Thursday, November 29, 2018

क्यों नहीं रुकता सिलसिला?

आत्महत्या करने से पहले अनीसिया बत्रा काफी देर तक छत पर रेलिंग के सहारे टेक लगाकर खडी रही। उसके मन-मस्तिष्क में तरह-तरह के विचारों की आंधियां चलती रहीं। उसने अत्याधिक शराब पी रखी थी फिर भी उसने अपने होश नहीं खोये थे। वह सोच रही थी तब उसके होश कहां गुम हो गये थे जब वह मयंक के प्यार में अंधी हो गई थी। माता-पिता और तमाम रिश्तेदारों की एक ही राय थी कि मयंक निहायत ही गंदा इन्सान है। उसकी अतरंग सहेली निहारिका ने तो उसके समक्ष मयंक की पूरी पोल-पट्टी ही खोलकर रख दी थी। मयंक ने कभी निहारिका पर भी डोरे डाले थे। पूर्व मिस इंडिया व अभिनेत्री निहारिका को मयंक ने उसके २९वें जन्मदिन पर आयोजित पार्टी में महंगी अंगूठी भेंट की थी और शादी का प्रस्ताव रखा था। उसने अपने सीने पर निहारिका के नाम का टैटू भी बनवा लिया था, लेकिन कुछ समय बाद निहारिका को जब पता चला कि मयंक एक दिलफेंक इन्सान होने के साथ-साथ मनोरोगी व हिंसक है तो उसने उससे दूरियां बना ली थीं। इसके बाद मयंक जानवरों की तरह अजीब-अजीब हरकतें करते हुए उसे खत्म करने की धमकियां देने लगा था। वह इतनी भयभीत हो गई थी कि कई दिनों तक दोस्तों के यहां छिपी रही। अनीसिया ने अपनी वर्षों पुरानी सहेली की बातों पर भरोसा न करते हुए मयंक के साथ शादी कर सभी को चौंका दिया था। कुछ हफ्तों तक मयंक का व्यवहार ठीक-ठाक रहा, लेकिन धीरे-धीरे निहारिका की कही हर बात सच होने लगी तो उसने अपना माथा पीट लिया। मयंक में प्रेमी और पति वाले गुण तो थे ही नहीं। वह तो हद दर्जे का लालची, हिंसक और शक्की इन्सान था। कभी भी हाथ उठा देता और गाली-गलौच पर उतर आता। अनीसिया जर्मन एयरलाइंस लुफ्तांश में एयरहोस्टेस थी। उसकी पहचान का दायरा काफी विस्तृत था। मयंक को तो उसका किसी से बात करना भी नहीं सुहाता था। वह किसी भी पुरुष को उसका यार और आशिक घोषित कर उसके चरित्र पर लांछन लगाने लगता। रोज-रोज के झगडों ने अनीसिया को थका दिया।
एक सर्वे के अनुसार वर्तमान में भी महिलाओं पर पुरुषों का आतंक बना हुआ है। लगभग एक तिहाई शादीशुदा महिलाएं पुरुषों की पिटायी का शिकार होती चली आ रही हैं। विडंबना तो यह भी है कि अधिकांश महिलाएं पतियों के सभी जुल्मों और अन्यायों को चुपचाप सह लेती हैं। कहीं कोई शिकायत तक नहीं करतीं। यह भी घोर हैरानी भरा सच है कि इस तरह की मारपीट की घटनाएं जिन घरों में घटती हैं वहां से भी विरोध की कोई आवाज नहीं निकलती। निजी मामला मानकर चुप्पी साध ली जाती है। चुप रहने के लिए विवश कर दिया जाता है। जिन पढी-लिखी महिलाओं को पता है कि हिंसक पुरुषों को सबक सिखाने के लिए देश में घरेलू हिंसा कानून बनाया गया है वे भी पति और परिवार की बदनामी के भय से मूक बनी रहती हैं। कुछ महिलाएं अपने बच्चों के भविष्य के लिए घरेलू हिंसा की आग में ताउम्र जलना स्वीकार कर लेती हैं तो कुछ अनीसिया की तरह आत्महत्या कर लेती हैं। वे यह भूल जाती हैं कि यह जीवन हारने और पीठ दिखाने के लिए नहीं मिला है। परमात्मा ने यह जीवन देकर हमारा सम्मान किया है। यह उसकी तरफ से दिया गया सर्वोत्तम उपहार है। उपहार का कभी अपमान नहीं किया जाता। यह भी कहा और लिखा जाता रहा है कि महिलाओं के पूरी तरह से शिक्षित तथा आत्मनिर्भर होने पर ही पुरुषों/पतियों की गुंडागर्दी पर लगाम लग सकती है। पढी-लिखी महिलाओं में अपना नया रास्ता चुनने, बोलने और विरोध करने का खुद-ब-खुद साहस आ जाता है। अगर यह निष्कर्ष, कथन और सोच सही है तो यह सवाल उठना भी लाजिमी है कि अच्छी-खासी नौकरी करने वाली अनीसिया ने आत्महत्या क्यों की? वह पढी-लिखी भी थी और आत्मनिर्भर भी। जिसने कभी लोगों की परवाह नहीं की। अपने सभी अहम फैसले खुद लेकर अपनों और गैरों को चौंकाया। बगावत करने की हिम्मत रखने वाली युवती को मानसिक रोगी, लडाकू पति से फौरन अलग होकर नयी जिन्दगी जीने से किसने रोका था! कोई रोकता भी तो वह कहां मानने वाली थी। अनीसिया ने आत्महत्या कर चिंतनीय अपराध तो किया ही है।
