Thursday, December 25, 2014

दिलों में बसता है हिन्दुस्तान

सन्नाटा जब चीखता है तो बहरों के कान भी कांपने लगते हैं। आज देश में कुछ ऐसे ही हालात हैं। लोग देख भी रहे हैं और चिंतन-मनन भी कर रहे हैं। चुप्पी भी ऐसी है कि कभी भी तीखे शोर में तब्दील हो जाए। धर्मान्तरण और घर वापसी को लेकर जो बवाल मचा है वह कहीं तूफान में न बदल जाए इसका भी भय सताने लगा है। सवाल यह भी उठने लगे हैं कि असल में देश में किसकी सत्ता है? भाजपा के नरेंद्र मोदी की या राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उन तमाम हिन्दू संगठनों की जो धर्मान्तरण को लेकर एकाएक ऐसे सक्रिय हो गये हैं जैसे उन्हें इन्हीं दिनों का ही बेसब्री से इंतजार था। ऐसे में याद आते हैं वो दिन जब नरेंद्र मोदी लोकसभा चुनाव के दौरान देश के सर्वांगीण विकास के आश्वासन देते नहीं थकते थे। मतदाताओं को लुभाने के लिए उन्होंने क्या-क्या नहीं किया। भ्रष्टाचार को जड से खात्मा करने का उनका गगन भेदी नारा था और विदेशों में जमा काला धन १०० दिनों में वापस लाने का उनका अभूतपूर्व वायदा था। रिश्वतखोरी, महंगाई, बेरोजगारी, हिंसा और नारियों पर होने वाले अत्याचारों की पूरी तरह से खात्मे की तो जैसे उन्होंने कसम खायी थी। ऐसे में देशवासियों ने नरेंद्र मोदी पर भरोसा करने में कहीं कोई कमी और कंजूसी नहीं की। उन्हें देश की सत्ता सौंप दी। उन्हें लगा कि कोई फरिश्ता ज़मीन पर उतरा है जो उन्हें उनके तमाम कष्टों से मुक्ति दिला देगा। वैसे इस धरती पर पहले भी कई फरिश्ते आते रहे हैं और तथाकथित जादू की खोखली छडी घुमाते रहे हैं। लेकिन मोदी के अनूठे अंदाज ने लोगों को फिर से एक बार यकीन करने को मजबूर कर दिया। लेकिन उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद धीरे-धीरे मौनी-मुद्रा अपनानी शुरू कर दी। लोगों को लगा यह तो कुर्सी का तकाजा है। शालीनता का जामा ओढना ही पडता है। चुप्पी साधनी ही पडती है। पर सब्र की भी हद होती है। तभी तो कई संशय और सवाल उठने लगे हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि खेल और खिलाडियों को नरेंद्र मोदी की अंदर ही अंदर रजामंदी हासिल है। जहां समस्याओं का अंबार लगा हो। लोगों का जीना मुहाल हो। आतंकी फिर सिर उठा रहे हों... वहां गडे मुर्दे उखाडने की कोशिशों पर कोई अंकुश नहीं लगाया जा रहा! देश में जिस तरह का धार्मिक और राजनीतिक बवाल मचा है उससे यह चिंता भी होने लगी है कि कहीं नरेंद्र मोदी का पूरा का पूरा कार्यकाल हंगामों में ही तो नहीं बीत जाने वाला। देशवासी फिर एक नये धोखे के शिकार होकर हाथ मलते तो नहीं रह जाएेंगे?
संघ प्रमुख मोहन भागवत ने एक हिन्दू सम्मेलन में ऐलानिया स्वर में कहा कि जवानों की जवानी जाने से पहले हिन्दू राष्ट्र बना दिया जाएगा। हम एक मजबूत हिन्दू समाज बनाने की कोशिश कर रहे हैं। जो भटक गए हैं, उन्हें फिर से अपने घर वापस लाना है। उन बेचारों का कोई दोष नहीं था। उनका तो जबरन या लालच देकर धर्म परिवर्तन कराया गया था। उत्तरप्रदेश में आगरा का धर्मान्तरण का मुद्दा अभी शांत भी नहीं हुआ था कि टुडला के नगला क्षेत्र में २० हिन्दू महिलाओं के धर्मान्तरण का हल्ला मच गया। इन महिलाओं को एक लाख रुपये का लालच देकर ईसाई बनाया गया। वैसे आगरा में जिन मुसलमानों को हिन्दू बनाया गया उन्होंने भी स्वीकारा कि उन्हें आधारकार्ड, राशनकार्ड दिलाने का झांसा देकर धर्म परिवर्तन करवाया गया। आदिवासी इलाकों में ईसाई मिशनिरियो के द्वारा धर्मांतरण का खेल वर्षों से चल रहा है। दरअसल, देश के आजाद होने के बाद से ही ईसाई मिशनरियां हिन्दुओं के धर्मान्तरण के लिए लगातार सक्रिय होती गयीं। आदिवासियों को विभिन्न प्रलोभन देकर ईसाई बनाने का ऐसा कुचक्र चलाया गया कि सरकारें भी मूकदर्शक बनकर रह गयीं। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ, झारखंड और ओडिसा में आज भी विभिन्न ईसाई मिशनरियां हिन्दूओं के धर्म परिवर्तन में लगी हैं। कांग्रेस के शासन काल में तो उन पर अंकुश लगाने की सोची ही नहीं गयी। वैसे भी देश पर सबसे ज्यादा समय तक शासन कांग्रेस ने किया है। उसके कार्यकाल में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी तो पनपे, लेकिन आम जनता का कोई भला नहीं हो पाया। आदिवासियों की तो पूरी तरह से अनदेखी ही गयी। जहां पेट भरने के लिए अन्न का दाना नसीब न होता हो वहां धर्म के क्या मायने रह जाते हैं? ऐसे हालात में ईसाई मिशनरियों को भी ज्यादा कसरत नहीं करनी पडी।
कांग्रेस तो आदिवासियों और तमाम गरीबों के साथ छल करती रही और हिन्दू... ईसाई और मुसलमान बनने को मजबूर होते रहे, लेकिन मोदी सरकार क्या कर रही है? उनकी पार्टी से जुडे संगठन बिना कोई आगा-पीछे सोचे फौरन धर्मान्तरण और घर वापसी के काम में लग गये हैं। होना तो यह चाहिए था कि सबसे पहले गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा के अंधेरे को दूर करने में अपनी पूरी ताकत लगा दी जाती। इतिहास गवाह है कि निर्धनों, शोषितों और अशिक्षितों का धर्म परिवर्तन करवाना बहुत आसान होता है। इसलिए सबसे पहले तो असली समस्याओं की तह तक जाकर उनका निवारण होना जरूरी है। वैसे भी हमारे संविधान ने हर भारतीय नागरिक को अपनी पसंद के धर्म में रहने और अपनाने की आजादी दी है। जिस धर्म में भेदभाव के हालात और तरह-तरह की बंदिशें न हों और सर्वत्र खुशहाली का आलम हो तो उसे भला कौन छोडना चाहेगा? अपना घर हर किसी को अच्छा लगता है, बशर्ते उस घर में घर-सा सुकून और सुविधाएं भी तो होनी चाहिए। बिना छत और टूटी-फूटी दिवारों वाले घर किसी को भी नहीं सुहाते। वैसे भी यह दौर जबरन धर्मान्तरण करवाने, देश में संस्कृत की पढाई को अनिवार्य करवाने और गीता को राष्ट्रीय ग्रंथ बनाने का नहीं है। देश जाग चुका है और देशवासी भी। उनकी भावना और सोच को 'चांद शेरी' की यह पंक्तियां खूब दर्शाती हैं :
"मैं गीता, बाइबल, कुरआन रखता हूं।
सभी धर्मों का मैं सम्मान रखता हूं।।
ये मेरे पुरखों की जागीर है लोगों।
मैं अपने दिल में हिंदुस्तान रखता हूं।।"

Thursday, December 18, 2014

यह क्या हो रहा है?

जिन्दगी बडी छोटी है। कुछ लोग लगातार बडी-बडी भूलें कर रहे हैं। आवेश में आगा-पीछा भूल गये हैं। एक अजीब-सा सन्नाटा छाया है। भय की लकीरें नज़र आने लगी हैं। यह कट्टरता और फिसलन कहां ले जाने को आतुर है? भारतीय जनता पार्टी के कुछ सांसद किसकी शह पर चुभने वाले बोल उगलने से बाज नहीं आ रहे? एक को चुप कराया जाता है तो दूसरा जहर उगलने के लिए छाती तानकर खडा हो जाता है। कौन देगा जवाब? साधु-संत तो मर्यादा का पाठ पढाने के लिए जाने जाते हैं। उन संतो से तो अपेक्षाएं और बढ जाती हैं जिन्हें जनता बडे यकीन के साथ चुनाव जितवा कर सांसद बनाती है। ऐसे में इन पर ऐसे जनहितकारी कार्य करने की जिम्मेदारी बढ जाती है जिन्हें दूसरे सांसद नहीं कर पाते।
नरेंद्र मोदी की भारतीय जनता पार्टी दिल्ली में अपनी सरकार बनाने के लिए सभी तरह के हथकंडे अपनाने की राह पर है। इसके लिए उसने अपनी पूरी फौज लगा दी है। किसी भी हालत में आम आदमी पार्टी और कांग्रेस को मात देने का जिद्दी इरादा है। इसी उद्देश्य के मद्देनजर केंद्रीय मंत्री साध्वी निरंजन ज्योति बीते हफ्ते एक सभा में पहुंचीं। अच्छी-खासी भीड देखकर उनके जोश ने होश खो दिए। उन्होंने मतदाताओं पर सवाल दागा कि वे दिल्ली विधानसभा में रामजादों को चुनेंगे अथवा हरामजादों को? साध्वी की नजर में रामजादे कौन हैं और हरामजादे कौन... बताने की जरूरत नहीं है। एक साध्वी के मुख से ऐसे गालीनुमा शब्द सुनकर तालियां भी बजीं। हां कुछ लोग सन्न भी रह गये। मतदाताओं को प्रभावित करने के लिए नेता कई हथकंडे अपनाते हैं। भाषा के निम्न स्तर पर उतर आते हैं। पर एक भगवाधारी साध्वी का इतना गिर जाना हर समझदार को हैरान-परेशान कर गया। आखिरकार वही हुआ। उनके भडकाऊ और जलाऊ बोलवचनों ने हंगामा बरपा कर दिया। यह सवाल भी गूंजा कि क्या राजनीति के चोले ने साध्वी को निष्कृष्ट शब्दावली का सहारा लेने को मजबूर कर दिया? इसका जवाब भी सामने आ गया। साध्वी उमा भारती की तरह ही साध्वी निरंजन ज्योति भी कथावाचक रही हैं। हालांकि उमा भारती के तरह उन्होंने संपूर्ण देश में ख्याति नहीं पायी। फिर भी उत्तर प्रदेश के कुछ इलाकों में उनके प्रवचनों को सुनने के लिए भीड तो जुटती ही रही है। साध्वी निरंजन ज्योति का आक्रामक भाषा से भी बडा पुराना नाता है। उनके प्रवचनों में 'हरामजादे' से भी अधिक चुभने वाले अपशब्द तालियों पर तालियां पाते रहे हैं। राजनीतिक दलों को भीड जुटाने वाले चेहरों की हमेशा तलाश रहती है। उन्हें उनके इसी गुण के चलते विधानसभा और लोकसभा की टिकट थमा दी जाती है। भारतीय जनता पार्टी इसमें सबसे आगे है। साध्वी ने तो दिल्ली के वोटरों को लुभाने के लिए अपना राग छेडा था। उन्हें सपने में भी सडक से संसद तक हंगामा मचने की उम्मीद नहीं थी। दरअसल साध्वी भूल गयीं कि वे अब केंद्रीयमंत्री हैं, कथावाचक नहीं। मंत्री को एक-एक शब्द सोच-समझकर बोलना होता है। कथाओं और प्रवचनों में जो खप जाता है वह राजनीति में नहीं खपता।
महात्मा गांधी के हत्यारे नाथूराम गोडसे को राष्ट्रभक्त कहकर शोर-शराबे और हंगामे को न्योता देने वाले भाजपायी सांसद साक्षी महाराज भी भगवाधारी हैं। संतई के पेशे से राजनीति में आने के बाद उनके विवादास्पद बयान अक्सर सुर्खियां पाते रहते हैं। गोडसे को देशभक्त बताकर साक्षी महाराज ने विरोधी दलों का निशाना बनने के साथ ही देश की सजग जनता को भी निराशा के हवाले कर दिया। यह निराशा तब गहन चिंता में बदल गयी जब इस खबर ने मीडिया में सुर्खियां पायीं कि देश के सबसे पुराने हिंदु संगठनों में से एक हिंदु सभा ने राजस्थान के किशनगढ से नाथूराम गोडसे की प्रतिमा तैयार करवा कर दिल्ली में वहीं स्थापित करने की तैयारी कर ली है जहां बापू की हत्या की योजना के दौरान वह समय-समय पर ठहरा करता था। संगठन देश के कम से कम पांच शहरों में गोडसे की प्रतिमाएं लगाने का अभिलाषी है। यदि सरकार ने इसकी अनुमति नहीं दी तो खुद के लॉन में प्रतिमा स्थापित करने का उसका इरादा है। प्रतिमा को स्थापित करने के लिए राजधानी दिल्ली में सार्वजनिक स्थल की तलाश के साथ-साथ सही समय का इन्तजार किया जा रहा है। यह तथ्य भी गौरतलब है कि गोडसे हिंदु महासभा का सदस्य था। १९४८ में बापू की हत्या से एक दिन पहले उसने दिल्ली के कार्यालय का दौरा किया था। जिस कमरे में वह ठहरा था उसे काफी सहेजकर रखा गया है। संगठन के अध्यक्ष यह भी कहते हैं कि जब हमारे यहां सभी महापुरुषों की प्रतिमाएं हैं तो गोडसे की क्यों नहीं? इसका जवाब तो देश का बच्चा-बच्चा दे सकता है। नाथूराम गोडसे तो मानवता का हत्यारा था। उसने अहिंसा के पुजारी की हत्या कर जो पाप किया वह अक्षम्य है। देश और दुनिया को सदाचार का पाठ पढाने वाले बापू के हत्यारे की कुछ लोग भले ही कितनी तारीफ कर लें, प्रतिमाएं लगा लें लेकिन बापू तो बापू हैं जो तमाम भारतीयों के दिलों में बसते हैं और बसते रहेंगे। एक सवाल यह भी लगातार परेशान किए है कि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद ही क्यों खलबली मचाने वाले लगातार सुर्खियों में हैं। इन पर कोई अंकुश क्यों नहीं है? दूसरों से खुद को अलग बताने वाली भाजपा के शासन में क्या ऐसे ही गर्मागर्म वातावरण बना रहने वाला है?

Thursday, December 11, 2014

परिवार, समाज और दुष्कर्मी

फिर वही सवाल। कब तक लुटती रहेगी महिलाओं की आबरू? वो दिन कब आएंगे जब युवतियां जब चाहें तब बेफिक्र घूम-फिर सकेंगी? क्या कभी ऐसा भी होगा जब नारियां पुरुषों की भीड में खुद को पूरी तरह से सुरक्षित महसूस करेंगी। अनाचारी और व्याभिचारी कब तक कानून के डंडे से भयमुक्त होकर दानवी कुकृत्यों को अंजाम देते रहेंगे? १६ दिसंबर २०१२ में दिल्ली में दरिंदगी की शिकार बनी निर्भया की याद आज भी लोगों के दिलों में ताजा है। तब जिस तरह से देश के लोग सडकों पर उतरे थे और सरकार ने अपने कडे इरादे जताये थे उससे लगा था कि दुष्कर्मियों के हौसले पस्त हो जाएंगे। निर्भया कांड को दो साल होने जा रहे हैं। इन दो सालों में दिल्ली तो दिल्ली पूरा देश बलात्कारों से दहलता रहा। बदलाव की उम्मीदें जगायी गयीं। पर कुछ भी नहीं बदला। नयी सरकार भी मूकदर्शक बनी रही। सारे दावे धरे के धरे रह गये। भ्रष्टाचार भी वहीं का वहीं है और अनाचारियों का तांडव भी लगभग जस का तस है। २०१२ के दिसंबर की तरह २०१४ के दिसंबर में भी देश की राजधानी में एक युवती बलात्कारी की हवस का शिकार हो गयी। तब चलती बस में दुष्कर्म हुआ था, अब टैक्सी में हुआ है। कहीं भी सुरक्षा तय नहीं। हवस के पुजारियों की गिद्ध नजरें हर जगह जमी रहती हैं। बसें हों, रेलगाडियां हों, बाजार हों या फिर गली-मोहल्ले ही क्यों न हों। इनके आतंक का शासन जहां-तहां बना रहता है।
गुड़गांव की एक फाइनांस कंपनी में काम करने वाली एक युवती ने रात के समय घर जाने के लिए एक नामी-गिरामी कंपनी की कैब बुक करायी। रात दस बजे कार चालक उसके पास पहुंचा। युवती कार में बैठ गयी। रास्ते में उसकी आंख लग गयी। कार चालक को ऐसे ही मौके की तलाश थी। वह उससे छेडछाड करने लगा। युवती ने विरोध किया तो वह अपनी पर आ गया। उसने उसे डराया, धमकाया और फिर निर्मम बलात्कार कर डाला। उसने युवती को धमकाया और चेताया कि यदि वह चीखी-चिल्लायी तो वह उसका भी निर्भया जैसा हश्र करने से नहीं चूकेगा। तय है कि उसे निर्भया कांड की पूरी जानकारी थी। इस दिल को दहला देने वाले कांड को अंजाम देने वाले बलात्कारियों की हुई थू...थू और दुर्गति की भी उसे पूरी खबर थी। फिर भी वह बलात्कार करने से नहीं घबराया। कानून का उसे ज़रा भी भय नहीं लगा। यह बलात्कारी पहले भी कई महिलाओं की अस्मत लूट चुका है। वह जिस गांव का रहने वाला है उसमें ऐसा कोई घर नहीं जहां की महिलाओं के साथ उसने छेडखानी और बदसलूकी न की हो। उसके गांव वाले उसकी चरित्रहीनता की शर्मनाक दास्तानें सुनाते नहीं थकते। आश्चर्य है कि एक जगजाहिर अभ्यस्त बलात्कारी अमेरिका की जिस नामी कंपनी की कैब चलाता था, उसने भी उसका अतीत खंगालने की जरा भी कोशिश नहीं की। गिरफ्तारी के बाद उसने खुद कबूला है कि उसने पीडित युवती की गला दबाकर मारने की कोशिश की थी। पीडित युवती के पुरजोर विरोध के चलते वह सफल नहीं हो पाया।
अब इस सच पर भी गौर किया जाना चाहिए बलात्कारी शिवकुमार यादव के वृद्ध माता-पिता अपने इस बलात्कारी बेटे को फांसी पर लटकता देखना चाहते हैं। वे कतई नहीं चाहते कि कानून उस पर रहम दिखाये। क्या हर बलात्कारी के माता-पिता और उसके परिजन अपनी औलाद को दुत्कारने और सजा दिलाने की दिलेरी दिखा पाते हैं। जवाब है... बिलकुल नहीं। अधिकांश मां-बाप को अपनी संतान का कोई ऐब नजर नहीं आता। आता भी है तो छुपाने की हजार कोशिशें की जाती है। धनासेठों, उद्योगपतियों, सत्ताधीशों और नेताओं की बिगडैल औलादों के बलात्कारी होने की कितनी ही खबरें आती रहती हैं। किसी भी मां-बाप ने अपने बेटे को फांसी पर लटकाने की मंशा व्यक्त नहीं की। होता यह है कि अपने नालायक अय्याश बेटे को बचाने के लिए ताकतवर और सक्षम लोग महंगे से महंगे वकीलों की फौज खडी कर देते हैं। सभी जानते हैं इस देश में धन की माया अपरमपार है। अपने गंदे खून को सजा दिलवाने और दुत्कारने की हिम्मत न होने की वजह से ही तथाकथित ऊंचे लोगों के नीच कर्म मीडिया की सुर्खियां तो बनते हैं, लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। समाज में भी उनकी इज्जत यथावत बनी रहती है। वाकई हमारा समाज बडा विचित्र है। जानबूझकर अंधा बना रहता है। जब कोई बडा धमाका होता है तो चौंकने का अभिनय करता हैं। जहां घरों में बहू-बेटियों की इज्जत पर डाका डाला जाता हो और डकैत भी अपने ही होते हों वहां पुलिस भी क्या कर सकती है? ऐसी न जाने कितनी खबरें अक्सर चौंकाती हैं कि पिता ने बेटी के साथ तो भाई ने बहन के साथ मुंह काला कर रिश्तों को कलंकित कर डाला। ताज्जुब है कि इसके लिए भी शासन और प्रशासन को दोषी ठहराया जाता है। निर्भया को जब बलात्कारियों ने चलती बस से सडक पर फेंक दिया तब वह घंटों वहीं पडी कराहती रही थी। आते-जाते लोग तमाशबीन बने रहे। दरअसल, लोग सामने आने से डरते हैं। उन्हें तरह-तरह का खौफ सताता है। ऐसे में हालात बदलने से रहे। दिखावटी इज्जत को बचाने से कहीं बहुत जरूरी है असली इज्जत को बचाना। मां-बहन, बहू-बेटी की आबरू से बढकर और कुछ होता है क्या?

