Thursday, August 26, 2010

आस्था के बाजारीकरण का अखबारी तमाशा

तीस लाख से ऊपर की जनसंख्या वाला शहर नागपुर देश के बीचों-बीच एक गुलदस्ते की तरह सजा हुआ है इसलिए यह शहर देश का हृदय स्थल कहलाता है। अपनी लय में थिरकने वाले इस शहर की कई ऐसी खासियतें हैं जो इसे एक अलग और खास पहचान देती हैं। इस शहर से पिछले छियासठ वर्षों से एक दैनिक अखबार प्रकाशित होता चला आ रहा है। इस उम्रदराज अखबार को आज भी अपने पाठकों को बांधे रखने के लिए तरह-तरह की कलाबाजियों का सहारा लेना पड रहा है। बीते सप्ताह इस अखबार की ओर से मोतियों का प्रसाद बांट कर खूब प्रचार बटोरा गया। यह मोती कोई ऐसे-वैसे मोती नहीं थे! इन मोतियों के प्रसाद को बांटने से पहले कई दिनों तक अखबार और पोस्टर-होर्डिंग के माध्यम से प्रचार का जबरदस्त फंडा अपनाते हुए ऐलान किया गया कि नवभारत की ओर से साईं चरणों में सिद्ध पारिवारिक सुख समृद्धि के प्रतीक २१,००० मोती एवं पावन भभूत का नि:शुल्क वितरण किया जाने वाला है। इन मोतियों को जिन बिल्डरों समाज सेवकों, व्यापारियो, नेताओं और अन्य कारोबारियों ने सपत्नीक 'सिद्ध'(!) किया था उनकी तस्वीरे भी अखबार में छापी गयी थीं। साईं भक्तों को अधिक से अधिक संख्या में शहर के साईं मंदिर में पहुंच कर 'सिद्ध मोती' और 'भभूत' का प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अखबार यह भी बताना नहीं भूला कि 'साईं भक्तों को मोती वितरण के पीछे का उद्देश्य घर-घर में समृद्धि और खुशहाली लाना है। यह मोती ना केवल साईं श्रद्धा के प्रतीक होंगे बल्कि इन्हें घर में रखने से हर तरह की खुशहाली की बरसात होगी। प्रसाद के रूप में वितरित होने वाले हर मोती के भीतर शांति और समृद्धि की गहराही छिपी हुई है। हजारों सीपों के बीच महासागर की अनंत गहराई में किसी एक सीप में एक मोती होता है। ऐसा मोती जब साईं चरणों में अपनी आराधना करके भक्त के पास पहुंचता है तो वह पारस पत्थर की तरह हो जाता है।'नागपुर के सबसे पुराने अखबार के कर्ताधर्ताओं ने एक नहीं पूरे इक्कीस हजार अनमोल मोतियों का 'प्रसाद' वितरित किया! वाकई यह कोई आसान काम नहीं था। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में अपनी पहुंच और साख की बदौलत एन.बी.बाण्ड का जाल फैलाकर लाखों लोगों के साथ विश्वासघात कर उनके सपने छलनी कर चुके नवभारत वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। आज जब देशभर में लोगों की भावनाओं को भुनाने और आस्था के साथ खिलवाड करने का खेल चल रहा है तो ऐसे में अखबार वाले भी पीछे रहने को तैयार नहीं हैं। तरह-तरह के दावों और भरपूर प्रचार के बाद जब शहर में स्थित साईं मंदिर में भभूत के साथ मोतियों का प्रसाद बांटा गया तब जो अफरा-तफरी मची उससे अखबार मालिक बेहद आनंदित हुए और उन्हें तो जैसे मनचाही मुराद मिल गयी। साईं का प्रसाद पाने के लिए भीड ऐसे टूट पडी कि पुलिस के लिए भी संभालना मुश्किल हो गया। महिलाएं और बच्चे भीड में बुरी तरह दबकर रोने और चिल्लाने लगे। कई महिलाएं बच्चों को गोद में लेकर घंटों रोती बिलखती रहीं। बहुतेरियों ने बडी मुश्किल से खुद को भीड से सुरक्षित निकाला और अपने घर पहुंच कर राहत की सांस ली। साईं मंदिर में गुरुवार के दिन वैसे भी भारी भीड रहती है और प्रसाद बांटने के लिए जानबूझकर ही इसी दिन को चुना गया था! मोती इक्कीस हजार थे और बुलावा लाखों को दिया