Thursday, January 30, 2014

अराजक और अराजकता

कुछ बातें, वारदातें, घटनाएं, हादसे और समाचार, खुशी, भय और चिं‍ता के कगार पर पहुंचा देते हैं। अरविं‍द केजरीवाल के उदय ने लोगों के उत्साह को बढाया। नयी उम्मीदें जगायीं। लोकप्रियता के मामले में अन्ना हजारे को पछाडने वाले अरविं‍द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के देखते ही देखते छा जाने पर पेशेवर राजनेताओं से त्रस्त करोडों देशवासियों को अथाह प्रसन्नता और तसल्ली हुई। केजरी की आम आदमी पार्टी को दिल्ली की सत्ता संभाले हुए अभी तीस दिन ही बीते थे कि मीडिया तरह-तरह के सवाल दागने लगा। विरोधी पार्टी के नेता तो ऐसे उछलने लगे जैसे उनके मन की चाहत पूरी हो गयी है। उन्होंने 'आप' को फ्लॉप घोषित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। यह वही नेता हैं जो कुर्सी हथियाने के बाद पांच साल तक निष्क्रिय रहने की परंपरा निभाते रहे हैं। जैसे-तैसे पांच साल पूरे होते ही फिर से सत्ता पाने के जोड-जुगाड लगाते रहे हैं। इन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि एकाएक कोई 'आम आदमी' आयेगा जो लोगो का दिल जीत ले जायेगा। हां, यही तो हुआ है। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, समाजवादी पार्टी, बहुजन समाज पार्टी के साथ-साथ दूसरी सभी राजनीतिक पार्टियों के दिग्गजों को कभी सपने में भी ख्याल नहीं आया कि यह देश जागने की राह पर है। लोग इनके झूठे वादों से उकता चुके हैं। सजग मतदाताओं के सब्र का पैमाना टूट चुका है। अरविं‍द केजरीवाल और उनके साथियों ने किस तरह से आम आदमी पार्टी बनायी, वो कहानी भी ज्यादा पुरानी नहीं है। इस नयी पार्टी ने कैसे दिल्ली की सत्ता पायी वो भी जगजाहिर है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब सभी 'आप' के ही गीत गा रहे थे। मीडिया यह दिखाने और बताने की होड में लग गया था कि अब पीएम की कुर्सी का एक और नया दावेदार सामने आ चुका है। जैसे ही दिल्ली पुलिस की नालायकी और नाफरमानी के खिलाफ दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविं‍द केजरीवाल ने फिर से अपने धरने के पुराने हथियार को चलाने के लिए सडकों पर डेरा डाला तो राजनीति के पुराने खिलाडी ऐसी-वैसी बातें करने लगे: कभी किसी मुख्यमंत्री ने अपनी मांग मनवाने के लिए अनशन-हडताल का सहारा नहीं लिया। केजरीवाल तो नौटंकीबाज है। इसे सत्ता चलानी नहीं आती। मुख्यमंत्री को अपने वातानुकूलित कमरे में बैठकर हुक्म चलाना चाहिए। यह तो खुद को आज के युग का महात्मा गांधी समझने लगा है। इसे अब कौन समझाए कि आज अगर खुद गांधी भी होते तो वे अपने ही बनाये उसूलों से पल्ला झाड लेते। इस शख्स ने मतदाताओं को जो सपने दिखाये उन्हें पूरा करने में इसे नानी याद आ रही है।
देश का निम्न और मध्यमवर्ग अभी भी केजरीवाल से निराश नहीं हुआ है। देश के राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्र को सम्बोधित करते हुए अरविं‍द केजरीवाल और 'आप' पर निशाना तो साधा ही, उन्हें भी सचेत कर दिया जो अरविं‍द केजरीवाल पर रातों-रात कोई करिश्मा कर दिखाने का जबरन दबाव बनाये हुए हैं। उन्होंने कहा कि, 'लोकप्रिय अराजकता किसी भी रूप में प्रशासन का विकल्प नहीं हो सकती। झूठे वायदे मोहभंग पैदा करते हैं, जिससे गुस्सा उपजता है और उस गुस्से के वाजिब शिकार सत्ता में बैठे लोग ही होते हैं। इस विशाल देश की तमाम समस्याएं रातों-रात खत्म नहीं हो सकतीं।'
देश के गृहमंत्री सुशील कुमार शिं‍दे एक उम्रदराज नेता हैं। उनसे गंभीरता और संजीदगी की उम्मीद की जाती है। उन्हें भी अरविं‍द केजरीवाल रास नहीं आ रहे। शिं‍देजी का बस चले तो वे केजरीवाल की सीएम की कुर्सी को फौरन अपने कब्जे में ले लें और दिल्ली से उनकी रवानगी कर दें। इन्हीं गृहमंत्री महोदय ने कभी पुणे के एक सम्मान समारोह में यह रहस्योद्घाटन किया था कि इस देश की जनता मूर्ख है। इसकी याददाश्त का दिवाला पिट चुका है इसलिए बहुत जल्दी सब कुछ भूल जाती है। लेकिन इस बार उन्होंने जनता को कोसने की बजाय दिल्ली के मुख्यमंत्री पर शब्दबाण चला कर अपनी