Thursday, December 29, 2022

विजय-पराजय

चित्र-1 : आजकल कुछ लोगों को देश के महापुरुषों की बुराई करने का रोग लग गया है। वे दिन-रात बस इसी काम में लगे रहते हैं। उनके इस दुष्ट कर्म से न जाने कितने भारतीयों को तकलीफ और पीड़ा होती है, बेहद गुस्सा भी आता है, लेकिन बकवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के एक युवक को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति दुर्भावना तथा उनके हत्यारे नाथू राम गोडसे के प्रति अपार सद्भावना दर्शाने वाले चंद लोगों पर इतना गुस्सा आया था कि वह मरने-मारने पर उतर आया था। सोशल मीडिया के इस जमाने में ऐसी घृणित शर्मनाक करतबबाजी बहुत उफान पर है। बीते शुक्रवार की दोपहर कविता चव्हाण नामक एक 28 वर्षीय युवती हाथ में केरोसिन से भरी बोतल और माचिस लेकर विधानभवन के सामने पहुंची। वहीं खड़े-खड़े उसने खुद पर केरोसिन उंड़ेला और तीली जलाकर खुद को आग के हवाले करने जा ही रही थी कि तभी अचानक पुलिस वालों की उस पर नजर पड़ गई। उन्होंने फौरन उसके हाथ से माचिस और केरोसीन की बोतल झपटी और उसे अपने कब्जे में लिया। यदि थोड़ी सी भी देरी हो जाती तो विधानभवन की छाती पर दिल दहलाने वाला आत्मदाह हो जाता, जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनायी देती। अपने शरीर को जलाकर खुदकुशी करने के इरादे के साथ लगभग 685 कि.मी. की दूरी तय कर सोलापुर से नागपुर पहुंची कविता चव्हाण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ पत्रकार भी है। पिछले कुछ दिनों से देश के महापुरुषों के बारे में अपमानजनक शब्दावली पढ़ और सुन-सुन कर उसका मन बहुत आहत हो चुका था। राजनीति के बड़बोले खिलाड़ियों के द्वारा जानबूझकर संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, महात्मा फुले, शिवाजी महाराज आदि की, की जा रही  अवमानना से उसे बहुत गहरी चोट पहुंची थी। उसे लगने लगा था कि गेंडे की सी मोटी चमड़ी वाले बेशर्म, बदजुबान नेताओं पर उसकी कलम की तलवार कोई असर नहीं डाल पा रही है तो उसने खुद को ही सज़ा देने की ठान ली और मौत का सामान लेकर वहां जा पहुंची, जहां मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ तमाम मंत्रियों तथा विधायकों का मेला लगा था।

चित्र-2 : मात्र 14 बरस की उम्र में ‘भारत का वीर महाराणा प्रताप’ धारावाहिक तथा कालांतर में कुछ फिल्मों में अपने अभिनय से प्रभावित करने वाली 21 वर्षीय अभिनेत्री तुनिशा शर्मा ने पंखे से लटक कर खुदकुशी कर ली। तुनिशा ने फांसी लगाने से करीब पांच घण्टे पूर्व इंस्टाग्राम पर अपनी मुस्कराती फोटो शेयर करते हुए लिखा था, जो जुनून से आगे बढ़ते हैं, वो रुकते नहीं। ऐसी सोच के साथ जीने वाली युवती का मौत की बांहों में झूल जाना अचम्भे में डाल देता है। संजना सातपुते। उम्र 20 वर्ष। यह उम्र जोशोखरोश के साथ जीने और हर विपत्ति से लड़ने के लिए होती है। सिक्के के दो पहलुओं की तरह हार-जीत तो लगी रहती है। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बावजूद दसवीं में 85 प्रतिशत और बारहवीं में भी अच्छे खासे नंबर पाने वाली संजना ने बीएससी में दाखिला ले लिया था, लेकिन कोविड काल में पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से सबकुछ गड़बड़ होता चला गया। तब पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से वह बीएससी की शिक्षा पूर्ण नहीं कर सकी। उसके बाद उसने कम्प्यूटर क्लास में भी प्रवेश लिया। आर्थिक बाधाएं और अन्य मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं, लेकिन फिर भी संजना को देखकर यही लगता था कि वह टूटेगी नहीं। अपने सपनों को साकार करके ही दम लेगी। माता-पिता को भी अपनी परिश्रमी बेटी पर पूरा यकीन था। 15 दिसंबर, 2022 को अपने सभी प्रमाणपत्रों और दस्तावेजों को आग में राख करने के बाद जब उसने खुदकुशी की तो सभी हैरत में पड़ गये। इतनी साहसी और हिम्मती लड़की ने यह क्या कर डाला? उससे तो ऐसी कतई उम्मीद नहीं थी। सभी को वो दिन याद हो आए जब संजना ने एसटी का पास बनवाने तथा ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल खरीदने के लिए हफ्तों अपना खून-पसीना बहाकर रुपये जमा किये थे। अपने साथ पढ़ने वाली एक छात्रा पर अभद्र छींटाकशी करने वाले सड़क छाप मजनू की भरे चौराहे पर धुनायी तक कर दी थी। हर चुनौती का डटकर सामना करने वाली इस लड़की की खुदकुशी हर विचारवान भारतीय को तो चिंतित करने वाली है ही तथा बेटियों को शिक्षित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएं शुरू करने की घोषणाएं करने वाली सरकार की घोर असफलता का प्रमाण तथा जीवंत दस्तावेज है संजना की आत्महत्या। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकारी प्रचार और नारे के खोखलेपन का भी जीता-जागता सबूत है।

चित्र - 3 : हाथ-पैर और शरीर के सभी अंग सही सलामत हों तो किसी भी उपलब्धि को हासिल कर लेना सहज बात है, लेकिन दिव्यांग होते हुए भी लोगों की सहायता करना और प्रेरणास्त्रोत बनना बच्चों का खेल नहीं। 45 वर्षीय सोदामिनी पेठे खुद सुन नहीं सकतीं, फिर भी बधिरों का बुलंद स्वर बन चुकी हैं। सोदामिनी देश की पहली बधिर वकील हैं। फरीदाबाद के विधि और शोध संस्था से वकालत की पढ़ाई करने वाली सोदामिनी बधिरों को अदालतों में इंसाफ दिलाने के लिए कमर कस चुकी हैं। एडवोकेट सोदामिनी सांकेतिक भाषा में बताती हैं : बधिर होने की वजह से उन्हें पग-पग पर तकलीफें और परेशानियां झेलनी पड़ीं। इसी दौरान दिल्ली में वकालत पर हुई एक कार्यशाला के दौरान उन्होंने एक बधिर वकील को देखा, जो अमेरिका की नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ के सीईओ थे। वे उनसे काफी प्रभावित हुईं। उनके लिए यह जानकारी भी अत्यंत चौंकाने वाली थी कि अमेरिका में पांच सौ से ज्यादा बधिर वकील हैं, जो दुभाषिए के माध्यम से अदालतों में अपने मामलों की बहस करते हैं। तब उसे कई उन बधिरों की याद हो आयी, जिन्हें अपनी अदालती समस्याएं सुलझाने के लिए वकील नहीं मिलते। कोई भी उनकी सांकेतिक भाषा को समझने के लिए अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। तभी सोदामिनी ने पक्का निर्णय कर लिया कि मुझे भी कानून की पढ़ाई कर बधिरों की सहायता करनी है। सोदामिनी के माता-पिता और भाई-बहन सुन और बोल सकते हैं। उनके पति भी उन्हीं की तरह बधिर हैं और उनका 15 साल का बेटा भी सुन बोल सकता है। सोदामिनी भी नौ साल की उम्र तक अच्छी तरह से सुन-बोल सकती थीं, लेकिन दिमागी बुखार ने उनकी यह हालत बना दी, लेकिन तब तक वह शुरुआती भाषा सीख चुकी थीं, इसलिए उन्होंने बोलने और सुनने में सक्षम बच्चों के स्कूल में पढ़ाई की। हालांकि उस समय तक वह बधिरों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सांकेतिक भाषा नहीं जानती थीं। उन्होंने बधिरों से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया और नोएडा डेफ सोसायटी से जुड़ गईं। वहां पर सब लोग बिना बोले ही सांकेतिक भाषा में ढेर सारी बातें किया करते थे। इस माहौल ने उन्हें एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर दिया। आज के मतलबपरस्त, आपाधापी और छलांगे मारते समय में हर कोई अपनी ही चिंता करता है। जो लोग हर तरह से तंदुरुस्त और सक्षम हैं, वे भी दूसरों की सहायता के लिए समय नहीं निकाल पाते या निकालना नहीं चाहते, लेकिन सोदामिनी ने खुद बधिर होने के बावजूद अन्य बधिरों की परेशानियों को जानने-समझने के बाद यह जो निर्णय लिया है वह यकीनन काबिले तारीफ और वंदनीय है।

Thursday, December 22, 2022

कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

     बिहार में जहरीली शराब ने फिर 80 से ज्यादा लोगों को मौत की नींद दे दी और कइयों को तड़पने और मरने के लिए अस्पताल पहुंचा दिया। फिर वही हुआ जो हमेशा होता आया है। आरोप-प्रत्यारोप की नाटक-नौटंकी और शोर शराबा। विपक्षी पार्टी भाजपा ने नीतीश सरकार को घेरने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली। सवालों के गोले दागे जाने लगे। जब शराब बंदी है तो शराब पीकर लोगों की मौत कैसे हो गई? कहां से मिली उन्हें शराब? यह मौतें नहीं, नरसंहार है। सरकार को हर मृतक को चार लाख का मुआवजा देना ही होगा। नीतीश के एक मंत्री ने तुनकते और उछलते हुए कहा कि जहरीली शराब पीकर जो मरे हैं वे सरकार से पूछ कर तो नहीं पीने गए थे। उन्हें पता तो होगा ही कि प्रदेश में दारू पीने पर पूरी बंदिश है। जिनकी गलती है, वही भुगतें। आपा खो चुके मुख्यमंत्री ने चीख-चीख कर कहा, ‘‘पियोगे तो मरोगे ही। पियक्कड़ों को तो भगवान भी नहीं बचा सकता। मैं तो अदना-सा इंसान हूं। मैंने अपने बिहार की जनता के भले के लिए शराब बंदी लागू की है। शराब बंदी के बाद मेरे प्रदेश की मां-बहन, बेटियां सभी खुश हैं। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोगों ने शराब पीनी छोड़ दी है। जो मेहनत का पैसा कभी शराब की भेंट चढ़ जाता था अब वो बच्चों की शिक्षा, सेहत में खर्च हो रहा है। लोगों का रहन-सहन सुधरा है। अपराधों में कमी आयी है। हमारे विरोधी अक्ल और आंख के अंधे लगते हैं। मैं ही उन्हें बताये देता हूं कि देश के दूसरे प्रदेशों में भी ज़हरीली शराब पीकर लोग मरते रहते हैं। इसलिए वे मेरी सरकार के विरोध की नाटक-नौटंकी से बाज आएं। यही विरोधी जब हमारे साथ थे तब तो इन्होंने शराब बंदी का खुलकर समर्थन किया था। और हां, मेरे प्रदेश में शराब पीकर मरने वालों को किसी भी हालत में मुआवजा नहीं दिया जाएगा।’’ 

    बीते वर्ष भी जब देशवासी जगमग दिवाली की खुशियां मना रहे थे, तब भी शराब बंदी वाले प्रदेश बिहार में नकली शराब पीकर लगभग चालीस लोग परलोक सिधार गये थे। कई पियक्कड़ों की आंखों की रोशनी हमेशा-हमेशा के लिए छिन गई थी। बिहार सरकार ने पांच अप्रैल, 2016 में ही शराब के उत्पादन, व्यापार, भंडारण, परिवहन, विपणन और सेवन पर इस इरादे से रोक लगायी कि जो लोग शराब पीकर अपना बसा-बसाया घर उजाड़ देते हैं, उनके घर परिवार की औरतें और बच्चे अभावों और तकलीफों की मार झेलने को विवश हो जाते हैं, उन्हें जब शराब ही नहीं मिलेगी तो पैसा बचेगा और उनकी कंगाली दूर हो जाएगी। परिवार खुशहाल हो जाएंगे। शराब बंदी के बाद कई लोगों की जिन्दगी सुधर गई। उन्होंने सरकार का शुक्रिया और आभार भी माना, लेकिन जो अखंड पियक्कड़ थे वे खुद पर अंकुश नहीं लगा पाये। उनकी पीने की लत जस की तस बनी रही। होना तो यह चाहिए था कि शराब बंदी लागू होने के बाद पूरे बिहार प्रदेश में शराब का नामों-निशान ही नहीं रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वैध शराब की दुकानों पर ताले लगते ही तस्करों ने शराब के कारोबार की कमान संभाल ली। पुलिस की नाक के नीचे शराब बनने और बिकने लगी। कहीं असली तो कहीं नकली। जहरीली शराब पीकर मौत के मुंह में समाने वालों की खबरें भी आने लगीं। इन मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। साथ ही कई विद्वानों, बुद्धिजीवियों के बयान भी आने लगे कि सरकार कौन होती है शराब पर पाबंदी लगाने वाली? यह तो सीधे-सीधे नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर चोट है। घोर नाइंसाफी है। जो लोग वर्षों से शराब पीते चले आ रहे हैं उनसे आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे एकाएक पीना छोड़ देंगे। शराब के पक्ष में अपने-अपने तर्क रखने वालों में ज्यादा संख्या उनकी थी, जो शराब बंदी के पक्ष में थे, लेकिन यह भी सच है कि सरकार ने शराब बंदी तो कर दी, लेकिन जगह-जगह अवैध शराब के बनने और बिकने-बिकवाने पर पूरी तरह बंदिश लगाने में असफल रही। तब भी मुख्यमंत्री महोदय का बयान आया था कि आखिर लोगों को शराब कैसे मिल जाती है? शराब बंदी कानून की समीक्षा की जाएगी। 

    जहां पर प्रशासन और माफिया मिले हुए हों वहां मुख्यमंत्री का ऐसा खोखला और बनावटी बयान गुस्सा दिलाता है। आप किसे मूर्ख बना रहे हैं सीएम साहब! आप राजनीति के चाणक्य कहलाते हैं, दूरबीन के बिना भी आपको दूर-दूर तक दिखायी देता है। आपको सब पता है। आप जानते हैं कि आपकी अधिकांश पुलिस तथा आबकारी विभाग बिका हुआ है। कुछ मंत्री भी शराब माफियाओं से रिश्वत की थैलियां पा कर खुश और संतुष्ट हैं। बड़े-बड़े शराब माफियाओं, तस्करों और असली-नकली शराब के निर्माताओं तथा धंधेबाजों को तमाम ऊंचे लोगों का पूरा संरक्षण मिला हुआ है। तभी तो जब से प्रदेश में शराब बंदी हुई है, तभी से अखंड पियक्कड़ों को शराब मिलती चली आ रही है। जहरीली शराब पीकर हर बार गरीब ही मरते हैं। अमीरों को तो उनकी मनपसंद महंगी शराब उनके घर तक पहुंचा दी जाती है। आपका शराब बंदी का कानून भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। अवैध, नकली और सस्ती-कच्ची शराब, शराब बंदी से पहले भी नशेड़ियों को परलोक पहुंचाती थी और आज भी जान की दुश्मन बनी हुई है। 

जब शराब की दुकानों पर कानूनन ताले लग चुके हैं तब किसी को भी पीने के लिए शराब नहीं मिलनी चाहिए। यदि मिलती है, तो यह शासन और प्रशासन की घोर विफलता है। शराब के नशे के गुलामों को कहां पता होता है कि वे शराब के नाम पर जहर पीने जा रहे हैं। यह कहर तो अचानक टूटता है। तब पियक्कड़ों की भी नींद टूटती है। जब तक कोई बड़ा धमाका नहीं होता तब तक शासन और प्रशासन भी बेफिक्र रहता है। जहरीली शराब पीकर मरने वालों की कतारें लगते ही सरकारी बंदोबस्त की दौड़ धूप शुरू हो जाती है। खेतों, खलिहानों, जंगलों, नदियों तथा तालाबों के आसपास अवैध शराब बनाने की भट्टियां नजर आने लगती हैं। नकली शराब के कारखानों का भंडाफोड़ हो जाता है। तोड़फोड़ होती भी दिखती है, लेकिन उनका क्या जिनकी जहरीली शराब पीने से मौत हो चुकी होती है? उनके परिवारों का क्या कसूर जिन्होंने सरकार की अक्षमता और लापरवाही के चलते अपने पिता, भाई चाचा आदि को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। क्या अब यह भूखे मर जाएं? हाथ में कटोरा लेकर भीख मांगने को निकल पड़ें? मुख्यमंत्री महोदय अब आप ही तय करें कि आपको क्या करना है। शराब बंदी कानून को यदि सफलतापूर्वक आप लागू नहीं करवा सकते तो यह आपकी घोर असफलता का ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसके पन्ने तब-तब खोले जाते रहेंगे, जब-जब विषैली शराब पीने वालों की जान और उनकी आंखों की रोशनी छिनती रहेगी और उनके परिवार वाले रोते-कलपते रहेंगे। तब-तब आपको भी कसूरवार मानकर कोसा जाता रहेगा कि कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

Thursday, December 15, 2022

वो रक्त से सना मंज़र

     महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में विधानभवन के निकट 23 नवंबर 1994 की शाम जिस तरह से निर्दोषों का खून बहा और उन्हें मौत की नींद मिली, उसकी मिसाल इतिहास में कम ही देखने-पढ़ने को मिलती है। सत्ताधीशों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और प्रशासकीय अव्यवस्था के कारण देश का लोकतंत्र पहले भी कई बार आहत हुआ है। तब शीत सत्र के दौरान गोवारी समाज का विशाल मोर्चा अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरा था। उनकी प्रमुख मांग थी कि उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाए। सुबह से भीड़ जुटने लगी थी, शाम होते-होते तक भीड़ बहुत बढ़ चुकी थी। तभी अचानक विधानभवन से कुछ ही दूर मॉरिस कॉलेज टी प्वॉइंट पर ऐसी भगदड़ मची कि लोग इधर-उधर भागने लगे। बेतहाशा शोर-शराबा होने लगा। शांत मोर्चा अशांति की गिरफ्त में आ गया। तब शाम के लगभग छह बजे थे। बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पहले तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया फिर गोलीबारी की, जिसमें 114 बेकसूर लोगों की मौत हो गयी और लगभग पांच सौ लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए। मृतकों और जख्मी होने वालों में स्त्री-पुरूष, बच्चों, युवक, युवतियों तथा वृद्ध-वृद्धाओं का समावेश था। गोवारी नेता सुधाकर गजबे के नेतृत्व में अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर यह विशाल मोर्चा आयोजित किया गया था। 23 नवंबर की सुबह से ही ट्रकों, बसों एवं पैदल पूरे विदर्भ से बच्चे, बूढ़े, जवान नागपुर आने शुरू हो गये थे। सभी आशान्वित थे कि वे अपनी एकजुटता दर्शाकर सरकार को यह विश्वास दिलाने में सफल होंगे कि अब गोवारी समाज को अनदेखा करना संभव नहीं है। लोकतंत्र में अपनी बात कहने का सभी को हक है और फिर यह तो शासन से एक छोटी-सी गलती सुधारने की मांग के लिए एक शांतिपूर्ण मोर्चा था। ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र शासन के 24 अप्रैल 1985 के जी.आर. में गोंड गोवारी के बीच में मात्र एक कामा नहीं लगने से गोवारी समाज को अनुसूचित समाज में नहीं गिना गया। शासन से कई बार इस छोटी-सी गलती को सुधारने की मांग की गयी। पर शासन ने ध्यान देना कतई जरूरी नहीं समझा। शाम पांच बजे तक गोवारी समाज के लगभग पचास हजार स्त्री-पुरुष एवं बच्चों का यह मोर्चा पूरी तरह से नियंत्रित एवं शांत था। उत्साही भोलीभाली जनता की इस विशाल भीड़ को गोवारी नेता संबोधित कर रहे थे। गोवारी नेताओं के साथ-साथ मोर्चे में शामिल भूखी प्यासी भीड़ को पूरा यकीन था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उनकी फरियाद सुनने के लिए उन तक अवश्य पहुंचेंगे। वक्त बीतता चला जा रहा था...। मोर्चे के नेताओं ने बार-बार पुलिस अधिकारियों से निवेदन किया कि वे अपनी बात मंत्रियों तक पहुंचाना चाहते हैं, चूंकि प्रदेश के लगभग सभी मंत्रीगण विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भाग लेने के लिए नागपुर आये हुए हैं, यदि अब भी वे हमारे बीच न आ सकें तो फिर उनके यहां होने का क्या फायदा! मंत्रियों की राह देखते-देखते थक और निराश हो चुके मोर्चे में तनाव के लक्षण दिखायी देने लगे और फिर गोवारी नेताओं का आक्रोशभरा भाषण भी प्रारंभ हो गया। तनावपूर्ण वातावरण की गंभीरता को देखकर पुलिस अधिकारियों ने अपने अंतिम प्रयास के रूप में विधानसभा भवन में चर्चाओं में व्यस्त मंत्रियों के पास खबर भेजी कि स्थिति बिगड़ रही है इसलिए एक बार आंदोलनकारियों से आकर मिल लें। पर किसी भी मंत्री के कान पर जूं तक नहीं रेंगी, जबकि आदिवासी विकास मंत्री मधुकरराव पिचड़ का दायित्व था कि वे आदिवासी भाइयों की फरियाद सुनने के लिए दौड़े चले आते। पर वे तो अपनी ही मस्ती में डूबे थे। उनके चाटुकारों ने उन्हें घेर रखा था। चुटकलेबाजी चल रही थी। मंत्री जी के कमरे में ठहाके गूंज रहे थे। लगभग साढ़े पांच बजे के आसपास नेताओं ने महिलाओं एवं बच्चों को मोर्चे के आगे लाकर खड़ा कर दिया। देखते ही देखते चार हजार से अधिक महिलाएं, छोटी लड़कियां, लड़के तथा निरीह और मासूम बच्चे मोर्चे के आगे एकत्रित हो गये। इसी बीच अचानक भीड़ में से किसी सिरफिरे ने बैरिकेट उठाकर पुलिस कर्मचारियों पर फेंक दिया। इस घटना के तुरंत बाद पुलिस और एस.आर.पी. के जवानों ने बिना कुछ विचारे लाठीचार्ज करना प्रारंभ कर दिया। लाठीचार्ज शुरू होते ही ऐसी भगदड़ मची, जैसे कोई भूचाल आ गया हो। अनियंत्रित और घबरायी भीड़ को जहां रास्ता दिखा वहां भागने लगी। इस भागदौड़ में मोर्चे के आगे एकत्रित हुए छोटे-छोटे बच्चों एवं महिलाओं का बहुत बुरा हाल हुआ। हजारों की भीड़ उन्हें कुचलते-मसलते और रौंदते हुए भागने लगी और सामने चप्पे-चप्पे पर खड़ी पुलिस की गोलियों, लाठियों की मार और भय भी मौत का भयंकर कारण बना। 