गया इसलिए धक्का-मुक्की और पटका-पटकी के ऐसे भयावह हालात बन गये कि लोग मौत के मुंह में भी समा सकते थे। परंतु पुलिसकर्मियों की जबरदस्त मुस्तैदी और साईंबाबा की कृपा से किसी की जान नहीं गयी। पर यह कहां का न्याय है कि आपके पास 'प्रसाद' की मात्रा कम हो और आप पूरे शहर को ही नहीं पूरे प्रदेश को न्योता दे दें और लोगों की जान खतरे में डाल दें? सर्वधर्म समभाव का संदेश देने वाले शिर्डी के साईंबाबा के भक्तों की संख्या आज करोडों में है पर कुछ लोग भक्ति और आस्था के बाजारीकरण पर उतर आये हैं। साईं ट्रस्ट भी इस मामले में पीछे नहीं है। उसने तो लंदन में १९ सितंबर को आयोजित होने जा रहे साईं सम्मेलन में साईं पादुकाओं को ले जाने का दृढ निश्चय कर लिया था। साईं के सजग भक्तों को ट्रस्ट के धंधेबाज धुरंधरों की नीयत समझ में आ गयी और ऐसा धुआंधार विरोध शुरू हुआ कि ट्रस्टियों को अपना फैसला वापस लेना पडा। साईं भक्तों का कहना है कि सच्चा साईं भक्त खुद शिर्डी आकर पादुकाओं का दर्शन करता है। साईं की निशानी लोगों के घर नहीं जाती। जिनकी साईं के प्रति आस्था है वे हजारों मील का सफर तय कर शिर्डी पहुंच ही जाते हैं। इसके लिए किसी भी तरह के प्रकार के फंडे की कोई जरूरत नहीं है। यह तथ्य भी याद रखा जाना चाहिए कि जिस दिन नवभारत के द्वारा सिद्ध मोतियों का प्रसाद बांटा गया उसके कुछ ही घंटों बाद शहर के कुछ तथाकथित साईं भक्तों की एक जमात ने एक अजब-गजब पराक्रम कर डाला। नागपुर में एक इलाका है जो यशोधरा नगर कहलाता है। यहां पर एक प्लॉट काफी दिनों से खाली पडा था। कुछ लोगों के मन में यह विचार आया कि क्यों न यहां पर साईंबाबा की मूर्ति स्थापित कर मंदिर बना दिया जाए। विचार को साकार करने के लिए फौरन साईंबाबा की मूर्ति खरीद ली गयी और फिर उसे स्थापित कर दिया गया। मूर्ति को देखने और नमन करने के लिए लोगों की भीड उमड पडी। प्लॉट खाली जरूर पडा था पर लावारिस नहीं था। जैसे ही प्लॉट के मालिक नवाज अंसारी अहमद को इसकी खबर लगी तो उसके पैरों के तले की जमीन ही खिसक गयी। वह भागा-भागा अपने प्लॉट पर पहुंचा। उसने मूर्ति की स्थापना करने वालों को बताया कि श्रीमानजी आप जिस जमीन पर आप मंदिर बनाने जा रहे हैं उसका स्वामी और कोई नहीं मैं ही हूं। कृपया आप मूर्ति हटा लें। पर उसकी बात को अनसुना कर दिया गया और देखते ही देखते वातावरण तनावपूर्ण हो गया। बिगडते हालात की खबर पुलिस तक भी जा पहुंची और उसने किसी तरह से लोगों को समझा-बुझाकर तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रित करने में सफलता पायी।इस देश में धर्म, आस्था और विश्वास के साथ जितना विश्वासघात हुआ है उतना शायद ही और किसी के साथ हुआ हो। दैनिक नवभारत वाले जब साईंबाबा के नाम से मोती और भभूत बांटने की तैयारियों में लगे थे और धडाधड येन-केन-प्रकारेण अपने पाठकों को लुभाने में जुटे थे तब मेरे मन में लगातार यह विचार आ रहा था कि यह कैसा तमाशा है! इस पर अगर मैंने कलम नहीं चलायी तो उन साईं भक्तों के साथ घोर अन्याय होगा जो आज इस सच से दूर हैं कि साईबाबा के नाम पर भी बाजार सजने लगे हैं। माल बेचा जाने लगा है और अपनी डूबती साख को फिर से जमाने के हथकंडे अपनाये जाने लगे हैं। अभी तक तो जो कर्म ढोंगी साधु संत किया करते थे वो कर्म अब मीडिया भी करने लगा है... और मीडिया की देखा-देखी और 'चेहरे' पर कमर कसने लगे हैं...।