Thursday, December 4, 2014

अब आप ही सोचें और तय करें

खाने वाले भी हैं और खिलाने वाले भी। यह सिलसिला टूटे तो बात बने। वर्ना रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का खात्मा होने से रहा। कोई अन्ना आता है। भ्रष्टों के खिलाफ मजमा लगता है। कुछ दिन शोर मचता है। भ्रष्टाचारियों की थू-थू होती है। पर आखिर क्या होता है? हुआ क्या है?
देश में कहां नहीं है भ्रष्टाचार? कुछ भी तो नहीं बदला। वही रिश्वतखोरी की परंपरा। वही रस्म अदायगी। कहीं स्वार्थवश तो कहीं मजबूरी और दबाव के चलते। हो तो वही रहा है जो वर्षों से होता चला आ रहा है। कहीं कोई खौफ नहीं। मान-सम्मान के खोने की भी कतई चिन्ता नहीं। सौ में से एकाध का ही पर्दाफाश हो पाता है। बाकी यह सोचकर बेफिक्र रहते हैं कि वो जो रंगे हाथ धरा गया वह तो बदकिस्मत था, बेवकूफ था। हम जैसा चालाक और सूझबूझ वाला होता तो हर आफत से बचा रहता। इस देश में भ्रष्टाचार के कई किस्से हैं। भ्रष्टाचारी भी किस्म-किस्म के हैं। इस मामले में राजनेताओं और नौकरशाहों की जुगलबंदी भी खूब चलती है। इनके आपसी 'भाईचारे' ने देश का कबाडा करके रख दिया है। फिर भी देश की बिगडी तस्वीर को संवारने का वादा भी यही लोग करते हैं।
नोएडा विकास प्राधिकरण के मुख्य अभियंता यादव सिंह ने रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार की जो पताका फहरायी उससे यह तो साफ हो ही गया है कि कैसे और किस तरह से देश की जडों को बेखौफ होकर खोखला किया जा रहा है। छापेमारी के दौरान यादव सिंह के ठिकाने से एक डायरी बरामद हुई है जिसमें कई सत्ताधीशों, नेताओं, ठेकेदारों और सत्ता के दलालों के नाम दर्ज हैं। नोएडा प्राधिकरण में परियोजना विभाग में प्रमुख अभियंता के पद पर लंबे समय तक तैनात रहा यह महाभ्रष्टाचारी हर दल के नेताओं से दोस्ती गांठने का जादूगर रहा है। उसके यहां से एक ही झटके में १०० करोड के हीरे और करोडों की नगदी का मिलना यही तो बताता है कि भ्रष्टाचारियों ने देश को बेच खाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। जिसे मौका मिलता है वही लूटपाट करने वाला भेडिया बन जाता है। चंद वर्षों में हजारों करोड रुपये बटोर लिए जाते हैं न नेता पीछे हैं और न नौकरशाह। पहले इनकी काली कमायी का आंकडा सौ-पचास करोड तक सिमट जाता था... अब हजार करोड को पार कर चुका है। दूसरे को पछाडने की जैसे प्रतिस्पर्धा चल रही है।
यादव सिंह के अथाह भ्रष्टाचार की दास्तान तो यही कहती है कि भ्रष्ट नेता और अफसर एकजुट हो गये हैं। कहा तो यह भी जाता है राजनेताओं को भ्रष्टाचार का पाठ पढाने में नौकरशाहों की अहम भूमिका होती है। राजनेता तो आते-जाते रहते हैं, लेकिन नौकरशाह सतत बने रहते हैं। उनका सिंहासन आसानी से नहीं डोलता। सत्ता के बदलने के साथ ही इनकी निष्ठा भी बदल जाती है। अथाह भ्रष्टाचार की बदौलत सैकडों करोड की माया जुटाने वाला यादव सिंह हर पार्टी के शासन काल में खूब पनपा। बसपा, समाजवादी, कांग्रेस और भाजपा की उस पर किसी न किसी तरह से मेहरबानी बनी ही रही। दरअसल, इस देश में राजनीति, समाज सेवा और सरकारी सेवा को भ्रष्टाचार का अड्डा बनाकर रख दिया गया है। जिस देश में विधानसभा और लोकसभा चुनाव लडने के लिए करोडों रुपये फूंक दिये जाते हों वहां भ्रष्टाचार के न होने की कल्पना करना ही बेमानी है। राजनीतिक पार्टियों भी धन की बदौलत ही चलती हैं। यह धन कहां से आता है इसकी जानकारी लेने और देने का दम किसी में भी नहीं है। इस देश में कम ही नेता हैं जिनका सच से करीबी नाता हो। राजनीतिक दलों की तमाम भव्य इमारतें झूठ और फरेब की नींव पर टिकी हुई हैं। कोई इस सच को माने या न माने पर यही पहला और अंतिम सच है।
इतिहास बताता है कि ईमानदारों की राजनीति में दाल ही नहीं गल पाती। उन्हें तरह-तरह की तकलीफो से गुजरना पडता है। ऐसे में बिरले ही अपने उसूलों पर टिके रह पाते हैं। देश के एक विख्यात पत्रकार हैं शेखर गुप्ता। वे लिखते हैं कि सन २००७ में लिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने शिवसेना सुप्रीमो बालासाहेब ठाकरे से जब यह पूछा कि उन्होंने सुरेश प्रभु को वाजपेयी मंत्रिमंडल से क्यों हटवाया तो वे पहले तो जवाब देने से बचते रहे, फिर आखिरकार उन्होंने सच उगल दिया। उनका कहना था कि उनकी पार्टी को भी दूसरों की तरह धन की जरूरत होती है। प्रभु कहते थे कि वे बिजली विभाग में कुछ नहीं कमा सकते। बालासाहेब ने ही रहस्योद्घाटन किया कि उन्होंने प्रभु से पूछा था कि क्या उनका मंत्रालय नींबू की फांक है जिसे उनसे पहले का मंत्री पूरी तरह से निचोड गया। यह साक्षात्कार जब चल रहा था तब भाजपा के दिग्गज नेता प्रमोद महाजन का वहां आगमन हुआ तो बालासाहेब ने उनसे पूछा कि क्या प्रभु की बात सही है तो महाजन ने ठहाका लगाते हुए कहा कि अगर कोई केंद्रीय मंत्री दावा करता है कि पैसा कमाना नामुमकिन है तो या तो वह झूठा और चोर है या नाकाबिल है। गौरतलब है कि वही सुरेश प्रभु वर्तमान में नरेंद्र मोदी की सरकार में रेलमंत्री हैं। उन्होंने शिवसेना को छोडकर भाजपा का दामन थाम लिया है। रेलमंत्री की कुर्सी ऐसी है जिसे पाने के लिए होड मची रहती है। रेलवे में जो मलाई है वह और कहीं नहीं। पिछली सरकार के एक रेलमंत्री ने तो अपने भांजे को ही रेलवे की कमायी चाटने के लिए 'सौदेबाजी' और 'दलाली' के काम में लगा दिया था। बदकिस्मती से वह पकडा गया और भांडा फूट गया।

Thursday, November 27, 2014

किसके दम पर... इनका दम?

गुस्सा और तीखे बोल ममता बेनर्जी की असली पहचान हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने से पहले भी ममता अकसर तमतमायी रहती थीं। उनकी इसी तमतमाहट ने उन्हें कहां से कहां पहुंचा दिया। आम जनता को अपने नेता का उग्र रूप हमेशा लुभाता है। ममता इस सच को आज भी अपने पल्लू से बांधे हुए हैं। उन्हें पता है कि यही उनकी असली पूंजी है। जिस दिन वे उबलना छोड देंगी उस दिन उनकी 'शेरनी' की पदवी छिन जाएगी। लेकिन ममता ने इस हकीकत को पता नहीं क्यों नजरअंदाज कर दिया है कि जब वे सत्ता में नहीं थीं तब वे जनता के हितों के लिए लडती और चीखती-चिल्लाती थीं। तब उनका दहाडना औरों को उकसाता था। प्रेरित भी करता था। अपनी इसी कला की बदौलत उन्होंने पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री बनने का सपना तो पूरा कर लिया, लेकिन जनता की कसौटी पर खरी नहीं उतर पायीं। ममता को भी अपनी असफलता का भान है। उन्हें यह भी पता है कि उनकी लोकप्रियता का ग्राफ लगातार नीचे गिरता चला जा रहा है। सही और गलत की पहचान को नजरअंदाज करती ममता की बौखलाहट देखते बनती है। अरबों-खरबों के सारधा चिटफंड घोटाले में ममता के कुछ करीबी सांसद और मंत्री भी अपनी हिस्सेदारी पाने और निभाने में पीछे नहीं रहे। ममता भी इस ठग कंपनी के दलदल में फंसी नजर आती हैं। उनकी उजली साडी पर काले धब्बे दिखने लगे हैं। ममता के नजदीकी सांसद सृंजय बोस ने रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के कीर्तिमान बनाये हैं। सारधा समूह के मुखिया से प्रतिमाह ६० लाख रुपये कि रिश्वत डकारने वाले तृणमूल के इस सांसद को जब सीबीआई ने दबोचा तो अपने सांसद के प्रति ममता की ममता जाग उठी। सांसद सृंजय एक दैनिक समाचार पत्र के संपादक भी हैं। यानी अखबार की धौंस दिखाकर वे ब्लैकमेलिंग का खेल खेलते चले आ रहे थे और ममता की आंखें बंद थीं। सोचिए जब संपादक ही घोटालेबाजों का साथी बन जाए तब किस तरह की पत्रकारिता होती होगी। इस पर भी चिंतन-मनन करने की जरूरत है कि जब भ्रष्टाचारियों के ही पक्ष में प्रदेश की मुख्यमंत्री झंडा उठा ले तो उनका क्या होगा जिनकी खून-पसीने की कमायी सत्ताधारियों के पाले-पोसे चिटफंड वालों ने लूट ली है। गौरतलब है कि सारधा कांड के कीचड में डुबकियां लगाने वाले तृणमूल के सांसद कुणाल घोष को भी सीबीआई पहले ही अपने चंगुल में ले चुकी है। कुणाल का तो दावा है कि ममता ने सारधा से मनचाहा फायदा उठाया है।
ममता को तो चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए क्योंकि उसके मंत्री सांसद और खुद वे कटघरे में हैं। ममता अगर वाकई असली शेरनी होतीं तो अपने सांसदों और मंत्रियों का कालर पकडकर दुत्कारतीं, फटकारतीं। लेकिन वे तो गीदड निकलीं। देने लगीं धडाधड गीदड भभकियां :
"मैं सोनिया गांधी की तरह डरपोक नहीं जो चुप्पी साध लूं। मोदी सरकार में अगर दम है तो मुझे गिरफ्तार करके दिखाए। मैं देखूंगी... कितनी ब‹डी जेल है। यह तो डराने-धमकाने और बदले की राजनीति है।" खुद को गिरफ्तार करके दिखाने की धमकी देने वाली ममता की तरह ही कभी जयललिता ने भी ऐसे ही तेवर दिखाये थे। उनकी जेल यात्रा की रवानगी के बाद उनके कई प्रशंसक सडकों पर उतर आये थे। कुछ ने तो आत्महत्या तक कर ली थी। शिवसेना सुप्रीमो स्वर्गीय बाल ठाकरे भी सरकारों को कुछ इसी अंदाज से डराया करते थे कि यदि उन पर हाथ डाला गया तो जनता ऐसा तांडव मचायेगी कि उनके लिए स्थिति को नियंत्रित करना मुश्किल हो जाएगा। इतनी भीड उमडेगी कि देश और प्रदेश की जेलें भी छोटी पड जाएंगी। अब तो तथाकथित संत और बाबा भी राजनेताओं का खुलकर अनुसरण करने लगे हैं। उनपर भी जैसे ही कानूनी डंडा चलने का खतरा मंडराता है तो वे अपने भक्तों की अपार भीड के उग्र हो जाने का भय दिखाने लगते हैं।
हाल ही में हत्या के संगीन आरोपी रामपाल को दबोचने के लिए कैसे-कैसे नाटक हुए और पुलिस और प्रशासन के हौसले भी पस्त हो गये। इसका नजारा सभी ने देखा। इस कुसंत की गिरफ्तारी को रोकने के लिए जिस तरह से उसके हजारों अनुयायी एकजुट हुए उसपर गहन चिंतन करने की जरूरत है। संतई की जगह गुंडई करने वाले सतपाल की निजी सिक्योरिटी का शासन और प्रशासन से लोहा लेना कोई छोटी-मोटी घटना नहीं है। सतपाल के आश्रम से बम-बारुद-पिस्तोल और बंदूकों के जखीरों का बरामद होना यही बताता है कि धर्म और श्रद्धा के संसार में दुष्कर्मियों ने अपनी जबरदस्त पैठ जमा ली है। यह ढोंगी अपने शिष्यों, भक्तों और अनुयायियों को तो भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागने और पूरे संयम के साथ जीवन जीने की सीख देते हैं, लेकिन खुद ऐसा बेलगाम और विलासितापूर्ण जीवन जीते हैं कि हद दर्जे के अय्याश भी पानी-पानी हो जाएं। दरअसल अपने देश के अधिकांश राजनेताओं और शातिर बाबाओं में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही नकाब ओढकर अपना मायाजाल फैलाते हैं और जब नकाब उतर जाता है तो वही करते और बकते नजर आते हैं जो इन दिनों हम और आप देख रहे हैं।

Thursday, November 13, 2014

बेहयायी का कचरा

यह देश की बदनसीबी है कि आज भी करोडों देशवासी ऐसे हैं जिनके घरों में शौचालय नहीं हैं। उनकी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि वे इस मूलभूत सुविधा को अपना सकें। यह घोर गरीबी और अशिक्षा ही है जो उन्हें तथा उनके परिवार की महिलाओं को खेतों, खलिहानों, सडक के किनारे तथा रेल पटरियों के आसपास शौच करने को विवश करती है। उन्हें ऐसी स्थिति में देखने वालों को जितना बुरा लगता है उससे कहीं ज्यादा शर्मिन्दगी खुले में शौच करने वालों को झेलनी पडती है। देश में ऐसे नज़ारें आम हैं। गरीब तो विवश होते हैं, लेकिन ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो जानबूझकर तरह-तरह की गंदगी फैलाते हैं। पेशाब करने के लिए कहीं भी खडे हो जाते हैं। जहां इच्छा हुई वहां थूक दिया और चलते बने। पान एवं गुटखे की पीक को साफ-सुथरी दिवारों पर पिचकने वालों की बेहयायी देखते बनती है। जलती सिगरेट और बीडी कहीं भी फेंक देना, घर और दुकान का कूडा-कचरा गलियों और सडकों के हवाले कर देने वालों में अनपढ ही नहीं पढे-लिखे भी शामिल होते हैं। किसी भी बाग या नदी-नाले के किनारे पडी शराब की खाली बोतलें बहुत कुछ कहती नजर आती हैं। पालिथिन की थैलियां तो बडी बेदर्दी के साथ जहां-तहां फेंक दी जाती हैं। जहां पूजा-अर्चना की जाती है वहां भी गंदगी फैलाने में संकोच नहीं किया जाता। कौन भारतवासी ऐसा होगा जिसकी गंगा के प्रति आस्था नहीं होगी। गंगा को मां का दर्जा दिया गया है। लेकिन इस मां की जो दुर्दशा है उसकी चिन्ता कितनों को है? गंगा मैया के पवित्र जल को इस कदर विषैला बनाकर रख दिया है कि अब उसे पीने में ही डर लगता है। देश कई समस्याओं से जूझ रहा है। स्वच्छ भारत अभियान उफान पर है। लेकिन काम कम और तमाशे ज्यादा हो रहे हैं। व्याभिचार, भ्रष्टाचार, बेईमानी, लूटपाट, आजादी का दुरुपयोग और मनमानी भी इसी कूडे-कचरे के प्रतिरूप हैं। इस कूडे-कचरे के हिमायती भी कम नहीं हैं। अपने देश में भीड जुटने में ज्यादा देर नहीं लगती। यहां तथाकथित बुद्धिजीवी भी भरे पडे हैं जो समर्थन के झंडे उठाकर सडकों पर उतरने में देरी नहीं लगाते।
२४ अक्टूबर को कोच्ची की एक कॉफी शॉप की पार्किंग में एक युवक और युवती को पता नहीं क्या सूझी कि वे खुले आम चुम्मा-चाटी पर उतर आये। अधिकांश लोगों ने उनकी इस बेहयायी को नजरअंदाज कर दिया। पर कुछ लोगों को उनकी यह बेहयायी कतई रास नहीं आयी। ऐसे में उनकी ठुकायी हो गयी। शोर मचा कि यह काम हिन्दू संगठनों का है। यह सबकुछ इतनी तेजी से हुआ कि चुंबनरत जो‹डे की तस्वीरें टीवी के पर्दे पर भी लहराने लगीं। युवक-युवती के पक्षघरों ने चीखना-चिल्लाना शुरू कर दिया कि हम आजाद मुल्क के आजाद नागरिक हैं। हम कहीं भी कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। हमारे इस मूलभूत अधिकार को कोई भी नहीं छीन सकता। केरल के कोच्चि से जन्मे इस तमाशे को देश की राजधानी दिल्ली तक पहुंचने में ज़रा भी देरी नहीं लगी। इस खुल्लम-खुला 'चुम्बन कर्म' को नाम दिया गया। 'किस ऑफ लव' की मुहिम। सैकडों युवक-युवतियों और उनके समर्थक ने दिल्ली में स्थित राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ मुख्यालय के समक्ष एकत्रित होकर एक दूसरे के गालों को चूमा और अपनी इस मुहिम का समर्थन करते हुए जमकर शोर-शराबा किया। बिना किसी संगठन, बैनर के सोशल मीडिया पर मिले निमंत्रण पर पहुंचे युवाओं के हुजूम ने 'किस ऑफ लव' के अंध समर्थन में गजब का जोश दिखाया। एक दूसरे को गले लगाते और चूमते छात्र खुल्लम-खुला प्यार करेंगे हम दोनों, इस दुनिया से नहीं डरेंगे हम दोनों, प्यार किया तो डरना क्या, प्यार किया कोई चोरी नहीं की जैसे फिल्मी गीत गाकर उन लोगों के प्रति अपना घोर विरोध प्रकट करते रहे जो उनकी मनमर्जी और मर्यादा की धज्जियां उडाने के आडे आते हैं। खुल्लम-खुला गुत्थम-गुत्था होने की आजादी चाहने वाले युवाओं का कहना था कि परंपरा, संस्कृति के नाम पर किसी को समाज का ठेकेदार बनने की जरूरत नहीं है। उनका कोई हक नहीं कि वे हमारे ऊपर अपने आदेश थोपें। दूसरी तरफ हिंदू सेना की तरफ से चेताया गया कि हम देश की संस्कृति कतई नहीं बिगडने देंगे। जो 'किस ऑफ लव' की बात कर रहे हैं वे असल में कामसूत्र के बारे में ठीक से नहीं जानते। मर्यादा का पालन किया ही जाना चाहिए। वह आजादी किस काम की जो दूसरों को शर्मिन्दगी और पी‹डा दे। ओछी हरकतों को प्यार कहना बेवकूफी है। प्यार, पान और गुटखे की पीक नहीं है जिसे जहां चाहा वहीं उगल दिया। कुछ लोग जिस तरह से अपने घरों का कूडा कहीं भी फेंक देते हैं प्यार के मामले में भी उनका कुछ ऐसा ही रवैय्या रहता है। जहां इच्छा हुई वहां निर्लज्जता का जामा ओड लिया और जब विरोध की आवाजें उठीं तो चीखने-चिल्लाने लगे कि हमारी आजादी छीनी जा रही है और हमें गुलाम बनाने का अभियान चलाया जा रहा है। प्यार को बेहयायी का जामा पहनाने वालों के कारण वातावरण दुषित होता चला जा रहा है। इन बेशर्म परिंदो ने शहरों के बाग-बगीचों, बाजारों और सडक चौराहों को भी नहीं बख्शा। बसों, रेलगाडियों में भी इनके नग्न तमाशे चलते रहते हैं। देखने वालों का सिर झुक जाता है, लेकिन इनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। इस देश में तो ऐसे बेहूदा तमाशों का विरोध होगा ही। इसे रोका नहीं जा सकता। हां तथाकथित प्यार के नाम पर खुल्लम-खुला चुम्मा-चाटी करने वालों को प्यार से सिखाने की जरूरत है न कि मारने और पीटने की। कचरा, कचरे की सफाई नहीं कर सकता।

