Thursday, May 25, 2017

मोदी की खुशकिस्मती

एक व्यंग्य चित्र मेरे सामने है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के समक्ष एक दुबला-पतला हिन्दुस्तानी खडा पूछ रहा है कि साहेब, वो १५ लाख पर ब्याज, साधारण मिलेगा या चक्रवृद्धि... तीन साल हो गये तो सोचा पूछ ही लूं। हां नरेंद्र मोदी को देश की सत्ता पर काबिज हुए पूरे तीन साल हो गए हैं। जिन लोगों की याददाश्त कमजोर नहीं है वे उनसे कई सवाल करना चाहते हैं। भले ही जवाब मिलें या न मिलें। भारतीय लोकतंत्र में जनता की तब तक पूछ है जब तक चुनाव नहीं हो जाते। चुनावों के बाद नेता शासक और जनता प्रजा हो जाती है। बेचारी प्रजा हमेशा शासको के रहमोकरम की राह ताकती रहती है। शासक अपने हिसाब से काम करते हैं। अधिकतर तो अतीत में किये गये अधिकांश वायदों को ताक में रख देते हैं। बेचारी प्रजा उन्हें बार-बार याद दिलाती रहती है। प्रधानमंत्री मोदी जब देशभर में लोकसभा चुनाव का प्रचार करते घूम रहे थे तब उन्होंने कई वादे किए थे और प्रलोभन के जाल भी फेंके थे। चुनावी मंचों पर उन्होंने सीना तान कर कहा था कि जैसे ही वे देश के प्रधानमंत्री बनेंगे, विदेशों में पडा देश का अपार धन वापस लाएंगे और हर भारतवासी के बैंक खाते में कम अज़ कम १५ लाख रुपये तो आ ही जाएंगे। १५ लाख रुपये कोई छोटी-मोटी रकम नहीं होती।
भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने यह कहने में जरा भी देरी नहीं लगायी कि चुनाव के समय जुमलों की बरसात करनी ही पडती है। यह १५ लाख का वादा भी दरअसल जुमला ही था, लेकिन लोग हैं कि भूलने को तैयार ही नहीं हैं। विरोधी दलों के नेताओं को भी जब भाजपा और प्रधानमंत्री पर वार करना होता है तो वे इस पंद्रह लाख का तीर छोड ही देते हैं। मोदी सरकार के कार्यकाल के तीन वर्ष पूरे होने पर विभिन्न राजनीतिक विद्धान अपने-अपने विचार प्रकट कर रहे हैं। वैसे भी तीन वर्ष का कार्यकाल कम नहीं होता। लोगों को आकलन करने का पूरा अधिकार है। तीन वर्ष पूर्व मोदी जब देश के प्रधानमंत्री बने थे तब देश में गजब की निराशा का वातावरण था। सोनिया-मनमोहन के दस वर्ष के शासन काल में भ्रष्टाचार और घोटालों की खबरों के सिवाय और कुछ सुनने और प‹ढने में नहीं आता था। देशवासी बदलाव चाहते थे। इसी के परिणामस्वरूप २०१४ के आम चुनाव में मोदी के नेतृत्व में भाजपा को ऐसा अभूतपूर्व जनादेश मिला जिसकी कल्पना नहीं की गई थी। मोदी ने सत्ता संभालते ही कहा था कि वे एक जनसेवक के रूप में 'सबका साथ, सबका विकास' की नीति पर चलते हुए शीघ्र ही देश की तस्वीर बदल देंगे। देशवासियों को तो उनपर भरोसा था ही, लेकिन क्या उनका कहा सार्थक हो पाया? क्या देशवासियों के अच्छे दिन आ गए हैं? क्या यह सरकार पहले वाली सरकारों से अलग है?
