Thursday, June 30, 2011

सत्ता के सपनों में खोयी भाजपा

राजनीति के रंगमंच पर रंगारंग बयानबाजी करने वाले कुछ कांग्रेसी जब भी राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाये जाने की मांग करते हैं तो भारतीय जनता पार्टी के नेता भी बयानबाजी पर उतर आते हैं। पिछले दिनों बडबोले कांग्रेसी दिग्विजय सिं‍ह ने राहुल गांधी को पीएम बनाने की फुलझडी छोडी तो भारतीय जनता पार्टी के दिग्गज नेता लालकृष्ण आडवानी बारुद की तरह फट पडे। हिंदुस्तान का प्रधानमंत्री बनने में नाकामयाब रहे आडवानी ने दिग्विजय सिं‍ह को खरी-खोटी सुनाते हुए चेताया कि वे इस तरह के चापलूसी भरे बयान देना बंद कर दें। अपने सपनों के पूरा न हो पाने से आहत हो चुके आडवानी ने कहा कि प्रधानमंत्री का पद किसी एक परिवार की जागीर नहीं है।वैसे देखा जाए तो यह कोई नयी बात नहीं है। बेचारे कांग्रेसी करें भी तो क्या करें? गांधी और नेहरू परिवार की बदौलत ही उनकी राजनीति चलती आ रही है। उनके पास और दूसरा कोई नेता भी नहीं है जिन्हें देखकर देश की जनता अपने वोट कुर्बान कर दे। याद करें वो दौर जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी और उन्हें प्रधानमंत्री बनाने की कोशिशें की गयी थीं। भाजपा ने सोनिया गांधी के विदेशी होने का मुद्दा उठाकर कांग्रेस को ही कटघरे में खडा करने का अभियान चलाया गया था। इस तथ्य की भी अनदेखी कर दी गयी सोनिया गांधी को देश की जनता ने ही लोकसभा के चुनाव में विजयश्री दिलवायी। मरणासन्न कांग्रेस में भी सोनिया गांधी की बदौलत नयी जान आयी और देश की जनता ने भी बता दिया कि जब तक गांधी परिवार के हाथ में कांग्रेस की बागडोर है तब तक कांग्रेस जैसी भी है हमें मंजूर है। राहुल गांधी भी देश के सांसद हैं। जनता ने उन्हें चुना है ऐसे में जब राहुल को प्रधानमंत्री बनाये जाने की बात उठती है तो विरोध का कोई तुक नजर नहीं आता। जिस परिवार की बदौलत कांग्रेसियों का वजूद है उसी के प्रति आस्था प्रकट करना उनकी मजबूरी है। इसे चापलूसी कहें या भक्तिभावना। वैसे भी यह कांग्रेस का निजी मामला है वह जिसे चाहे उसे प्रधानमंत्री बना सकती है। यही बात भाजपा पर भी लागू होता है। वह जिसे चाहे उसे अपना भावी पीएम घोषित कर सकती है। इस देश की नब्बे प्रतिशत जनता का इस बात से कोई लेना-देना ही नहीं है कि कौन देश का प्रधानमंत्री हो। उसे तो दो वक्त की रोटी चाहिए। पर इस देश के हुक्मरानों ने तो उसे इस लायक भी नहीं समझा। भ्रष्टाचार और अनाचार के कीर्तिमान स्थापित करने वालों ने आम आदमी को खून के आंसू रुलाने में कभी कोई कसर नहीं छोडी। जिस कांग्रेस ने वोट हथियाने के लिए १०० दिन में महंगाई खत्म करने का वायदा किया था वह खुद इतनी बेबस नजर आ रही है कि देश चौराहे पर खडा नजर आ रहा है। देशवासी आखिर किस पर यकीन करें? उन्हें कहीं से भी कोई जवाब नहीं मिल पा रहा है। देश की दो राजनीतिक पार्टियां आमने-सामने खडी हैं। कांग्रेस पर महंगाई को बढाने के साथ-साथ भ्रष्टाचार और काले धन को प्रश्रय देने के संगीन आरोप हैं। भारतीय जनता पार्टी सहित अन्ना हजारे और रामदेव जैसों की फौज कांग्रेस को जिस तरह से अपने घेरे में ले चुकी है उससे यह भी आभास हो रहा है कि कोई न कोई परिणाम सामने आकर रहेगा। पर