Thursday, December 30, 2021

काले कुबेरों के कवच

     मैं आज दावे के साथ लिख रहा हूं कि अपने देश हिंदुस्तान में भ्रष्टाचार का कभी भी पूरी तरह से खात्मा नहीं हो सकता। मेरी इस धारणा के विरोध में जिन्हें जो कुछ भी कहना और सोचना है, उन्हें मुझे कुछ भी नहीं कहना। यहां भ्रष्टाचार, वहां भ्रष्टाचार, कहां नहीं है भ्रष्टाचार। इसने तो देश के रहनुमाओं को भी असहाय बना दिया है। कुछ विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार को एक कारोबार के रूप में अब वैध कर दिया जाए। इसका विरोध वही लोग करते हैं, जिन्हें लूटने-खसूटने का मौका नहीं मिलता। मोटा माल कमाने के अवसर की तलाश तो उन्हें भी रहती है, जो ईमानदारी और सदाचार के गीत गाते हैं। पांच-सात प्रतिशत भारतीय ही ऐसे बचे हैं, जिन्हें हराम की कमायी से परहेज है, बाकी तो ऊपर से भ्रष्टाचारी नेताओं, अफसरों, उद्योगपतियों को गरियाते भी हैं और अंदर ही अंदर उनसे निकटता बनाये रखने की कोशिशों में भी लगे रहते हैं। कुछ दिन पहले देशभर के अखबारों में यह खबर छपी थी कि एक भ्रष्ट इंजीनियर ने रेलवे का स्टीम इंजन कबाड़ियों को बेचकर दिखा दिया है कि भारत देश का कोई मां-बाप नहीं है। यह तो लावारिस है। जहां... मौका मिले लूट लो इसे। इसकी नस-नस के खून को राक्षस की तरह चूस लो। यहां की व्यवस्था पूरी तरह से अपाहिज हो चुकी है। सभी चोर-चोर मौसेरे भाई हैं यहां। किसी का भी बाल बांका नहीं होने वाला। बस ‘मैनेज’ करने का तरीका आना चाहिए। चालाक वकीलों की फौज है तो कानून गया तेल लेने।
    उत्तर प्रदेश के कानपुर में एक इत्र कारोबारी के हाल ही में छापे में लगभग 290 करोड़ से अधिक की नगद रकम बरामद हुई। सोने-चांदी का अपार भंडार मिला। दीवारों में नोट, जमीन के अंदर नोट और तिजोरियों में नोटों का जखीरा देखकर आयकर अधिकारी माथा पकड़ कर बैठ गये। कई अफसरों ने इतनी असीम काली माया पहली बार ही देखी। नोटों को गिनने के लिए मशीनें मंगवानी पड़ीं। इत्र के व्यापारी पीयूष जैन का खुशबू का धंधा पूरे देश में फैला है। विदेशों में भी उसकी महक का डंका बजता है। अंधाधुंध कमाते तो हैं, लेकिन टैक्स भरने का मन नहीं होता। इसी खिलाड़ी ने कुछ दिन पहले ‘समाजवादी इत्र’ बाजार में पेश की थी। इस काले कुबेर की समाजवादी पार्टी के दिग्गजों से गहरी छनती रही है।
    अधिकांश भ्रष्ट राजनेता और अफसर अपने काले धन को ऐसे ही टैक्स चोरों के यहां रखवाते हैं। जब उनकी तूती बोलती है, तो इन्हें अवैध धंधे करने की खुली छूट होती है। प्रदेश और देश को दोनों हाथों से लूटने की इन्हें पूरी-पूरी आजादी मिल जाती है। राजनीतिक दबंगों और सत्ता के चित्तेरों के ऐसे कई ठिकाने हैं, जहां उनका काला धन जमा रहता है। चुनाव आने पर इसी काली माया को बाहर निकलवाकर विभिन्न तरीकों से वोटों को खरीदते हैं। लोकतंत्र के साथ धोखाधड़ी करते हैं। यह गुनाह भारत देश का लगभग हर नेता और राजनीतिक दल करता चला आ रहा है। उद्योगपतियों और व्यापारियों में इतना दम नहीं कि वे सत्ताओं, नेताओं और भ्रष्ट अफसरों के वरदहस्त के बगैर अपने काले धंधों को चमकाते रहें और देखने वालों की आंखों को चुंधियाते रहें। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव की फोटो के साथ समाजवादी इत्र लांच करने वाले काले कुबेर जैन को अब पहचानने से ही इंकार किया जा रहा है। कहा जा रहा है हमारा तो उनसे कोई लेना-देना ही नहीं है। तो यह है हमारे यहां के नेताओं का असली भ्रष्ट चरित्र। यहां एक से एक झूठे और मक्कार भरे पड़े हैं। एक पुरानी कहावत है, ‘जैसा राजा वैसी प्रजा।’ इस कहावत के एकाएक याद हो आने की असली वजह है, यह खबर,