हताशा और पीडा को उजागर कर दिया। उन्होंने फरमाया कि केजरीवाल तो 'येडा' मुख्यमंत्री है। येडा यानी मुर्ख या पागल। लोकसभा के चुनाव निकट हैं इसलिए आम जनता शिं‍देजी निशाने से बच गयी। फिर भी यह विषैली चोट तो उन सजग मतदाताओं पर ही की गयी है, जिन्होंने अरविं‍द केजरीवाल को विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व विजयश्री दिलवायी और शीला दीक्षित जैसी मगरूर मुख्यमंत्री को वहां पटक दिया जहां की वे हकदार थीं। अरविं‍द केजरीवाल और आम आदमी पार्टी को विधानसभा चुनावों में जितवा और दिल्ली की सत्ता तक पहुंचाकर मतदाताओ ने मूर्खता की है या अक्लमंदी का परिचय दिया है यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा। लेकिन राजनीति के भुलक्कड और बेशर्म खिलाडी बहुत जल्दी में हैं। किसी को अरविं‍द केजरीवाल और उनके साथी नक्सली लगते हैं तो कोई उन्हें अराजक और दंगई घोषित करने में लगा है।
मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि दिल्ली के मतदाताओं का मिजाज देश से जुदा नहीं है। वे न तो मूर्ख हैं और ना ही भुलक्कड। नक्सली, दंगई, अराजक और अराजकता के असली मायने भी उन्हें पता हैं। आप को लेकर फैसले पर फैसले सुनाने की इतनी जल्दबाजी ठीक नहीं। अरविं‍द केजरीवाल और उनकी जुझारू टीम को वक्त दिया जाना चाहिए। यही मौका है जब देश की बदरंग तस्वीर बदल सकती है। अगर यह काम २०१४ में नहीं हो पाया तो फिर कभी भी नहीं हो पायेगा। शोर-मचाने वाले नेताओं को अपने दुष्ट कर्मों की पडताल करनी चाहिए। यही लोग जब अपने गिरेबान में झांकेंगे तो इनकी बोलती बंद हो जाएगी। देश के कुछ तथाकथित महान नेता भले ही खुद के द्वारा बार-बार उच्चारित किये जाने वाले शब्दों के अर्थ भूल गये हों पर आम आदमी नहीं भूला। वह २००२ में हुए उस हत्याकांड को भी नहीं भूला जिसमें साबरमती एक्सप्रेस के दो डिब्बों में आग लगाकर ५८ कार सेवकों को जिं‍दा फूंक दिया गया था। दंगाइयों के इस अमानवीय कृत्य के पश्चात पूरे गुजरात में साम्प्रदायिक हिं‍सा के बेखौफ तांडव के चलते हजारों लोगों के मारे जाने का खूनी मंजर आज भी लोगों के दिलो-दिमाग में छाया हुआ है। देश का इतिहास ऐसे न जाने कितने रक्तिम पन्नों से भरा पडा है जिन्हें पढकर आने वाली पीढि‍यां भी शर्मसार होती रहेंगी। कौन भूल पायेगा १९८४ का वह भयावह काल जब इंदिरा गांधी की हत्या के पश्चात पूरी दिल्ली को ज्वालामुखी में तब्दील कर दिया गया था। सिख विरोधी हिं‍सा के तांडव में कुछ कांग्रेसियों को नाचते-गाते देखा गया था। सैकडों सिख जिं‍दा जला दिये गये। न जाने कितनों की खून-पसीने से कमायी गयी लाखों-करोडों की सम्पति को लूटा और फूंका गया। यह अराजक और आतंकी खेल दिल्ली के साथ-साथ लगभग पूरे देश में तीन-चार दिन तक निरंतर चलता रहा। धूएं के बादलों के साथ-साथ खून का बदला खून के नारे गुंजते रहे। सत्ताधीश, प्रशासन और पुलिसवाले मूकदर्शक बने रहे। देश और दुनिया के इतिहास में हिं‍सा और अराजकता का ऐसा और कोई उदाहरण दर्ज नहीं है।

Saturday, January 25, 2014

खादी और खाकी के कलंक

खाकी और खादी के गठबंधन को तोड पाना आसान नहीं है। मुंबई के एक भूतपूर्व पुलिस अधिकारी वाय.के.सिं‍ह ने अपनी पुस्तक में इन दोनों के मजबूत रिश्तों पर इतना कुछ लिखा है कि हर पढने वाला स्तब्ध रह जाता है। जिस देश में खादी और खाकी एक हो जाएं उसका तो भगवान ही मालिक है। बडी से बडी क्रांति इनके चेहरे पर शिकन नहीं ला सकती। क्या यह चौंकानेवाला सच नहीं है कि इस देश में थानों की बोली लगती है! यह बोली पच्चीस-पचास हजार में सिमट कर नहीं रह जाती। इसका आंकडा तो लाखों और करोडों तक जाता है। जिस इलाके में जितने ज्यादा अपराध और अपराधी होते हैं उतनी ही उसकी कीमत बढ जाती है। इसलिए तो कहा जाता है कि पुलिस वालों की रजामंदी के बिना कहीं भी सतत अवैध कारोबार नहीं चल सकते। शहरों और महानगरों में अपराध और अपराधियों की एक अपनी दुनिया आबाद हो चुकी है। किस-किस इलाके में अवैध शराब बनती है, देह व्यवसाय होता है, जुए के अड्डे चलते हैं और दिन के उजाले में तमाम काले धंधे होते