सबसे पहले तो इस सरकार की इस बात को लेकर तारीफ करनी होगी कि अभी तक कोई भ्रष्टाचार का मामला सामने नहीं आया। हालांकि विरोधी पार्टियों और नेताओं ने विपक्ष की भूमिका निभाते हुए मोदी सरकार को नकारा साबित करने का अभियान चला रखा है। महागठबंधन बनाकर मोदी को घेरने के तरीके खोजे जा रहे हैं। सरकार और भारतीय जनता पार्टी के नेता विपक्ष को खिसियानी बिल्ली करार दे रहे हैं। उनका कहना है कि मोदी सरकार का तीन साल का कार्यकाल अत्यंत प्रभावी रहा है। नरेंद्र मोदी की गरीबों के मसीहा की जो छवि बनी है उसे विपक्षी बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं। देशभर में बजते मोदी के नाम के डंके ने उनकी नींद उडा दी है। मोदी सरकार ने केंद्र की सत्ता संभालते ही बुनियादी बदलाव पर अपना ध्यान केंद्रित किया। मेक इन इंडिया, स्मार्ट इंडिया, डिजिटल इंडिया, स्वच्छता अभियान और नोट बंदी का ऐतिहासिक फैसला लेकर यह संदेश दे दिया है कि वे नये भारत का निर्माण की दिशा में कदम ब‹ढाया जा चुका है। 'बेटी पढाओ, बेटी बचाओ' उनके लिए महज नारा नहीं है। सरकार समाज के हर वर्ग के विकास के लिए प्रतिबद्ध है। तीन तलाक के मसले पर मोदी सरकार की लडाई को मुस्लिम महिलाओं ने भी बेहद सराहा है और अपना भरपूर समर्थन दिया है। बिजली की बचत के लिए एलईडी बल्ब के प्रयोग को प्रोत्साहन देना, गरीब परिवारों को मुफ्त रसोई गैस की उज्ज्वला योजना, फसल बीमा योजना, जन धन योजना से करोडों लोगों के लाभान्वित होने का दावा किया जा रहा है। जीएसटी के लागू होने से भी सकारात्मक नतीजों की उम्मीद की जा रही है। नोटबंदी के बाद आयकर दाताओं की संख्या करीब ९० लाख बढी है। फिर भी यह तो कतई नहीं कहा जा सकता कि मोदी सरकार पूरी तरह से जन कल्याणकारी सफल सरकार है और देश का जन-जन उसके क्रियाकलापों से प्रसन्न है। देशभर में सडकों का जाल बिछाने के साथ-साथ मेट्रो आदि का काम भी तेजी से चल रहा है, लेकिन इस देश की आधे से ज्यादा जनता रोटी, कपडा और मकान की समस्या से जूझ रही है। बेरोजगार आज भी रोजगार के लिए तरस रहे हैं। अशिक्षा और अपराध उफान पर हैं। सरकारी कार्यालयों में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का वही पुराना दस्तूर निभाया जा रहा है। महिलाएं अपराधियों के खौफ से डरी-सहमी रहती हैं। दलितों, शोषितों, वंचितों और गरीबों के चेहरे के रंग वैसे ही उडे नजर आते हैं जैसे सोनिया-मनमोहन काल में थे। यह भी सच है कि अधिकांश मीडिया भी मोदी के गुणगान में खुद को समर्पित कर चुका है। भाजपा भाग्यवान है। मोदी खुशनसीब हैं। थके-हारे निराश लोगों के समक्ष और कोई राजनीतिक विकल्प भी नहीं है। इसलिए तो दिल्ली के एमसीडी चुनाव में दस साल बाद भी भाजपा हैट्रिक लगाने में सफल हो गई। जबकि एमसीडी के भ्रष्टाचारी रवैय्ये और नालायकी के चलते दिल्ली की दुर्गति किसी से छिपी नहीं थी। इन दिनों अरविंद केजरीवाल, लालू प्रसाद यादव और चिदम्बरम परिवार के लोग बुरी तरह से भ्रष्टाचारों के आरोपों से घिरे हैं। ऐसे में जनता यह सोचने को विवश हो जाती है कि इन भ्रष्ट बेइमानों से तो अपने मोदी लाख गुना अच्छे हैं। दरअसल, देशवासियों को तथाकथित लुटेरों की भीड में मोदी एक ऐसे नेता के रूप में दिखायी देते हैं जो निष्कलंक हैं। वे अपने वादे पूरे करने के मामले में भले ही कमतर दिखते हैं, लेकिन एक चरित्रवान नेता की उनकी जो छवि बनी है वो सब पर भारी है। लोग अभी भी उम्मीद लगाए हैं कि अपने दो वर्ष के बचे कार्यकाल में वे कोई चमत्कार जरूर कर दिखाएंगे। कौन नहीं जानता कि भारतवासी आशा का दामन कभी भी नहीं छोडते।

Thursday, May 18, 2017

पहले बेटों को सुधारो

