Thursday, May 30, 2019

ईश्वर के दूत

यह वो समय है जब किसी के पास फुर्सत नहीं है। न जाने कितनी संताने ऐसी हैं, जो अपनी ही दुनिया में गुम हैं। उन्होंने अपने जीवित मां-बाप को मृत मान लिया है। तभी तो वे उन्हें बडी बेरहमी से कहीं भी फेंक देती हैं। लावारिस छोड देती हैं। वृद्धों की तरह ही कुष्ठ रोगियों को भी असंख्य यातनाएं झेलनी पडती हैं। गैर तो गैर अपने भीअछूत मान उनके निकट नहीं आते। ऐसे दौर में जब कुछ लोग ऐसे दुखियारों के चेहरे पर मुस्कान लाने और उन्हें आत्मनिर्भर बनाने के अभियान में जुटे नजर आते हैं तो मन में यह विचार आता है कि यदि ऐसे संवेदनशील, उदार लोग नहीं होते तो यह दुनिया तो पूरी तरह से काली और डरावनी हो जाती।
नागपुर की ज्योति मुंजे ने अपने घर को ही वृद्धाश्रम में तब्दील कर दिया है। यहां पर ज्योति उन माता-पिता को पनाह देती हैं, जिन्हें उनकी नालायक औलादों ने कहीं का नहीं रखा। सबकुछ होने के बावजूद भी आज वे खाली हाथ हैं। सडकों, गलियों, चौराहों पर मारे-मारे भटक कर हाथ फैलाने को विवश हैं। ऐसे बदकिस्मतों पर सभी को दया नहीं आती। कुछेक के अंदर की ही इंसानियत जागती है और वे इंसान से फरिश्ता बन जाते हैं। तरह-तरह के छलावों के शिकार हुए माता-पिता को अपनत्व और सुरक्षा प्रदान करने वाली ज्योति उन वृद्धों के लिए तो भगवान का ही प्रतिरूप हैं जिन्हें उन्होंने अपने घर में आश्रय दिया है। अपने ही घर में वृद्धाश्रम चलाने का विचार ज्योति के मन में कैसे और क्यों आया? नि:स्वार्थ समाजसेवी पिता की पुत्री ज्योति कभी घर-घर जाकर गैस रिपेरिंग का कार्य करती थी। इसी दौरान वह गैस रिपेरिंग के लिए शहर के एक रईस की कोठी में गईं। पूरा परिवार पूरी शानो-शौकत के साथ रहता था। परिवार के सभी सदस्य हर तरह की भौतिक सुख-सुविधाओं का मज़ा लूट रहे थे, लेकिन उस आलीशान कोठी की बालकनी में परिवार के मुखिया की वृद्ध मां कटे-फटे बोरे पर प‹डी कराह रही थी। उसकी वेदना और दर्द भरी पुकार को सुनने वाला कोई नहीं था। ज्योति जब उस बीमार और कमजोर मां के निकट पहुंची तो उसने उनसे हाथ जोडते हुए अनुरोध किया कि वह इन जालिमों के चंगुल से छुडाकर उसे अपने साथ ले जाए। इस विशाल कोठी में सभी उसके मरने का इंतजार कर रहे हैं, लेकिन वह जीना चाहती है। ज्योति तब उस मजबूर मां की कोई सहायता तो नहीं कर पाईं, लेकिन उन्होंने जीवन के अंतिम दिनों में असहाय, अपनों के सताये लोगों के लिए कुछ कर गुजरने की ठान ली। ज्योति की समाजसेवा की चाहत को साकार करने में उनके पति और बेटे ने भी पूरा-पूरा साथ दिया। घर में ही राजगिरी बहुउद्देशीय सामाजिक संस्था के नाम से वृद्धाश्रम शुरू करने में ज्यादा समय नहीं लगा। ज्योति को वो दिन आज भी जब याद आता है तो रोंगटे खडे हो जाते हैं। शहर के मेडिकल चौक से गुजरते समय उन्होंने कूडे के ढेर पर एक वृद्धा को जिस्म की पी‹डा के कारण कराहते और तडपते देखा तो उन्होंने दो राहगीरों की सहायता से उसे रिक्शे में डाला और अस्पताल ले गईं । इलाज के पश्चात वे उसे अपने घर ले आईं। उस चलने-फिरने में एकदम लाचार वृद्धा ने ज्योति को यह बताकर हतप्रभ कर दिया कि शहर में ही उसका अपना घर है जहां पर उसका बेटा और बहू रहते हैं। बेटा ठीक-ठाक कमा लेता है, लेकिन उसे रोज पीने की आदत है। बहू भी आरामपरस्त है। खाना-बनाना, बर्तन साफ करना और घर के दूसरे सभी काम उसे ही करने पडते थे। वह खुशी-खुशी करती भी थी। एक दिन गीले फर्श पर पैर फिसलने से वह ऐसे गिरी कि उसकी कमर की हड्डी ही टूट गई। उसके लिए खडे होना मुश्किल हो गया। बेटा और बहू इलाज करवाने की बजाय रात के अंधेरे में मुझे कूडे के ढेर पर किसी बेकार वस्तु की तरह फेंक कर चले गए। मैं उनसे दया की भीख मांगती रही, लेकिन उन्होंने मुडकर भी नहीं देखा।