    ‘‘छत्तीसगढ़ में स्थित गांव बंसुला में 54 मकान चोरी हो गये और कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। अटल आवास योजना के तहत बने इन आधे-अधूरे मकानों की ईंटें, छड़ें और यहां तक मलबा भी चोरों ने गायब कर दिया, लेकिन हाउसिंग बोर्ड के अधिकारी, कर्मचारी नकली निद्रा में लीन रहे। जब उन तक इस हैरतअंगेज डकैती की खबर पहुंचायी गई तब उन्होंने हड़बड़ाने का वैसा ही नाटक किया जैसा हमेशा बेइमान, नौकरशाह, नेता, राजनेता और सत्ताधीश करते आये हैं। अपने खून-पसीने की कमायी लुटी होती तो उन्हें कोई दर्द होता और चिंता-फिक्र भी करते। उनके पास तो इन 54 मकानों का कोई रिकॉर्ड ही नहीं था, जबकि नियम कहता है कि इन सभी मकानों की तस्वीरें फाइलों में होनी ही चाहिए थीं। अफसरों की खामोशी और टालमटोल चीख-चीख कर कह रही है कि यह तो ‘चोर-चोर मौसेरे भाई’ वाली नंगी कारस्तानी है। रेल यानी देश की संपत्ति रेलवे स्टीम इंजन को जिस इंजीनियर ने कबाड़ियों को बेचा उसका दमखम पुरस्कार के काबिल है। आदर सत्कार के हकदार तो रेलवे के अन्य अधिकारी और वो पुलिस दरोगा और उसके चेले-चपाटे भी हैं, जिन्होंने साथी बनकर सरकारी संपत्ति को बेचने का अदम्य साहस दिखाया। यह तो इन डकैतों और लुटेरों की बदकिस्मती है कि उनके अखंड भ्रष्टाचार का पर्दाफाश हो गया, लेकिन फिर भी उन्हें पता है कि उनका कुछ भी नहीं बिगड़ेगा। सफेदपोश डकैत देश की व्यवस्था के रेशे-रेशे से वाकिफ हैं। वे यह भी जानते हैं कि मामले को उसी कोर्ट में ही तो चलना है, जहां महंगे और ऊंचे वकीलों की फौज अपनी ‘कलाकारी’ दिखाती है और अक्सर मनचाहे फैसले का ‘उपहार’ दिलाती है। यदि अपने पक्ष में फैसला नहीं भी आता तो पेशी पर पेशी का चक्कर चलवाकर वर्षों मामले को लटकाये रखने का मायावी खेल होता रहता है। उनके मान-सम्मान और प्रतिष्ठा में कोई कमी नहीं आती। काले धंधे भी सतत चलते रहते हैं। नोटों की बरसात में मौज-मज़े करते हुए कानून के बौने और खुद के ताकतवर होने का डंका पीटते रहते हैं। धीरे-धीरे वो समय भी आ जाता है, जब ऊपरवाले का बुलावा आ जाता है और सारा खेला खत्म हो जाता है...।

Thursday, December 23, 2021

पुरुषो जवाब दो...

    यह किस दुनिया के वासी हैं? दिमाग-विमाग है भी या यूं ही ये सांसद विधायक बन जाते हैं? इनके घरों में लड़कियां नहीं जन्मतीं! बस बेटे ही पैदा होते हैं? जब देखो तब लड़कियों को कोसते रहते हैं। उन्हें बोझ और कमतर मानते हुए राग-कुराग छेड़ते रहते हैं। इनकी निगाह में सारी आजादी और शिक्षा-दीक्षा के अधिकारी बेटे ही हैं। बेटियां तो पराया धन हैं। जितनी जल्दी छुटकारा मिल जाए, उतना अच्छा। बेटियों को नाम मात्र की स्कूली शिक्षा दिलवाना ही बहुत है। ज्यादा पढ़ेंगी तो लड़कों से आगे निकलने की हिमाकत करेंगी। ससुराल जाकर भी अकड़ दिखायेंगी। यह भूल जाएंगी कि पति तो परमेश्वर है। उसका बोला और कहा खुदा का आदेश है, जिसका पालन और अनुसरण करना हर पत्नी का कर्तव्य और धर्म है। सरकार तो बेवकूफ है। उसकी अक्ल मारी गई है, जो बेटियों को बेटों के बराबर खड़े करने के नियम-कानून बना रही है। कभी जमीन और आसमान की बराबरी हो पायी है? जमीन... जमीन है और आसमान... आसमान है, जिसकी ऊंचाई को लड़कियां नहीं छू सकतीं।
    बेटों को ऊंचा आकाश मानने वाले महानुभवों के कानों तक जैसे ही यह खबर पहुंची कि सरकार ने फैसला किया है कि लड़कियों की शादी भी 21 वर्ष की उम्र में होनी चाहिए तो वे छटपटाने लगे और अपनी प्रतिक्रियाओं की गोलियां दागने लगे। यह इनकी पैदाइशी सनक भी है और बीमारी भी..., जिसका इलाज तलाशा जा रहा है। यह पुराने रोगी इस भ्रम में हैं कि इनकी अंट-शंट दलीलों में बड़ा दम है। सुनने वाले इनकी वाहवाही करेंगे। जोरदार तालियां भी बजेंगी, लेकिन सच तो यह है कि जितने भी समझदार भारतीय हैं, राष्ट्र प्रेमी हैं, लड़कियों का भला चाहते हैं, उन्हें आकाश की बुलंदियों को छूते देखना चाहते है वे इनकी बक-बक पर थू-थू कर रहे हैं। हां, यह बकबक और बेअक्ली नहीं तो और क्या है? कि... ‘‘लड़कियों की शादी तो 16-18 साल की दहलीज छूने के साथ ही कर दी जानी चाहिए। उसके बाद उनके बहकने, भटकने और गलत निगाहों में आने और सताये जाने का खतरा बढ़ जाता है। जब तक लड़कियां सोलह-सत्रह साल की रहती हैं, तब तक उनमें आकर्षण बरकरार रहता है। उनके साथ शादी करने वाले युवकों की कतारें लगी रहती हैं। उसके बाद तो मां-बाप को लड़के वालों की चौखट पर नाक रगड़नी पड़ती है। मोटा दहेज देने का प्रलोभन भी देना पड़ता है। 18 साल की उम्र ही शादी के लिए एकदम उपयुक्त हैं। इस उम्र में शादी न होने पर उनके आवारा होने की संभवनाएं और मौके बढ़ जाते हैं। लड़कियां अगर उच्च शिक्षा हासिल करना चाहती हैं तो शादी के बाद भी उनके लिए दरवाजे खुले रहते हैं।’’