ऐसा ही अपराध बीते सप्ताह इंटरनेशनल गोल्ड मेडलिस्ट एथलीट पलविंदर चौधरी ने कर डाला, जिसकी उम्र महज अठारह वर्ष ही थी। देश के होनहार खिलाडियों में उसकी गिनती होने लगी थी। रांची में २०१५ में आयोजित नेशनल चैंपियनशिप में पलविंदर चौधरी ने अंडर-१६ कैटिगरी में १०० मीटर की रेस १०.१ सेकंड में पूरी कर नेशनल रिकॉर्ड की बराबरी कर अपने अच्छे भविष्य के संकेत दिए। साथ ही उन्हें साकार भी कर दिखाया। दिल्ली के साई हॉस्टल में रहकर बडे जोशो-खरोश के साथ १०० और २०० मीटर रेस की तैयारी में जुटे पलविंदर के कमरे में पंखे से लटकर आत्महत्या करने की जब खबर आयी तो किसी को यकीन ही नहीं हुआ। माता-पिता, रिश्तेदार और यार-दोस्त सन्न रह गए। हर किसी की आंखों से आंसू बह रहे थे और सवालों की भीड जवाब पाने को उत्सुक थी। "वह तो बेहद जुनूनी खिलाडी था। देश हो या विदेश, जहां भी दौडा, गोल्ड लेकर ही आया। अब उसके दिलो-दिमाग पर केवल ओलम्पिक ही छाया हुआ था। किसी भी सूरत में वह गोल्ड लाने के लिए पागल हुआ जा रहा था। ओलंपिक के प्रति उसकी दिवानगी उसके दिमाग में इस कदर हावी हो गई थी कि उसने एक हाथ पर ओलम्पिक के सिंबल का टैटू तक गुदवा लिया था। कल ही तो फोन पर उससे बात हुई थी। ऐसा कुछ भी नहीं लगा था जो ऐसी अनहोनी की ओर इशारा करता।" यह कहना था पलविंदर के पहले कोच अजीतकुमार का जो उसे बचपन से जानते थे। आत्महत्या करने से लगभग पंद्रह दिन पूर्व युवा खिलाडी पलविंदर ने अपने किसान पिता को खुराक के लिए कुछ पैसे भेजने को कहा था। पिता ने उसे आश्वस्त किया था कि जैसे ही धान बिक जाएगी पैसे उसके पास पहुंच जाएंगे। हर खिलाडी को स्वयं को चुस्त-दुरुस्त रखने के लिए पौष्टिक खाद्य पदार्थ लेने जरूरी होते हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि पलविंदर धन के अभाव के चलते उनसे वंचित था। खिलाडी बेटा अपनी जगह परेशान था और किसान पिता की वही मजबूरी थी, जो लगभग हर किसान की नियति बन चुकी है। देश का अन्नदाता अपने ही परिवार की ढंग से परवरिश नहीं कर पाता। हर वर्ष हजारों किसान फांसी के फंदे पर झूलकर या जहर खाकर आत्महत्या कर लेते हैं। कोई भी किसान शौकिया मौत को गले नहीं लगाता। आर्थिक तंगी ही उसे यह कदम उठाने को विवश करती है। सरकारें किसानों की सहायता के लिए सरकारी तिजोरियों के मुंह को खोलने का ऐलान तो करती हैं, लेकिन किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा बढता ही चला जाता है। किसानों के हिस्से का धन पता नहीं कहां गायब हो जाता है? ३१ अक्टूबर २०१८ की रात फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के टीवी कार्यक्रम 'कौन बनेगा करोडपति में महाराष्ट्र के एक किसान ने देश के अन्नदाता की हकीकत बयां कर करोडों लोगों की आंखें भिगों दीं। साहूकारों और बैंकों पर आश्रित रहने वाला भारत का मेहनतकश आम किसान इतना भी नहीं कमा पाता कि वह अपने परिवार के लिए दो वक्त की रोटी और अन्य जरूरी सुविधाएं हासिल कर सके। उसकी पत्नी का मंगलसूत्र तक साहूकार के पास गिरवी रहता है। दिल को दहला और रुला देने वाली किसान की दास्तां को सुनकर अमिताभ बच्चन भी बेहद भावुक हो गये। उन्होंने किसानों की सहायता करने के लिए धनपतियों से अपील की और खुद भी खुले हाथों से सहयोग देने का ऐलान किया। कुछ लोगों ने इसे अभिनेता की नौटंकी कहते हुए कहा कि यह तो भावुकता में कहे गये ऐसे शब्द हैं, जिनका इस्तेमाल राजनेता और सत्ताधीश अक्सर करते रहते हैं।  केबीसी के मंच से उतरने के बाद उन्हें कुछ भी याद नहीं रहेगा। महाराष्ट्र के हों या उत्तर प्रदेश के... किसान तो किसान हैं। सभी की तकलीफें और चिंताएं एक समान हैं। अमिताभ ने अपने कथन को साकार करने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने उत्तर प्रदेश के १३९८ किसानों के चार करोड पांच लाख रुपये के बैंक कर्जे को चुका दिया। उन्होंने अपने ब्लॉग में लिखा है कि उनके लिए यह बहुत संतुष्टि का पल है कि महाराष्ट्र के बाद वह उत्तर प्रदेश के किसानों के लिए कुछ कर पाए।

