Thursday, July 28, 2016

अपना-अपना अभिनय

बहनजी अपनी पार्टी की सर्वेसर्वा हैं। उन्हें दखलअंदाजी बिलकुल नहीं भाती। न ही किसी कार्यकर्ता और नेता का आगे बढना सुहाता है। इसलिए बहुजन समाज पार्टी में जिसका भी कद बढता नजर आता है उसे बाहर करने में देरी नहीं की जाती। कभी-कभी तो उलटा भी हो जाता है। पार्टी की वर्षों तक सेवा करते-करते किसी जुझारू पदाधिकारी को जब असली सच समझ में आ जाता है तो वह स्वामी प्रसाद मौर्य बन बहनजी की नींद हराम कर देता है। बहनजी पर धन लेकर चुनावी टिकटें बांटने के शुरू से आरोप लगते रहे हैं। यह ऐसे आरोप हैं जिन्हें सिद्ध नहीं किया जा सकता। देनेवाला कभी मुंह नहीं खोलता। वैसे भी पार्टी में सक्रिय रहने के दौरान सभी देखकर भी अंधे बने रहते हैं। मनमुटाव होने के बाद ही 'मोहभंग' होता है। देखने और समझने वालों को हकीकत खुद-ब-खुद समझ में आ जाती है। बसपा के संस्थापक कांशीराम एक वोट, एक नोट के उसूल पर चलने वाले जमीनी नेता थे। उन्होंने देशभर में सायकल से यात्राएं कर पार्टी के नाम और रूतबे को बनाया और बढाया था। उनका परिवार आज भी आर्थिक बदहाली का शिकार है। बहनजी के पास महंगी से महंगी कारें हैं। रहने के लिए आलीशान कोठियां हैं। यानी अरबो-खरबों में खेलती हैं। उनके भाई-भतीजे बिना कोई उद्योग-धंधा लगाये बेहिसाब दौलत के मालिक हैं।
देश में जब भी चुनाव करीब होते हैं तो आरोप-प्रत्यारोप की आंधी बहने लगती हैं। अच्छे-अच्छे बहकने लगते हैं। कुछ नेता तो मर्यादा का दामन छोड अभद्रता की सभी सीमाएं पार कर जाते हैं। यकीनन ऐसा ही किया भाजपा के नेता दयाशंकर सिंह ने। मंच पर खडे होकर उन्होंने कहा, "माया किसी को १ करोड में टिकट देती हैं, कोई एक घण्टे बाद दो करोड देता है, तो उसे दे देती हैं। अगर तीन करोड वाला मिल गया तो टिकट उसी का। माया... से भी बदतर हो चुकी हैं।"  यह उनकी जुबान की फिसलन थी या जानबूझकर विष उगला गया इसका जवाब पाना कतई मुश्किल नहीं है। इस तरह की बदजुबानी पहली बार नहीं सुनी गयी है। देश के कुछ सांसद और साधु-साध्वियां भी अपने विरोधियों का दिल दुखाने के लिए बहुत कुछ बोलते रहते हैं और मीडिया में छाये रहते हैं। हंगामा भी बरपा होता रहता है। दयाशंकर के जहरीले बयान से बहनजी तो बहनजी, सजग देशवासी भी आहत हो उठे। गुस्साये बसपा के कार्यकर्ता सडकों पर उतर आये। उनके हाथों में दयाशंकर की पत्नी, बेटी और बहन के लिए अपशब्द लिखे बैनर थे। जिन्हें गुस्से में लहराया जा रहा था। बसपा के राष्ट्रीय महासचिव नसीमुद्दीन सिद्दीकी ने बेशर्मी के सभी हदें पार करते हुए नारा लगाया- "पेश करो, पेश करो, दयाशंकर की बहन बेटी को पेश करो"। घटिया किस्म के बदमाशों वाली यह ओछी भाषा को सुनने के बाद भी बहन जी चुप रहीं। उन्हें