    कथन और यथार्थ के बीच कितना बड़ा फासला है इसका अंदाज बयानवीरों को नहीं है? या फिर हर जनहितकारी कदम का विरोध करना उनकी जन्मजात फितरत है? वे तो सवाल का जवाब देने से रहे, लेकिन मैं अपने पाठक मित्रों को बिहार की राजधानी पटना के एक गांव की महत्वाकांक्षी लड़की नेहा के बारे में बता रहा हूं। नेहा का अपने पैरों पर खड़े होने का सपना था। अच्छी तरह से पढ़-लिख कर बेहतर मुकाम पाने के बाद ही वह शादी करना चाहती थी, लेकिन उसके माता-पिता ने इस पुख्ता आश्वासन के साथ कि शादी के बाद भी उसकी पढ़ाई में कोई अड़ंगा नहीं आएगा, बिहार के सारण जिले के रहनेवाले त्रिलोकी कुमार के साथ शादी के रिश्ते में बांध दिया। शादी के चंद दिनों में ही उसकी समझ में आ गया कि पति और सास-ससुर उसे घर में कैद रखने के आकांक्षी हैं। वे कतई नहीं चाहते कि वह आगे की पढ़ाई जारी रखे और अपना करियर बनाने की सोचे। फिर भी नेहा ने उन्हें मनाने-समझाने की भरसक कोशिश की, लेकिन उनके कान पर तो जूं तक नहीं रेंगी। ऐसे में वह ससुराल से भाग खड़ी हुई। बाद में भेजी चिट्ठी में नेहा ने लिखा कि उसकी शादी यह कहकर कराई गई थी कि वह ससुराल में जाकर आगे की पढ़ाई पूरी कर सकती है। उसे करियर बनाने का भरपूर मौका मिलेगा, लेकिन ससुराल वाले जब आनाकानी करने लगे तो उसे मजबूरन वह कदम उठाना पड़ा, जो किसी को भी रास नहीं आनेवाला, लेकिन वह अपने जीवन के साथ खिलवाड़ नहीं कर सकती। उसे हर हाल में अपने सपनों को साकार करना है। जिन्हें जो कहना और सोचना है... उनकी मर्जी...। नेहा के ससुराल छोड़कर भागने के बाद उसके माता-पिता ने थाने में ससुराल वालों के खिलाफ हत्या व शव गायब करने तक की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। किसी ने किसी पुराने यार के साथ गायब हो जाने तो किसी ने पति पसंद नहीं आने के कारण भाग खड़े होने का शिगूफा छोड़ा। जितने मुंह उतनी बातें। बिलकुल वैसे ही जैसे लोगों की आदत है। उन्हें तो लड़कियों के पैदा होना ही शूल की तरह चुभता है। नारियों का पुरुषों को टक्कर देना उनका माथा घुमा देता है। उन्हें तो लड़कियों के मनपसंद कपड़े पहनना और रात को घर से बाहर निकलना भी नहीं सुहाता। उन्हें एक ही झटके में चरित्रहीन घोषित कर दिया जाता है। हर स्वाभिमानी नारी पर उंगलियां उठाने और उनपर शक करने वाले धुरंधर बड़ी आसानी से विधायक और सांसद भी बन जाते है! यही विद्वान विधानसभा में नसीहत देते हैं कि जब रेप होना ही है तो लेट जाओ और इसके मजे लो। बदतमीजी, मूर्खता, अभद्रता और बेहयायी के कीचड़ में डुबकियां लगाने वालों को टोका और रोका भी नहीं जाता! उलटे उनके बेहूदा प्रवचनों पर तालियां पीटी जाती हैं। ठहाके लगाये जाते हैं।
    महिलाएं तो कभी भी पुरुषों की राहों में कांटे नहीं बिछातीं। उन्होंने तो कभी भी पुरुषों के कहीं भी आने-जाने पर आपत्ति नहीं जतायी। वे तो उनको मिलने वाली सुविधाओं और तरक्की पर खुश होती हैं। यह पुरुष ही क्यों नारी के खिलाफ ज़हर उगलने से बाज़ नहीं आते? क्या नारी को अपने सपनों को साकार करने का हक नहीं? क्या वह बेअदबी और बलात्कार होने पर चुप रहे? एसे अनगिनत सवाल हैं, जिनके उसे जवाब चाहिए। जब अधिकांश लोग ही तमाशबीन हैं। समाज भी उनकी मुट्ठी में है, तो आज की नारी इनकी क्यों सुने, क्यों न अपनी मनपसंद राह चुने? अब वह किसी की गुलाम होकर नहीं जीना चाहती। उसने भी दुनिया देखी है। इतिहास की किताबें पढ़ी हैं। वह पुरुष सत्ता की फितरत से अनजान नहीं है। उसने कभी नहीं कहा कि देवी मानकर मेरी पूजा करो। वह तो बस समानता का अधिकार चाहती है। बातें...बातें और आश्वासन सुनते-सुनते वह थक गई है। पता नहीं किसने यह पंक्तियां लिखी हैं, जो नारी की आकांक्षा, पीड़ा और पसंद, नापसंद को बखूबी बयान करती हैं,