कुंभकोण्डम में जन्मी और चेन्नई में रहने वाली डॉक्टर रेणुका रामकृष्णन एक ऐसी संस्कारी नारी हैं, जिन्होंने खुद को पूरी तरह से कुष्ठरोगियों की सेवा में अर्पित कर दिया है। कुष्ठ रोगियों को लेकर हमारे समाज में जो गलत धारणा घर कर चुकी है उसी से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व रूबरू होने के बाद रेणुका ने डॉक्टर बन समाजसेवा करने का निर्णय लिया। तब वे सोलह वर्ष की थीं। महामहम का पर्व था। यह पर्व बारह साल में एक बार आता है। इस बहुप्रतीक्षित पर्व के दिन स्नान के लिए लाखों की भीड कुंभकोणम में उमडती है, जिसे संभालना मुश्किल हो जाता है। उस दिन रेणुका मंदिर में ही थीं। तभी अचानक मंदिर में स्थापित पवित्र कुंड के एकदम पास उन्होंने एक लाश देखी, जिससे लोग बडी सावधानी से बच-बच कर चल रहे थे। लोगों को इस बात का गुस्सा था कि इस व्यक्ति ने कुंड को अपवित्र कर दिया है। दरअसल, वह कुष्ठरोगी था, जिसे कोई भी नहीं छूना चाहता था। रेणुका के लिए यह ऐसा स्तब्धकारी मंजर था, जिसने उन्हें हिलाकर रख दिया। उन्होंने अपने दुपट्ठे से मृत व्यक्ति के शरीर को ढकने के बाद कुछ लोगों से अनुरोध किया कि वे उसे श्मशान तक ले जाने में उनकी सहायता करें। लोगों ने सुन कर भी अनसुना कर दिया। वे काफी देर तक वहीं खडी रहीं। काफी इंतजार के बाद बडी मुश्किल से एक व्यक्ति उनका साथ देने के लिए सामने आया। उसकी मदद से लाश को रिक्शे पर रखवा कर वे श्मशान घाट पहुंचीं, लेकिन वहां के लोगों ने कुष्ट रोगी की लाश का अंतिम संस्कार करने से मना कर दिया। वहां से वह उसे लेकर तीस किलोमीटर दूर एक दूसरे श्मशान घाट में ले गईं। वहां पर भी उन्हें मनाने में घण्टों लग गये। उस कुष्ठरोगी के अंतिम संस्कार के बाद घर लौटते समय रेणुका ने दृढ निश्चय किया कि चाहे कुछ भी हो जाए, उन्हें डॉक्टर बनना है और कुष्ठ रोगियों की बेहतरी के लिए अपना सारा जीवन समर्पित कर देना है। जहां चाह होती है वहां राह निकलती ही है। रेणुका ने जो प्रतिज्ञा की थी उस पर आज भी अटल हैं। वे हजारों कुष्ठ रोगियों को भला-चंगा कर चुकी हैं। उन्होंने समाज में फैली इस गलत सोच के खिलाफ अभियान चला रखा है कि कुष्ठ रोग कोई असाध्य बीमारी है और कुष्ठरोग को छूने से ही कुष्ठरोग का शिकार होना तय है। वह लोगों को उनकी देखभाल और इलाज उपलब्ध कराने के लिए प्रेरित करते हुए समझाती हैं कि अगर इस रोग का समय पर इलाज हो जाए तो शारीरिक विकृतियों से बचा जा सकता है। कुष्ठरोगी से घृणा करने और उससे दूरी बनाने की सोच भी निराधार और अनुचित है। देशभर के कुष्ठरोगियों को बेहतर इलाज की सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए त्वचा रोग विशेषज्ञ डॉ. रेणुका रामकृष्णन एक चिकित्सालय प्रारंभ करना चाहती हैं। उनकी बस यही चाहत है कि समाज की उपेक्षा का शिकार होते चले आ रहे कुष्ठरोगियों की सेवा, देखभाल कर उन्हें पूरी तरह से रोग मुक्त किया जाए ताकि वे स्वस्थ और आत्मनिर्भर होकर सम्मानित जीवन जी पाएं।