कुछ भी गलत नहीं लगा! उन्होंने फरमाया कि मेरे कार्यकर्ता मुझे देवी मानते हैं। ऐसे में वे कैसे बर्दाश्त कर सकते हैं कि कोई मेरा अपमान करने की जुर्रत कर दिखाये। मेरे सजग कार्यकर्ताओं और पदाधिकारियों ने अपशब्दों का इस्तेमाल इसलिए किया ताकि दयाशंकर के परिवार को उस पीडा की अनुभूति हो जिससे मैं गुजर रही हूं। दयाशंकर के परिवार वालों में अगर थोडी भी महिलाओं के प्रति सहानुभूति होती तो उन्हें यह गंदा बयान सुनते ही माफी मांगनी चाहिए थी। मीडिया के सामने आकर दयाशंकर की भर्त्सना करनी चाहिए थी। उन्होंने ऐसा न कर बहुत बडा गुनाह किया है। इस अपराध की सजा तो मिलनी ही चाहिए थी। बहनजी के इस कथन ने सजग देशवासियों को चौंकने और सोचने को विवश कर दिया। करे कोई और भरे कोई! यह कहां का न्याय है? लेकिन राजनेता तो ऐसे अन्यायी खेल खेलने के लिए ही जाने जाते हैं। उन्हें खुद को सच्चा और अच्छा दर्शाने की सभी कलाएं आती हैं। वे किसी भी हालत में अपने कार्यकर्ताओं को नाराज करने का जोखिम नहीं उठाते। ऐसे अंधभक्त कार्यकर्ताओं, पदाधिकारियों और टिकट के लालची छुटभइये नेताओं की बदौलत ही राजनीतिक पार्टियां चलती हैं और सुप्रीमो के अहंकार का गुब्बारा फूला रहता है। दयाशंकर की बदजुबानी के मुद्दे ने बहनजी तथा उनके कार्यकर्ताओं को जैसे नयी ताकत बख्श दी। चुनावी मौसम जब करीब हो तो ऐसे मामले अंधेरे में दीपक का काम करते हैं। बहनजी ने मान लिया था कि भाजपा के खिलाफ जो आग भडक चुकी है वह आसानी से नहीं बुझने वाली। लेकिन दयाशंकर की पत्नी ने जैसे ही मुंह खोला तो नजारा ही बदल गया। उन्होंने भी सवालों की झडी ही लगा दी: "आखिर हमारी गलती क्या है, हमें किस गुनाह की सजा दी जा रही है? मायावती कह रही हैं कि दयाशंकर के परिवार की बेटी और पत्नी को सामने आकर दयाशंकर के बयान की निंदा करनी चाहिए थी। जब हमारा राजनीति से ही कोई लेना-देना ही नहीं है। तो ऐसे में हमारा माफी मांगने का तो सवाल ही कहां उठता है?" जिस अमर्यादित बयानबाजी को लेकर बसपा बेहद आक्रामक दिख रही थी, जब वही बर्ताव उसके लिए जंजाल बन गया तो बहनजी को भी पसीने आ गए। चारों तरफ यह सवाल उठने लगे कि क्या सिर्फ ताकतवर नारी की इज्जत, इज्जत होती है, बाकियों की आबरू कोई मायने नहीं रखती? बहनजी महिला हैं तो दयाशंकर की मां, पत्नी, बेटी, बहन कौन हैं? वे भी तो महिला ही हैं। जितनी बहनजी इज्जत और सम्मान की हकदार है उतनी ही वे भी हैं। दयाशंकर का मामला हो या बहनजी के कार्यकर्ताओं के बेलगाम होने का... दोनों ही राजनीति के पतन के जीवंत प्रमाण हैं। इस सच से अब कौन इनकार कर सकता है कि राजनीति कीचड बनकर रह गयी है जहां गाली का जवाब गाली से दिया जाने लगा है।

Thursday, July 21, 2016

इन्हें कब होश आयेगा?