Thursday, November 6, 2014

इनसे बचकर रहना मुख्यमंत्री जी

विधायक जी के मुख्यमंत्री बनने पर शहरवासियों में अभूतपूर्व खुशी की तरंग दौड गयी। हर किसी ने माना कि काफी लम्बी प्रतीक्षा के पश्चात महाराष्ट्र को एक कर्मठ, मिलनसार, परिश्रमी और ईमानदार नेता मिला है। अब शहर के साथ-साथ संपूर्ण प्रदेश का चहूंमुखी विकास तय है। मुख्यमंत्री बनने के बाद तेजस्वी देवेंद्र फडणवीस का जब उपराजधानी नागपुर में प्रथम आगमन हुआ तो उनको करीब से देखने, हाथ मिलाने, हार पहनाने और गुलदस्ते देने वालों का जो हुजूम उमडा, वो कई मायने में ऐतिहासिक था। उनको शुभकामनाएं देने वालों के हुजूम में हर वर्ग और उम्र के लोग शामिल थे। उत्सवी माहौल ने उनकी अपार लोकप्रियता का डंका पीट दिया। ऐसी ऐतिहासिक विजय रैली पहले कभी नहीं देखी गयी। अभी तक नेताओं के स्वागत के लिए कार्यकर्ताओं और समर्थकों को ही जुटते और भीड बनते देखा गया है, लेकिन इस बार आम जनता भी इस खुशी में शामिल थी। मुख्यमंत्री के विजयरथ पर फूलों की बरसात हुई। बडे-बुजुर्गों के आशीर्वाद की झडी लग गयी। फटाखे इतने फूटे कि असली दीपावली की चमक फीकी पड गयी। महिलाओं और युवतियों ने अपने घरों के सामने रंगोली उकेरकर प्रदेश के नये मुख्यमंत्री का तहेदिल से स्वागत किया। हर चौराहे पर ढोल ताशे बजते रहे। शहर का ऐसा कोई चौक-चौराहा नहीं बचा था जहां इस जनप्रिय नेता के शुभचिंतकों ने अपनी अपार खुशी का इजहार करने के लिए पोस्टर, बैनर और होर्डिंग्स न लगाए हों।
केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी के तंबू के नीचे राजनीति का पाठ पढने वाले देवेंद्र फडणवीस की लोकप्रियता की चकाचौंध ने खुद गडकरी को भी हतप्रभ कर दिया। फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने से कुछ चेहरों को कष्ट भी हुआ है, लेकिन फिर भी उनके चाहने वालों की तादाद इतनी है कि उनकी अभूतपूर्व उपलब्धि (जिसके वे वास्तव में हकदार थे) के समक्ष चंद नाखुश लोगों की रत्ती भर भी अहमियत नहीं है। फिर भी फडणवीस के रास्ते में कई तकलीफें आने वाली हैं। उन्हें अवरोधों का भी सामना करना पडेगा। बेदाग छवि के धनी देवेंद्र से राज्य की जनता को ढेर सारी उम्मीदें हैं। प्रदेश का हर जन उनके इस वायदे से आश्वस्त है कि वे स्वच्छ निष्पक्ष और पारदर्शी सरकार देंगे और प्रशासन को चुस्त-दुरुस्त बनाने में अपनी पूरी ताकत लगा देंगे। उन्होंने ऐसे महाराष्ट्र की कमान संभाली है जो आर्थिक रूप से जर्जर हो चुका है। कांग्रेस-राकां गठबंधन की सरकार ने बेइमानी, भ्रष्टाचार और लूटपाट का ऐसा तांडव मचाया कि कभी खुशहाल राज्यों में गिना जाने वाला महाराष्ट्र साढे तीन लाख करोड के कर्ज के तले डूबा है। जिस धन को आम जनता के विकास के लिए खर्च किया जाना था, उसका भ्रष्टों की जेब में चले जाना इस प्रदेश की बर्बादी का मुख्य कारण बना। विदर्भ को जानबूझकर विकास से दूर रखा गया। गरीबी, बेरोजगारी और पिछडेपन के मारे विदर्भ में किसान आत्महत्या करते रहे और पूर्व की सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। विदर्भ के गडचिरोली में नक्सलवाद ऐसा पनपा कि अब उसकी जडे काफी गहरे तक अपनी पहुंच बना चुकी हैं। अध्ययनशील देवेंद्र हर समस्या से वाकिफ हैं। उन्हें भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों की शिनाख्त के मामले में बेहद सजग रहना होगा। अकेले उनके ईमानदार होने से सबकुछ ठीक-ठाक चलेगा ऐसा मान लेना नादानी होगी। इतिहास गवाह है कि इर्द-गिर्द के लोग ही धोखा और तकलीफें देते हैं और अंतत: गर्त में डूबो देते हैं।
देवेंद्र फडणवीस के मुख्यमंत्री बनने पर शहर की दिवारों पर चस्पा किये गये पोस्टरों और अखबारों में धडाधड छपे शुभकामनाओं के विज्ञापनों के विज्ञापनदाताओं में कुछ नाम ऐसे नजर आए जिन्होंने सजग शहरवासियों को चौंका कर रख दिया। यह वो मतलब परस्त हैं जिनकी हमेशा सत्ता से यारी रही है। इनका एक ही उसूल रहा है- जिधर दम, उधर हम। यह चाटूकार सत्ता और राजनीति को अपने स्वार्थों को साधने का एकमात्र माध्यम मानते हैं। एक धन्नासेठ जो कभी भाजपा का नगरसेवक भी रह चुका है, उसने शहर के सभी अखबारों में पूर्ण पृष्ठ के शुभकामना और अभिनंदन के विज्ञापन छपवाकर यह दर्शाने की कोशिश की, कि देवेंद्र फडणवीस का उनसे बढकर कोई और शुभचिंतक है ही नहीं। और भी कुछ चाटूकारों ने शहर में होर्डिंग और पोस्टरों की झडी लगायी। कुछ भूमाफिया और सरकारी ठेकेदार भी भाजपा के समर्पित कार्यकर्ताओं को मुख्यमंत्री के अभिनंदन और स्वागत के मामले में पीछे छोड गये। लगभग पंद्रह वर्ष पूर्व जब महाराष्ट्र में भाजपा-शिवसेना गठबंधन की सरकार थी तब नागपुर के दलबदलू, मुखौटेबाज दालमिल वाले ने 'चावल कांड' को अंजाम देकर करोडों की कमायी कर ली थी और भाजपा के हिस्से में जबर्दस्त बदनामी आयी थी। ऐसे लोग फिर सक्रिय हो गये हैं। देवेंद्र फडणवीस को ऐसे शातिरों से भी चौकन्ना रहना होगा। यह वो लोग हैं जिनकी घेराबंदी के चलते आमजनों, पीडितों, समस्याग्रस्त किसानों, दलितों शोषितों, गरीबों, बेरोजगारों और तमाम जरूरतमंदों का शासकों की चौखट तक पहुंच पाना टेढी खीर हो जाता है। इनके फरेबी जयघोष में न जाने कितनी ईमानदार आवाजें दबकर रह जाती हैं। यह मतलबपरस्त पता नहीं कितने ईमानदार राजनेताओं का भविष्य चौपट कर चुके हैं। यह इतने घाघ हैं कि अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अच्छे खासे इंसान को शैतान तो कभी भगवान बना देना इनके बायें हाथ का खेल है। देश के चर्चित कवि और व्यंग्यकार गिरीश पंकज ने ऐसे मायावी चेहरों से सतत सावधान रहने के लिए यह पंक्तियां लिखी हैं :
'हो मुसीबत लाख पर यह ध्यान रखना तुम
मन को भीतर से बहुत बलवान रखना तुम
बहुत संभव है बना दे भीड तुमको देवता
किंतु मन में इक अदद इंसान रखना तुम'

Thursday, October 30, 2014

मत करो भरोसे का कत्ल

एक बार फिर वही चिन्ता। वही ठगे जाने का डर और पीडा। लोग निराश और हताश। फिर वही पुराने सवाल। कब थमेगी छल कपट की राजनीति! प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी तीखे सवालों के कटघरे में हैं। आपने ही वायदे किए थे। आश्वासन बांटे थे। फिर अब पीछे हटने की नौबत क्यों? आपने भी यही मान लिया है कि देशवासी बेवकूफ और भुलक्कड हैं। कुछ दिन शोर मचाएंगे फिर अपने काम में लग जाएंगे? पर अब ऐसा नहीं होने वाला जनाब। जागी जनता चुप रहने वाली नहीं। इसका शोर शासकों के कान के पर्दे फाडने में सक्षम है। अब इसे नजरअंदाज मत कीजिये। जो कहा था उसे करके दिखाइए। यह मत भूलिए कि भरोसे के कत्ल से बडा और कोई अपराध नहीं होता। अगर भरोसा टूट गया तो कुछ भी नहीं बचने वाला। लोग हैरान हैं कि क्या यही वो नरेंद्र मोदी थे जिन्होंने सत्ता पर काबिज होने के १०० दिन के भीतर विदेशी बैंकों में काला धन रखने वाले देशी कुबेरों के नामों का खुलासा करने का पुख्ता आश्वासन दिया था। यह भी कहा था कि विदेशी बैंकों में जमा काला धन किसी भी हालत में देश में लाया जाएगा और देश तथा देशवासियों को खुशहाल बनाया जाएगा। बाबा रामदेव भी विदेश में प‹डे काले धन को भारत में लाने के लिए नरेंद्र मोदी को एकमात्र सक्षम नेता बताते नहीं थकते थे। उन्होंने पूरे देश में काले धन और मनमोहन सरकार के खिलाफ ऐसा ढोल पीटा था कि जिसकी गूंज सात समंदर पार तक सुनायी दी थी। लेकिन आज वे भी खामोशी की चादर ओढे हैं। वैसे मोदी के सत्तासीन होने से रामदेव को उन खतरों से तो मुक्ति मिल गयी है जो मनमोहन सरकार के कार्यकाल में उन पर नंगी तलवार की तरह लटक रहे थे। जब मोदी का उन्होंने इतना साथ दिया है तो मोदी भी 'दोस्ती' तो निभाएंगे ही। इसलिए बाबा बेफिक्र हैं। बेखौफ होकर अपने धंधे को बढाने में जुट गये हैं। आम जनता को यह आभास भी हो रहा है कि इस बार भी वह ठगी गयी है। नरेंद्र मोदी की चुप्पी चोट देने वाली है। वे भी उन घाघ नेताओं से अलग नहीं हैं जो यह मानते हैं कि चुनावी मौसम में किये गये वायदों के कोई खास मायने नहीं होते। चुनावी मंचों पर आसमानी वायदे करने की जो पुरातन परिपाटी है वह उन्होंने भी निभा दी। लेकिन वे भूल गये कि देश की जनता ने उन्हें हवा-हवाई नेता समझ इतना भारी समर्थन नहीं दिया है। विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने के लिए मोदी सरकार ने जो ठंडापन दिखाया उससे यकीनन नरेंद्र मोदी की छवि को आघात लगा है। बडी मुश्किल से केन्द्र सरकार ने विदेशों में काला धन रखने वाले जिन तीन लोगों के नाम सुप्रीम कोर्ट को बताए उनमें दो ने फौरन रहस्योद्घाटन कर डाला कि वे भाजपा और कांग्रेस को चंदा देते रहे हैं।
खनन कारोबारी राधा ने भाजपा को एक करो‹ड १८ लाख रुपये तो उद्योगपति चमन भाई लोढिया ने भाजपा को ५१ हजार का चुनावी चंदा देने की सचाई उजागर कर बहुत कुछ कह दिया है। कोई भी उद्योगपति बिना वजह चुनावी चंदा नहीं देता। वह कहीं न कहीं आश्वस्त होता है कि सत्ता उनका बाल भी बांका नहीं कर पायेगी। अब यह मानने में संकोच कैसा कि यही वजह है कि मोदी सरकार भी मनमोहन सरकार की तरह काले धनपतियों के नामों को उजागर करने से बचती रही। उसे अंदर ही अंदर यह भय खाये जा रहा था कि कांग्रेस तो नंगी होगी ही उसके भी कपडे उतर जाएंगे। बदनामी तो दोनों चंदाखोर पार्टियों के हिस्से में आने ही वाली है। विदेशों में काला धन जमा करने वालों के नाम खुलकर बताने में मोदी सरकार ने इतनी मजबूरियां दर्शायीं कि मोदी के अंधभक्त भी अपनी नजरें झुकाने को विवश हो गए। आखिरकार सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को फटकारा। उन तमाम नामों को कोर्ट के सामने पेश करने का आदेश दिया जिनके बारे में उसे विदेश से जानकारी तो मिल चुकी थी, लेकिन बताने में आनाकानी कर रही थी। सरकार ने बडे बुझे मन से स्विस बैंक के खाताधारी ६२७ भारतीयों के नाम सीलबंद लिफाफे में सुप्रीम कोर्ट को सौंपे। फिर भी कोहरा छंटा नहीं। इन नामों में आधे एनआरआई हैं। उन पर तो देश का आयकर कानून लागू ही नहीं होता! यानी खोदा पहाड निकली चुहिया वाली स्थिति बनी हुई है। लोकसभा चुनाव के दौरान वायदों और आश्वासनों की बरसात करने वाले नरेंद्र मोदी की साख दांव पर है। नुकसान भी सिर्फ और सिर्फ उन्हीं का होना है। जनता ने अरुण जेटली, राजनाथ सिंह और नितिन गडकरी जैसों को देखकर वोटों की बरसात नहीं की। उसने तो नरेंद्र मोदी को ही सर्वप्रभावी और जुनूनी नेता और अपना एकमात्र भाग्य विधाता माना। इसलिए हर सवाल का जवाब भी मोदी को ही देना होगा। उनकी चुप्पी और सुस्ती यह थका और टूटा हुआ देश झेल नहीं पायेगा।
विदेशी बैंकों में जमा काला धन देश में जब आएगा तब आयेगा। ऐसे में देशवासी चाहते हैं कि प्रधानमंत्री महोदय उन काले धनपतियों को सडक पर लाएं जिन्होंने अरबो-खरबों की काली दौलत का साम्राज्य खडा कर शोषण, भ्रष्टाचार और लूटमारी को बढावा दिया है। इस खेल में कई राजनेता भी शामिल हैं। वर्षों से सत्ता का सुख भोगते चले आ रहे कई नेताओं के यहां अपार काला धन भरा पडा है। यह मोदी पर निर्भर है कि भ्रष्ट  उद्योगपतियों, राजनेताओं, मंत्रियों, संत्रियों, खनिज माफियाओं, सत्ता के दलालों, जमीनों और इमारतों के सौदागरों की तिजोरियों में कराहते काले धन को कैसे बाहर निकाल पाते हैं। मोदी ने अगर इसमें सफलता पा ली तो देशवासी उन्हें असली नायक का ताज पहनाने में देरी नहीं लगाएंगे। अन्यथा उन्हें भी इतिहास के कूडेदान में समाने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

