Thursday, January 29, 2015

मरना और जीना

बिहार ने एक से बढकर एक शख्सियतें दी हैं। शिक्षाविद्, साधु-महात्मा, लेखक, पत्रकार, सम्पादक, उद्योगपति, अभिनेता और धुरंधर राजनेता। अधिकांश की गाथाओं से लोग वाकिफ हैं। उन पर बहुत कुछ लिखा और सुना-सुनाया जा चुका है। बिहार की राजधानी पटना की भी अपनी एक खास पहचान है। देश की नामी-गिरामी शहरों की तरह उसका भी अपना रूतबा है। जब रूतबे की बात आती है तो एक ताकतवर तस्वीर उभरती है। जुनूनी और मेहनती लोगों की बदौलत ही कोई शहर बुलंदियों को छूने में सफल होता है। कमजोर और मुफ्तखोर शहर की शान में बट्टा लगाते हैं। निकम्मे और भ्रष्ट नेता यह काम बखूब करते आये हैं। उन्हें अपना आदर्श मानने वाले भी कम नहीं। पटना की यात्रा के दौरान एक युवक को जाना और समझा। यूं तो हर यात्रा में कई किस्म के लोगों से वास्ता पडता है। कुछ याद रहते हैं। अधिकांश आये-गए हो जाते हैं। इस युवक को भूला पाना आसान नहीं। दरअसल, यह मात्र कोई युवक नहीं, एक चुभने वाला सवाल है जिससे न मैं बच पाया और न ही आप बच पाएंगे। पहेली बुझाने और भूमिका बांधने का मेरा कोई इरादा नहीं। जो सच है उसी से आपको रूबरू करवा रहा हूं। जब कभी आप रेल से पटना जाएं तो पटना जंक्शन पर वह आपको सहज ही भीख मांगता दिख जाएगा। आप कहेंगे यह तो आम बात है। इस देश में जब भिखारियों और लुटेरों की भरमार है तो उसके भीख मांगने पर अचंभा कैसा?
बत्तीस साल का भिखारी पप्पु कुमार शहर के भीखमंगों का आदर्श है। उसने अपने इसी करतब से दो एकड जमीन, आलीशान घर, और लाखों की नगदी जुटा ली है। पप्पू ऐसा करोडपति है जिसने दस लाख रुपये से ज्यादा की रकम ब्याज पर चढायी हुई है और अच्छा-खासा मुनाफा पाता है। उसके चार बैकों में खाते हैं। जिनकी रकम का आंकडा कभी भी ढलान पर नहीं जाता। उसके हाथ मुडे-तुडे हैं। इसी खासियत की बदौलत वह अपनी दीनता दर्शाता है और सतत मोटी भीख पाता है। उसके करोडपति होने का खुलासा तब हुआ जब उसे रेलवे स्टेशन से 'भिखारी भगाओ' अभियान के तहत हिरासत में लिया गया। उसकी रईसी ने आरपीएफ के अधिकारियों को भी हैरत में डाल दिया। इतनी दौलत तो उनकी किस्मत में भी नहीं आयी जितनी पप्पू भिखारी ने हाथ फैलाकर कमायी। उसे कई बार भगाया गया, लेकिन वह अडियल टट्टू की तरह पटना जंकशन के फुट ओवर ब्रिज पर आकर जम जाता है। इस जगह को वह अपने लिए बेहद लक्की मानता है। आने-जाने वाले हजारों लोग उसकी हालत पर तरस खाकर उसकी मुराद पूरी कर देते हैं। इस धनवान भिखारी को कई लोगों ने अपना इलाज करवाने की सलाह दी। डॉक्टर भी कहते हैं कि समुचित इलाज होने पर वह पूरी तरह से सही-सलामत हो सकता है। उसके हाथ-पैर आम लोगों की तरह दिखने और काम करने लग सकते हैं। लेकिन वह साफतौर पर मना कर देता है। कहता है कि यदि उसने अपने हाथ पैरों को दुरुस्त करवा लिया तो फिर उसे भीख कौन देगा? उसका तो धंधा ही चौपट हो जाएगा। यही अपंगता ही उसकी पूंजी है जिस पर तरस खाकर लोग अपनी अंटी ढीली करते हैं। इसलिए वह अपनी अपंगता को खोना नहीं चाहता। मुफ्तखोर पप्पू को अपना आदर्श मानने वालों की तादाद बढती चली जा रही है। कुछ ने तो अपने हाथ-पैर तुडवा कर पप्पू की तरह भीख के धंधे में उतरने की ठान ली है। अपने नाम का डंका बजने से पप्पू गदगद है। उसने एक स्कूल खोलने की भी सोची है जिसमें बेरोजगारों को भीख मांगने की कला से परिचित कराया जाएगा। वैसे भी पप्पू एक चलती-फिरती अनोखी पाठशाला है। इस पाठशाला के विद्यार्थी दूसरों की जेबों पर नजर रखते हैं। यह लोग मेहनतकशों और ईमानदारों को बेवकूफ समझते हैं।