Friday, May 24, 2019

बलात्कारियों की सत्ता और व्यवस्था को खुली चुनौती

मैं नहीं जानता कि लडकियों पर बार-बार बलात्कार होने की खबरें आप पर क्या असर डालती हैं। आप क्या सोचते हैं। हो सकता है कि आपने यह सोचकर ऐसी खबरों को पढना और सुनना ही बंद कर दिया हो कि यह तो रोजमर्रा की बात है। इसमें नया कुछ भी तो नहीं। सच कहूं मुझे तो हर बलात्कार की खबर सन्न कर देती है। ऐसा लगता है बलात्कारियों ने एकजुट होकर फिर से ललकारते हुए सत्ता और व्यवस्था के मुंह पर तमाचा जड दिया है कि जिससे जो बनता हो, कर लो। जितना चीखना-चिल्लाना, बोलना, लिखना हो, लिख लो। देश का कोई भी कानून हमारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। हमें जहां भी, जब भी मौका मिलेगा हम दूसरों की बहन, बहू, बेटियों की अस्मत लूटते रहेंगे। हम तो वो शैतान हैं जो अपने घर की बहन-बेटियों को भी नहीं बख्शते। यही हमारा शौक है। यही हमारी फितरत है। हमारी हैवानियत का खेल बस ऐसे ही चलता रहेगा। पिछले दिनों राजस्थान के अलवर में एक महिला पर हुए सामूहिक बलात्कार जैसी वारदातें हमारे बेखौफ जिन्दा होने का सबूत हैं। यह हमारी मर्दानगी ही है, जो पति के सामने खुद तो सामूहिक दुष्कर्म करते ही हैं, पति को भी अपनी पत्नी से बलात्कार करने को विवश कर देते हैं। बडी दबंगता के साथ ऐसी हैवानियत का वीडियो बनाते हैं और उसे वायरल भी कर देते हैं, ताकि सारी दुनिया हमारी ताकत से वाकिफ हो जाए।
इन दरिंदो के कई चेहरे हैं। इन बहुरुपियों ने पूजा स्थलों, घरों, स्कूल, कॉलेजों तक को इंसानियत को तार-तार करने का सुरक्षित स्थल मान लिया है। स्कूल, कॉलेजों में बेटियां पढने जाती हैं। उनके लिए ये शिक्षा के मंदिर हैं। उनके माता-पिता भी यही सोचते हैं। वे इस बात को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त रहते हैं कि शिक्षालयों में प‹ढाने वाले शिक्षक, प्रोफेसर, प्राचार्य और कर्मचारी नेक नीयत के होते हैं। उनकी बेटियों की मान-मर्यादा के संरक्षक होते हैं। फरीदाबाद में स्थित राजकीय महिला कॉलेज में छात्राओं को परीक्षा में उत्तीर्ण करवाने का लालच देकर तीन बदमाशों की तिकडी अस्मत लूटने के गंदे खेल को अंजाम देने में लगी थी। एक भुक्तभोगी छात्रा ने प्राचार्य को चिट्ठी और वीडियो भेजकर कॉलेज में चलने वाले देह शोषण के पूरे खेल के बारे में अवगत कराया तो यह शर्मनाक सच सामने आया। अगर यह छात्रा हिम्मत नहीं दिखाती तो यह काला सच उजागर नहीं हो पाता। छात्राएं घुट-घुट कर शोषित होती रहतीं और वासना के खिलाडियों की मनमानी चलती रहती। कॉलेज के एक प्रोफेसर, लैब अटेंडंट और एक चपरासी शातिर गिरोह की तरह छात्राओं को अपने वासना के जाल में फांसते थे। उन्हें परीक्षा में पास करवाने के बदले देह सौंपने को विवश करते थे। उनसे कहा जाता था कि उनके पेपर अलग कमरे में बैठाकर हल करवा देंगे। यह दुराचारी एडमिशन के समय से ही छात्राओं पर अपनी पैनी निगाह रखते थे। मौका पाते ही नजदीकी बढाते थे। मोबाइल नंबर हासिल कर उनसे मीठी-मीठी बातें की जाती थीं। नयी छात्राओं को अपने जाल में फंसाने के लिए उन्हें बताया जाता था कि परीक्षा में पास होने के लिए पहले भी कई छात्राएं उन्हें देह सुख देकर अच्छे नंबरों से उत्तीर्ण हो चुकी हैं। यह शातिर छात्राओं को अपने जाल में फंसाकर पहले पेपर कराने की एवज में रुपये की मांग करते, जिनसे धन मिल जाता है वे तन सौंपने से बच जातीं। जो धन की रिश्वत नहीं दे पातीं उनसे शारीरिक सुख की मांग की जाती। छात्रा ने जो कॉल रिकार्डिंग की है उसमें एक अय्याश आरोपी साफ-साफ यह कहता सुनायी देता है कि दो घंटे की ही तो बात है। हरियाणा टूरिजम के सरकारी होटल में मात्र एक हजार में कमरा किराये पर मिल जाता है। वहां पर मौजमस्ती करेंगे और किसी को कानों-कान खबर ही नहीं होगी। छात्रा ने दावा किया कि ये तीनों मिलकर कई छात्राओं की जिन्दगी बर्बाद कर चुके हैं। यह लोग इतने कमीने हैं कि जब कोई लडकी इनके साथ जाने में आनाकानी करती है तो उससे किसी अन्य लडकी को भेजने को कहा जाता था। लडकी गोरी है, सांवली है या काली है, इसकी भी जानकारी ली जाती थी।
बलात्कार का शिकार होनेवाली लडकियों पर क्या बीतती है, इसकी हकीकत जानने के लिए उस बेटी के दर्द से रूबरू होना जरूरी है, जिसे उसके पिता और चाचा ने एक वस्तु की तरह बेच दिया। पांच साल तक बीस से ज्यादा वहशियों ने उसे बडी निर्दयता के साथ अपनी हवस का शिकार बनाया। उसे मजबूरन एक बलात्कारी की मां भी बनना पडा। फिर भी उसे बलात्कारियों से मुक्ति नहीं मिली। उसने पुलिस थाने में जाकर भी कई बार अपना दर्द बयां किया, लेकिन उसकी सुनी नहीं गई। अंतत: तंग आकर उसने खुद को आग के हवाले कर दिया। अगर उसका वीडियो सामने नहीं आता तो उसके साथ हुई दरिंदगी की सच्चाई सामने नहीं आ पाती। उत्तरप्रदेश के हापु‹ड की रहने वाली ७५ से ८० प्रतिशत तक जल चुकी यह युवती फिलहाल दिल्ली के एक अस्पताल में अधमरी बिस्तर पर पडी है। अथाह दर्द के कारण बार-बार वह चीखती-चिल्लाती और कराहती है तो उसकी गूंज पूरे अस्पताल को हिलाकर रख देती है। उसके शरीर का अंग-अंग जल चुका है। पूरे शरीर पर पट्टियां बंधी हैं। उससे ज्यादा बोलते नहीं बनता। जब कभी-कभार मुंह खोलती है तो बस यही कहती है कि जल जाने के बाद मैं इतनी कुरूप हो चुकी हूं कि अब कोई भी मेरे साथ बलात्कार करने की नहीं सोचेगा। यानी वह अब खुद को सुरक्षित पाती है। क्या देश की सत्ता-व्यवस्था और हमारा समाज उसके इन शब्दों की तह तक पहुंचना चाहेगा। क्या उसे बलात्कार का दंश झेलने वाली महिलाओं का असली दर्द कभी समझ में आयेगा? या फिर सहानुभूति के चंद बोल बोलकर यह मान लिया जाता रहेगा कि हमने तो अपना कर्तव्य पूरा कर दिया। इससे ज्यादा और हम कर भी क्या सकते हैं? कहीं ऐसा तो नहीं कि जब हमारी बहन-बेटी की इज्जत लुटेगी तभी हमें होश आयेगा?