कांग्रेस देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी है। उसने कई वर्षों तक देश और प्रदेशों की सत्ता का सुख भोगा है। लेकिन पराजय पर पराजय ने उसके जोश को एकदम ठंडा कर दिया है। इस पार्टी के कर्ताधर्ताओं की सोचने-समझने की ताकत पर ग्रहण लगता चला जा रहा है। अपने पैरों पर चलने का साहस खो चुकी पार्टी को बैसाखियों की तलाश में दिमाग खपाना पड रहा है। फिर भी कोई बैसाखी उसके काम नहीं आ रही है। राहुल गांधी कभी शोर मचाते थे कि कांग्रेस में युवाओं की तूती बोलने का समय आ गया है। राहुल फेल क्या हुए कि कांग्रेस युवा नेताओं को हाशिए में डालने के लिए मजबूर हो गयी! अगर ऐसा नहीं होता तो दिल्ली में करारी हार झेल चुकी ७४ साल की शीला दीक्षित को उत्तर प्रदेश में मुख्यमंत्री पद की उम्मीदवार घोषित कर कांग्रेस को अपनी खिल्ली नहीं उडवानी पडती। मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी घोषित होने के बाद शीला तो आकाश पर उडने लगीं हैं। उन्हें गरूर है कि वे तीन बार दिल्ली की मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। यूपी फतह करना तो उनके बायें हाथ का खेल है।
कपूरथला में जन्मी और दिल्ली में पली-बढी शीला दीक्षित रिश्ते जोडने में माहिर हैं। जब दिल्ली में विधानसभा चुनाव लड रही थीं तब उन्होंने मतदाताओं को लुभाने के लिए यह तीर छोडा था कि उनकी देश की राजधानी में जान बसती है। अब कह रही हैं कि मैं तो उत्तर प्रदेश की लाडली बहू हूं। इस देश में बहू को कभी निराश नहीं किया जाता। वैसे रिश्ते जोडकर वोट बटोरने का नेताओं का यह जगजाहिर तरीका है। शीला दीक्षित, इंदिरा गांधी की सरकार में मंत्री रहे स्व. उमाशंकर दीक्षित की बहू हैं। उन्हें लगता है कि इसका उन्हें भरपूर फायदा मिलेगा। इंदिरा गांधी के कहने पर राजनीति में पदापर्ण करने वाली यूपी की यह बहू कन्नोज से लोकसभा चुनाव जीतने के बाद तीन साल तक केंद्र सरकार में मंत्री रहीं। फिर बाद में धीरे-धीरे उन्हें दिल्ली ऐसे भायी कि यूपी से दूर होती चली गयीं। उम्रदराज शीला को उत्तर प्रदेश में अपना चेहरा बनाकर कांग्रेस ने यह संदेश तो दे ही दिया है कि उसके आंगन में युवा नेताओं के लिए कोई स्थान नहीं है। यहां तो उन्हीं को सत्ता का सुख हासिल हो सकता है जिन्हें मतदाताओं को जाति-धर्म और रिश्ते-नातों की भूल-भुलैया में भटकाने की कला का ज्ञान हो। उत्तर प्रदेश में करीब १३ फीसदी ब्राह्मण वोटर हैं। कांग्रेस को लगता है कि शीला के दम पर वह ब्राह्मणों से काफी हद तक जुडने और उनके वोट पाने में सफल हो जाएगी। मुसलमान वोटर भी कांग्रेस के निशाने पर हैं। मुसलमान और ब्राह्मण मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए ब्राह्मण शीला दीक्षित को सामने खडा करने वाली कांग्रेस इस सच को भूल गयी है कि आज की तारीख में उत्तर प्रदेश में उस युवा आबादी का वर्चस्व है जो धर्म और जात-पात की भावनाओं में बहकर वोट नहीं डालती। आज देश और हर प्रदेश के युवा जागृत हो गये हैं। उन्हें राजनीतिक दलों का चुनावी खेल भटका नहीं सकता। उन्हें जात-पात और अपने-पराये के रंग में रंग पाना आसान नहीं। दरअसल, भारतवर्ष के अधिकांश प्रगतिशील युवाओं की यही सोच है कि हम सभी भारतीय हैं। ऐसे में हमें अलग-अलग हिन्दू, मुस्लिम, सिख, ईसाई का डंका पीटने की क्या जरूरत है! फिल्म अभिनेता नाना पाटेकर ने बहुत प्रासंगिक सवाल उठाया है कि यदि हमारा