फिर वही। बार...बार वही। निर्दयता और हैवानियत की पराकाष्ठा। पढने और सुनने वाले थक गये पर यही नहीं थकते। यह नहीं सुधरते। क्या यह लोग अखबार नहीं पढते। टीवी नहीं देखते। क्या इन्हें निर्भया के कुकर्मियों के हश्र की जानकारी नहीं? एक और चुभती खबर १३ मई २०१६ की है और उसी दिल्ली की है जो बलात्कारों के मामले में बेहद कुख्यात हो गयी है। एक सरकारी स्कूल में छात्राओं की काउंसलिंग के दौरान आठवीं की एक छात्रा ने आखिरकार अपने गमों का पिटारा खोल ही दिया। उसने बिलखते हुए काउंसलिंग कर रही अधिवक्ता को बताया कि उसके पिता बीते सात वर्ष से उसके साथ दुष्कर्म करते चले आ रहे हैं। उसने पिता की इस हैवानियत के बारे में उस मां को भी बताया जिसने उसे जन्म दिया और उस शिक्षिका को भी जिसे ज्ञान और प्रकाश का स्त्रोत माना जाता है। दोनों ने उसकी कोई  सहायता नहीं की।
अपना दर्द बयां करते-करते यह १७ वर्षीय किशोरी जोर-जोर से रोने लगी। छात्र-छात्राओं को कानून एवं उनके अधिकारों की जानकारी देती अधिवक्ता हतप्रभ रह गर्इं। उन्होंने ऐसे हैवान पिता को सजा दिलाने की ठान ली और फौरन किशोरी को थाने लेकर गर्इं लेकिन लापरवाह पुलिस ने मामले की गंभीरता को समझने की कोशिश नहीं की। किशोरी को वापस फिर उसी घर में भेज दिया गया जहां नराधम पिता रहता है। आखिरकार पुलिस की घोर लापरवाही की शिकायत उच्च अधिकारियों तक पहुंचायी गई तब कहीं जाकर गंभीरता के साथ मामला दर्ज किया गया।
बहुचर्चित और बहुप्रचारित निर्भया मामले में फैसला सुनाए जाने के मात्र चार दिन बाद ही हरियाणा के शहर रोहतक में ड्यूटी पर जाने के लिए घर से निकली एक युवती को अगवा कर उस पर सामूहिक बलात्कार किया गया। मानवता को शर्मिंदा कर देने वाले इस बलात्कार कांड में सात लोग शामिल थे। युवती के साथ दुष्कर्म करने के बाद उसके प्राइवेट पार्टस को नुकसान पहुंचाया गया और उसकी पहचान मिटाने के लिए उसकी खोपडी पर कार चढा दी गयी। जिनकी वजह से उसकी खोपडी की हड्डियां चूर-चूर हो गर्इं और पूरा शरीर क्षत-विक्षत हो गया। सोनीपत की रहने वाली यह युवती तलाकशुदा थी। दरअसल, एक युवक इस युवती से जबरन शादी करना चाहता था। युवती के इनकार करने पर युवक गुंडागर्दी पर उतर आया और एक दिन अपने साथियों को साथ लेकर उसके घर जा पहुंचा। वह और उसके साथी बदतमीजी करने लगे तो युवती ने युवक के मुंह पर तमाचा जड दिया। इसी तमाचे का बदला लेने के लिए युवक ने अपने साथियों के साथ मिलकर इस शर्मनाक घिनौने काण्ड को अंजाम दे डाला।
१२ मई २०१७ की शाम गुडगांव की एक  युवती अपने दोस्त के साथ कनॉट प्लेस मूवी देखने गई थी। फिर दोनों एक रेस्तरां में चले गए और वहां से रात १ बजे निकले। युवती के दोस्त ने उसे ओला बुक करा दी। जब वह कैब से उतर कर घर की तरफ जा रही थी, तब तीन युवकों ने तेज रफ्तार कार में जबरन बिठा लिया। तीनों ने कार में ही बारी-बारी से उस पर बलात्कार किया और सुबह चार बजे के करीब नजफगढ बार्डर इलाके में छोड दिया। एक बाइक सवार की मदद से वह गुडगांव पुलिस के पास अपनी फरियाद लेकर पहुंची। युवती विधवा है और उसका एक पांच साल का बेटा है।
अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब राजस्थान के शहर जयपुर में एक युवती को नौकरी दिलाने का झांसा देकर एक नामचीन होटल के कमरे में रखा गया और नशीला पेय पिलाकर बेसुध कर दिया गया। २४ घंटे में २७ लोगों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। जिनमें होटल के मैनेजर से लेकर वेटर तक शामिल थे। इस होटल का मालिक कोई बडा राजनेता है। इसलिए यहां पर ऐसे कुकर्म होते रहते हैं और पुलिस गूंगी और बहरी बनी रहती है। वैसे भी राजस्थान महिलाओं पर अत्याचार के मामले में अग्रणी है। यहां पर एक महिला के मुख्यमंत्री होने के बावजूद बच्चियों और महिलाओं पर अंधाधुंध अत्याचारों का होना बेहद चिंतित और भयभीत करता है। उम्मीद तो यह की गई थी कि प्रदेश की बागडोर वसुंधरा राजे के हाथों में आने पर नारियों का उद्धार होगा। लेकिन जो हो रहा है वह बेहद शर्मनाक है। पुलिस में दर्ज होने वाले आंकडे बताते हैं कि इस प्रदेश में हर दिन पांच-छह बच्चियां दुष्कर्म का शिकार होती हैं। जबकि असली सच यह है कि बहुतेरे मामले तोे थाने में दर्ज ही नहीं होते। हकीकत यह कि यहां पर प्रतिदिन पंद्रह से बीस बेटियों की अस्मत लूटी जाती है। पुलिस के प्रति अविश्वास और भय के चलते लोग थानों में कदम ही नहीं रखते। बूंदी जिले के देई कस्बे में एक नाबालिग दलित छात्रा के साथ गांव के दो दबंग युवकों ने बलात्कार कर घने जंगल में फेंक दिया। उन्होंने तो उसे मृत मान लिया था। लेकिन छात्रा की किस्मत अच्छी थी इसलिए बच गई। उनके चले जाने के बाद वह किसी तरह से पुलिस थाने पहुंची। ड्यूटी पर विराजमान वर्दी वालों ने पहले तो रिपोर्ट दर्ज करने में टालमटोल की, लेकिन जब लोगों ने दबाव बनाया तो पीडिता का छह-सात घंटे के बाद मेडिकल करवाया गया। इस दौरान लज्जाहीन पुलिस वालों ने अश्लील सवालों की बौछार कर उसे मानसिक रूप से परेशान करने में कोई कमी नहीं की। 