Thursday, May 16, 2019

ऐसा क्यों होता है?

मुकेश भाटिया की बारह पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। सभी एक से बढकर एक हैं। यह सभी पुस्तकें पाठकों के सोये हुए आत्मबल को जगा कर उनमें उत्साह, प्रसन्नता और सकारात्मकता का संचार करती हैं। मुकेश भाटिया को मैनेजमेंट गुरू भी कहा जाता है। भाटिया की किताबों से प्रेरणा लेकर न जाने कितने लोग अपने जीवन में बदलाव लाने में सफल रहे। उनके बिगडे काम बन गए। पारिवारिक कलह-क्लेश का खात्मा हो गया। मान-सम्मान के साथ धनवान भी हो गए। इसे अब क्या कहें... कि जिस शख्स ने दूसरों को जागृत रहकर जीवन जीने की कला सिखायी वही आज धोखाधडी का शिकार होकर अपनी पत्नी के साथ आगरा के रामलाल वृद्धाश्रम में रह रहा है। उनके जानने वाले उन पर कटाक्ष करते नहीं थकते कि जिसने देश और विदेश में प्रबंधन का ज्ञान बांटा वही पारिवारिक मोर्चे पर बुरी तरह से पिट गया। मात खा गया। वो भी अपनों से...! दिल्ली के चांदनी चौक निवासी भाटिया को अपने बेटे से बहुत लगाव था। आंख मूदकर उस पर भरोसा करते थे। उनकी एक बेटी भी है। बेटे ने किन्हीं मधुर पलों में सारी जमीन-जायदाद अपने नाम करा ली। भाटिया ने भी सभी कागजातों पर यह सोचकर हस्ताक्षर कर दिये कि इकलौता बेटा है। आखिरकार सबकुछ इसी का तो है। हम तो अब कुछ दिनों के मेहमान हैं। क्या पता कब ऊपर वाले का बुलावा आ जाए। इसलिए जो काम कल करना है उसे आज ही कर लेने में कौन-सा हर्ज है। भाटिया बेफिक्र थे। बेटे की खुशी में अपनी खुशी देख रहे थे, लेकिन धीरे-धीरे बेटे और बहू का व्यवहार बदलने लगा। जो बहू कभी पूरा मान-सम्मान देती थी, अदब का दामन नहीं छोडती थी वह बेशर्मी के साथ बदतमीजी से पेश आने लगी। जिस घर में शांति का वास था वह कलह का अखाडा बन गया। देखते ही देखते घर के हालात इतने खराब हो गये कि उनके लिए एक पल भी रहना मुश्किल हो गया। भाटिया की पत्नी ने तो इसे किस्मत का लिखा मान कर खुद को संभाल लिया, लेकिन भाटिया इस अकल्पनीय सच को स्वीकार नहीं कर पाये। उनकी पागलों जैसी हालत हो गई। माथा पीट-पीटकर रोने और चीखने-चिल्लाने लगते। अपनी पत्नी से बार-बार पूछते कि यह क्या हो गया? मेरा बेटा तो ऐसा न था। वह कैसे बदल गया! मैंने उसे अच्छे स्कूल-कॉलेज में पढाया-लिखाया और उसकी हर इच्छा पूरी की। कभी किसी कडे अनुशासन की जंजीर में नहीं बांधा। अमूमन माता-पिता के बीच जो अनकही दूरी होती है उसे मिटाते हुए हमेशा यही एहसास दिलाया कि मैं उनका पिता नहीं, दोस्त हूं। हमारे बचपन और किशोरावस्था में तो हमारे मां-बाप अपने बच्चों के बीच एक दूरी बनाकर रखते थे, लेकिन मैंने तो बराबरी के सिद्धांत को अपनाये रखा और उसे अपना एक अच्छा दोस्त मानते हुए उससे न कभी अपनी अच्छाइयां छुपायीं न ही बुराइयां। वो भी तो अपनी हर बात मुझसे शेअर करता था। हम दोनों के बीच कोई दूरी नहीं थी। तो फिर एकाएक यह कैसे हो गया? क्या ज़मीन-जायदाद और पैसा मां-बाप से बढकर होता है। क्या इंसानी भावनाएं कोई अहमियत नहीं रखतीं? क्या आत्मीय रिश्ते महज दिखावा होते हैं? पितृत्व और ममत्व का कोई मोल नहीं है?
भाटिया के करीबी दोस्त बताते हैं कि कई बार ऐसा भी होता था बेटा कोई बडी मांग कर देता था और उनकी जेब खाली होती थी। तब वे अपने यार-दोस्तों से उधार लेकर या पत्नी के जेवर बेचकर उसकी फरमाइश पूरी कर देते थे। बेटे की खुशी उनके चेहरे पर चमक ला देती थी। पत्नी को उनकी यह दरियादिली अच्छी नहीं लगती थी। जाने-माने शायर गुलजार को यह पंक्तियां लिखने की प्रेरणा यकीनन ऐसे दरियादिल पिताओं से ही मिली होगी :
"जेब खाली हो तो फिर भी
 मना करते नहीं देखा,
मैंने पिता से अमीर
इंसान नहीं देखा।"