    सात बजते-बजते तक कई लाशें बिछ चुकी थीं। लगभग डेढ़ घंटे तक कई घायल कराहते रहे और अंतत: वे मौत के मुंह में समा गये। अब तो खाकी वर्दीधारी भी बेबस नज़र आ रहे थे। कुछ देर के बाद उन्होंने लाशों को जानवरों की तरह एस.टी. की बसों में भरना शुरू कर दिया। एक के ऊपर दूसरी और तीसरी लाश बेरहमी से फेंकी जाने लगी, जिनमें थोड़ी-बहुत जान बची थी, उन्होंने भी मेडिकल कॉलेज पहुंचते-पहुंचते तक दम तोड़ दिया।  23 नवंबर बुधवार की उस रात मेडिकल कॉलेज के परिसर में बिखरी लाशों को देखकर पत्थर से पत्थर दिल इंसान के भी आंसू बहने लगे थे। कई लोगों की रुलाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। मौत भी अपनी इस दुर्गति पर छाती पीट रही थी। हजारों रोते बिलखते स्त्री, पुरुषों और बच्चों के कारण पूरा अस्पताल श्मशानघाट लग रहा था। लोग अपने सगे संबंधियों की लाशें तलाश रहे थे और इस पीड़ादायक और रोंगटे खड़े कर देनेवाले मंजर ने साक्षात नरक को नागपुर में लाकर बैठा दिया था। इसी तरह से लाशों और घायलों को नागपुर के मेयो अस्पताल भी पहुंचाया गया। मरने वालों में अधिकांश संख्या महिलाओं एवं बच्चों की थी। पुलिस प्रशासन का कहना था कि नेताओं के उकसावे में आकर मोर्चा देखते ही देखते उग्र तथा अनियंत्रित हो गया था। इसीलिए लाठीचार्ज करने को विवश होना पड़ा। अगर पुलिस लाठियां नहीं चलाती तो स्थिति और भी खतरनाक रूप धारण कर सकती थी। मोर्चे में शामिल कुछ लोगों ने पुलिस पर पथराव किया, इससे भी स्थिति बिगड़ी। किसी तरह से मौत का निवाला बनने से बच गये भुक्तभोगियों का कहना था कि अगर मोर्चे में शामिल हुए लोगों को हुल्लड़बाजी या पथराव ही करना था तो वह शाम होने का इंतजार क्यों करते! दिन भर सब कुछ शांत रहा और शाम को पुलिस लाठीचार्ज के बाद ही ये दिल दहलाने वाला खूनी मं़जर सामने आया। नागपुर में हर साल दिसंबर के महीने में सरकारी सर्कस यानी शीतकालीन सत्र का आयोजन होता है। इस सत्र को कायदे से चलना तो तीन सप्ताह तक चाहिए पर आठ-दस दिन में ही इसके तंबू उखड़ने शुरू हो जाते हैं। हर वर्ष महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में सरकार का राजधानी मुंबई से आगमन होता है। सच तो यह है कि शीत सत्र के नाम पर विधायकों, मंत्रियों, अधिकारियों और छोटे-बड़े नेताओं का ‘मेला’ लगता है। करोड़ों रुपये फूंक दिये जाते हैं और अंतत: उस विदर्भ को ठेंगा मिलता है, जिसके भले के लिए इतना बड़ा तामझाम किया जाता है। नागपुर में हर वर्ष शीतकालीन सत्र आयोजित किये जाने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है। बात उन दिनों की है, जब विदर्भ का महाराष्ट्र में विलय नहीं हुआ था। तब विदर्भ के नेताओं के परामर्श से एक समझौता हुआ था कि नागपुर को उपराजधानी बनाया जाए। नागपुर को यह सम्मान देने के पीछे कई उद्देश्य थे। विदर्भ की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करने और उन्हें सुलझाने के लिए हर साल छह सप्ताह का सत्र आयोजित करने का निर्णय लिया गया था, जो घटते-घटते तीन सप्ताह तक जा पहुंचा। हर साल मुख्यमंत्री, मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और कर्मचारियों का बंबई (मुंबई) से नागपुर आगमन होता है। विधानभवन के निकट ही सभी विधायकों के लिए दो कमरों के आवास बनाये गये हैं। हर वर्ष इन आवासों की साफ-सफाई और पुतायी की जाती है। नयी चादरें, गद्दे, तकिये, कंबल खरीदे जाते हैं। कम कीमत पर शाकाहारी तथा मांसाहारी लजीज से लजीज भोजन उपलब्ध कराया जाता है। विधानभवन के बाहर संतरे, मौसम्बी के जूस के स्टॉल भी लगाये जाते हैं। सैकड़ों अस्थायी कर्मचारियों को मंत्रियों, विधायकों की सेवा में झोंक दिया जाता है।

    114 गोवारियों की शहादत और अथाह संघर्ष के बाद मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने गोवारी ‘आदिवासी ही होने’ का फैसला सुनाया था, लेकिन लोकशाही आघाड़ी सरकार ने उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरोध में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे दी। इस पर उच्चतम न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश रद्द करने से गोवारियों के मुंह का निवाला छीनते हुए उन्हें फिर निराशा और चिंता में डाल दिया। शहादत और संघर्ष के 28 वर्ष बीत जाने के बाद भी वे न्याय पाने की राह ताक रहे हैं। गोवारियों की शहादत के बाद कई नये और पुराने जन्मजात मतलबी नेताओं को अपनी राजनीति की दुकानें चमकाने का सुअवसर मिल गया था। मृतकों को श्रद्धांजलि देने और उनके परिजनों को और अधिक मुआवजा राशि देने की मांग वाली प्रेस विज्ञप्तियां लेकर नये-नये चेहरे भी समाचार पत्रों के कार्यालयों में पहुंचने लगे थे। यह महारथी दो-चार किलो सेब, संतरे लेकर अपने फोटोग्राफर के साथ अस्पतालों में जाते और घायलों को मुस्कराते हुए फल प्रदान करते हुए फोटो खिंचवा अखबारों के दफ्तरों में पहुंच जाते थे। अपनी फोटो के साथ विज्ञप्ति छपवाने की उनमें होड़ लग गई थी। उनके लिए लोगों की निगाह में आने और छाने का यह सुनहरा मौका था। एक बार छपे तो फिर नाम और फोटो छपवाने का उन्हें रोग लग गया। कालांतर में यह छपास रोगी खुद को नेता समझने लगे। बड़े नेताओं के आगे-पीछे घूमने लगे। जो ज्यादा चतुर-चालाक थे वे पार्षद और विधायक भी बने। जिनमें लगन थी, जनहित का सच्चा जज़्बा था वे टिके रहे। बाकी अपनी जेबें भरने के बाद गायब हो गये। संतरा नगरी में कर्मठ नेताओं की कभी कमी नहीं रही। कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका वर्षों से प्रदेश और देश की राजनीति में डंका बज रहा है। हां, कुछ गोवारी नेताओं ने भी कुर्सी का सुख भोगते हुए खूब चांदी काटी। आम गोवारी आज भी ठगे से वहीं के वहीं हैं। नागपुर के जीरो मॉइल परिसर में शहीदों की याद में बनाए गए शहीद स्मारक पर प्रति वर्ष 23 नवंबर को लाखों गोवारी श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए आते हैं। एक बार फिर से न्याय पाने की उम्मीद, आकांक्षा और अटूट संकल्प की भावना के साथ अपने-अपने गांव लौट जाते हैं... श्रद्धांजलि देने के लिए नेताओं का भी अच्छा-खासा जमावड़ा लगता है।

Saturday, December 10, 2022

अब नहीं, तो कब बदलेंगे?

‘‘बहकना मत बेटियों
कुल को समझो खास।
पैंतीस टुकड़ों में कटा
श्रद्धा का विश्वास।
भरोसा मत कीजिए
सब पर आंखें मींच
स्वर्ण मृग के भेष में
आ सकता है मारीच...।’’

    बेटियों के वीभत्स और राक्षसी हत्याकांड की खबरें सिर्फ मां-बाप को ही नहीं दहलाती, डरातीं। हर संवेदनशील इंसान को भी चिंताग्रस्त कर उसकी नींद उड़ा देती हैं। श्रद्धा को अपने मोहपाश में बांधकर आफताब ने जो हैवानियत और दरिंदगी दिखायी, उससे जवान बेटियों के माता-पिता जहां भीतर तक सिहर गए, वहीं सजग कलमकारों ने भी लड़कियों को बहुत सोच समझकर अपने फैसले लेने की सलाह देते हुए बहुत कुछ लिखा। उन्हीं रचनाकारों में से किसी एक ने श्रद्धा हत्याकांड से आहत होकर जो कविता लिखी उसी की ही हैं उपरोक्त पंक्तियां, जिन्हें मैं आप तक पहुंचाने से खुद को रोक नहीं पाया। हर मां-बाप की यही तमन्ना होती है कि उनकी बेटी खुश रहे। उसका ब्याह ऐसे इंसान से हो, जो उसे दुनियाभर की सुख-सुविधाएं, मनचाही खुशियां, सुरक्षा और मान-सम्मान दे। इस पवित्र रिश्ते में जुड़ने के बाद उनकी बेटी को कभी भी यह न लगे कि उसका किसी गलत व्यक्ति से पाला पड़ गया है और उसे मजबूरी में रिश्ते को निभाना पड़ रहा है। हमारे यहां के बुजुर्ग अपनी बेटियों, बहनों, नातिनों, पोतियों के ब्याह के लिए योग्य लड़का तलाशने में जमीन-आसमान एक कर दिया करते थे। बेटी-बहन के भावी पति के बारे में हर तरह की जानकारी जुटाने के बाद ही कोई अंतिम निर्णय लेते थे, लेकिन अब जमाना बदल गया है। विचारों में भी परिवर्तन आ गया है। परंपराएं टूट रही हैं। पुरानी परिपाटियां तोड़ी जा रही हैं। 

    अधिकांश मां-बाप की यही ख्वाहिश होती है कि उनके चुनाव और सुझाव की अवहेलना न हो। उन्हें अपने फैसले और चुनाव पर भरपूर यकीन होता है। जल्दबाजी, नासमझी और भावुकता की तेज धारा में बहकर गलत फैसले लेने वाली लड़कियों का हश्र उनसे छिपा नहीं रहता। आफताब के प्यार में पागल हुई श्रद्धा ने जब अपने रिश्ते के बारे में अपने घर वालों को बताया तो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया। श्रद्धा समझ गई कि आफताब का मुस्लिम होना उनकी अस्वीकृति की प्रमुख वजह है। श्रद्धा ने उन्हें मनाने तथा समझाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, लेकिन वे जिद पर अड़े रहे। आखिरकार श्रद्धा ने माता-पिता को यह कहकर झटका दे दिया कि वह अब बच्ची नहीं, बड़ी हो चुकी है। वयस्क होने के कारण उसे अपने सभी फैसले लेने का कानूनन हक है। 

    2022 के नवंबर महीने में जब आफताब के हाथों श्रद्धा के पैंतीस टुकड़े किये जाने की खबर देश के तमाम न्यूज चैनलों तथा अखबारों में सुर्खियां बनकर गूंजीं तो देशवासी हतप्रभ रह गये। प्रेमी के हाथों टुकड़े-टुकड़े हुई श्रद्धा भी लोगों के निशाने पर आ गई : अपने मां-बाप की सलाह मान लेती तो इतनी बुरी मौत नहीं मरती। अपनी मनमानी करने वाली नालायक औलादों का अंतत: यही हश्र होता है। अरे भाई, जब इतनी समझदार थी तो अपने लिव-इन पार्टनर के महीनों जुल्म क्यों सहती रही? जिस दिन उसने हाथ उठाया, गाली-गलौच की, उसी दिन उसको अकेला छोड़कर नई राह पकड़ लेती। कॉल सेंटर की अच्छी खासी नौकरी थी। भूखे मरने की नौबत आने का तो सवाल ही नहीं था। कौन नहीं जानता कि आफताब जैसे धूर्त अपनी प्रेमिकाओं को अपने खूंटे से बांधे रखने के लिए कितनी-कितनी चालें चलते हैं, लेकिन पच्चीस साल की यह वयस्क युवती उसके इन साजिशी शब्द जालों के मायने ही नहीं समझ सकी कि यदि तुमने मेरा साथ छोड़ दिया तो मैं खुदकुशी कर लूंगा। ऐसे निर्दयी लोग मरते नहीं, मारा करते हैं। जब सिर पर मौत का खतरा मंडरा रहा था तो अपने मां-बाप के घर भी तो जा सकती थी। वो कोई राक्षस तो नहीं थे, जो बेटी को सज़ा देने पर उतर आते। अपनी गलती को स्वीकार कर माफी मांग लेती तो वे अपनी बेटी को जरूर गले लगा लेते। 

    श्रद्धा हत्याकांड को लेकर जितने मुंह उतनी बातों के शोर तथा तरह-तरह की खबरों को सुनते-पढ़ते मेरी आंखों के सामने जूही का चेहरा घूमने लगा। पांच वर्ष पूर्व जूही कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक मुस्लिम युवक के प्रेम पाश में ऐसी बंधी कि कालांतर में दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली। शादी से पूर्व जूही ने अपने मां-बाप को मनाने के भरसक प्रयास किये थे। मां तो मान भी गईं थीं, लेकिन पिता नहीं माने। जूही के पिता कॉलेज में लेक्चरर थे। हिंदी और अंग्रेजी के जाने-माने विद्वान! अंत तक अड़े रहे। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपनी बेटी की शादी किसी दूसरे धर्म के लड़के से हर्गिज नहीं होने दूंगा। शादी के कुछ दिन बाद जूही को जब लगा कि अब पिता शांत हो गये होंगे तो वह उमंग और खुशी में झूमती अपने माता-पिता के घर जा पहुंची। मां जैसे ही दामाद और बेटी के स्वागत के लिए तत्पर हुई तभी जंगली जानवर की सी फुर्ती के साथ पिता ने बेटी पर गंदी-गंदी गालियों की बरसात करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा कि, इस घर में फिर कभी पैर रखने की भी जुर्रत मत करना। बस यह समझ लेना कि हम तुम्हारे लिए मर चुके हैं। 

    जूही को फिर कभी किसी ने उस घर में नहीं देखा, जहां वह जन्मी और पली बढ़ी थी। इस दौरान जूही दो बच्चों की मां भी बन गई। पति ने उस पर प्यार बरसाने में कभी कोई कमी नहीं की। लोग इस आदर्श जोड़ी को देखकर तारीफें करते नहीं थकते। पिछले साल अचानक हार्ट अटैक से पिता के गुजरने पर भी जूही को घर में नहीं घुसने दिया गया। यह बंदिश उसके भाइयों को अपने पिता के कारण लगानी पड़ी थी, जिन्होंने घर के सभी सदस्यों को पहले से ही कह रखा था कि मेरी मौत के बाद भी जूही के कदम घर में नहीं पड़ने चाहिए। श्मशान घाट पर पुरुषों की भीड़ थी। महिलाएं श्मशान घाट पर नहीं जातीं, लेकिन जूही श्मशान घाट पर अपने पिता की जलती चिता के सामने अंत तक आंसू बहाती खड़ी रही थी। यह मार्मिक द़ृष्य देखकर मैं भी अपनी आंखों को नम होने से नहीं रोक पाया था। श्रद्धा के माता-पिता जूही के पिता की तरह जिद्दी और कू्रर रहे होंगे इस पर ज्यादा विचार-मंथन करने का कोई फायदा नहीं। श्रद्धा तो अब लौटने से रही, लेकिन किसी युवती के साथ घर परिवार वालों का ऐसा दुत्कार भरा आहत करने वाला व्यवहार न हो इस पर चिंतन-मनन तो किया ही जा सकता है। न्यूज चैनलों और अखबारों में ऐसी खबरें आती ही रहती हैं। मीडिया इन खबरों को इसलिए प्रचारित-प्रसारित करता है कि बेटियां सतर्क और सावधान हो जाएं। बच्चे कितने ही बड़े क्यों न हो जाएं माता-पिता के लिए तो बच्चे ही रहते हैं। अपनी बेटियों का ऐसा विभत्स अंत उन्हें जीते जी मार डालता है। राजेशों, सुशीलों तथा आफताबों के चंगुल से बचाये रखने का दायित्व सिर्फ मां-बाप का ही नहीं है। 

    यह भी सच है कि आज भी अपने यहां का समाज और परिवार पूरी तरह से इतने खुले दिल के नहीं हुए हैं कि वे लिव-इन-रिलेशन और प्रेम विवाह के लिए तुरंत हामी भर दें। कुछ परिवार तो आज भी लड़के-लड़की की दोस्ती को पसंद नहीं करते। उन्हें वो खबरें डराती रहती हैं, जो अक्सर पढ़ने और सुनने में आती हैं। लेकिन किसी भी श्रद्धा और नैना को अपने प्रेमी का पूरा सच भी कहां पता होता है। साथ रहने के बाद ही हकीकत बाहर आती है। युवकों की तरह युवतियों में भी बगावत की प्रवृत्ति का होना सहज बात है, लेकिन फिर भी अधिकांश मां-बाप बेटियों से कुछ और ही उम्मीद रखते हैं। उनके लिए बेटियों का आज्ञाकारी और संस्कारवान होना जरूरी है। 