अगर नीयत में खोट न हो और अपने बलबूते पर कुछ कर गुजरने की जिद्दी तमन्ना हो तो हर तकलीफ और मुश्किल को चुटकियां बजाते हुए मात दी जा सकती है। भोपाल की सांत्वना आरस ने हाथ-पैर से लाचार होते हुए भी वो कर दिखाया है जिससे सार्थक प्रेरणा लेकर हालात के घने से घने अंधेरे को उजाले में बदला जा सकता है। सांत्वना बचपन से ही एक ऐसी बीमारी से पीडित हैं जिसने उसे लाचार बनाकर रख दिया। लेकिन वह टूटी और हारी नहीं। वह अपने दम पर खडी हो पाने में अक्षम हैं। किसी सहारे के बिना हाथ ऊपर नहीं उठ पाता। शारीरिक निर्बलता के चलते वह टेबल पर हाथ रखने में असमर्थ हैं। इसके लिए दूसरे का सहारा लेना पडता है। तब कहीं जाकर लिख और पढ पाती हैं। माता-पिता ने उसके इलाज के लिए ढेरों कोशिशें कीं। बडे से बडे काबिल डाक्टरों ने आखिरकार असमर्थता जता दी। सांत्वना ने बचपन में ही चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने का सपना देखा था। अपने सपने को साकार करने के लिए सांत्वना ने मजबूत इरादों का हाथ थामा और आखिरकार चार्टर्ड अकाउंटेंट बनने में सफल हो गयीं। जो लडकी खडी भी नहीं हो पाती उसका सीए बनने का सफर वाकई काफी चौंकाने वाला है। सांत्वना अपनी मनपसंद कोचिंग में पढायी करने से भी वंचित रहीं। भोपाल में सीए की ज्यादातर कोचिंग दूसरे या तीसरे माले पर हैं और उस पर लिफ्ट का भी अभाव। जिसके लिए अपने पैरों पर खडे होना नामुमकिन है, वह कष्टदायक सीढियां कैसे चढ पाती। बार-बार तबीयत बिगडने के कारण सांत्वना के समक्ष कई अडचने आयीं। पर उन्होंने अपनी जिद नहीं छोडी, अपने सपने को पूरा कर ही दम लिया।
पप्पू कुमार कितनी भी माया जुटा ले, लेकिन अंतत: उसे ऐसी मौत मरना है जहां कोई दो आंसू भी नहीं बहाने आता। कर्मठ और जुनूनी सांत्वना आरस की दास्तान हमेशा लोगों को प्रेरणा देती और उन्हें जगाती रहेगी।

Thursday, January 22, 2015

जिधर दम... उधर हम

"यह चुनाव का समय है। दिल्ली में कांग्रेस और भाजपा के होश उड चुके हैं। ऐसे में इन दोनों पार्टियों के चेहरे आपका वोट खरीदने के लिए नोटों की बरसात करेंगे। आप उनसे नोट लेने में कोई संकोच न करना। बस चुपचाप नोटों को जेब के हवाले कर देना। यदि कहीं यह लोग नोट देने नहीं आते तो आप उनके कार्यालयों में जाना और बेझिझक नोट मांगना। मेरा आप सभी को यही सुझाव है कि इन दोनों दलों से कडकते नोट जरूर लेना और अपना कीमती वोट सिर्फ और सिर्फ झाडू को ही देना।"
यह वो ज्ञान का भंडार है जो दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के द्वारा दिल्ली विधानसभा के चुनावी मंचों पर खडे होकर बांटा गया। आम आदमी पार्टी के मुखिया केजरीवाल बहुत बडे विद्धान हैं। ज्ञानी-ध्यानी हैं। देश और दुनिया के जाने-माने समाजसेवक अन्ना हजारे के प्रिय शिष्य रहे हैं। अन्ना आंदोलन से पूरी सक्रियता के साथ जुडे रहे हैं। इसी आंदोलन के जरिए ही उन्होंने तथा किरण बेदी और कुमार विश्वास आदि ने सुर्खियां पायीं और नायक बन गये। अरविंद केजरीवाल ने तो महानायक का दर्जा हासिल कर लिया। एक समय ऐसा था जब अन्ना के बिना चेलों का पत्ता भी नहीं हिलता था। आज वही चेले बहुत आगे निकल गये हैं। गुरु ने गुमनामी की चादर ओढ ली है। अलग-थलग पड गये हैं। कभी-कभार उनके हिलने-डुलने के समाचार आ जाते