Friday, November 23, 2018

नेताओं और मीडिया का ख्वाब

जनता अगर खामोश है तो इसका मतलब यह नहीं कि वह बेवकूफ है। अनाडी और अंधी है। नेता और मीडिया पता नहीं इस सच को समझने को तैयार क्यों नहीं हैं। साफ-साफ दिखायी दे रहा है कि अधिकांश मीडिया और राजनेता आपस में मिले हुए हैं। देश के कम पढे-लिखे आम आदमी को भी पता चल गया है कि कौन-सा न्यूज चैनल किसके साथ है और किस-किस अखबार के मालिकों ने राजनेताओं और सत्ताधीशों की गुलामी स्वीकार कर ली है। तयशुदा राजनेताओं और दलों के इशारों पर तेजी से अंधों की तरह दौड रहे पत्रकार और संपादक अभी भी इस भ्रम में हैं कि वे जो लिखेंगे और कहेंगे उस पर जनता फौरन यकीन कर लेगी। अधिकांश नेताओं की भी यह उम्मीद बरकरार है कि उनकी काठ की हांडी हमेशा चढती रहेगी। वोटरों की भीड बेवकूफ बनती आयी है और बनती रहेगी। चौबीस घंटे रोजी-रोटी के चक्कर में उलझे रहने वाले गरीबों को तो अपने जाल में फंसाना कोई मुश्किल काम नहीं है। पैसा पानी की तरह बहाओ और हर चुनाव जीत जाओ। विरोधी हमारे खिलाफ कितना भी चीख-चिल्ला लें, लेकिन जब तक अखबार और न्यूज चैनल वाले साथ हैं तब तक हमारा बाल भी बांका नहीं हो सकता। नेताओं का अहंकार सभी सीमाएं पार करता चला जा रहा है।
एक समय ऐसा था जब चुनाव के समय विरोधियों के लिए सम्मानजनक भाषा का इस्तेमाल किया जाता था। एक-एक शब्द सोच-समझ कर बोला जाता था। अब तो तहजीब और शालीनता की हत्या करने में कोई संकोच नहीं किया जा रहा। छोटे ही नहीं, बडे नेता भी गाली-गलौच करना शान की बात समझते हैं। उनके मुंह से चोर, रावण, नाली का कीडा, नीच, कुत्ता, कमीना, यमराज, नपुंसक, बंदर और मौत का सौदागर जैसे एक-दूसरे को गुस्सा दिलाने और नीचा दिखाने वाले तेजाबी शब्द ऐसे निकलते हैं जैसे उन्होंने अपनी सारी शिक्षा-दीक्षा सडक छाप बदमाशों की पाठशालाओं से ग्रहण की हो। एक-दूसरे के मुंह पर थूकने और जूता मारने को उतारू रहने वाले ऐसे ही नेताओं की बहुत ब‹डी जमात विधायक और सांसद बनने में सफल होती चली आ रही है। कुछ प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने के लिए ऐसी-ऐसी ऊटपटांग हरकतें करने में भी नहीं सकुचाते जो उन्हें हंसी का पात्र बना देती हैं। मध्यप्रदेश के इन्दौर की सांवर सीट से भाजपा के उम्मीदवार ने तो चाटुकारिता की सारी हदें ही पार कर दीं। एक घर में जब वे वोट मांगने के लिए पहुंचे तो बरामदे में रखे जूठे बर्तनों को मांजने लगे। महिला उन्हें रोकती रही, लेकिन वे पूरे बर्तन धोने के बाद ही वहां से इस आश्वासन के साथ विदा हुए कि इस घर के सभी सदस्यों का वोट उन्हें ही मिलेगा। इसी तरह एक और तस्वीर शहर गुना में देखी गई जहां पर सपा प्रत्याशी जगदीश खटीम अपने जनसंपर्क के दौरान रास्ते में मिलने वाले हर राहगीर के पैर पक‹डने लगे। उन्होंने तब तक पैर नहीं छोडे जब तक सामने वाले ने वोट देने का प्रबल आश्वासन और जीत का आशीर्वाद नहीं दिया।
लगभग हर पार्टी जान-समझ चुकी है कि चुनाव के दौरान जारी किये जाने वाले उनके घोषणापत्र पर अब लोग कतई यकीन नहीं करते। वे अच्छी तरह से जान गये हैं कि पार्टियों के चुनावी घोषणापत्र सिर्फ और सिर्फ झूठ का पुलिंदा होते हैं। चुनाव जीतने के लिए किये जाने वाले दूसरे छल-प्रपंचों की तरह ही घोषणापत्रों के माध्यम से भी मतदाताओं की आंख में धूल झोंकी जाती है। अब एक नया खेल खेलते हुए जनता को सब्जबाग दिखाने वाले राजनीतिक दलों ने संकल्प पत्र और वचन पत्र जारी करने प्रारंभ कर दिये हैं। 'संकल्प' और 'वचन' ऐसे शब्द हैं जो बोलने और लिखने में ही खासे प्रभावी और वजनदार प्रतीत होते हैं। फिर भी इस नयी चाल को गंभीरता से नहीं लिया जा रहा है।
मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ के विधानसभा चुनाव में जिन धाकड नेताओं को टिकट नहीं मिली उन्होंने अपनी असली औकात दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। कुछ नेता तो अपने समर्थकों के कंधों पर सिर रखकर बच्चों की तरह रोते-बिलखते नज़र आये। इनमें से कुछ महानुभावों ने अपने बडे नेताओं पर टिकट बेचने का आरोप भी मढ दिया। जब तक इन्हें पार्टी टिकट देती रही तब तक सब ठीक था। टिकट नहीं मिली तो पार्टी के वो सर्वेसर्वा भी बेईमान हो गए जिनके समक्ष यह नतमस्तक होते रहते थे। जैसे ही उन्हें दूसरी पार्टी की टिकट मिली तो अपनी उस वर्षों की साथी पार्टी की हजार बुराइयां भी गिनाने लगे जिसके प्रति अटूट निष्ठा का दावा करते नहीं थकते थे। दरअसल नेता हों या मालिक, पत्रकार, संपादक, अधिकांश व्यापारी और कारोबारी हो गये हैं। इनकी नज़र हमेशा कमायी पर लगी रहती है। इससे नुकसान तो देश और समाज को हो रहा है। मीडिया लोकतंत्र का चौथा खम्भा है जिसका एकमात्र धर्म है निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ सच और सिर्फ सच का चेहरा दिखाना। आज आप कोई भी न्यूज चैनल खोलिए तो आपको हिंदू, मुसलमान और मंदिर-मस्जिद का शोर सुनायी देगा। कृषि, किसान, गांव, बेरोजगारी और लगातार बढती असमानता की खबरें तो न्यूज चैनलों और अखबारों से गायब हो गई हैं। ३२ से ४८ पेज के अखबार जिनका लागत मूल्य ही बीस से तीस रुपये होता है उन्हें पांच से सात रुपये में कैसे बेचा जा रहा है यह कोई बहुत बडे शोध का विषय नहीं है। मीडिया ही धन बटोरने का बहुत बडा माध्यम बन गया है। पत्रकारिता के नाम पर, पत्रकारिता की आड में बडी-बडी शैतानियां और लूटमारियां चल रही हैं। हैरतअंगेज डकैतियां हो रही हैं और इनमें शामिल हैं वो सत्ताधीश, नेता और मीडिया के दिग्गज जो सच्चे देशसेवक होने के साथ-साथ पूरी तरह से ईमानदार होने का दिन-रात ढोल पीटते हुए सभी देशवासियों को पूरी तरह से अंधा और बहरा बनाने के ख्वाब देख रहे हैं, लेकिन ऐसा हो नहीं पा रहा है और ना ही, कभी हो पायेगा...।

Thursday, November 15, 2018

यह कैसी नृशंसता और आक्रामकता?

दीपावली का दिन था। उत्तर प्रदेश के शहर मेरठ में कुछ बच्चे अपने घर के बाहर खेल-कूद रहे थे। हर उत्सव पर बच्चों को मिठाई की चाह रहती है। फिर दिवाली तो मिठाइयों, दीपों, पटाखों तथा अपने और बेगानों में आदर, स्नेह की वर्षा करने का त्योहार है। वैसे बडों का भी मिठाई के प्रति लगाव और खिंचाव जगजाहिर है। पिछले कुछ वर्षों से भारतीय परंपरागत मिठाइयों को तरह-तरह की चाकलेटों ने मात दे दी है। अधिकांश बच्चों को चाकलेट बहुत भाती हैं। मोहल्ले में बच्चे खेलने में मस्त थे। तभी एक अधेड वहां पहुंचा। उसने एक बच्ची को अपने पास बुलाकर कहा कि यह बहुत बढ़िया चाकलेट है इसे खाने में तुम्हें बहुत मज़ा आयेगा। बच्ची खुशी के मारे झूमने लगी। वैसे भी हमारे यहां के मासूम बच्चे बडों पर फौरन यकीन कर लेते हैं। मात्र तीन वर्ष की बच्ची कुछ समझ पाती इससे पहले ही उस शख्स ने चाकलेट के नाम पर बच्ची के मुंह में जलता हुआ सुतली बम रख दिया। बम को तो फटना ही था। बम के फटते ही बच्ची के मुंह के चिथडे उड गए। खून के फव्वारे छूटने लगे। बच्ची के रोने की आवाज जैसे ही मां के कानों तक पहुंची तो वह घर से बाहर आई। उसकी बच्ची लहू से सनी सडक पर तडप रही थी। बच्ची के साथ खेल रहे बच्चों ने मां को सारी बात बताई। मां ने किसी तरह से खुद को संभाला और पडोसियों की मदद से घायल बच्ची को अस्पताल ले गई। बच्ची के क्षत-विक्षत मुंह और उसकी तडपन को देखकर डॉक्टर भी हिल गए। एक डॉक्टर को तो रुलाई आने लगी। डॉक्टर फौरन उसके इलाज में लग गए। मुंह के साथ-साथ बच्ची की जीभ पूरी तरह से फट चुकी थी। पटाखे के विषैले कण भी शरीर में प्रवेश कर गये थे। डॉक्टरों को उसके इलाज के लिए काफी परिश्रम करना पडा। मुंह पर पचास टांके लगाये गए। टांके लगाते समय बच्ची की दर्द के मारे रोने और कराहने की आवाज पूरे अस्पताल में गूंज रही थी और मां बेहोश हो चुकी थी।