क्या यह संभव है? डा. मनमोहन सिं‍ह भले ही मंजे हुए राजनीतिज्ञ न हों पर क्या वे इतनी आसानी से कुर्सी छोड देंगे? सोनिया गांधी एंड कंपनी क्या इतनी जल्दी हार मान लेगी? भाजपा तो बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के इंतजार में है। देश की जनता कांग्रेस और भाजपा दोनों के असली चरित्र से वाकिफ हो चुकी है। जनता के सामने कोई विकल्प नहीं है। उसे तो इन दो पाटों के बीच पिसते रहना है। कांग्रेस यानी डा. मनमोहन सिं‍ह ने तो मंत्रियों-संत्रियों और अपने करीबी राजनीति के खिलाडि‍यों को भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते सींखचों के पीछे खडा करने की हिम्मत दिखा दी पर भाजपा क्या कभी ऐसा साहस दिखा पायी? भाजपा के हाथों में जब केंद्र की सत्ता थी तब उसने ऐसा कोई खास काम नहीं किया जो कांग्रेस को पछाडने वाला हो। यही वजह है कि कांग्रेस और भाजपा में बेहतर कौन हैं? का जवाब तलाशना बहुत मुश्किल नजर आता है। इसमें दो मत नहीं हैं कि देश के जिन प्रदेशों में भाजपा का शासन है वहां पर एकाध को छोडकर बाकी सभी प्रदेशों में कई जनहितकारी काम हो रहे हैं। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डा. रमन सिं‍ह, गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान अपने-अपने प्रदेशों के विकास में जी-जान से जुटे हैं।अब जब भाजपा फिर से केंद्र में शासन करने के सपने देख रही है तो यह तथ्य भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि अगर कांग्रेस में भ्रष्टाचारी भरे पडे हैं तो भाजपा भी कोई सुधरी हुई पार्टी नहीं है। दोनों पार्टियों के अधिकांश नेताओं का आचरण लगभग एक जैसा ही है। देश में छह साल तक अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार रही। इस सरकार से देशवासियों को कई उम्मीदें थीं पर सबकी सब धरी की धरी रह गयीं। अगर यह कहें कि अटलबिहारी वाजपेयी के कारण ही भारतीय जनता पार्टी को केंद्र की सत्ता नसीब हुई थी तो गलत न होगा। इन छह सालों में देश का चेहरा बदला जा सकता था। हर किसी को यकीन था कि अटलबिहारी वाजपेयी ऐसा कुछ कर दिखायेंगे जिसे सदियों तक याद रखा जायेगा। डा. मनमोहन सिं‍ह और अटलबिहारी वाजपेयी में ज्यादा फर्क दिखायी नहीं देता। दोनों के शासनकाल में भ्रष्टाचारियों की खूब चली। दोनों घोर ईमानदार होने के बावजूद भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में नाकामयाब रहे। इतिहास के पन्नों में अटल और मनमोहन का नाम पाक-साफ प्रधानमंत्रियों के रूप में तो जरूर दर्ज होगा पर साथ ही यह भी जरूर लिखा जायेगा कि इनकी ईमानदारी ने कई बेईमानों को फायदा पहुंचाया। सबकुछ देखने-समझने और सुनने के बाद भी यह दोनों असहाय बने रहे।अटलबिहारी वाजपेयी राजनीति से संन्यास ले चुके हैं। भाजपा में उनकी जैसी लोकप्रिय छवि वाला कोई और नेता दूर-दूर तक नजर नहीं आता। जनता के वोट खींचने के लिए कांग्रेस के पास सोनिया गांधी भी हैं और राहुल, प्रियंका भी पर भाजपा इस मामले में लगभग खाली हाथ है। खाली हाथ होने के बावजूद भी एक दूसरे की टांग खि‍चायी चलती रहती है। इस पार्टी में एक भी सर्वमान्य नेता नहीं है और यही कमी उसे कांग्रेस के समक्ष बौना बनाती है...।

Thursday, June 23, 2011

चुप्पी कब टूटेगी?