लेकिन प्रश्न यह भी है कि लिव-इन में रहने, प्रेम विवाह करने तथा किसी गैर धर्म के युवक से विवाह सूत्र में बंध जाने से संस्कारों की तो हत्या नहीं हो जाती। अपवाद और खतरे कहां नहीं हैं? परिवारों को झूठी शान के घेरे से बाहर आना ही होगा। तभी ऐसी मौतें थमेंगी। कोई भी श्रद्धा आफताब की नीयत को पहचानने के बाद एक मिनट भी उसके नजदीक नहीं रहेगी। फौरन अपने माता-पिता, भाई-बहनों के पास लौट आएगी। ऐसी क्रूर घटनाओं से यदि सबक नहीं लिया जाता तो यह नादानी और बेवकूफी की हद होगी। यह भी सच है कि इस तरह के मोहजाल में फंसने वाली युवतियों में कहीं न कहीं यह उम्मीद बनी रहती है कि उनके साथी में आज नहीं तो कल बदलाव आ ही जाएगा। कई इस इंतजार में उम्र गुजार देती हैं। बगावत कर प्रेम विवाह करने या लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाएं जब जान जाती हैं कि उनके साथ जबरदस्त धोखा हुआ है तो उन्हें कई तरह की चिंताएं घेर लेती हैं। कभी परिवार और समाज के सामने शर्मिंदगी की सोच तो कभी जीना भी यहां मरना भी यहां का भाव पैरों में जंजीरें डाल देता है। ऐसी तोड़ देने वाली भयावह स्थितियां अरेंज मैरिज में भी आती हैं। अधिकांश भारतीय परिवार अपनी बेटियों के कान में यह मंत्र फूंकने से नहीं चूकते कि हर हाल में पति से निभाते रहना। शादी के बाद बेटी बेगानी हो जाती है। उस पर मायके का नहीं पति और ससुराल का पूरा हक रहता है। वे जैसा चाहें उनकी मर्जी। अच्छी पत्नी का बस यही फर्ज है कि चुपचाप सहती रहे, उफ... तक न करे। चाहे कितनी भी तकलीफें आएं परिवार और दोस्तों के सामने खुद को खुश और संतुष्ट दिखाती रहे।

चश्मा तो बदलो ज़रा

    पहले बात सुशील शर्मा और नैना साहनी की। हो सकता है आज की नयी पीढ़ी उनके नाम से ही वाकिफ न हो। आज से 27 वर्ष पूर्व इन दोनों का नाम देश और दुनिया में आफताब और श्रद्धा से कहीं ज्यादा जोर से गूंजा था। तब भले ही सोशल मीडिया की धूम नहीं थी फिर भी इनकी खबरें पत्र-पत्रिकाओं में तो महीनों छपती और पढ़ी जाती रही थीं। 1995 के जुलाई महीने में राजधानी दिल्ली गर्मी से परेशान थी। उसी गर्मी की एक रात कांग्रेस का युवा नेता सुशील शर्मा जब अपने घर लौटा तो उसने देखा कि उसकी पत्नी नैना साहनी टेलीफोन पर मतलूब करीम से हंस-हंसकर बातें कर रही है। मतलूब करीम नैना का पूर्व प्रेमी था। दोनों जी-जान से एक दूसरे को चाहते थे, लेकिन धर्म आड़े आ गया था। नैना के माता-पिता ने दोनों की शादी नहीं होने दी थी। बाद में नैना ने सुशील शर्मा से शादी कर ली। नैना भी सुशील की तरह कांग्रेस की युवा नेता थी। 29 वर्षीय नैना को आज़ाद पंछी की तरह उड़ना पसंद था। सुशील शर्मा से शादी ही उसने यह सोचकर की थी कि भविष्य में उस पर किसी भी तरह की कोई रोक-टोक और बंदिश नहीं होगी। वह जो चाहेगी वही करने के लिए स्वतंत्र होगी, लेकिन सुशील के लिए पत्नी का अर्थ था, ऐसी औरत जो पति को आंख मूंदकर अपना परमेश्वर माने। उसके हर आदेश का सिर झुकाकर पालन करे। वो दिन को रात कहे तो वह किसी भी तरह की आनाकानी न करे। खुले दिल की नैना विवाह के बाद भी अपने पूर्व प्रेमी को नहीं भूली थी। जब भी कोई मौका हाथ आता तो दोनों हंस बोल लेते। एक दूसरे का हालचाल भी जान लेते। यही हकीकत सुशील को बहुत चुभती थी। वह शंका की आग में जलता रहता था कि जिस पर उसका पूरा हक है, वह किसी और के बारे में भी सोचती है। उसका हालचाल लेती है और अपना हालचाल उसे बताती है। इसी बात को लेकर सुशील और नैना में हमेशा जुबानी जंग तो कभी-कभार मारपीट भी होती रहती थी। संदेह की आग में झुलसते सुशील ने अपने जासूसों को भी नैना के पीछे लगा रखा था। उस रात जब वो घर लौटा तो उसने देखा कि नैना टेलीफोन पर किसी से बात कर रही है। अपनी बात खत्म करने के बाद जैसे ही नैना ने फोन रखा तो सुशील ने री-डायल कर दिया। उसकी शंका में जान थी। दूसरी तरफ उसका पूर्व प्रेमी मतलूब करीम ही था। अथाह गुस्से के मारे उसका खून खौल गया। नैना कुछ जान और समझ पाती इससे पहले ही उसने उसे गोलियों से भून डाला। 

    पत्नी की लाश कमरे के फर्श पर पड़ी थी और पति उसे ठिकाने लगाने की तरकीबें खोजने में लग गया। इसी दौरान उसने अपने किसी खास शातिर दोस्त को भी वहां बुलवा लिया। दोनों ने मिलकर पहले तो नैना के मृत शरीर को बड़े से प्लास्टिक में लपेटा फिर उसे चादर में बांधकर अपनी कार की डिक्की में रख अशोक यात्री निवास जा पहुंचे। यह होटल सुशील शर्मा का ही था। लाश को फौरन तंदूर पर रखा गया। तंदूर का मुंह छोटा होने के कारण लाश का एक साथ तंदूर में समाना संभव नहीं था, इसलिए उसे चाकू से धड़ाधड़ टुकड़ों में काटा गया। नारी जिस्म के टुकड़ों पर मक्खन का लेप लगाकर दोनों कसाई उन्हें जलते तंदूर में धड़ाधड़ डालने लगे, जिससे धधकते तंदूर की आग की लपटें तेज होती चली गयीं। इंसानी जिस्म के जलने की तीखी गंध और धुआं भी ऊपर की तरफ उठने और फैलने लगा। तभी किसी सब्जी बेचने वाली महिला का ध्यान उस तरफ गया तो वह आग...आग कहकर शोर मचाने लगी। महिला के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज जैसे ही वहां गश्त लगा रहे पुलिस कर्मी ने सुनी तो वह तुरंत मौके पर जा पहुंचा। उसे यह कहकर अंदर जाने से जबरन रोका गया कि यह नेताजी का होटल है, किसी ऐरे-गैरे का नहीं। अंदर पुराने कागजात और पार्टी के झंडे, बेनर, पोस्टर जलाये जा रहे हैं। लेकिन उस सजग और कर्तव्यपरायण खाकी वर्दीधारी ने उनकी एक भी नहीं सुनी। वह दिवार फांदकर अंदर जा पहुंचा। तंदूर में मानव शरीर को जलता देखकर उसके होश उड़ गये। पांव तले जमीन ही खिसक गई। 

    अपनी प्रेमिका-पत्नी का क्रूर हत्यारा सुशील शर्मा 23 साल की सज़ा भुगतने के बाद अपनों के साथ अब बड़े मजे से रह रहा है। जब वह जेल से बाहर निकला तो उसका तिरस्कार नहीं, स्वागत किया गया। कई मीडिया वालों ने उसके प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए उसकी तारीफों के पुल बांधने का अभियान चला दिया।

    देश के एक नामी-गिरामी अखबार ने प्रथम पेज पर हत्यारे की तारीफ करते हुए उसकी ताजी तस्वीर के साथ छापा कि जेल में रहकर शर्मा ने दिन-रात नैना की याद में आंसू बहाए। रिहाई के बाद भी नैना को याद कर उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बरसने लगते हैं। वह साईं बाबा और देवी दुर्गा का कट्टर भक्त है। ऐसे धार्मिक इंसान के हाथों पता नहीं कैसे इतना बड़ा अपराध हो गया। अपनी प्रिय पत्नी की हत्या करने की उसकी कोई मंशा नहीं थी। गुस्सा अच्छे-अच्छों के दिमाग पर ताले जड़ देता है। फिर होनी तो होनी है, उसे भला कौन टाल पाया है। देश के एक और चर्चित अखबार ने पहले पेज पर उसकी तथा उसके उम्रदराज पिता की भावुक कर देनेवाली तस्वीर लगाते हुए अपने लाखों पाठकों को बताया कि सुशील बचपन से ही अपने माता-पिता का आज्ञाकारी बेटा रहा है। अपने बेटे की रिहाई की खबर सुनकर सुशील की मां घंटों खुशी के आंसू रोती रही। उसने गद्गद् होते कहा कि अब हमारी उम्र दस साल और बढ़ गई। हमारा दुलारा बेटा हमारी सेवा में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। देश के ही किसी और दैनिक ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि सुशील शर्मा अपार मनोबल वाला है। हिंद देश को आज ऐसे ही नेताओं की जरूरत है। सुशील ने जेल में मानसिक तनाव से बचने के लिए पांच साल में पांच करोड़ बार गायत्री मंत्र का जाप कर अन्य कैदियों में प्रेरणा का दीप जलाया। शैतान की तारीफों के पुल बांधकर उसके प्रति अपार हमदर्दी दर्शाने वाले मीडिया ने न तो नैना साहनी को याद किया और ना ही उसके परिजनों का हालचाल जानने की सोची। उसके लिए तो नैना साहनी बस किसी के भी हाथों मरने के लिए ही जन्मी थी और यह भूल सुशील जैसे महात्मा के हाथों हो गई। 

    जब-जब सन 2022 की बात होगी तो श्रद्धा हत्याकांड और कुछ अन्य दिल दहला देने वाले ऐसे पाप काण्डों का भी जिक्र जरूर निकलेगा। श्रद्धा भी अपने प्रेमी... पति के हाथों गला घोंटकर मार डाली गयी। मुंबई की 27 वर्षीय श्रद्धा वालकर ने आफताब पूनावाला से बड़ी शिद्दत के साथ प्यार किया था। उसके साथ लिव-इन में रहने के लिए उसने अपने मां-बाप की भी नहीं सुनी थी। श्रद्धा और आफताब दोनों कॉल सेंटर में नौकरी बजाते थे। आफताब की फेमिनिस्ट, समलैगिकता का समर्थक, फोटोग्राफर, फूड ब्लॉगर तथा शेफ होने की खुबियों ने श्रद्धा को अपना अंधभक्त बना दिया था। घूमना-फिरना दोनों को पसंद था। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की मदमस्त हरियाली के सैर-सपाटे के साथ और भी कई जगह दोनों खूब घूमे थे। दोनों में तीखे मनमुटाव तथा झगड़े भी होते रहते थे। श्रद्धा कई बार उसके हाथों पिटी, लहूलुहान हुई। एक बार मुंबई के पुलिस थाने में उसके खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज करवायी। फिर रजामंदी होने पर ठंडी पड़ गई। 10 मई, 2022 को आफताब श्रद्धा को दिल्ली ले आया। आफताब और हिंसक हो गया। फिर भी नैना को कहीं न कहीं यह भरोसा भी था कि आफताब सुधर जाएगा। लेकिन उसने तो अपनी उस प्रेमिका के 35 टुकड़े कर डाले जो उसे मेरी जान... मेरी जान कहते नहीं थकती थी। सुशील शर्मा की तरह आफताब ने भी जल्लाद होने का जो भयावह सबूत पेश किया उस पर सोचने भर से ही रूह कांप जाती है। नैना और श्रद्धा दोनों आजादी पसंद भी थीं और बोल्ड भी। अच्छी-खासी समझदार और पढ़ी-लिखी होने के बावजूद पिटती रहीं। लांछन, आरोप तथा अवहेलना झेलती रहीं। दोस्तों ने बार-बार कहा कि ऐसे शंकालु वहशी प्रेमी...पति के साथ एक दिन भी रहना ठीक नहीं। पढ़ी-लिखी हो। अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता है। क्यों जुल्म सह रही हो? दोनों ने फैसला लेने में देरी कर दी और शैतानों ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर अपना असली रूप दिखा दिया। आफताब और सुशील में कोई फर्क नहीं। दोनों की हैवानियत एक जैसे तिरस्कार और दुत्कार की हकदार है, लेकिन जब कुछ लोग हत्यारों को धर्म के चश्मे से देखते हुए चीखते-चिल्लाते हैं तो किसी गहरी साजिश की शंका होने लगती है। आफताब क्रूर हत्यारा है। उसने एक ऐसी नारी के टुकड़े कर जंगली जानवरों को खिला दिए जो उस पर बेइंतहा भरोसा करती थी। भरोसे का बड़ी बेरहमी से कत्ल करने वालों की बहुत बड़ी फेहरिस्त है, जिसमें हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि सभी के कलंकित नाम हैं। श्रद्धा मर्डर केस में ‘लव जिहाद’ के एंगल पर माथापच्ची करने वालों का ध्यान हिंसा और हिंसक प्रवृत्तियों की तरफ क्यों नहीं जाता? श्रद्धा वालकर हत्याकांड के बाद एक वीडियो ने सजग संवेदनशील भारतीयों को चिंता में डाल दिया, जिसमें राशिद नाम का व्यक्ति यह कहता नज़र आया कि गुस्से में आदमी 35 तो क्या 36 टुकड़े भी कर सकता है। बाद में पुलिसिया पूछताछ में यह सच सामने आया कि इस वीडियो को बनाने और उसमें नजर आने वाले शख्स का नाम राशिद नहीं, विकास कुमार है...। आदतन अपराधी विकास के खिलाफ पहले से पांच मुकदमें दर्ज हैं।

Saturday, November 26, 2022

 दिल दहलाने वाला क्रूर सच

    संतरा नगरी नागपुर का रहने वाला था, भरत कालीचरण उर्फ अक्कु यादव। हवस का पुतला, जिसकी नस-नस में वहशियत और हैवानियत समायी हुई थी। जवानी की दहलीज पर पैर धरने से पहले ही उसने जुर्म की दुनिया में अपनी धाक जमा ली थी। जहां वह रहता था, वहीं उसने बलात्कारों और हत्याओं की झड़ी लगा दी। अपनी हवस मिटाने के लिए न तो उसने कभी उम्र देखी और ना ही समय का ध्यान रखा। उसकी अंधी वासना का शिकार बनने वाली महिलाओ में दस साल की बच्चियों से लेकर साठ-सत्तर वर्ष की नारियों तक का समावेश रहता था। जब भी वह अपने इलाके में निकलता तो युवतियां अपने घरों में कैद हो जातीं। माताएं अपनी बच्चियों को घरों में छिपा लेतीं। उसकी जिस महिला पर भी बुरी नज़र पड़ती, वह उसे अपना शिकार बना कर ही दम लेता। पहले तो वह बड़ी निर्दयता से उसकी अस्मत लूटता फिर हवस की आग ठंडी हो जाने पर उसकी राक्षसी क्रूरता के साथ हत्या कर देता। अपने शिकार को तड़पा-तड़पा कर मारने में उसे मनचाहे सुख और आनंद की अनुभूति होती थी। मासूम पोती के सामने दादी पर बलात्कार कर गुजरने वाले अक्कु यादव के अंतहीन गुनाहों की हर खबर खाकी वर्दीधारियों को थी, लेकिन कानून के अधिकांश रखवाले अंधे और बहरे बने हुए थे। कई पुलिस वाले उसके साथ बैठकर खाते-पीते, मौज मनाते और मनचाही रिश्वत की सौगात पाते थे। बलात्कार, डकैती, फिरौती, लूटपाट और खून की नदियां बहाने में माहिर अक्कु यह मान चुका था कि नागपुर की धरती पर उसका कोई भी बाल बांका नहीं कर सकता। कानून-कायदे उसके लिए नहीं बने हैं। शहर के लोग उससे खौफ खाते हैं। वक्त पड़ने पर वह कई नेताओं के काम आता है और वे भी उसका साथ निभाते हैं। अक्कु की पहुंच और दहशत के चलते हद से ज्यादा त्रस्त और परेशान हो चुकी महिलाओं ने ही आखिरकार उससे हमेशा-हमेशा मुक्ति पाने की राह निकाल ली।
    वो 13 अगस्त 2004 की दोपहर थी, जब अक्कु को पुलिस के शाही संरक्षण में अदालत में पेश करने के लिए लाया गया था। अक्कु अपनी ही मस्ती में बेफिक्र और बेखौफ था। पुलिस वालों की छत्रछाया में काफी देर तक वह अपने शुभचिंतकों से बोलता-बतियाता रहा। घरवालों तथा अपने खास दोस्तों का हाल-चाल भी जाना। तभी एकाएक कोर्ट का गेट तोड़ लगभग 200 महिलाएं वहां आ पहुंची और इससे पहले कि कोई कुछ समझ पाता अक्कु पर अंधाधुंध मिर्च पावडर और पत्थरों की बरसात होने लगी। हाथों में तीक्ष्ण हथियार लिए भीड़ देखते ही देखते उस पर टूट पड़ी। किसी ने उसके हाथ-पैर काटे तो किसी ने उसके गुप्तांग का ही सफाया कर अपना गुस्सा उतारा। उसके जिस्म पर तब तक चाकू, छुरियां घोंपी जाती रहीं, जब तक उसने अंतिम सांस नहीं ली। कुछ ही मिनटों में 32 वर्षीय खौफनाक हत्यारे, बलात्कारी का काम तमाम कर भीड़ वहां से चलती बनी। ‘अक्कु कांड’ ने शहर के गुंडे बदमाशों की आंखें खोल दीं। कुछ वर्ष तक अक्कु यादव की तरह गुंडई दिखाने वाला कोई नया चेहरा डर के मारे सामने नहीं आया। छोटे-मोटे बदमाश जरूर आतंक मचाते रहे। अक्कु की पागल कुत्ते की तरह की गई हत्या के ठीक 18 साल बाद फिर एक बदमाश ने जैसे ही सिर उठाया तो महिलाएं मौका पाते ही अपनी पर उतर आईं। वर्ष 2022 के नवंबर महीने में फिर एक नराधम भीड़ के हाथों कुत्ते की मौत मरने जा रहा था, लेकिन उसकी किस्मत अच्छी थी, बच गया। उन्तालीस वर्षीय बाल्या जनार्दन कई तरह के नशे करता। नशे में धुत होते ही वह नग्न हो जाता और राह चलती महिलाओं से अश्लील छेड़छाड़ करने लगता। उसके मुंह से बलात्कार की धमकियां और गंदी-गंदी गालियां फूटने लगतीं। पहले तो महिलाएं नजरअंदाज करती रहीं, लेकिन उसकी गुंडई नहीं थमी। वह भी अक्कु की तरह लड़कियों तथा औरतों के जिस्म पर गंदी निगाहें गढ़ाये रहता था। मौका पाते ही उन्हें दबोच भी लेता था। एक रात एमडी के नशे में जब वह एक 65 वर्षीय महिला के साथ अश्लील हरकतें करते हुए जबरदस्ती कर रहा था तभी महिलाओं की भीड़ ने उसे घेर लिया। इस भीड़ में कुछ ऐसी थीं, जिन्हें बाल्या अकसर परेशान करता रहता था। वे उसे सबक सिखाना चाहती थीं। आज उनके लिए अच्छा मौका था। सभी छिछोरे बाल्या की धुनाई में जुट गईं। इसी दौरान उसने अपने एक बदमाश नशेड़ी दोस्त को भी वहां बुला लिया था। भीड़ ने तो बाल्या के घर को भी फूंकने का इरादा कर लिया था। भीड़ में से ही जोर-जोर से आवाजें आने लगीं, ‘‘अब ज्यादा मत सोचो, इसका भी अब अक्कु जैसा हाल कर दो। यह भी कभी नहीं सुधरने वाला।’’ बाल्या को महिलाओं के हाथों बुरी तरह से पिटता देख उसका साथी वहां से भाग खड़ा हुआ। इसी दौरान किसी ने पुलिस तक खबर पहुंचा दी। पुलिस ने बड़ी मुश्किल से उसे गुस्सायी महिलाओं से मुक्त करवाया, जिससे एक और ‘अक्कु हत्याकांड’ होते-होते रह गया।
    भीड़ ने अच्छा किया, बुरा किया इस पर अपने-अपने मत हैं, लेकिन एक प्रश्न यह भी है कि जब कानून के रखवाले बिक जाएं और गुंडे-मवाली लोगों का जीना हराम कर दें, महिलाओं को अपनी इज्जत लुटती और खतरे में पड़ती नजर आने लगे तो वे क्या करें? यह तो हुई बाहर के अपराधियों की बात। बाहर के अपराधी दिख जाते हैं। जैसे-तैसे उन्हें सबक भी सिखा दिया जाता है, लेकिन घर के भीतर, अपनों की शर्मनाक अक्षम्य बर्बरता और वहशी दरिंदगी का क्या?
महाराष्ट्र की सांस्कृतिक नगरी पुणे की 12वीं कक्षा की छात्रा की आपबीती किसी भी संवेदनशील इंसान का माथा घुमा सकती है और इस सुलगते सवाल में उलझा सकती है कि क्या खून के रिश्ते इतनी नीचता और गंदगी भरे हो सकते हैं? यह किशोरी जब मात्र बारह-तेरह वर्ष की थी तब उसके 33 वर्षीय चाचा ने कई बार उस पर बलात्कार किया। किशोरी ने चाचा की काली करतूत के बारे में अपने 70 वर्षीय दादा को बड़े आहत मन से फफक-फफक कर बताया, तो उन्होंने भी अपने कपूत को डांटने-फटकारने की बजाय अपनी ही पोती से छेड़खानी और बलात्कार करना प्रारंभ कर दिया। तब किशोरी उत्तरप्रदेश में अध्ययनरत थी। उसी दौरान उसने चिट्ठी के माध्यम से अपने पिता को चाचा और दादा की हैवानियत की जानकारी दी, लेकिन उन्होंने भी इसे गंभीरता से नहीं लिया। 2018 में उसने चाचा और दादा के घर को छोड़ा और पुणे अपने पिता के पास आ गई। बाप तो चाचा और दादा से भी बदतर नीच निकला। वह भी जब-तब बड़ी बेहयायी के साथ उसके शरीर से खेलने लगा। रिश्तों को शर्मसार कर देने वाली इस वहशियत का हाल ही में तब खुलासा हुआ जब किशोरी ने छह सालों से हो रहे यौन शोषण की जानकारी अपनी कॉलेज की यौन उत्पीड़न के मामले को देखने के लिए बनाई गई ‘विशाखा कमेटी’ को दी। अपना अथाह दर्द बयां करते वक्त एक बेटी रो रही थी और सुनने वाले भी बड़े गहरे सदमे में थे...।