देश धर्मनिरपेक्ष है तो यहां हर फार्म में धर्म और जाति का कॉलम क्यों है? उत्तर प्रदेश में चुनाव अगले वर्ष होने हैं। भाजपा और बसपा की तरह कांग्रेस को भी लग रहा है कि युवा अखिलेश सिंह यादव मतदाताओं की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे हैं इसलिए उसकी किस्मत का ताला खुल सकता है। इसलिए कांग्रेस ने तो शीला दीक्षित को घर-घर तक प्रचारित करने के लिए यह नारा उछालने की ठानी है, 'मेरा आखिरी सपना, उत्तर प्रदेश में दिल्ली जैसा विकास करना।' उधर भाजपा, सपा और बसपा वाले शीला के मुख्यमंत्रित्व काल में हुए टैंकर, मीटर व कॉमनवेल्थ स्ट्रीट घोटाले सहित अन्य विभिन्न मामलों में लगे संगीन भ्रष्टाचार के आरोपों को उछालकर कांग्रेस पर हमलों की बरसात करने की तैयारी में हैं।
दिल्ली की सत्ता से हाथ धोने के बाद शीला केरल की राज्यपाल बनायी गयीं, लेकिन भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते वे इस सम्मानजनक पद पर ज्यादा दिनों तक काबिज नहीं रह पायीं। उन्हें वापस दिल्ली लौटना पडा। अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली के विधानसभा के चुनावी मौसम में चीख-चीखकर कहा था कि आम आदमी पार्टी के सत्ता में आते ही शीला को उनके कर्मों की सजा दिलाते हुए जेल में ठूंस दिया जायेगा। केजरीवाल भी पेशेवर और चालाक नेताओं की तरह अपने चुनावी वायदे को भूल गए। कांग्रेस उत्तर प्रदेश में १९८९ से सत्ता से बाहर है। नारायण दत्त तिवारी उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के आखिरी मुख्यमंत्री थे। आज की तारीख में कांग्रेस सपा, बसपा और भाजपा के बाद चौथे नंबर की पार्टी है। सोनिया गांधी एंड कंपनी ने अपनी पार्टी के वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आजाद और राज बब्बर को भी यूपी में इसलिए आगे किया है ताकि मुस्लिम वोटरों को लुभाया जा सके। फिल्मी कलाकार के तौर पर नाम कमाने वाले राज बब्बर पहले समाजवादी पार्टी में थे। वे खुद को राम मनोहर लोहिया का अनुयायी बताते थे। मुलायम सिंह यादव कितने सच्चे समाजवादी हैं इसकी खबर तो राज को भी थी, लेकिन राजनीति के आकाश में चमकने के लिए उन्होंने नेताजी की चाकरी करने में परहेज नहीं किया। नेताजी ने 'समाजवाद'  के नाम पर 'परिवारवाद'  को किस तरह बढावा दिया और अरबो-खरबों की धन-सम्पति जुटायी उससे भी  बेखबर नहीं थे बब्बर। नेताजी के खासमखास अमर सिंह से मतभेद होने के बाद अभिनेता ने समाजवादी पार्टी से नाता तोडकर उस कांग्रेस का दामन थाम लिया जिसे दिन-रात कोसा करते थे। आज वे कांग्रेसियों को भले ही पसंद हों, लेकिन उन्हें जननेता तो कतई नहीं कहा जा सकता। शीला, आजाद और बब्बर में कांग्रेस को जितवाने की क्षमता तो कहीं भी नजर नहीं आती।

Thursday, July 14, 2016

बेटियों के पंख मत काटो

पिता ने छह वर्ष की बेटी को गिनती बताने को कहा। बेटी ने एक से १२ तक की गिनती सुनाई। इसके बाद वह गिनती बोलना भूल गई। उसकी जबान लडखडाई और वह पिता का चेहरा इस उम्मीद से ताकने लगी कि अब वे उसकी पीठ थपथपाते हुए आगे कि गिनती बताएंगे। लेकिन उनका तो पारा ही चढ गया। अपना आपा खोकर बच्ची को गुस्से से घूरने लगे जैसे उसने ऐसा कोई बहुत बडा गुनाह कर दिया हो जो माफ करने के लायक ही न हो। पिता के तमतमाये चेहरे को देखकर मासूम बेटी कांपने लगी। पिता ने लाड-प्यार से आगे की गिनती बताने की बजाय थप्पड मारा और फिर उसके मुंह में जबरन प्याज ठूंस दिया। छोटे से मुंह में बडा प्याज ठूंसे जाने के कारण बच्ची का दम घुट गया और फिर उसकी वहीं मौत हो गयी। इसके बाद पिता ने बेटी का शव कब्रिस्तान में दफनाया और ऐसे बेफिक्र हो गये जैसे कुछ हुआ ही न हो। बच्ची की मां की शिकायत पर मुंबई के इस गुस्सैल पिता को गिरफ्तार किया गया। इस पिता को आप क्या कहेंगे? दरिंदा, हैवान, शैतान और हत्यारा आदि...