अस्सी वर्ष से ऊपर के हो चुके भाटिया ने वृद्धाश्रम में आने के बाद एक अजीब-सी चुप्पी ओढ ली है। आश्रम की तरफ से उनके बेटे को कई बार फोन किया जा चुका है कि वह एक बार आकर अपने बीमार पिता को देख जाए। अब वे ज्यादा दिनों के मेहमान नहीं हैं। बेटा हर बार यही जवाब देता है कि अब उनका उनसे कोई रिश्ता नहीं रहा। बार-बार फोन करके उसका समय बरबाद न करें। भाटिया की बेटी कभी-कभार फोन पर हालचाल पूछ कर अपना फर्ज निभा देती है। वह भी माता-पिता से मिलने के लिए कभी नहीं आई।
पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ काम कर चुके भारत के पूर्व आर्थिक सलाहकार अमृतलाल कत्यान पिछले छह माह से अपने घर में बंद थे। पडोसियों को रात को उनके घर से जोर-जोर से रोने की आवाज सुनायी देती थी। पडोसी हैरान-परेशान थे। उन्होंने कई बार दरवाजा खटखटाया, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। आखिरकार सजग पडोसियों ने स्टेट लीगल सर्विस अथॉरिटी (सालसा) को सूचित किया। सालसा के अधिकारी पुलिस के साथ किसी तरह से ८५ वर्षीय कत्यान के घर में दाखिल हुए तो पता चला कि वे एकदम अकेले रह रहे हैं और मकान को अंदर से लॉक करके उसकी चाबी भूल चुके हैं। यह सच भी सामने आया कि छह महीने पहले तक उनका बेटा, बहू और दो पोतियां उनके साथ ही रहती थीं। ससुर और बहू में हमेशा टकराव रहता था। बहू अक्सर उम्रदराज ससुर की पिटायी भी कर दिया करती थी। शारीरिक रूप से कमजोर ससुर ने इसे अपनी नियति मान लिया था, लेकिन एक बार जब वे बहू के हाथों पिट रहे थे तो उन्होंने बहू का हाथ पकड कर खुद को बचाने की कोशिश की तो बहू ने वीडियो बनाकर उन पर ऐसे अश्लील आरोप जड दिये, जिससे उनकी आत्मा तक कराह उठी। इतना ही नहीं बहू ने पुलिस स्टेशन में जाकर अपने साथ छेडछाड और बदसलूकी की शिकायत दर्ज भी करवा दी। इसके बाद बहू और बेटे उन्हें अकेला छोडकर अलग रहने के लिए चले गए।

Thursday, May 9, 2019

चांदनी चौक बोल रहा है...

दिल्ली मुझे हमेशा लुभाती रही है। इसलिए नहीं कि देश की राजधानी है। दिल्ली में मुझे संपूर्ण भारत की तस्वीर नज़र आती है। देश का यह इकलौता महानगर है जहां पूरा भारत बसा हुआ है। पुरानी दिल्ली के बीचों-बीच बसा चांदनी चौक तो बेमिसाल है। भीड भरे बाजारों, संकरी गलियों और कई ऐतिहासिक धरोहरों से घिरे चांदनी चौक में स्थित गुरुद्वारा शीशगंज साहिब मुझ जैसे नास्तिकों को भी आत्मिक सुख और सुकून की मधुर धारा की तरफ बहाकर ले जाता है। इस गुरुद्वारे के इतिहास में कई देशभक्तों की कुर्बानियों की दास्तानें दर्ज हैं। चांदनी चौक के निकट ही स्थित है १७वीं शताब्दी में निर्मित भारत की सबसे बडी मस्जिद, जामा मस्जिद जो कि लाल और संगमरमर के पत्थरों से बनी है। इसकी ऊंची-ऊंची मीनारें दर्शनीय हैं। देश और विदेश के असंख्य लोग यहां पर इबादत के लिए आते हैं और कई अविस्मरणीय यादें अपने साथ ले जाते हैं। चांदनी चौक से ज्यादा दूर नहीं है लाल बलुआ पत्थरों से निर्मित आलीशान लाल किला, जिसे पांचवें मुगल बादशाह शाहजहां ने बनवाया था। हर वर्ष स्वतंत्रता दिवस पर हिन्दुस्तान के प्रधानमंत्री इसी लाल किला पर झंडा फहराते हैं और देश को संबोधित करते हैं। चांदनी चौक के बाजार भी बेमिसाल हैं, जहां पर हर समय दौड लगाती भीड नजर आती है। मसालों, मेवों, सोने-चांदी के गहनों, तरह-तरह के कपडों की दुकानों की यहां जहां भरमार है वहीं पारंपरिक मिठाई की दुकानें भी चांदनी चौक की मधुर पहचान हैं। यह कहना गलत नहीं कि चांदनी चौक में जहां-तहां मिठास बिखरी नज़र आती है। चांदनी चौक को सभी धर्मों का संगमस्थल भी कहा जाता है। इस बार की यात्रा में चांदनी चौक कुछ बदला-बदला-सा लगा। एक वर्षों पुरानी मिठाई की दुकान के काउंटर से लगी दीवार पर लगे पोस्टर पर दर्ज इन शब्दों को मैं बार-बार पढता और सोचता रहा :
"अफसोस इस बात का नहीं कि धर्म का धंधा हो रहा है,
साहेब अफसोस तो इस बात का है कि पढा-लिखा भी अंधा हो रहा है।"