‘‘तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न
तुम क्रिकेट भी अपनी देखो
मैं सीरियल अपना भी लगाऊंगी
तुम थोड़ा हाथ बंटा देना
मैं जब भी किचन में जाऊंगी
मत करो वादे जन्मों के
इस पल खुशी की वजह दो न
कभी तुम भी सिर दबा दो मेरा
यह भी कमी एक खलती है
कभी बाजारों से ध्यान हटे तो
मकां को घर भी कर दो ना
आओ पास बैठो कुछ बातें करें
कभी दिल के जख्म भी भर दो न
तुमने कहा था हम एक ही हैं
तो अपने बराबर कर दो न।’’

Thursday, December 16, 2021

हर दिल में बसता है फौजी

    वक्त का तो काम ही है चलते जाना, ढलते जाना, बीतते जाना। वक्त की तेज धारा की नदी की पता नहीं कितनी सदियों-सदियों से चली आ रही यह परिपाटी है। अटूट रीत है। इस नदी में जिन्हें तैरने का हुनर आता है, वही कमाल कर गुजरते हैं। उन्हीं के नाम का डंका बजता है। उन्हीं को सदियों तक याद रखा जाता है। यूं तो कितने इस धरा पर आते हैं और चले जाते हैं। सबको कहां याद रखा जाता है। याद रखा भी नहीं जा सकता। वक्त के वक्ष पर अपने अमिट हस्ताक्षर छोड़ जाने वीर... शूरवीर यकीनन किसी आम मिट्टी के नहीं बने होते। विधाता उन्हें बड़े मनोयोग से गढ़ता और बनाता है। तभी तो वे जीते जी सबके चहेते... तो चले जाने के बाद भी दिलों में बसेरा बनाये रहते हैं। अपने देश के प्रथम चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत और उनकी अर्धांगिनी मधुलिका के अंतिम संस्कार की टीवी पर जब खबरें आ रही थीं तब मैं उनकी वीरता, त्याग और अटूट समर्पण के बारे में सोच रहा था। आंखें नम हो रही थीं। ऐसा लग रहा था कि अपने बेहद करीबियों ने अचानक साथ छोड़ दिया है।
तीनों सेनाओं के प्रमुख योद्धा बिपिन रावत के साथ-साथ जिन 12 अन्य शूरवीरों को देश ने हेलिकॉप्टर दुर्घटना में खोया उन्हीं में शामिल थे शहीद गुरसेवक। उनका पार्थिव शरीर आर्मी के प्लेन से जैसे ही अमृतसर पहुंचा तो उनके पिता और भाई-बहन ताबूत से लिपटकर रोने लगे, लेकिन इस रोने में गर्व भी समाहित था। पत्नी अंतिम बार अपने शहीद पति का चेहरा देखने को तरसती रही, लेकिन सैन्य अधिकारियों ने शरीर की हालत ठीक न होने का हवाला देकर चेहरा दिखाने से मना कर दिया। गुरसेवक के चार साल के मासूम बेटे गुरफतह ने जब अपने पिता की अर्थी को अंतिम सैल्यूट किया तो वहां पर उपस्थित कोई भी ऐसा शख्स नहीं था, जिसका कलेजा न कांपा हो और अश्रुधारा बही न हो। चारों तरफ ‘भारत माता की जय’ और ‘शहीद गुरसेवक सिंह अमर रहे’ के नारे गूंज रहे थे और मासूम गुरफतह भीड़ को बड़े अचंभे के साथ देख रहा था। उसने वही यूनीफार्म पहन रखी थी, जो उसके पिता ने मात्र डेढ़ महीने पहले बड़े चाव से उपहार में दी थी।
    शहीद कुलदीप सिंह राव के अंतिम दर्शनों के लिए उनके पैतृक गांव घरड़ाना में अथाह भीड़ उमड़ पड़ी। मां कमलादेवी और पिता रणधीर सिंह ने अपने लाड़ले बेटे की पार्थिव देह को जब भरी आंखों से सैल्यूट किया तो पूरा गांव जयकारों से गूंज उठा। शहीद की बहादुर पत्नी यश्विनी ने पति की तस्वीर सीने से लगा रखी थी। अंतिम यात्रा में वे शांत और खामोश रहीं। मुखाग्नि भी उन्होंने दी, लेकिन अंत में उनके सब्र का बांध टूट गया और चीख पड़ीं- ‘‘आई लव यू कुलदीप।’’
    अभिता सिंह, डिप्टी कमांडेट, नेवी जो शहीद कुलदीप की बहन हैं को छोटे भाई के कहे यह शब्द बार-बार याद आ रहे थे, ‘देखना दीदी मैं भी सेना में जाऊंगा। तुमसे भी आगे और दुनिया मुझे देखेगी।’ बहन ने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि जब देश पर मर मिटने की बारी आएगी तो छोटा भाई सचमुच उससे आगे निकल जाएगा। भाई तिरंगे में चिर निद्रा में सोया था और वह अपना सब्र खोते माता-पिता को संभालने में लगी हुई थीं। एल.एस. लिद्दर की 17 वर्षीय बेटी आशना अपने बहादुर पिता को मुखाग्नि देने के बाद पहले तो फफक-फफकर रोयी, फिर उसने खुद को संभाला और कहा कि, ‘‘मेरे पिता मेरे सबसे बड़े हीरो थे। मेरी हर बात मानते थे। यहां खड़े-खड़े मुझे सबकुछ याद आ रहा है। पापा की अच्छी यादों के साथ अब हमें जीवन जीना है।’’ ब्रिगेडियर की साहसी देश प्रेमी पत्नी गीतिका लिद्दर के शब्द थे, ‘‘मैं एक सैनिक की पत्नी हूं। हमें उनको अच्छी विदाई देनी चाहिए, मुस्कुराते हुए विदा करना चाहिए।’’