हैं। वो दौर तो अब सपना हुआ जब देशभर में अन्ना हजारे के ढोल की थाप सुनायी देती थी। सभी न्यूज चैनल वाले उनके आगे-पीछे दौडते थे। सत्ता उन्हें सलाम करती थी। बडे-बडे राजनेता उनके मंच पर विराजमान होने के लिए तरसते थे। अन्ना किसी को भाव नहीं देते थे। उन्हें तो लगभग सभी नेता भ्रष्ट नजर आते थे। दरअसल, उन्हें तो राजनीति से भी चिढ थी। तभी तो वे अपने सभी शिष्यों को राजनीति के निकट भी न फटकने की सीख देते रहते थे। उन्हें अपने चेलों पर बडा नाज था। उन्हें यकीन था कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन उनके चेले भटकेंगे नहीं। उनके पढाए पाठ को सदैव याद रखेंगे। दरअसल गुरु भूल गए थे कि यह भ्रमयुग है, धर्मयुग नहीं। यहां अपना काम निकालने के लिए मुखौटे लगाए जाते हैं। अंदर ही अंदर छल-कपट के ऐसे-ऐसे जाल बुने जाते हैं कि किसी को भनक भी नहीं लगती। अन्ना के चेलों ने वही किया जो उन्हें करना था। उन्हें पता था कि गुरु की नाव में इतना दम नहीं जो उन्हें वहां तक पहुंचा सके, जहां तक की उनकी चाह है। इसलिए उन्हें सीढी बनाया गया। ऊपर चढते ही सीढी जमीन पर धराशायी कर दी गयी। अन्ना स्तब्ध रह गये। धोखे पर धोखे खाना उनकी नियति है। मस्तमौला। कोई आगे न पीछे। चेलों का भरा-पूरा परिवार। एक छोटी-सी जिन्दगी और सपने अपार। आज अन्ना की बस्ती खाली है। इधर अन्ना के चेले राजनीति के समंदर में छलांग लगा कर मोती तलाशने में लगे हैं। उधर रालेगण सिद्धि में अन्ना अपना माथा पीट रहे हैं। दिल्ली की सत्ता को पाने के लिए उनके शार्गिद आमने-सामने हैं। उनका अब तो एक ही लक्ष्य है किसी भी तरह से सत्ता सुंदरी की बांहों में सिमटकर अपनी तमाम महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति कर गुजरना।
अन्ना का भ्रष्टाचारियों से लडने और भ्रष्टाचार को जड से खत्म करने का नारा था। उनके अनुयायी अरविंद केजरीवाल वोटरों को भ्रष्ट होने की सीख देते फिर रहे हैं। केजरीवाल जैसा आचरण कर रहे हैं वैसे लगते तो नहीं थे। क्या अब यही मान लें कि सत्ता की चाह सोच और इरादे बदलने को मजबूर कर देती है? भ्रष्टाचार से परेशान और आहत करोडों लोगों ने उन्हें ऐसा क्रांतिदूत माना था जिसमें भ्रष्टाचार से लडने और देश की तस्वीर बदलने का माद्दा दिखता था। उन्होंने वोटरों को नोट लेने की सलाह देकर खुद की छवि पर आडी-टेढी लकीरें खींच दी हैं। उनकी पहचान ही धुंधला गयी है। कौन नहीं जानता कि इस देश में मतदाताओं को खरीदने की बडी पुरानी परिपाटी है। कई नेताओं ने इस रास्ते पर चलकर सत्ता का भरपूर स्वाद चखा है। लोग उन्हें पहचानते हैं। उन्हें कोसते और गालियां भी देते हैं। लेकिन कुछ कर नहीं पाते। क्या केजरीवाल ऐसे बेइमानों की कतार लगा देना चाहते हैं? शुरु-शुरु में तो केजरीवाल की सादगी और स्पष्टवादिता लोगों को खूब भायी थी। ऐसा लगा था कि वाकई आम लोगों के हकों की लडाई लडने के लिए किसी सच्चे इंसान ने अपनी कमर कस ली है। लेकिन वो सपना अपनी मौत मरता दिखायी दे रहा है।