आदि? मेरे विचार से इस पापी के अमानवीय कृत्य ने तो इन सभी शब्दों को ही शर्मसार कर पिता के संबोधन को ही कटघरे में खडा करने का गुनाह किया है। इस गुनाहगार को कोई भी सजा मिले, कम ही होगी। इस दुनिया में एक से बढकर एक दुष्ट भरे पडे हैं। उनकी निर्ममता हतप्रभ करके रख देती है। मां-बाप के निर्मोही होने की खबरें पूरे वुजूद को हिलाकर रख देती हैं। मन में तरह-तरह के सवाल कौंधते हैं।
मध्यप्रदेश में स्थित शिवपुरी निवासी एक मां-बाप ने चार लोगों के साथ मिलकर अपनी ही बेटी को देहमंडी में ६० हजार रुपये में बेच दिया। बेटी रोती रही। गिडगिडाती रही। पर उन्हें रहम नहीं आया। वे रुपयों को अपनी जेब में डालकर ऐसे चलते बने जैसे उन्होंने बाजार में कोई सामान बेचा हो। बेटी को बेचने के बाद वे निश्चिंत हो गए। लेकिन कुछ दिन बाद किशोरी देह की मंडी से सौदागरों के चंगुल से छूटकर भागने में सफल हो गयी। लालची मां-बाप के पास जाने के बजाय उसने पुलिस की शरण में जाना बेहतर समझा। फिरोजाबाद में पुत्र की चाहत में एक पिता ने तांत्रिकों के चक्कर में आकर अपनी १२ साल की बेटी को मौत की नींद सुला दिया। ऐसी खबरें रोजमर्रा का हिस्सा बन चुकी हैं। फिर भी आस और विश्वास की किरणें अंधेरे में उजाला फैलाती रहती हैं।
छत्तीसगढ के महासमुंद में रहते हैं ट्रांसपोर्ट कारोबारी किशोर चोपडा और उनकी पत्नी पुष्पा चोपडा। दोनों को बेटों की चाहत थी, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। उनके यहां एक के बाद एक पांच बेटियों ने जन्म लिया। घर में जब भी बेटी जन्मती, पति-पत्नी उदास और निराश हो जाते। परिवार में ऐसा मातम छा जाता जैसे किसी की मौत हो गयी हो। हताश और निराश माता-पिता आंसू बहाने लगते। लडकियों को पालने-पोसने, पढाने-लिखाने और उनके शादी-ब्याह की अथाह फिक्र उनके मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह से हावी हो जाती। घर का हर सदस्य वारिस न होने की चिन्ता में डूबा नजर आता। रिश्तेदार और आसपास के लोग भी पांच-पांच बेटियों के होने पर तानाकशी करने से बाज नहीं आते। आखिरकार चोपडा दंपति ने बेटे की आस छोडकर बेटियों के अच्छे पालन-पोषण का निर्णय लिया। उन्हें पढाया-लिखाया और उस शिखर तक पहुंचाया जहां तक लडके भी बहुत मुश्किल से पहुंच पाते हैं। इसके लिए भी उन्हें लोगों के तानें सुनने पडे। कहा गया कि लडकियां तो पराया धन होती हैं। उन पर इतना खर्च करने से क्या फायदा...। फिर भी उन्होंने परवाह नहीं की। बेटियों को बाहर पढने के लिए भेजा। दरअसल, उन्होंने बेटियों की बेटों की तरह खुलकर परवरिश दी। आज चोपडा परिवार की पांचों बेटियां अमेरिका की बडी कंपनियों में कार्यरत होकर बुलंदियों के शिखर पर हैं। चोपडा परिवार को अपनी कामयाब बेटियों के नाम से पहचाना जाता है। जो लोग बेटियों को बेटा बनाने वाले मां-पिता पर तानों की बौछार करते थे, आज तारीफों की बरसात करते नहीं थकते। सोचिए अगर चोपडा दंपत्ति ने बेटियों को नजअंदाज करने की भूल