    सच तो यह है कि सैनिकों की तरह उनके परिवार भी सच्चे होते हैं। योद्धा सैनिकों को अपने स्वजनों से ही भरपूर ताकत मिलती है और वो मनोबल भी मिलता है, जो उनके हौसलों को कभी भी ठंडा नहीं होने देता। माता-पिता, बहन, पत्नी और बच्चे जिस तरह से अपने आंसुओं को छुपाकर शहीद जवानों को याद कर गर्वित हो रहे थे, उसी से पता चल रहा था कि सैनिकों को धूप, बरसात, बर्फ आंधी में भी कौनसे स्नेह और अपनत्व की ताकत हर पल ऊर्जावान बनाये रहती है। जनरल बिपिन रावत के पिता और दादा भी सेना में थे। सेना नायक का तो जन्म ही राष्ट्र के लिए हुआ था। उनकी पत्नी भी सैनिकों के परिवारों के हित के प्रति समर्पित थीं। जनरल रावत छोटे-बड़े सैनिक में कभी कोई भेदभाव नहीं करते थे। सेना के अधिकारियों के घरों में जवानों के काम करने की परिपाटी को उन्होंने ही खत्म किया। उन्हें उन जयचंदों से भी घोर नफरत थी, जो खाते भारत का है और गाते पाकिस्तान का हैं। सेना में अवैध हथियारों की खरीद-फरोख्त, कमीशनबाजी, नियुक्तियों में भाई-भतीजावाद और मनमानी पोस्टिंग पर भी उन्होंने बंदिशें लगा दी थीं। चीन और पाकिस्तान उनसे खौफ खाने लगे थे। उन्हें किसी भी शोषण प्रवृत्ति से नफरत थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उनपर अटूट भरोसा करते ही थे, उनके गांव के लोग भी उनके सरल स्वभाव के मुरीद थे। उनकी बेबाकी, निडरता और साहस की दास्तानें श्रद्धांजलि देने पहुंचे लोगों की जुबान पर थीं। लोग रणनायक के बारे में बताते-बताते खामोश हो जाते। अपने नायक को खोने की पीड़ा आंसू बन बहने लगती। सहज, सरल यह शूरवीर जब भी गांव आते तो गांव वालो से गढ़वाली में बात करते थे। रिटायरमेंट के बाद योद्धा का अपने पिछड़े गांव के लिए बहुत कुछ करने का इरादा था। अभी उनका एक साल का कार्यकाल और बचा था। उत्तराखंड के जिला पौड़ी गढ़वाल में है जनरल का गांव सैण। हैरतभरा सच यह भी है कि उनके घर तक जाने के लिए पक्की सड़क तक नहीं है। देश का रणनायक घर तक पक्का मार्ग चाहता था, लेकिन...? किसी राजनेता का घर होता तो उसे डेढ़ से दो किलोमीटर पक्की सड़क बनने का इंतजार नहीं करना पड़ता। नेताओं के बच्चों की जब जंगलों में भी शादी समारोह होते हैं तो वहां पर पहुंचने के लिए रातोंरात पक्की सड़कें बन जाती हैं! यही फर्क सबको नजर आता है, जो बहुत तड़पाता है। राजनेता दिखावा करते हैं। फौजी तो आम भारतीयों के दिलों में बसते हैं। हर सजग राष्ट्र प्रेमी भारतीय सैनिकों के अपमान, अवहेलना से चिंतित और दुखी है। कवि पप्पू सोनी की कविता भी देशवासियों की पीड़ा, चिंता और कटु सच से रूबरू कराने के साथ-साथ और भी बहुत कुछ कह रही है,
‘‘आज दिशाएं मौन यहां,
कलम मेरी थर्राती है।
वाणी भी नि:शब्द हुई,
और बुद्धि भी चकराती है।
क्रूर नियति की दुर्घटना से,
मेरा भारत छला गया।
असाधारण अजेय सेनापति,
मेरे देश का चला गया।
राष्ट्र सुरक्षा और सेना की,
पावन वर्दी उनका ईमान रही।
देश के खातिर हर खतरे से,
टकराना उनकी पहचान रही।
आतंक और चीन की चालाकी को
हर पग से ललकारा है।
जो भी टकराया भारत से,
वो हर शत्रु हारा है।"

Thursday, December 9, 2021

रक्षक बनते भक्षक

    कोरोना काल में लगे लॉकडाउन ने लाखों भारतीयों को बरबाद कर दिया। देश की अर्थव्यवस्था की जो दुर्गति हुई वो अभी तक नहीं सुधरी है। एकाएक आयी महामारी के साथ ही कितनों-कितनों के काम धंधे चौपट हो गये, नौकरियां छूट गयीं। आर्थिक चोट से आहत होकर लगभग 11 हजार से अधिक उद्यमियों ने आत्महत्या कर ली। हम सबको पता ही है कि सरकारी और अखबारी आंकड़ों की सत्यता में हेरफेर होता है। वास्तविक सच कम ही सामने आ पाता है। वैसे भी अपने देश में किसान, व्यापारी, नौकरीपेशा लोग आर्थिक तंगी और कर्जों के कारण आत्महत्या करते रहते हैं। कोरोना काल में