Wednesday, October 22, 2014

वायदों के दीप जलने का इंतजार

हम उत्सव प्रेमी भारतीय सदियों से दीपोत्सव मनाते चले आ रहे हैं। दीपावली का अर्थ सिर्फ मिठाई खाना, फटाखे छोडना, जुआ खेलना और दीप जलाना ही नहीं है। फिर भी अधिकांश लोगों और खासकर नव धनाढ्यों के लिए तो दीवाली के यही मायने हैं। उन्हें अपने आसपास का अंधेरा दिखायी ही नहीं देता। उनके लिए दीपावली झूमने-गाने और अपने काले धन के मायावी प्रदर्शन का मनचाहा माध्यम है। हमारे बुजुर्गों की इस त्योहार को मनाने के पीछे यकीनन यही मंशा रही होगी कि हम दीपों के प्रकाशोत्सव से अपना घर-आंगन ही न महकाएं और सजाएं बल्कि सर्वत्र ऐसा प्रकाश फैलाएं कि जाति-धर्म और गरीब अमीर का भेदभाव ही मिट जाए। लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। देश को आजाद हुए ६७ साल गुजर गये। सदियों से चली आ रही भेदभाव की नीति का खात्मा करने की बजाय इस बीमारी को और अधिक लाइलाज बना दिया गया है। न जाने कितनी बार रावण के पुतलों को तो फूंका गया लेकिन रावणी दुर्गणों का अंत नहीं हो पाया। जातिवाद, छुआछूत और साम्प्रदायिकता के नाग के फन को कुचला नहीं जा सका। जब-तब इसका जहर निर्दोषों की जान ले लेता है। राजनेता, समाजसेवक और बुद्धिजीवी किकर्तव्यविमूढ की स्थिति में नजर आते हैं। सामंती ताकतें आज भी इतनी बेखौफ हैं कि कुछ भी कर गुजरती हैं। अभी हाल ही में बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की यह पीडा सामने आयी कि उनके मंदिर में प्रवेश करने और पूजा-पाठ करने के बाद मंदिर को पूरी तरह से धुलाई और सफायी करवायी गयी। यह 'कर्म' इसलिए किया गया क्योंकि मंदिर में दलित ने पूजा-अर्चना की थी। पुजारी मुख्यमंत्री के मंदिर में प्रवेश करने पर कोई विरोध तो नहीं कर पाया, लेकिन उसने उनके मंदिर से बाहर निकलने के फौरन बाद वो हरकत कर ही डाली जो मुख्यमंत्री तो क्या... किसी भी इंसान के लिए पीडादायी है। दीप और ज्ञान एक दूसरे के पर्यायवाची माने जाते हैं। हमने दीप तो जलाए, लेकिन ज्ञानदीप जलाना भूल गए। इसलिए छल, कपट, फरेब, भ्रष्टाचार और अनाचार का अंधेरा बढता ही चला गया।
यह वाकई चिन्ता और शर्म की बात है कि देश के संपन्न वर्ग को दिखावटीपन और स्वार्थ ने अपने जबडों में जकड रखा है। गज़लकार जहीर कुरेशी की गज़ल की यह पंक्तियां वर्तमान हालात के कटु सच को बयां करती हैं :
'गिरने की होड है या गिराने की होड है
पैसा किसी भी तरह से कमाने की होड है।
अब स्वाभिमान जैसी कोई बात नहीं
कालीन जैसा खुद को बिछाने की होड है।'
राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जिस सर्व संपन्न गौरवशाली भारत की कामना की थी, उस भारत का बनना अभी बाकी है। गांधी कहते थे कि ईमानदारों का सम्मान होना चाहिए और भ्रष्टाचारियों को लताडा और दुत्कारा जाना चाहिए। पिछले दिनों तामिलनाडु के मुख्यमंत्री जयललिता को भ्रष्टाचार के मामले में जेल भेजा गया तो उनके समर्थकों ने विरोध-प्रदर्शन की झडी लगा दी। डेढ दर्जन से ज्यादा लोगों ने आत्महत्या कर ली। भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री के पक्ष में जिस तरह से भीड जुटी उससे बहुत दूर तक यह संदेश गया कि हमारे देश में भ्रष्टाचार कोई खास मुद्दा और समस्या नहीं है। यहां तो उन बेइमानों को भी पूजा जाता है जिन्हें अदालत अपराधी करार दे देती है। यह सोचकर ही चिन्ता होने लगती है कि जब लोग जगजाहिर भ्रष्टों और रिश्वतखोरों के बचाव पर उतरने लगेंगे तो देश का क्या होगा? देश की अस्सी प्रतिशत आबादी आज भी असली उजाले के लिए तरस रही है। धन लिप्सा और राजसत्ता ने इस देश के राजनेताओं को इस कदर भ्रमित कर डाला है कि वे राष्ट्र प्रेम और राम राज्य के मायने ही भूल गये हैं। उनके लिए सत्ता के मायने... खुद का विकास है। जिनके वोटों के दम पर वे कुर्सियां हथियाते हैं उनकी ही सुध लेना भूल जाते हैं। १९४७ में जब देश आजाद हुआ था तब यह उम्मीद जागी थी कि हर देशवासी के हिस्से में भरपूर खुशहाली आएगी। यह कितनी दुखद हकीकत है कि आज भी नारी को वो सम्मान हासिल नहीं है जिसकी वो हकदार है। देश की राजधानी दिल्ली का बलात्कारी नगरी बन जाना यही दर्शाता है कि देश में औरतें कितनी असुरक्षित हैं। दिल्ली की तर्ज पर देशभर में नारियों के यौन शोषण होने की खबरें इतनी आम हो गयी हैं कि लोग अब इन्हें पढते और सुनते हैं और फौरन भूल जाते हैं। आदिवासियों, दलितों, शोषितों और गरीबों की अनदेखी करने की परंपरा भी टूटने का नाम नहीं ले रही है। नक्सली समस्या इसी कपट और भेदभाव का भयावह परिणाम है। दरअसल, होना यह चाहिए था कि जो लोग हाशिए पर हैं उनकी आर्थिक प्रगति की हर हाल में चिन्ता की जाती। लेकिन सत्ताधीशों ने हिंदुस्तान को अंबानियों, जिंदलों और अदानियों का देश बना कर रख दिया है। जुल्म, भेदभाव और अनाचार का शिकार होते चले आ रहे लोगों में जो आक्रोश घर कर चुका है उसकी अनदेखी महंगी पड सकती हैं।
हमारे शासकों ने ऐसी ताकतों को सम्पन्न बनाया, जिन्होंने असहाय देशवासियों को और ...और पीछे धकेल दिया। सच किसी से छिपा नहीं है। गरीब और गरीब होते चले जा रहे हैं और अमीरों की अमीरी आकाश का सीना पार करती दिखायी देती है। इस देश के दलित नेता भी दलितों और शोषितों का मजाक उडाने में पीछे नहीं रहे। उन्होंने भी इनके वोटों की बदौलत येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीते। विधायक, सांसद और मंत्री बने। दलित और आदिवासी वहीं के वहीं रहे। उनके कंधे की सवारी करने वाले कहां से कहां पहुंच गए। जिन्हें दलितों और शोषितों की आवाज़ बनना था वे सत्ता के भोंपू बन कर रह गए।
हालात चाहे कितने भी पीडादायी हों फिर भी उम्मीद तो नहीं छोडी जा सकती। वैसे भी सहनशीलता और सब्र के मामले में हम भारतवासियों का कोई भी सानी नहीं। नये शासकों ने अपार वायदे किये हैं। हर देशवासी के आंगन में खुशहाली लाने और उसका असली हक दिलाने का आश्वासन दिया है। फिलहाल सारा देश उन अच्छे दिनों का इंतजार कर रहा है जब हर हिंदुस्तानी के घर में 'दीप' जलेंगे। गरीबी, बदहाली, शोषण और भेदभाव का खात्मा होगा और देश में आतंकियों और नक्सलियों का नामोनिशान नहीं बचेगा।

Thursday, October 16, 2014

नकाबपोशों की मक्कारी

महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव में कई कारनामे हुए। खूब नोट बरसे। हर प्रत्याशी ने अपनी पूरी ताकत लगा दी। जीत-हार बाद की बात है। पर जीतने के लिए क्या-क्या नहीं किया गया। साम-दाम-दंड-भेद... सबको आजमाया गया। सभी पर भारी पडे भाजपा वाले। पता नहीं कहां से आयी इतनी माया? दोनों हाथ से लुटाने की दिलदारी दिखायी गयी। ऐसी विज्ञापनों की बरसात कि सभी अखबारीलाल भीग गये। लगभग सभी ने भाजपा की आरती गायी। इस पार्टी के हर उम्मीदवार ने सुर्खियां पायीं। इसी को कहते हैं थैलियों का चमत्कार। मीडिया की मेहरबानी से वही वंचित रह गए जिनकी जेबे खाली थीं। आज के दौर में चुनाव तो पूरा का पूरा धन का खेल है। गरीब के लिए सांसद या विधायक बनना नामुमकिन है। यह बात कल भी तय थी और आज भी। राजनीतिक पार्टियां, सिद्धांतों के ढोल तो पीटती हैं, लेकिन जब चुनावी टिकट देने का समय आता है तो समर्पित कार्यकर्ता को किनारे कर थैलीशाहों को आगे कर दिया जाता है। इस बार के विधान सभा चुनाव में गठबंधनों के ध्वस्त हो जाने के कारण लगभग सभी को चुनाव लडने का मौका मिल गया। जिनसे पार्टी ने दगाबाजी की वे निर्दलीय खडे हो गये। बिना धन के चुनाव लडने वालों की दशा और दिशा का तो पता चुनाव परिणाम आने के बाद ही चलेगा। लेकिन जिसमें थोडा भी धन का बल था उसने अपनी औकात से ज्यादा छलांगें लगायीं। धनवालों का तो कहना ही क्या। शराब, बर्तन और कपडे खूब बंटे। तिजोरियों के मुंह खोल डाले गये। भाजपा के एक दिग्गज नेता, जो केंद्र में मंत्री भी हैं, ने एक चुनावी मंच पर मतदाताओं को सीख दी कि नोट तो सभी से ले लेना, लेकिन वोट भाजपा को ही देना। कहते हैं कि जो दिल में होता है और जो चरित्र होता है वो अंतत: उजागर हो ही जाता है। महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री भी कम नहीं निकले। उन्होंने अपने विरोधी प्रत्याशी की बलात्कार की खबरें मीडिया में छाने पर बडी मासूमियत से समझाइश दी कि अगर बलात्कार करना ही था तो चुनाव के बाद करते। यह है हमारे देश के नेताओं का असली चेहरा। यह जनता को चरित्रहीन और बेइमान होने की सीख जितनी आसानी से देते हैं उतनी ही चालाकी से यह भी कह देते हैं कि हम मजाक कर रहे थे। हमारी तो जुबान फिसल गयी। वाह भाई वाह!
चुनावी मंचों पर चरित्रवान होने की ढपली बजाने वालों के शागिर्दो ने इस बार के मतदान से एक दिन पहले झुग्गी-झोपडियों में जाकर मतदाताओं को न केवल पैसे बांटे बल्कि शराब से भी नहला दिया। साडियों, कंबलों और सायकिलों की भी सौगात दी गयी। नवी मुंबई में एक दमदार उम्मीदवार द्वारा एक हाउसिंग सोसायटी में हर फ्लैट में पांच-पांच हजार रुपये बांटे। ऐसे और भी कई राष्ट्र सेवक हैं जिन्होंने ऐसे ही अंधाधुंध धन बरसाया, लेकिन खबर बनने से बच गये। मुंबई के वर्ली इलाके में ऐसे चार ट्रक जब्त किये गए जिनमें बर्तन, प्रेशर कुकर और अन्य गिफ्ट के सामानों का जखीरा भरा पडा था। जब चार ट्रक पकडे गये तो चालीस ट्रक पकड में आने से बच भी गए होंगे। सभी तो बदकिस्मत नहीं होते। उपहार पाने वालों ने किस पार्टी और प्रत्याशी को वोट दिया इसका पता तो ऊपर वाला भी नहीं लगा सकता। आज का मतदाता बहुत चालाक हो चुका है। यह कहना भी मतदाताओ का अपमान होगा कि सभी मतदाता बिकते हैं। बहुतेरों की मजबूरी उन्हें झुकने और बिकने को मजबूर कर देती है। कुछ पर उन नेताओं का असर भी काम कर जाता है जो उन्हें चुनावी दौर में मिलने वाले प्रलोभन और धन को हंसी-खुशी स्वीकार करने की नसीहत देते नहीं थकते। यह भी सच है कि ईमानदार नेताओं को मतदाताओं को लुभाने के लिए किसी भी तरह के हथकंडे नहीं अपनाने पडते। मतदाता ऐसे चेहरों को अच्छी तरह से पहचानते हैं। उन्हें पता होता है कि कौन हद दर्जे का भ्रष्टाचारी है। किसने विधायक, सांसद और मंत्री रहते किस-किस तरह की अंधेरगर्दियां की हैं। साफ-सुथरी छवि वाले नेता अगर अपने क्षेत्र में प्रचार के लिए कम समय निकाल पाते हैं तो भी मतदाता उन्हें विजयी बनाने में देरी नहीं लगाते। दुराचारियों और भ्रष्टाचारियों को धन और खून-पसीना बहाना ही पडता है। फिर भी उसकी जीत तय नहीं होती। भाजपा, शिवसेना और राष्ट्रवादी कांग्रेस ने इन विधानसभा के चुनावों में विज्ञापनों पर करोडों-अरबो फूंक डाले। लेकिन किसी भी पार्टी के विज्ञापन में गरिबी, बेरोजगारी, महंगाई और भ्रष्टाचार को दूर करने की बात नहीं की गयी। यह भी नहीं बताया गया कि यह दल देश को किस दिशा में ले जाना चाहते हैं। इनकी असली मंशा क्या है? सभी एक दूसरे को कोसते और कमतर दर्शाते दिखे। विज्ञापनों का तूफान बरपा करने वाली भाजपा के हर प्रचार में नरेंद्र मोदी इस तरह से छाये रहे जैसे कि वे मुख्यमंत्री बनने की होड में हों। देश के प्रधानमंत्री को कभी भी ऐसी 'मुद्रा' में नहीं देखा गया। चुनावी रैलियों में जबरदस्त भाडे की भीड जुटायी गयी। रैलियों में वो लोग भी शामिल हुए जिनका उस विधानसभा क्षेत्र से कोई नाता नहीं था जिसके लिए वे भीड बने नारेबाजी कर रहे थे। रुपये देकर धडाधड समाचार छपवाये गये। अखबार मालिकों और संपादकों ने जमकर चांदी काटी। सभी के उसूल धरे के धरे रह गये। एक बुद्धिजीवी किस्म के संपादक को इस चलन पर थोडी पीडा हुई। उसने अपनी असहमति दर्शायी तो मालिकों ने उसे झिडक दिया कि अपना प्रकाश और ज्ञान अपनी जेब में रखो। अखबार धन के दम पर चलते हैं। तुम्हें हम वर्षों से पाल रहे हैं क्या यही कम है? सलाहकार संपादक होने का यह मतलब तो नहीं है कि तुम हमीं को सीख देने पर उतर आओ। अखबार वालो की यही तो असली दीवाली है प्रगतिशील संपादक महोदय...। बेचारे सलाहकार संपादक के चेहरे का तो रंग ही उड गया। लेकिन असली सच यह भी है कि अगर वाकई उसे सच्ची पत्रकारिता से लगाव होता तो वह ऐसे मालिकों के यहां बीते बीस वर्ष से नौकरी नहीं बजा रहा होता। पत्रकारिता में ऐसे न जाने कितने ढोंगी भरे पडे हैं जिनके चेहरे पर भ्रष्ट नेताओं की तरह पता नहीं कितने नकाब चढे हुए हैं।

Thursday, October 9, 2014

दलितों और शोषितों के मसीहा!

इनकी फितरत ही ऐसी है। दूसरों पर दोष मढकर बच निकलना इनकी आदत में शुमार है। जनता मरती रहे इन्हें कोई फर्क नहीं पडता। पल्ला झाडना और भाग निकलना इनकी पुरानी आदत है। देश का प्रदेश बिहार गरीबी और पिछडेपन से उबर नहीं पाया। उस पर यहां के राजनेता भी नौटंकी करने से बाज नहीं आते। प्रदेश लोगों को रोजगार नहीं दे पाता तो उन्हें दूसरे प्रदेशों की खाक छाननी पडती है। प्रदेश में कानून व्यवस्था के भी सदा बारह बजे रहते हैं। शासन और प्रशासन में कोई तालमेल नजर नहीं आता। हादसे पर हादसे होते रहते हैं। शासकों की तंद्रा है कि टूटने का नाम ही नहीं लेती। उनकी बेहोशी लोगों को कैसे-कैसे दर्द दे जाती है! पटना के गांधी मैदान में ऐन रावण दहन के समय ऐसी भगदड मची कि ३४ लोगों की कुचलकर मौत हो गयी और १०० से ज्यादा बुरी तरह से घायल हो गये। प्रशासन की घोर लापरवाही के चलते इतनी दर्दनाक दुर्घटना हो गयी और प्रदेश के मुख्यमंत्री अनभिज्ञ बने रहे! इस लापरवाह मुख्यमंत्री ने पूरे देश को चौंका दिया। जब उन पर चारों तरफ से उंगलियां उठने लगीं और मीडिया लताडने पर उतर आया तो उन्होंने फरमाया कि दलित होने के कारण ही मेरे ऊपर हमले पर हमले किये जा रहे हैं। ऐसे हादसे तो दूसरे प्रदेशों में भी होते रहते हैं, लेकिन वहां के मुख्यमंत्रियों पर तो इस तरह से गाज नहीं गिरायी जाती। मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी ने जवाबदारी से बचने के लिए जो 'दलित राग' अलापा उसी ने उनकी सोच की सीमा तय कर दी। यह भी पता चल गया कि वे किस मिट्टी के बने हैं। जिन परिवारों के मासूम बच्चे और महिलाएं उनसे सदा-सदा के लिए बिछड गये उनके प्रति सहानुभूति दर्शाने की बजाय मांझी अपनी कुर्सी को बचाने की चिन्ता में इतने भ्रमित हो गये कि शातिरों वाली बोली बोलने लगे। उनके दलित गान से यह भी तय हो गया कि उनके मन में यह बात घर कर चुकी है कि दलित होने के कारण ही उन्हें बिहार का मुख्यमंत्री बनने का मौका मिला है। यानी दलित होना ही उनकी एकमात्र योग्यता है। वैसे भी बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी, लालबहादुर शास्त्री तो हैं नहीं कि मानवीयता और नैतिकता की उम्मीद की जाए। मांझी को पता है कि उन्हें राजनीतिक मजबूरी के चलते सत्ता सौपी गयी है। इसलिए उनमें अपने कर्तव्य के प्रति नाम मात्र की भी गंभीरता नहीं है। जब देखो तब बेवकूफों वाले बयान देकर लोगों का मनोरंजन करते हुए हंसी के पात्र बनते रहते है। सच तो यह भी है कि अब हिन्दुस्तान में लालबहादुर जैसे नेक नेता पैदा ही नहीं होते। ध्यान रहे कि लालबहादुर शास्त्री, पंडित जवाहरलाल नेहरू की सरकार में जब रेलमंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना हो गयी। शास्त्री जी इससे इतने अधिक आहत हुए कि उन्होंने नैतिकता के आधार पर रेलमंत्री की कुर्सी को त्यागने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उनके इस निर्णय की आज भी चर्चा होती रहती है। देशवासियों का सीना गर्व से तन जाता है यही त्यागी नेता बाद में देश के प्रधानमंत्री भी बने और अपने अल्प कार्यकाल में स्वर्णिय इतिहास रच डाला। शास्त्री जी का दौर पूरी तरह से गायब हो चुका है। आज का दौर तो शरद पवार जैसे सत्तालोलुप नेताओं का है। जिनके लिए जनता महज वोटर है। वोट के लिए यह लोग कुछ भी कर सकते हैं। पाले पर पाला बदलने में भी इन्हें कोई संकोच नहीं होता। दरअसल, बिहार के मांझी और महाराष्ट्र के पवार में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही सत्तालोलुपता और निष्ठुरता की जीती-जागती तस्वीर हैं। इनके इर्द-गिर्द के लोगों, रिश्तेदारों और खुद इनको भ्रष्टाचार करने की खुली छूट होती है। इनके सत्ता में रहते आम लोगों का कोई भला नहीं होता। इनके साथी मालामाल हो जाते हैं। फिर भी यह दलितों और शोषितों के मसीहा होने का भ्रम पाले रहते हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर के लोग २३ नवंबर १९९४ के उस काले दिन को याद कर आज भी कांप जाते हैं जब अपना हक मांगने के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन कर रहे भूखे-प्यासे गोवारी आदिवासियों पर बर्बरतापूर्वक लाठियां भांजी गयी थीं और १२० निर्दोष मौत के मुंह में समा गये थे और पांच सौ से अधिक लोग घायल हुए थे। तब शरद पवार ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे। उपराजधानी में शीतकालीन सत्र चल रहा था। हजारों लोग अपने-अपने गांव और शहरों से ट्रकों, बसों एवं पैदल चलकर मोर्चे में शामिल हुए थे। राजधानी मुंबई उनकी पहुंच से बाहर थीं। उपराजधानी में आयी सरकार को अपनी फरियाद सुनाने का उन्हें बेहतरीन मौका मिला था। उन्हें यकीन था कि मुख्यमंत्री शरद पवार उनकी समस्या की तह तक जाकर सार्थक हल निकालेंगे। लेकिन पवार के पास तो उनकी सुनने के लिए जरा भी वक्त नहीं था। मंत्री भी अपनी मस्ती में चूर थे। सुबह से शाम हो गयी, लेकिन बदहाल आदिवासियों की समस्या को सुनने के लिए न मुख्यमंत्री आए और न कोई मंत्री। ऐसे में पसीने से तरबतर लोग निराश और हताश हो गये और तनाव बढता चला गया। किसी गुस्साये युवक ने बेरिकेट उठाकर पुलिस वालों पर फेंक दिया। पुलिस वालों ने भी अपनी मर्दानगी दिखाने से जरा भी देरी नहीं लगायी। छोटे-छोटे बच्चों, बूढों और महिलाओं पर लाठियां बरसने लगीं। फिर तो ऐसी भगदड मची कि लोग एक-दूसरे को कुचलते, रौंदते हुए भागने लगे। देखते ही देखते लाशें बिछ गयीं। तब तक मुख्यमंत्री शरद पवार नागपुर से उडकर मुंबई पहुंच चुके थे। उन्होंने इतनी बडी लापरवाही के लिए खुद को दोषी नहीं माना। वे अगर चाहते तो उनके लिए समय निकालना मुश्किल नहीं था। वैसे भी वे और उनके राजनीतिक साथी दलितों, शोषितों और आदिवासियों के पिछडेपन के गीत गाते नहीं थकते। उनके वोटों को हथियाने के लिए एक से बढकर एक हथकंडे अपनाये जाते हैं, लेकिन जब उनके लिए कुछ करने की बारी आती है तो कन्नी काट जाते हैं। पवार ने भी तब बहाना बनाया था कि उनके मुंबई जाने का कार्यक्रम पहले से ही तय था। लेकिन समस्याग्रस्त आदिवासी तो सुबह से ही नागपुर में डेरा डाल चुके थे। पवार अगर उन्हें कुछ पल दे देते तो यह मौतें नहीं होतीं। गोवारी हत्याकांड के बाद यह जरूर हुआ कि शहर में नये-नये नेताओं की बाढ आ गयी है। उनकी बयानबाजियों ने देखते ही देखते अखबारों पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। कुछ की ऐसी किस्मत चमकी कि वे बडे नेता बन गये। जो आजकल प्रदेश से देश तक की राजनीति में छाये हैं।

Thursday, October 2, 2014

सबक लेंगे सफेदपोश भ्रष्टाचारी?