Thursday, August 19, 2010

बात और बंदूक

यह हिं‍दुस्तान है। यहां मुद्दों को सुलगाया जाता है। बेमतलब की बातों में देशवासियों को उलझाया जाता है। समस्याएं जब तक विषैली नहीं बन जातीं तब तक कोई इलाज नही तलाशा जाता। दरअसल यह देश देश नहीं एक प्रयोगशाला बन चुका है। हर कोई प्रयोग करने लगा है। जिन लोगों को देश चलाने का जिम्मा दिया गया है वे एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। यह लोग समस्या को जड से खत्म करने के लिए देशहित में एकजुट होकर एक स्वर में बोलने से कतराते हैं। आज जब देश एक और बटवारे की आहट से सशंकित और भयभीत है तब भी शासकों के चेहरे पर कोई शिकन नजर नहीं आती। देश बाहरी हमले को सहता आया है और उसने दुश्मनों को मुंहतोड जवाब देकर एक ओर दुबक कर बैठने के लिए विवश भी कर दिया है। पर घर के हमलावरों से वह बेहद घबराया हुआ है। अपनों के साथ खून की होली खेलने के लिए जिस बर्बरता और निर्ममता की जरूरत होती है वह इसके संस्कारों में नहीं है। इसी का फायदा जी भरकर उठाया जा रहा है।इसमें दो मत नहीं हो सकते कि आज देश नक्सलियों के आतंक से इस कदर जूझ रहा है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। यह आतंक अगर कहीं बाहर से आया होता तो उसे मिटाने के लिए ज्यादा ताकत नहीं लगानी पडती। इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने बेकाबू होती नक्सली समस्या को लेकर गहन ‍चिं‍ता व्यक्त करते हुए नक्सलियों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने और हथियार छोडकर बातचीत की राह अपनाने की सलाह दी। नक्सलियों को इस तरह से समझाने के अनेकों प्रयास किये जा चुके हैं पर नक्सली नेता खून-खराबे से बाज ही नहीं आना चाहते। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ही देश की रेलमंत्री ममता बनर्जी ने लालगढ की सार्वजनिक सभा में आंध्रप्रदेश में पुलिस मुठभेड में मारे गये नक्सली नेता आजाद के मामले की जांच की मांग कर डाली। ममता ने तो यहां तक कह डाला कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों द्वारा चलाये जा रहे अभियान पर भी विराम लगा दिया जाना चाहिए। ममता की यह मांग सोचने पर विवश करती है कि आखिर उनकी मंशा क्या है?ममता बनर्जी को एक संघर्षशील नेता का दर्जा मिला हुआ है। वह दूसरे राजनेताओं से निश्चय ही अलग हैं और उनकी सादगी भी सभी को लुभाती है। बंगाल में उन्हें जननेता के रूप में जो सम्मान मिलता चला आ रहा है वह हर किसी को नसीब नहीं होता। नक्सलवाद के बीज भी बंगाल से ही फूटे थे। इन बीजों को अगर खाद-पानी नहीं मिलता तो आज वे दरख्त नहीं बन पाते। ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने अगर पहल की होती तो हालात इतने बेकाबू नहीं हो पाते। नक्सलवाद आज की पैदावार नहीं है। ममता भी कोई नयी-नवेली नेता नहीं हैं। इस रोग से वे तब से वाकिफ हैं जब से इसने पैर पसारने शुरू किये थे। अपने बलबूते पर राजनीतिक संघर्ष कर बहुत ऊपर तक पहुंचीं ममता को भी अब टिके रहने के लिए लालू, पासवान और मुलायम जैसे शातिरों के शातिरपने का सहारा लेना पड रहा है।सवाल यह उठता है कि सरकार नक्सलियों के प्रति नर्म रुख क्यों अपनाये? सरकार ने तो उन्हें कई मौके दिये पर वे ही हैं जो अपनी हरकतों और दगाबाजियों से बाज नहीं आते। उन्होंने देश के विभिन्न प्रदेशों में कितने जवानों का खून बहाया और कितनी निर्मम हत्याएं कीं, ममता भी जानती हैं। ममता ही क्यों वे भी जानते हैं जो नक्सलियों की हिमायत में झंडे लेकर जब-तब खडे हो जाते हैं। बीते कई वर्षों से नक्सली आतंक से निरंतर आहत और घायल होते चले आ रहे ‍हिं‍दुस्तान में ऐसे कई नेता, बुद्धिजीवी और मानवाधिकार संगठन के कार्यकर्ता हैं जिन्हें नक्सलियों के हाथों मारे गये जवान नहीं दिखते पर वो नक्सली जरूर दिख जाते हैं जिन पर सरकार हाथ डालने की पहल करती है। उन्हें सरकार हिं‍सक नजर आती है और नक्सली बेबस और बेकसूर! यह तथाकथित बेकसूर कितने बेकसूरों की बलि ले चुके हैं और लेने पर आमादा हैं इसकी चिं‍ता-फिक्र करने की कोई तैयारी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों में कहीं नजर नहीं आती। इसकी असली सोच और नीयत भी पहेली बनी हुई है।स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के कई स्थानों पर नक्सलियों ने काले झंडे फहराये। माओवादी नेता आजाद की मौत को हत्या करार देने वाली ममता ने नक्सलियों और सरकार के बीच मध्यस्थता करने की मंशा भी जतायी। माओवादी नेता किशनजी ने भी संघर्ष विराम के संकेत तो दिये हैं, पर क्या ऐसा होगा इसे लेकर पूर्व को तरह अब भी संदेह बरकरार है। यह समस्या मिल बैठकर हल कर ली जाए इससे बेहतर बात और कोई हो ही नहीं सकती। पर इतिहास गवाह है कि नक्सली नेता जो कहते हैं उस पर अमल नहीं करते। वे हमेशा भ्रम पैदा करते रहते हैं। जब हमारे प्रधानमंत्री ओर गृहमंत्री यह कहते हैं कि पहले नक्सली हत्याएं करना बंद करें फिर बातचीत की पहल की जा सकती है तो इसमें गलत क्या है? सभी जान-समझ चुके हैं कि नक्सलियों पर जब भी दबाव पडता है तो उनके नेताओं की तरफ से बातचीत के सुझाव आने लगते हैं लेकिन तब भी उनकी हिं‍सक गतिविधियां थमती नहीं हैं। नक्सलियों के शुभचिं‍तक अपने लाडले नक्सलियों को इस तथ्य से तो अवगत करा ही सकते हैं कि बात के साथ बंदूक और खून खराबे के सिद्धांत का देश के लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं हो सकता...।