स्याह रात नहीं लेती
नाम खत्म होने का
यही तो वक्त है
सूरज तेरे निकलने का
नागपुर के आठ युवकों ने देश की राष्ट्रपति से इच्छा मृत्यु की मांग की है। हिं‍दुस्तान के चप्पे-चप्पे में अपनी जडें जमा चुके भ्रष्टाचार और भ्रष्ट व्यवस्था से नाराज इन युवकों का कहना है कि वे ऐसे हालातों में जीना नहीं चाहते। १८ से ३० वर्ष तक की आयु के इन युवाओं ने राष्ट्रपति को भेजे अपने पत्र में कई सुलगते सवाल उठाये हैं। इस दमघोटू व्यवस्था से मुक्ति पाने को आतुर युवक जानना चाहते हैं कि इस देश में भ्रष्टचार के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों पर कहर क्यों ढाया जाता है? देश को लूटने वालों के खिलाफ आवाज बुलंद करने वालों पर लाठियां भांजना कहां की मर्दानगी है? इन युवकों का यह भी मानना है कि भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों को सरकार का संरक्षण मिला हुआ है। जिनके हाथ में सत्ता है वही लोग अपनी मनमानी कर रहे हैं। खुद तो देश को लूट ही रहे हैं साथ ही अपने सगे संबंधियों और यार दोस्तों को लूटमार करने के भरपूर अवसर मुहैया करवा रहे हैं। नक्सलवाद तथा आतंकवाद से लडने और देश की सुरक्षा के लिए जान कुर्बान करने को तत्पर युवकों को यह भी लगता है कि भ्रष्टाचार से लड पाना उनके बस की बात नहीं है। यानी भ्रष्टाचारी आज इतने ताकतवर हो चुके हैं कि उनका कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। जो भी इनके खिलाफ आवाज उठाता है उसे ठिकाने लगा दिया जाता है। ईमानदारी की इस देश में कोई कीमत नहीं है। यही पीडा उन्हें बेहाल किये हुए है। बडी तेजी से महानगर की शक्ल अख्तियार करता नागपुर देश का हृदय स्थल है। नागपुर के युवकों की इच्छा और पीडा को सिर्फ एक शहर तक सीमित नहीं किया जा सकता। देश के करोडों युवक कुछ ऐसी ही सोच के साथ सरकार के जागने और व्यवस्था के दुरुस्त होने के इंतजार में हैं। वैसे इंतजार और सब्र की भी सीमा होती है।अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भ्रष्टाचार के खिलाफ जो अलख जलायी उसका उजाला लगभग पूरे देश में फैल चुका है। कल तो जो सोये थे वे भी जाग गये हैं। लोगों का गुस्सा संभाले नहीं संभल पा रहा है। फिर भी सत्ता का सुख भोग रहे राजनेताओं की आंखें अभी भी खुलने का नाम नहीं ले रही हैं। उन्हें तो यही लग रहा है कि कुछ दिनों बाद लोग सब कुछ भूल जायेंगे। इस देश की अधिकांश जनता वैसे भी रोजी-रोटी की समस्या में उलझी रहती है। भूख हडतालों और आंदोलनों से उसका कोई वास्ता नहीं होता। ये तो कुछ सिरफिरे हैं जो भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ शोर मचाये हुए हैं। इन पर भी जब सरकार का डंडा चलेगा तो यह अपने आप ठंडे हो जायेंगे। सच कहूं... सरकार इस बार इस भूल से मुक्ति पा ले तो बेहतर होगा। देशवासियों की सहनशीलता अब खत्म हो चुकी है। जब युवक इच्छा मृत्यु की मांग कर रहे हों तो सरकार को समझ लेना चाहिए कि पानी सिर से ऊपर जा चुका है। अब खास ही नहीं आम लोग भी यह मानने लगे हैं कि शासकों में ही ऐसे कई चेहरे शामिल हैं जो देश के साथ गद्दारी करते चले आ रहे हैं। सरकार अच्छी तरह से वाकिफ है कि वे कौन लोग हैं। फिर भी वह नही चाहती कि उनके इर्द-गिर्द के भ्रष्टाचारी बेनकाब हों। मेरे सामने कुछ अखबार पडे हैं जिनमें यह खबर छपी है कि उत्तरप्रदेश की आंवला लोकसभा सीट से भारतीय जनता पार्टी की सांसद मेनका गांधी ने आरोप लगाया है कि स्विस बैंक में जमा आधे से ज्यादा