हैं इनकी पूरी खबर चतुर और कमाऊ पुलिसवालों को रहती है। जब तक उन्हें अपना हिस्सा मिलता रहता है तब तक कोई छापेमारी नहीं की जाती। इस कमाई का हिस्सा ऊपर तक पहुंचता है। ऊपर वालों का जिन मंत्रियों-विधायकों से टांका भिडा रहता है उनकी सारी मुरादें पूरी कर दी जाती हैं। तभी तो पुलिस अधिकारियों को मनचाहे थाने की गद्दी मिलती है। जब कभी किसी समाजसेवक अथवा ईमानदार नेता के द्वारा अराजक तत्वों और उनके ठिकानों के खिलाफ आवाज उठायी जाती है और खाकी वर्दीवालों को कानूनी कार्रवाई करने के लिए कहा जाता है तो वे बडी चालाकी के साथ आनाकानी करते नज़र आते हैं। ऐसे में अक्सर यह भी होता है कि कुछ जिम्मेदार नागरिक अपराधियों को सबक सिखाने के लिए ऐसा कदम उठाने को विवश हो जाते हैं जिसे गैर कानूनी कहा जाता है। जहां कानून के रक्षक अपने कर्तव्य ईमानदारी और नैतिकता को रिश्वतखोरी की मंडी में नीलाम कर चुके हों वहां ऐसी तथाकथित अवैधानिक पहल और कोशिश को आम जनता के द्वारा सराहा जाता है। किसी के हिस्से की तालियां कोई और बटोर ले जाता है और इससे जो परिदृष्य बनता है उससे वो 'कोई' नायक बन जाता है। पुलिस विभाग की नस-नस में घर कर चुके भ्रष्टाचार और गैर जिम्मेदाराना व्यवहार के चलते आमजनों को जहां मुसीबतें झेलनी पडती हैं, वहीं उन वर्दीधारियों का भी दम घुटने लगता है जो कर्तव्यनिष्ठा और ईमानदारी के साथ काम करना चाहते हैं। उन्हें अपने उच्च अधिकारियों और नेताओं, मंत्रियों की दखलअंदाजी शूल की तरह चुभती है। अपने उसूलों पर टिके रहने का खामियाजा उन्हें भुगतना पडता है। भ्रष्ट उन पर भारी पड जाते हैं। तरक्की दर तरक्की पाते चले जाते हैं। ईमानदार पुलिस कर्मी मन मसोस कर रह जाते हैं। इनकी हर स्तर पर अवहेलना की जाती है। आखिरकार एक वक्त ऐसा भी आता है जब स्वाभिमानी खाकी वर्दीधारी को नौकरी छोड देनी पडती है। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो आत्महत्या कर 'दुखद खबर' बन जाते हैं। पर ऐसी खबरें किसी को नहीं चौंकाती। पुलिसवाले के फांसी पर झूल जाने या खुद के हाथों खुद को गोली का शिकार बनाने के पीछे भ्रामक कारण गिनाये जाते हैं। असली सच को छुपा लिया जाता है।
एक असली सच यह भी है कि पुलिस वालों को १६ से १८ घंटे तक कोल्हू के बैल की तरह खून-पसीना बहाना पडता है। खाने-पीने का कोई ठिकाना नहीं होता। वे जिन सरकारी घरों में रहते हैं उनकी जर्जर हालत दबे हुए सच को उजागर करती है। जिन्हें धन कमाने का हुनर आता है और अफसरों की चाटूकारिता करनी आती है उनके यहां तमाम सुख-सुविधाओं के सामान भरे रहते हैं। जो इस कला से नावाकिफ हैं या जिनकी खुद्दारी ने उन्हें बिकाऊ नहीं बनाया वे तमाम असुविधाओं के बीच जैसे-तैसे दिन काटते रहते हैं। २०१४ एक नयी दास्तान लिखने को आतुर है। जागरूक जनता ने कमर कस ली है। हिं‍दुस्तान की पुलिस को बदलना ही होगा। अगर उसने खुद का नहीं सुधारा तो लोग उसे सुधरने के लिए मजबूर कर देंगे। बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। यहां तो सभी हदें पार कर दी गयी हैं। सीधा-सादा आदमी, अनपढ आदमी, मेहनतकश आदमी, बेसहारा आदमी पुलिस थाने जाता है तो उसकी सुनी नहीं जाती। उसे दुत्कार कर भगा दिया जाता है। अधिकांश पुलिस वालों का नैतिकता, कर्तव्य और संवेदना से कोई लेना-देना नहीं है। वे हमेशा अपनी मुट्ठी गर्म करने की ताक में लगे रहते हैं। हुक्मरानों, सत्ता के दलालों, माफियाओं, छटे हुए बदमाशों और सफेदपोशों के सामने अधिकांश पुलिसवालो की घिग्गी बंधी रहती है और आम आदमी पर उसके आतंकी डंडे का जबर्दस्त जोर चलता है। यह हमारा नहीं, उन लाखों भुक्तभोगियों का कहना है जो तथाकथित वर्दी वाले गुंडों के सताये हुए हैं। रिश्वतखोर पुलिस वालों की दादागिरी आम लोगों पर ज्यादा ही चलती है। पिछले वर्ष एक खूंखार हत्यारे ने अपना दर्द बयां करते हुए कहा था कि उसे बेईमान खाकी वर्दी वालों ने अपराधकर्म करने को विवश किया। वह तो अपनी रोजी-रोटी के लिए सडक के किराने सामान बेचता था। पुलिस वाले उसे 'हफ्ता' देने के लिए मजबूर करते थे। उसकी इतनी कमायी नहीं थी कि हर पुलिस वाले की मांग को पूरा कर पाता। उसने 'खाकी' का अपराधी चेहरा देखकर अपराधी बनने की ठान ली। अपराधी से हत्यारा बनने में उसे ज्यादा समय नहीं लगा। इस देश में ऐसे कई लोग हैं जिन्हें पुलिस ने गलत मार्ग पर चलने को विवश किया और आज अपराध जगत में उनकी तूती बोलती है। कई नेता और पुलिस वाले उनके दरबार में हाजिरी लगाते हैं। ऐसे शर्मनाक हालातों को बदलने के लिए किसी न किसी नायक को तो सामने आना ही पडेगा।