आपको यह जानकर हैरानी होगी कि इस इक्कसवीं सदी में भी महिला मुख्यमंत्री के प्रदेश में कुरीतियों और अंधविश्वास का बोलबाला है। प्रेतबाधा, डायन प्रथा के नाम पर महिलाओं पर जुल्म ढाए जा रहे हैं। किसी गांव में किसी की बकरी, गाय, भैंस, बैल आदि मर जाए तो उसका ठिकरा किसी न किसी औरत पर फूटता है। गांव के तांत्रिक को जिस महिला से दुश्मनी निकालनी होती है उसे ही वह डायन घोषित कर देता है। उसके बाद तो उस पर जुल्मों का कहर टूट प‹डता है। उसे गांव में नंगा कर घुमाया जाता हैं। हाथों में जलते अंगारे रख तडपाया जाता है और तालियां पीटी जाती हैं।
फिरोजाबाद में एक महिला को उसके शौहर ने इसलिए मारा-पीटा और तलाक दे दिया क्योंकि उसने बेटी के लिए बीस रुपये मांगे थे। इतना ही नहीं इस हिंसक शौहर ने पत्नी और अपनी दोनों बेटियों को भी घर से धक्के मार कर निकाल दिया। पत्नी का कहना था कि उसके शौहर का किसी दूसरी के साथ चक्कर चल रहा है। देश में लगातार बढते दुव्र्यवहार और दुष्कर्म की वारदातों पर चिंता जताते हुए पुड्डुचेरी की उपराज्यपाल किरण बेदी ने देशभर के माता-पिताओं को नसीहत दी है कि वे बेटों को अच्छे संस्कार दें और उन पर कडी नजर रखें। बेटों की चाहत रखने वाले मां-बाप को यह भी सोचना और देखना चाहिये कि वो सोसायटी को क्या दे रहे हैं। उनके बच्चे बडे होकर क्या कर रहे हैं। और किन लोगों के साथ उठते-बैठते हैं। बेदी ने बडे दुखी मन से यह भी कहा कि अब नये भारत का स्लोगन 'बेटी बचाओ, बेटी पढाओ' की जगह 'बेटी बचाओ, अपनी-अपनी' कर देना चाहिए। अगर माता-पिता अपनी जिम्मेदारी सही तरीके से निभाएं तो दुष्कर्म और हत्या जैसी बर्बरता पर लगाम लग सकती है। लोगों को बेटा चाहिए, लेकिन कैसा? जो भविष्य में उनका ख्याल रखे और सोसाइटी में अपनी अहमियत रखे या वो जो हिंसक हो जाए। समाज के लिए खतरा हो। समाज के डर से बेटियों पर नजर रखी जाती है तो दूसरी तरफ बेटों को मनमानी करने की छूट दे दी जाती है। बेटे के बिगड जाने पर भी मां-बाप चुप्पी साधे रहते है। उन्हें डर रहता है कि बेटे के घर छोड देने पर उनके बुढापे का सहारा कौन होगा। जब बेटे मां-बाप पर भारी पडने लगते हैं, उनका अनादर करने लगते हैं। तब कहीं जाकर असली सच समझ में आता है। बेटियों को कमतर समझने की महाभूल उनकी नींद उडा देती है।

Thursday, May 11, 2017

न्याय की ज्योति

जिस निर्भया बलात्कार और हत्याकांड की बर्बरता ने पूरे देश को सिहरा और हिलाकर रख दिया था उसका आखिरकार ५ मई २०१७ को फैसला आ ही गया। देश के सबसे भयावह और चर्चित अपराधों में एक इस बलात्कार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने चारों दरिंदों की फांसी की सजा को बरकरार रखा। निर्भया के पिता ने इस फैसले को पूरे देश की बेटियों के लिए एक अच्छा फैसला बताया। वहीं मां आशादेवी ने कहा कि यह केस का अहम पडाव था जिसमें उनकी जीत हुई है। अब उन्हे रात को चैन की नींद आएगी। दोषियों को फांसी की सजा मिलने के बाद उनकी बेटी की आत्मा को भी शांति मिलेगी। यदि वह जीवित होती तो १० मई को वह २८ साल की होती। सुप्रीम कोर्ट का फैसला उसके लिए जन्मदिन का उपहार है। उन्होंने यह भी कहा कि उन्हें इस बात का हमेशा अफसोस रहेगा कि नाबालिग बलात्कारी को उसके किए की सजा नहीं मिली। ज्योति की ९५ वर्षीय दादी परमेश्वरी देवी को जब फैसले के बारे में बताया गया तो उन्होंने डबडबाई आंखों से कहा कि अपनी बहादुर बिटिया की याद उन्हें हर रोज सताती है। वह आज भी १६ दिसंबर २०१२ की वह काली रात नहीं भूल पातीं। अब बिटिया रानी तो वापस नहीं आ सकती पर इस फैसले से उसकी आत्मा को शांति अवश्य मिलेगी। दादा बोले कि कलेजे को ठंडक मिली है। अब मैं चैन से मर पाऊंगा कि मेरी पोती को इंसाफ मिला।