Thursday, August 12, 2010

निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की ज़िद

'विज्ञापन की दुनिया' का यह अंक जो आपके हाथ में है इसके प्रकाशन के साथ ही इस राष्ट्रीय साप्ताहिक ने अपनी यात्रा के १४ वर्ष पूर्ण कर १५ वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। १५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन इस सर्वधर्म समभाव के मूलमंत्र पर चलने वाले समाचार पत्र की यात्रा का शुभारंभ हुआ था। विज्ञापन की दुनिया का जब महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशन आरंभ हुआ था तब इसके नाम को लेकर भी तरह-तरह की बातें की जाती थीं और भाई लोग उपहास उडाते हुए यह कहने से भी नहीं चूकते थे कि भला यह भी कोई नाम है...! कइयों ने तो इसके अंधकारमय भविष्य की भविष्यवाणी भी कर दी थी। पर हमने अपने सजग पाठकों के साथ-साथ चलते हुए जिस लक्ष्य की ओर कदम बढाने और मंजिल तक पहुंचकर ही दम लेने की प्रतिज्ञा के साथ विज्ञापन की दुनिया की शुरुआत की थी उस पर आज भी कायम हैं। यात्रा अभी जारी है। हम यह मानते हैं कि पत्रकारिता वह जुनूनी पेशा है जिसका रास्ता और संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। जब इस साप्ताहिक के प्रकाशन की रूपरेखा बनायी जा रही थी तब हमने यह भी तय कर लिया था कि जिस तरह से साहित्य समाज का दर्पण होता है। वैसे ही 'विज्ञापन की दुनिया' भी देश और दुनिया का आईना होगा। सच चाहे कितना भी कडवा क्यों न हो उसे हर हाल और हालत में उजागर किया जायेगा। हम यह भी जानते थे कि यह रास्ता उतना आसान नहीं है। सोचने और करने के बीच बहुत बडा फासला होता है पर हमने इसी सोच और फासले को मिटाने की ठानी थी और इस जिद को पूरा करने में हम कितने सफल हुए इसका जवाब जानने के लिए इतना ही जान लेना काफी है कि आज विज्ञापन की दुनिया के पाठकों की संख्या लाखों में है। देशभर के सजग पाठकों को इस साप्ताहिक अखबार का बडी बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि उन्हें यकीन हो चुका है कि यही एकमात्र साप्ताहिक है जो सजगता, निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ पत्रकारीय दायित्व को धर्म समझ कर निभाता है और मुखौटे नोचने से नहीं घबराता। बीते चौदह वर्ष के दौरान सफेदपोश अराजक तत्वों को जिस रफ्तार और निर्भीकता के साथ बेनकाब किया गया उससे बौखला कर अपराधियों के गठजोड से फलने-फूलने वाले नेताओं और भूमाफियायों ने इस अखबार को बंद करवाने के लिए न जाने कितने हथकंडे अपनाये। पर हम अपने मार्ग पर डटे रहे, डटे हैं और डटे रहेंगे। अखबार के माध्यम से मुनाफा कमाना हमारा कभी उद्देश्य नहीं रहा। न ही हमने कभी भी पूंजीपतियों और राजनेताओं के आश्रय की तलाश की। उत्साही पत्रकारों की टीम और समर्पित सहयोगियों की बदौलत ही विज्ञापन की दुनिया ने यह मुकाम हासिल किया है कि आम आदमी इसे अपना साथी समझता है। आज के दौर में मीडिया आम आदमी के सरोकार से निरंतर दूर होता चला जा रहा है पर हमारा यह मानना है कि कोई भी अखबार सिर्फ आमजन के दम पर ही चल सकता है। यही वजह है कि विज्ञापन की दुनिया में उन्हीं खबरों को प्रमुखता दी जाती है जिनका आम आदमी से जुडाव होता है। आम आदमी के जीवन के कई रंग-रूप होते हैं और विज्ञापन की दुनिया में उसी तस्वीर को पेश किया जाता है। इधर के कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि कुछ पत्रकारों पर भी ढेरों उंगलियां उठने लगी हैं। भ्रष्ट राजनेताओं और तरह-तरह के माफियाओं के साथ उनका नाम जोडा जाने लगा है। जिस तरह से कभी बिकाऊ नेताओं पर आरोपों की बौछार होती थी वैसे ही बौछार पत्रकारों और सम्पादकों पर होने लगी है। यह लोगों का आक्रोश ही है जो पत्रकारिता को 'वेश्या' कहने से भी नहीं कतराता। ऐसा तो हो नहीं सकता कि इस रोष के पीछे कोई ठोस वजह न हो। वजह है, बहुत बडी वजह है जिससे वो तमाम बुद्धिजीवी किस्म के सम्पादक भी वाकिफ हैं जो लाखों रुपये महीने की पगार लेकर पूजीपतियों के अखबारों में नौकरियां बजाते हैं और तब तक चुप्पी साधे रहते हैं जब तक उन पर कोई आंच नहीं