Friday, January 17, 2014

मीडिया किसी का गुलाम नहीं

यह कोई नयी बात नहीं है। मीडिया को निशाने पर लेना बडा पुराना चलन है। ऐसे राजनेता कम हैं जो सच का सामना करने का दम रखते हों। अपने खिलाफ चलने वाली हर खबर में इन्हें कोई गहरी साजिश नजर आने लगती है। अपनी उग्र प्रतिक्रिया दर्शाने के लिए यह फौरन सीना तानकर ख‹डे हो जाते हैं। अखिलेश यादव से लोगों को कितनी उम्मीदें थीं। उनको उत्तरप्रदेश का मुख्यमंत्री बनाने के लिए प्रदेश की जनता ने वोटो के अंबार लगा दिये। युवा अखिलेश के वादे ही कुछ ऐसे थे। हर किसी ने फौरन भरोसा कर लिया। पर धीरे-धीरे जो परिणाम सामने आये उनसे मतदाताओं को फिर से एक बार बुरी तरह से ठगे जाने का यकीन हो गया है। उत्तरप्रदेश 'दंगा प्रदेश' बन कर रह गया है। समाजवादी नेताओं और खाकी वर्दी धारियों की गुंडागर्दी ने जनता का जीना हराम कर दिया है। अखिलेश उस कठपुतली की तरह इधर-उधर डोलते नजर आ रहे हैं, जिसकी डोर किन्हीं अदृष्य हाथों में है। मुजफ्फर नगर में हुए दंगों ने उनके 'अपंग' होने के पूरे सबूत पेश कर दिये। उनके पिता मुलायम सिंह यादव दंगा पीडितों को 'अराजक तत्वों का जमावडा' कहने से भी बाज नहीं आए। भरी ठंड में उनके तंबुओं को ही उखडवा दिया गया। सत्ता लोलुप मुलायम सिंह का निष्ठुर और निर्लज्ज होना तो समझ में आता है, लेकिन उनके सुपुत्र अखिलेश सिंह यादव की निर्ममता, नीचता और नालायकी की पठकथा समझ से बाहर है। उन्होंने क्या सोचकर 'सैफई महोत्सव' में करोडों रुपये फूंके? इसी दरम्यान उन्होंने अपने कुछ विधायकों और मंत्रियों के काफिले को तथाकथित अध्यन्न यात्रा के लिए विदेश भी भेज दिया! यह जनप्रतिनिधि हद दर्जे के घटिया इंसान निकले। इन्हें प्रदेश की जनता की बदहाली का ज़रा भी ख्याल नहीं आया। मुजफ्फर नगर के कैंपों में कडकडाती ठंड में अपनी रातें गुजारते बदनसीबों को मंत्री आजमखां ने ऐसे नजअंदाज कर दिया जैसे कि वे कीडे मकोडे हों। ऐसे ही मर-खप कर दुनिया से रुखसत हो जाना उनकी नियति हो। जो मंत्री और विधायक इंसानी पीडा को नहीं समझ सकते उन्हें तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। अखिलेश कहते हैं विधायकों और मंत्रियों का विदेशों में अध्यन्न करने के लिए जाना कोई गलत काम नहीं है। इस नकारे मुख्यमंत्री को कौन समझाये कि यह पढायी नहीं अय्याशी है, हद दर्जे की लंपटता और नालायकी है। अध्यन्न के नाम पर किये जाने वाले सैर-सपाटों में तो शालीनता होती है। फिर ऐसे सैर सपाटे तो तभी शोभा देते हैं जब प्रदेश में अमन और चैन का वातावरण हो। यहां तो समूचा प्रदेश ही जैसे सुलग रहा है। लोगों में गुस्सा भरा है। आजमखां सहित प्रदेश के १७ मंत्रियों को विदेशी मजे लूटने की खुली छूट और सैफई महोत्सव में सलमान खान, माधुरी दीक्षित आदि-आदि फिल्मी सितारों के ठुमकों में करोडों रुपये लूटाने वाले मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जब मीडिया ने आईना दिखाया तो वे ऐसे ताव में आ गये जैसे उन्हें भरे चौराहे नंगा कर दिया गया हो। उनकी दादागिरी तो देखिये। उन्होंने उन अखबारों और न्यूज चैनलों पर धडाधड प्रतिबंध लगाने की घोषणा कर दी जो हकीकत बयां कर रहे थे। क्या शासक ऐसे होते हैं? यह तो हिटलरशाही है। मीडिया को अपने इशारों पर नचाने की मंशा पालने वाले सत्ताधीशों को नहीं भूलना चाहिए कि यदि सजग मीडिया अपनी पर आ गया तो उनके मायावी सपनों को चकनाचूर होने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा। मीडिया किसी का गुलाम नहीं हो सकता।
