हें मृत मान लिया था, लेकिन उनकी सांसें चल रहीं थीं। इन्हीं चलती सांसों ने ही डॉक्टरों को कुछ हौसला दिया। शर्मा तो बेहोश थे। मेडिकल साइंस ने इस बेहोशी को ‘कोमा’ का नाम दे रखा है, जिसकी गिरफ्त में आने के बाद कम ही किस्मत वाले होते हैं, जो फिर से आंखें खोल पाते हैं। पूरे साढ़े नौ साल तक लगभग मृत रहे डॉ. शर्मा को डॉक्टरों ने अथाह मेहनत कर एक नया चेहरा दिया, जो पहले वाले चेहरे से एकदम जुदा था। उनका अंग-अंग नकली है। यहां तक कि हाथ-पैर भी। किस्मत से आंखों की रोशनी भी वापस मिल गई।
घर लौटने पर उन्होंने जब आइना देखा, तो खुद को पहचान ही नहीं पाये। डॉ. जयदीप शर्मा को फिर से जिंदा करने के लिए छप्पन लोगों ने अपना खून दिया। खून देने वालों को पता ही नहीं था कि वे किसे खून दे रहे हैं। वे सभी भारतीय थे। उनका किसी धर्म और मजहब से कोई वास्ता नहीं था। इंसानियत ही उनका धर्म था। हिन्द के शरीर की नस-नस में इन्हीं भारतीयों का खून दौड़ रहा है। अपने हिंदुस्तान में कुछ विघ्न संतोषी, अंधे और बहरे लोग हैं, जिनकी निगाह इस तस्वीर पर कभी नहीं जाती। उन्हें तो बस यही लगता है कि देश जातीयता, धर्मांधता, नफरत और भेदभाव के गर्त में समाता चला जा रहा है, जबकि सच तो यही है कि चंद लोग ही अलगाव और हिंसा प्रेमी हैं, जो नाथूराम गोडसे के नाम की पताका फहराने की दुष्टता करते रहते हैं। लेकिन फिर भी महात्मा गांधी की प्रतिष्ठा और कद दिन-ब-दिन ऊंचा और ऊंचा होता चला जा रहा है। निष्पाप, निस्वार्थ, अमनप्रेमी और आत्मीयता से लबालब असंख्य भारतीयों की बदौलत ही लाख षडयंत्रों के बाद भी हिंद में इंसानियत जिन्दा है और भविष्य में भी उसका कभी बाल भी बांका नहीं हो सकता।