वारदात के वक्त निर्भया के साथ मौजूद उसके मित्र अवनींद्र पाण्डेय ने फैसले को न्याय की जीत बताया। उन्होंने भरी आंखों से कहा कि यह फैसला निर्भया के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि है। इस तरह के फैसले से पीडित परिवार को न्याय मिलने के साथ-साथ ऐसे दरिंदों में डर भी पैदा होगा। उस घटना के बाद दिल्ली को छोड पुणे को अपना ठिकाना बनाने वाले अवनींद्र को वो अंधेरी डरावनी रात भुलाये नहीं भूलती। बलात्कार की बर्बर वारदात के पांच दिन बाद मौत से जूझ रही २३ वर्षीय फिजियोथेरेपी छात्रा ने २१ दिसंबर २०१२ को एसडीएम के समक्ष अपना बयान दर्ज करवाते हुए कहा था कि बलात्कारियों को फांसी पर लटका दो या जिन्दा जला दो। निर्भया की यह इच्छा कुकर्मियों के प्रति उसके अंदर के अथाह गुस्से को बयां कर गई। उसने जब अपने साथ हुई हैवानियत को शब्दों में व्यक्त किया तो एसडीएम की आंखों से झर-झर आंसू बहने लगे। निर्भया का इलाज करने वाले डॉक्टरों का कहना था कि ऐसी हैवानियत उन लोगों ने अपने चिकित्सीय जीवन में पहले कभी नहीं देखी। निर्भया में अंतिम सांस तक जीने का ज़ज्बा था। उसने आखिर तक अपनी हिम्मत बनाये रखी। दोषियों की फांसी की सजा बरकरार रखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जिस राक्षसी तरीके से इस अपराध को अंजाम दिया गया उससे हर कोई व्यथित है। ऐसा लगता है कि यह शर्मनाक और डरावनी हकीकत किसी ऐसी दुनिया की है जहां इंसान नहीं, शैतान बसते हैं। दरिंदो ने युवती के साथ न सिर्फ बलात्कार किया, बल्कि क्रुरता की हर हद ही पार कर दी। युवती को बडी निर्दयता के साथ इधर-उधर घसीटा गया। उसके बाल पकड कर खींचे, कपडे फाड डाले। दोषियों ने युवती को मनोरंजन का साधन समझ उसके शरीर के विभिन्न हिस्सों को दांत से काटा। युवती के सारे शरीर पर दांत के निशान थे। अप्राकृतिक संबंध भी बनाए गए। सुप्रीम कोर्ट ने इस घटना को बर्बरता की हद करार देते हुए कहा कि दोषियों ने युवती के गुप्तांगों में लोहे की रॉड भी घुसाई और आंत तक को बाहर निकाल दिया। बाद में यही युवती की मौत की वजह बनी। इतने से भी इन दोषियों का मन नहीं भरा तो उन्होंने युवती और उसके दोस्त को नग्न अवस्था में चलती बस से फेंक दिया। वे तो युवती और उसके दोस्त को बस से कुचल कर मार देना चाहते थे, जिससे कि सबूत नष्ट हो जाए।
गौरतलब है कि १६ सितंबर, रविवार की रात २३ वर्षीय मेडिकल की छात्रा निर्भया अपने दोस्त अवनींद्र के साथ पिक्चर देखकर लौट रही थी। उसे मुनीरका से द्वारका जाना था। दोनों रात ९ बजे ऑटो से मुनीरका पहुंचे थे और बस स्टैंड के पास खडे होकर बस का इंतजार करने लगे। सवा नौ बजे एक सफेद प्रायवेट बस वहां पहुंची। बस में बैठने के लिए यात्रियों को आमंत्रित किया जाने लगा। ज्योति और अवनींद्र उसमें सवार हो गए। उनके बस में सवार होते ही बस का दरवाजा बंद कर दिया गया। बस में चालक सहित छह लोग सवार थे। कुछ दूर आगे जाने पर बस के परिचालक और उसके साथियों ने निर्भया के साथ छेडखानी शुरु कर दी। विरोध करने पर उन्होंने दोनों की रॉड से बुरी तरह से पिटायी की। इसके बाद बेखौफ होकर सामूहिक बलात्कार को अंजाम दे दिया। इस दरिंदगी के बाद दोनों को निर्वस्त्र हालत में चलती बस से नीचे फेंक दिया। दोनों सडक पर बेहोश पडे थे। इस बीच कई लोगों ने दोनों को देखा, लेकिन चुपचाप आगे बढ गए। कुछ समय बीतने के बाद कुछ लोगों की मानवता जागी और उन्होंने पुलिस को वारदात की सूचना दी। इस घटना के उजागर होने के बाद पूरा देश आंदोलित हो उठा। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र और कई देशों ने इस कांड की तीखी निंदा की थी।