की होती तो क्या उनके नाम की जयजयकार हो पाती? यकीनन नहीं। उन्हें भी गैरजिम्मेदार माता-पिताओं की तरह दुत्कारते हुए विस्मृति के गर्त के हवाले कर दिया जाता। यह भी सच है कि हमारे समाज में आज भी ऐसे लोग भरे पडे हैं जो लडकियों को परम्परा की बेडियों में जकड कर रखना चाहते हैं। आज भी हमारे समाज में अधिकांश बेटियों को अपनी मनचाही राह पर अकेले डर-डर कर चलना पडता है। अपनों के अविश्वास और संशय के दंशों को झेलना पडता है। चोपडा परिवार ने अपनी बेटियों पर भरोसा किया। उनके मन की बात को जाना-समझा। हर मोर्चे पर उनका साथ दिया तो बेटियों ने भी मेहनत और लगन के बलबूते पर अभूतपूर्व कामयाबी हासिल कर दिखायी। यह भी अक्सर देखने में आता है कि सगे-संबंधी भी लडकियों को बार-बार लडकी होने का अहसास कराते हुए उनके मनोबल को तोडने का गुनाह करने से बाज नहीं आते।
जबकि बेटियां बेटों से किसी भी मामले में कमतर नहीं होतीं। इस हकीकत पर देश की बेटियां लगातार मुहर लगाती चली आ रही हैं। पिछले दिनों कानपुर से लगे एक गांव की बेटी ने जान की बाजी लगाकर अपने पिता की जान बचायी। पिता हृदय नारायण घर के बाहर पुराने कुएं के पास कुछ जरूरी कागजात सुखा रहे थे। तभी हवा में कुछ कागजात उडकर कुएं में गिर गए। वे कागजात निकालने के लिए रस्सी के सहारे कुएं में उतर गए। कुआं काफी गहरा था। आक्सीजन की कमी के कारण वह बेहोश हो गए। बेटी ने मदद के लिए आसपास निगाहें दौडायीं। किसी ने भी घुटन भरे कुएं में उतरने की हिम्मत नहीं दिखायी। २२ वर्षीय बेटी ने खुद को रस्सी से बांधा और गहरे कुएं में उतर गयी। उसने भी जानलेवा घुटन महसूस की, लेकिन अपनी जान की परवाह न करते हुए बेटी ने बेहोश पडे पिता को कुएं से बाहर निकालकर ही दम लिया। राधा उर्फ रक्षा जब पिता को रस्से से बांधकर कुएं से बाहर खींच कर बाहर लायी तो वहां तमाशबीन बनकर खडे युवकों के चेहरे का रंग उड गया और शर्मिंदगी के मारे उनका वहां खडा रहना मुश्किल हो गया।
छत्तीसगढ के नक्सली समस्या से ग्रस्त दंतेवाडा जिले के नकुलनार गांव की अंजली सिंह गौतम की अभूतपूर्व वीरता की कहानी को पांचवीं की किताब में पढाया जा रहा है, ताकि छात्र-छात्राएं उससे प्रेरणा ले सकें। ७ जुलाई २०१० की आधी रात १२ बजे के आसपास अंजली के घर पर ५०० नक्सलियों ने उसके पिता की हत्या के इरादे से धावा बोल दिया। नक्सलियों की बेतहाशा गोलीबारी में उसके मामा और घर के एक कर्मचारी की मौत हो गई। पिता किसी तरह से बच गये। अंजली के छोटे भाई के पैर में गोली जा लगी और वह दर्द के मारे कराहने लगा। घायल भाई को नक्सलियों से बचाने के लिए अंजली ने उसे अपने कंधे पर लादा और सरपट दौड पडी। नक्सली लगातार चेतावनी देते रहे कि वह फौरन रूक जाए वर्ना गोली मारकर उसका खात्मा कर दिया जाएगा। नक्सली उसके पिता का पता भी पूछ रहे थे, लेकिन अंजली बस भागती ही चली गयी। उस पर लगातार गोलियों की बरसात होती रही, लेकिन किस्मत से उसे एक भी गोली नहीं छू पायी। उसने अपने घायल भाई को कंधे पर लादे-लादे अपने दादा के घर में सुरक्षित पहुंच कर ही दम लिया। गांववासी उसकी वीरता के कायल हो गये और अब तो उसकी कहानी को पूरा देश पढ रहा है। अंजली को राष्ट्रपति वीरता पुरस्कार समेत कई पुरस्कारों से नवाजा जा चुका है। अंजली तब मात्र १४ वर्ष की ही थी।

Thursday, July 7, 2016

गलत और सही का फैसला