तो अच्छे-अच्छों को खाली हाथ हो जाना पड़ा। घर के सदस्यों के कोरोनाग्रस्त होने के बाद अस्पताल पहुंचने पर असंख्य लोगों की उम्रभर की जमापूंजी हवा हो गई। महंगे इलाज ने उनके घर-परिवार का ही नहीं उनका भी दिमागी हुलिया बिगाड़ दिया। यह कलमकार ऐसे लोगों से वाकिफ है, जिनके परिवार के सदस्य एक-एक कर बिस्तर पकड़ते चले गये और उनकी जेबें कटती चली गयीं। जब जेबें पूरी तरह से खाली हो गयीं तो साहूकारों से ऊंचे ब्याज पर हजारों, लाखों रुपये का कर्ज लेना पड़ा। बाद में साहूकारों का कर्ज ना लौटा पाने की वजह से उन्हें अपने घर-घरौंदे पानी के मोल बेचने पड़े। अब जब मैं उन्हें फुटपाथ पर छोटे-मोटे सामान बेचकर किसी तरह से जिंदगी बसर करते देखता हूं तो उनकी हिम्मत और हौसले के प्रति नतमस्तक हो जाता हूं। कोरोना के महाविकट काल में कई लोगों ने आपदा में नये रास्ते चुनें, अवसर खोजे और दूसरों के लिए मिसाल बन गये...।
       रांची के व्यापारी निकुंज, निखिल और गौरव की बैग बनाने की फैक्टरी खूब धन बरसा रही थी। कोविड-19 ने जब श्रमिकों को अपने-अपने गांव लौटने को विवश कर दिया तो उनकी फैक्टरी पर ताले लग गये। तीनों पार्टनर पढ़े-लिखे हैं। उन्होंने अपना दिमाग दौड़ाया। मन में विचार आया कि यदि घर में ही बैठे रहे तो कहीं के नहीं रहेंगे। अपनी जमापूंजी चलती बनेगी और खाली हाथ हो जाएंगे। गौरव ने एमबीए किया हुआ है। निकुंज इंजीनियर हैं तो निखिल सीए हैं। उन्होंने मिल-बैठकर तय किया कि फिलहाल बैग की बिक्री तो होने से रही। कोरोना में हर किसी के लिए मास्क पहली जरूरत बन गया है। ऐसे में क्यों न मास्क का निर्माण किया जाए, जिसकी आज पूरे देश में मांग है। उन्होंने अपने कुछ करीबियों को भी अपनी योजना के बारे में बताया तो कुछ ने उनका मज़ाक तक उड़ाया। अदने से मास्क में कितना कमा लोगे? फिर यह कोरोना तो कुछ ही दिन का मेहमान है। यह हमेशा के लिए तो टिका रहने वाला नहीं है, लेकिन तीनों भागीदारों ने प्रशासन से अनुमति लेकर आसपास रहने वाले श्रमिकों को अपने यहां काम करने के लिए किसी तरह से राजी किया। श्रमिक भी निठल्ले बैठकर तंग आ चुके थे। उनके घर में ठीक से चूल्हा भी नहीं जल पा रहा था। इधर-उधर से जो राशन पानी मिल रहा था उसी से मन मारकर गुजारा करना पड़ रहा था। घर से बाहर कदम रखने की हिम्मत तक नहीं हो रही थी। तीनों मित्रों ने मास्क बनवाने प्रारंभ कर दिए। उनके कारखाने में बनने वाले मास्क की गुणवत्ता की वजह से धड़ाधड़ मांग भी बढ़ने लगी। देखते ही देखते उनके मास्क बाजार में छा गये। उसी दौरान उन्होंने देखा कि अस्पतालों में चादरों की खासी मांग है, तो उन्होंने एक बार प्रयोग में लायी जाने वाली चादरें भी बना कर अस्पतालों में भिजवानी प्रारंभ कर दी। इस तरह से उन्होंने 400 लोगों को रोजगार उपलब्ध तो करवाया ही और एक नया कारोबार खड़ा कर करोड़ों की कमायी कर ली।
    सूरत में वर्षों से साड़ी का खासा बड़ा कारोबार करते चले आ रहे हैं कैलाश हाकिम। उनकी हिमानी फैशन प्रा.लि. का बड़ा नाम है। जब कोरोना की वजह से लॉकडाउन लगा तो उनकी फैक्टरी में काम करने वाले कारीगरों ने अपने-अपने गांव जाने के लिए बोरिया बिस्तर बांध लिया। कैलाश के मन में विचार आया कि यदि यह कारीगर एक बार चले गये तो जल्दी वापस नहीं आएंगे। उन्होंने यह भी सोचा कि इन्ही की बदौलत ही तो उन्होंने अपार धन और नाम कमाया है। आज जब इन पर संकट के बादल छाये हैं तो उनका भी तो कोई फर्ज बनता है। उन्होंने तुरंत अपने यहां कार्यरत कारीगरों के रहने और खाने की व्यवस्था की। जिनमें ज़रा भी कोरोना के लक्षण थे, उनका समुचित इलाज करवाया। कारीगरों में भरपूर भरोसा जगाया कि मैं हर हाल में आपके साथ हूं और रहूंगा। कालांतर में जब प्रशासन ने लॉकडाउन में ढील देनी प्रारंभ की तो कैलाश हाकिम ने जोर-शोर से साड़ियों का निर्माण प्रारंभ कर दिया। महामारी के दौरान जो कपड़ा व्यापारी माल नहीं बिकने की वजह से निराश हो चुके थे, उनमें भी नयी आशा और विश्वास का संचार करते हुए एडवांस भुगतान कर साड़ियां बनाने के