धन कांग्रेस नेताओं का है। यही वजह है कि विदेशी बैंक खातों की जांच करने से कांग्रेस कतरा रही है। सच तो यह है कि काले धनपतियों और काले धन को बचाने के लिए कांग्रेस ने अपनी पूरी साख को दांव पर लगा दिया है। पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की बागी पुत्रवधु ने दावे के साथ यह भी कहा है कि बोफोर्स तोप घोटाले का धन भी विदेशों में जमा किया गया है। मेनका गांधी का शुमार गंभीर किस्म के नेताओं में किया जाता है। उनके मुंह से निरर्थक और फालतू शब्द कम ही फूटते देखे गये हैं। देश के मुखर नेता सुब्रमण्यम स्वामी भी अक्सर गांधी परिवार पर इस तरह के आरोप दागते देखे गये हैं परंतु उन्हें देश की जनता ने कभी उतनी गंभीरता से नहीं लिया। अब जब गांधी खानदान की एक जिम्मेदार सदस्या कांग्रेस और सोनिया गांधी पर आरोप लगा रही हैं तो उन्हें जवाब देने में देरी नहीं करनी चाहिए। आज भी देश की सत्तर प्रतिशत जनता मीडिया में आयी खबरों पर पूरा यकीन करती है। सोनिया गांधी और राहुल गांधी की चुप्पी देशवासियों को कहीं न कही सशंकित किए हुए है। सोनिया गांधी नहीं तो कम से कम राहुल गांधी को तो स्थिति स्पष्ट करनी ही चाहिए। अपनी चाची के आरोपों का जवाब न देकर कहीं न कहीं वे कांग्रेस पार्टी का भी नुकसान कर रहे हैं। वैसे तो राहुल गांधी हर मुद्दे पर जबान खोलते हैं पर भ्रष्टाचार और काले धन पर उन्हें कभी बोलते नहीं देखा गया। यह चुप्पी चौंकाती है और उन युवाओं को हतोत्साहित करती है जो कांग्रेस के इस युवराज को अपना आदर्श मानते हैं। राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए उछलकूद मचाने वाले दिग्विजय सिं‍ह जैसे नेता पता नहीं राहुल गांधी को इस गंभीर मुद्दे पर खुलकर बोलने की सलाह क्यों नहीं देते?

Thursday, June 16, 2011

देश को इन पर नाज़ है

उजाला हो न हो
यह और बात है
मेरी हर आवाज
अंधेरों के खिलाफ है...
महाराष्ट्र की राजधानी मुंबई में फिर एक पत्रकार की हत्या कर दी गयी। देश का महानगर मुंबई जिसे मायानगरी भी कहा जाता है कई-कई रंगों के साथ जीता है। किस्म-किस्म के अपराधी और माफिया यहां भरे पडे हैं। सफेदपोश अपराधियों की भी यहां भरमार है। दूसरे शहरों की तुलना में यहां अगर रंगीनियां ज्यादा हैं तो खतरे भी कम नहीं हैं। मुंबई की फितरत से वाकिफ हर सच्चा पत्रकार जानता है कि यहां पर कलम के दुश्मनों के कितने लंबे हाथ हैं। पर वो पत्रकार ही क्या जो दुश्मनों से डर जाए। अंडरवल्र्ड और मुखौटेबाज सफेदपोशों पर कलम चलाने वालों को कई खतरों से जूझना पडता है। जिसके खिलाफ लिखो वही जान का दुश्मन बन जाता है।पत्रकार ज्योतिर्मय डे भी एक ऐसे पत्रकार थे जो अपनी जान हथेली पर लेकर चला करते थे। मुंबई की सडकों पर बेखौफ अपनी मोटर सायकल पर दौडने वाले ज्योतिर्मय डे उर्फ जे.डे ने मुंबई की काली दुनिया का सच उजागर करने का अभियान चला रखा था। पिछली बीस वर्ष से वे बिना किसी से डरे विभिन्न गैंगस्टरों, तेल माफियाओं और खाकी वर्दी में लिपटे गद्दारों को बेनकाब करने में लगे थे। पिछले दिनों जब सरकार ने एकाएक पेट्रोल की कीमतें बढा कर देशवासियों को स्तब्ध कर दिया था तब जे.डे ने अपनी रिपोर्ट में बेखौफ यह जानकारी दी थी कि किस तरह देशवासियों को लूटा जा रहा है और इस लूट के खेल में बडे-बडे राजनेता, मंत्री और तेल माफिया शामिल हैं। यह लुटेरे आपस में हाथ मिला चुके हैं। उनके गठजोड को तोड पाना आसान नहीं है। यह जे.