Thursday, November 17, 2022

 यादों की संदूक

    वो दिन ही अजीब था। सुबह से ही उदासी ने घेर रखा था। फिर भी मैं अपने ‘राष्ट्र पत्रिका’ के कार्यालय में खबरों पर नज़रें गढ़ाये था। जैसे-तैसे सम्पादकीय भी लिख ली थी। दोपहर ने शाम की तरफ सरकना प्रारंभ कर दिया था। यही कोई पांच बजे के आसपास मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर गिरीश पंकज का नाम चमक रहा था। उन्होंने बड़े गमगीन स्वर में बताया कि श्री रमेश नय्यर नहीं रहे। अभी कुछ देर पहले ही मुझे उनके निधन का समाचार मिला है। इस अत्यंत दु:खद को सुनते ही दिल धक्क से रह गया। यह कैसे हो गया? अभी पांच दिन पहले ही उनका फोन आया था! मैंने तुरंत श्री रमेश नय्यर जी के सुपुत्र संजय नय्यर को फोन लगाया। मेरी आवाज भी भर्रायी हुई थी। उधर संजय का भी यही हाल था। उन्होंने बताया कि पापा पिछले कुछ हफ्तों से काफी बीमार थे। आज चार बजे के आसपास तबीयत कुछ ऐसी बिगड़ी कि यह अनहोनी हो गयी।
    हर वर्ष की तरह इस वर्ष की दीपावली के दिन भी शुभकामनाएं और बधाई देने के लिए मैंने श्री रमेश नय्यर को फोन लगाया था, लेकिन उन्होंने नहीं उठाया। ऐसा बहुत कम होता था। उसके बाद एक बार फिर और अगले दिन तीन-चार बार फोन लगाने पर जब उनसे बातचीत नहीं हो पायी तो मैं चिंतित हो गया। दिवाली के पांचवें दिन मेरे मोबाइल की घंटी बजी। स्क्रीन पर नय्यर भाई साहब का नाम देखकर बहुत खुशी हुई। मेरे अभी नमस्कार कहा ही था कि वे शिकायती अंदाज में कहने लगे कि इस बार दीपावली पर मेरी याद नहीं आयी! मेरे यह बताने पर कि मैंने तो पांच-छह बार मोबाइल लगाया, लेकिन आपने ही नहीं उठाया। कुछ पलों तक दीपावली की शुभकामनाएं...बधाई के बाद उन्होंने मेरी पत्नी और बहू से भी कुछ देर तक बातचीत की। मैंने उन्हें भाभी जी के साथ नागपुर आने का अनुरोध किया तो उन्होंने कहा कि मुझे नागपुर आना, तुमसे मिलना हमेशा अच्छा लगता है, लेकिन अभी तुम मिलने आ जाओ। उन्होंने यह नहीं बताया कि वे बीमार हैं। यही उनका स्वभाव था। अपनी तकलीफ को छुपाये रखते हुए दूसरों की उलझनों और मुसीबतों को दूर करने में अपनी जी-जान लगा देते थे।
    वो 1993 का साल था। बिलासपुर में स्थित धर्म अस्पताल में जिस रात मेरे पिताजी ने अंतिम सास ली उस दिन भी सुबह से ही मैं बहुत उदास और घबराया हुआ था। रमेश नय्यर मेरे लिए सगे भाई से भी बढ़कर थे। जब भी मिलते अभिभावक की तरह स्नेह और आशीर्वाद की अमृत धारा की बरसात कर देते। रात को बिस्तर पर नींद नहीं आयी। आखों के सामने नय्यर भाई साहब का चेहरा घूमता रहा। यादों की संदूक में संजोकर रखी किताब के पन्ने खुलते चले गए। वो सन 1978-79 के दिन थे, जब बिलासपुर से दैनिक ‘लोकस्वर’ का प्रकाशन प्रारंभ होने वाला था। तब मैं कटघोरा में रायपुर से प्रकाशित होने वाले दैनिक ‘देशबंधु’ का संवाददाता था। मेरी लिखी कहानियां देश-प्रदेश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने लगी थीं। परिवार के कपड़ा व्यवसाय में मेरा मन नहीं लगता था। साहित्य की दुनिया से लगाव होने के कारण बिलासपुर और रायपुर जाना और लेखकों-पत्रकारों से मिलना-मिलाना होता रहता था। बिलासपुर के व्यंग्यकार, पत्रकार स्वर्गीय विजय मोटवानी उम्र में तो मुझसे छोटा था, लेकिन समझ के मामले में बड़ों को भी मात देने की क्षमता रखता था। उसके बड़े भाई ओम मोटवानी ने ही मुझे विजय से मिलवाया था। ओम और मैं सीएमडी कॉलेज में सहपाठी रहे थे। एक दिन शाम को जब मैं सदर बाजार स्थित मोटवानी बंधुओं की रेडिमेड कपड़े की दुकान पर पहुंचा तो उसने मुझे एक दुबले-पतले पत्रकार युवक से मिलवाया। यह गिरीश पंकज थे, जिन्होंने बाद में खुद को पूरी तरह से साहित्य के प्रति समर्पित करते हुए अनूठा कीर्तिमान रचा। यह सिलसिला अभी सतत बना हुआ है। उसी शाम हम तीनों पुराने बस स्टैंड के पास स्थित दैनिक लोकस्वर कार्यालय गये। वहां नय्यर जी से मेरी प्रथम भेंट हुई। पहली मुलाकात में ही नय्यर जी ऐसे मिले जैसे वर्षों के परिचित हों। लगभग घंटा भर तक अखबारी जगत और इधर-उधर की बातें होती रहीं। चाय-कॉफी का दौर भी चला। कटघोरा, पौड़ी उपरोड़ा का संवाददाता तथा लोकस्वर में नियमित कॉलम लिखने का मौखिक अनुबंध भी हो गया। तब के मध्यप्रदेश और अब के छत्तीसगढ़ के बिलासपुर से दैनिक लोकस्वर का प्रकाशन होते ही उसकी दूर-दूर तक चर्चाएं होने लगीं। निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता का डंका बजने लगा। जिस सच को दूसरे अखबार छिपाते थे, उसे बेखौफ उजागर करने की वजह से प्रचार-प्रसार के मामले में लोकस्वर ने अल्पकाल में जो इतिहास रचा उसकी चर्चा आज भी होती है। लोकस्वर की अल्पकाल में अभूतपूर्व प्रगति की एक खास वजह संपादक श्री रमेश नय्यर की संपादकीय भी रही, जिसे पढ़ने के लिए कई सजग पाठक खास तौर पर लोकस्वर खरीदते थे। कुछ दुकानदार तो उनकी कलम के इतने मुरीद हो गये कि उनकी लिखी संपादकीय की कटिंग को फ्रेम करवाकर दुकानों में लगाते थे। अत्यंत प्रभावी संपादक, लेखक होने के साथ-साथ नय्यर जी एक कुशल वक्ता भी थे। दुबले-पतले हाजिर जवाब नय्यर जी से किसी भी विषय पर बातचीत की जा सकती थी। लतीफों... चुटकलों तथा शेरो-शायरी से उन्हें मौसम बदलना भी खूब आता था। अपने उसूलों के पक्के श्री नय्यर जी बिलासपुर में मात्र डेढ़-दो साल रहे, लेकिन उनके मित्रों की तादाद देखकर यही लगता था कि वे तो यहीं के बाशिंदे हैं। व्यक्ति को पहचानने की भी उनमें अद्भुत क्षमता थी। बहुत ही शांत, सहज और सरल जीवन जीने वाले नय्यर जी को कभी भी ऊंची आवाज में बोलते नहीं देखा गया। उनका कोई सहयोगी यदि कभी कोई गलती भी कर देता तो उस पर इस अंदाज से गुस्सा होते कि उसे बुरा नहीं लगता था। नये पत्रकारों को मार्गदर्शन देने तथा प्रोत्साहित करने में सदैव अग्रणी रहे नय्यर जी जब भी कार्यालय की केबिन में होते तो उनसे मिलने वालों का तांता लगा रहता था। वे हर किसी से समभाव से मिलते। देशबंधु, युगधर्म, एमपी क्रानिकल, लोकस्वर, ट्रिब्यून, नवभास्कर, संडे ऑबजर्वर, समवेत शिखक में कार्यरत रहने के दौरान उन्होंने नये पत्रकारों तथा लेखकों का पूरे मन से मार्गदर्शन किया। उन सभी के दिलों में आज भी नय्यर जी के प्रति अपार श्रद्धा और सम्मान है। नय्यर जी जब बिलासपुर में थे तभी मेरा दैनिक श्रम बिंदु के संपादक शिव श्रीवास्तव से परिचय हुआ, जो कालांतर में पक्की और सच्ची मित्रता में तब्दील हो गया। शिव श्रीवास्तव भी नय्यर जी को अपना आदर्श तथा गुरू मानते थे। नय्यर जी के लोकस्वर छोड़कर रायपुर जाने के बाद जब भी मैं रायपुर जाता तो उनसे मिलकर ही चैन पाता। व्यापार में अभिरूचि नहीं होने के कारण मैं कटघोरा छोड़ने का मन बना चुका था। शिव श्रीवास्तव को जब मेरी तकलीफ के बारे में पता चला तो उन्होंने नय्यर जी से कोई हल निकालने का अनुरोध किया। नय्यर जी ने तुरंत हल भी पेश कर दिया। रायपुर के सत्ती बाजार में उनकी दुकान, जिसमें कभी ‘महानदी प्रकाशन’ चलता था, उसकी चाबी मुझे थमा दी। मैंने नाहटा बिल्डिंग में स्थित इस दुकान पर कपड़े का व्यवसाय प्रारंभ कर दिया तथा पत्रकारिता और साहित्य के क्षेत्र में पूरी तरह से सक्रिय हो गया। अखबार की नौकरी से परिवार चलाना संभव नहीं था। जब नय्यर जी नवभास्कर के संपादक थे, तब उन्होंने मुझे कुछ पंजाबी के कथाकारों की किताबें देते हुए कहा कि इनका हिंदी अनुवाद कर नवभास्कर में भेजते रहो। हर महीने तीन-चार पंजाबी कहानियों का हिंदी अनुवाद नवभास्कर में प्रकाशित होने से मुझे प्रतिमाह लगभग पांच-छह सौ मिलने लगे। यह सिलसिला उनके नवभास्कर छोड़ने तक बना रहा। रायपुर में सात-आठ साल तक व्यवसाय और पत्रकारिता की दो नावों की सवारी करते-करते निराशा ने मुझे घेर लिया। तनाव और हताशा ने मुझे इतना अस्वस्थ कर दिया कि महीनों अस्पताल में भर्ती रहना पड़ा। तब नय्यर जी ने मुझे समझाया कि खुलकर पत्रकारिता करना ही मेरे लिए हितकारी होगा। तब नागपुर में मेरा इलाज चल रहा था। जब मैं काफी हद तक स्वस्थ हो गया तो मैंने दो-ढाई वर्ष तक विभिन्न अखबारों में नौकरी करने के बाद पहले साप्ताहिक ‘विज्ञापन की दुनिया’ और उसके बाद ‘राष्ट्र पत्रिका’ का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। अवरोध और तकलीफे तो कई आयीं, लेकिन हिम्मत को जिन्दा रखे रहा। नागपुर से दोनों साप्ताहिकों के सफलतापूर्वक संचालन पर श्री नय्यर जी को वैसी ही खुशी और तसल्ली हुई, जो एक पिता को होती है। उनके आकस्मिक निधन के बाद मैंने यह भी जाना कि वे तो अनेकों पत्रकारों, लेखकों के लिए ऐसे घने वृक्ष थे, जिसकी छाया कड़ी से कड़ी धूप से बचाये रखती है। यह उनकी सर्वप्रियता का ही सुखद परिणाम है कि राजकुमार कॉलेज से प्रगति कॉलेज तिराहा (चौबे कॉलोनी) मार्ग का नामकरण उनके नाम पर करने की घोषणा कर दी गई है।

Thursday, November 10, 2022

राजनीति का खूनी चक्का

    नेताओं के प्रलोभनों और बड़े-बड़े सपनों के मायाजाल में फंसकर न जाने कितने लोग पाते तो कुछ भी नहीं, उल्टे अपना सब कुछ गंवा और लुटा बैठते हैं। कपटी नेताओं और समाजसेवकों को दूसरों की जिन्दगी से खेलने और अपनों की जिंदगी को संवारने का भरपूर हुनर आता है। नकाब पर नकाब और मुखौटे लगाने में भी कोई उनका सानी नहीं। कभी-कभी उनकी चालाकी उन्हीं पर भारी भी पड़ जाती है। उन्हीं के विश्वासपात्र उन्हें ऐसी गहरी चोट दे देते हैं कि वे उनके खिलाफ कुछ भी नहीं कर पाते।
    कश्मीर को अशांत बनाये रखने में वहां के धूर्त नेताओं तथा अलगाववादियों की खासी भूमिका रही है। अपने मतलब को साधने के लिए इन्होंने कितने खून खराबे करवाये, बचपन लूटे और जवानियों को नेस्तनाबूत किया उसका किसी के पास कोई हिसाब नहीं। इन्हीं के बहकावे में आकर अपनी जिंदगी के कई साल मटियामेट करने वाले फारूख की जब आंखें खुलीं तो उसके पैरोंतले की जमीन ही खिसक गयी। तब फारूख मात्र सोलह वर्ष का था, जब अलगाववादियों ने उस पर अपना मायाजाल फेंका और वह भी उसमें ऐसा फंसा कि पढ़ाई-लिखायी छूट गई। कई अन्य कश्मीरी किशोरों और युवकों की तरह फारूख का ब्रेनवाश कर पाक अधिकृत कश्मीर में आतंकवाद की ट्रेनिंग के लिए ले जाया गया। ट्रेनिंग देने वालों में पाकिस्तानी सेना के अफसर भी थे और आतंकी भी। ग्रेनेड फेंकने तथा हर तरह के हथियारों को चलाने के साथ-साथ मार्शल आर्ट्स और पहाड़ों पर चढ़ने की ट्रेनिंग देते हुए दिन-रात उसके दिमाग में भरा गया कि जहां तुम जन्मे हो... रहते हो वो कश्मीर गुलामी की जंजीरों में जकड़ा है और गुलामी से बड़ा और कोई अभिशाप नहीं होता। किसी का गुलाम होने से अच्छा है मर जाना। कश्मीर की आजादी के लिए अपनी कुर्बानी देने से बड़ा पुण्य और कोई हो ही नहीं सकता। इस फर्ज को निभाते हुए मरने वालों को हमेशा याद रखा जायेगा।
    कश्मीर में तैनात भारतीय सेना पर हमला करने वाले आतंकियों के जत्थे में शामिल रहे फारूख को शुरू-शुरू में तो हत्याएं और खून खराबा करते हुए यही लगता रहा कि वह यह सब अपने कश्मीर की बेहतरी के लिए कर रहा है। कश्मीर विश्वविद्यालय के कुलपति मुशिर उल हक की हत्या के बाद उसे हकीकत का आभास हुआ। फारूख की तब तो आंखें खुली की खुली रह गईं जब उसने देखा कि कश्मीर की आजादी के लिए उकसाने वाले अलगाववादी नेताओं के यहां तो धन की बरसात हो रही है। उन्होंने आलीशान होटल बनवा लिए हैं। वे महंगी कारों में चलते हैं। आलीशान कोठियों में भोग-विलास भरा जीवन जी रहे हैं। उनके बच्चे विदेशों में पढ़ रहे हैं और दूसरों के बच्चों के हाथों में बंदूकें पकड़वाकर आम कश्मीरियों की हत्याएं करवा रहे हैं। फारूख ने 1991 में आत्मसमर्पण कर दिया। आठ साल की जेल काटी। जेल से बाहर आने के बाद फारूख ने भटके कश्मीरी युवाओं को नेताओं का असली चेहरा दिखाते हुए समझाना प्रारंभ कर दिया कि अलगाववादी नेता और पाकिस्तान ने पढ़ाये-लिखाये आतंकी सिर्फ अपने स्वार्थ के लिए तुम्हें गुमराह कर रहे हैं। इनका मकसद कश्मीर की भलाई करना नहीं, कश्मीर को किसी भी तरह से भारत से अलग करना है। इसलिए इनके बहकावे में आने का मतलब है, अपनी बर्बादी और मौत। कश्मीर में बीते वर्षों में मतलबी नेताओं ने जिस तरह से बच्चों, किशोरों और युवकों के हाथों में पत्थर और हथियार थमा कर अपनी दुष्टता दिखाने का चक्र चलाये रखा और खुद तमाशा देखते हुए सुरक्षित मौजमस्तीवाला जीवन जीते रहे उसका पर्दाफाश हो चुका है।
    आजादी के बाद यही कपटी काम पूरे भारत में किस्म-किस्म के नेताओं की स्वार्थी कौम ने अपने-अपने अंदाज से करने में कोई कमी नहीं की है। राजनीतिक दलों के मुखियाओं से लेकर उनके छोटे-बड़े नेताओं ने जिन कार्यकर्ताओं की बदौलत सत्ता का स्वाद चखा वे तो वहीं के वहीं रह गए, उनकी जवानी बुढ़ापे में बदल गई, लेकिन नेताओं तथा उनके परिजनों के हिस्से में इतना अधिक धन और सुख-सुविधाएं आयीं कि देखने वालों की आंखें तक चुंधिया गईं। सत्तालोलुप नेताओं ने नैतिकता और ईमानदारी को भी ताक पर रख दिया। बहुत कम नेताओं ने आमजन के हित की सोची। महंगाई, बेरोजगारी, गरीबी और अपराधी अंकुशहीन हो गए। पुल और पटरियां उखड़ती रहीं। अफसर, ठेकेदार मालामाल होते रहे। बीते दिनों प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गुजरात के मोरबी में नवनिर्मित पुल के ध्वस्त होने से लगभग डेढ़ सौ जिन्दा इंसान मुर्दों में तब्दील हो गये। इनमें पुरुष भी थे। महिलाएं भी थीं। बच्चे, युवा और बूढ़े सभी थे। पुल को बनाने का ठेका अपने ही खास आदमी को दिया गया था, जिसकी पुल के निर्माण से ज्यादा सरकारी धन पर नज़र थी। उसकी तिजोरी में तो करोड़ों रुपये जमा हो गए, लेकिन किस कीमत पर?
    अभी कुछ दिन पहले यह कलमकार देश के प्रदेश छत्तीसगढ़ में कुछ सजग पत्रकार मित्रों के बीच बैठा था। वे डंके की चोट पर बता रहे थे कि प्रदेश के मुख्यमंत्री को चौबीस घंटे अपनी कुर्सी बचाये रखने की चिंता खाये रहती है। आम जनता की चिंता करने से ज्यादा दिल्ली में बैठे अपने आकाओं को हर तरह से प्रसन्न रखने की कवायद में लगे रहते हैं। उनकी कुर्सी को छीनने की तिकड़में लगाने वालों ने उनकी रातों की नींद ही उड़ा रखी है। बातों ही बातों में स्वर्गीय अजीत जोगी की काली दास्तानों का भी जिक्र चल पड़ा। जिन्होंने कलेक्टर, सांसद और मुख्यमंत्री रहते इतनी काली माया बटोरी, जिसे संभाल पाना मुश्किल हो गया। करोड़ों-अरबों रुपयो को सुरक्षित ठिकाने पर लगाने के लिए कई तिकड़में करनी पड़ीं। कुछ विश्वासपात्रों को उन्होंने करोड़ों रुपये यह सोचकर अमानत के तौर पर सौंपे कि वक्त आने पर इशारा करते ही वापस मिल जाएंगे, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। विश्वासपात्रों को विश्वासघाती बनने में देरी नहीं लगी। हराम की कमायी ऐसे ही लुटती है। कुदरत ने भी जोगी को अपंग कर ऐसी सज़ा दी कि चलने-फिरने के लायक ही नहीं रहे। अभी हाल ही में फेसबुक पर मैंने रायपुर के साहित्यकार मित्र स्वराज करुण के भेजे किसी फिल्म के अल्पांश को देखा। उसे देखते ही माथे की नसें फटती-सी लगीं। सरकारी पुल के टूट जाने पर कई लोग मारे गये। उन्हीं में शामिल है एक पिता का मासूम बेटा। पिता अथाह गुस्से, गैस सिलेंडर और पिस्टल के जोर पर कुछ सफेदपोशों को अपने कब्जे में किये हुए है। नेता, मंत्री, इंजीनियर, सरकारी ठेकेदार इनमें शामिल हैं। वह उनसे जानना चाहता है कि करोड़ों रुपयों से बना यह पुल एकाएक कैसे ढह गया? पहले तो कोई भी कुछ भी उगलने को तैयार नहीं होता, लेकिन जब आंखों से अंगारे उगलती आंखें और जुबान उन्हें मौत के मुंह में सुलाने का भय दिखाती है तो ठकेदार बताता है कि खिलाने-पिलाने के कारण मजबूत पुल का निर्माण नहीं हो पाया। पिता पूछता है कि किसे खिलाना पड़ा? तो उसकी उंगली मंत्री की ओर इशारा करती है। भय से कांपता मंत्री अपनी सफाई देता है कि सारा धन अकेले मैंने नहीं खाया। जिस राजनीतिक पार्टी की बदौलत हम सत्ता का स्वाद चखते चले आ रहे हैं उसे चलाने के लिए करोड़ों-अरबों रुपयों के फंड की जरूरत पड़ती है। फिर हम भी तो चुनाव के वक्त मतदाताओं को रिझाने के लिए क्या कुछ नहीं करते। कई बार अपनी सारी जमा पूंजी दांव पर लगा देते हैं। इस सारी सर्कस और धंधे को चलाने के लिए जो अपार धन लगता है वह सब इसी मौत के खेल के भ्रष्टाचार से ही तो आता है। इसमें अकेले हम कसूरवार नहीं। देश की जनता भी तो है, जो सबकुछ देखती-समझती है, लेकिन फिर भी हम जैसों को जीत का सेहरा पहनाकर विधायक, सांसद, मंत्री, मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री तक की कुर्सी पर बैठाती है...।