लिए कपड़ा खरीदा। कोरोना काल में अपने सैकड़ों कारीगरों और कपड़ा व्यापारियों का साथ देने वाले कैलाश हाकिम का मानना है कि कोरोना ने इंसानों को बहुत बड़ी सीख दी है। हम जिस समाज का अन्न खाते है, उसके बुरे वक्त में उसका साथ न देना घोर मतलबपरस्ती की निशानी है। कुछ व्यापारी-कारोबारी ऐसे भी रहे, जिन्होंने बहुत जल्दी हार मान ली। कर्ज और ब्याज की चिंता ने उनके सोचने-समझने की ताकत तक छीन ली। वे खुद तो मरे ही मरे अपनों की भी नृशंस हत्या कर डाली। कलमकार को इन हत्यारों से कोई सहानुभूति नहीं है। यह तो दुत्कार, फटकार और तिरस्कार के काबिल हैं...।
    मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल के ऑटोपार्टस कारोबारी संजीव जोशी कर्ज के बोझ तले दबे थे। कोरोना ने उनके धंधे को चौपट कर दिया था। एक कर्ज को चुकाने के लिए दूसरा कर्ज ब्याज पर लेते-लेते थक गये थे। लेनदारों ने भी नाक में दम कर दिया था। पड़ोसी भी दुश्मन बन गये थे, लेकिन यह कोई ऐसी समस्याएं नहीं हैं, जो उद्योगपतियों, कारोबारियों, व्यापारियों की राह में कांटे नहीं बिछाती रही हों। हर अवरोध से टकराने वाले ही बुलंदियां छू पाते हैं।  लेकिन 67 वर्षीय संजीव जोशी को लड़ने की बजाय मरने की राह आसान लगी और खुद तो ज़हर पीकर मरे ही मरे, साथ में अपने पूरे परिवार को भी मार डाला।
कानपुर में डॉक्टर सुशील कुमार ने अपनी पत्नी और बेटी-बेटे को इतनी हैवानियत से मौत की नींद सुला दिया कि देखने-सुनने वालों की रूह कांप गयी। डॉक्टर का कॅरियर डांवाडोल हो रहा था और उस पर कोरोना के नये अवतार ओमीक्रान की दहशत ने उन्हें क्रूर हत्यारा बना दिया। हत्यारे ने अपनों की हत्याओं को जायज ठहराते हुए लिखा, ‘‘कोरोना का नया अवतार ओमिक्रान सबको मार डालेगा। अब लाशें नहीं गिननी हैं। मैं अपने परिवार को कष्ट में नहीं छोड़ सकता। अत: सभी को मुक्ति के मार्ग में छोड़कर जा रहा हूं।’’ इस बुजदिल नकारा डॉक्टर ने बड़ी आसानी से अपनों का खून तो कर दिया, लेकिन जब अपनी जान देने की बारी आयी तो पता नहीं कहां भाग खड़ा हुआ। यह शैतान डॉ. तब तक अपनी पत्नी के सिर पर हथौड़ा बरसाता रहा जब तक उसकी जान नहीं चली गयी। बेटी और बेटे का भी बड़ी क्रूरता से गला घोट कर उसने जल्लाद की भूमिका निभायी। बेटा इंजीनियरिंग कर रहा था। बेटी दसवीं में थी। मेरे मन-मस्तिष्क में बार-बार यह सवाल सिर उठाता है कि ऐसे कायरों को हत्यारे बनने का हक और हौसला कहां से मिलता है? अपनों का खून करते वक्त जब इनका दिल नहीं घबराता और हाथ-पांव नहीं कांपते तो हम इन्हें इनसान ही क्यों मानें? यह तो राक्षस हैं, जिन्हें ऊपर वाले ने गलती से इंसान बनाकर धरती पर भेज दिया है। अब तो अपनी भूल पर ऊपर वाला भी शर्मिंदा हो रहा होगा।

Thursday, December 2, 2021

नसीहत

    तीन नाबालिग लड़कों ने नारंगी शहर नागपुर में एक समाजसेवक की हत्या कर दी। कोलकोता में एक शिक्षक को एक युवक ने पीट-पीटकर अधमरा कर दिया। अस्पताल में डॉक्टर उनकी जान बचाने की जद्दोजहद में लगे हैं। उन्हें उनके बचने की उम्मीद कम है। अखबारों में जिन-जिन ने हत्या और हत्या की कोशिश की यह हिंसक खबरें पढ़ीं उनका तो दिल घबरा गया और माथा चकरा गया। मेरी तरह सभी सोचते रह गये कि देश के बचपन और युवा को क्या हो गया है, जो किसी की नेक और अच्छी सलाह को सुनना नहीं चाहता? सीख देने वाले को ही शत्रु मानने लगता है। इनके लिए तो किसी की जान लेना और अधमरा करना बच्चों का खेल हो गया है! नागपुर में जिन सज्जन शख्स की नाबालिग बच्चों ने जान ले ली उनका कसूर या भूल यही थी कि उन्होंने बौद्ध विहार के समक्ष गांजा पीने से मना किया था। एक बार नहीं कई बार उन्हें यह लड़के गांजा के कश लेते दिखे थे। उन्हें अच्छा नहीं लगा था। देश के बचपन को नशे के गर्त में समाते देखना जब उनके लिए असहनीय हो गया तो उन्होंने जमकर फटकार लगा दी। नशेड़ी बच्चों ने उनकी सीख को ध्यान से सुनकर अनुसरण करने की बजाय उन्हें अपना दुश्मन मान लिया। इस शत्रु को सबक सिखाने के लिए वे खूंखार हत्यारे बन गये!