एक जमाना था जब बडों की सलाह और नसीहत को सुनकर उस पर अमल करने में संकोच नहीं किया जाता था, लेकिन अब हालात बदल गये हैं। अधिकांश लोग अपनी मनमानी करना चाहते हैं। उन्हें किसी की सलाह और सुझाव शूल और थप्पड से लगते हैं। अमृतसर से टाटानगर जा रही जलियांवाला बाग एक्सप्रेस ट्रेन में एक उम्रदराज सजग महिला ने ट्रेन में सिगरेट पी रहे तीन युवकों को टोका तो वे महिला से ही हिंसक जानवरों की तरह भिड गये। अपनी मां के साथ बदतमीजी से पेश आने वाले युवकों को बेटे ने जब समझाने की कोशिश की तो युवकों ने बेटे और बहू की लात-घूसों से पिटायी कर दी। बेटे के हस्तक्षेप करने के कारण युवक इतने अधिक उग्र हो गये और उसकी मां की फिर से इस तरह से पिटायी करने लगे जैसे उससे उनकी पुश्तैनी दुश्मनी हो। महिला को बचाने के लिए कोई भी यात्री सामने नहीं आया। सभी भय के मारे दुबक कर बैठे रहे। मारपीट करने वाले दो युवक चेनपुलिंग करके रास्ते में उतरकर भाग गए, जबकि एक को पकड कर पुलिस के हवाले कर दिया गया। लहुलूहान महिला को अस्पताल पहुंचाया गया, जहां डॉक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया। यह महिला ट्रेन के जनरल कोच में बैठकर अपने बहू-बेटे के साथ छठ-पूजा का त्योहार मनाने के लिए बिहार में स्थित अपने गांव जा रही थी, लेकिन दुष्टों ने तो रास्ते में ही उसकी जान ले ली। समझ में नहीं आता कि कुछ लोग इतने निर्मम और हिंसक क्यों हो जाते हैं। उन्हें न अपनी और न ही दूसरों की मान-मर्यादा का ख्याल रहता है।
नागपुर शहर के एक नामी क्लब में दिवाली मिलन के कार्यक्रम में एक व्यापारी को बीच-बचाव करना बहुत महंगा पड गया। व्यापारी अपने परिवार के साथ बनठन तन कर क्लब के द्वारा आयोजित कार्यक्रम मैं यह सोचकर पहुंचा था कि आज पुराने मित्रों से मुलाकात होगी। एक दूसरे के गले मिलेंगे। हालचाल जानेंगे और दिल खोलकर मौज-मज़ा करेंगे। नगरों-महानगरों में क्लब का मेम्बर बनने का मकसद ही यही होता है कि शहर के नामी-गिरामी प्रतिष्ठित लोगों से मेलजोल बढे और ऐसा गोपनीय, सुरक्षित और आत्मीय माहौल मिले जो अन्यत्र दुर्लभ होता है। क्लबों में आम होटलों, बीयर बारों और मनोरंजन स्थलों की तरह आम लोगों का आना-जाना नहीं होता। इसलिए उच्च अधिकारी, वकील, जज, उद्योगपति, मंत्री, विधायक, मीडिया के दिग्गज तथा तरह-तरह के बडे कारोबारी मोटी फीस देकर क्लब के मेंबर बनते हैं।
उस रात भी मेल-मुलाकात के कार्यक्रम में शहर की कई नामी-गिरामी हस्तियां मौजूद थीं। इसी दौरान व्यापारी लघुशंका के लिए बाथरूम गया तो वहां पर उसने देखा कि एक युवक को कुछ लोग बुरी तरह से पीट रहे हैं, जिससे उसके सिर से बेतहाशा खून बह रहा है। व्यापारी ने उन्हें युवक की पिटायी करने से रोका-टोका तो उन्होंने उसी पर बीयर की बोतलों और कांच के गिलासों की बरसात कर लहुलूहान कर दिया। गंभीर रूप से घायल व्यापारी को अस्पताल ले जाया गया, जहां पर उसके सिर और चेहरे पर तीस टांके लगाकर बडी मुश्किल से उसकी जान बचायी जा सकी। सच तो यही है कि भागा-दौडी के इस दौर में लोगों की सहन शक्ति खोती चली जा रही है और आक्रामक प्रवृत्ति बढती चली जा रही है। खुद को ही सही मानने वाले लोग दूसरों की सुनना ही नहीं चाहते। अधैर्य और गुस्सा उन्हें अनियंत्रित करने में किंचित भी देरी नहीं लगाता। बच्चे भी बडी तेजी से इस आदत और रोग के शिकार हो रहे हैं। बीते वर्ष महाराष्ट्र के यवतमाल शहर में एक स्कूली छात्र ने अपने ही सहपाठी की पत्थर से कुचलकर हत्या कर दी थी। छोटी उम्र में किये गए हत्या जैसे इस बडे अपराध के पीछे सिर्फ यही वजह थी कि उसके द्वारा मौत के घाट उतार दिया गया छात्र उसे अक्सर चिढाता था...।

Friday, November 9, 2018

ऐसा ही है...