यह किरण बेदी ही थीं जो कभी गुजरात दंगों को लेकर नरेंद्र मोदी के खिलाफ ट्वीट पर ट्वीट किया करती थीं। भारतीय जनता पार्टी को सांम्प्रदायिकता के रंग में रंगी और भ्रष्टाचार की कालिख में डूबी पार्टी बताया करती थीं। तब उनके लिए मोदी हत्यारे थे। मोदी यदि प्रधानमंत्री नहीं बनते तो किरण बेदी की सोच नहीं बदलती। चढते सूरज को सभी सलाम करते हैं। किरण ने भी वही किया। आज मोदी उनके लिए किसी फरिश्ते से कम नहीं। उन्हीं ने तो उन्हें वो सम्मान दिलाया है जिसके लिए वे तरस रही थीं। यकीनन यह राजनीतिक अवसरवादिता की पराकाष्ठा है। अन्ना के मंचों पर उछलती-कूदती रहीं किरण ने यह दिखावा भी किया था कि उन्हें राजनीति से कोई लगाव नहीं है। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने जब राजनीति की राह पकडी तो वे उन्हें भटके हुए लोगों का कारवां बताती रहीं। दरअसल, किरण को अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व स्वीकार नहीं था। वे किसी के नीचे रहकर काम कर ही नहीं सकतीं। अफसरी वाला अहंकार और रूतबा आज भी उन पर हावी है। इस पूर्व महिला अधिकारी ने हमेशा अपने आप को दूसरों से ऊपर समझा है और जिधर दम उधर हम के उसूल पर चलती रही हैं। उनका दिली लगाव और जुडाव कभी किसी से नहीं रहा। लगता है दिल्ली ऐसे अवसरवादियों के नेतृत्व को झेलने को विवश है।

Thursday, January 15, 2015

उनकी गुंडागर्दी और नेताओं की चुप्पी

यह नया जमाना है। नयी सोच और नये लोगों का दौर। फिर भी कुछ लोग बदलने को तैयार नहीं। उनका दंभ उन्हें दकियानूसी सोच से बाहर नहीं आने देता। महात्मा गांधी छुआछूत के खात्मे के लिए जीवनभर लडते रहे। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इस रोग का अंत नहीं हो पाया। आज भी छुआछूत और भेदभाव का विषैला दंश दलितों और शोषितों को लहुलूहान करने और अपमानित करने के मौके तलाश ही लेता है। कर्नाटक का एक छोटा-सा गांव है मारकुंबी। इस गांव में सवर्णों का वर्चस्व है, जो यह मानते हैं कि दलितों और गरीबों को इस दुनिया में सम्मान के साथ जीने का कोई हक नहीं है। कोई दलित यदि पढ-लिख लेता है और ऊंचे ओहदे पर पहुंच जाता है तो इनके सीने में सांप लौट जाता है। मारकुंबी गांव में एक नाई की दुकान है जहां बिना किसी भेदभाव के सभी की दाढी और बाल काटे जाते थे। लेकिन एक दिन अचानक नाई ने दलितों के बाल काटने से मना कर दिया। दलितों के विरोध जताने पर नाई ने अपनी पीडा और परेशानी बतायी कि सवर्णों की चेतावनी के समक्ष वह बेबस है। उससे स्पष्ट कह दिया गया है कि वह दलितों को अपनी दुकान की चौखट पर पैर भी न रखने दे। यदि उनकी बात नहीं मानी गयी तो उसकी खैर नहीं। ऐसे में तनातनी तो बढनी ही थी। दलितों के बढते आक्रोश को देख सवर्ण तिलमिला उठे। इनकी इतनी जुर्रत कि हमारे सामने सिर उठाएं। चींटी की हाथी के सामने क्या औकात। दलित और सवर्ण आमने-सामने डट गए। मारापीटी की नौबत आयी। आपसी संघर्ष में २७ लोग घायल हो गए। दलितों के तीन मकान राख कर दिये गये। दरअसल देश के कई ग्रामीण इलाके ऐसे हैं जहां सवर्णों और धनवानों की तूती बोलती है। उन्हीं का शासन चलता है। उनके अहंकार की कोई सीमा नहीं है। उनकी मनमानी दलितों पर मनमाना कहर बरपाती है। उन्हें कानून का भी कोई खौफ नहीं। उनके लिए यह २१ वीं सदी नहीं, सोलहवीं सदी है। वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। उन्हें लगता है कि यह देश सिर्फ उन्हीं का है। सत्ता भी उनकी, शासक भी उनके। शासन प्रशासन भी उनका।