    कोलकाता में लिफ्ट में एक युवक को बिना मास्क के देखकर उम्रदराज शिक्षक ने यही भर कहा कि बेटे अभी भी कोरोना खत्म नहीं हुआ है। घर से बाहर मास्क लगाकर निकला करो। इसी में तुम्हारी और दूसरों की भलाई है। शिक्षक के इतने भर कहने और समझाने ने अहंकारी युवक को आग बबूला कर दिया। उसने अपना आपा खोते हुए लिफ्ट में ही उनपर घूसों और थप्पड़ों की बौछार शुरू कर दी। इतना ही नहीं उसने लिफ्टमैन के हाथों से डंडा छीनकर उनका सिर भी फोड़ दिया, जिससे वे लहुलूहान होकर वहीं गिर पड़े। बाद में उन्हें अस्पताल में ले जाया गया। गुस्सायी भीड़ देखकर युवक भाग खड़ा हुआ। अखबारों में ऐसी कई खबरें मैंने पहले भी पढ़ी हैं। पिछले महीने तीन-चार युवकों को भरी दोपहरी शहर की कन्या शाला से लगे बगीचे में बीयर पीते देख किसी शरीफ आदमी ने फटकारा तो वे घायल शेर की तरह उसी पर टूट पड़े। वह जब बदमाशों के हाथों पिट रहा था तो कोई भी उसे बचाने के लिए नहीं आया। हां, कुछ तमाशबीन तस्वीरें और वीडियो जरूर बनाते रहे। उनके लिए यह गुंडागर्दी महज तमाशा थी।
    नाबालिग नशेड़ी लड़कों ने समाजसेवक की आंख में मिर्ची पाउडर झोंक कर धारदार हथियार से बड़ी आसानी से हत्या कर दी। उन्हें यह भी ख्याल नहीं आया कि इस देश में कोई कानून है, जो अपराधियों को कड़ी से कड़ी सज़ा देता है। सारी उम्र जेल में काटनी पड़ती है। हमेशा दूसरों की मदद करने वाले समाजसेवक को जब मदद की जरूरत थी, तब दूर-दूर तक कोई नहीं था। मास्क लगाने की नसीहत देकर अपना सिर फुड़वाने वाले शिक्षक के पत्रकार बेटे ने बताया कि कोरोना जब चरम पर था, तब उनके पिताजी लॉकडाउन को नज़रअंदाज कर सड़कों पर मटरगश्ती करने वालों को फटकार भी लगा देते थे। किसी को भी बिना मास्क के देखते ही पहले उसे बड़े प्यार से समझाते थे कि आखिर मास्क लगाना क्यों जरूरी है। नहीं मानने पर भिड़ भी जाते थे। मैं और मेरी माताजी अक्सर उन्हें कहते थे कि आज के जमाने में लोगों को किसी की सलाह और समझाइश रास नहीं आती। आप जिन्हें जानते तक नहीं उन्हें कोरोना से बचने के सुझाव देने लगते हो! कभी कहीं ऐसा न हो कभी आपको लेने के देने पड़ जाएं। आखिरकार वही हो गया, जिसका हमें डर था।
    कोरोना महामारी का संकट अभी भी पूरी तरह से टला नहीं है। देश में कहीं न कहीं से इसकी जकड़न में आकर बिस्तर पकड़ने वालों की खबरें आनी बंद नहीं हुई हैं। लगभग दो साल पहले कोविड-19 ने चीन के शहर वुहान से अंधी आंधी की तरह छलांगे लगाते और सारी दुनिया को चौंकाते हुए जो कत्लेआम मचाया था, उसे भला कौन भूल सकता है। अब तो कोरोना के नए वैरिएंट ओमिक्रॉन ने दुनिया को डराना प्रारंभ कर दिया है। पिछले दो माह से अफ्रीकी इससे जूझ रहे हैं। मौतों की भी खबरें आ रही हैं। ओमिक्रॉन वैरिएंट का यह स्वरूप भारत में दूसरी लहर के दौरान आतंक मचा कर भयभीत कर देने वाले डेल्टा वैरिएंट से पांच गुना ज्यादा खतरनाक है। ध्यान रहे कि ओमिक्रॉन के फैलाव के खतरे को देखते हुए देश और दुनिया की सरकारें जनता को सतर्क रहने की अपील करने लगी हैं। न्यूयार्क की सरकार ने तो आपातकाल की घोषणा कर दी है। यह देख और जानकर दु:ख और ताज्जुब होता है, कि कुछ लोग सतर्कता बरतना ही नहीं चाहते। उन्होंने मान लिया है कि वे इतने शक्तिशाली हैं कि कोरोना उनका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। मास्क लगाने से उनकी सांस घुटती है। वैक्सीन भी उन्हें बेकार लगती है। कोरोना से बचने के लिए देशवासियों को जगानेवाले समाजसेवकों का यह आह्वान कोरा मज़ाक लगता है, ‘‘वैक्सीन लगवाएं और कोरोना को दूर भगाएं।’’ सरकारों की जगाने की तमाम कोशिशों को नजरअंदाज करने में उन्हें कोई झिझक नहीं। यहां तक कि समझानेवाले परोपकारी प्रवृत्ति के लोगों को दुश्मन मान लेते हैं।