वतन को कलंकित करने वाले इस मामले के सभी दोषियों को १४ सितंबर २०१३ को निचली अदालत में बनी फास्ट ट्रेक कोर्ट ने सजा-ए-मौत सुनाई थी। गौरतलब है कि छह दोषियों में से एक नाबालिग था। हालांकि वह कुछ ही महीनों बाद १८ साल का होने वाला था। उसे जुबेनाइल कोर्ट भेजा गया जहां उसे तीन साल की अधिकतम सजा के साथ बालगृह सुधार केंद्र भेजा गया था। फिलहाल वहां से सजा काटने के बाद उसे खुली हवा में सांस लेने की पूरी आजादी मिल गयी है। इस नाबालिग को लेकर देश में लंबी बहस छिड गई थी। जिसके बाद कानून में संशोधन किया गया और जघन्य अपराध में आरोपी १६ से १८ वर्ष के बीच के किशोरों पर सामान्य अदालत में मुकदमा चलाने के दरवाजे खोले गए। इस मामले में एक अभियुक्त रामसिंह ने अपराधबोध के चलते जांच के दौरान जेल में फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। यह मामला जब हाई कोर्ट गया तो वहां भी निचली अदालत के फैसले को सही ठहराते हुए मौत की सजा को बरकरार रखा गया था। हाई कोर्ट के इसी आदेश के खिलाफ दोषियों ने अपील दायर की थी जिसपर ५ मई २०१७ को सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। इस सामूहिक बलात्कार के दोषियों की मानसिकता कितनी गंदी थी इसका पता बलात्कारी मुकेश सिंह के उस इंटरव्यू से चलता है जो उसने बी.बी.सी. की एक डाक्युमेंट्री में दिया था। उसने बडी गुंडई, नंगई और बेहयायी के साथ कहा था कि ताली एक हाथ से नहीं बजती। किसी रेप में एक लडके से ज्यादा लडकी जिम्मेदार होती है। कोई चरित्रवान लडकी रात के ९ बजे के बाद बाहर नहीं घूमती। लडका और लडकी बराबर नहीं हो सकते। लडकियां घर का काम करने के लिए बनी होती हैं न कि गलत कपडे पहन कर इधर-उधर घूमने के लिए। सिर्फ बीस प्रतिशत लडकियां अच्छी होती हैं। हम जब बलात्कार कर रहे थे तब उसे हमें रोकने की कोशिश नहीं करनी चाहिए थी। उसे चुपचाप जो हो रहा था, होने देना था। तब हम अपना काम करने के बाद उसे छोड देते। उसे खरोंच तक नहीं लगने देते। ऐसा लगता है कि इस वहशी के दिल और दिमाग पर उस आसाराम बापू ने अपना पूरा कब्जा जमा लिया था जिसका मत था कि यदि बलात्कृता बलात्कारियों के पैर पकड कर गिडगिडाती और कोई विरोध नहीं करती तो उसकी जान बच जाती। आसाराम ने भी यह कहा था कि ताली दोनों हाथ से बजती है। यह अत्यंत ही दुखद है कि निर्भया के केस में फॉस्ट ट्रेक कोर्ट ने भी फैसला सुनाने में काफी समय लगा दिया। ऐसी वारदातों का फैसला शीघ्र से शीघ्र आना जरूरी है। निर्भया कांड के सामने आने के बाद लोगों में सरकार के खिलाफ भी भयानक रोष था। राजधानी दिल्ली और देश के विभिन्न शहरों में निकाले गये कैंडल मार्च के दौरान हजारों लोगों की आंखों में आंसू और गुस्सा देखा गया था। लोगों ने ऐसा आंदोलन चलाया कि अंतत: सरकार भी हिल गई। देश के कोने-कोने से बस यही आवाज उठ रही थी कि निर्भया के दोषियों को भरे चौराहे पर फांसी पर लटकाया जाए। दुराचारियों को नपुंसक बनाने की मांग भी जोर-शोर से उठी थी! देश के हजारों लोगों को यही लगा था कि उसके घर-परिवार की ही बेटी के साथ यह वहशियत की गई है। हजारों सजग पुरूषों और महिलाओं की रातों की नींद उड गई थी। ऐसी ही दिल्ली की एक अनाम महिला हैं जो महीनों तक सो नहीं पार्इं। सुप्रीम कोर्ट में दोषियों की फांसी बरकरार रहने पर जितनी खुशी निर्भया यानी ज्योति के माता-पिता को मिली उतनी ही खुशी उस महिला को मिली जो निरंतर सार्थक न्याय का इंतजार कर रही थी। इस महिला ने जंतर-मंतर पर निर्भया को लेकर प्रतीकात्मक जगह पर बनाये गए 'दामिनी चौक' पर १५९४ दिन तक लौ जलाए रखी। वह प्रतिदिन यहां आती थी और प्रभु से न्याय की प्रार्थना करती थी।

Thursday, May 4, 2017

'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ और आज का सच

राष्ट्रीय साप्ताहिक 'राष्ट्र पत्रिका' की ९वीं वर्षगांठ के इस विशेषांक की सम्पादकीय लिखते वक्त मन में कई विचार आ रहे हैं। वैसे भी जन्म दिवस आत्मविश्लेषण और चिन्तन-मनन का एक बेहतरीन अवसर होता है। यह अवसर तब और अनमोल हो जाता है जब यात्रा रोमांचक संघर्षों और अवरोधों से भरी हो। अपनी पत्रकारिता के लगभग ३९ वर्ष के कार्यकाल में इस कलमकार ने प्रिंट मीडिया के सफरनामे को बहुत करीब से देखा है। देश के विभिन्न अखबारों में नौकरी करने के बाद महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से २१ वर्ष पूर्व राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' के प्रकाशन ने पत्रकारिता के क्षेत्र के और नये-नये अनुभवों से रूबरू कराया। सच के मार्ग पर चलने में कैसी-कैसी तकलीफें आती हैं इसका भी पता चल गया। सजग पत्रकारिता की निष्पक्ष और निर्भीक राह पर चलने की जिद ने ही कालांतर में 'विज्ञापन की दुनिया' के साथ-साथ 'राष्ट्र पत्रिका' के प्रकाशन की प्रेरणा दी। आज दोनों साप्ताहिक आप सबके सामने हैं। पत्रकारिता के इतने वर्षों के खट्टे-मीठे अनुभवों ने हमें यकीनन और मजबूत बनाया है। जिस तरह से नदी अपने प्रवाह के मार्ग में मौजूद पत्थरों से टकराकर उनसे आक्सीजन ग्रहण करती है उसी तरह से हमने भ्रष्ट राजनेताओं, भूमाफियाओं, सरकारी ठेकेदारों, सत्ता के दलालों और तमाम काले कारनामों के सरगनाओं से टकराकर विभिन्न चुनौतियां का डटकर सामना करना सीखा है। इससे निश्चय ही हमारा मनोबल बढा है। संघर्ष करने की इच्छाशक्ति में भी अभूतपूर्व इजाफा हुआ है। सर्वधर्म समभाव... हमारी पत्रकारिता का मुख्य लक्ष्य है। देशहित हमारे लिए सर्वोपरि है।  साम्प्रदायिक ताकतों से निरंतर लोहा लेकर भी हमने नई ऊर्जा और शक्ति जुटायी है। वैसे यह भी सच है कि हमारी वास्तविक ताकत का स्त्रोत देशभर में फैले हमारे लाखों पाठक, शुभचिन्तक और विज्ञापनदाता हैं जिनकी बदौलत इस यात्रा में कभी व्यवधान नहीं आया। हमारी यात्रा निरंतर जारी है।
कई अखबारीलाल अक्सर प्रलाप करते रहते हैं कि पत्रकारिता और अखबार-प्रकाशन की राह में संकट ही संकट हैं। उनके आर्थिक संकट कभी खत्म होने का नाम ही नहीं लेते। दरअसल, यह वो कागजी प्रकाशक, संपादक, पत्रकार हैं जिनका आम पाठकों से कोई जुडाव ही नहीं होता। उनके अखबार में प्रकाशित होने वाले खबरें आमजन से कोई वास्ता नहीं रखतीं। उन्हें अपने आकाओं की चमचागिरी से ही फुरसत नहीं मिलती। ऐसे में उनके अखबार सिर्फ उनके घर और कार्यालय की शोभा बढाते रह जाते हैं। सजग पाठक उन्हें छूना भी पसंद नहीं करते।
किसी भी समाचार पत्र को टिकाए रखने के लिए बुनियादी जमीनी सरोकार, निष्पक्ष खबरें, निर्भीक कलम और नैतिकता की पूंजी का होना बहुत जरूरी है। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, गुजरात, उडीसा और आंध्रप्रदेश में सफलता और लोकप्रियता के कीर्तिमान रचता चला आ रहा 'राष्ट्र पत्रिका' आज देश के जन-जन की आवाज़ बन चुका है। दलितों, शोषितों, वंचितों के साथ-साथ भूख, भुखमरी, कर्ज में डूबे किसानों के सवाल उठाने में अग्रणी इस साप्ताहिक पर हमने कभी किसी भी धन्नासेठ, भूमाफिया और राजनीतिक दल का ठप्पा नहीं लगने दिया। शासकों, राजनेताओं, नौकरशाहों और पूंजीपतियों की चाकरी करना हमारे उसूलों के खिलाफ है। हमारी कलम हमेशा उन जनसेवकों व जनप्रतिनिधियों के भी खिलाफ चलती आई है जो सत्ता और पद के अहंकार में चूर होकर अपने असली फर्ज से विमुख हो जाते हैं। यही वजह है कि 'राष्ट्र पत्रिका' ऐसे तत्वों की आंखों में खटकता रहता है। हां, हमने अपने कर्तव्य को ईमानदारी से निभाने वाले नेताओं, मंत्रियों, नौकरशाहों, उद्योगपतियों आदि की तारीफ में लिखने में कभी कोई कंजूसी नहीं बरती।
वर्तमान में अधिकांश मीडिया की भूमिका समझ से परे है। खासतौर पर इलेक्ट्रानिक मीडिया सिर्फ भक्तिराग के रंग में रंगा नजर आता है। ऐसे में मुझे आपातकाल की याद हो आती है जिसे १९७५ में तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने देश पर जबरन थोपा था। कई विरोधी नेताओं, समाजसेवकों और बुद्धिजीवियों को पकड-पकड कर जेल में कैद कर दिया गया था। तब वतन के अधिकांश संपादकों, पत्रकारों और अखबारों के मालिकों ने अपनी आंखें बंद कर ली थीं और मुंह सिल लिए थे। नामी-गिरामी संपादकों ने भी लोकतंत्र को रोंदने वाली अहंकारी प्रधानमंत्री की आरती गानी शुरू कर दी थी। उनकी प्रशंसा में कविताएं और लेख लिखने की झडी लगा दी गई थी। नाम मात्र के ही संपादक, पत्रकार निष्पक्षता और निर्भीकता का दामन थामे नज़र आए थे। मीडिया के आचरण से हैरान-परेशान लालकृष्ण आडवाणी ने पत्रकारों को कोसते हुए कहा था-
"उन्हें झुकने को कहा गया था,
पर वे तो रेंगने लगे!"