कल एक युवा लेखक की मौत हो गई। उसके मित्र तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं व्यक्त करने में लीन हो गए। इन मित्रों में कुछ कहानीकार थे, कुछ कवि थे तो कुछ व्यंग्यकार। चंद पत्रकार भी शामिल थे। उसके अति शुभचिन्तकों, कवि मित्रों को उसके असमय जाने का अत्यंत दु:ख था। अभी तो उसने साहित्य के आकाश पर चमकना शुरू किया ही था। व्यंग्यकार और पत्रकार मित्र भी शोकाकुल थे, लेकिन वे खुद को यह कहने और बताने से रोक नहीं पा रहे थे कि वह हद दर्जे का शराबी था। अगर उसने पीने पर नियंत्रण रखा होता तो ऐसे अचानक परलोक नहीं सिधारता। कुछ बुद्धिजीवियों की राय थी कि उसका समय पूरा हो गया था। ऊपर वाले के आगे किसी की नहीं चलती। देश के कई साहित्यकार मय के दिवाने रहे हैं। गोपालदास 'नीरज', सआदत हसन मंटो, हरिशंकर परसाई, राजेंद्र यादव, कमलेश्वर, रविंद्र कालिया, खुशवंत सिंह आदि ने शराब के प्यालों में डूब कर ही प्रभावशाली साहित्य की रचना की है। इनमें मंटो को छोडकर कुछ ने बहुत अच्छी तो कुछ ने ठीक-ठाक उम्र पायी। खुशवंत सिंह तो प्रतिदिन अपने तय समय पर मयखोरी करने के बावजूद निनायनवें साल तक जिन्दा रहकर अपने अंदाज से लेखन के साथ-साथ मौज मस्ती करते रहे।
अपने यहां आधुनिक तथा खुले विचारों के हिमायती होने के जितने दावे किये जाते हैं उन सब में पूरी की पूरी सत्यता नहीं होती। भारतवर्ष में आज भी महिलाओं को खुले अंदाज में चलता-फिरता देखकर पुरुषों की बहुत ब‹डी जमात भौचक्क रह जाती है। तरह-तरह के बोल और कटाक्ष किये जाते हैं। मर्द कहीं भी कुछ भी पीने और करने को स्वतंत्र हैं, लेकिन स्त्री के लिए अथाह बंदिशों की वकालत करने वाले सीना ताने खडे नजर आते हैं। उनका मानना है मौज-मस्ती के सभी साधन पुरुषों के लिए बने हैं। महिलाओं के लिए तो इनकी कल्पना करना भी वर्जित है। कुछ दिन पूर्व गोवा में छुट्टियां मनाने गई एक युवा फिल्म अभिनेत्री ने अपनी कुछ तस्वीरें इंस्टा अकाउंट पर शेयर कीं। इन तस्वीरों में एक तो उसने बिकिनी पहन रखी थी, दूसरे उसके हाथ में शराब का गिलास शोभायमान था। शराब के साथ सिगरेट पीती अभिनेत्री की तस्वीरों पर लोगों ने गालियों की बौछार के साथ आपत्ति जताते हुए उसे एक बुरी घटिया नारी घोषित कर दिया। आजाद ख्याल अभिनेत्री ने विभिन्न प्रतिक्रियाओं के जवाब में लिखा : हां मैं शराब पीती हूं और स्मोक भी करती हूं। पर आप यह भी जान लें कि छुपाने में नहीं, खुलकर सामने आने में विश्वास रखती हूं। मैं कैसी नारी हूं इसका आकलन करने का हक किसी को भी नहीं है। शराब और सिगरेट पीने वाली औरत को आप एक बुरी औरत कैसे कह सकते हैं? मुझे ऐसा कतई नहीं लगता कि मैं इन नशों के चक्कर में अपनी जिन्दगी बर्बाद कर रही हूं। मैं कोई बेरोजगार नहीं हूं। मेरे पास करने को बहुत कुछ है। मैं एक ऐसी सफल एक्ट्रेस और डांसर हूं जो देश की बहुत बडी मायानगरी मुंबई में अपने दमखम पर रहती है।
यह हकीकत किसी से छिपी नहीं है कि संभ्रांत समाज में लडकियां और महिलाएं खुलकर शराब पीती हैं। ड्रग्स भी लेती हैं। नामी क्लबों और बडी पार्टियों में पढी-लिखी और अच्छे परिवारों की नारियां शराब, वाइन, शैम्पेन पीकर बहकती नज़र आती हैं। यह उनके लिए फैशन है। आधुनिकता की निशानी है। एक सर्वे बताता है कि भारतवर्ष में पुरुषों के हमलों का शिकार होने वाली एक तिहाई तथाकथित आधुनिक महिलाएं नशे में होने के कारण विरोध कर पाने में असमर्थ होती हैं। विभिन्न अध्ययनों में यह भी पाया गया कि दो में से एक यौन हमला उन पुरुषों के द्वारा किया गया जो शराब के नशे में थे।
यह सच भी चौंकाने वाला है कि शराब के खिलाफ हुए अधिकांश आंदोलनों में ग्रामीण महिलाओं ने ही सक्रियता दिखायी है। बिहार जहां पर नीतीश कुमार ने सरकार बनाने के बाद फौरन बाद शराब बंदी की घोषणा की थी उसका वास्तविक श्रेय महिलाओं को ही जाता है। दरअसल, समाज में शराब की वजह से सबसे ज्यादा नुकसान महिलाओं को ही उठाना पडता है। शराबी पति के कारण उन्हें आर्थिक समस्याओं के साथ-साथ घरेलू हिंसा का शिकार होना पडता है। जहरीली और नकली शराब की वजह से होने वाली मौतों का भयावह असर अंतत: महिलाओं को ही झेलना पडता है। पिछले महीने ओडिशा के झारसुगडा जिला मुख्यालय से ११ किलोमीटर दूर श्रीपुरा गांव में महिलाओं ने कई हफ्तों तक शराब भट्टी के समक्ष तंबू गाड कर अपने विरोध का प्रदर्शन किया। इस गांव में पुरुष