डे की खोजी खबरें ही थीं जिनके छपने के बाद कई अपराधियों पर कानूनी कार्रवाई की गाज गिरी थी। इस जागरुक पत्रकार को अपराध जगत के चप्पे-चप्पे की जानकारी रहती थी और अपराधियों के काम करने के तौर तरीकों का भी ऐसा ज्ञान था कि खबरें छपने के बाद अपराधी भी विस्मित हुए बिना नहीं रह पाते थे। अंडरवल्र्ड के काम करने के तौर-तरीकों पर उनकी लिखी दो पुस्तकें काफी चर्चित हुई। माफियाओं के 'कोड वल्र्ड' का जे.डे ने जो खुलासा किया उससे पुलिस वालों का भी काम काफी हद तक आसान हो गया था। पुलिस वालों से भी तेज दिमाग रखने वाले जे.डे राजनीतिज्ञों और अपराधियों के याराने से भी अच्छी तरह से वाकिफ हो चुके थे। उनकी कलम सफेदपोश नेताओं और खाकी वर्दीधारियों को भी नहीं बख्शती थी। अगर यह कहा जाए कि जे.डे अपराधियों के साथ-साथ खाकी और खादी के निशाने पर भी थे तो गलत न होगा। उनकी हत्या से यह भी तय हो गया है कि मायानगरी में समर्पित पत्रकार कतई सुरक्षित नहीं हैं। अंडरवल्र्ड के शैतान किसी को भी निशाने पर ले सकते हैं। महाराष्ट्र में दाऊद इब्राहिम, छोटा शकील, अरुण गवली, पप्पू कालानी, छोटा राजन आदि माफियाओं के बाद और भी कई नये माफिया सिर उठा चुके हैं। तेल माफिया तो इतने हिं‍सक हो चुके हैं कि सरकार का भी उन पर कोई बस चलता नहीं दिखता। कुछ ही महीने पहले नासिक के सहायक कलेक्टर यशवंत सोनावडे को इन्ही तेल माफियाओं ने जिं‍दा जला दिया था। पुलिस और तेल माफियाओं की आपस में कितनी छनती और बनती है उसका पता तो इससे चल जाता है कि सोनावडे के हत्यारों के खिलाफ समय सीमा के अंदर चार्जशीट ही नहीं दाखिल की गयी और हत्यारों को जमानत मिल गयी।पत्रकारिता के प्रति जीवनभर समर्पित रहे जे.डे ने तेल माफियाओं के जुर्म की दास्तान से सरकार को निरंतर अवगत कराया पर सरकार तो सरकार है। उसके काम करने के रंग-ढंग बडे निराले हैं। जब किसी अधिकारी के तेल माफियाओं के हाथों मारे जाने पर उसको कोई फर्क नहीं पडता तो पत्रकार तो पत्रकार हैं। सिर्फ कलम घिस्सू...। सरकार के लिए उनकी जान की कोई कीमत नहीं है। जब किसी पत्रकार की निर्मम हत्या कर दी जाती है तब सरकार के मंत्री संवेदना के दो शब्द उछाल कर चलते बनते हैं। कुछ तो ऐसे भी होते हैं जो पत्रकारों पर भी उंगली उठाते हुए इशारों-इशारों में यह कह देते हैं कि पत्रकारों को भी सोच-समझ कर रिपोर्टिंग करनी चाहिए। खतरों से बचकर रहना चाहिए। इन इशारों के पीछे यह सीख भी छिपी होती है कि देख कर भी अनदेखा करना सीखो। पत्रकारों को ज्ञान बांटने वालों की कमी नहीं है। कई तो ऐसे हैं जो पत्रकारों की आचार संहिता की जंजीरों में बांध देना चाहते हैं। भंडाफोड करने वाले पत्रकार उन्हें फूटी आंख नहीं सुहाते। इसलिए जब कोई सच्चा पत्रकार मौत के मुंह सुला दिया जाता है तो ये चेहरे यह कहने से भी नहीं चूकते कि यह तो अपनी करनी का फल जो हर किसी को भुगतना पडता है। वैसे भी महाराष्ट्र का चेहरा अब पहले जैसा नहीं रहा। भ्रष्टाचार और अपराध यहां की पहचान बन चुके हैं। कई राजनेताओं की छवि जिस तरह से कलंकित हुई है वह भी कोई लुकी-छिपी नहीं है। सफेदपोश नेताओं के चेहरों के मुखौटे उतारने का काम भी ज्योतिर्मय डे जैसे पत्रकारों ने ही किया है। भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने और आम आदमी की आवाज बन अंधेरे के खिलाफ लडने वाले पत्रकारों पर देश को नाज़ है। इन्हीं की बदौलत लोकतंत्र सुरक्षित है और रहेगा...।

Friday, June 10, 2011

डराना, चमकाना और धमकाना बंद करो...

''भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ आंदोलन करने वाले योग गुरु बाबा रामदेव खुद नंबर एक के ठग हैं। उन्होंने न जाने कितनों को टोपी पहनायी है और अपना उल्लू सीधा किया है। यह आदमी हद दर्जे का ढोंगी है। ना तो यह किसी सम्मान के लायक है और ना ही इस पर भरोसा किया जा सकता है। बाबा की १९९४ से लेकर अब तक की गतिविधियों की बारीकी से जांच होनी चाहिए।'' यह बोलवचन हैं कांग्रेस के ही एक दिग्गज नेता के...। जी हां अगर कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिं‍ह का बस चले तो वे बाबा रामदेव को ऐसा सबक सिखाएं कि उनकी आने वाली सात पुश्तें भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ मुंह न ही खोल पाएं।बाबा रामदेव के अनशन का जिस तरह से सरकार ने तमाशा बनाया और पुलिसिया डंडे चलवाये उसका अनुमान बाबा को निश्चय ही नही था। बाबा तो यही मानकर चल रहे थे कि जिस तरह से चार-चार मंत्री हवाई अड्डे पर उनके स्वागतार्थ पहुंचे थे वैसे ही अनशन के खत्म होने तक उनकी आवभगत का सिलसिला चलता रहेगा। सरकार ने अन्ना हजारे को भले ही घास न डाली हो पर उनकी हर बात मान ली जायेगी। लगता है बाबा की हवा में उडने की रफ्तार कुछ ज्यादा ही तेज थी। संन्यासी को सत्ता की चाल-चालाकी और ताकत का अनुमान ही नहीं था। अगर होता तो हर कदम फूंक-फूंक कर रखते। जब वे दिल्ली से खदेड दिये गये तो उनके होश ठिकाने आये। पर तब तक चिडि‍या खेत चुग चुकी थी। पर भगवाधारी इस हकीकत को मानने और समझने को तैयार ही नहीं। उन्हें तो अभी भी सब कुछ हरा-हरा नजर आ रहा है। वे इस सच से भी अनजान नही हैं कि उन्होंने जो फसल बोयी है उसे वे काट पायें या ना काट पायें पर राजनीति के खिलाडी जरूर काट लेंगे। देश की राजधानी दिल्ली के रामलीला मैदान में अपने समर्थकों के खिलाफ सरकार के इशारे पर हुई बर्बर कार्रवाई को बाबा के लिए इस जन्म में तो भूल पाना आसान नहीं होगा। उनके अनशन के तौर-तरीकों का विरोध करने वाले दिग्गी राजा जैसे नेताओं के तीखे आरोपों के तीरों के वार भी उन्हें भूलाये नहीं भूलेंगे। बाबा को सरकार, भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों पर वार करना बडा आसान काम लग रहा था। पर उन्हें इस तथ्य से रूबरू होने में देरी नहीं लगी कि जिनके खुद के घर कांच के होते हैं उन्हें दूसरों के घरों में पत्थर नहीं फेंकने चाहिएं। अधिकांश चतुर राजनेता इस उसूल को ताउम्र निभाते हैं। जो नहीं निभाते वे कांच की तरह बिखेर दिये जाते हैं। बाबा नेता नहीं हैं पर नेताओं की भाषा बोलने में उनका कोई सानी नहीं है। योग गुरु होने के साथ-साथ वे जुगाडू किस्म के व्यापारी भी हैं। अपने आश्रमों और दवा की फैक्ट्रियों के लिए सरकारी जमीनों पर उनकी नजर लगी रहती है। राजनेताओं की मेहरबानी से करोडों की जमीने पानी के मोल हथिया भी चुके हैं। उत्तराखंड की सरकार उन पर हमेशा मेहरबान रही है। उद्योग-धंधों का जाल फैलाकर अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा करने वाले बाबा पहले और इकलौते संन्यासी नहीं हैं। बाबा की अभूतपूर्व तरक्की यकीनन हैरान करने वाली है। उनके मात्र दो ट्रस्ट का ही सालाना कारोबार ११०० करोड से ऊपर है। बाबा जब तक शांति से योग प्रचार में लगे थे तब तक वे आरोपों से अछूते थे। पर जैसे ही उन्होंने क्रांतिकारियों वाली भाषा बोलनी शुरू की और बयानबाजियों के चक्कर में पडते चले गये तो विरोधियों की संख्या बढती चली गयी। अगर वे शुद्ध रूप से योग धर्म निभाते रहते तो उन पर उंगलियां उठाना कतई आसान न होता। उन्होंने कुटिया और झोपडी की बजाय कांच