मेरा मन हुआ कि दुकान के मालिक से इस पोस्टर को लगाने की वजह पूछूं, लेकिन फिर मन में विचार आया कि यह दर्द तो हर उस भारतवासी का है जो अमन-चैन का पक्षधर है। चांदनी चौक में एक संकरी-सी गली में रहने वाली शगुफ्ता परवीन, जो कि एक सरकारी स्कूल में प्रिंसिपल हैं, ने शिकायती लहजे में अपनी चिंता और गुस्सा व्यक्त किया :
"आज जो बात मुझे सबसे ज्यादा परेशान करती है, वह है दिलों को बांटने वाली राजनीति। चांदनी चौक की अपनी पहचान रही है, जहां के लोग बिना किसी भेदभाव के बडी आत्मीयता के साथ सभी एक दूसरे से मिलते और बतियाते हैं। इस प्यार भरे माहौल को खात्मा करने की कोशिशें हो रही हैं। कुछ राजनेता बार-बार पुराने जख्म ताजा करने में लगे हैं। १९४७ वाली तल्खियां, जिन्हें बुरा सपना मानते हुए भूल जाना चाहिए था, वो फिर उभर रही हैं, उभारी जा रही हैं।
खुले विचारों वाली शगुफ्ता हैरान हैं कि इस बार के लोकसभा चुनाव में जरूरी मुद्दे ही गायब हैं। दिल्ली को ही देख लो...। यहां पर प्रति पांच व्यक्तियों में से तीन व्यक्ति बेघर हैं, जिन्हें रेलवे स्टेशनों, फुटपाथों, मंदिरों, बस अड्डों और जाने कहां-कहां पर अपनी रातें गुजारनी पडती हैं। तेज गर्मी, बरसात और ठंड में प्रतिवर्ष सैकडों लोग बेमौत मर जाते हैं। राजधानी में जहां देखो वहीं गुंडागर्दी और अपराध बढ रहे हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री तक को बेखौफ होकर पीट दिया जाता है। महिलाएं खुद को पूरी तरह से असुरक्षित पाती हैं। बेरोजगार युवकों की लंबी कतारें किसी को नजर नहीं आतीं। रोटी, कपडा और मकान हर इंसान की पहली जरूरत है, लेकिन इन समस्याओं को हल करने की कोई बात नहीं करता। लोगों को बांटने में ही पूरी ताकत लगायी जा रही है। इन नेताओं को अब कौन समझाये कि इंसानियत से बडा कोई धर्म नहीं, कोई जाति नहीं। मैं जब इंसानियत को मरता देखती हूं तो बहुत दुख होता है। समझदार समझे जानेवाले लोगों को भी वैमनस्य के बोल बोलते देख दंग रह जाती हूं। मुझे इस बात का गर्व भी है कि हम जिन चांदनी चौक की गलियों में रहते हैं वो तंग भले हैं, लेकिन यहां पर हिन्दू और मुसलमान अपनी ईद और दिवाली मिल-जुलकर मनाते हैं।"
पराठे वाली गली में रहने वाले साठ वर्षीय पत्रकार मित्र श्याम बिहारी भारतीय न्यूज चैनलों के पक्षपाती रवैये से इस कदर व्यथित हैं कि उन्होंने खुद के टीवी को अपने गरीब पडोसी को उपहार में दे दिया है। चांदनी चौक की सर्वधर्म समभाव की आबोहवा में तेजी से फैलाये जा रहे विष और वैमनस्य ने उनकी भी नींद उडा दी है। वे कहते हैं कि न्यूज चैनलों पर ऐसे पत्रकार, संपादक, एंकर कब्जा जमा चुके हैं जो कि घोर पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। उन्हें गडे मुर्दे उखाडने में मज़ा आता है। हिन्दू-मुस्लिम के बीच सांप्रदायिक नफरत के बीज बोने के मामले में तो इन्होंने खुद को इतना नीचे गिरा दिया है कि पत्रकारिता ही शर्मसार है। जिस तरह से कई राजनेता राजनीति के डाकू हैं वैसे ही यह लोग पत्रकारिता के डकैत हैं।
लाल किले में भ्रमण के दौरान एक ऐसे शख्स से मिलना हुआ जिसका नाम मलखान सिंह है। यह इंसान कभी खूंखार डकैत था। अनेकों हत्याएं, डकैतियां, लूटमार और अपहरणों को अंजाम दे चुके इस डरावने इंसान की पहचान में तब तब्दीली आ गई जब उसने १९८२ में मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के समक्ष आत्मसमर्पण किया था। सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश और मध्यप्रदेश में खौफ का पर्याय रहा यह पूर्व डकैत भी लोकसभा चुनाव लड रहा है। ७६ साल के इस पूर्व डकैत को समाजवादी मुलायम सिंह के भाई शिवपाल यादव की प्रगतिशील समाजवादी पार्टी : लोहिया ने चुनावी टिकट देकर अपनी किस्मत आजमाने का मौका दिया है। हमने जब उनसे पूछा कि आप क्या सोच कर चुनाव लड रहे हैं, उनका जवाब था कि आप जो मेरे बारे में सोचते हैं वो पूरी तरह से गलत है। मैं डकैत नहीं, बागी था, जिसने आत्मसम्मान और आत्मरक्षा के लिए बंदूक उठाई थी। मेरे चुनाव लडने का एक ही मकसद है, लोगों को न्याय दिलाना। किसी के साथ बेइंसाफी न होने पाए और हर देशवासी बेखौफ होकर जिए यही मैं चाहता हूं। मुझे अच्छी तरह से पता है कि असली डकैत कौन हैं, जो देश को वर्षों से ठगते और लूटते चले आ रहे हैं। उनसे कैसे निपटना है यह भी मुझे अच्छी तरह से पता है।