तो शराब का नशा करते ही थे, बच्चों को भी इसका आकर्षण अपनी ओर खींचने लगा था। कुछ बच्चे भी चोरी-छिपे शराब भट्टी तक पहुंचने लगे थे। ओडिशा के अलग-अलग जिलों में इससे पहले भी शराब बंदी के लिए कुछ आंदोलन हो चुके हैं, लेकिन इस आंदोलन ने शराब भट्टी मालिकों की नींद उडा दी। यह नशीला धंधा हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाए इसके लिए महिलाएं चौबीस घंटे भट्टी की निगरानी करती थीं। प्रशासन की नींद उडाकर रख देने वाले इस आंदोलन में महिलाओं की एकता देखते ही बनती थी। अपने घरेलू कामकाज से निवृत्त होकर वे बारी-बारी से आंदोलन स्थल पर आकर बैठ जातीं और शराब के खिलाफ नारेबाजी करती रहतीं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए गांव के कुछ युवक तंबू के आसपास मौजूद रहते।
खुद को नशे के हवाले करने के लिए जान गवां देने वालों के बारे में क्या कहा जाए? दिल्ली के नांगलोई रेलवे स्टेशन के पास रेलवे ट्रैक पर बैठकर शराब पी रहे तीन लोगों की ट्रेन की चपेट में आने से मौत हो गई। जब यह शराबी ट्रैक पर बैठकर शराब पी रहे थे तब लोको पायलट ने उन्हें ट्रैक से हटने को कहा था, लेकिन इसके बावजूद वे वहां डटे रहे और जाम से जाम टकराते रहे। धीरे-धीरे उन्होंने इतनी अधिक चढा ली कि नशे ने उनको पूरी तरह से बेसुध कर दिया। इसी दौरान दिल्ली-बीकानेर एक्सप्रेस ट्रेन आई और उन्हें कुचलते हुए निकल गई। नशे में ट्रेन की चपेट में आने वाले यह तीनों पियक्कड रेलवे लाइन के किनारे बनी झुग्गियों में रहते थे। देश की राजधानी सहित लगभग पूरे देश में रेलवे लाइनों के किनारे झुग्गियां बनी हुई हैं जहां पर तमाम असुविधाओं के बावजूद हजारों लोग रहते हैं। इनमें से कुछ मजबूर और बेबस हैं और कई आदतन अपराधी हैं। पुलिस जांच में यह सच उजागर हो चुका है कि इन झुग्गियों में तरह-तरह के अपराध और अपराधी जन्मते और पलते-बढते हैं। झुग्गियों में रहने वाले बदमाश रेलगाडियों में चोरी, लूटपाट और झपटमारी को आसानी से अंजाम देकर झुग्गियों की संकरी गलियों में गायब हो जाते हैं। रेलवे प्रशासन की आंखें कभी भी नहीं खुल पातीं।

Thursday, November 1, 2018

कुछ मैं लडूँ, कुछ तुम लडो

जो अच्छी तरह से जानते हैं कि दिवाली पर बेतहाशा पटाखों का चलाना पर्यावरण के साथ-साथ स्वास्थ्य के लिए भी बेहद हानिकारक है, वे भी दिवाली की रात अंधाधुंध पटाखे जलाने से बाज नहीं आते। पटाखे फोडने में धनवानों की तो जैसे रात भर प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। कितने लोगों के हाथ-पांव जल जाते हैं, आंखों की रोशनी चली जाती है इसकी भी खबरें अखबारों और न्यूज चैनलों पर आती हैं, लेकिन फिर भी फटाकेबाजों की आंखें नहीं खुलतीं। इसी जहरीले सच से अवगत होने के कारण ही सुप्रीम कोर्ट ने दिवाली पर केवल रात आठ बजे से दस बजे के बीच पटाखे जलाने की अनुमति दी है। दीपावली को दीपों के बजाय सिर्फ और सिर्फ आतिशबाजी का उत्सव मानने वाले कई लोगों को अदालत का यह निर्णय कतई नहीं सुहाया। सोशल मीडिया पर तरह-तरह की प्रतिक्रियाएं देखने में आयीं। कहा गया कि सर्वोच्च न्यायालय भी हिंदुओं के त्योहारों पर टेढी नज़र रखते हुए भेदभाव की नीति अपनाता है।
यह लगातार देखा जा रहा है कि सोशल मीडिया पर ऐसे कटुता प्रेमी छाते चले जा रहे हैं, जिनका एकमात्र मकसद किसी को लांछित करना, भ्रम फैलाना, अपनी भडास निकालना, विवाद खडे करना और अपशब्दों की बरसात करना ही है। उन्हें अब यह कौन बताये और समझाये कि सर्वोच्च न्यायालय धर्म का चश्मा लगाकर अपने निर्णय नहीं सुनाता। उसे हर भारतवासी की फिक्र रहती है। उसे मतलबी नेताओं के समकक्ष खडा करना अनुचित है जो जात-धर्म की राजनीति करते चले आ रहे हैं। विभिन्न डॉक्टर लोगों को सचेत करते रहे हैं कि पटाखे जलाने पर जो कार्बन मोनोक्साइड और कार्बन डायऑक्साइड गैस पैदा होती है वह सांस के साथ हमारे रक्त में चली जाती है। रक्त में घुलकर यह शरीर के विभिन्न हिस्सों को भारी क्षति पहुंचाती है। इसके अलावा जब पटाखे जलते हैं तो उनकी चिंगारियां आकाश की ओर जाती हैं, इससे पेडों पर रह रहे और आकाश में उड रहे पक्षी घायल हो जाते हैं। पटाखों में ऐसे-ऐसे रसायन होते है जो किडनी और लीवर को नुकसान पहुंचाते हैं। नर्वस सिस्टम पर असर डालने के साथ-साथ आंखों में जलन पैदा करते हैं। पटाखों में पाया जाने वाला क्रोमियम नामक रसायन त्वचा को तो हानि पहुंचाता ही है, फेफडों के कैंसर का कारक भी बन सकता है। और भी कई तकलीफों के जन्मदाता पटाखों पर आये सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर विरोध जताने वालों की सोच पर तरस के साथ-साथ गुस्सा भी आता है।