राजस्थान के उदयपुर के निकट स्थित एक गांव की रहने वाली शांता को अपने पति के असहनीय दुर्व्यवहार के कारण अलग रास्ता चुनने को मजबूर होना पडा। वह कब तक शराबी, कबाबी, जालिम पति के साथ बंधी रहती। एक दिन वह अपने लिव-इन पार्टनर लालूराम के साथ घर से भाग गई। उसका पति भंवरलाल आग-बबूला हो उठा। मेरी घरवाली ने किसी गैर के संग रफू-चक्कर होने की सोची कैसे... कौन मर्द अपनी बीवी पर हाथ नहीं उठाता। यही तो मर्दानगी की निशानी है। इसको तो ऐसा सबक सिखाऊंगा कि इसका हश्र देखकर कोई दूसरी जनानी पति के साथ बेवफाई करने की कल्पना करने से पहले लाख बार सोचेगी। साली बदजात। गांववालों को भी भंवरलाल के साथ हमदर्दी थी। उनका भी यही सोचना था कि सात फेरे लेने के बाद पत्नी की चिता पति के घर से ही उठनी चाहिए। पत्नी पर हाथ उठाना और बेइज्जत करना तो पति का जन्मसिद्ध अधिकार है। पति के डंडे से ही पत्नियां काबू में आती हैं। २० जून २०१६ को शांता और लालूराम को ढूंढकर गांव लाया गया। भीड ने दोनों के कपडे उतारे, नग्न परेड कराई और दो दिनों तक जानवरों की तरह खूंटे से बांधे रखा। दोनों ने एक बहुत बडी गलती यह भी की थी कि उन्होंने एक साथ रहने की शुरुआत करने से पहले गांव के बुजुर्गों की स्वीकृति नहीं ली थी। मीणा जनजाति के 'नाता' रिवाज के मुताबिक कोई भी अपने वैवाहिक संबंध को तभी समाप्त कर सकता है जब वह क्षतिपूर्ति दे। शांता ने तो अपने पति भंवरलाल को छोडने से पहले उसको पैसे नहीं दिए थे और समुदाय के लोगों को भी अपने फैसले से अवगत नहीं कराया था। शांता का लिव-इन पार्टनर और उसका पति, दोनों ही मीणा समुदाय से ताल्लुक रखते हैं और दोनों का एक ही गोत्र है, इसके चलते ही मीणा समुदाय के नियमों के मुताबिक शांता के दूसरे रिश्ते को अस्वीकार कर दिया गया। शांता को नग्नावस्था में उसके पति के कंधे पर लादकर तीन किलोमीटर तक दौडाया गया। जहां भी वह थक कर रूकता वहीं ग्रामीण उसपर हमला बोल देते और डंडे, जूते-चप्प्ल बरसाते। एक अकेली नारी को अमानवीय बर्बर  सजा देकर ग्रामीणों को बेइंतहा खुशी हुई तो पति भंवरलाल का भी गर्व से सीना और चौडा हो गया। उसकी मर्दानगी भी तृप्त और संतुष्ट हो गयी। शांता फिर भी नहीं झुकी। उसने अपना फैसला बदलने से इंकार कर दिया। बहुत कम नारियां शांता की तरह अपनी राह और किस्मत बदलने का साहस दिखा पाती हैं। इज्जत की खातिर उन्हें बिना मुंह खोले घुट-घुट कर मरना मंजूर होता है। अपने देश में आज भी कई शहरी और ग्रामीण इलाकों में शादी ब्याह के मामले में युवतियों को खुद का निर्णय लेने की आजादी नहीं है। अपवादों को छोड दें तो यही सच्चाई है।
घर वाले जो फैसला लेते हैं उसे लडकियों को मानना ही पडता है। बाद में उनके साथ कैसी बीतती है इसकी कतई चिन्ता नहीं की जाती। मां-बाप की तरह लडकियां भी धनवान खाता-पीता परिवार देखकर लडके को बिना जांचे-परखे शादी के बंधन में बंध जाती हैं और फिर जीवनभर चुपचाप खून के आंसू पीते हुए नर्क भोगती रहती हैं। दरअसल वे इसे ही अपना मुकद्दर मानते हुए कोई दूसरा निर्णय लेने की हिम्मत ही नहीं कर पातीं।