Thursday, November 3, 2022

उनका कसूर? ...हैं बेकसूर!!

    अरुण और गोपाल की हैरतअंगेज आपबीती जानकर मैं घंटों सोचता रहा कि यदि मैं उनकी जगह होता तो क्या करता। यही चिंता... यही सवाल आपके मन में भी हिलौरें मार सकता है। ज़रा इनके साथ हुए घोर अन्याय के बारे में गंभीरता से सोचें और जानें तो! हां यह भी जान लें कि अरुण और गोपाल जैसे न जाने कितने बेकसूरों को ऐसी ही अन्याय की सुलगती भट्टी में जलना पड़ता है। इन्होंने तो अपनी कह दी, लेकिन न जाने कितने बेकसूर अपने जख्मों को अपने अंदर समेटे घुट-घुट कर अनाम मौत का कफन ओढ़ अपराधी होने के कलंक के साथ इस दुनिया से ही चल देते हैं। किसी को कोई खबर नहीं होती। नागपुर के रेलवे स्टेशन पर उस दिन भी रेलगाड़ियों के आने और जाने, यात्रियों के चढ़ने और उतरने की गहमागहमी थी। हमेशा की तरह उस दिन भी कई लोग अपने रिश्तेदारों, मित्रों और अन्य करीबियों को छोड़ने और लेने आए थे। इसी भीड़ में खड़े थे एक्टिविस्ट अरुण फरेरा, जो किसी अपने पुराने प्रिय मित्र के आने की राह देख रहे थे। जिस ट्रेन से मित्र का आगमन होने वाला था उसके शीघ्र प्लेटफार्म पर आने की घोषणा हो चुकी थी। तभी अचानक अरुण ने खुद को 15 लोगों से घिरा पाया। वे कुछ जान-समझ पाते इससे पहले ही उन्हें धक्के मारकर स्टेशन से बाहर ले जाया गया और एक कार में धकेल दिया गया। चलती कार में उन पर धड़ाधड़ मुक्के, थप्पड़ और डंडे बरसते रहे। उनके शरीर से लहू बहता रहा। इसी दौरान उन्हें बताया गया कि वह नागपुर की एंटी नक्सल सेल की गिरफ्तारी में हैं। हतप्रभ अरुण उन्हें बताने की कोशिश में लगे रहे कि वे किसी गलतफहमी के शिकार हैं। उन्हें किसी ने झूठी जानकारी दी है, लेकिन उनकी जरा भी नहीं सुनी गई। दूसरे दिन शहर और देश के अधिकांश अखबारों और न्यूज चैनलों की यही खास खबर थी, ‘एक खूंखार नक्सली को एंटी नक्सल सेल ने धर दबोचा है। कई वर्षों से नक्सली गतिविधियों में शामिल इस देशद्रोही के संगीन अपराधों की फेहरिस्त बहुत लम्बी है...।’
    पुलिस कस्टडी में मुंह खुलवाने के लिए अरुण को राक्षसी तरीके से दिन-रात मारा-पीटा गया। गंदी-गंदी गालियों के साथ-साथ वो सारे हथकंडे भी अपनाये गये, जिनके लिए पुलिस खासी बदनाम है। अरुण यही कहते रहे कि हिंसा, मारकाट और नक्सलियों से उनका कभी कोई रिश्ता नहीं रहा। वह तो बस गरीबों, दलितों, शोषितों और हर वर्ग के वंचितों के हितैषी और मददगार हैं। जो इनके साथ अन्याय करते हैं, इनपर जुल्म ढाते हैं, उन्हीं के खिलाफ उनका वर्षों से युद्ध जारी है। जो पुलिसिये पूर्वाग्रह से ग्रस्त थे, अरुण के बारे में पहले से ही अपनी पुख्ता राय और सोच बनाये हुए थे, वे कहां कुछ सुनने वाले थे। कुछ दिनों के पश्चात अरुण को जेल की उस अंडा सेल में डाल दिया गया, जिसका नाम सुनते ही अपराधी कांपने लगते हैं। पांच-छह फीट की इस सेल का आकार अंडे जैसा होता है, इसलिए इसे अंडा सेल कहा जाता है। पूरी तरह से बॉम्बप्रूफ इस सेल में हमेशा घुप्प अंधेरा रहता है। सांस लेने के लिए हवा की कमी 24 घंटे कैदी को अपने गुनाहों की याद दिलाने के साथ-साथ जानलेवा घुटन से भी रूबरू कराती रहती है।
प्रतिबंधित कम्यूनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (माओइस्ट) का सदस्य होने समेत कुल 10 आरोपों के चक्रव्यूह में फंसाये गये अरुण चार साल आठ महीने बाद जमानत पर जेल से बाहर तो आ गए, लेकिन देशद्रोही होने के कलंक ने उनका पीछा नहीं छोड़ा। अपनों ने भी दूरियां बना लीं। जमानत के दो वर्ष बाद जब उनपर कोई आरोप सिद्ध नहीं हो पाया तो उन्हें बरी कर दिया गया, लेकिन लोगों की उनके प्रति नक्सली वाली धारणा नहीं बदली। बेकसूर होने के बावजूद जेल की कड़ी सज़ा भुगतने वाले अरुण ने अपने कटु अनुभवों पर एक किताब भी लिखी। वंचितों की सहायता करने का उनका हौसला अभी भी जस का तस बना हुआ है। मुंबई में रहते हुए उन कैदियों को कानूनी सहायता दिलवाकर बाहर निकालने के अभियान में लगे हैं, जिन्हें आतंकवादी और नक्सली होने के झूठे आरोप में जेल में डाल दिया जाता है। अरुण को आज भी इस गम से छुटकारा नहीं मिला, जो वर्षों की अंधी कैद ने उन्हें दिया। कहीं न कहीं उनका कानून से भी भरोसा तो उठा ही है। एकदम निर्दोष होने पर भी दोषी मानते हुए प्रताड़ित किये गए अरुण फरेरा का क्षोभ कभी भी नहीं मिटने वाला। कानून के रक्षकों की बेइंसाफी भी शूल की तरह चुभती रहेगी।
    गोपाल शेंडे के साथ भी ऐसी ही बेइंसाफी हुई। उन्होंने जो अपराध किया ही नहीं था उसकी सात साल की सज़ा काटी। नागपुर में रहने वाले गोपाल मायानगरी मुंबई में स्थित एक होटल में व्यवस्थापक के पद पर कार्यरत थे। 19 जुलाई, 2009 को घाटकोपर रेलवे स्टेशन पर एक मतिमंद महिला किसी बलात्कारी की अंधी हवस का शिकार हो गई। देश की अत्यंत सतर्क, होशियार और उम्दा माने जाने वाली महाराष्ट्र पुलिस ने गोपी नाम के आरोपी के स्थान पर गोपाल को बलात्कार के आरोप में हथकड़ियां पहना दीं। उनकी सुनने की बजाय अपनी मनमानी कर डाली। जेल में जाने के बाद उनका पूरा परिवार ही बिखर गया। पत्नी ने किसी और का दामन थाम लिया। दोनों बेटियों को अनाथालय में पनाह लेनी पड़ी। मां की पागलों जैसी हालत हो गई। पिता को बेटे के बलात्कार के आरोप में जेल जाने के सदमे ने इस कदर आहत किया कि उनकी मौत हो गई। सत्र न्यायालय ने बलात्कार के संगीन आरोप में गोपाल को सात साल की सजा भी सुना दी! उन्होंने इसके विरोध में उच्च न्यायालय का दरवाजा खटखटाया, तो 10 जून, 2015 को उन्हें निर्दोष रिहा कर दिया गया। सात साल बाद जब गोपाल जेल से बाहर आये तो पूरी तरह से तन्हा, बेबस और खाली हाथ थे। अदालत ने तो बेकसूर मानते हुए बरी कर दिया था, लेकिन लोगों की निगाह में गोपाल अभी भी बलात्कारी थे। कोई उन्हें नौकरी देने को तैयार नहीं था। कई दिन भूखे-प्यासे भटकते रहे। सब्र भी जवाब देता चला गया। किसी ने भी उनके साथ खड़े होने की हिम्मत नहीं दिखायी। आज भी उन्हें यही लगता है कि वे किसी ऐसी रेलगाड़ी पर सवार हैं, जो दिल को कंपकंपाते हुए धड़...धड़...धड़...धड़ करती किसी अंधेरी सुरंग से गुजर रही है और सुरंग है कि खत्म होने का नाम नहीं ले रही! पुलिस प्रशासन की महाभूल और नालायकी की वजह से अपने जीवन के अनमोल सात साल लुटा चुके गोपाल को सरकार से भी कोई मदद नहीं मिली है। समाज का वो तथाकथित सजग तबका भी अपनी आंखों पर पट्टी बांधे है, जो अन्याय के खिलाफ आंदोलन करने के लिए जाना जाता है। खुद को एकदम लाचार, हारा और लुटा हुआ महसूस करते गोपाल शेंडे की दोनों बेटियां अभी भी अनाथाश्रम में रह रही हैं!

Thursday, October 27, 2022

अय्याश ‘पिताजी’ की हिंसक बाबागिरी

    यौन शोषण, बलात्कार और हत्याओं के जुर्म में जेल में कैद डेरा सच्चा सौदा के प्रमुख राम रहीम को ऐन दिवाली से पहले फिर से पैरोल के नाम पर पूरे 40 दिन की छुट्टी मिल गई। कभी बीमार मां से मिलने तो कभी उसकी किसी और मांग और इच्छा का सम्मान करते हुए बड़ी आसानी से उसे जेल से अस्थायी रिहाई मिलती चली जा रही है। लोग भी हैरान हैं कि जिस अय्याश को यौन शोषण, बलात्कार और दो हत्याएं करने के अक्षम्य अपराध में कुल मिलाकर 60 साल की सज़ा दी चुकी है, वह किसकी मेहरबानी और आशीर्वाद पर जब देखो तब खुली हवा में मौजमस्ती करने का मदमस्त उपहार पा जाता है। विश्वासघाती, बलात्कारी, हत्यारा राम रहीम इस बार भी जब जेल की कोठरी से बाहर आया तो उसके कट्टर श्रद्धालुओं, नेताओं और समाज के भिन्न-भिन्न रंगधारी चेहरों ने खुशी से झूमते हुए महकते फूलों के बड़े-बड़े हारों और गुलदस्तों से स्वागत किया, जैसे वह कोई महान आत्मा हो, जिसका सदियों के इंतजार के बाद आसमान से धरा पर आगमन हुआ हो। जेल से लौटे राम रहीम के दर्शन करने पहुंची भीड़ में शामिल एक महिला से पत्रकार ने पूछा कि जिस धूर्त को नारियों के देह शोषण के चलते सज़ा हो चुकी है, जो हद दर्जे का अनाचारी है, आप उससे मिलने के लिए क्यों आई हैं? आप जैसी पढ़ी-लिखी औरतों को तो ऐसे असंतों से घृणा करते हुए कोसों दूर रहना चाहिए! सजी-धजी उस नारी ने बड़े गर्व के साथ कहा कि वे हमारे देवता हैं, पथ प्रदर्शक हैं, वे गलत हो ही नहीं सकते। कुछ झूठों के आरोपों को हम क्यों सच मान लें? आज के कलयुगी जमाने में तो संत-महात्माओं पर कीचड़ उछालने के षडयंत्रों को कुछ शैतानों ने अपना पेशा बना लिया है। हमारे ‘पिताजी’ तो एकदम 24 कैरेट का सोना हैं। आपको उनके चेहरे की चमक दिखायी नहीं देती, जो आज भी पहले की तरह बनी हुई है?
    ‘‘आप जगजाहिर सच को भूल रही हैं। मैं ही आपको याद दिलाए देता हूं आपके इन तथाकथित ‘पिताजी’ को 2002 के बलात्कार के एक केस में दोषी ठहराए जाने के बाद अगस्त 2017 में पंचकुला में एक विशेष सीबीआई अदालत ने बीस साल की कड़ी कैद की सज़ा सुनाई थी। उसके बाद 2019 में सच्चे, निर्भीक पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की निर्मम हत्या के मामले मेें तीन अन्य लोगों के साथ इन्हें भी दोषी माना गया था। 2021 में सीबीआई की ही एक विशेष अदालत ने इस कुकर्मी को 2002 में डेरा के पूर्व प्रबंधक रंजीत सिंह की क्रूर राक्षसी तरीके से की गई हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनाई। कुल मिलाकर 60 साल जेल की कोठरी में रहना है इसे। क्या आप अदालत के फैसलों को भी हवा-हवाई मानती हैं?’’
    ‘‘दुनिया की किसी भी कोर्ट-कचहरी से ज्यादा हमें तो बस अपने ‘पिताजी’ पर ही पक्का यकीन है। हमारे ‘पिताजी’ की वर्षों की तपस्या और मेहनत से बनी छवि को कोई भी साज़िश खत्म नहीं कर सकती। फिर हकीकत तो आपके सामने भी है...। उनके ऑनलाइन सत्संग में हाजिरी लगाने के लिए अपार भीड़ का तांता लगा है। यह सारा का सारा हुजूम क्या बेवकूफ और पागल है? और हां यह भी तो आपने देखा और सुना होगा कि अपने देश में निर्दोष आदमी को भी फांसी के फंदे पर लटका दिया जाता है।’’ सजायाफ्ता राम रहीम के पक्ष में बोलने के लिए कमर कसकर आई महिला और भी कुछ कहना चाहती थी, लेकिन पत्रकार ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी।
    उम्रकैद की सजा काट रहे राम रहीम के ऑनलाइन सत्संग में हजारों महिलाओं, युवक, युवतियों, नेताओं, सरकारी अधिकारियों और उद्योगपति, व्यापारियों की कतारें लगी रहीं। हरियाणा के शहर करनाल की मेयर रेणु बाला ‘पिताजी’ के समक्ष नतमस्तक होकर घंटों खड़ी रहीं। उन्होंने उससे अपना आशीर्वाद बनाये रखने की फरियाद की। भारतीय जनता पार्टी के एक पूर्व केंद्रीय मंत्री ने भी सत्संग में पहुंचकर ‘शैतान’ का हौसला बढ़ाया। बलात्कारी के समर्थकों की भीड़ ने बता दिया कि उनके मन में अपने ‘पिताश्री’ के प्रति कितना सम्मान और आस्था है। दरअसल उसके कट्टर अनुयायियों में गरीबों, दलितों और शोषितों की संख्या अच्छी-खासी है, जो उसे मान-सम्मान से ‘पिताजी’ बुलाते हैं। इनके लिए गुरमीत सिंह राम रहीम का इशारा, कोई बात सीधा आदेश होती है, जिसका पालन करना अंधभक्त अपना कर्तव्य और धर्म मानते हैं। अपने अनुयायियों का उद्धार करने और धर्म के नाम पर धोखाधड़ी, लूटमार, बलात्कार करने वाले राम रहीम के झांसे में आने वालों में पढ़े-लिखे लाखों स्त्री-पुरुष हैं, जिनकी श्रद्धा अब भी बरकरार है। इसी का फायदा नेता पहले भी उठाते रहे हैं और अब भी उन्हें काफी उम्मीदें हैं। हरियाणा में एक विधानसभा सीट पर होने वाले उपचुनाव से पहले उसके पैरोल पर जेल से छूटने के पीछे सत्ता और राजनेताओं की भूमिका स्पष्ट नज़र आती है। पूरे देश में उसके 6 करोड़ अनुयायी होने का दावा किया जाता है। पंजाब और हरियाणा में तो उसके अंधभक्त जहां-तहां भरे पड़े हैं, जो सीधे तौर पर लगभग 40-50 विधानसभा सीटों पर होने वाले चुनाव को प्रभावित करते रहे हैं।
    यह तथ्य भी अत्यंत विचारणीय है कि बलात्कार की हर खबर सभ्य समाज में क्रोध की आग जलाती है। हर किसी के रक्त में उबाल आ जाता है। बलात्कारी के खिलाफ मोर्चे, कैंडल मार्च निकाले जाते हैं। यहां तक कि उस दरिंदे को चौराहे पर गोली से उड़ाने, नपुंसक बनाने के पुरजोर स्वर सुनने को मिलते हैं, लेकिन यह नराधम अपने आश्रम में आने वाली युवतियों की अस्मत लूटता रहा। हत्याएं तक कर डालीं, लेकिन देश का तथाकथित जागृत समाज सोया रहा। पत्रकारों ने भी खामोशी का दामन थामे रखा। जिस सजग पत्रकार ने अपने अखबार में उसके काले चिट्ठे को उजागर किया उसकी इसने हत्या करवा दी। लोगों की अंध भक्ति ने ही एक शैतान को भगवान बना दिया। अंधी भीड़ नतमस्तक भी होती रही और धन भी बरसाती रही। देखते ही देखते उसके आलीशान आश्रम बनते चले गए। जहां वह बेखौफ होकर भोग-विलास करता रहा। महंगी से महंगी लग्जरी कारों में खूबसूरत लड़कियों के साथ सैर-सपाटे जारी रहे और करुणा, दया, शांति, क्षमा और भाईचारे के पाठ को ताक पर रखकर हिंसा का शैतानी तांडव मचाता रहा। राम रहीम... इस नाम को सुनने और बोलने में कितनी शांति और पवित्रता बरसती है। ऐसा लगता है इस नाम के शख्स की नस...नस में इंसानियत का अपार वास होगा। आम इंसानों वाली बुराइयों से तो इसका दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होगा। विधाता ने इसे मानव और मानवता के कल्याण के लिए इस धरा पर भेजा होगा, लेकिन इस राम रहीम ने तो भक्तों के भरोसे और धारणा की धज्जियां ही उड़ा दीं। फिर भी अंध विश्वासी अभी भी जागने को तैयार नहीं हैं।

Thursday, October 20, 2022

कब मिटेंगे यह अंधेरे?