भारतीय जनता पार्टी के भावी पीएम सहित बहुतों की यह शिकायत है कि आम आदमी पार्टी मीडिया की देन है। अन्य पार्टियों के भी कुछ नेता हैं जिन्हें मीडिया किसी षडयंत्रकारी की भूमिका में दिखायी दे रहा है। बेचारे घबराये हुए हैं कि मीडिया का बहुत बडा हिस्सा उन्हें सत्ता से वंचित करने और आम आदमी पार्टी को केंद्र की सत्ता तक पहुंचाने की भरपूर कोशिशों में जुटा है। इन्हीं नेताओं की बिरादरी में कई ऐसे नेता हैं जो मीडिया पर बिकाऊ होने का आरोप भी लगाते रहे हैं। प्रिंट मीडिया को तो यह ऐसे धमकियां देते हैं जैसे वह इनकी खैरात पर चल रहा हो। इन्हें लगभग सभी अखबार वाले धन के लालची लगते हैं। जबकि वस्तुस्थिति यह है कि चाहे प्रिंट मीडिया हो या इलेक्ट्रानिक मीडिया दोनों में ईमानदारी से पत्रकारिता करने वालों की कमी नहीं है। जो मीडिया संस्थान पूंजीपतियों के कब्जे में हैं उन्हीं की घोर व्यवसायिक प्रवृत्ति के कारण ही भ्रष्टों और बददिमागों को तमाम मीडिया पर उंगली उठाने का अवसर मिलता है। ठग और लुटेरे पूंजीपतियों की जमात ने मीडिया को बाजार के चौराहे पर खडा कर दिया है। लेकिन पाठकों का एक ऐसा विशाल वर्ग है जो अच्छे और बुरे के बीच फर्क करना जानता है। इसलिए अच्छों और सचों पर कभी कोई आंच नहीं आ सकती। देश के सजग मीडिया को जब लगा कि भ्रष्टाचारियों की जमात को अरविंद केजरीवाल जैसे ईमानदार चेहरे ही मात दे सकते हैं तो उसने उसका साथ देने में जरा भी देरी नहीं लगायी। मीडिया का तो काम ही है लोगों को जगाना और होश में लाना। 'आप' का साथ देकर उसने कोई गुनाह नहीं किया। उसने तो पत्रकारिता के धर्म का पालन ही किया है। सच तो यह है कि देश की आम जनता मीडिया की शुक्रगुजार है। नाराज तो वो नेता हैं जिनकी दुकानों पर अब ताले लगने की नौबत आ गयी है। याद किजिए वो दिन जब उत्तरप्रदेश में विधानसभा चुनावों का मौसम था। मायावती के प्रति जनता में जबरदस्त आक्रोश था। ऐसे में जब युवा अखिलेश यादव चुनावी दंगल में उतरे थे तो प्रदेश की जनता उनके साथ हो ली थी। इसके पीछे मीडिया का भी अच्छा-खासा रोल था। देशभर के अखबारों और न्यूज चैनलों में अखिलेश रातों-रात छाते चले गये थे। सभी को उम्मीद थी कि यह युवक कुछ 'खास' करके दिखायेगा और जनता को राहत दिलायेगा। बरबादी के कगार पर पहुंच चुके प्रदेश को खुशहाली नसीब होगी। यह भी काबिलेगौर है कि यदि मुलायम सिंह यादव मायावती के खिलाफ मैदान में उतरते तो प्रदेश की जनता उन्हें नकार देती। उनके पुत्र अखिलेश के वादों पर जनता ने आंख मूंदकर भरोसा किया। पर इस युवक ने तो मायावती के शासन काल की दरिंदगियों को भी मात दे दी। अखिलेश के शासन में समाजवादी गुंडे कुछ भी कर गुजरने को आजाद हैं। महिलाएं पुलिसवालों के हाथो पिट रही हैं। अपराधी कानून को अपने हाथ में लेने से नहीं घबराते। दलितों, शोषितों और अल्पसंख्यकों का जीना मुहाल हो गया है। अखिलेश ने जिस तरह से जनता के भरोसे को तोडा है उससे तो अब तरह-तरह के सवाल उठने लगे हैं। वे ईमानदार युवक जो राजनीति में वास्तव में कुछ करके दिखाना चाहते हैं उन्हें भी शंका की निगाह से देखा जाने लगा है। दरअसल अखिलेश ने तो युवकों की साख को बट्टा लगा दिया है। कथनी और करनी में घोर अंतर रखने वाले ऐसे नेताओं का जब मीडिया पर्दाफाश करता है तो उनके तन-बदन में आग लग जाती है। वे खुद को बदलने और सुधारने की बजाय मीडिया को कटघरे में खडा करने लगते हैं। उन्हें किसी नये नेता और नयी पार्टी का बनना और उभरना तो कतई नहीं सुहाता। मीडिया पर आखें तरेरने वाले कितना भी जोर लगा लें पर मीडिया उनके इशारे पर नहीं नाचने वाला।

Friday, January 10, 2014

इस सच को भी तो जानो