जैसा भारतवर्ष में होता है वैसा शायद ही कहीं होता हो। यह ऐसा देश है जहां तो लोग भ्रष्टाचारियों के समर्थन में भी  सडकों पर उतर आते हैं। अदालती फैसलों का अनादर किया जाता है। खलनायक को जबरन नायक बनाने की कुचेष्टाएं की जाती हैं। उनके प्रति अंधभक्ति और आस्था रखने वाले सभी हदें पार कर जाते हैं। तामिलनाडु की तथाकथित करिश्माई नेता जे. जयललिता के जीवन की किताब के कई पन्ने बडे हैरान करने वाले हैं। अभिनेत्री से मुख्यमंत्री बनने का सफरनामा भी कम रोचक नहीं है। अभिनेत्री ने राजनीति के क्षेत्र में पदार्पण करने के बाद भी अभिनेत्रियों वाले लटके-झटके और सभी शौक अपनाए रखे। दस हजार पांच सौ बेहतरीन साडियां, महंगी से महंगी पचासों घडियां, सात सौ पचास सेंडिल, अट्ठाइस किलो सोना, आठ सौ किलो चांदी और कई बंगले, फार्म हाऊस खुद-ब-खुद बयां कर देते हैं कि जयललिता सिर्फ और सिर्फ मुखौटे की राजनीति करती रही हैं। अपने महलनुमा बंगले में राजसी ठाठ-बाट और बाहर गरीबों की मसीहा का उन्होंने रोल बखूबी निभाया। दरअसल, जयललिता उर्फ अम्मा ने राजनीति में आने के बाद भी विलासितापूर्ण जीवन जीने का मोह नहीं छोडा।
गौरतलब है कि १४ जून १९९६ के तत्कालीन जनता पार्टी नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने अदालत में शिकायत दाखिल कर आरोप लगाया था कि जयललिता के पास उनके ज्ञात स्त्रोतों से काफी अधिक सम्पत्ति है। १९९१ में जब जयललिता तामिलनाडु की मुख्यमंत्री बनी तब उनके पास २.०१ करोड की सम्पत्ति थी। यह भी गौर करने लायक तथ्य है कि जयललिता ने उस समय बडे गर्व के साथ यह घोषणा की थी कि वह केवल एक रुपया वेतन ले रही हैं। यानी देशहित में बहुत बडा त्याग कर रही हैं। उन जैसे नेता शायद ही देश में मिलें। यानी यहां भी भरपूर अभिनय। ऐसे में ताली बजाने वालों की संख्या बढती चली गयी। नेताओं को यही तो चाहिए होता है। वे जहां जाएं भीड लग जाए। जनता उनकी राह में बिछ जाए। जयललिता ने अपने गुरु (एमजी रामचंद्रन) से राजनीति की दीक्षा ली ही कुछ इस तरह से थी कि राजनीति में नाटकीयता बरकरार रखो। चेहरे का नकाब उतरने मत दो। जनता को उल्लू बनाते रहो। पर यह कुदरत का नियम है कि सच ज्यादा दिनों तक छिपा नहीं रह सकता। वह तो सौ पर्दे फाडकर बाहर आ ही जाता है। मायावी नारी जयललिता ने जब पांच साल बाद सत्ता का भरपूर सुख भोगने के बाद मुख्यमंत्री की कुर्सी छोडी तो उनकी सम्पत्ति का आंकडा ६६ करोड को पार कर गया था। वाकई ऐसा जादू और चमत्कार सिर्फ और सिर्फ राजनीति में ही हो सकता है। जया जैसे मंजे हुए कलाकार ही इस फन में माहिर होते हैं। आय से अधिक सम्पत्ति के मामले में मुख्यमंत्री जयललिता को चार साल की सजा के साथ सौ करोड का जुर्माना जहां ईमानदार नेताओं को प्रफुल्लित कर गया वहीं बेइमानों के चेहरों के तो रंग ही उड गये हैं। उन्हें अपना भविष्य खतरे में नजर आने लगा है। यह तो तय हो गया है कि इस देश में कोई भी कानून से ऊपर नहीं है। देर-सबेर हर भ्रष्टाचारी का जेल जाना तय है। जया को उनके भ्रष्टाचारी दुष्कर्मों की सजा सुनाये जाने के बाद सवाल उठा कि तामिलनाडु का मुख्यमंत्री किसे बनाया जाए। इसमें भी गजब की नाटकीयता हुई। जया के गुलाम और भरोसेमंद प्यादे पन्नीसेलवम ने तामिलनाडु के मुख्यमंत्री के पद की शपथ ली। शपथ समारोह के दौरान वे ऐसे दहाड-दहाड कर रोये जैसे उनका कोई करीबी गुजर गया हो। उनके साथ शपथ लेने वाले तीस मंत्रियों का भी रो-रोकर बुरा हाल था। वे भी ऐसे मातम मना रहे थे जैसे उनका सबकुछ लुट गया हो। जहां मुख्यमंत्री और मंत्रियों के ऐसे हाल हों वहां अम्मा के प्रशंसकों का फांसी के फंदों पर झूल जाना, जहर खाकर मर जाना और रेल और बसों के सामने कूदकर जान दे देना आम बात मान लिया गया। इसी अम्मा के जेल जाने के सदमे में जो दस अंधभक्त दिल के दौरे के शिकार होकर इस दुनिया से कूच कर गए उनकी भावुकता और समर्पणशीलता भी हैरान करने वाली रही। जयललिता अब दस साल तक चुनाव नहीं लड सकेंगी। अच्छा हुआ कि देश को एक भ्रष्टाचारी से कुछ वर्षों के लिए मुक्ति तो मिली। देश की सवा सौ करोड जनता अब उन तमाम भ्रष्टाचारियों के जेल में सडाये जाने का इंतजार कर रही है, जिन्होंने राजनीति को बेईमानी का अखाडा बनाकर रख दिया है। यह भ्रष्ट नेता काली कमायी के बलबूते पर चुनाव जीतते हैं। मंत्री भी बन जाते हैं। कुछ भ्रष्टाचारी ही कानून के शिकंजे में आ पाते हैं। क्योंकि अधिकांश भ्रष्टों को सारे कानूनी दांव-पेंचों की भरपूर जानकारी होती है। भ्रष्टाचारी नेता कानून व्यवस्था की मशीनरी को भी भ्रष्टाचारी बनाने से नहीं चूकते। यानी रिश्वतखोर मानते हैं कि जिस तरह से वे रिश्वत के लालच में बिकते रहे हैं वैसे ही वे हर किसी को रिश्वत देकर अपनी हर बाधा पार कर सकते हैं। तामिलनाडु की भ्रष्टाचारी मुख्यमंत्री को बेनकाब कर जेल पहुंचाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी वर्षों से ऐसे तमाम भ्रष्टाचारियों के खिलाफ जंग लडते चले आ रहे हैं।
हिन्दुस्तान के वे इकलौते नेता हैं जो आखिरी दम तक बडे से बडे भ्रष्टाचारी के खिलाफ डटे रहते हैं। अगर इन्होंने साहस नहीं दिखाया होता तो घपलेबाज महारानी की लूट का सिलसिला चलता ही रहता। जयललिता के प्रशंसकों की गुंडागर्दी तो देखिए... जैसे ही उनकी नेता दोषी ठहरायी गयीं तो उन्होंने सुब्रमण्यम स्वामी की तस्वीरें जलानी शुरु कर दीं। चप्पलें बरसाकर भी अपना नपुंसक रोष जताया। जिन लोगों के 'आदर्श' ही भ्रष्ट हों उनके लिए ऐसी हरकतें मर्दानगी की निशानी होती हैं। स्वामी तो आदर के हकदार हैं। उनका तो देश के कोने-कोने में सत्कार होना चाहिए। चंद चापलूसों के शर्मनाक कारनामे, उनकी तथा उन जैसे तमाम नेताओं की लडाकू छवि का बाल भी बांका नहीं कर सकते। यह देश न तो भ्रष्टाचार को बर्दाश्त कर सकता है और न ही भ्रष्टाचारियों को। भ्रष्टाचारियों के पाले-पोसे चेले-चपाटे और अंधभक्त तो ईमानदार योद्धाओं के पुतले जलाते ही रहेंगे। उनका बस चले तो वे उन्हें जिन्दा ही जला दें।

Monday, September 29, 2014

अभिनेत्री की टुच्ची राजनीति

उनका नाम है हेमा मालिनी। तडक-भडक और खूबसूरती से उन्हें जन्मजात लगाव है। खुशहाली और खुशहाल चेहरे उनकी पहली पसंद हैं। गरीबी और बदहाली से उनका कभी कोई वास्ता नहीं पडा, इसलिए गरीबों, बेबसों और वक्त के मारों की तौहीन करने, कोसने और दुत्कारने के मौके तलाशती रहती हैं। अभिनेत्री को तो याद भी नहीं रहता कि वे धार्मिक नगरी मथुरा की सांसद हैं। जब मीडिया उन्हें बार-बार याद दिलाता है कि भाजपा की मेहरबानी से अब वे लोकसभा की सदस्य भी बन गयी हैं तब कहीं जाकर उनकी तन्द्रा टूटती है। कुछ घंटो के लिए अभिनेत्री मथुरा जाती हैं तो नानी याद आ जाती है। अकेली जान और इतने सारे काम...। किसे सुलझायें और किस-किस की सुनें। यहां तो उनकी झलक पाने के लिए लोगों की भीड लग जाती है। असली तकलीफों के मारे तो उन तक पहुंच ही नहीं पाते। ऐसे में बेचारी फिल्मी नारी अपने संसदीय क्षेत्र की विभिन्न समस्याओं से रूबरू हो तो कैसे? वैसे भी उनका मन पता नहीं कहां-कहां भटकता रहता है। इसलिए बचकाने बोलों के ढोल पीटकर लोगों का मनोरंजन करती नजर आती हैं। उन्हें जागरूक लोगों का गुस्सा तो कतई नजर नहीं आता। पिछले दिनों उन्होंने वृंदावन के एक आश्रम का दौरा किया। मथुरा संसदीय क्षेत्र के अंतर्गत ही आता है वृंदावन। इसी नगरी में हजारों विधवाएं बडी दयनीय स्थिति में रहती हैं। जब उन्हें कहीं और ठौर नहीं मिलता तो वे यहां चली आती है। यहां उन्हें सुकून और शांति मिलती है। यह परंपरा वर्षों से चली आ रही है। अधिकांश विधवाएं मंदिरों में कीर्तन करती हैं। कई ऐसी भी हैं जिन्हें भीख मांगकर जैसे-तैसे दिन काटने पडते हैं। मंदिरों में घंटों भजन करने वाली विधवाओं को मंदिर प्रशासन द्वारा बडी मुश्किल से पांच-दस रुपये की खैरात दी जाती है। इस घोर महंगाई के युग में पांच-दस रुपये में क्या होता है। मोटा चढावा पाने वाले मंदिरों के कर्ताधर्ता विधवाओं के साथ ऐसा शर्मनाक मजाक करते हैं कि देखने और सोचने वालों का भी सिर शर्म से झुक जाता है। वैसे भी अंधाधुंध धन की आवक के चलते अब मंदिर, मंदिर नहीं रहे। यहां भी कारोबार और कारोबारियों ने अपनी पैठ बना ली है। इस देश में जिस रफ्तार से शोरुम खुलते हैं उसी तरह से देखते ही देखते मंदिर तन जाते हैं। भक्तों की भीड लगने में देरी नहीं लगती। चढाने वाले चढाते हैं और कमाने वालों की तिजोरियां भरती चली जाती हैं।
हेमा को समझ में ही नहीं आया कि उन्हें करना और कहना क्या है। उन्होंने विधवाओं की मूलभूत समस्याओं पर गौर करने की बजाय उनपर कीचड उछाल कर अपनी अक्ल के दिवालियेपन का सबूत पेश कर दिया। वे फटाक से बोल पडीं कि बंगाल और बिहार से आने वाली विधवाओं ने इस पवित्र नगरी की तस्वीर को बिगाडकर के रख दिया है। इनकी अंटी में अच्छी-खासी रकम होती है फिर भी यह आदतन भीख मांगती हैं। वृंदावन में हजारों विधवाएं भरी पडी हैं। यह नगरी अब और विधवाओं का बोझ नहीं ढो सकती। अच्छा तो यही होगा कि विधवाएं अपने-अपने प्रदेश में वापस लौट जाएं। बंगाल और बिहार में भी मंदिरों की कमी नहीं हैं। वे बडे आराम से वहां रह सकती हैं। अभिनेत्री ने शिवसेना की तर्ज पर अलगाव के बीज बोने की चेष्टा करने की भूल तो कर डाली, लेकिन जब तालियों और वाहवाही के बदले गालियां बरसने लगीं तो चेहरे का सारे का सारा मेकअप ही उतर गया। किसी दूसरे के लिखे डायलाग बोलना जितना आसान होता है, उतना ही मुश्किल होता है सच की तह तक जा पाना। हवा में उडती फिरती अभिनेत्री ने विधवाओं पर निर्मम कटाक्ष तो कर दिया, लेकिन उन्हें उनकी मजबूरी नजर नहीं आयी। यह सच है कि वृंदावन में रहने वाली ७५ प्रतिशत विधवाओं का नाता पश्चिम बंगाल से है। पति की मौत के बाद उन्हें किसी का सहारा नहीं मिलता। जमीन-जायदाद के लालच में अपने भी बेगाने हो जाते हैं। रुढ़िवादी परंपराओं के चलते वे पुनर्विवाह भी नहीं कर पातीं। इन विधवाओं को अपनों के द्वारा ही इस कदर प्रताड़ित किया जाता है कि वे शारीरिक और मानसिक रूप से टूट जाती हैं और अंतत: उन्हें वृंदावन में आकर पनाह लेनी पडती है। बिहार और अन्य प्रदेशों की बेसहारा विधवाओं को भी यह धार्मिक नगरी हाथोंहाथ अपनाती है। कुछ विधवाएं तो इतनी कमजोर होती हैं कि उन्हें वृंदावन में भीख मांगने को विवश होना पडता है। कुछ का दैहिक शोषण भी होता रहता है। यह भी कटु सच है कि अपना घर-परिवार छोडने को मजबूर कर दी जाने वाली अधिकांश विधवाएं अनपढ और छोटी जाति की होती हैं। इन्हें अपने गांव में कोई काम नहीं मिलता। शहर भी दुत्कार देते हैं। ऐसे में बेचारी अगर वृंदावन चली आती हैं तो कौन-सा गुनाह करती हैं? यह विधवाएं किसी को कोई कष्ट नहीं देतीं। इनकी तो सारी उम्र ही कष्ट भोगते हुए कट जाती है, लेकिन हेमा ने इन्हें 'बाहरी' करार देकर अपने ओछेपन का ही परिचय दिया है। यह देश सबका है। हर नागरिक को कहीं भी रहने की आजादी है। असहाय विधवाएं पलायन को क्यों विवश होती हैं इस पर चिंतन-मनन कर कोई रास्ता निकालने की जरूरत है, न कि उन्हें फालतू मानकर दुत्कारने की। उन्हें उनका हक दिलाने की जिम्मेदारी भी जनप्रतिनिधियों पर है। सांसद ही यदि ऐसी टुच्ची और विभाजनकारी सोच रखेंगे तो देश का क्या होगा? हेमा मालिनी जैसी नारियों की सोच की अपनी एक सीमा है। उससे आगे वे जा ही नहीं सकतीं। उनसे किसी भी तरह के विकास और परिवर्तन की उम्मीद रखना बेमानी है। विधवाओं को कोसने वाली सांसद के मन में शायद ही कभी यह सवाल आया होगा कि विधवाओं को ही क्यों ऐसे दिन देखने पडते हैं? ...विधुरों को आखिर ऐसी शर्मनाक स्थितियों का सामना क्यों नहीं करना पडता?

Thursday, September 18, 2014

असली नायक कौन...और खलनायक कौन?

यह देश की आम औरत की कहानी है। एकदम सच्ची। बेरहम हालातों ने उसे ऐसी जगह लाकर खडा कर दिया है जहां उस पर उंगलियां ही उंगलियां उठ रही हैं। उसका नाता है उत्तर प्रदेश के एक गांव से। इस गांव की भी वैसी ही हालत है जैसी कि देश के अधिकांश ग्रामों की। महात्मा गांधी कहते थे कि असली भारत गांव में बसता है। सच कहते थे वे। गरीबी, बदहाली और बेरोजगारी आज भी लगभग हर गांव की पहचान है। इस कहानी की नायिका वह आम औरत है जो अपने दो बच्चों के साथ गांव में रहती है। रोजी-रोटी की तलाश में पति को देश की राजधानी दिल्ली जाना पडा। गांव रोजगार देने में सक्षम नहीं था। कोई भी मां खुद तो भूखी सो सकती है, लेकिन अपने बच्चों को रोटी के लिए तरसता नहीं देख सकती। उस औरत को जब कोई काम-धंधा समझ में नहीं आया तो उसने कच्ची शराब बनानी शुरू कर दी। बापू के गांव में पीने के लिए पानी भले ही न मिले, लेकिन शराब जरूर मिल जाती है। हर गली-कूचे में भरे पडे हैं पीने-पिलाने वाले। इसलिए उस औरत को भी यही धंधा फायदेमंद लगा। अच्छा-बुरा क्या है... इसमें उसने जरा भी अपना दिमाग नहीं खपाया।
वह धडल्ले से कच्ची शराब बनाकर बेचने लगी। बच्चों को पढाने और उनका पेट भरने लायक कमायी होने लगी। उसके यहां पियक्कडों का तांता लगने लगा। उसकी बनायी कच्ची शराब आसपास के गांव के पियक्कडों को भी ललचाने लगी। नशीली शराब बनाने में उसने महारत हासिल कर ली। शराब जब भट्टी पर च‹ढी रहती तो उसे पहले वह चखती और उसके बाद ग्राहकों के हवाले करती। चखते-चखते उसे मज़ा आने लगा। कडवाहट उसे भाने लगी। धीरे-धीरे उसे पीने की ऐसी लत लगी कि वह चौबीस घंटे नशे में धुत रहने लगी। राजधानी से लौटे पति ने पत्नी को बहुतेरा समझाया। दोनों में लडाई-झगडा होने लगा। पति का कहना था कि मां की देखा-देखी बच्चे भी शराबी बन जाएंगे। उनके भविष्य की ऐसी-तैसी हो जाएगी। कभी अपने बच्चों के लिए मर-मिटने वाली मां ने अपने पति की एक भी नहीं सुनी। सुनती तब जब होश में रहती। यहां तो दारू ने मां की ममता ही लूट ली थी। ऐसे में पति को अपनी भूल का एहसास हुआ। अगर उसने पत्नी को तब टोका और रोका होता जब उसने अवैध शराब के धंधे में कदम रखा था तो ऐसे शर्मनाक दिन न देखने पडते। दोषी तो वह भी कम नहीं। धन की चमक ने उसे भी अंधा बना दिया था। जब आंख खुली तब तक बहुत देरी हो चुकी थी।
हताश और निराश पति ने पंचायत का दरवाजा खटखटाया। ज्ञानवान पंचों ने महिला को समझाया और चेताया गया कि अगर घर-परिवार से प्यार है तो शराब छोड दो। शराब ज़हर है। सत्यानाशी है। इसने कभी भी किसी का भला नहीं किया। महिला ने पंचायत भवन में जुटी भीड की तरफ नजर दौडायी। आधे से ज्यादा उसके ग्राहक थे। कभी दिन में तो कभी रात में उसके यहां आ धमकते थे। कितनी पी जाते थे उन्हें भी पता नहीं होता था। उस महिला ने भरी पंचायत में ऐलानिया स्वर में अपना फैसला सुनाया कि वह अपना घर, पति और बच्चे तो छोड सकती है, लेकिन शराब नहीं। यही शराब ही उसकी जिन्दगी है। इसके बिना वह एक पल भी जिन्दा नहीं रह सकती। पंचायत दंग रह गयी। एक अनपढ औरत से उन्हें ऐसे करारे जवाब की उम्मीद नहीं थी।
एक दूसरी तस्वीर भी है। गुजरात में कहने को तो शराब बंदी है, लेकिन असली सच पीने वाले ही जानते हैं। हर शहर, गांव और कस्बे में असली और नकली शराब आसानी से उपलब्ध हो जाती है। आर्थिक नगरी सूरत में तो बाकायदा कई गलियां हैं जहां के घर मयखाने में तब्दील हो चुके हैं। यहां का विशालतम कपडा बाजार और डायमंड मार्केट देश ही नहीं दुनिया के लिए भी आकर्षिण केंद्र है। प्रतिदिन लाखों व्यापारियों का इस शहर में आना-जाना लगा रहता है। स्थानीय लोगों का हूजूम भी यह दर्शाता  है कि इस शहर में दम है। दमदार शहर में पीने वाले न हों...ऐसा कैसे हो सकता है! शराब से सजी-धजी गलियां सभी पीने वालों के स्वागत के लिए सदैव तत्पर रहती हैं। किसी के लिए कोई बंदिश नहीं है। किसी भी ब्रांड की शराब, रम और बीयर चुटकी बजाते ही हाजिर हो जाती है। नमकीन से लेकर मांस-मटन और अंडों का भी इंतजाम हो जाता है। हर घर के सामने पीने वालों की भीड लगी रहती है। कुछ घरों के अंदर भी मेहमाननवाजी की जाती है। पुरुषों... बच्चों के साथ-साथ महिलाएं भी बडी तन्मयता के साथ साकी की भूमिका निभाती हैं। पियक्कडों को घरों में बैठकर पीने-पिलाने में जहां सुरक्षित होने का एहसास होता है, वहीं नयन सुख भी मिलता है। जिन-जिन घरों में महिलाएं शराब पिलाती हैं वहां पीने वालों की भीड यकीनन ज्यादा रहती है। पियक्कड जब नशे में चूर हो जाते हैं तो उन्हें संभालने का काम भी महिलाएं करती हैं। अधिकांश पुरुषों का बिना शराब पिये काम नहीं चलता। दूसरों को पिलाते-पिलाते वे भी हर दर्जे के नशेडी हो गये हैं। कुछ महिलाएं और युवतियां भी नशे में टुन्न रहती हैं। बच्चों को भी गिरते-पडते देखा जाता है। पुलिस आती है और अपनी मुट्ठी गर्म कर चली जाती है। नेताओं को भी उनका हिस्सा पहुंच जाता है। मय के नशे में सराबोर रहकर सतत आबाद रहने वाले मेले की खबर शासकों को न हो क्या यह संभव है? ऐसे में सोचिए और तय कीजिए कि इस कहानी का असली नायक कौन... और खलनायक कौन है?