    इन खबरों को पढ़-सुनकर किसे गुस्सा नहीं आता होगा। मन भी दहल जाता होगा। मस्तिष्क में यह सवाल भी तीर चलाता होगा कि क्या यह वही दुनिया है, जहां हम रह रहे हैं? गुजरात के जुनागढ़ में एक पिता को अपनी बेटी की हत्या के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। इस अंधविश्वासी शैतान ने पुत्र प्राप्ति की लालसा में नवरात्र अष्टमी की रात बेटी की बलि चढ़ा दी। बिटिया मात्र 14 बरस की थी। उसे अपने पिता पर बहुत भरोसा था। वह तो उसे अपना भाग्य विधाता और भगवान मानती थी, लेकिन इसी भगवान को इस बात का मलाल था कि उसके यहां बेटा पैदा क्यों नहीं हुआ? यह बेटी किस काम की। यह तो पराया धन है। एक न एक दिन दूसरे के यहां विदा हो जाएगी। बेटे ही पिता की विरासत के वारिस होते हैं। उन्हीं से वंश चलता है। पहचान होती है।
जब इंसान के अंदर का मतलबी शैतान जाग जाता है, तो उसके लिए खून के रिश्ते अपनी अहमियत खोने लगते हैं। गांव के स्कूल में नौवीं कक्षा में पढ़ रही यह बिटिया जब बाप को खटकने लगी तो उसे उसमें कई दोष नज़र आने लगे। उसे यह सच याद नहीं रहा कि बेटियों को तो कलेजे से लगा कर रखा जाता है, लेकिन उसके दिल का घेरा तो बहुत संकीर्ण था। उस पर किसी तांत्रिक ने उसके कान भर दिये कि बेटी में तो ‘बुरी शक्ति का साया है’ जो उसे भी तबाह करके छोड़ेगा। कहीं का नहीं रहने देगा। हाथ में कटोरा पकड़वाकर ही दम लेगा। बस फिर क्या था। जन्मदाता राक्षस बन गया। दिन-रात बेटी को मारने-पीटने लगा। सात दिन तक उसे न खाना दिया गया और ना ही पीने को पानी। भूख-प्यास से अधमरी हो चुकी बच्ची की बलि चढ़ाने के बाद हैवान बाप फिर से उसके जिंदा होने के लिए चार दिन तक तांत्रिक क्रियाएं करता रहा। मर चुकी बच्ची आखिर कैसे जीवित होती? पांचवें दिन बेटी का अंतिम संस्कार कर दानव को लगा कि अब वह चैन की नींद सोयेगा, लेकिन पाप का घड़ा तो फूट कर ही रहता है। जब लोगों को पता चला तो उनका गुस्सा फूट पड़ा। उनका बस चलता तो वे उसका खात्मा ही कर देते, लेकिन पुलिस के रोकने और समझाने पर हत्यारे बाप की हत्या होते-होते रह गयी।
    केरल के पथनाम थिट्टा जिले के एलंधूर गांव में रहने वाले एक अधेड़ पति-पत्नी पर फिर से जवान होने का ऐसा भूत सवार हुआ कि वे उन तांत्रिकों की शरण में जा पहुंचे, जिनका दावा था कि वे बूढ़ों को जवान बना सकते हैं। गरीब को अमीर बनाना भी उन्हें बखूब आता है। इस उपलब्धि को पाने के लिए तांत्रिक ने उन्हें दो महिलाओं की बलि देकर भगवान को खुश करने की बात कही तो यौन सुख के भूखे पति-पत्नी सहर्ष तैयार ही नहीं हुए, बल्कि तांत्रिक के मार्गदर्शन में दो महिलाओं को अपने मायावी जाल में फंसाकर उनको मौत के घाट भी उतार दिया। इस हैवानियत को ‘बलि’ का नाम दिया गया। दोनों निर्दोष महिलाओं की नृशंस हत्या करने के बाद उन्होंने उनके शरीर से निकले रक्त को दिवारों पर छिड़का। एक महिला के शव के 56 टुकड़े किए और उन्हें पका कर खाया। दोनों दरिंदों ने महिलाओं के स्तन भी काटकर रख लिए।
    अपने महान भारत देश में न जाने कितनी कुरीतियां और पुरातन परंपराएं हैं। विचार धाराएं जो औरतों के शोषण और अपमान की शर्मनाक दास्तान का निर्लज्ज दस्तावेज हैं। इज्जत और धर्म के नाम पर नारियों को प्रताड़ित करने और उनका देह शोषण की वर्षों पुरानी देवदासी प्रथा को इस आधुनिक काल में भी बड़ी बेशर्मी से खाद-पानी दिया जा रहा है। देवदासी यानी देवों की कथित दासियां, गुलाम... जिनका पग-पग पर देह शोषण किया जाता है, बचपन और जवानी छीनकर बुढ़ापे में दर-दर भीख मांगने और दिवारों से सिर पटकने के लिए असहाय छोड़ दिया जाता है। नारी जाति का घोर अपमान करने वाले इस नीच कर्म में मां-बाप भी सहभागी होते हैं। रमाबाई जब मात्र दस साल की थी, तभी उसके माता-पिता उसे देवदासी बनाने के लिए मंदिर ले गए और उसे पुरोहित को भेंट स्वरूप सौंप दिया, जैसे वह कोई खरीदी और बेची जाने वाली कोई वस्तु हो। उम्रदराज पुरोहित उसे देवता से मिलवाने के नाम पर वर्षों तक उसकी देह से खेलता रहा। इस दौरान वह दो बेटियों और एक बेटे की मां बनी और देखते ही देखते उसकी उम्र भी ढल गई।
    होना तो यह चाहिए था कि नारी की पूजा करने वाले देश में यह जालिम प्रथा जन्म ही नहीं लेती। किन्हीं दुष्टों ने नारियों की भावनाओं को रोंदने, उनके जिस्म को भोगने के लिए हजारों साल पहले इसके बीज बोए और कालांतर में यह बीज पेड़ बन गये। उन्हें काटा ही नहीं गया! मंदिरों में नारी के देह शोषण की कल्पना करने से ही चिंता, दहशत और घबराहट होने लगती है, लेकिन आखिर यह सच तो है ही। नारी के देह शोषण की यह परंपरा आज भी जिन्दा है। उत्तर भारत में भी कहीं-कहीं यह अंगद के पांव की तरह टिकी हुई है। सरकारों ने इस कुप्रथा बनाम नर्कप्रथा पर बंदिश लगाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, लेकिन धर्म की आड़ में चलने वाले इस अंधी वासना के कुचक्र पर धर्म के सौदागरों ने विराम नहीं लगने दिया। 1982 में कर्नाटक सरकार और 1988 में आंध्रप्रदेश सरकार नारियों के साथ खिलवाड़ करने वाली इस देवदासी प्रथा को गैरकानूनी घोषित कर चुकी है। फिर भी एक अनुमान के अनुसार कर्नाटक में देवदासियों की संख्या सत्तर हजार, तेलंगाना और आंध्रप्रदेश में अस्सी हजार के पार है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि देवदासियों को ओडिसा में महारी यानी ‘महान नारी’ कहा जाता है। जो अपनी देह को काबू में रखना जानती हैं। महाराष्ट्र एवं अन्य प्रदेशों में उनके लिए अलग-अलग संबोधन हैं।
    विभिन्न उत्सवों और महोत्सवों के विशालतम देश में अंधविश्वास, नारी शोषण, व्याभिचार, बलात्कार, नृशंस हत्याएं और कट्टरवाद को देखकर मन मस्तिष्क में कई-कई प्रश्न खड़े होते हैं। क्या हमारे यहां त्योहार मात्र दिखावा और तमाशाबाजी हैं। दशहरा, दीपावली जैसे उत्सव मात्र मन बहलाने का जरिया हैं? इन त्योहारों पर सदियों से अपने घर-आंगन की सफाई करते और दीप जलाकर अंधेरे को भगाते देशवासी कुरीतियों, अपराधों के घने अंधेरे से अभी तक मुक्त क्यों नहीं हो पाए? उत्सवों की सार्थकता तो उनके अर्थ और मर्म को समझते हुए उनका अनुसरण करने में है। सदियों दर सदियां बीत गईं। हम इक्कसवीं सदी में भी पहुंच गये, लेकिन उन अंधेरों को पूरी तरह से दूर करने का साहस नहीं जुटा पाए, जो देश के माथे पर कलंक समान विद्यमान हैं।

Thursday, October 13, 2022

राहुल गांधी की यात्रा

    मेरा राजनेताओं पर लिखने का बहुत कम मन होता है। जब किसी नेता की दक्षता, कार्यप्रणाली, जिद्द, जुनून और आम जनता से जुड़ने की ललक बहुत अधिक प्रभावित करती है तो यह कलम खुद-ब-खुद चल भी जाती है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री स्वर्गीय राजीव गांधी और सोनिया गांधी के पुत्र राहुल गांधी वर्षों से राजनीति में झंडे गाड़ने के लिए हाथ-पैर मार रहे हैं, लेकिन दाल नहीं गल रही। भारतीय राजनीति के लिए उन्हें नाकाबिल मानने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। वे उनकी बहन प्रियंका गांधी को उनसे बेहतर मानते हैं। उन्हें प्रियंका गांधी में उनकी दादी पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का चेहरा नज़र आता है, जिन्होंने कई वर्षों तक भारत की सत्ता संभालते हुए अपनी विशिष्ट छाप छोड़ी। गांधी परिवार ने देश की जो सतत सेवा की है और अपना सबकुछ कुर्बान करते हुए राष्ट्रप्रेम के पवित्र जज़्बे को बरकरार रखा है, उसे देशवासी कभी भी नहीं भूल सकते। देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस पार्टी को मजबूत बनाये रखने में भी गांधी परिवार का अभूतपूर्व योगदान रहा है। यह कहना गलत नहीं होगा कि गांधी परिवार ही कांग्रेस के शरीर की रीढ़ की हड्डी है, लेकिन आज यह हड्डी कमजोरी की गिरफ्त में है। पार्टी लगातार पतन की ओर जा रही है। कभी देश के हर प्रदेश में इसका शासन हुआ करता था, लेकिन आज उसकी जो हालत है वह किसी से छिपी नहीं है।
    कांग्रेस की दशा को सुधारने के लिए गांधी परिवार ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। फिलहाल हम बात राहुल गांधी की करना चाहते हैं, जो कांग्रेस को फिर से पटरी पर लाने के लिए कमर कसे हुए हैं। नेताओं की खिल्ली उड़ाना, मीम बनाना, व्यंग्य बाण चलाना और चुटकलेबाजी करना कोई नई बात नहीं है, लेकिन यह भी सच है कि, पिछले कई वर्षों से राहुल गांधी को उपहास का पात्र बना कर रख दिया गया है। उनकी पप्पू की जो छवि बनायी गई है, उससे हर कोई वाकिफ है। आलू से सोना बनाने, बाइस रुपये लीटर में आटा लाने जैसे पचासों जोक हैं, जो सोशल मीडिया में भरे पड़े हैं। मनोरंजन प्रेमी इन्हें सुन-सुन कर मनोरंजित होते हैं। अपना दिल बहलाते हैं और उनकी खिल्ली उड़ाते हैं। जिनकी गंभीरता से देखने-सोचने की आदत है उन्हें बड़ी चिंता और पीड़ा होती है। राहुल उन्हें इतने अज्ञानी तो नहीं लगते, जितने प्रचारित होते चले आ रहे है। सबसे ज्यादा तकलीफ, पीड़ा और शर्मिंदगी तो उन कांग्रेसियों को होती है, जिनकी दाल-रोटी ही पार्टी के दम पर चलती है। कुछ को छोड़ दें तो अधिकांश कांग्रेसी ऐसे है, जिनकी अपनी कोई कभी दमदार छवि नहीं रही। येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस की टिकट पाना और गांधी परिवार के गीत गाते हुए चुनाव जीत जाना उनका मुकद्दर रहा है। वे तो बस यही चाहते हैं कि कांग्रेस की कमान हमेशा गांधी परिवार के हाथों में ही रहे। कोई दूसरा इस पार्टी का अध्यक्ष बनने की सोचे भी नहीं। किसी नेता के बोले तथा कहे गये शब्दों के अर्थ का अनर्थ करना राजनीतिक विरोधियों की आदत है, लेकिन क्या मीडिया ने भी बिना विचारे यही राह पकड़ ली है? बड़े से बड़े भाषा के धुरंधर अक्सर बोलते-बोलते नियंत्रण छूट जाने से बहक जाते हैं। फिर राहुल कोई हिंदी के पारंगत विद्वान भी नहीं हैं। राहुल को भी अपनी कमियों, भूलों और त्रुटियों का भान तो होगा ही...। देश और दुनिया में उनकी कैसी बौनी छवि बना दी गई है, इसकी भी उन्हें खबर न हो ऐसा तो हर्गिज नहीं हो सकता।
    राहुल की मां सोनिया गांधी का सपना है, बेटा भारत देश का प्रधानमंत्री बने। बेटा भी हर चुनाव पर मेहनत करता है। खून पसीना बहाता है, फिर भी सफलता हाथ नहीं लगती। बहन प्रियंका वाड्रा की भी भाई को पीएम बनते देखने की तीव्र लालसा है। मोदी सरकार ने उनके ‘कमाऊ’ पति राबर्ट वाड्रा का जीना हराम कर रखा है। भाई सत्ता पाये तो सभी को चैन आए। हर कांग्रेसी के सपने को साकार करने तथा अपनी छवि बदलने के लिए राहुल की ‘भारत जोड़ो यात्रा’ बड़े जोरों-शोरों से चल रही है। उनके साथ चल रहे यात्रियों के हाथों में जो तख्तियां हैं उनमें लिखा है, ‘यह यात्रा देश में फैली नफरत के खिलाफ एक आगाज़ है। अब न डरेंगे, न झुकेंगे, न रूकेंगे।’ महात्मा गांधी की दांडी यात्रा से प्रभावित... प्रेरित भारत को जोड़ने की इस पैदल यात्रा का मज़ाक उड़ाने वालों के अपने-अपने तर्क हैं। उन्हें यात्रा के दौरान राहुल का एक बूढ़ी औरत को अपने हाथों से पानी देना और एक छोटी बच्ची के जूते बांधना मीडिया में छाने का तमाशा लगता है। यात्रा के ही दौरान राहुल गांधी का जमीन पर बैठकर मां सोनिया के ढीले जूते के फीते कसना भी उनके लिए महज नाटक-नौटंकी है।
    राहुल का आम लोगों से मिलना, बोलना-बतियाना, यात्रा में शामिल साथी नेताओं से हंसी ठिठोली करना, रास्ते में मिलने वाले बच्चों को गोद में उठाना, गले लगाना और बेफिक्री के साथ पकोड़े, समोसे खाते और गन्ना चूसते हुए मुस्कराना जन समर्थन में बढ़ोत्तरी कर रहा है। राहुल लोगों को बता रहे हैं कि किस तरह से उनकी छवि को बिगाड़ने के लिए हजारों करोड़ रुपये फूंके जा रहे हैं। भाजपा पर उनके लगातार तीर चल रहे हैं। लोग देख और सुन रहे हैं। वे बार-बार कहते हैं कि उनकी यह पैदल यात्रा भाजपा व आरएसएस द्वारा फैलाई गई हिंसा के खिलाफ है। भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में नदारद रहे लोग आज नायक बनने का षड़यंत्र रच रहे हैं। उन्हें कामयाबी भी मिल रही है। कांग्रेस और उनके नेताओं ने आजादी की लड़ाई लड़ी। महात्मा गांधी, सरदार पटेल, जवाहरलाल नेहरू ने देश के लिए अपनी जान दे दी, लेकिन इन्होंने क्या किया? तब आरएसएस अंग्रेजों की सहायता और सावरकर उनसे धनसुख पा रहे थे। कांग्रेस की भारत जोड़ो यात्रा से पहले भी राहुल भाजपा, संघ और वीर सावरकर को अपने तीखे निशानों पर लेते रहे हैं। वे डटकर सामना भी कर रहे हैं। भाजपा के लोगों ने उन पर कई बार माफी मांगने का दबाव डाला, लेकिन उनका बस यही जवाब आया कि मैं कभी भी माफी नहीं मांगूंगा। मेरा नाम राहुल सावरकर नहीं, राहुल गांधी है। नेहरू-इंदिरा की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए संघर्षरत राहुल से देशभर के तमाम कांग्रेसियों को बहुत उम्मीदें है। वे उन्हें हमेशा उग्र तेवरों के साथ सधे हुए अंदाज में अपनी बात रखते हुए देखना चाहते हैं। राहुल को महात्मा गांधी का वारिस मानने वाले इन चेहरों को तब-तब बड़ा अच्छा लगता है, जब वे संघ को गांधी का हत्यारा कहकर चुनावी सभाओं की भीड़ बढ़ाते हैं। भाजपा और नरेंद्र मोदी के कट्टर विरोधी राहुल गांधी यह भी कह चुके हैं कि मेरी सत्ता और दलगत राजनीति में किंचित भी दिलचस्पी नहीं। मैं जिस देश भारत से प्यार करता हूं उसे पूरी तरह से जानना और समझना चाहता हूं। देश के लोगों और देश की धरती को करीब से देखने के लिए भारत जोड़ो यात्रा पर निकले राहुल गांधी कहते हैं कि वो इस यात्रा के नेतृत्वकर्ता नहीं, हिस्सा भर हैं। कांग्रेसियों के लाख अनुरोध के बावजूद कांग्रेस अध्यक्ष की कुर्सी के प्रति अरूचि दिखाने वाले राहुल गांधी अपने मकसद में कितने कामयाब होते हैं, यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा, लेकिन राहुल की यात्रा के कुछ वीडियो इस कलमकार ने बड़ी एकाग्रता से देखे हैं। एक वीडियों में अपने सहयात्रियों को बताते नज़र आते हैं कि जब मैं खुद को थका हुआ पाता हूं, तो मेरी निगाह अपने साथियों पर जाती हैं, जो घुटनों के दर्द से परेशान है, पांव में छाले पड़ गये हैं, बीमार हो रहे हैं, फिर भी बेपरवाह चलते चले जा रहे हैं। उनकी लगन और हिम्मत मुझे बहुत प्रेरित करती है। जिस तरह से राहुल उनसे प्रेरणा पाते हैं, वैसे ही साथी पदयात्री भी तो उन्हें देखकर नयी ऊर्जा से सराबोर हो रहे होंगे। राहुल का यह अंदाज और नया चेहरा नयी उम्मीद तो जगाता ही है...।