आदिवासी युवती ममता की हासंदा के झारखंड भाजपा प्रदेश अध्यक्ष ताला मरांडी के बेटे के साथ शादी की बात पक्की हो गयी थी। विधायक के बेटे के साथ शादी होने की कल्पना ने ही ममता को सातवें आसमान पर पहुंचा दिया था। उसकी खुशियों का कोई पार नहीं था। उसके परिजनों के साथ-साथ सारा गांव गर्वित और प्रफुल्लित था। पहली बार किसी गांव की बेटी का ब्याह किसी बडे नेता के बेटे के साथ सम्पन्न होने जा रहा था। शादी की निमंत्रण पत्रिका बांटने के दौरान ममता को कहीं से खबर लगी कि उसका होने वाला पति मुन्ना अय्याश प्रवृत्ति का है। उसके किसी लडकी से जिस्मानी रिश्ते हैं यह खबर भी ममता तक पहुंची कि वह लडकी मुन्ना पर यौन शोषण के आरोप लगा रही है। ममता के मन-मस्तिष्क में विचारों और सवालों की आंधी चल पडी। अब वह क्या करे? क्या वह सब कुछ भूल-भालकर चरित्रहीन लडके से शादी कर ले? संथाली समाज में शादी तोडना बहुत बुरा माना जाता है। परिवार की भी बदनामी होती है। समय बहुत कम था और ममता को बहुत बडा फैसला लेना था। सोचने-विचारने के बाद ममता ने यही निष्कर्ष निकाला कि भले ही मुन्ना के पिता विधायक हैं, धनवान हैं पर उनका पुत्र तो चरित्रहीन और नालायक ही है। ऐसे लडके के साथ वह कभी खुश और संतुष्ट नहीं रह पायेगी। उसने मुन्ना से शादी न करने का फैसला लेकर सभी को चौंका दिया। यह २० जून २०१६ की बात है। २७ जून की शादी सम्पन्न होनी थी। पिता ने विधायक तक बात पहुंचा दी। नेताजी ने दबाव तंत्र भी अपनाया, लेकिन ममता नहीं मानी। पूरा परिवार उसके साथ था। ममता कहती है शादी के लिए न कहना आसान नहीं था। फिर लगा कि यह जिंदगी का सवाल है, अभी चुप रह गई तो कभी खुद को माफ नहीं कर पाऊंगी। मैट्रिक तक की पढाई कर चुकी ममता को स्कूल में भी यही पढाया गया था कि गलत और सही का फैसला सही समय पर करना जरूरी है। गलत का विरोध करने में सकुचाना और घबराना नहीं चाहिए। समय बीत जाने के बाद पछतावे के अतिरिक्त और कुछ नहीं बचता। देश में जगह-जगह नारियों के उद्धार के लिए नारी निकेतन खोले गए हैं। अधिकांश नारी निकेतन नेताओं और समाज सेवकों के द्वारा संचालित किये जाते हैं। बीते सप्ताह मध्यप्रदेश के शहर सतना में स्थित नारी निकेतन से भागने को मजबूर हुई दो युवतियों ने वहां के सच को इन शब्दों में बयां किया :
"नारी निकेतन में हम लोगों पर देहव्यापार करने का दबाव बनाया जा रहा था। आधी रात के बाद असमाजिक तत्व आकर हमारे साथ जबरदस्ती करते थे। उनसे बचने के लिए हम बाथरूम में छिप जाते थे। एक रात कुछ बदमाश घुस आए और हमारे यौन शोषण पर उतारू हो गए। खुद को बचाने के लिए हमने सब्जी काटने वाली हंसिया को अपना हथियार बनाया और उन पर टूट पडीं। हमारा उग्र रूप देखकर आखिरकार वे भागने को मजबूर हो गए। नारी निकेतन के वार्डन, सहायक वार्डन और चौकीदार पहले भी यहां लडकियों से देह व्यापार कराते रहे हैं।"
ये युवतियां अगर हिम्मत नहीं दिखातीं तो नारियों के उद्धार और सुधारगृह कहलाने वाले नारी निकेतन की शर्मनाक सच्चाई सामने नहीं आ पाती। युवतियों ने बताया कि नारी निकेतन में रात को वार्डन व अन्य कर्मचारी घर चले जाते थे। एक वृद्ध महिला व चौकीदार रहती थीं। रात को सीसीटीवी कैमरा भी बंद कर दिया जाता था। वासना के खिलाडी बेखौफ आते थे और लडकियों का देहशोषण करते थे। नारी निकेतन में देह व्यापार के लिए दबाव बनाये जाने के साथ-साथ युवतियों को बेचने के अपराध को भी अंजाम दिया जा रहा था। डेढ-दो लाख रुपये में बेबस युवतियों को दरिंदों के हवाले करने के बाद रजिस्टर में लिख दिया जाता था कि उनकी शादी हो गई है। नारी निकेतन के दुष्कर्मों का पर्दाफाश करने वाली युवतियों को भी दो-दो लाख में बेचने का सौदा कर दिया गया था। व्यापारी उन्हें लेने के लिए आने ही वाले थे। इसकी भनक लगने पर वे फौरन भाग निकलीं।