Thursday, September 11, 2014

लानत है इन पर

मुख्यमंत्री पता नहीं कौनसी दुनिया में रहते हैं? होश में रहने वाला कोई भी जिम्मेदार नेता ऐसी बातें तो नहीं करता जैसी कि वे करते हैं। अपनी ही मस्ती में अपना राग अलापने वाले बिहार के मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी की सोच पर गुस्सा भी आता है और दया भी। कैसे-कैसे नालायकों को सत्ता हासिल हो जाती है। जनता इन्हें बडी उम्मीदों के साथ वोट देती हैं, लेकिन यह उसके हित का तो कोई काम नहीं कर पाते। ऊल-जलूल बकते हुए लोगों का मनोरंजन करते रह जाते हैं। यकीनन जीतनराम मांझी का सूझबूझ से कोई वास्ता ही नहीं है। हर समस्या का हल अपनी जेब में लिए फिरते हैं। मुंह खोलने में किंचित भी देरी नहीं लगाते। जिस बिहार प्रदेश के मुखिया हैं वहां की तरक्की कर पाना उनके बस की बात नहीं दिखती। इसलिए दलितों और शोषितों को बरबादी के पाठ जरूर पढाने लगे हैं। वे नहीं चाहते कि उनके प्रदेश के लोग होशो-हवास में रहें। उनके नक्कारेपन पर कोई उंगली न उठाए इसलिए बदहाल जनता को दारू में डूबकर तबाह होने की सीख देकर अपने हैरतअंगेज चरित्र के पन्ने खोलते चले जा रहे हैं। उनकी निष्क्रियता की हकीकत उजागर हो गयी है। उनमें जनता के हित में कुछ कर दिखाने का न तो दम है और न ही कोई इच्छा। बस टाइमपास करने में लगे हैं। लालू प्रसाद यादव की राह पर चलकर लोगों का मनोरंजन कर रहे हैं। वे जानबूझकर इस सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हैं कि शराब ने कितने घर उजाडे हैं और कितनों को बेमौत मारा है। पर लगता है कि वे भी उसी सुरा के गुलाम हैं जिसकी हिमायत करते हुए उन्होंने कहा है कि काम के बाद पावभर शराब पीकर सो जाने में कोई बुराई नहीं है। अपने कथन को जायज ठहराने के लिए यह बताना भी नहीं भूले कि असली संकट तो तब खडा होता है जब हमारे दलित भाई दिन-दहाडे बोतल चढाकर सडकों पर इधर-उधर घूमते और गिरते-पडते दिखायी देते हैं।
जिन दलितों के घरों में हफ्तों चूल्हे नहीं जलते और उन्हें खाली पेट सोना पडता है उनकी चिंता-फिक्र करने और उन्हें मेहनत करने की सीख देने की बजाय शराबी बनने के लिए प्रोत्साहित करने वाले मुख्यमंत्री को पत्रकारों ने जब यह बताया कि प्रदेश में इस कदर भुखमरी है कि हजारों लोग अन्न से वंचित हैं। उन्हें हफ्तों खाना नसीब नहीं हो पाता। ऐसे में उन्हें चूहे खाने को विवश होना पड रहा है, तो उन्होंने छाती तानकर कहा कि चूहे खाने में क्या बुराई है? चूहा खाना सेहत के लिए अच्छा है। मैंने भी कई बार चूहे के मांस का आनंद लूटा है। मदिरा के साथ चूहे के मांस खाओ और सभी गम भूल जाओ। वाकई नाटकीयता और बचकानेपन की यह हद है। अपने ही लोगों का भद्दा मजाक!
क्या कभी आपने किसी मुख्यमंत्री को कालाबाजारी और अवैध कारोबार करने वालों की पीठ थपथपाते देखा है? मांझी कहते हैं परिवार के सदस्यों के उदर निर्वाह के लिए लूटपाट और काले धंधे करने में कोई हर्ज नहीं है। जब मेहनत से काम न बने तो लूटमारी पर उतरने में कोई बुराई नहीं है। पापी पेट के लिए कुछ भी कर गुजरना अपराध नहीं, सदाचार है। यकीनन मांझी को पुरस्कृत किया जाना चाहिए। अभी तक तो हम यही पढते आये हैं कि चोरी और हेराफेरी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। लूट, लूट होती है, भ्रष्टाचार, भ्रष्टाचार होता है और अनाचार और व्याभिचार की और कोई और परिभाषा नहीं हो सकती। काले कारोबार को छोटा व्यापारी अंजाम दे या बडा... है तो अपराध ही। लेकिन बिहार के इस मुख्यमंत्री की विषैली सोच के क्या कहने! इस महाअजूबे मुख्यमंत्री के संस्कारित बेटे को जब एक होटल के कमरे में रंगरेलियां मनाते हुए दबोचा गया तो इनका बयान आया कि इसमें गलत क्या है? जवानी में तो यह सब आम है। मेरे बेटे ने थोडी मौजमस्ती क्या कर ली तो मीडिया ने तूफान खडा कर दिया। मेरा बेटा भी देश का आम नागरिक है। इस देश के हर नौजवान को अपनी गर्लफ्रेंड के साथ मौजमस्ती की छूट है। यानी मुख्यमंत्री जी को अवैध रिश्तों पर भी कोई आपत्ति नहीं। है न गजब की बात। सोचिए यदि देश के हर प्रदेश का मुख्यमंत्री इन जैसी घटिया सोच वाला हो जाए तो क्या होगा? दरअसल देश के विशाल प्रदेश बिहार की यही बदनसीबी है कि उसे कोई ढंग का मुखिया ही नहीं मिलता। इसलिए यहां के लोगों को दूसरे प्रदेशों में जाकर रोजगार तलाशना पडता है और प्रताडना झेलनी पडती है। लानत है ऐसे सत्ताधीशों पर जिन्हें सत्ता तो चलानी नहीं आती, लेकिन उसे पाने के लिए पगलाये रहते हैं। जनता भी ऐसे बेवकूफों को पता नहीं क्यों अपना कीमती वोट देती है और सतत बेवकूफ बनती रहती है।

Saturday, September 6, 2014

क्या हुआ पापा?

महान देश के महान नेता महान बोलवचनों से लोगों का ज्ञानवर्धन करते रहते हैं। हाल ही में एक सत्ताखोर ने फरमाया कि जब तक दुनिया है तब तक बलात्कार होते ही रहेंगे। उनकी मानें तो हिन्दुस्तान की धरती का बलात्कारों से कभी भी नाता नहीं टूटने वाला। बडा अटूट रिश्ता है। जहां देखो, वहां बलात्कार। न रिश्तों की परवाह और ना ही उम्र की कोई लाज शर्म!
हरियाणा के शहर रोहतक में बदमाशों की छेडछाड से तंग आकर दो लडकियों को आत्महत्या करने को मजबूर होना पडा। अपनी अस्मत को बचाने के लिए मौत को गले लगाने की यह घटना बताती है कि हमारे यहां की पुलिस कितनी निकम्मी है। उसने अपनी साख ही खो दी है। महिलाओं का तो उस पर से भरोसा ही उठ चुका है। अगर ऐसी बात नहीं होती तो गुंडो की सतायी युवतियां पुलिस थाने पहुंचतीं और अपनी फरियाद सुनातीं। लेकिन उन्हें खाकी वर्दी के नकारेपन का पता था। ऐसे में आत्महत्या ही उन्हें आखिरी रास्ता नजर आया।
देश की राजधानी दिल्ली में एक वासनाखोर शिक्षक की हैवानियत ने इंसानियत और भरोसे की चूलें हिला कर रख दीं। मां-बाप ने अपनी लाडली बिटिया को ज्ञान अर्जन के लिए इस शिक्षक के पास ट्यूशन के लिए भेजा था। लेकिन ट्यूटर ने सातवीं कक्षा में पढने वाली छात्रा को कोर्स की किताबों का पाठ पढाने और सिखाने की बजाय कुछ और ही हरकतें करनी शुरू कर दीं। वह उसे अपने कम्प्यूटर पर पार्न फिल्में दिखाते हुए सेक्स का पाठ पढाने लगा। मौका पाते ही उसने बलात्कार कर अपनी मंशा पूरी कर ली। फिर तो इसका सिलसिला-सा चल पडा। कुकर्मी ट्यूटर दो साल तक बालिका को धमका-चमका कर बलात्कार करता रहा। लडकी पढाई में पिछडती चली गयी। बीते सप्ताह लडकी की मां ने मोबाइल फोन में ट्यूटर द्वारा भेजे गए अश्लील मैसेज पढे तो उसके पैरों तले की जमीन ही खिसक गयी। ट्यूटर के विश्वासघात और गंदी हरकत पर उसे गुस्सा भी आया और रोना भी। उसने पति को पूरी कहानी बतायी। पिता गुस्से में आग बबूला हो उठे। उन्होंने लडकी को डांटा-फटकारा। शर्म के मारे लडकी का चेहरा उतर गया। वह इस कदर भयभीत हो गयी कि उसने घर में रखा डिटॉल पीकर खुदकुशी करने की कोशिश की। उसे अस्पताल पहुंचाया गया। डॉक्टरों ने किसी तरह से उसे बचा लिया।
पिछले वर्ष उत्तराखंड में आयी प्राकृतिक आपदा ने कितनी तबाही मचायी, कितनी जानें लीं और कितनों को अनाथ किया इसका पूरा लेखा-जोखा तो किसी के पास नहीं है। सरकारें तो कभी पूरा सच उजागर नहीं करतीं। इसी भीषण प्राकृतिक आपदा की शिकार हुई एक दस वर्षीय बच्ची अपने माता-पिता को खोने के बाद इधर-उधर भटक रही थी। उसे किसी ने सहारा नहीं दिया। बर्बादी और तबाही के बाद क्षेत्र में मचे हाहाकार के बीच सेना के एक फौजी ने उसे हेलीकॉप्टर में बैठाकर हरिद्वार पहुंचा दिया। जहां उसे एक महिला मिली। महिला उसे मेरठ ले गयी और जबरन कचरा बिनने के काम में झोंक दिया। बच्ची को यह काम रास नहीं आया तो वह फिर हरिद्वार जा पहुंची और भीख मांगने लगी। इसी दौरान एक उम्रदराज अय्याश ने उसे अपनी वासना का शिकार बना डाला। उसने यह भी नहीं सोचा कि यह अनाथ उसकी बिटिया जैसी है। वैसे गैरों को यह सीख देने से क्या फायदा...। अपने देश की धरती पर ऐसे नराधम भी हैं जो अपनी बेटियों की इज्जत को तार-तार करने से बाज नहीं आते। अपनी बहू-बेटियों से कुकर्म करने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती। ऐसे दुश्चरित्र पिताओं की खबरें जब बाहर आती हैं तो न जाने कितने संवेदनशील भारतीयों कर कलेजा कांप जाता है। उनका बस चले तो वे ऐसे जानवरों को भरे चौराहे पर गोली से उडा दें। इस अनंत पीडा और तकलीफ का आखिर हल क्या है? ऐसी तमाम खबरें जब सूर्खियां पाती हैं तो दिमाग जैसे काम करना बंद कर देता है। ऐसे में यह लघुकथा दिमाग में कौंधने लगती है। इसकी लेखिका हैं... गायत्री शर्मा। उन्होंने इसे बंगलुरु में ६ साल की बच्ची के साथ स्कूल में हुए बलात्कार की घटना से दुखी, क्रोधित, शर्मसार और अपराधबोध से ग्रसित होने पर लिखा है :
"बच्ची से बलात्कार के एक केस में अदालत तारीख पर तारीख देती रही। हर तरफ शक, सवाल, संदेह, गुस्सा, हडबडी, हिकारत... इतने साफ और उलझे केस के फैसले में भी इतना समय? और अंतत: एक दिन भरी अदालत में सर्वोच्च न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश ने बेहद अजीब और खौफनाक हरकत करते हुए अपना फैसला सुनाया। पैन के तेजवार से अपनी दोनों आंखों को फोडते हुए जज साहब ने दर्द से भरी, लेकिन ऊंची आवाज में कहा...'मैं अदालत में दर्ज हुए इस केस और कहीं भी दर्ज ना हुए ऐसे तमाम केसों के सभी दोषियों को दृष्टिहीन होने और लिंग भंग की सजा सुनाता हूं।'
अदालत के अंतिम फैसले के बाद पता नहीं ऐसा क्या हुआ, कि वहां खडे लगभग सारे पुरुषों ने हडबडाते हुए एक हाथ अपनी आंखों पर और दूसरा बैल्ट के नीचले हिस्से पर रखा! ...और मासूम पीडिता ने अपने हडबडाए पिता को झिंझोड़कर पूछा... "क्या हुआ पापा???"

Thursday, August 28, 2014

मीडिया और मोदी मंत्र

इन दिनों मीडिया प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से खफा है। सभी को पता है कि उन्हें प्रधानमंत्री बनाने में मीडिया का कितना बडा योगदान है। मीडिया ने यूपीए-२ के कार्यकाल के गडबड घोटालों का पर्दाफाश किया। मीडिया ही कई महीनों तक महंगाई, भ्रष्टाचार की खबरों की सुर्खियां बनाता रहा और जनता को बताता रहा कि अक्षम और भ्रष्ट कांग्रेस के चंगुल से अगर देश को नहीं निकाला गया तो देश पूरी तरह से गर्त में समा जाएगा। चाहे न्यूज चैनल हों, अखबार हों, सोशल मीडिया हो सभी ने नरेंद्र मोदी के पक्ष में जबरदस्त माहौल बनाया। लेकिन पीएम बनने के बाद नरेंद्र मोदी सोशल मीडिया को तो अपनी सफलता का श्रेय देते हैं, लेकिन अखबारों और न्यूज चैनलों से दूरी बनाकर जैसे उनका तिरस्कार करते दिखायी देते हैं। जो लोग मोदी को करीब से जानते हैं उनका कहना है कि गुजरात दंगों के बाद मीडिया के द्वारा जिस तरह से नरेंद्र मोदी को लगातार कटघरे में खडा किया गया उससे उनके दिल में मीडिया के प्रति खटास आ गयी। उन्होंने लगभग सभी न्यूज चैनलों और अखबार वालों से दूरी बनानी शुरू कर दी। गुजरात का मुख्यमंत्री बनने से पहले मोदी इलेक्ट्रानिक मीडिया और प्रिंट मीडिया से मित्रता बनाये रखने में यकीन रखते थे। उस दौर में वे पत्रकारों के साथ बतियाते और चुटकलेबाजी करते देखे जाते थे। मुख्यमंत्री बनने के बाद उनमें बदलाव आता चला गया। गुजरात दंगों के बाद जब उन्हें 'खलनायक' के तौर पर पेश किया जाने लगा तो उनकी सहनशीलता भी जवाब देने लगी। एक बार उन्होंने कहा था कि अखबारों में छपने वाली कैसी भी खबर हो, बीस मिनट बाद तो वह रद्दी में तब्दील हो जाती है। दरअसल मोदी की यही चाहत और नीति रही है कि मीडिया उन पर किसी भी हालत में हावी न होने पाए।
प्रधानमंत्री बनने के बाद भी नरेंद्र मोदी अपने उसूल पर चल रहे हैं। आमतौर पर सभी प्रधानमंत्री किसी जाने-माने पत्रकार को अपना मीडिया सलाहकार बनाते हैं, लेकिन नरेंद्र मोदी ने अभी तक किसी को मीडिया सलाहकार नियुक्त नहीं किया है। नरेंद्र मोदी परम्पराओं में यकीन नहीं रखते। इसीलिए ही उन्होंने विदेशी दौरों में पत्रकारों को साथ ले जाना बंद कर दिया है। इससे पत्रकारों के उस जमात को धक्का लगा है जो जोड-जुगाड कर प्रधानमंत्रियों के साथ विदेश यात्राएं करने की आदी रही है। कई अखबारों के संपादक और मालिक प्रधानमंत्रियों के दौरों की राह देखा करते थे, क्योंकि उन्हें मुफ्त में यात्राएं करने और मौजमस्ती का अवसर मिलता था। नरेंद्र मोदी की देखा-देखी मंत्री और सांसद भी मीडिया से कतराने लगे हैं। बताते हैं कि मंत्रियों और नौकरशाहों को यह कहा गया है कि वे मीडिया से तभी बात करें जब बहुत जरूरी हो। दरअसल नरेंद्र मोदी को सोशल मीडिया से ज्यादा लगाव है। लोकसभा चुनाव से पहले ही वे सोशल मीडिया का भरपूर उपयोग कर लोगों से जुडते रहे हैं। उन्होंने मंत्रियों और पार्टी के सांसदों को निर्देश दे दिया है कि सरकारी योजनाओं और अन्य क्रियाकलापो की लोगों को जानकारी सोशल मीडिया के माध्यम से देने की अधिकतम कोशिश करें।
मीडिया मोदी पर यह आरोप लगाने से भी नहीं चूक रहा है कि चुनाव के दौरान तो उन्होंने मीडिया का जमकर इस्तेमाल किया। साक्षात्कारों की झडी लगा दी जिनकी वजह से देशवासियों ने उन्हें जाना और समझा और उनके प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा किया। लेकिन अपना काम निकल जाने के बाद मोदी का मीडिया से आंखें फेर लेना अचंभित करने वाली बात है। जाने-माने पत्रकार एच.के. दुआ कहते हैं कि सरकार और मीडिया एक दूसरे के बगैर नहीं रह सकते। सरकार, मीडिया की सूचना की भूख मिटाने का एकमात्र बडा माध्यम है तब सरकार के लिए भी उसकी महत्ता इसलिए है क्योंकि मीडिया के जरिए ही वह जनता तक पहुंचती है। भारत में अब तक इंदिरा गांधी को छोड दिया जाए तो लगभग सभी प्रधानमंत्रियों के मीडिया के साथ बहुत ही मधुर संबंध रहे हैं। उन्होंने आपातकाल के दौरान मीडिया पर सेंसरशिप लगा दिया गया था। हालांकि बाद में इंदिरा गांधी ने अपने संबंध मीडिया से सुधारने की कोशिश की। अटल बिहारी वाजपेयी समय-समय पर मीडिया के जरिए जनता से संवाद कायम करते थे। उन्होंने मीडिया का इस्तेमाल एक हथियार के तौर पर किया। हालांकि इसके बाद मनमोहन सिंह पर मीडिया से दूरी बनाने का जरूर आरोप लगा। मनमोहन सिंह ने बहुत कम बार प्रेस कांफ्रेंस की जिससे उनकी छवि मीडिया से मुंह छिपाने वाली बन गई थी। हमें यहां यह समझने की जरूरत है कि प्रधानमंत्री का जनता के प्रति उत्तरदायित्व है। जब आप मीडिया से रूबरू होते हैं तो जनता तक आपकी बात पहुंचती है। देश के लिए नीतियां बनाने और गर्वर्नेंस में भी मीडिया काफी सहयोगी साबित होती है। जनता के मूड को पता करने के लिए मीडिया एक सशक्त साधन है। सरकार और मीडिया एक-दूसरे के साथी हैं। इस साथ और भरोसे के सतत बने रहने में ही देश की भलाई है। १५ अगस्त के दिन लाल किले पर दिये गये मोदी के भाषण ने आम जनता को आश्वस्त किया है कि वे देश का कायाकल्प करके ही दम लेंगे। उनका यह कहना है कि न तो मैं खाऊंगा और न ही किसी को खाने दूंगा... करोडों देशवासियों के दिल को छूने का काम कर गया। उनके इस कथन के बाद मंत्री, सांसद और नौकरशाह सतर्क हो गये हैं। फूंक-फूंककर कदम रख रहे हैं। उनकी विदेश यात्राओं पर भी बंदिश लग गयी है। यानी मोदी का असर तो दिखायी देने लगा है।