आज देश में आपातकाल नहीं हैं फिर भी पता नहीं ऐसा कौन-सा खौफ (लालच कहें तो ठीक होगा) है कि अधिकांश पत्रकारों ने निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता करनी छोड दी है। जिसे देखो वही 'मोदी गान' और भाजपा की तारीफों के पुल बांधने में लगा है। उन्हें ऐसा लगता है जैसे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जो वादे किये थे उनकी पूर्ति कर दी गई है। रोटी, कपडा और मकान की समस्या का समाधान हो गया है। देश में अब किसी को खाली पेट नहीं सोना पडता। देश में चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। भाजपा के राज में पाकिस्तान के हौसले ठंडे पड गये हैं। नक्सलियों ने अपने हथियार फेंककर शांति के गीत गाने शुरू कर दिए हैं। चारों तरफ अमन-चैन है और हर तरफ विकास की गंगा बहने लगी है।
भाजपा शासित प्रदेशों से निकलने वाले लगभग सभी अखबार सरकारों के पक्ष में खडे नजर आ रहे हैं। उनके निकम्मेपन और भ्रष्टाचार की कहीं कोई चर्चा नहीं होती। पहले और आखिरी पन्ने पर वहां के मुख्यमंत्री की तारीफों के सिवाय और कुछ भी नहीं छपा नजर आता। शासकों की आरती में अपनी सारी ऊर्जा खपाकर पत्रकारिता को कलंकित करने पर तुले सफेदपोश, चापलूस संपादकों की बस यही चाहत दिखायी देती है कि किसी तरह से मुख्यमंत्री, मंत्रियों और बडे-बडे अफसरों की निगाह में आ जाएं और मनचाही मुराद पा जाएं। इस मामले में इलेक्ट्रानिक मीडिया ने सारी हदें ही पार कर दी हैं। चौबीस घण्टे सत्ताधीशों के महिमामंडन में तल्लीन रहता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तो उनके भगवान हो गये हैं। वे उन्हें खुश रखने के लिए पत्रकारिता की गरिमा को रसातल में ले जाने के लिए कोई कसर नहीं छोड रहे हैं। मीडिया के इस शर्मनाक पतन पर नरेंद्र मोदी भी यकीनन मन ही मन मुस्कारते होंगे। 'राष्ट्र पत्रिका' कभी भी अपने कर्तव्यों से विमुख नहीं हुआ और न ही होगा। स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि बेरोजगारी, अशिक्षा, महिलाओं के साथ दुराचार और तमाम अपराधों में लगातार बढोतरी हो रही है। टुच्चे पडोसी पाकिस्तान के खिलाफ देशवासी बेहद गुस्से में हैं। यह अहसानफरामोश देश अपनी कमीनगी से बाज़ नहीं आ रहा है। जवानों के सिर काटने की पाकिस्तानी सैनिकों की बर्बरता ने भारतवासियों के खून को खौला कर रख दिया है। देश प्रधानमंत्री से गुहार लगा रहा है कि-"न बात करो, न ललकार, अब तो बदला लो सरकार।" नक्सली समस्या भी विकराल रूप धारण करती जा रही है। कश्मीर के हालात भी जस के तस हैं। वतनवासी अब परिणाम चाहते हैं। नारों को क्रियान्वित होते देखना चाहते हैं। घिसे-पिटे आश्वासनों और खोखली तसल्ली के गीत सुनते-सुनते लोगों के कान पक चुके हैं। ऐसे में कहीं ऐसा न हो कि उनके सब्र का बांध ही फूट जाए। इसलिए पूरी तरह से जागो सरकार, अपने सारे वादे निभाओ और पाकिस्तान और नक्सलियों को ऐसा सबक सिखाओ कि वे फिर कभी सिर उठाने की कल्पना ही न कर सकें। और हां कश्मीर की समस्या का समाधान भी आपको ही करना होगा। इसके लिए कोई फरिश्ता आकाश से नहीं टपकनेवाला। 'राष्ट्र पत्रिका' की वर्षगांठ पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।