सत्ता पाने के लिए क्या-क्या नहीं हो रहा। सत्ता पर बने रहने के लिए भी हर तरह के दांव-पेंच और नुस्खे आजमाए जा रहे हैं। न्यूज चैनलों पर यह खबर सपाटे के साथ चल रही है कि राहुल गांधी की छवि को चमकाने के लिए ५०० करोड रुपये दांव पर लगाए जा रहे हैं। इस शुभ काम के लिए दो विदेशी एजेंसियों को ठेका दिये जाने की खबर ने चौंका दिया। भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के नाम को मतदाताओं के दिलो-दिमाग तक पहुंचाने का ठेका भी किसी विदेशी कंपनी को बहुत पहले दे दिया गया था। सात समन्दर पार के विज्ञापन प्रबंधकों ने नरेंद्र मोदी को चमकाने के लिए जमीन-आसमान एक करने में देरी नहीं लगायी। जहां देखो वही नरेंद्र मोदी। देश के आधे से ज्यादा अखबार और न्यूज चैनल वाले भी मोदी की आरती गाने में ऐसे जुट गये जैसे वही इस मुल्क के इकलौते मसीहा हों जो डूबती नैय्या को पार लगा सकते हैं। आश्चर्य! यह मसीहा अपनी पार्टी भाजपा को दिल्ली की सत्ता नहीं दिला पाया। एक आम आदमी जिसने मुडे-तुडे कपडे पहन रखे थे और सिर को किसी पुराने मफलर और टोपी से ढंका हुआ था उसने तरह-तरह के नवीनतम वस्त्रों के शौकीन नरेंद्र मोदी को जबर्दस्त मात दे दी। आम आदमी के इर्द-गिर्द किसी भी तरह की कोई पुख्ता सुरक्षा का कोई घेरा नहीं था। वह जहां चाहता, वहीं चला जाता। उसके बोलने का अंदाज भी बडा सादा था। दूसरी तरफ नरेंद्र मोदी का काफिला था। उनकी चुनावी सभाओं की सुरक्षा व्यवस्था ऐसी कि परिन्दा भी आसपास न फटक सके। मोदी जहां जाते, वहीं रातों-रात उनके आदमकद पोस्टर लग जाते। आम आदमी तो खुद ही पोस्टर था। मोदी जब मंच पर भाषण देने आते तो ऐसा लगता किसी सल्तनत का राजा आम जनता से मुखातिब होने को आया है। उनके चेहरे की अजब-गजब मुस्कान और गर्व-दर्प देखते बनता था। जैसे कह रहे हों कि मैं ही सबकुछ हूं। बाकी सब तो चींटियां हैं। आम आदमी की तो कोई औकात ही नहीं है। वह तो भीड मात्र है। भीड का कोई वजूद और चरित्र नहीं होता। आश्चर्य! उनके भाषणों को तालियां भी खूब मिलीं। पर दिल्ली की जागरूक जनता ने मनचाहे वोट देने में भरपूर कंजूसी कर दी।
दरअसल, आम आदमी पार्टी और अरविंद केजरीवाल ने भाजपा और कांग्रेस दोनों के पैरों के नीचे की जमीन खिसका दी है। दोनों पार्टियां बेहद घबरायी हुई हैं। उन्हें यह डर सता रहा है कि यह तीसरा खिलाडी निश्चय हि उनके खेल को बिगाड सकता है। अरविंद केजरीवाल एंड कंपनी के आकस्मिक उभार की न तो राहुल गांधी ने कल्पना की थी और न ही नरेंद्र मोदी ने। दोनों पार्टियों के विभिन्न नेता अपने-अपने घमंड में चूर थे। अब जब होश ठिकाने आये हैं तो फिर से नयी चुनावी रणनीतियां बनायी जा रही हैं। एक तीसरे सीधे-सादे सहज इंसान ने इन्हें करोडों रुपये फूंकने पर विवश कर डाला है। वो आदमी बडे मजे से मजे ले रहा है। उसे किसी का कोई डर नहीं है। उसका कुछ भी नहीं खोनेवाला। उसे तो पाना ही पाना है। उसके कारवां की भीड बढती चली जा रही है। कल तक लग रहा था कि नरेंद्र मोदी के रथ को रोक पाना असंभव है और आज आम आदमी के प्रतीक अरविंद केजरीवाल के रथ के पहिये को जाम करने के लिए दिमाग खपाया जा रहा है। रंक ने राजा के होश ठिकाने लगा दिए। इस देश की जनता यही चाहती थी। यही तो चाहती है! भोली-भाली जनता को न नरेंद्र से कोई लेना-देना है और न ही राहुल से। उसे तो शिकायत है इनकी पार्टियों से जो बडे-बडे वादे तो करती रहीं पर कहीं भी खरी नहीं उतरीं। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस की अगर नीयत साफ होती तो सदियों से दबे-कुचले, पिछडे और समाज के हाशिये पर पडे लोगों की सबसे पहले सुध लेती। सत्ता के मद में खोयी कांग्रेस ने तो इनकी तरफ देखा तक नहीं। महंगाई पर महंगाई बढाकर इन बदनसीबों को गरीबी रेखा से भी बहुत नीचे जीने को विवश कर दिया गया। न इन्हे कभी ढंग से दो जून की रोटी मिल पायी और न ही पीने के लिए पानी। शिक्षा, रोजगार, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं के लायक तो जैसे इन्हें समझा ही नहीं गया। शहरों और ग्रामों में इतना भेदभाव कि... जैसे शहरों और यहां के रईसों की बदौलत ही देश चल रहा हो। किसानों की आत्महत्याओं के असली कारणों की गहराई में जाने की कभी कोशिश ही नहीं की गयी। उन पर जुल्म ढाने वाले शोषकों और साहूकारों को भी खुले सांड की तरह छोड दिया गया। उद्योगपति बैंको के धन को डुबाते रहे फिर भी सम्मान पाते रहे। असमानता और अराजकता के इस पूरे खेल में मंत्रियों, अफसरों, नेताओं, सत्ता के दलालों ने जमीन, जंगल, पहाड और सरकारी खजाने लूट डाले। किसी भी राजनीतिक ठग और लूटेरे का बाल भी बांका नहीं हुआ। इन्हीं में