Thursday, August 21, 2014

खोटे सिक्कों की अहमियत

भारतीय राजनीति के कुछ चेहरे ऐसे हैं जो बद और बदनाम होने के बावजूद अपना असर बनाये रखते हैं। उन्हें चाहने वालों की संख्या घटती-बढती रहती है, लेकिन फिर भी उनकी राजनीति का सूरज अस्त नहीं होता। लालूप्रसाद यादव को ही लें। इस शख्स ने कितनी जेल यात्राएं कीं मीडिया का निशाना बनता रहा, फिर भी उसे कभी शर्म नहीं आयी। अभी कुछ महीने पहले ही जब चारा घोटाला के मामले में लालू को जेल भेजा गया था तो यह अनुमान भी लगने लगे थे कि इनका अब जेल में ही स्थायी ठिकाना रहेगा। लेकिन शातिर राजनेता जेल से बाहर आने के रास्ते निकाल ही लेते हैं। फिर लालू जैसे चालू नेता की तो हर राजनीतिक पार्टी को जरूरत होती है। इनका किसी एक दल से तो कभी स्थायी जुडाव होता नहीं। 'जहां दम वहां हम' की नीति पर चलते हुए जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं और अपनी खिचडी पकाते रहते हैं। खैर जेल से बाहर आते ही लालू फिर ऐसे सक्रिय हो गये जैसे वे जेल नहीं, किसी तीर्थ यात्रा पर गये थे। लोकसभा चुनाव में भले ही लालू को करारी मात मिली हो, लेकिन उनके लटके-झटके कायम हैं। कम ही ऐसे नेता हैं जिनमें लालू जैसी बेशर्मी और नाटकीयता की भरमार हो। मतलबपरस्ती भी उनमें कूट-कूट कर भरी हुई है। कुर्सी के लिए मर मिटने तक का जज्बा है उनमें। सिद्धांतों से कभी उनका कोई नाता नहीं रहा। ऐसे लोगों के कारण ही इस कहावत को बल मिलता है कि राजनीति में कोई भी दुश्मनी स्थायी नहीं होती। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री नितिश कुमार से फिर लालू ने दोस्ती कर उपरोक्त कहावत को चरितार्थ कर ही दिया है। अब दोनों मिलकर सत्ता सुंदरी की बाहों में समाने को आतुर हैं। लेकिन उनका यह सपना आसानी से पूरा होने वाला नहीं।
लालू प्रसाद यादव की तरह ही अमर सिंह भी सत्ता के जबरदस्त भूखे हैं। वे किसी जमाने में समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह यादव के दायें हाथ कहलाते थे। इस दायें हाथ ने समाजवादी का मुखौटा ओढकर अरबों-खरबों की अवैध माया जुटायी। भ्रष्टाचार और बेइमानी का ऐसा रिकार्ड बनाया कि जिसके सामने लालू प्रसाद भी बेहद बौने हैं। दरअसल अमर सिंह का भी राजनीति में आने का एक ही मकसद था, जैसे-तैसे माल कमाना और अपार धन का मालिक बन जाना। अपने इस मकसद में उन्होंने भरपूर कामयाबी पायी। उन्होंने उद्योगपति अनिल अंबानी से लेकर अमिताभ बच्चन तक के साथ करीबी रिश्ते बनाये। अमर सिंह रिश्ते बनाने में जितने माहिर हैं तोडने में भी उतने फुर्तीले हैं। अमिताभ बच्चन के तो भाई कहलाने लगे थे अमर सिंह। अमिताभ भी उन्हें अपना बडा भाई कहते नहीं थकते थे। लेकिन जो दोस्ती स्वार्थों पर टिकी होती हैं उसमें स्थायित्व होने का सवाल ही नहीं उठता। इन दिनों अमर सिंह न्यूज चैनलों पर अमिताभ और उनकी पत्नी को कोसते नजर आते हैं। वे जया बच्चन को तो हद दर्जे की मतलबी महिला घोषित कर चुके हैं। जया की वजह से ही मुलायम सिंह और उनकी दोस्ती में दरार पडने का भी रोना रोते रहते हैं। अमर सिंह के हिस्से में भी जेलयात्रा आयी थी। लेकिन उन्हें कोई फर्क नहीं पडा। लालू अगर बेशर्म हैं तो अमर महा बेशर्म। ऐसे लोगों के कारण राजनीति को 'वेश्या' तक कहा जाता है और नेताओं पर गालियों की बौछार होती रहती है। जिस अमर सिंह को मुलायम सिंह ने अपनी पार्टी से बाहर कर दिया था उसी को उन्होंने पिछले दिनों हंसते-हंसते गले लगा लिया। समाजवादी पार्टी के ही कार्यक्रम में अमर सिंह मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित थे। यानी बिछडे यार फिर से एक हो सकते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि मुलायम सिंह अमर सिंह को पार्टी से निकालना ही नहीं चाहते थे। कमाऊ पूत हमेशा प्यारा होता है। अमर सिंह तो कमाऊ यार थे जो खुद भी खा रहे थे और मुलायम का भी घर भर रहे थे। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बनीं कि मजबूरन मुलायम सिंह को कडा निर्णय लेना पडा। अपने नेता से अलग होने के बाद अमर सिंह ने यहां-वहां काफी हाथ-पैर मारे, लेकिन मुंह की खानी पडी। अमर सिंह ने मुलायम सिंह की कमियों को उजागर करने का कोई भी मौका नहीं छोडा। जहां जाते वहीं मुलायम तथा उनके परिवार की बेवफाई की दास्तान के पन्ने खोल देते। पर अमर सिंह को किसी ने भी घास नहीं डाली। सभी दल और नेता जिस थाली में खाने, उसी में छेद करने की उनकी नीति से वाकिफ हैं। फिर भी नेताजी को अमर की कमी खलती रही। लोकसभा के चुनावों में हुई शर्मनाक हार ने मुलायम सिंह को अपनी गलती का अहसास करा दिया।
दरअसल, गलती अमर सिंह की भी थी। वे खुद को पार्टी से बडा मानने लगे थे। उन्हें लगता था कि उनके बिना नेताजी चार कदम भी नहीं चल पायेंगे। चार साल के अलगाव ने दोनों को एक-दूसरे की अहमियत का अहसास दिला दिया है। वैसे अमर सिंह जमीनी नेता तो कतई नहीं हैं। सत्ता के बदनाम दलालों में उनकी गिनती की जा सकती है। जोड-तोड में माहिर हैं। अपना काम निकालने के लिए किसी भी पार्टी के नेता, उद्योगपति, माफिया से दोस्ती गांठ सकते हैं। बिफरने और दंडवत होने की कला में उनका कोई सानी नहीं है।
मुलायम सिंह यादव को अपने लाडले अखिलेश सिंह यादव पर बडा नाज था। मुख्यमंत्री बनने के बाद अखिलेश ने प्रदेशवासियों को इतना अधिक निराश किया है कि अब शायद ही वे दोबारा सत्ता पा सकें। प्रदेश की जनता तो विधानसभा के चुनावों का इंतजार कर रही है। वह बेटे और बाप को ऐसा करारा सबक सिखाना चाहती है कि जिसे वे उम्र भर न भूल पाएं। ऐसे में मुलायम को लगता है कि अमर सिंह ही उनके कोई काम आ सकते हैं। यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि  सत्ता का दलाल अमर सिंह मुलायम की बिगडी तकदीर संवारता है या फिर घिसी-पिटी लुटिया को पूरी तरह से डूबो कर रख देता है। वैसे इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि राजनीति के बाजार में खोटे सिक्कों की भी अहमियत बनी रहती हैं।

Thursday, August 14, 2014

ऐसे गूंगे और बहरे सांसद किस काम के?

हुक्मरानों की मेहरबानी से कैसे-कैसे लोग राज्यसभा में पहुंचा दिये जाते हैं। उनका राज्यसभा का सदस्य बनना और बनाया जाना प्रबुद्धजनों को बेहद चौंकाता है। राष्ट्रीय पुरस्कार देने में कौन सा मापदण्ड अपनाया जाता है, वो भी लोगों को समझ में नहीं आता। सैफ अली खान, जैसे हद दर्जे के लुच्चों को जब 'पद्मश्री' मिल जाती है तब माथा पीटने को जी चाहता है। सैफ अली खान फिल्म अभिनेता हैं। फिल्मी कलाकार के तौर पर उन्होंने ऐसा कोई परचम नहीं लहराया कि उन्हें इतना बडा पुरस्कार दे दिया जाता। इस देश में ऐसा ही चलता है। बडे-बडे शिक्षाविदों, वैज्ञानिकों, समाजसेवियों, साहित्यकारों कलाकारों और विद्वानों की पूछ नहीं होती और जोड-जुगाड में माहिर लोगों को हाथोंहाथ लिया जाता है। देश की आजादी का असली आनंद यही लोग उठा रहे हैं। फिल्म अभिनेत्री रेखा को राज्यसभा की सदस्यता दे दी गयी। क्यों दी गयी, इसका जवाब न दाता के पास है और न ही पाता के पास। रेखा ऐसी अभिनेत्री हैं जिनका विवादों में चोली-दामन का साथ रहा है। ऐसी ढेरो अभिनेत्रियां हुई हैं जिन्होंने रेखा से कई गुना अच्छा अभिनय कर दर्शकों को अपना मुरीद बनाया। लेकिन उन्हें राज्यसभा के लिए मनोनीत करने लायक नहीं समझा गया। घोर विवादास्पद रेखा में कांग्रेस के महारथियों ने पता नहीं कौन से ऐसे गुण देखे कि वे उस पर मेहरबान हो गये। रेखा ने कितने घर उजाडे और कितनी शादियां कीं इसकी गिनती उसे भी याद नहीं होगी। भारतीय कानून को अपंग समझने वाली फिल्म अभिनेत्री हेमा मालिनी शादीशुदा फिल्म अभिनेता धर्मेंद्र से शादी कर कितनी नारियों की आदर्श बनी होंगी और उन्होंने भी पता नहीं कितने बसे-बसाये घर उजाडे होंगे। ऐसी नारी को भाजपा ने पहले राज्यसभा की सदस्यता और अब मथुरा से सांसदी दिलवाकर भले ही चुनावी लाभ पाया हो, लेकिन युवा पीढी के लिए अच्छा आदर्श तो नहीं प्रस्तुत किया। घाट-घाट का पानी पी चुकी रेखा को कांग्रेस की मेहरबानी से सांसद बनाये जाने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया कि इतनी बडी उपलब्धि के लिए अच्छे चरित्र का होना कतई जरूरी नहीं है। कुख्यात और चरित्रहीन चेहरे भी लोकतंत्र के सभी बडे मंदिर में चहलकदमी करने के हकदार हो सकते हैं।
क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर चरित्र के मामले में यकीनन निष्कलंक हैं फिर भी उन्हे राज्यसभा का सांसद बनाना समझदार देशवासियों को रास नहीं आया। सचिन को 'भारतरत्न' देने पर किसी ने आपत्ति नहीं उठायी थी। वे इसके हकदार थे। लेकिन उनका सांसद बनाया जाना हैरतअंगेज और शर्मनाक खेल था, जो इस देश के साथ खेला गया। यह महान कार्य कांग्रेस ने तब किया जब उसका पतन काल था। कुछ कांग्रेसियों ने अपनी पार्टी की सुप्रीमों सोनिया गांधी को यह पाठ पढाया कि सचिन पर यह मेहरबानी करने के कई फायदे होंगे। युवा वर्ग तो पार्टी से जुडेगा ही, सचिन पार्टी के चुनाव प्रचार में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभायेंगे। सोनिया गांधी ने हामी भरने में जरा भी देरी नहीं लगायी और रेखा के साथ-साथ सचिन का नाम भी राष्ट्रपति के पास राज्यसभा की सदस्यता हेतु नामांकन के लिए भिजवा दिया। दोनों महारथी राज्यसभा में पहुंच गए। कांग्रेस को उम्मीद थी यह दोनों सांसद लोकसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस के धुआंधार प्रचार अभियान में अपना करिश्मा दिखाएंगे। यानी उसके बडे काम आएंगे। पर इनके पास न तब समय था और न ही अब कोई समय है। यह तो शौकिया सांसद बने हैं। इन अहंकारियों को राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाने में अपनी कमतरी का अहसास होता है। यह तो खुद को सांसद से कहीं बहुत ऊंचा और महान समझते हैं। गौरतलब है कि संविधान निर्माताओं ने अलग-अलग क्षेत्रों की १२ श्रेष्ठतम हस्तियों को राज्यसभा की सदस्यता के लिए मनोनीत करने की व्यवस्था की थी। लेकिन इस व्यवस्था में भी राजनीति हावी होती चली गयी। विभिन्न राजनीतिक दलों ने अपनी-अपनी चलायी जिसके चलते अपने-अपने क्षेत्र में पूरी तरह से काबिल और प्रतिष्ठित लोगों को राज्यसभा में पहुंचने का उतना अवसर मिल ही नहीं पाया, जितने के वे हकदार थे। रेखा और सचिन तेंदुलकर की राज्यसभा में लंबे समय से अनुपस्थिति के बाद हंगामा मचा और यह मांग भी की गयी कि इन दोनों को राज्यसभा की सदस्यता से इस्तीफा देकर देश पर उपकार करना चाहिए। साथ ही सरकार चलाने वालों तक यह आवाज पहुंचाने की कोशिश की गयी कि इस देश में ऐसी प्रेरक हस्तियों की कमी नहीं है जो वाकई बेहतरीन राज्यसभा सांसद साबित हो सकते हैं। गूंगों और बहरों को राज्यसभा में भेजने से अंतत: देश का ही नुकसान  होगा।
स्वामी विवेकानंद कहते थे कि एक समय में एक काम करो, और ऐसा करते समय अपनी पूरी आत्मा उसमें डाल दो और बाकी सबकुछ भूल जाओ। सोचिए जब राज्यसभा की सदस्यता के लिए ऐसे महारथियों को मनोनीत किया जाएगा जिनके कई और भी कामधंधे है तो वे राज्यसभा के प्रति कैसे समर्पित रह पाएंगे। उनका ध्यान तो अपने मूल कार्य पर केंद्रित रहेगा। सचिन ने भले ही क्रिकेट से संन्यास ले लिया हो, लेकिन उनके दीगर काम-धंधे बंद नहीं हुए हैं। उनका अधिकांश वक्त कमायी के चक्कर में बीत जाता है। रेखा की भी यही सच्चाई है। वे भी यदि कभी-कभार राज्यसभा में अपनी उपस्थिति दर्शाती हैं तो गूंगी गुडिया की तरह बैठी नजर आती हैं। दूसरे सांसद उनसे मिलने और बातचीत करने को लालायित रहते हैं। राज्यसभा में भेजे जाने वाले अभिनेता हों या खिलाड़ी उन्हें देखने को सभी आतुर रहते हैं। वे भी अपनी झलक ऐसे दिखाते हैं जैसे इस धरती के भगवान हों।
राजनीतिक पार्टियों को भी राज्यसभा में उन्हीं लोगों को राज्यसभा में भेजना चाहिए जो देश के प्रति समर्पित हों। ज्ञानवान हों। प्रतिभाशाली हों। अपने क्षेत्र की विशेषताओं और समस्याओं पर बातचीत कर सकें। उनमें मौलिक चिंतन-मनन की क्षमता हो। राज्यसभा के प्रति सम्मान की भावना हो। उनकी योग्यता और विचारों से दूसरे सदस्यों के साथ-साथ देशवासी भी प्रभावित और लाभान्वित हों। विजय माल्या जैसे दारू के धंधेबाजों, अखबारों के जुगाडू मालिकों और शोषक किस्म के उद्योगपतियों ने राज्यसभा में पहुंचकर देश को ही लूटा है। उनसे देश के भले की उम्मीद करना बेमानी है। आजादी की ६८वीं वर्षगांठ पर क्या इस गंभीर विषय पर भी शासक कोई ध्यान देंगे?