के घर बनाने शुरू कर दिये और उनमें रहने के साथ-साथ आंखें भी दिखाने लगे! यही उनकी सबसे बडी भूल थी। राजनेता कभी भी आक्रमण बर्दाश्त नहीं कर सकते। वे जीवन भर तेरी भी चुप और मेरी भी चुप के नियम-कायदे पर चलते हैं। जब कोई उनके कपडे उतारने की कोशिश करता है तो ये उसे नंगा करने के अभियान में लग जाते हैं। इसी पटका-पटकी की बदौलत नेताओं की भ्रष्टाचारी बिरादरी जिं‍दा हैं। क्या यह कम गौर करने वाली बात है कि रामदेव बाबा का काले धन के खिलाफ लडाई का बिगुल बजने के बाद कुछ नेताओं ने ढोल पीटना शुरू कर दिया है कि हमारे देश में धर्मगुरूओं के पास जो अथाह काला धन जमा है, पहले उसे बाहर लाया जाना चाहिए। इस देश में कई ऐसे संत हैं जो काले धन को सफेद करने के काम में लगे हैं। बाबा रामदेव के द्वारा धनपतियों, भू-माफियाओं, बिल्डरों और संदिग्ध किस्म के लोगों से करोडों रुपये चंदे और दान के रूप में लिये जाने की खबरें मीडिया में अक्सर आती रहती हैं। उनके पास जो लोग योग सीखने आते हैं उनसे भी उनकी जेब के हिसाब से वसूली कर ली जाती है। गरीबों को पीछे और अमीरों को आगे बिठाकर योग सिखाने वाले बाबा के होश ठिकाने लगाने के लिए सरकार अब पूरी तरह से पिल चुकी है। आयकर विभाग को काम पर लगा दिया गया है और दूसरी एजेंसियों को भी बाबा की छानबीन के आदेश दे दिये गये हैं। अब देखना यह है कि बाबा कब तक टिके रहते हैं। असली सच यह भी है कि देश की जनता इस झमेले में उलझने को तैयार नहीं है कि बाबा ने कैसे दौलत कमायी और क्या-क्या किया। वह असली मुद्दे से भटकने को कतई तैयार नहीं है। देश डराने, चमकाने और धमकाने के दुष्चक्र से मुक्त होना चाहता है। चोर की दाढी में तिनका और चोर मचाये शोर जैसे हालातों की भाषा हर किसी को समझ में आने लगी है। इसलिए असली मुद्दों से भटकाने के कुचक्र अब और नहीं चल पायेंगे। सत्ताधीशों को होश में आना ही होगा...।

Thursday, June 2, 2011

कैसे थमेगा यह सिलसिला?

वर्षों के कठोर संघर्ष की बदौलत पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने वाली ममता बनर्जी की सादगी और ईमानदारी उनके शत्रुओं का भी मन मोह लेती है। पैरों में तीस-चालीस रुपये की प्लास्टिक की चप्पल और बदन पर ढाई-तीन सौ रुपये की सूती साडी पहन कर जब वे सडक पर चलती हैं तो रास्ते भी खुद को गौरवान्वित महसूस करने लगते हैं। ममता जब से राजनीति में आयी हैं तभी से उनका ऐसा ही आम पहनावा रहा है। इसी पहनावे ने उन्हें आम आदमी का नेता बनाया और वो शौहरत दिलवायी जिसके लिए कई नेता जीवन भर तरसते रहे और अंतत: इस दुनिया से रुखसत हो गये। ममता पिछले कई वर्षों से राजनीति में सक्रिय हैं। लोकसभा सदस्य रहने के साथ-साथ रेल मंत्रालय भी संभाल चुकी हैं। यानी दूसरे नेताओं की तरह कमायी करने के उनके पास भी भरपूर मौके थे पर उन्होंने काजल की कोठरी में रहकर भी खुद को दागी होने से बचाये रखा। ममता की यही उपलब्धि उनकी बहुत बडी पूंजी है। देश के चंद ईमानदार नेताओं में उनका नाम शीर्ष पर है। दूसरी तरफ जयललिता हैं जिनका देश की राजनीति में रुतबा तो है मगर उसके पीछे के कारण कुछ और हैं। अन्ना द्रमुक पार्टी की सर्वेसर्वा जयललिता एम. करुणानिधि को परास्त कर तमिलनाडु की सत्ता पर काबिज तो हो गयी हैं पर उनकी चुनावी जीत को बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने की कहावत से जोड कर देखा जा सकता है। करुणानिधि का भ्रष्टाचार उन्हें ले डूबा और जयललिता की निकल पडी। जयललिता भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद में यकीन रखने वाली नेता हैं। अपने चंद वर्षों के