से कई लोगों ने विधानसभा और लोकसभा में बडी आन-बान और शान के साथ अपनी उपस्थिति दर्ज करवायी। केंद्र और प्रदेश की सत्ता संभालने का अच्छा-खासा मौका भारतीय जनता पार्टी को भी मिला। छत्तीसगढ और मध्यप्रदेश को छोडकर कहीं भी खुशहाली की फसल लहराती नजर नहीं आयी। नरेंद्र मोदी ने गुजरात का कितना विकास किया उसका पूरा सच लालकृष्ण आडवानी उजागर कर चुके हैं। भाजपा के पितामह अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को यूं ही राजधर्म निभाने की सीख नहीं दी थी। सच तो यही है कि यदि कांग्रेस और भाजपा की आम लोगों में बहुत अच्छी छवि होती तो 'आप' का उदय ही नहीं होता। न ही नरेंद्र मोदी और राहुल गांधी को भारत वर्ष में अपना नाम चमकाने के लिए प्रचार एजेंसियों का सहारा लेना पडता। जापान की जिन दो पब्लिक रिलेशन (पी.आर.) एजेंसियों को राहुल गांधी तथा कांग्रेस की धुंधलाती तस्वीर को संवारने और चमकाने का जिम्मा सौंपा गया है, वे अपने काम में लग गयी हैं। यह एजेंसियां प्रिंट और इलेक्ट्रानिक मीडिया को अपने पाले में लेंगी और इस तरह की खबरें छपवायेंगी और चलवायेंगी जिससे देशवासियों को लगे कि राहुल गांधी और कांग्रेस के सिवाय और कोई इस देश को नहीं बचा सकता। अगर किसी और के हाथ में देश की सत्ता गयी तो बहुत बडा अनर्थ हो जायेगा। राहुल गांधी को देश का एकमात्र युवा नेता दर्शाया जायेगा। राहुल की विभिन्न रैलियों की तस्वीरें हर जगह नज़र आयेंगी। सोशल मीडिया पर भी राहुल ही राहुल छा जाएंगे। पर सवाल यह है कि क्या वाकई वे देशवासियों के दिलों में जगह बना पायेंगे?

Thursday, January 2, 2014

निकलो बंद मकानों से...

लाल बहादुर शास्त्री। एक ऐसा प्रेरणास्पद नाम जो देशभक्ति, ईमानदारी, सदाचार और सरलता का प्रतीक है। देश के इतिहास में लाल बहादुर शास्त्री को छोडकर दूसरा और कोई ऐसा प्रधानमंत्री हुआ ही नहीं जो सच्चे मायनों में देशवासियों का आदर्श हो। हर किसी के साथ कोई न कोई विवाद जुडा रहा है। किसी को परिवारवाद ले डूबा तो किसी ने करनी और कथनी में भारी अंतर रख अपनी छवि मलीन कर डाली। जय जवान, जय किसान का नारा लगाने वाले लाल बहादुर शास्त्री देश के ऐसे प्रधानमंत्री थे जिन्होंने सच्चे अर्थों में देश की सेवा की और जन-जन पर अपनी अमिट छाप छोडी। आज भी देश उन जैसे प्रतिभावान नेता और प्रधानमंत्री की बेसब्री से बाट जोह रहा है। देखें कभी पूरी होती है भारतमाता की यह इच्छा। यह सुखद खबर आपके पढने और सुनने में आयी होगी कि लाल बहादुर शास्त्री के पोते आदर्श शास्त्री आम आदमी पार्टी में शामिल हो गये हैं। चलती गाडी की सवारी तो हर किसी को भाती है, लेकिन आदर्श शास्त्री ने अरविं‍द केजरीवाल के उसूलों से प्रभावित होकर ही एक करोड की अपनी लगी-लगायी नौकरी को लात मार दी है। नागपुर के विख्यात चिकित्सक डॉ. उदय बोधनकर ने भी आम आदमी पार्टी की टिकट पर नागपुर लोकसभा चुनाव लडने का मन बना लिया है। डॉ. बोधनकर ने आम आदमी पार्टी से जुडने का यूं ही मन नहीं बनाया। उन्हें इस पार्टी के सुप्रीमो अरविं‍द केजरीवाल का पारंपरिक पार्टियों से एकदम अलग हटकर काम करने का तरीका बेहद भाया है। दूसरे नेताओं की तरह नाटकीय अंदाज अपनाये बिना उन्होंने जो करिश्मा कर दिखाया है उसी के कायल हो गये हैं नागपुर के जाने-माने बालरोग विशेषज्ञ डॉ. बोधनकर। उनके ससुर स्वर्गीय वसंत साठे का नाम देश के कद्दावर नेताओं में शामिल रहा है। बापू की कर्मभूमि वर्धा से दो बार लोकसभा चुनाव जीतने वाले वसंत साठे ने देश के सूचना प्रसारण मंत्री का दायित्व भी बखूबी से निभाया था। डा. बोधनकर अपने ससुर के चुनाव संचालन की महत्वपूर्ण भूमिका निभा भी चुके हैं। यानी वे राजनीति के अंदरूनी दांव-पेच से वाकिफ हैं। डॉ. बोधनकर को 'आप' पार्टी का उम्मीदवार बनाने के लिए कई सामाजिक संगठनों ने अपनी आवाज बुलंद कर दी है। दूसरी तरफ नागपुर से लोकसभा चुनाव लडने की तैयारी में जुटे तथाकथित दमदार पार्टियों के दमदार नेताओं के चेहरों का रंग उड गया है। बेचारे अभी से बीमार दिखायी देने लगे हैं। अंदर ही अंदर से घबराये इन नेताओं के बयान लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। जिस तरह से शुरु-शुरु में दिल्ली में आम आदमी पार्टी के भविष्य को लेकर बातें की जा रही थीं ठीक वैसे ही बोलवचन सुनने को मिल रहे हैं: इस पार्टी का दिल्ली में तुक्का चल गया। नागपुर के मतदाता इतने अनाडी नहीं हैं कि नौसिखियों को अपना कीमती वोट देने की भूल करें। वैसे भी हर विधानसभा और लोकसभा चुनाव से पहले कागजी शेरों की दहाड सुनने को मिलती ही रहती है। यानी नागपुर के नेताओं की जमीन इतनी पुख्ता है कि उसे कोई हिला नहीं सकता! वैसे यही गुमान दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को भी था। विधानसभा चुनाव से पहले उन्हे 'आप' पार्टी पानी का बुलबुला लग रही थी। बुलबुले ने समंदर को पानी पिला दिया और मदहोश समंदर के होश ठिकाने आ गये। दिल्ली की तरह महाराष्ट्र को भी बदलाव का इंतजार है। नागपुरवासी तो बेचैन हैं। राह देख रहे हैं। अरविं‍द केजरीवाल जैसा कोई जुनूनी आम आदमी आए और उनके सपने साकार कर दे। इस शहर के साथ हर पार्टी के नेताओं ने लगातार मज़ाक ही किया है। उद्योग धंधे गायब हो चुके हैं। वो एम्प्रेस मिल और मॉडल मिल कब की बंद हो गयीं जो नागपुर की खास पहचान थीं। इन मिलों के कपडों की अपनी एक अलग शान थी। यह कपडा देश के दूर-दराज के शहरों और गांवों के बाजारों में जाता था। हजारों श्रमिक इनसे जुडे थे। सबके सब एक ही झटके से बेरोजगार हो गये। नेताओं की घटिया राजनीति ने शहर के और भी कई उद्योगधंधों पर ताले जडवाये। मिलों की अरबों रुपयों की जमीनों को भी इन नेताओं के संगी-साथी औने-पौने दामों में खरीदने में कामयाब हो गये। इन पर बडी-बडी इमारतें तान दी गयीं। शहर के भाग्य विधाता कहे जाने वाले कुछ नेताओं का लगभग एक-सा चरित्र है। मिल-बांट कर खाने में यकीन रखते हैं। भले ही पार्टी अलग-अलग हो। इस मामले में सब एक हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो विदर्भ और खासकर नागपुर की इतनी दुर्गति नहीं होती। 'मिहान' का जो सपना दिखाया गया था उसका भयावह सच भी सामने आ चुका है। यहां यह बताना जरूरी है कि सात-आठ वर्ष पूर्व 'मिहान' के नाम पर नागपुरी नेताओं ने जमकर श्रेय लूटा था। यह प्रचारित किया गया था कि इसकी बदौलत पूरे विदर्भ में क्रांति आ जाएगी। कम से कम दस लाख बेरोजगारों को रोजगार मिलेगा। तरक्की और बदलाव की उम्मीद के छलावे के कारण जमीनों के भाव आसमान छूने लगे थे। नेताओं के करीबियों ने प्रापर्टी के धंधे में कूदकर देखते ही देखते अरबों-खरबों की माया जुटा ली। सत्ताधीशों ने भी धन से अपने गोदाम भर लिये। लेकिन 'मिहान' केवल हवाई सपना ही साबित हुआ। आम जनता लुट गयी। किसी के हाथ में कुछ भी नहीं आया। दरअसल, शहरवासी वीआईपी कल्चर से मुक्ति चाहते हैं। वे जातिवादी नेताओं के होश ठिकाने लगाना चाहते हैं। उन्हें धनबल और बाहुबल की बैसाखी के सहारे चलने वाले धंधेबाज नेताओं से नफरत हो गयी है। वे किसी भी हालत में इन्हें 'जीतते' हुए नहीं देखना चाहते। यही भी सच है कि यह पवित्र काम सिर्फ और सिर्फ उस वोट की बदौलत ही हो सकता है जिसे अभी तक हम उनको देते चले गये जो कि इसके काबिल ही नहीं थे। 
आदर्श शास्त्री हों या डॉ. बोधनकर, इन जैसों का राजनीति में आना बहुत जरूरी है। भ्रष्ट नेताओं की मंडली को ऐसे लोग ही मात दे सकते हैं। महात्मा गांधी, विनोबा भावे, राम मनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण ने जिस लोकशाही की कल्पना की थी उसी को साकार करने की राह पर निकले अरविं‍द केजरीवाल को तभी पूर्ण सफलता मिलेगी जब पूरी तरह से कर्मठ और ईमानदार लोग उनसे जुडेंगे। अरविं‍द केजरीवाल को मात्र एक व्यक्ति समझ लेना बहुत बडी भूल होगी। वे बदलाव के जीवंत प्रतीक हैं। आज पूरा देश उन पर उम्मीदें लगाये है। नारंगी शहर को भी बदलाव का इंतजार है। शहर के विभिन्न चौक-चौराहों तथा गली-कूचों में अरविं‍द केजरीवाल की तस्वीरों वाले पोस्टर और उन पर लिखे नारे लोगों की चेतना और उम्मीदों को जगाने लगे हैं:
'निकलो बंद मकानों से,
जंग लडो बेइमानों से,
....
'पहले लडे थे गोरों से,
अब लडेंगे चोरों से।