कर्नाटक के बेल्लारी जिले के तलुर गांव में भी मारकुंबी की तरह सवर्णों ने तांडव मचाया। यहां भी सवर्णों के दादागिरी से खौफ खाकर नाईयों ने दलितों के बाल काटने से इंकार कर दिया। यहां भी आपस में जूते और डंडे चले। जमकर हाथापाई हुई। नाईयों के द्वारा दलितों के बाल काटने में असमर्थता जताने में पंचायत के उस आतंकी फरमान का बहुत बडा योगदान है जिसमें साफ-साफ कहा गया कि किसी भी हालत में दलितों के बाल न काटे जाएं। जिस कुर्सी पर बाल कटवाने तथा दाढी बनवाने के लिए सवर्ण बैठते हैं और आइने में खुद को निहारते हैं उस पर दलितों की परछाई भी नहीं पडनी चाहिए। इस ऐलान के विरोध में पांच दिनों तक गांव के पांचों सैलून बंद रहे। सैलून मालिक भी इस भेदभाव की नीति के खिलाफ हैं। उन्हें तो सवर्ण और दलित में कोई फर्क दिखायी नहीं देता। फिर भी उन्हें ऊंचे लोगों का खौफ सताता है। सवर्ण उन्हें धमकाते हैं कि यदि उन्होंने दलितों के बाल काटे तो वे उनकी दुकान पर कदम नहीं रखेंगे। सैलून चलाने वालों के भी बाल-बच्चे हैं। उन्हें भी अपना परिवार चलाना है। गांव में सवर्णों की संख्या तीन हजार से अधिक है। दलितों की जनसंख्या का आंकडा अस्सी-नब्बे के आसपास है। सवर्ण अगर खफा हो गये तो उनके घरो का चूल्हा जलना मुश्किल हो जायेगा। कुछ अन्य गांवों में भी दलितों को इसी तरह से आहत करने और नीचा दिखाने की मर्दानगी दिखायी जा रही है। धारवाड जिले के हुबली तहसील के गांव कोलीवाड के दलितों को बाल कटवाने के लिए मीलों दूर हुबली जाना पडता है। बुजुर्ग शांत हैं, लेकिन दलित युवकों का गुस्सा उफान पर है। पता नहीं वे क्या कर गुजरें। उनका कहना है कि हम इस जुल्म को सहन नहीं कर सकते। हमें कमजोर कतई नहीं समझा जाए। हम भी इसी देश के नागरीक हैं। इस पर जितना हक उनका है, उतना हमारा भी। ऐसे में भेदभाव करने वालों के दबाव में हम क्यों आएं। हम चुप नहीं रहेंगे। उम्रदराज लोग तो गांव से दूर जाकर बाल कटवा सकते हैं, लेकिन बच्चे कहां जाएं? सदियों से सबलों की चलती आयी है। ताकतवर धनवानों ने निर्बलों-गरीबों का गला काटा है। सामंती सोच रखने वालों ने दलितों के शोषण के लिए नये-नये तरीके ईजाद कर रखे हैं। यह आज़ादी का मजाक नहीं तो क्या है?
हैरानी की बात यह भी है कि अभी तक किसी वजनी नेता ने सवर्णों की इस गुंडागर्दी के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद नहीं की है। सभी के मुंह पर ताले जडे हैं। जैसे बोलना ही भूल गये हों। नेताओं की जन्मजात चालाकी भी किसी से छिपी नहीं है। बहुत नाप-तौल कर अपने कदम आगे बढाते हैं। मौके के हिसाब से उनकी जुबान चलती है। यहां दलित कम हैं और सवर्ण ज्यादा। कौन बेवकूफ होगा जो ज्यादा को छोड कम की तरफ हाथ बढायेगा? राजनीति का मतलब ही पाना और सिर्फ पाना है। जो खोने की भूल करते हैं उनका राजनीतिक वजूद ही मिट जाता है। राजनेता कभी भी घाटे का सौदा नहीं करते। ऊंच-नीच और जात-पात का राग अलापते रहना भी इन सौदागरों का पसंदीदा खेल है। इसी की बदौलत इनकी राजनीति चलती है और वे विधायक, सांसद और मंत्री बनते चले जाते हैं। स्कूलों में दलितों के हाथों बनाया गया खाने से इंकार कर दिया जाता है। मंदिरों में दलितों को प्रवेश नहीं दिया जाता। देवी देवताओं पर अपना एकाधिकार जताया जाता है। भेदभाव और छुआछूत के रोग से केवल हिंदु ही ग्रस्त नहीं हैं। मुस्लिम, सिख और ईसाई भी कहीं न कहीं इस दलदल में धंसे हैं।

Thursday, January 8, 2015

हाथी के दांत