Thursday, October 6, 2022

अपनों को खोने की पीड़ा

    आकांक्षा फिल्मी पर्दे और टीवी पर चमकना चाहती थी। लोगों की नजरों में आने-छाने के लिए उसने मॉडलिंग के क्षेत्र में कदम रख दिए थे। अपने सारे सपनों को साकार करने के लिए उसमें शायद हौसले की कमी थी। यदि ऐसा नहीं होता तो मुंबई के अंधेरी में स्थित होटल के कमरे में फांसी लगाकर आत्महत्या नहीं करती। अचानक खुदकुशी कर इस जहां से विदा होने वाली आकांक्षा ने अपने सुसाइड नोट में लिखा है कि ‘मुझे माफ करना, कोई भी इस घटना के लिए जिम्मेदार नहीं है। मैं खुश नहीं हूं। मुझे शांति चाहिए।’ खुशी और शांति के लिए आत्महत्या! यह उपलब्धि तो जिन्दा रहकर ही हासिल होती है। मरने पर तो सारा खेल ही खत्म हो जाता है। आकांक्षा को यह सच किसी ने नहीं बताया होगा। पढ़ने-सुनने से भी दूर रही होगी। संघर्षों और मुश्किलों से छुटकारा पाने के लिए मौत को गले लगाने वाली इस तीस वर्षीय युवती की तरह ही नागपुर के बाइस वर्षीय युवक सोहन सिंह ने भी लेनदारों के तकादों से परेशान होकर ज़हर खा लिया। महत्वाकांक्षी सोहन ऑनलाइन फ्रूट डिलिवरी का काम करता था। वह भरपूर मेहनती था। धनवान बनने की उसकी प्रबल इच्छा थी। इसीलिए अपनी दोस्त के साथ भागीदारी में केक की छोटी-सी दुकान भी खोल ली थी। सोहन ने साहूकारों से जो कर्ज लिया था उसका समय पर भुगतान नहीं कर पा रहा था। अपनी रकम की वसूली के लिए जब लेनदारों का दबाव बढ़ा और धमकियां-चमकियां मिलने लगीं तो वह घबरा गया। कामधंधे में मन लगना भी कम हो गया। युवती से भी अनबन होने लगी।
    बिगड़े हालातों को शांत मन से सुधारने की बजाय उसने बिना कुछ ज्यादा सोचे-विचारे ज़हर तो निगल लिया, लेकिन बाद में उसे बहुत पछतावा हुआ। जब ज़हर का तेजी से असर होने लगा तो उसने किसी तरह से अपने भाई को फोन कर अपने पास बुलाया और हाथ जोड़ते हुए फरियाद की, ‘भाई किसी भी तरह से मुझे बचा लो। मैंने ज़हर खा लिया है, लेकिन मैं मरना नहीं, जीना चाहता हूं।’ सोहन के भाई के तो होश ही उड़ गये। उसने तुरंत अपनी पगड़ी उतारी। भाई को बाइक के पीछे बिठाया और उससे खुद को बांधा और तेजी से बाइक को दौड़ाते हुए अस्पताल पहुंचा। डॉक्टरों ने सोहन को बचाने के सभी उपाय किए, लेकिन जिद्दी मौत अंतत: उसे अपने साथ लेकर चलती बनी। उसकी जेब से ज़हर के दो पाउच भी मिले। देखते ही देखते लाश में बदल चुके छोटे भाई को बड़ा भाई बस देखे जा रहा था। उसे यकीन ही नहीं हो रहा था कि जिसे सुबह एकदम ठीक-ठाक देखा था, रात को उसके प्राण पखेरू उड़ चुके हैं। बेबसी और गम की आंधी आंसू बन टपके जा रही थी और माथा पकड़े वह बस यही सोचे जा रहा था कि छोटे भाई ने यह क्या कर डाला! कोई तकलीफ थी तो बता देता। मिलजुलकर हल निकाल लेते। अभी तो उसने दुनिया ही कहां देखी थी। एक ही झटकें में सबको दुखी कर विदा हो गया। भाई की लाश को घर ले जाने का भी उसमें साहस नहीं था। मां-बाप पर क्या गुजरेगी। खून के रिश्ते ऐसे होते हैं, जिनके टूटने का गम होश उड़ा देता है। उस पर हमेशा-हमेशा के लिए बिछड़ने की पीड़ा तो इंसान को पूरी तरह से निचोड़कर रख देती है। उसे अंधेरे के सिवाय और कुछ दिखायी ही नहीं देता।
    मुंबई में गरबा खेलते समय दिल का दौरा पड़ने से युवा पुत्र की मौत हो गई। पिता भी वहीं थे। अपनी आंखों के सामने बेटे की मौत का सदमा उनसे बर्दाश्त नहीं हुआ और उनकी भी दिल का दौरा पड़ने से मौत हो गई। कानपुर में एक परिवार के 35 वर्षीय बेटे विमलेश को कोरोना की दूसरी लहर ने झपट्ठा मारकर छीन लिया। घरवाले किंचित भी यकीन नहीं कर पा रहे थे कि विमलेश का अब केवल निर्जीव शरीर उनके सामने है। अस्पताल प्रशासन ने मृत्यु प्रमाणपत्र जारी कर शव को दाह संस्कार के लिए परिजनों के हवाले कर दिया। कुछ ही घंटों के बाद जब मृतक के अंतिम संस्कार की तैयारी की जा रही तभी मां ने यह कहकर सभी को चौंका दिया कि अभी भी मेरे दुलारे बेटे की धड़कने चल रही हैं। ऐसे में मैं उसकी अंत्येष्टि नहीं होने दूंगी। मां की जिद के सामने सभी ने हार मान ली और अंतिम संस्कार रद्द कर शव को घर में लाकर रख दिया गया। विमलेश की शिक्षित बैंक अधिकारी पत्नी, पिता, मां और भाई दिन-रात उसकी ऐसे सेवा करने लगे, जैसे बिस्तर पकड़ चुके किसी गंभीर रोगी का पल-पल ध्यान रखा जाता है और भूले से भी कोई भी भूल-चूक नहीं होने दी जाती। सुबह-शाम नियमित शव की गंगाजल और डेटॉल से साफ-सफाई, सुगंधित तेल से मालिश करने के साथ-साथ कमरे का एसी भी चौबीस घंटे चालू रखने का परिवार ने पक्का नियम बना लिया। बाहरी लोगों की घर के भीतर आने पर बंदिश लगा दी गई। रिश्तेदारों से भी दूरियां बना ली गईं। आसपास के लोगों में परिवार के इस अजब-गजब व्यवहार को लेकर तरह-तरह की बातें होने लगीं। सभी उन्हें मानसिक रोगी तो पुत्र मोह के कैदी मानकर दूरियां बनाते चले गये। लगभग डेढ़ साल तक बिस्तर पर पड़े निर्जीव शरीर के फिर से उठ खड़े होने का इंतजार परिवार के सभी सदस्य सतत करते रहे। पूजा-पाठ भी होता रहा। विमलेश का पांच वर्षीय बेटा प्रतिदिन शव के सामने खड़ा होकर ईश्वर से प्रार्थना करता कि उसके पिता को कोमा के चंगुल से निकालकर शीघ्र पूरी तरह से भला चंगा कर दें। परिजनों को विमलेश के फिर से जीवित हो उठने का कितना भरोसा था उसे इस सच से समझा जा सकता है कि वे कई महीनों तक ऑक्सीजन सिलेंडर लाते रहे और शव को आक्सीजन देते रहे। मां आखिर तक कहती रही कि मेरा बेटा बहुत थक गया था इसलिए गहरी नींद में सोया है। विमलेश की पत्नी तख्त पर पड़े पति के नियमित कपड़े बदलती और घर से बाहर निकलने से पहले उसका माथा चूमती। बाहर क्या हो रहा है, कौन-सा त्योहार आया-गया है, इससे वे पूरी तरह से बेखबर रहे। उन्हें तो बस विमलेश की चिंता थी। विमलेश को ठीक करने के लिए कुछ नामी डॉक्टरों को भी घर में इलाज के लिए बुलाते रहते। झोलाछाप डॉक्टरों ने भी जमकर चांदी काटी। लगभग चालीस लाख खर्च कर चुके परिवार ने तो अपने बेटे को चलता-फिरता देखने के लिए अपनी करोड़ों रुपये की पुश्तैनी जमीन-जायदाद तक बेचने की पक्की तैयारी कर ली थी, लेकिन इससे पहले किसी की शिकायत पर पुलिस घर पहुंच गई। समाजसेवकों, पड़ोसियों, रिश्तेदारों के बहुत समझाने के बाद परिवार डेढ़ साल बाद बेटे का दाह संस्कार करने के लिए बेमन से माना।

Thursday, September 29, 2022

जय भारत देश

    जब सातवीं-आठवीं में था तभी राष्ट्रीय स्वयंसेवक के बारे में जानने और सुनने लगा था। बंटवारे के बाद किसी तरह से जान बचाकर पहले अमृतसर फिर पानीपत के शरणार्थी शिविर में महीनों रहे पिता और चाचा ने बताया था कि किस तरह से राष्ट्रीय संघ से जुड़े युवकों ने दिन-रात उनकी सहायता की थी। बेसहारों का सहारा बन भूखे-प्यासे स्त्री-पुरूषों, बच्चों, युवकों तथा वृद्धों की तन-मन से सेवा कर उनका दिल जीत लिया था। वो 1947 का काल था। तब आजादी की खुशी भी थी, भारत के विभाजन की पीड़ा भी थी। अपने बसे-बसाये घरों से बेघर कर दिये गए करोड़ों लोगों को नये ठिकाने की तलाश थी। वक्त के पास हर जख्म का इलाज है। धीरे-धीरे उसने जख्मों को भर दिया।
    आजादी के बाद के वर्षों में भी निरंतर हम आरएसएस के कर्मठ, जूनूनी कार्यकर्ताओं की सहायता और सेवाभावना से अवगत होते चले आ रहे हैं। देश में कहीं भी अकाल पड़ा हो, बाढ़ आयी हो या फिर कोई बड़ी आपदा और दुर्घटना ने कहर ढाया हो तो आरएसएस के हिम्मती सैनिक बिना किसी भेदभाव के तन-मन और धन से मानव सेवा कर इंसानियत का धर्म निभाते नजर आते हैं। संघ को कभी भी प्रचार की भूख नहीं रही। चुपचाप मानव सेवा करते हुए इसने अपने कद को बढ़ाया है और विरोधियों को अपनी सुनी-सुनायी राय बदलने के लिए प्रेरित किया है। राष्ट्रीय सेवक संघ की स्थापना वर्ष 1925 में, विजयादशमी के शुभ दिन हुई थी। इस संगठन की नींव रखी थी प्रखर राष्ट्रभक्त डॉ. केशव बलिराम हेडगेवार ने, जिनका बस यही सपना था कि भारत एक ऐसा मजबूत राष्ट्र बने, जहां सभी बराबर हों। कहीं कोई ऊंच-नीच का भाव न हो। सभी के मन में राष्ट्र की एकता व अखंडता के पवित्र विचार कूट-कूट कर भरे हों। हर कोई भारत माता के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर करने के लिए हमेशा कमर कस कर तैयार रहे। डॉ. हेडगेवार ने 97 वर्ष पूर्व जो बीज बोया था वह आज वटवृक्ष बन चुका है। यह सच जगजाहिर है कि इस वटवृक्ष के जहां बेशुमार प्रशंसक हैं, वहीं इसके कई आलोचक भी हैं, जिन्हें इसकी बुराई करते रहने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझता। कुछ बुद्धिजीवियों ने तो आरएसएस की आलोचना करते रहने की कसम खा रखी है। मीडिया के कई चेहरों को भी भारतीय जनता पार्टी तथा आरएसएस मुसलमानों को शत्रु प्रतीत होती है। आरएसएस को भाजपा का संरक्षक भी कहा जाता है, लेकिन उसने हमेशा खुद को विशुद्ध सांस्कृतिक संगठन कहलवाना पसंद किया है। किसने किसके कंधे पर बंदूक रख रखी है इसका जवाब आसान भी है और मुश्किल भी।
    आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने हाल ही में अखिल भारतीय इमाम संगठन के प्रमुख इमाम उमर अहमद इलियासी से मुलाकात की तो ऐसा हंगामा और शोर मचा जैसे कोई अकल्पनीय कांड घट गया हो। मोहन भागवत ने इमाम उमर इलियासी के पिता जमील इलियासी की पुण्यतिथि पर उनकी मजार पर जियारत की और एक मदरसे का दौरा भी किया। वहां पर उन्होंने बच्चों से उनकी पढ़ाई के बारे में जानकारी लेते हुए पूछा कि वे अपने जीवन में क्या हासिल करना चाहते हैं। बच्चों ने पढ़-लिखकर डॉक्टर और इंजीनियर बनने की प्रबल इच्छा व्यक्त की। संघ प्रमुख के मस्जिद में कदम रखने से देश में यकीनन एक अच्छा सकारात्मक संदेश गया है। कुछ अमन के शत्रुओं को भागवत की इस पहल से जबर्दस्त धक्का लगा है। हिंदुओं और मुसलमानों में ऐसे कुछ लोग भरे पड़े हैं, जिनकी एकता, आपसी सद्भाव और शांति के मार्ग से कट्टर दुश्मनी है। मार-काट और खून-खराबा पसंद करने वाले इन अमन के दुश्मनों को आपसी मेलमिलाप की कोई भी कोशिश और मुलाकात रास नहीं आती। इस ऐतिहासिक मुलाकात के दौरान इमाम इलियासी का मोहन भागवत को राष्ट्रपिता और राष्ट्रऋषी कहना भी ऐसे विघ्न संतोषियों को शूल की तरह चुभा है। निमंत्रित मेहमान को आदर सूचक शब्दों से नवाजना इस देश की सदियों से चली आ रही पुरातन आदर्श परंपरा है।
यहां पर लिखना और बताना भी जरूरी है कि भारत के अधिकांश हिंदुओं और मुसलमानों में सद्भाव और भाईचारा यथावत बरकरार है। हाल के वर्षों में जो प्रचारित किया जा रहा है उसमें अतिशयोक्ति काफी ज्यादा है। भारत भूमि पर रहने वाले हर सजग हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन यहूदी और पारसी के मन में एक-दूसरे के धर्म के प्रति अपार सम्मान है। एक-दूसरे के पूजा स्थलों पर माथा टेकने में उन्हें खुशी और संतुष्टि मिलती है। मुंबई की हाजी अली दरगाह हो या नागपुर में स्थित ताजुद्दीन बाबा की दरगाह... यहां आपको सभी धर्मों के लोग चादर चढ़ाते और इबादत करते मिल जाएंगे। राजस्थान के अजमेर शरीफ में यह जान पाना मुश्किल होता है कि किसका किस धर्म से वास्ता है। सभी मानवता के रंग और खूशबू में महकते नज़र आते हैं। लखनऊ के चारबाग रेलवे स्टेशन पर पटरियों के बीच खम्मन पीर बाबा की दरगाह पर हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई... सभी पूरी आस्था के साथ शीश नवाते हैं। आंध्रप्रदेश के कडप्पी में श्री लक्ष्मी वेंकटेश्वर स्वामी मंदिर में रोज मुस्लिम एवं अन्य धर्मों के लोग एक जैसी पवित्र सोच के साथ आते हैं। अमृतसर स्थित स्वर्ण मंदिर में भी किसी एक धर्म के नहीं सभी धर्मों के लोग माथा टेकने जाते हैं और छक कर पवित्र लंगर का सात्विक आनंद उठाते हैं। तामिलनाडु के वेलंकनी चर्च में सैकड़ों किमी की पैदल यात्रा कर पहुंचने वालों में भी हर धर्म के लोगों का समावेश रहता है। यह तो नाम मात्र के उदाहरण हैं। भारतवासियों की एक दूसरे के धर्म के प्रति आदर-सम्मान और आस्था की हकीकतों असंख्य रंग और जीवंत तस्वीरें हैं, जिन्हें देखने के बाद पक्का यकीन होता है कि सभी भारतवासी एक सूत्र में बंधे हैं, भले ही पूजा-पद्धति अलग-अलग है। भारत का हर आम आदमी आपसी प्रेम-प्यार, अटूट सद्भाव और एकता के साथ रहने का प्रबल अभिलाषी रहा है। कुछ स्वार्थी दुष्ट लोगों की तोड़क सोच और अंधी राजनीति देश की फिज़ा को बदरंग करने की साजिशें जरूर रचती रहती है, लेकिन लाख सिर पटकने के बाद यदि वे असफल हैं तो उन आम भारतीयो की वजह से जो किसी दुष्चक्र में कभी भी नहीं फंसते।