Thursday, August 7, 2014

बदल रहे हैं बलात्कार के मायने

अब खबरों और कहानियों में फर्क कर पाना मुश्किल हो गया है। कई बार तो खबरों की रोचकता कहानियों को भी मात दे देती है। पहले छोटी सी खबर आती है फिर वही खबर धीरे-धीरे एक बडी कहानी बन जाती है। कितनी खबरें तो ऐसी भी होती हैं जो फौरन आयी-गयी हो जाती हैं। लेकिन बलात्कार की खबरों का तो जलवा ही खास होता है। नामी-गिरामी लोगों के द्वारा किये जाने वाले बलात्कारों पर खूब शोर मचता है। बडे-बडे चिन्तक बलात्कार पर दिमाग खपाते हैं। कुछ जाने-पहचाने विद्वान न्यूज चैनलों पर धडाधड जुबान लडाते हैं। पर बलात्कार हैं कि खत्म होते ही नहीं। सतत चलते रहते हैं। कभी यहां, कभी वहां। १२५ करोड की जनसंख्या वाले देश में बलात्कार सभी खबरों पर भारी पडते हैं। इन खबरों को बडी चतुराई से छापा और दिखाया जाता है। यही वजह है कि यह लोगों के दिलो-दिमाग में जोंक की तरह चिपकी रहती हैं। कइयों को पीडिता और बलात्कारी का नाम भी कंठस्त हो जाता है। स्कूल-कालेजों में फिसड्डी रहने वाले लडके लडकियां भी इनसे खूब मनोरंजित होते हैं। पढने तो पढने, पढाने वाले भी इससे अछूते नहीं रहते। मुंबई की एक २५ वर्षीय खूबसूरत मॉडल ने पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी पर बलात्कार का आरोप जड दिया। यह खबर पलक झपकते ही देशभर के अखबारों और न्यूज चैनलों पर ऐसे छा गयी जैसे कहीं बहुत बडा तूफान आया हो। यह खबर रोज आनेवाली बलात्कारों की खबरों से ज्यादा अलग नहीं थी। इसमें भी वही सबकुछ था जो आजकल अक्सर होने वाले यौन शोषण के किस्सों में होता है। मामला एक बडे पुलिस अधिकारी से जुडा था। वैसे भी मुंबई पुलिस का बलात्कारों से पुराना नाता रहा है। मुंबई को मायानगरी भी कहा जाता है। यहां की माया बडी निराली है। जिसे समझ पाना हर किसी के बस की बात नहीं है। यहां सपने देखने वालों की भीड बसती है। पर सभी के सपने पूरे नहीं हो पाते। इस खबर की नायिका भी एक स्वप्नजीवी मॉडल है। दोनों की पुरानी जान-पहचान थी। मेल-मुलाकातें होती रहती थीं। एक दूसरे को उपहारों का आदान-प्रदान भी होता रहता था। अधिकारी ने मॉडल को साडी के विज्ञापन वाली फिल्म में काम भी दिलवाया था। ऐसी मेहरबानियों और करिबियो के बावजूद एकाएक मॉडल ने यह धमाका किया कि पुलिस अफसर ने उसे मुंबई के पांच सितारा होटल में मिलने के लिए बुलाया और एक कमरे में ले जाकर बलात्कार कर डाला। इसके बाद भी मॉडल अधिकारी से मिलती-जुलती और यौन शोषण करवाती रही। लगभग सात महीने बाद मॉडल की नींद टूटी कि उसकी इज्जत लूटी जा चुकी है। वह कहीं की नहीं रही। उसने फौरन पुलिस स्टेशन पहुंच कर अधिकारी की कारगुजारी की रिपोर्ट दर्ज करवा दी। इस अनोखे बलात्कार पर तरह-तरह की बातें होती रहीं। पुलिस अधिकारी और मॉडल की कई आपत्तिजनक हालत की तस्वीरें सामने आने के बाद यह तो स्पष्ट हो गया कि अधिकारी ने मॉडल से यौन संबंध बनाए। मोबाइल से भेजे गए मैसेज, विडियो क्लिप ने भी अधिकारी के वासना के दलदल में धंसे होने के पुख्ता सुबूत दे दिए। लेकिन एकाएक बलात्कार का बम फोडने वाली मॉडल को पाक-साफ मानने वालों ने अधिकारी को ही अकेला दोषी मानकर चिल्लाना शुरू कर दिया। यह तो अच्छा हुआ कि अचानक सच बाहर आ गया। उसी के वकील ने ही रहस्योद्घाटन कर दिया कि मॉडल ने रिएलिटी शो 'बिगबॉस' में पहुंचने के लिए ही यह सारा का सारा ड्रामा रचा। अधिकारी की किसी अन्य मॉडल से निकटता भी उसे खलने लगी थी।
चरम भोग के इस परम दौर में कई सच कभी भी उजागर नहीं हो पाते। उच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश पर एक महिला जज ने यौन उत्पीडन का संगीन आरोप लगाकर गजब की सनसनी फैलायी। महिला जज के अनुसार न्यायाधीश उन्हें आइटम डांस करने को मजबूर करते थे। जब उनकी यह इच्छा पूरी नहीं हुई तो उन्होंने और भी घटिया व्यवहार करना शुरू कर दिया। न्यायाधीश की मनचाही इच्छा को पूर्ण करने से इनकार करने पर उनका काफी उत्पीडन किया गया। उनका सुदूरवर्ती स्थान पर तबादला कर दिया गया। जिससे वे इतनी अधिक आहत हुर्इं कि अंतत: उन्होंने अपना इस्तीफा दे दिया।
कोलकाता की ४२ वर्षीय महिला की फेसबुक के माध्यम से वीरभूमि में रहने वाले एक ३३ वर्षीय युवक से दोस्ती हो गयी। युवक ने फेसबुक पर अपनी विभिन्न फोटो डाल रखीं थीं। सभी में वह स्मार्ट और खूबसूरत नजर आता था। महिला युवक पर लट्टु हो गयी। फेसबुक पर कुछ दिनों की चैट के बाद महिला ने अपने अनदेखे दोस्त को कोलकाता आने और जश्न मनाने का निमंत्रण दे दिया। उसने उसे पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया कि उसका भरपूर स्वागत किया जाएगा। उसके मन की सभी इच्छाएं भी पूरी कर दी जाएंगी। युवक भी महिला से मिलने को उतावला था। निमंत्रण पाते ही वह महिला के घर जा पहुंचा। महिला उसे देखते ही घोर निराशा की चादर में लिपट कर रह गयी। उसे लगा जैसे किसी ने उसके साथ बहुत बडा धोखा किया हो। जिस युवक को वह अपना सबकुछ सौंपने के लायक समझ रही थी वह तो जैसे छल और धोखे का प्रतिरूप निकला। उसका मोटापा, नाटापन और बदसूरती महिला को इस कदर खली कि उसने उसे दुत्कार दिया। वासना के बुखार में तपता युवक येन-केन-प्रकारेण उससे शारीरिक संबंध बनाने की जिद पर अड गया। जब उसकी मंशा पूरी नहीं हुई तो उसने उसकी चाकू मार कर हत्या कर दी। इस खबर को पढने के बाद मैं बहुत देर तक सोचता रहा। मेरे मन में यह विचार आया कि यदि कहीं युवक फेसबुक की फोटो की तरह ही हट्टा-कट्टा और खूबसूरत होता तो महिला उसके साथ रंगरेलियां मनाने में देरी नहीं लगाती। अपनी वासना की भूख को मिटाने के लिए लंबा सफर तय कर कोलकाता पहुंचे आशिक की सभी मुरादें पूरी हो जातीं। लेकिन इस अवैध रिश्ते का अन्तत: तो वही हश्र होता जो अभी तक होता आया है। देह की भूख के लिए कत्ल कर देने से बडी कोई दरिंदगी नहीं हो सकती। ऐसे दिल को दहला कर रख देने वाले मंजर देख और सुनकर घबराहट होने लगती है। दिल बैठ जाता है। ऐसे में न प्यार की परिभाषा समझ में आती है और न ही व्याभिचार और बलात्कार की। सबकुछ जैसे गडमड हो गया है...।

Thursday, July 31, 2014

दंगों के असली दोषी

एकाध बार की बात होती तो अखिलेश माफी के हकदार भी हो जाते। पर यहां तो सिलसिला सा चल पडा है दंगों का। दंगे भी ऐसे कि जिनकी गूंज विदेशों तक सुनी-सुनायी जाने लगी है। उत्तरप्रदेश के मुखिया की बेफिक्री समझ से बाहर है। जिस युवक पर प्रदेश की जनता ने भरपूर भरोसा किया उसी ने उन्हें निराश और आहत करने में कोई कसर नहीं छोडी है। सहारनपुर में हुए दंगे ने प्रदेश और देश की जनता को यह संदेश तो दे ही दिया है कि खोखले समाजवादी मुलायम सिंह यादव के लाडले के राज में अमन-चैन के दुश्मनों के हौसले बुलंद हो चुके हैं। उन्हें किसी का भय नहीं। साम्प्रदायिक दंगों को हवा देने वाले चेहरे काफी जाने पहचाने हैं। फिर भी कानून के फंदे से दूर हैं। निर्दोषों की लाशें बिछ रही हैं। खून बह रहा है। करोडों-अरबों की सम्पतियां खाक हो रही हैं। इन सबके बीच प्रदेश के लोग जबरदस्त खौफ के साये में किसी तरह से जी रहे हैं।
दंगे के कारण चर्चा में आया शहर सहारनपुर कौमी एकता और अमन चैन का प्रतीक रहा है। इस आदर्श नगरी के चेहरे पर साम्प्रदायिक दंगे का जो दाग लगा है उसका मिट पाना आसान नहीं है। यह कितनी आश्चर्यजनक हकीकत है कि स्थानीय प्रशासन गुरुद्वारे और कब्रिस्तान की जमीन को लेकर चले आ रहे मनमुटाव और विवाद से पूरी तरह से परिचित था फिर भी उसने अपनी आंखें बंद रखीं। सतर्कता बरतने की जरा भी कोशिश नहीं की। हिंसक तत्व ताक में थे। उन्होंने मौका पाते ही अपने मंसूबों को अंजाम दे दिया। उनका हौसला तो देखिए... उन्होंने पुलिस थानों के साथ-साथ दमकल विभाग के कार्यालय को भी फूंक डाला। तय है कि उन्हें कानून और कानून के रखवालों का कोई खौफ नहीं था। इस बार समाजवादी पार्टी का उत्तरप्रदेश की सत्ता में आना जनता को बडा भारी पडा है। युवा मुख्यमंत्री अखिलेश सिंह यादव जिस तरह से असफल साबित हुए हैं उससे तो अब जनता उन युवाओं पर भी यकीन नहीं करेगी जो राजनीति के क्षेत्र में कुछ कर दिखाना चाहते हैं। अखिलेश ने जब से सत्ता संभाली है तभी से लगभग हर महीने किसी न किसी जिले में हुए साम्प्रदायिक तनाव और हिंसा की घटनाओं ने लोगों की नींद उडायी है। मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई चिंता और पीडा की लकीरें नजर नहीं आतीं। वे अपने पिता की तरह खुद को निर्दोष दर्शाने की लफ्फाजी में लगे रहते हैं। उनके मंत्रियों के भी यही हाल हैं। सब अपने में मस्त हैं। उन्हें पता है कि अब अगली बार उनकी पार्टी के हाथ में सत्ता नहीं आने वाली। ढाई साल कट गये हैं। बाकी बचे ढाई साल भी जैसे-तैसे कट जाएंगे। ऐसे में दुनिया भर की परेशानियां क्यों मोल ली जाएं और अपना सिरदर्द बढाया जाए। ऐसे स्वार्थी और नकारा नेताओं की वजह से यूपी में देखते ही देखते २०१३ में साम्प्रदायिक हिंसा की २४७ घटनाएं घट गयीं फिर भी चैन की बंसियां बजती रहीं। २०१४ में भी अखिलेश का प्रदेश सर्वाधिक दंगों वाला प्रदेश बनकर सुर्खियां बटोरने का कीर्तिमान रच रहा है। इन दंगों पर चिंतित और शर्मिंदा होने के बजाय उत्तरप्रदेश के नगर विकास मंत्री आजम खां यह कहने से नहीं लज्जाये कि प्रदेश में होने वाले सभी दंगों की योजना नागपुर में बनती है। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ पर काल्पनिक आरोप लगाकर मंत्री महोदय सचाई को दफन करना चाहते हैं। ज्ञात रहे कि नागपुर में संघ का मुख्यालय है। अगर संघ की ऐसी ही फितरत होती तो महाराष्ट्र की उपराजधानी तो दंगों का गढ बन जाती। लेकिन ऐसा नहीं है। देश के मध्य में बसा नागपुर शहर साम्प्रदायिक सोहार्द की जीती-जागती मिसाल है।
कुछ नेता युपी की फिज़ा को बिगाडने में प्रमुख भूमिका निभाते चले आ रहे हैं। इनमें भाजपा के भी कुछ जाने-पहचाने संगीत सोम सरीखे चेहरे शामिल हैं। दरअसल अपने-अपने वोट बैंक के लिए भेदभाव का जो खेल खेला जाता है उसी की वजह से साम्प्रदायिक दंगे उफान पर आ जाते हैं। शासकों के दबाव में पुलिसिया कार्रवाई में भी ऐसे ही भेदभाव की नीति अपनायी जाती है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमो मुलायम सिंह  की राजनीति ही आजम खां और अबू आजमी जैसे आपसी वैमनस्य को बढावा देने वाले बददिमागों की बदौलत चलती है। उन्हें लगता है कि ऐसे बदनाम चेहरे उनकी पार्टी के आधारस्तंभ हैं। इन्हें देखकर ही मुस्लिम मतदाता समाजवादी पार्टी की ओर आकर्षित होते हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि मुसलमान भी इनकी असलियत से वाकिफ हो चुके हैं। वे जान गये हैं कि यह शातिर नेता चुनाव जीतने और मंत्री बनने के लिए मुसलमानों को अपना मोहरा बनाते हैं। उनके भले के लिए इन्होंने कभी कोई काम नहीं किया। सिवाय भडकाने और सडक पर लाने के। यह बात भी गौर करने के लायक हैं कि जब भी उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार बनती है तो एकाएक दंगे-फसाद बढ जाते हैं। समाजवादी गुंडे शासन और प्रशासन पर हावी हो जाते हैं। साम्प्रदायिक दंगो, हिंसा और बलात्कारो की बाढ-सी आ जाती है। आम जनता त्राही-त्राही करने लगती है। पिता मुलायम सिंह हों या पुत्र अखिलेश मीडिया को ही दोषी ठहराने के अभियान में लगे रहते हैं। उन्हें अपनी बेवकूफियां, कमियां और गलतियां नजर ही नहीं आतीं। खैर अब तो भविष्य में न बाप की दाल गलने वाली है और न ही बेटे की। प्रदेश की जनता उन्हें किसी भी हालत में नहीं चुनने वाली। उन्हें एक-एक वोट के लिए तरसना पडेगा। इसलिए दोनों को राजनीतिक बनवास भोगने के लिए तैयार हो जाना चाहिए।

Thursday, July 24, 2014

ऐसे कैसे चल पायेगा देश?

बैंकों का कर्जा न चुका पाने के कारण इस देश के किसानों को आत्महत्याएं करनी पडती हैं। यह खबरें कितने देशवासियों को चौंकाती हैं? इसका जवाब यही है कि ज्यादातर लोगों पर इनका कोई असर नहीं पडता। खबर पढी, सुनी और भूल गये। बलात्कार और भ्रष्टाचार की खबरों की तरह ही किसानों की आत्महत्याओं को भी रोजमर्रा का रोग माना जाने लगा है। कहीं कोई गुस्सा नहीं फूटता। संवेदना नहीं जागती। बस यही मान लिया जाता है कि यह एक ऐसी बीमारी है जो लाइलाज है। किसी भी वैद्य के पास इसका इलाज नहीं है। ऐसे में लगातार होने वाली मौतों पर माथापच्ची किस लिए। जिनको बेमौत मरना है, वे तो मरेगे ही। हम क्यों परेशान हों? ...यह काम तो उनके रिश्तेदारों और करीबियों का है। हमारे सामने अपनी तकलीफें कम हैं जो दूसरों के लिए मातम मनाते रहें। यही है लगभग सभी की सोच। जब कभी खुद पर आती है तो दिन में तारे दिखने लगते हैं। नहीं तो एक कान से सुनो-सुनाओ और फिर अपनी मस्ती में डूब जाओ।
ऐसा कभी भी नहीं हुआ कि किसान ने कर्ज लिया हो और फिर उसे यहां-वहां गुलछर्रे उडाकर फूंक दिया हो। वह तो खेती में ही सारे कर्ज के धन को लगाता है, लेकिन कभी बरसात धोखा दे जाती है तो कभी उसे अपनी फसल के उतने दाम नहीं मिल पाते कि जिनसे वह बैंको का कर्जा चुका सके। भारतीय किसान की इस बेबसी, मजबूरी और बदनसीबी पर हुक्मरानों ने कभी गंभीरता से चिंतन-मनन करने की कोशिश ही नहीं की। दुनिया भर में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहां किसान आत्महत्या करने को विवश होते हैं। चालाक व्यापारियों, उद्योगपतियों के प्रति अपार सहृदयता दिखाने वाले बैंक किसानों के मामले में उदारता दिखाने में बडी कंजूसी करते हैं। जबकि किसानों की कभी भी कर्ज को डूबाने और पचाने की मानसिकता नहीं होती। देश के आम आदमी को भी बैंकों से आसानी से लोन नहीं मिलता। यदि कहीं मिल भी जाए तो भुगतान में नाम मात्र की देरी होने पर उस पर वसूली का ऐसा डंडा चलाया जाता है कि जैसे उसके कहीं दूर भाग जाने का खतरा हो। कुछ लाख रुपये का ऋण लेने वालों पर दबंगई और तानाशाही दिखाने वाले बैंकों की एक तस्वीर और भी है। गरीबों के इसी मुल्क में जाने-माने रईसों पर विभिन्न बैंकों का ५४,००० करोड बकाया हैं। वैसे तो देशभर के धनपतियों ने बैंकों का इतना धन दबा रखा है जिससे देश का कायाकल्प हो सकता है। इस कर्जे को वसूलने के लिए बैंकों के पास कोई कारगर योजना नहीं है। धनासेठों से कर्ज की वसूली करने में अधिकारियों के पसीने छूट जाते हैं। फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। कर्जदार साहूकार पर हावी हो जाते हैं। यह कोई छोटे-मोटे कर्जदार नहीं हैं। यह बडे-बडे उद्योगपति हैं। इनके कई कारखाने और कंपनियां चलती हैं। यह सत्ता के गलियारों में अच्छी खासी दखल रखते हैं। यह आसमान पर उडते हैं। बडे-बडे मंत्रियों, राजनेताओं, मीडिया के दिग्गजों और शासकों  के बीच इनका उठना-बैठना है। अरबो-खरबों का कर्जा होने के बावजूद भी इन्हें हर जगह सम्मान मिलता है। पूछ-परख होती है। यह हकीकत भी बेहद चौंकाने वाली है कि १० करोड या इससे अधिक का कर्ज जानबूझकर नहीं चुकाने वाली कंपनियों की संख्या हजार से ज्यादा है। जिनमें किंगफिशर, लैंको मदाकिनी, हैड्रो एनर्जी, सुजान ग्रुप, प्रोग्रेसिव कंस्ट्रक्शन, वायसराय होटल्स, रिजेंसी सिरामिक्स, नवभारत इंटरनेशनल, एस. कुमार्स नेशनवाइड लिमिटेड और डेक्कन क्रोनिकल जैसे बडे नाम शामिल हैं। इन कंपनियों के मालिक अगर चाहें तो चुटकियों में कर्ज की अदायगी कर सकते हैं। पर इनकी नीयत को लकवा मार चुका है। इनका एकमात्र इरादा ही बैंको की रकम को पचा जाने का है। इन सबकी फितरत एक जैसी है। किंग फिशर के मालिक विजय माल्या के नाम से कौन वाकिफ नहीं है। शराब के सबसे बडे कारोबारी हैं। खुद के उडने के लिए हवाई जहाज भी हैं। यानी उनके पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। बस नीयत में ही खोट है। यह महाशय हसीनाओं के नाच गाने पर करोडों फूंक देते हैं। इनकी रंगीन महफिलों में क्या कुछ नहीं होता। लाखों अय्याशों की अय्याशी इनके सामने फीकी पड जाती है। इनकी अय्याशियों का खामियाजा देश के करोडों लोगों को भुगतना पड रहा है। धन के अभाव में सरकार कई जनहितकारी योजनाएं लागू ही नहीं कर पाती और यह लोग धन से खेल रहे हैं। देश के जाने-माने समाजवादी, प्रखर चिंतक रघु ठाकुर गलत नहीं कहते कि इस देश में इतना धन है कि विदेशों का मुंह ताकने की कोई जरूरत ही नहीं है। गौरतलब है कि मोदी सरकार ने २० लाख करोड की विदेशी पूंजी निवेश का लक्ष्य रखा है। विदेशी निवेश के मायने हैं अपनी गोपनीयता दांव पर लगाना और विदेशों की जी हजूरी। विदेशियों के सामने भीख का कटोरा थामे सिर झुकाकर नतमस्तक हो जाना। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश की यह कैसी मजबूरी! कहां गया हमारा स्वाभिमान! जब चीन अपने देश का विकास अपनी खुद की पूंजी से कर सकता है तो हम क्यों नहीं? इसलिए कि हमें गुलामी में मज़ा आता है, भ्रष्टाचारियों पर नकेल कसने का सरकार में दम नहीं और इस देश के नेता और अफसर बेईमानी में किसी से कम नहीं? इस रकम को देश से जुटाया जा सकता है। देश के उद्योगपतियों पर जो १९ लाख करोड का कर्ज बकाया है उसी की कडाई से वसूली की जाए, तो तय है कि विदेशी निवेश की कोई जरूरत नहीं पडेगी। अभी तक का यही रिकॉर्ड रहा है कि सरकारें अमीरों के सामने झुकती रही हैं। इस देश के अमीर शासकों से अंधाधुंध लाभ तो पाते हैं, लेकिन अपनी कमायी विदेशी बैंकों में जमा कर खुद को सुरक्षित महसूस करते हैं। चुनावी राजनीति के जानकार तो मोदी सरकार पर उद्योगपतियों की थैलियों की बदौलत चुनाव जीतने और सत्ता पाने का आरोप लगाते नहीं थकते। ऐसे में उनसे कैसे बदलाव की उम्मीद की जाए?