आती। यही वो कलम के खिलाडी हैं जो विभिन्न मंचों पर मीडिया के बिक जाने और 'पेड न्यूज' का रोना रोते हुए ‍घ्‍ाि‍‍डयाली आंसू बहाते हैं। दरअसल आज इन मुखौटेबाजों से भी सावधान हो जाने का वक्त आ गया है। यह लोग भ्रष्ट और बिकाऊ नेताओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। इन्हें अगर वास्तव में मीडिया की बरबादी और बदहाली की इतनी ि‍चंता होती तो यह उन धनासेठों के यहां चाकरी करने से पहले हजार बार सोचते...। दरअसल इनमें ऐसा करने का दम ही नहीं है। यह तो सिर्फ दिखावे के शेर हैं, जो अपने मतलब के लिए दहाडते रहते हैं और पूजीपतियों के अखबारों के लिए ढाल बन उन्हें जनता और सरकार को उल्लू बनाने और लूटने के भरपूर अवसर मुहैय्या कराते रहते हैं। विज्ञापन की दुनिया ने मीडिया के बहुत बडे वर्ग में रच-बस चुके इस शातिराना खेल और इसके खिलािडयों को अनेकों बार बेनकाब किया है और इनकी शैतानियों के विषैले दंश को भी झेला है। हमें कई बार धमकियों भरी भाषा में यह समझाने की भी कोशिश की गयी कि हमें अपनी बिरादरी के लोगों के बारे में भूल कर भी कलम नहीं चलानी चाहिए। हर अखबारनवीस को दूसरे का साथ देना चाहिए। अधिकांश अखबार वाले इसी उसूल पर चलते हैं। जिनसे उनके प्रगाढ रिश्ते होते हैं, उन्हें हत्यारा और लूटेरा होने के बावजूद भी कलम की नोक से छूआ तक नहीं जाता।विज्ञापन की दुनिया को ऐसे नियम-कायदे कतई स्वीकार नहीं हैं, जिनकी आड में दोस्ती, रिश्तेदारी और धंधेबाजी निभायी जाए। माफियाओं, भ्रष्टाचारियों, फरेबियों, डाकूओं और चोर लूटेरों में अपने-पराये का भेदभाव हम पत्रकारिता के धर्म को भ्रष्ट और कलंकित करने के भागीदार नहीं बनना चाहते। न ही हम भीड में शामिल हो सकते हैं। सच की लडाई लडने के लिए हमें अकेले चलना आता है और अपनी राह बनाना भी जानते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि देश के अधिकांश लोगों को आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद भी यह आजादी झूठी लगती है और देश को सच्चे दिल से प्यार करने वालों के दिलों में असंतोष और आक्रोश ने घर कर लिया है? दरअसल जब देश आजाद हुआ था तब लोगों के मन में यह विश्वास जागा था कि अब उनकी सभी समस्याओं का निदान हो जायेगा। पर आज के हालात देखकर यह कहने को विवश होना पडता है कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए देशभक्तों ने जो कुर्बानियां दी थीं, उनका प्रतिफल आम जन को नहीं मिल पाया। चंद मुट्ठी भर चालाकों ने इतना कुछ समेट लिया कि देश खुद बेबस नजर आने लगा है। राज्यों की सीमा और भाषा को लेकर लडाई-झगडे शुरू हो चुके हैं। ऐसे नेताओं की भरमार होती चली जा रही है जो भारत देश की बात करने के बजाय प्रदेश की बात करते हैं और वे यह भी चाहते हैं कि लोग उनका अनुसरण करें। देश में ऐसी राजनीतिक पार्टियां उफान पर हैं, जिनके नेताओं ने देश को तोडने का षडयंत्र रचने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है...। राज्य, प्रांत, भाषा, जाति, धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वालों ने एक दूसरे के बीच दूरियां बनाने और शत्रुता के बीज बोने का जो अनवरत अभियान चला रखा है उसे खुली आंखों से देखने के बाद भी कई मीडिया दिग्गज तटस्थ बने हुए हैं। जैसे उन्हें इससे कोई लेना-देना ही न हो। पर हमारी निगाह में यह बहुत बडा अपराध है। देश टूटने और जलने के भयावह खतरे से जूझ रहा हो और हम चुप्पी साधे रहें... यह गद्दारी न तो हम कर सकते हैं और न ही होने दे सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भले ही हमें कितने विरोधों और साजिशों का सामना करना पडे पर हम अपनी सोच और राह नहीं बदल सकते। हम जानते हैं... और हमें पूरा यकीन है कि देशभर के सजग पाठक और शुभचि‍ंतक हमारे साथ हैं, और रहेंगे। फिर ऐसे में घबराना कैसा...! देश भर में फैले तमाम समर्पित पाठकों, शुभचि‍ंतकों, संवाददाताओं, लेखकों एजेंट बंधुओं और तमाम सम्पादकीय सहयोगियों को स्वतंत्रता दिवस एवं विज्ञापन की दुनिया की वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं...।