Thursday, May 2, 2019

कटघरे में पत्रकार और अखबार

सीधे और सरल शब्दों में कहूं तो सच यही है कि देश का अधिकांश मीडिया भी आज दो भागों में विभक्त हो चुका है। नफरती न्यूज चैनलों और अखबारों की भीड में चंद सच्चे और अच्छे भी हैं जो स्वच्छ पत्रकारिता करते हुए लोकतंत्र के चौथे खम्भे की सशक्त भूमिका निभा रहे हैं। सत्यता, निष्पक्षता, निर्भीकता तथ्यपरकता, स्वतंत्रता, संतुलन और न्यायसंगता ही पत्रकारिता की रीढ की हड्डी है। पिछले चार सालों में जिस तरह से अधिकांश न्यूज चैनलों ने खुद पर किसी न किसी पार्टी के भोंपू, अंधे भक्त और पक्षधर होने का ठप्पा लगवाया है, उससे सजग देशवासी अच्छी तरह से अवगत हैं। यही सच देश के अधिकांश समाचार पत्रों का भी है! कौन-सा अखबार सत्ता का गुलाम है, किस पार्टी की तरफ उसका झुकाव है और वह किन-किन राजनेताओं के स्तुति गान को प्राथमिकता देता है इसकी खबर उन पाठकों को सदैव रहती है जो अपनी आखें खुली रखते हैं। राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की दसवीं वर्षगांठ के शुभअवसर पर हम लोकतंत्र में अखबारों के हालात पर बात करना चाहते हैं। यह सबको पता है कि देश में लगभग सभी समाचार पत्र पूंजीपतियों के द्वारा चलाये जा रहे हैं। अखबार चलाने के पीछे की उनकी असली नीयत भी अब बेपर्दा हो चुकी है। अक्सर ऐसा होता है कि जब किसी नये अखबार का स्वामी, संपादक, पत्रकार किसी प्रतिष्ठित हस्ती को अपना परिचय देता है तो उससे सबसे पहला यही सवाल किया जाता है कि आपका अखबार किस राजनीतिक दल से वास्ता रखता है। दरअसल यह उनकी गलती नहीं है। यह तो अखबार और उन्हें चलाने वालों की छवि का नतीजा है, जिससे वे कभी बाहर नहीं निकलते और पाठकों को निरंतर बेवकूफ बनाने में लगे रहते हैं। वैसे भी सच कभी छिपा तो नहीं रहता।
२०१९ के लोकसभा चुनाव में दिखायी दे रही पत्रकारिता की हैरतअंगेज तस्वीर को क्या नजरअंदाज किया जा सकता है? स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि निष्पक्षता का तो जैसे गला घोटने की ठान ली गई है। खुद को पत्रकारिता के शहंशाह कहने वाले अधिकांश पत्रकार, संपादक या तो भाजपा की भक्ति में लगे हैं या फिर घोर विरोध की पताका थामे हुए हैं। कुछ पत्रकारों ने तो अंधभक्ति और चाटूकारिता की सभी सीमाएं लांघ दी हैं। उनकी यह हरकत इन्हें कहां ले जाएगी यह तो आनेवाला वक्त बतायेगा, लेकिन अपनी-अपनी अंधभक्ति के कारण अंतत: इन्हीं का अहित होना तय है। धन और अन्य भौतिक सुख-सुविधाएं भले ही इन्हें मिल जाएं पर वो सम्मान नहीं मिलने वाला जो निष्पक्ष पत्रकारों को मिलता है। देशवासियों की निगाह से गिर चुके हैं ऐसे कलमकार। मैं उन्हें लेकर बहुत भयभीत और चिंतित हूं कि कहीं आने वाले परिणाम उन्हें इस हालत में न पहुंचा दें कि वे शर्मिन्दगी के मारे किसी को अपनी शक्ल ही न दिखा पाएं। पागलखाने में भर्ती होने या फिर आत्महत्या करने की सोचने की नौबत आ जाए। अखबार पाठकों को सच से अवगत कराने के लिए निकाले जाते हैं, न कि किसी की चरणवंदना करने के लिए। राजनेता तो किसी के सगे नहीं होते। फिर सत्ता तो उन्हें अक्सर अंधा बना ही देती है।