डेरा सच्चा सौदा के संस्थापक बाबा गुरमीत राम रहीम सिंह इंसान को विज्ञापनबाजी का जबरदस्त शौक है। देश की महंगी पत्रिकाओं में उनके ज्ञान ऊँडेलने वाले दो-दो पेज के विज्ञापन छपते रहते हैं। इसके लिए वे लाखों की कीमत चुकाते हैं। वे देश के पहले बाबा हैं जो उद्योगपतियों और व्यापारियों की तरह मीडिया को खुश करने के लिए मोटी खैरात बांटते हैं। कई राजनेता और सत्ता के दलाल भी अपनी बदरंग छवि को चमकाने के लिए मीडिया को इसी तरह से अपना बनाते हैं। योगगुरु बाबा रामदेव के आश्रम और कारखानों में बनने वाले विभिन्न सामानों के विज्ञापन भी इन दिनों टीवी चैनलों पर छाने में किसी से पीछे नहीं हैं। रामदेव पहले विज्ञापनबाजी से दूर रहते थे, लेकिन जब से उन्होंने तथाकथित समाजसेवा का चोला ओढा और राजनीति की अलख जगायी तभी से उनकी समझ में आ गया कि यदि वाह-वाही लूटनी है और अपनी दुकानदारी को आबाद रखना है तो मीडिया की झोली सतत भरनी ही होगी। खास कर इलेक्ट्रानिक मीडिया की। इसकी इलेक्ट्रॉनिक आंखें ऐसे सौदागरों पर टिकी रहती हैं जो करते कुछ हैं और दिखते-दिखाते कुछ हैं। आसाराम ने इनसे अक्सर दूरी बनाये रखी। वैसे धंधेबाजी में उनका कोई सानी नहीं था।  उनके कारखानों में च्यवनप्राश, चाय, चूर्ण, आडियो-वीडियो, कैसेट से लेकर यौनवद्र्धक दवाइयों के साथ पता नहीं क्या-क्या बनता था। उन्होंने तो पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन भी प्रारंभ कर दिया था। मासिक पत्रिका ऋषि प्रसाद के कुछ अंक इस लेखक ने देखे और पढे। इस पत्रिका में उनका गुण-गान कुछ इस तरह से गाया जाता था जिससे लगता था कि आसाराम तो इस धरती के सर्वशक्तिमान भगवान हैं। इस पत्रिका के बारे में यह भी प्रचारित था कि देश-विदेश में इसके दस लाख से अधिक स्थायी सदस्य हैं। व्यक्ति विशेष की स्तुती गाने तथा अंधविश्वास फैलाने वाली पत्रिका के साथ इतने अधिक लोगों का जुडा होना विस्मयकारी तो लगता ही है, साथ ही यह भी पता चलता है कि आसाराम को प्रचार की कितनी भूख थी। एक सच यह भी था कि आसाराम जानते थे कि देश के मीडिया ने उनकी असलियत जाननी-समझनी शुरु कर दी है। इसलिए उन्होंने खुद की पत्र-पत्रिकाएं प्रकाशित करनी शुरू कर दीं। आसाराम ने अपने बनाये सामानों को बेचने के लिए कभी भी न्यूज चैनलों और पत्र-पत्रिकाओं का सहारा नहीं लिया। यह सारा काम उन्हीं की पत्रिकाओं के माध्यम से होता था। वे देशभर में होने वाले अपने प्रवचन-कार्यक्रर्मों में ही अपना सारा प्रचार करते थे। उनके आदमी स्टॉल लगाते थे और अनुयायियों को आसाराम निर्मित  दवाइयां और तरह-तरह के सामान बेचने के लिए जाल फेंकते थे। प्रवचनों के साथ-साथ आसाराम का यह धंधा भी खूब चला। उनके अनुयायियों ने उन्हें मालामाल कर दिया। अपने अंधभक्तों की बदौलत आकाशी ऊंचाइयां छूने वाले आसाराम की पत्रकारों से कभी नहीं पटी। पत्रकार उनकी पोल खोलकर रख देते थे और उनके चेले-चपाटे मारा-मारी पर उतर आते थे। आसाराम के द्वारा भी न्यूज चैनलों और अखबार के पत्रकारों और संपादकों को धमकाने का सिलसिला चलता रहता था।
बाबा राम रहीम पर एक पत्रकार की हत्या का संगीन आरोप है। इस बाबा पर चार सौ लोगों को नपुंसक बनाने का मामला भी अदालत में पहुंच चुका है। महिलाओं के यौन शोषण के साथ-साथ पुरुषों को नपुसंक बनाने का अजब कारनामा पहले कभी सुनने में नहीं आया। यह भी पहली बार हुआ है जब विवादों में घिरे किसी बाबा ने एक ऐसी फिल्म बनायी है जिसमें वह खुद ही नायक है। प्रचार प्रेमी गुरु की फिल्म का नाम है 'मैसेंजर ऑफ गॉड।' करोडों रुपये खर्च कर बनायी गयी इस फिल्म में बाबा ने खुद को ऐसा महानायक दर्शाया है जो किसी भी मुश्किल का हंसते-हंसते सामना कर तालियां पाता है। वह तिरंगा लेकर