Thursday, August 5, 2010

वे वेश्याएं हैं तो तुम क्या हो?

वर्धा में स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय ि‍हंदी महाविद्यालय की साख पर एक बार फिर बट्टा लग गया। इस बार यह बट्टा किसी शराबी-कबाबी ने नहीं बल्कि एक बहुत बडे 'विद्वान' ने लगाया। इस विद्वान पुरुष का नाम है विभूति नारायण राय। राय इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति हैं। यह ओहदा कोई ऐसा-वैसा ओहदा नहीं है। इसकी अपनी एक गरिमा है। वैसे ही जैसी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम और पैगाम की। वर्धा में उनके नाम पर ि‍हं‍दी महाविद्यालय खोले जाने के पीछे निश्चय ही यह मकसद रहा होगा कि उनकी कर्मभूमि के जरिये देश और दुनिया तक अि‍हंसा के पुजारी के जनकल्याणकारी संदेश अबाध रूप से पहुंचते रहें, ि‍हंदी भाषा फलती-फूलती रहे और वर्धा का नाम भी रोशन होता रहे। इस महान दायित्व को लेखक विभूति नारायण ने इतनी सूझबूझ और दूर अंदेशी के साथ निभाया कि देश और दुनिया के लोग थू...थू करते रह गये। सजग महिलाओं का आक्रोश इस हद तक जा पहुंचा कि अगर यह बदतमीज उन्हें कहीं मिल जाता तो वे उसे भरे चौराहे पर नंगा कर चूि‍डयां पहनाने से नहीं चूकतीं। राय खुद को बहुत बडा लेखक समझते हैं। उन्हें अपनी अक्ल और कलम पर बहुत फख्र है। पुलिस अधिकारी रह चुके हैं इसलिए कुछ भी कहने, करने और बकने से बाज नहीं आते। जानते हैं कि कोई भी इनका बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। देश के नामी-गिरामी राजनेताओं तक भरपूर पहुंच रखते हैं इसलिए महिलाओं के बारे में कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। इसी मनचाही आजादी की राह पर उद्दंड सांड की तरह छलांगें लगाते हुए राय ने एक साक्षात्कार में महिला लेखिकाओं के बारे में जहर उगलते हुए कहा है कि ''लेखिकाओं में यह साबित करने की होड लगी है उनसे बडी छिनाल कोई नहीं है... यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक कितने बिस्तरों में कितनी बार हो सकता था...।''महिला लेखिकाओं के बारे में पूरे होशो-हवास के साथ ऐसा गंदा बयान देने वाले विभूति को हर किसी ने लताडा, कोसा और जी भरकर बददुआएं दीं। देशभर में शायद ही ऐसा कोई लेखक और लेखिका बचे होंगे जिन्होंने इस बेलगाम 'पुरुष वेश्या' को दुत्कारा और फटकारा न हो। देश की जानी-मानी लेखिकाओं को वेश्या का दर्जा देने वाले इस दागी शख्स में कुंठा और ईष्या कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वे लेखक हैं और कुछ उपन्यास भी लिख चुके हैं जिन्हें उनकी पाली-पोसी चौकडी के अलावा और किसी ने कभी भी नहीं सराहा। दूसरी तरफ मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, जया जादवानी जैसी कई खुले दिमाग की आजाद ख्याल महिला लेखिकाएं हैं जिन्होंने असंख्य पाठकों में अपनी जगह बनाते हुए लेखन के क्षेत्र में पुरुष लेखकों के वर्चस्व पर जमकर सेंध लगायी है। यही हकीकत विभूति राय जैसे तमाम लेखकों को कचोटती रहती है और उनके अंदर जमा हो चुकी गदंगी बाहर आये बिना नहीं रहती। इधर के वर्षों में कई पुरुष लेखकों की ऐसी पुस्तकें प्रकाशित होकर चर्चा में आयी हैं जो दरअसल में उनकी आत्मकथा ही हैं। अपनी आत्मकथा में लेखकों ने अपने विवाह के पूर्व के इश्कियां किस्सों से लेकर विवाहेतर संबंधों का चटकारे ले-लेकर वर्णन किया है। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने वेश्याओं के कोठों तथा मयखानों में बेसुध होकर अपनी जवानी गलायी और अपनी आत्मकथा में इस मदमस्त अय्याशी का इस तरह से ि‍ढंढोरा पीटा जैसे उनसे बडा इस दुनिया में और कोई मर्द पैदा ही नहीं हुआ हो। अपने यहां ऐसे दिलफेंक किस्म लेखक भी हैं जो खूबसूरत लेखिकाओं पर डोरे डालने से बाज नहीं आते और जब असफलता हाथ लगती है तो लेखिकाओं को ही चरित्रहीन घोषित कर देते हैं। ऐसे चरित्रहीन लेखकों के असंख्य अफसाने इतिहास में दर्ज हैं। मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा जैसी यथार्थ लेखन करने वाली जीवंत लेखिकाओं ने जब अपनी आत्मकथा में पुरुषों की इस जगजाहिर प्रवृति पर चोट की तो हंगामा बरपा हो गया। विवाहेतर संबंधों, देह के विभिन्न रिश्तों, असली-नकली प्रेम संबंधों और पुरुषों की नपुंसकता और बेवफायी पर महिला लेखिकाओं का कलम चलाना और