ममता बनर्जी जब प्रदेश की सत्ता पाने के लिए छटपटा रहीं थीं तब उनकी शालीनता की कई कहानियां सुनी और सुनायी जाती थीं। उन्हें बंगाल की शेरनी भी कहा जाता था। अखबारों के संपादकों, मालिकों को बेखौफ अपना कर्तव्य निभाने की सीख देते नहीं थका करती थीं। चाटूकार पत्रकारों को ऐसी फटकार लगाती थीं कि वे ममता के समक्ष आने से हिचकिचाते थे। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद वे ऐसी बदलीं कि लोग हैरत में पड गए। प्रदेश में अब वही अखबार पढे जाते हैं, जिन्हें सरकार पसंद करती है। जी हां, सरकार ही तय करती है कि सरकारी और सरकारी सहायता प्राप्त पुस्तकालयों में लोग कौन-सा अखबार पढें, कौन-सा नहीं। ममता दीदी को उन अखबारों तथा उनके मालिकों, संपादकों से सख्त नफरत है, जो उनकी सरकार के खिलाफ लिखते हैं। दीदी को खुद पर किसी भी तरह का कटाक्ष पसंद नहीं। वे तो सिर्फ और सिर्फ अपनी प्रशंसा करने वालों को ही अपने आसपास खडा होने देती हैं। चापलूसी उन्हें अपार सुख देती है। अपनी आरती गाने वाले कई अखबार के संपादकों, मालिकों को राज्यसभा भेज चुकीं ममता के पुरस्कृत करने के इस अंदाज से जहां सच्चे पत्रकार आक्रोश में हैं तो वहीं बिकाऊओं की तो बस यही चाहत है कि ममता ही हमेशा मुख्यमंत्री बनी रहें। अकेली ममता ही ऐसी नहीं हैं। भारतवर्ष के अधिकांश राजनेता और सत्ताधीश इसी आदत के रोगी हैं, जो तरह-तरह से खेल खेलते रहते हैं। गिरगिट की तरह रंग बदलने वाले नेताओं के समक्ष नतमस्तक होकर पत्रकारिता का अपमान करने वाले पत्रकार, संपादक यह मान चुके हैं कि गुलामी किये बिना अखबार निकाले ही नहीं जा सकते। इनकी बडी-बडी उपदेशात्मक बातें किसी को भी अचंभे में डाल सकती हैं। अपना देश उपदेशकों से भरा पडा है। जब कर्तव्य निभाने की बारी आती है तो यह तरह-तरह की बहानेबाजी पर उतर आते हैं। देश प्रेम और अपना कर्तव्य कैसे निभाया जाता है इनसे सीखें:
गुजरात के अहमदाबाद में एक ऐसे व्यक्ति ने बडे गर्व के साथ मतदान किया जिनके दोनों हाथ नहीं हैं। मतदान से पूर्व पैर के अंगूठे पर मतदानकर्मी ने जब अमिट स्याही लगायी तब उनके चेहरे की चमक कह रही थी कि क्या हुआ मेरे हाथ नहीं हैं, देश प्रेम का ज़ज्बा तो है, जो कभी भी कम नहीं हो सकता। बिहार के मधुबनी में दिव्यांग जगन्नाथ कुमार राय ने भी दोनों हाथ नहीं होने के बावजूद अपने पैर से ईवीएम का बटन दबाकर अपने मताधिकार का प्रयोग कर भारत के सचेत पुत्र होने का सबूत पेश किया। झारखंड के कामता गांव निवासी जसीमुद्दीन अंसारी ने भी उन सुविधा भोगियों के मुंह पर तमाचा जडा है जो मतदान के दिन सैर-सपाटे पर निकल जाते हैं या फिर घर में बैठकर तरह-तरह के पकवानों का मज़ा लेते हुए राजनेताओं तथा सरकार की कमियां गिनते-गिनाते रहते हैं। बीस वर्ष पूर्व उग्रवादियों ने उन्हें चेताया था कि वोट देने न जाएं, लेकिन वे उनके वोट बहिष्कार के फरमान को नजरअंदाज कर अपने दोस्त महादेव के साथ वोट देने पहुंच गए थे। गुस्साये माओवादियों ने जसीमुद्दीन का हाथ तथा महादेव का अंगूठा काट डाला था। महादेव का देहावसान हो चुका है, लेकिन जसीमुद्दीन जिन्दा हैं और हर चुनाव में नियमित मतदान कर जिन्दा होने का प्रमाण भी पेश करते चले आ रहे हैं।
निष्पक्षता, निर्भिकता और निरंतरता के साथ पत्रकारिता के मूल धर्म को निभाते चले आ रहे राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ पर समस्त पाठकों, संवाददाताओं, अभिकर्ताओं, लेखकों, शुभचिंतकों, विज्ञापनदाताओं को बधाई और अपार शुभकामनाएं।