राजनीतिक जीवन में सैकडों भ्रष्टाचार के आरोपों में लिपटी इस महिला के पास अरबों रुपये की संपत्ति है। महंगी से महंगी साडि‍यां, आधुनिकतम चप्पलें और आभूषण पहनने की शौकीन जयललिता को राजनीति में स्थापित होने के लिए ममता जैसा संघर्ष नहीं करना पडा। दलितों की तथाकथित मसीहा मायावती और जयललिता एक ही सिक्के दो पहलू जैसी हैं। राजनीति के रण में येन-केन-प्रकारेण बाजी मार ले जाने वाली इन दो बहनों को तो इतिहास में वो जगह कतई नहीं मिल पायेगी जो ममता के हिस्से में आयेगी। लगता है तरह-तरह के पात्रों को झेलना इस देश के लोकतंत्र की मजबूरी है और जो काम मजबूरी से किया जाता है उसका हश्र अच्छा तो हो ही नहीं सकता।भारत में लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां और नेता धन के मोह से ग्रस्त हैं। सवा सौ करोड की आबादी वाले देश में अस्सी प्रतिशत लोग गरीब हैं तो दूसरी तरफ गरीबों की आवाज बुलंद करने की राजनीति करने वाले नेता बेहिसाब दौलत के मालिक हैं। महात्मा गांधी के नाम पर राजनीति करने वाला हर कांग्रेसी ठाठ-बाट के साथ जीता है। भगवान राम के नाम की बदौलत सत्ता का स्वाद चखने वाली भारतीय जनता पार्टी के कई नेताओं का धनमोह और राजसीलीला तो देखते ही बनती है। चाल, चरित्र और व्यवहार में खुद को दूसरी राजनीतिक पार्टियों से अलग बताने वाली भारतीय जनता पार्टी एक तरफ भ्रष्टाचार से लडती दिखायी देती है तो दूसरी तरफ उसी के विधायक पंजाब में रिश्वत लेने के आरोप में धर लिये जाते हैं। यही दोहरा चरित्र इस पार्टी की असली पहचान है। कर्नाटक के पर्यटन और इन्फ्रास्ट्रक्चर मंत्री जनार्दन रेड्डी के बारे में खुलासा हुआ है कि यह महाशय दो करोड की कुर्सी पर विराजते हैं और ढाई करोड के सोने से बने भगवान की आराधना करते हैं। कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं की तूती बोलती है। मुख्यमंत्री बीएस येद्दियुरप्पा की नींद उडाये रखने वाले रेड्डी बंधुओं ने खनिज संपदाओं का दोहन कर इतना माल जुटा लिया है कि कुछ भी खरीदने की ताकत रखते हैं। सत्ता और सत्ताधीश उनके समक्ष बौने हो जाते हैं। बेचारे मुख्यमंत्री हमेशा डरे-डरे रहते हैं। रेड्डी बंधु कहीं उनके विधायकों को खरीद कर उनकी सरकार ही न गिरा दें। उनका ज्यादातर समय तो 'बंधुओं' को मनाने-समझाने और संतुष्ट रखने में ही बीत जाता है। रेड्डी बंधुओं को यह कतई बर्दाश्त नहीं होता कि कोई उनके लूटमार के धंधे में खलन डाले। सुषमा स्वराज उनकी बहन हैं। वे पार्टी को मुंहमांगा चंदा देते हैं। इसलिए पार्टी की कोई भी सीख और नसीहत उन्हें नहीं सुहाती। यह बात अकेले भाजपा की नहीं है। देश की जितनी भी राजनीतिक पार्टियां हैं उनके अधिकांश नेताओं की भू-माफियाओं, खनिज माफियाओं और किस्म-किस्म के लुटेरों से गजब की नजदीकियां देखी जा सकती हैं। यह लोग चुनाव में थैलियां देते हैं, गुंडे उपलब्ध कराते हैं और हर वो काम करते हैं जिन्हें सीधा-सादा आम आदमी नहीं कर सकता। चुनाव जीतने के बाद नेता लोग अपने उपकारियों का पूरा ख्याल रखते हैं। कहने को तो उन्हें जनता चुनती है पर वे इस सच्चाई को किनारे रख अपने 'बंधुओं' को मालामाल करने में लग जाते हैं। यह सिलसिला कभी थमता नहीं है। पब्लिक और मीडिया कभी-कभार शोर मचाता है पर कोई बात नहीं बनती। इसी का नाम लोकतंत्र है जहां एक तरफ ममता बनर्जी हैं तो दूसरी तरफ जयललिता, मायावती और रेड्डी बंधु जैसे लोग हैं। ममता जब चुनाव लडती हैं तो अपनी पेंटिं‍ग बेचकर इकट्टे हुए धन से काम चलाती हैं और दूसरे नेता माफियाओं की शरण में चलें जाते हैं। पता नहीं ऐसा कब तक चलता रहेगा?