अपने यहां इंसानी जिंदगी का कोई मोल नहीं है। धन के लोभी सिर्फ और सिर्फ अपने हित की ही सोचते हैं। पर्यावरण के दूषित होने से कितने-कितने इंसानों और प्राणियों को असमय परलोक सिधारना पडता है इसकी चिन्ता वे कभी भी नहीं करते। देश में हर जगह खनन माफिया पर्यावरण को चौपट करते हुए लूटपाट मचाये हैं। यह कितनी चौंकाने वाली सच्चाई है कि राजस्थान में अरावली पर्वत माला की ३४ पहाडियों को उखाडकर गायब कर दिया गया। धन के लालची बेखौफ होकर पहाडों, तालाबों और पेडों को गायब कर पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचा रहे हैं और हम और आप कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं। शासन और प्रशासन ने तो जैसे अंधे बने रहने की कसम खा ली है। यह भी सच है कि इस लूटकर्म में शासकों के करीबी नेता और उनके साथी शामिल हैं। उत्सवों को मनाने में बरती जाने वाली लापरवाही कितनी मर्मांतक त्रासदी में तब्दील हो सकती है इसका भयावह मंजर १९ अक्टूबर, दशहरे की शाम अमृतसर के धोबीघाट पर देखने में आया। इस घटना ने जहां नेताओं की संवेदनहीनता उजागर की वहीं प्रशासन का बिकाऊ और अंधा चेहरा भी दिखा दिया। यह जानते-समझते हुए भी कि यह रेलपथ है फिर भी हजारों की संख्या में लोग वहां पर खडे होकर रावण दहन देख रहे थे। पटाखों के शोर के अलावा कुछ भी सुनायी नहीं दे रहा था। महज पांच सेकंड में एक १०० किमी की रफ्तार से दौडती ट्रेन लोगों को कुचलते हुए निकल गई। सैकडों लोग बुरी तरह से घायल हुए और बासठ लोगों की मौत हो गई। जिन लोगों ने यह खौफनाक मंजर देखा उनकी तो रातों की नींद ही उड गई। खाने-पीने की इच्छा मर गई। रेलवे फाटक से लगी खाली पडी जमीन पर रावण दहन का यह खूनी कार्यक्रम कांग्रेसी पार्षद के पुत्र ने करवाया था। अधिक से अधिक भीड जुटाने के लिए उसने अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। इस हृदयविदारक घटना के बाद वह कराहते मौत से जूझते लोगों की सहायता करने की बजाय भाग खडा हुआ। पंजाब सरकार के मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू की पत्नी इस आयोजन में मुख्य अतिथि के तौर पर उपस्थित थीं, लेकिन जैसे ही यह हादसा हुआ तो वे फौरन मंच से उतर कर फुर्र हो गर्इं। मंत्री नवजोत सिंह सिद्धू ने इस दर्दनाक दुर्घटना को कुदरत का कहर बता कर इस हकीकत पर मुहर लगा दी कि नेताओं की कौम स्वार्थी भी होती है और निष्ठुर भी।
देश के लगभग हर प्रदेश में माफियाओं की समानांतर सत्ता चल रही है। रेत माफियाओं, शराब माफियाओं, कोल माफियाओं के साथ अन्य तमाम माफियाओं को बडे-बडे राजनीतिज्ञों का साथ और आशीर्वाद सर्वविदित है। देश का सर्वोच्च न्यायालय समय-समय पर सरकारों से जवाब-तलब करने के साथ-साथ समस्त देशवासियों को भी जागरूक करने में लगा रहता है। सरकारें कैसे अपना दायित्व निभा रही हैं, इसकी हम सबको पूरी खबर है। अधिकांश भारतवासी कौन से रास्ते पर चल रहे हैं इस पर भी तो चिंतन होना चाहिए। जब देखो तब भ्रष्टाचार के खिलाफ शोर मचाया जाता है तो फिर सवाल उठता है कि भ्रष्टाचार का खात्मा क्यों नहीं हो पा रहा है? इंडियन करप्शन सर्वे २०१८ की रिपोर्ट के अनुसार पिछले एक साल में हमारे देश में रिश्वत देने के प्रचलन में बढोतरी हुई है। लोग खुद ही घूस देने को लालायित रहते हैं ताकि उनका काम हो जाए। सोचिए... ऐसे में देश की तस्वीर कैसे बदलेगी? दरअसल हम खुद को बदलने को तैयार ही नहीं हैं। दूसरों से ही तमाम उम्मीदें लगाये रहते हैं। लोगों की सोच पर कटाक्ष और सवाल दागती बालकवि बैरागी की लिखी यह पंक्तियां पढें और चिंतन-मनन करें:
आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूं कहा,
"आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?"
तमतमा कर वह दहाडा - "मैं अकेला क्या करूँ?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पडो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लडूँ, कुछ तुम लडो।"
'राष्ट्र पत्रिका' के तमाम सजग पाठकों, संवाददाताओं, एजेंट बंधुओं, लेखकों, विज्ञापनदाताओं, संपादकीय सहयोगियों और शुभचिंतकों को दीपावली की अनंत शुभकामनाएं... बधाई।