भोगे हुए यथार्थ को सामने लाना विभूति राय जैसों को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने महिला लेखिकाओं को वेश्या कहने की जुर्रत कर डाली! वाकई यह कितनी हैरानी की बात है कि ऐसे घटिया और लंपट किस्म के व्यक्ति को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय ि‍हंदी महाविद्यालय वर्धा का उपकुलपति बना दिया गया! विभूति की लंपटता का एक किस्सा कहानीकार महेंद्र दीपक ने भी बयां किया है। दीपक १९७१ से लंदन में बसे हैं। ि‍हंदी के कहानीकार हैं इसलिए स्वाभाविक है कि उनके मन में भारतीय साहित्यकारों के प्रति सम्मान और श्रद्धा कूट-कूट कर भरी हुई थी। गत माह लंदन में एक विशेष साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित हुआ था। इसमें भाग लेने के लिए कुछ साहित्यकारों के साथ विभूति नारायण भी वहां पहुंचे थे। कहानीकार दीपक ने भारतीय लेखकों को अपने घर सादर आमंत्रित किया जिनमें विभूति राय भी शामिल थे। दोपहर का समय था। विभूति पूरी तरह नशे में टुन्न थे। दीपक के घर पहुंचते ही वे सोफे पर लुढक गये। उनकी जवान बहुओं को राय का आंखें फाड-फाड कर ताकना और घूरना बेहद बुरा लगा। किचन में सहायता के लिए पडौस से आयी लडकी ने तो दीपक को यहां तक कह डाला कि दादाजी आप कैसे-कैसे लोगों को घर पर बुलाते हैं? अस्सी वर्षीय लेखक दीपक का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी खुद को इतना अपमानित महसूस नहीं किया था।दीपक की उपकुलपति महोदय से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है इसलिए उन पर अविश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा व्यक्ति इतने गरिमामय ओहदे पर क्यों और कैसे बैठाया गया? अब एक सवाल और भी है कि विभूति नारायण राय का यह घटिया साक्षात्कार जिस पत्रिका ने छापा उसकी इसके पीछे कौन-सी मंशा और मजबूरी थी? हाल ही में ि‍हंदी के कथाकार अवध नारायण मुदगल का साक्षात्कार पढने में आया। पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये जाते हैं उसका खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि १९८२ में उन्हें 'सारिका' पत्रिका के संपादन का दायित्व सौंपा गया था। मालिक चाहते थे कि किसी भी तरह से पत्रिका का सर्कुलेशन बढना चाहिए। दरअसल उन्हें सम्पादक का पद येन-केन-प्रकारेण पत्रिका का सर्कुलेशन बढाने की शर्त पर ही सौंपा गया था। अवध नारायण मुदगल ने अपना दिमाग लडाया। देह व्यापार पर पांच विशेषांक निकालने की घोषणा कर दी। जब पहला अंक बाजार में आया तो पत्रिका की बिक्री में इतना उछाल आया कि मालिक भी दंग रह गये। बाद के अंकों ने तो और भी धमाका किया और सारिका हजारों-हजारों प्रतियों के बडे हुए सर्कुलेशन के साथ हाथों-हाथ बिकने लगी।उपकुलपति विभूति नारायण राय का साक्षात्कार जिस प्रतिष्ठित पत्रिका में छपा है उसका नाम है - नया ज्ञानोदय। इसके संपादक हैं रवींद्र कालिया जो खुद एक स्थापित कथाकार हैं। उन्होंने जुलाई-अगस्त के जो विशेषांक बाजार में उतारे उन्हें नाम दिया गया ''बेवफाई सुपर विशेषांक।'' अगस्त २०१० के विशेषांक में ही ि‍हंदी लेखिकाओं को वेश्या करार देने वाला साक्षात्कार छापा गया है...। एक और अदभुत सच यह भी है कि उपकुलपति और संपादक महोदय दोनों की बीवियां पदमा राय और ममता कालिया भी लेखिकाएं हैं और ममता कालिया तो विभूति की मेहरबानी से महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा में नौकरी भी करती हैं और मोटी तनख्वाह पाती हैं। विभूति नारायण राय और र‍वींद्र कालिया ने अपनी मनोवृत्ति उजागर कर दी है। यह लोग उस दंभी पुरुष समान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी सामंती सोच आज भी ि‍जंदा है। यह लोग कभी सुधर नहीं सकते। कवियत्री रंजना जायसवाल ने अपनी कविता 'तुम्हारा भय' में ऐसे ही मुखौटेबाजों का असली चेहरा दिखाया है:

रिक्तता भरने के लिए

तुमने चुनी स्त्री

और भयभीत हो गए।

तुमने बनाए

चिकें...किवाड...परदे

फिर भी तुम्हारा डर नहीं गया

तुमने ईजाद किए

तीज-व्रत पूजा-पाठ

नाना आडंबर

मगर डर नहीं गया

तुमने तब्दील कर दिया उसे

गूंगी मशीन में

लेकिन संदेह नहीं गया

जब भी देखते हो तुम

खुली खिडकी या झरोखा

लगवा देते हो नई चिकें

नए किवाड-नए पर्दे

ताकि आजादी की हवा में

खुद को न पहचान ले स्त्री।