Thursday, September 22, 2022

जब रक्षक ही भक्षक बन जाएं

यह भारतीय खाकी वर्दीधारियों, पुलिस थानों और अधिकांश जेलों का वास्तविक चेहरा है, जिसे उन्हीं ने अच्छी तरह से जाना और पहचाना है, जिनका इससे वास्ता पड़ा है। फर्जी मुठभेड़ में मार गिराने और पुलिस थाने में रिपोर्ट दर्ज करवाने पहुंची किसी नारी की अस्मत लुटने और उसे अपमानित करने की खबरें पुरानी पड़ चुकी हैं। कुछ अपराध ऐसे हैं, जो पुलिसवाले सत्ताधीशों के इशारे पर करते चले आ रहे हैं। पुरस्कार तथा पदोन्नति का लालच तो लगभग सभी को रहता है। फर्जी मुठभेड़ के साथ भी कहीं न कहीं यह सच जुड़ा हुआ है। कल भी अधिकांश औरते थाने जाने में घबराती थीं। आज भी घिनौने से घिनौने दुष्कर्म का शिकार होने के बाद भी वहां की चौखट पर पैर रखने से कतराती हैं। पुलिस के लालची और पक्षपाती चलन के चलते कई बार बेकसूर ही अपराधी घोषित कर दिये जाते हैं। उन्हें न्याय के फूलों की बजाय कांटे ही कांटे मिलते हैं।
    भारतीय जेलों के भी बड़े बुरे हाल हैं। कहने को तो पुलिस आम लोगों की सुरक्षा और जेलें अपराधियों को सज़ा और उनके जीवन में बदलाव लाने के लिए हैं, लेकिन जो सच सामने है वह बड़ा चिंतनीय तथा डरावना है। निर्दोष लोगों के सिर काटकर हत्याएं करने और पूरी दिल्ली में दहशत फैलाने वाले एक सीरियल किलर ने खुद के अपराधी बनने का जो कारण बताया उससे तो अदालत के दिमाग की चूलें ही हिल गईं। वह अपनी कह रहा था और स्तब्ध जज साहब बस सुन रहे थे, साहब, मैं तो यहां मेहनत मजदूरी कर अपने परिवार वालों के लिए दो वक्त की रोटी कमाने के लिए आया था। राजधानी के कई इलाकों में कई काम किए। भरपूर मेहनत-मजदूरी करने के बाद दो पैसे हाथ में नहीं लगने पर आदर्शनगर में सड़क के किनारे की खाली जमीन पर सब्जी बेचने लगा। हमारे गांव में तो सरकारी जगह पर ठेला, रेहडी लगाने की पूरी आज़ादी थी। महानगर के दस्तूर का मुझे पता नहीं था। सब्जी की दुकान लगाये अभी पांच-छह दिन ही बीते थे कि गुंडे-बदमाशों ने पैसों के लिए तंग करना प्रारंभ कर दिया। मेहनत मेरी थी, लेकिन वे अपना हिस्सा मांग रहे थे। मैंने उन्हें कुछ दे-दुआकर किसी तरह शांत किया, तो पुलिस वालों ने अपनी हिस्सेदारी मांगनी प्रारंभ कर दी। एक बीट कांस्टेबल तो मेरे पीछे ही पड़ गया। मनचाही रिश्वत नहीं मिलने पर उस धूर्त ने तो मेरी सब्जी की टोकरियां नष्ट करने के साथ-साथ मेरे खिलाफ मुकदमें दर्ज करवाने प्रारंभ कर दिये। एक जगह से दूसरी जगह पर जा-जाकर मैंने अपनी दुकान लगायी, लेकिन हर बार लुटेरे वर्दीवालों ने चैन से जीने नहीं दिया। बेकसूर होने के बावजूद कई बार मुझे जेल जाना पड़ा। जेल यात्रा के दौरान ही मन में पुलिस वालों को सबक सिखाने और उनकी नींद उड़ाने का विचार आया तो निर्दोषों की चुन-चुन कर हत्याएं करने लगा। ऐसा भी नहीं कि आम आदमी से मित्रवत व्यवहार करनेवाले खाकी वर्दीधारियों का अकाल पड़ गया है, लेकिन जो हैं, वे गिने-चुने हैं। अपराधी सोचवाले उन पर भारी पड़ रहे हैं।
    देहरादून की जेल में हत्या के आरोप में आजीवन कारावास भोग रहे रामप्रसाद को दाएं गुर्दे में पथरी की शिकायत थी। पथरी के ऑप्रेशन के लिए उसे अस्पताल में भर्ती किया गया, जहां जेल प्रशासन की मिलीभगत से पथरी का ऑप्रेशन करने की बजाय उसकी बायीं किडनी ही निकाल ली गई। कुछ महीनों के बाद रामप्रसाद को फिर दर्द हुआ तो इलाज के नाम पर की गई धोखाधड़ी का पता चला। जेल में बंद खूंखार कैदी जेल में कुछ भी हासिल कर सकते हैं। बिकाऊ जेल प्रशासन को मोटी रिश्वत थमा कर जन्मजात चोर, लुटेरे, वसूलीबाज कैदी हर वो सुविधा पा रहे हैं, जो वे चाहते हैं। पैसे वाले कैदी जेल में मोबाइल का इस्तेमाल कर रहे हैं। अपना जन्मदिन और हर खुशी का जश्न मनाने के लिए शराब, गांजा आदि उन्हें पीने को मिल रहा है। जेल में वर्षों तक बंद रहे एक अपराधी ने बताया कि उसने अपनी आंखों से कैदियों को पेटीएम व फोन-पे के माध्यम से पैसे मंगवा कर अधिकारियों की रिश्वत की अंधी भूख को पूरा करते देखा है। यही भ्रष्टाचारी जेल अधिकारी रिश्वत देने वाले कैदियों के लिए दारू, चिकन-मटन पार्टी से लेकर अन्य और सभी मौज-मजों के इंतजाम कर रहे हैं। कुछ कैदियों को मिल रही सुविधाओ को देखकर लगता ही नहीं कि वे किसी संगीन जुर्म के कारण सींखचो में डाले गये हैं। नागपुर की सेंट्रल जेल में कई खूंखार हत्यारे, बलात्कारी, डॉन, माफिया कैद हैं। जेल के कुछ अधिकारी इन पर बड़े मेहरबान हैं। अभी हाल ही में कुछ कैदियों को मोबाइल तथा गांजा उपलब्ध कराने की शर्मनाक हकीकत ने सुर्खियां पायीं। जेल में विशाल प्रवेश द्वार पर कड़ी जांच की जाती है। यहां तक कि बाहरी व्यक्तियों के मोबाइल व अन्य इलेक्ट्रानिक्स सामान काउंटर पर जमा कर लिए जाते हैं। तो फिर ऐसे में जेल के भीतर नशे के लिए गांजा तथा बातचीत के लिए मोबाइल कैसे पहुंचा होगा? इसका उत्तर तो कोई बच्चा भी दे सकता है। तिहाड़ जेल में कैद रहकर भी ठगराज सुकेश चंद्रशेखरन ने एक शीर्ष उद्योगपति की बीवी से 200 करोड़ झटक लिए। तगड़ी सुरक्षा व्यवस्था के बिकने का इससे खतरनाक सच भला और कौन सा हो सकता है। लोग अक्सर सवाल करते हैं कि देश में अपराधियों को नकेल कसने के लिए जब इतने कानून हैं, तो अपराधों का आंकड़ा जस का तस और अपराधियों का बाल भी बांका क्यों नहीं हो रहा? हां, यह सच है कि देश में कानूनों की तो भरमार है, रोज नये-नये कानून बनते भी रहते हैं, लेकिन रक्षक के भक्षक बनने, उसके बिक जाने और सत्ता तथा व्यवस्था के भेदभाव करने के कारण कानून असहाय और बौना बनकर रह गया है...।

Thursday, September 15, 2022

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इस वीडियो को देखने के बाद सबसे पहला विचार आया कि क्या भारतीय महिलाओं की सोच बदल रही है? वो अपनत्व और ममत्व जो इस पवित्र धरा की नारी की वास्तविक पहचान है, कहां मरखप गयी है। यकीनन जो सच सामने था, वो दिल को दुखाने, तड़पाने और दहलाने वाला था। इतनी संवेदनहीनता संकीर्णता और शर्मनाक निष्ठुरता! गाजियाबाद की रइसों और पढ़े-लिखों की सोसाइटी में एक महिला अपने पालतू कुत्ते के साथ लिफ्ट में सवार होती है। कुत्ता एक बच्चे को झपट्टा मार काट खाता है, लेकिन महिला देखकर भी अनदेखा कर देती है। जैसे कुछ हुआ ही न हो। बच्चा दर्द से कराहता रहता है, लेकिन निर्दयी महिला की इंसानियत नहीं जागती। वह तो बस तब तक चुपचाप लिफ्ट में खड़ी रहती है, जब तक उसका फ्लोर नहीं आ जाता। चौथी क्लास में पढ़ रहा यह बच्चा ट्यूशन से भूखा-प्यासा लिफ्ट से अपने फ्लैट लौट रहा था। जैसे ही उसे खूंखार कुत्ते ने काटा तो वह दर्द के मारे हाथ-पैर पटकने लगा। उसके लिए खड़े रहना मुश्किल हो गय। वीडियो में स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि कुत्ते के काटने से घायल हुए बच्चे को संभालने की बजाय महिला अपनी अकड़ और मस्ती में गुम है। उसके चेहरे से जो अहंकार टपक रहा है, वो उसके नारीत्व की गरिमा के पतन की दास्तान कह रहा है...।
    झारखंड की बीजेपी की अच्छी-खासी रंगदार नेत्री रहीं हैं सीमा पात्रा। पतिदेव भी पूर्व आईपीएस अधिकारी रहे हैं। अमूमन नेता और नेत्रियां अनपढ़ होते हैं, लेकिन सीमा पढ़ी-लिखी हैं, लेकिन घमंड ने उसे जाहिल, गंवार से भी बदतर बना दिया है। उनकी नजर में गरीब की औकात शुन्य भी नहीं। सच का साथ देने वाले अपने ही बेटे को पागलखाने भिजवा चुकी सीमा पात्रा को अपने घर की आदिवासी नौकरानी का रहन-सहन तथा चेहरा-मोहरा पसंद नहीं था। वह जैसा चाहती थी नौकरानी सुनीता खाखा वैसा कर नहीं पाती थी। होना तो यह चाहिए था कि असंतुष्ट मालकिन नौकरानी की छुट्टी कर देती, लेकिन उसने तो हिंसक पशु की तरह उस पर जुल्म ढाने प्रारंभ कर दिए। उसे गरम सलाखों से जगह-जगह दागा गया। खाना-पीना तक बंद कर घर के अंधेरे कमरे में कैद करके रखने की दुष्टता के साथ-साथ बेहोश होने तक उसकी पिटायी तथा जीभ से मैला-कुचैला फर्श चटवाया गया। एक दिन तो डंडे से पीटते-पीटते उसके दांत तक तोड़ डाले। सीमा के बेटे ने अपनी मां के जंगलीपन का विरोध जताया, तो पागलखाने जाने की सज़ा पायी। सीमा पात्रा के संवेदनशील बेटे के दोस्त ने यदि लाठी, डंडों और लोहे की रॉड से बार-बार लहूलुहान की जाती रही सुनीता को अस्पताल में नहीं पहुंचाया होता तो इस नेत्री की वहशी दरिंदगी उजागर ही नहीं हो पाती। कालांतर में हो सकता है कि वह पार्टी में कोई उच्च पद पाते हुए विधायक और सांसद भी बन जाती। ऐसे कई मुखौटेधारी चेहरे राजनीति में अपनी मजबूत पकड़ बनाये हुए हैं और अपनी मनमानी कर रहे हैं।  
    पूरे विश्व में प्रसिद्ध अमृतसर में स्थित स्वर्ण मंदिर के निकट के बाजार में निहंगों ने एक युवक की किरपाण से काटकर हत्या कर दी। स्वर्ण मंदिर के पास एक अनजान युवक को तंबाखू का सेवन करते देख निहंग आग-बबूला हो गये और उसे मौत की सौगात दे दी। ध्यान रहे कि सिख समुदाय के बीच स्वभाव से आक्रमक और हथियार रखने वाले इस विशेष तबके के सिखों को निहंग सिख कहा जाता है। यौद्धा के रूप में भी इनकी विशेष पहचान रही है। युवक का नाम हरमनजीत सिंह है। अपना आपा खो चुके निहंगों ने स्वर्ण मंदिर के नजदीक नशा करने पर आपत्ति जतायी तो वाद-विवाद होने लगा। बात बढ़ती-बढ़ती हाथापाई तक जा पहुंची। युवक भी हट्टा-कट्टा था। उसके भारी पड़ने पर एक निहंग की पगड़ी भी उतर गई। फिर तो जैसे आग में पेट्रोल का छिड़काव हो गया। दहलाने वाले तलवारों के आतंकी हमले के बाद युवक छह घंटे तक सड़क किनारे पड़ा रहा। किसी राहगीर को उस पर रहम नहीं आया। अंतत: उसने वहीं पड़े-पड़े ही दम तोड़ दिया। यह हमारे आज के समाज का असली चेहरा है, जो देखकर भी अंधा बना रहना चाहता है। नाटक-नौटंकी करने में भी उसने महारत हासिल कर ली है। आंखें होने के बावजूद भी अंधे हुए लोगों को सचमुच के अंधों से इंसानियत का पाठ सीखने का वक्त आ गया है। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में स्थित है काली बाड़ी चौक। इस चौराहे पर हमेशा भीड़ का सैलाब उमड़ता दिखायी देता है। इसी सैलाब में अक्सर दिख जाती हैं, एक दूसरे की मददगार वो तीन हिम्मती लड़कियां जो कॉलेज की छात्राएं हैं। इन तीनों के साथ कुदरत ने बड़ी बेइंसाफी की है। राधिका यादव जो हिस्ट्री में एमए कर रही है, वह तो पूरी तरह से नेत्रहीन है। राजनीति में एमए कर रही भूमिका को सिर्फ 20 प्रतिशत ही दिखता है। शुक्री डिग्री गर्ल्स कॉलेज में बीए फर्स्ट ईयर की छात्रा है उसकी भी दोनों आंखें अंधेरे की भेंट चढ़ चुकी हैं। तीनों नियमित साथ-साथ बस से काली बाड़ी चौक आती हैं और एक-दूसरे का हाथ थामे सड़क और चौराहा पार कर कॉलेज जाती हैं। उनके अपनत्व भरे जुड़ाव को देखकर अक्सर लोग उन्हें देखने के लिए खड़े हो जाते हैं। सवाल करने पर वे कहती हैं कि खून के रिश्ते ही सबकुछ नहीं होते। मन की आंखें अपने और बेगाने की पहचान कर लेती हैं। हम तीनों नेत्रहीन हैं, लेकिन कुदरत ने हमें एक-दूसरे से मिलाकर अटूट रिश्ते में बांध दिया है, जो इस जन्म में तो नहीं टूट सकता। हां, एक सच और जो हमारी समझ में आया है... वो है, इंसान के लिए आंखें ही सबकुछ नहीं होतीं। हमने भीड़ भरी इस दुनिया में बहुत से आंखों वाले ऐसे-ऐसे अंधे देखे हैं, जो दूसरों की मां-बहन की आबरू को लूटने के लिए हर मर्यादा को सूली पर लटका देते हैं। कई बार तो वासना के अंधेपन में अपनी बहू-बेटी तक को शिकार बनाने में भी संकोच नहीं करते।

Thursday, September 8, 2022

बदरंग बचपन और जवानी

    गुलाटी साहब पंद्रह दिन के बाद घर लौटे। उनका पालतू कुत्ता उन्हें देखते ही उनके इर्द-गिर्द घूमने और उनके पैरों को चाटने लगा। गुलाटी साहब ने देखा, कुते की आंखों से झर-झर आंसू छलक रहे थे। गुलाटी साहब ने उसे बड़े जोर से अपने गले से चिपटा लिया। जैसे उन्हीं का प्यारा-दुलारा बेटा हो। गुलाटी शहर के विख्यात कॉलेज में हिन्दी के व्याख्याता थेे। अपने छात्र-छात्राओं में खासे लोकप्रिय गुलाटी और उनकी पत्नी को उन्हीं के इकलौते कपूत ने गोलियों से भूनकर दर्दनाक मौत दे दी। यह खबर पढ़ते ही मुझे लगा किसी जालिम ने मेरे सीने का धड़कता दिल खींचकर बाहर निकाल लिया हो। मेरे हाथ-पैर सूखे पत्ते की तरह कांपने लगे। दिमाग कुछ भी सोचने के काबिल नहीं रहा। गुलाटी का नाबालिग बेटा शराब और गांजा के नशे की लती हो चुका था। मां-बाप समझा-समझा कर थकहार गये थे। पहले तो नशे के लिए घर के कीमती सामान बेचकर गांजा, शराब खरीदता था फिर यहां-वहां चोरी-चक्कारी करने लगा। सुबह-शाम हवाखोरी के लिए सैर पर निकलने वाली महिलाओं के गले की सोने की चेन उड़ाने के कारण जेल भी हो आया था। प्रोफेसर गुलाटी बेटे के कारण बदनामी के दंश झेलते-झेलते बीमार-बीमार से दिखने लगे थे। पत्नी ने तो बिस्तर ही पकड़ लिया था और अब यह शर्मनाक कांड जो हर किसी की जबान पर था...
गुलाटी ने जितना भी कमाया  और बनाया था, सब अपने बेटे के लिए ही तो जुटाया था। वे तो बस यही चाहते थे बेटा किसी तरह से सही राह पकड़ ले। उनके विरोधी तो उन्हीं को अपराधी और कसूरवार समझते थे। पीठ पीछे कहते नहीं थकते थे कि जो इंसान अपने इकलौते बेटे को सही संस्कार नहीं दे पाया उसका प्रोफेसर होना ढकोसला है। अगर उन्होंने बेटे पर शुरू से नज़र रखी होती तो बेटा कभी बेकाबू नहीं होता। अच्छे-बुरे हर मौके पर आलोचना करने का ठेका ले चुके लोगों को तो सदबुद्धि दे पाना ऊपर वाले के भी बस के बाहर है। मुझे पता है कि गुलाटी ने अपने बिगड़ैल बेटे को अच्छे विचारों से संस्कारित करने के लिए जी-जान से न जाने कितनी कोशिशें की थीं। यह बड़ी विचित्र विडंबना है कि गुलाटी जैसे विद्वान दुनिया को तो जीतने में कामयाब हो जाते हैं, लेकिन अपने ही घर में अक्सर मात खा जाते हैं।
    देश के विशाल प्रदेश उत्तरप्रदेश के शहर गाजियाबाद के उस पिता पर क्या बीत रही होगी जिसके नाबालिग बेटे ने पढ़ने-लिखने की उम्र में खुद पर हत्यारा होने के कलंक का ठप्पा लगवा लिया है। हर माता-पिता अपनी संतान के अच्छे भविष्य के लिए सतत चिंतित रहते हैं, लेकिन आज के दौर के बच्चे तो कहां से कहां अंधे घोड़े की तरह दौड़े चले जा रहे हैं। दसवीं में पढ़ने वाले इस लड़के का पढ़ाई से ऐसा मन उचटा कि उसने किताबों से छुटकारा पाने के उपाय तलाशने प्रारंभ कर दिए। घर से स्कूल जाने के लिए निकलता लेकिन यहां-वहां भटकता रहता। उसे इस आवारागर्दी में ही मज़ा आने लगा था। महीने में मात्र पांच-सात दिन स्कूल जाते हुए अपने पिता की मेहनत की कमायी की बरबादी करता रहा। पिता को जब खबर लगी तो डांट पड़ी जो उसे बिलकुल अच्छी नहीं लगी। फिर तो उसने जो काम किया उसे देख- सुनकर  सभी के रोंगटे खड़े हो गए। पढ़ाई के सिरदर्द से छुटकारा पाने के रास्ते तलाशते-तलाशते सोशल मीडिया से उसे पता चला जेल जाने पर पढ़ाई से छुटकारा हमेशा-हमेशा के लिए मिल सकता है। फिर तो उसके दिल-दिमाग में जेल जाने का भूत सवार हो गया, लेकिन उसके लिए कोई अपराध करना जरूरी थी। गूगल और अपराधियों को महिमामंडित करने वाले विभिन्न वीडियो से उसे प्रेरणा मिली कि किसी की हत्या कर दो तो जेल जाने से कोई नहीं रोक सकेगा। किसी कुत्ते-बिल्ली की हत्या कर तो जेल नहीं पहुंचा जा सकता था। इसके लिए तो किसी जीती-जागती इंसानी जान की कुर्बानी की जरूरत थी। शातिर लड़के ने अपने पड़ोस में रहने वाले तेरह साल के बच्चे से दोस्ती की। कुछ ही दिनों में उसने बच्चे को विश्वास दिला दिया कि वह उसका अच्छा दोस्त है। एक शाम वह घुमाने-फिराने और कुछ खिलाने के बहाने से उसे सुनसान इलाके में ले गया और वहीं अभ्यस्त हत्यारे की तरह गला दबाकर उसकी हत्या कर दी। पुलिस ने जब उसे दबोचा तो वह बस यही कहता रहा कि, मैं पढ़ना नहीं चाहता, मुझे जल्दी से जल्दी जेल भेज दो...। नाबालिग होने के कारण इस हत्यारे को जेल तो नहीं भेजा गया, लेकिन सुधारगृह में जरूर डाल दिया गया है।
    शिवकुमार धुर्वे उम्र 18 वर्ष। छह दिन में 4 निर्दोषों की हत्या कर सीरियल किलर का तमगा हासिल करने वाले इस किशोर की चाहत थी कि उसका किसी भी तरह से नाम हो। लोग उसकी चर्चा करें। उसका नाम सुनते ही लोग भयभीत हो जाएं। पुलिसिया पूछताछ में उसने बताया कि एक फिल्म के किरदार रॉकीभाई ने उसे इस कदर रोमांचित किया कि उसने हत्या दर हत्या कर अपनी इच्छा पूरी करने के साथ-साथ मीडिया की भी भरपूर सुर्खियां पा लीं। धुर्वे ने हत्याएं करने का वही तरीका अपनाया जो फिल्मी किरदार ने अपनाया। वह रात को घूम-घूमकर देखता कि कौन थका-हारा चौकीदार अपनी ड्यूटी के बाद मधुर नींद की आगोश में है। मौका पाते ही वह सिर पर पत्थर मारकर उसकी निर्मम हत्या कर नये शिकार के लिए आगे निकल जाता। उसका इरादा तो पच्चीस-पचास को टपकाने का था, लेकिन 4 की हत्या के बाद वह पकड़ में आ गया। यह सीरियल किलर पढ़ा-लिखा तो नहीं लेकिन, स्मार्टफोन चलाने का उसे जबर्दस्त शौक रहा है। कई-कई घंटों तक अपराधों से संबंधित वीडियो देखना और मसालेदार खाना खाने के शौकीन इस और अन्य सभी नृशंस हत्यारों की गिनती इंसानों में तो कतई नहीं की जा सकती...।