दुश्मनों से लडता है। कभी हेलिकॉप्टर से उतरने-कूदने के करतब दिखाता है तो कभी बर्फ की सिल्लियों का सीना चीर कर बाहर आता है। किसी गीत के मुखडे की तरह यह आवाज भी गूंजती रहती है : 'अगर देश व सृष्टि की सेवा करना पाप है तो मैं यह पाप आखिरी सांस तक करता रहूंगा।' यानी बाबा तो देश की सेवा करते चले आ रहे हैं। और लोग हैं कि उनकी अनदेखी कर रहे हैं। दुश्मनों की साजिशों के चलते उन्हें अदालतों के चक्कर काटने पड रहे हैं। फिल्म के संवादों के जरिए उन्होंने दुश्मनों को ललकारने की पुरजोर कोशिश भी की है : "मजाक नहीं है गुरुजी को मारना। उनको मारने का मतलब है पूरे देश से पंगा लेना।" गुरमीत सिंह यह भी दर्शाना चाहते हैं कि मैं अकेला नहीं हूं। मेरे साथ करोडों भक्तों की भीड है। यह भीड मेरी रक्षाकवच है। इसलिए मेरे शत्रु सावधान हो जाएं। यह फिल्म आम लोगों को कितना प्रभावित करती है यह तो वक्त बतायेगा। लेकिन यह तय है कि इस फिल्म को देखने के लिए उनके कट्टर भक्त तो टूट ही पडेंगे। बाबा का भी तो यही मकसद है। अपने समर्थकों और अनुयायियों को अपने साथ जोडे रखना और आस्था को बनाये और टिकाये रखना। बाबाओं यह खेल कभी बंद होने वाला नहीं है। ऐसे में हमें यह कहावत याद आती है : 'हाथी के दांत खाने के और, दिखाने के और।' आपका क्या विचार है?

Thursday, January 1, 2015

यही होता चला आ रहा है

जब आप किसी से लेते हैं तो देने से बच नहीं सकते। दाता और पाता का रिश्ता होता ही कुछ ऐसा है। इस हाथ दे, उस हाथ ले। ऊंचे लोगों के बीच लेन-देन चलता ही रहता है। इन धुरंधरों में शामिल हैं राजनेता, उद्योगपति, माफिया, साधु-संत, अखबारीलाल और किस्म-किस्म के दलाल और सत्ता के खिलाडी। इतिहास गवाह है कि इस देश में जितनी तेजी से राजनेताओं, तथाकथित समाज सेवकों और उनकी शातिर जमात ने आर्थिक तरक्की की है उतनी और किसी ने नहीं। इनका आपसी मायावी गठजोड भी स्पष्ट नजर आता है। ऐसे राजनेता बहुत कम हैं, जिन्होंने गुंडे, बदमाश न पाल रखे हों। रेत माफिया, कोल माफिया, दारू माफिया और तमाम तरह के आराजक तत्व इनके यहां पनाह पाते हैं और वक्त पडने पर एक-दूसरे के काम आते हैं। तथाकथित साधु-संतों, प्रवचनकारों और चिटफंडियों से भी इनकी करीबी कई गुल खिलाती है। पिछले कुछ वर्षों से सत्ताधीशों के द्वारा मीडिया के दिग्गजों का दुलारने और पुचकारने का चलन भी बढा है। पिछले डेढ साल से जेल के सीखचों के पीछे अपने दुष्कर्मों का फल भुगतते स्वयंभू संत आसाराम को यदि राजनेताओं की शह नहीं मिलती तो वह इस कदर बेखौफ होकर अबलाओं की इज्जत पर डाका नहीं डाल पाता। यह क्या किसी चमत्कार से कम है कि चंद वर्षों में उसने देश के दस से ज्यादा प्रदेशों में हजारों एकड जमीन जुटा और दबा ली। सरकारों ने भी उसे मुफ्त में जमीनें देकर अपनी दरियादिली दिखायी। यह वही सरकारें हैं जिनकी निगाहें सडकों और फुटपाथों पर जिन्दगी बसर करने वाले गरीबों पर नहीं जातीं। अमीरों की इमारतों के लिए उनकी झोपडियां जमींदोज कर दी जाती हैं। उनकी फरियाद सुनने वाला भी कोई नहीं होता। शातिरों और ढोंगियों का इशारे में काम हो जाता हैं। उनके कर्मकांड उजागर होने के बाद भी पर्दा डालने की भरपूर कोशिशें की जाती हैं। आसाराम एक ही दिन में तो नहीं पनपा। अपने देश में अंधभक्ति किसी को भी भगवान बना देती है। तथाकथित देवता की हैवानियत दिखकर भी नहीं दिखती। आसाराम को बडा घमंड था कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड सकता। बडे-बडे राजनेता उसके मंचों पर विराजमान होकर उसके नाम की आरती गाते थे। शासन और प्रशासन उसकी नकली संतई के समक्ष नतमस्तक होने के कारण गूंगा और बहरा बना रहा। आसाराम आश्रमों के नाम पर भव्य भवन बनाता चला गया। इन विशाल भवनों में होने वाले कुकर्मों को अनदेखा किया गया। प्रवचन कम और दुष्कर्म ज्यादा होते रहे। नारियों की अस्मत लुटती रही। अनुयायियों ने भी देखकर अनदेखा कर दिया। देहभोगी पिता-पुत्र पंद्रह हजार करोड रुपये से अधिक की दौलत के मालिक बन गए। जेल में भी आसाराम की अकड नहीं गयी। अपनी बेटी-पोती की उम्र की बच्चियों का यौन शोषण करने में ढोंगी नहीं लज्जाया, उसके चेले भी लज्जाहीन हो गए। उनके लिए आसाराम कल भी भगवान था, आज भी महान है।
देश के लाखों लोगों के खून-पसीने की कमायी को पचाने वाले सहारा प्रमुख सुब्रत राय का हश्र भी आसाराम जैसा होगा ऐसी तो कभी किसी ने सोचा ही नहीं था। हालाकि दोनों के रास्ते अलग-अलग हैं, लेकिन तौर-तरीकों में गजब की समानता है। १९७८ में मात्र दो हजार रुपये से चिटफंड आदि का धंधा करने वाले सुब्रत राय ने सबसे पहले उन मेहनतकशों को अपने जाल में फांसा जिनकी दिनभर की कमायी पच्चीस-पचास रुपये के आसपास थी। सुब्रत राय ने उन्हें बडे-बडे सपने दिखाये और देखते ही देखते चौंकाने वाली तरक्की का इतिहास रच दिया। चतुर सुब्रत राय ने भी राजनेताओं और सत्ताधीशों से नजदीकियां बनायीं और ऐसी छलांगें मारीं कि एक लाख करोड से भी ऊपर का साम्राज्य खडा कर आर्थिक जगत के जानकारों को विस्मय में डाल दिया। देश-विदेश में पांच और सात सितारा होटलों की कतार लगाने वाले इस जादूगर ने अखबारों के प्रकाशन के साथ ही टीवी चैनल भी खडे कर लिए। यानी वह मीडिया का बादशाह बन गया। उसके संदिग्ध कारोबार में राजनेताओं और फिल्मी कलाकारों के काले धन के लगने का भी खूब शोर मचा। समाजवादी मुलायम सिंह और सत्ता के दलाल अमर सिंह जैसे अनेक चेहरे उसकी रंगीन महफिलों की शोभा बढाते रहे। इससे सुब्रत का मनोबल बढता चला गया। सुब्रत ने भी आसाराम की तरह भोग-विलास में डूबने का ऐसा कीर्तिमान रचा कि आखिरकार उसकी पोल खुल ही गयी। सुब्रत के पास क्या नहीं था। कमी थी तो बस ईमानदारी की। उसके हवाई जहाज नेताओं और फिल्मवालों की सेवा में ऐसा लगे रहते थे जैसे दैनिक भास्कर ग्रुप के विमान छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह और उनके परिवार की चाकरी में लगे रहते हैं। मीडिया की आड में कोयले की खदाने हथियाने, धडाधड करोडों के सरकारी विज्ञापन पाने और अपने उद्योग धंधों को चमकाने की कला तो इन्हीं कलाकारों से सीखी जा सकती है। वैसे इनका अनुसरण करने वाले और भी कई चेहरे हैं। यह सभी लोग आसाराम और सुब्रत राय के जीवंत प्रतिरूप हैं। राजनेताओं, नौकरशाहों और मंत्रियों-संत्रियों के चरण चूमो-चाटो और अपने स्वार्थ साधते रहो। नरेंद्र मोदी से लेकर नितिन गडकरी तक लगभग सभी राजनेताओं का प्रायवेट विमान मालिकों से जबरदस्त याराना है। चुनाव के समय इनकी सेवाएं ली जाती हैं और चुनाव जीतने के बाद सरकारी जमीनें, ठेके, दारू की फैक्ट्रियां, मेडिकल कॉलेज आदि-आदि की खैरात देकर पाता का फर्ज़ निभाया जाता है। मनचाही यात्राएं होती रहती हैं। आदान-प्रदान चलता रहता है। आसाराम और सुब्रत राय जैसों के नये-नये अवतार पनपते रहते हैं। मीडिया शोर मचाता रहता है और साल-दर-साल बीत जाते हैं।