Thursday, January 28, 2016

प्रश्न यह भी है कि...?

बददिमाग दबंगों और रसूखदारों के अहंकार की कोई सीमा नहीं है। अपना जुल्म ढाने के लिए दलित और शोषित उनके लिए सर्व सुलभ साधन हैं। कई बार तो दलितों के साथ जानवर से भी बदतर सलूक कर उन्हें खुद के सर्वश्रेष्ट होने का गुमान होता है। उनके विषैले फन को संतुष्टि मिलती है। गरीबों और दलितो को बंधुआ मजदूर मानकर उनके साथ निष्कृष्ट व्यवहार करने की भी अपने देश में बडी शर्मनाक परिपाटी रही है। कुछ लोग दबंगों की बर्बरता के विरोध में तन कर खडे हो जाने का हौसला भी दिखाते हैं। उन्हीं में शामिल हैं... बंत सिंह। पंजाब के मनसा जिले में एक गांव है बुर्ज झब्बर! पंद्रह साल पहले की बात है। तब गांव में अमीर किसानों की चला करती थी। छोटी जाति के अधिकांश लोग अमीर किसानों के खेतों में हल चलाया करते थे। बंत सिंह भी उन्हीं बंधुआ मजदूरों में शामिल थे जिन्हें अपने मालिक के हुकम के इशारों पर दिन-रात नाचना पडता था। बंत सिंह अनपढ और गरीब जरूर थे, लेकिन उनके सपने जिन्दा थे। उनकी सोच औरों से अलग थी। गाने का भी जबर्दस्त शौक था। जब मौका मिलता गुनगुनाने लगते। संगी-साथी उनकी सोच और कला के कद्रदान थे। साथी मजदूरों को तब बहुत अच्छा लगता था जब वे सामाजिक समानता और न्याय की बातें करते हुए क्रांति के गीत गाने लगते थे। वे गांव के पहले शख्स थे जिन्होंने, अपने घर में बेटी के पैदा होने पर मिठाई बांटी थी और खूब खुशियां मनायी थीं। गांव में तो बेटों के आगमन पर ही जश्न मनाया जाता था। लोगों ने उन पर ताने कसे थे। हंसी उडायी थी। बेवकूफ बेटी के जन्म पर झूम रहा है। भूल गया है कि बेटों से ही वंश चलता है। बेटियां तो पराया धन होती हैं। तब बेटियों को घर में कैद करके रखा जाता था। पढाई-लिखायी तो बहुत दूर की सोच थी। पर बंत ने अपनी बिटिया का स्कूल में नाम लिखवा कर वर्षों से चली आ रही परंपरा के जैसे पर ही काट डाले। बिटिया को भी पढना-लिखना अच्छा लगता था। वक्त गुजरता गया। बंत की बेटी बलजीत ने उम्र के सोलहवें साल की दहलीज पर पांव धर दिये थे और दसवीं की परीक्षा की तैयारी कर रही थी। वर्ष २००० की तारीख थी छह जुलाई। बलजीत अपने पिता के सपनों को साकार करने के लिए किताबों में ही खोयी रहती थी, लेकिन ऊंची जाति के दबंगों को यह बात रास नहीं आ रही थी। एक दिन मौका पाते ही कुछ दबंगों ने बलजीत पर बलात्कार कर डाला। बंत सिंह का तो खून ही खौल उठा। करीबियों ने उसे ठंडा करने की कोशिश करते हुए समझाया कि यह कोई नयी बात नहीं है। सामंतवादी सोच वाले अमीर ऐसे ही गरीबों की लडकियों की अस्मत लुटते रहते हैं। कभी किसी ने जुबान नहीं खोली। वह भी चीखने-चिल्लाने और पुलिस के पास जाने की कोशिश न करे। इससे तो उसी की लडकी की ही बदनामी होगी। बलात्कारियों का कुछ भी नहीं बिग‹डेगा। उनकी बहुत ऊपर तक पहुंच है। तू चींटी है, वो हाथी हैं। मसल डालेंगे तुझे। समझाइश में दम था। गांव के सरपंच और लगभग तमाम प्रभावशाली लोग दलित की बेटी की अस्मत लूटने वालों के साथ हो गये थे। बंत सिंह को धन का लालच भी दिया गया। धमकाने में कोई कसर नहीं छोडी गयी। लेकिन फिर भी वह बलात्कारी दरिंदों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने के लिए पुलिस स्टेशन जा पहुंचा। गांव ही नहीं, पंजाब के इतिहास में पहली बार किसी दलित सिख ने ऊंची जाति के खिलाफ केस दर्ज करवाने की हिम्मत दिखायी। पूरा गांव एक तरफ था और बंत सिंह एकदम अकेले थे। बेटी की इज्जत के लुटेरों को सज़ा दिलवाने की जिद उनकी सबल साथी थी। जाति विशेष के लोगों ने उनका अघोषित बहिष्कार कर डराने और केस वापस लेने की ढेरों कोशिशें कीं। आखिरकार बंत सिंह की लडाई रंग लायी। २००४ में तीन बलात्कारियों को उम्र कैद की सजा मिली। बंत सिंह की जिद के कारण ऊंची जाति के दबंगों को मिली उम्र कैद की सजा से गांव के धनाढ्य ऐसे बौखलाए कि उन्होंने उन्हें तबाह करने की कसम खा ली। उन पर जानलेवा हमलों का सिलसिला सा चल पडा। आरोपी पकडे जाते और फिर जमानत पर रिहा होकर बंत को आतंकित करने लगते।
पांच जनवरी २००६ की सुबह वे खेत से घर लौट रहे थे। सात लोगों ने उन्हें घेर लिया। उनके हाथ में लोहे की राड, कुल्हाडी, चाकू और पिस्टल जैसे घातक हथियार थे। उन्होंने बंत के शरीर के हर हिस्से को लहुलूहान कर डाला। बंत बेहोश हो गये। हमलावरों को पक्का भरोसा था कि वे मर चुके हैं। लेकिन उनकी सांसें चल रही थीं। उन्हें अस्पताल पहुंचाया गया। डाक्टर भी दबंगों से खौफ खाते थे। उन्होंने भी इलाज में काफी ढिलायी बरती। शरीर के अंग-अंग से रिसते खून और दर्द की वजह वे तडप रहे थे, चीख रहे थे, लेकिन डॉक्टर पत्थर दिल बने रहे। बाद में उन्हें पीजीआई अस्पताल पहुंचाया गया। वहां के डॉक्टरों ने मानवता दिखायी। हालांकि गैंगरीन की वजह से उनके हाथ-पांव काटने पडे। होश में आने के बाद जब उन्हें पता चला कि वे अपंग हो चुके हैं तो भी वे मायूस नहीं हुए। अस्पताल के बिस्तर पर ही वे क्रांति के गीत गुनगुनाने लगे। धीरे-धीरे अस्पताल के वार्ड में उनके गीतो की आवाज गूंजने लगी। महीनों इलाज चलता रहा। उन्होंने अपना हौसला नहीं खोया। बलजीत को अपने पिता पर गर्व है। पिता ने जिस तरह से डटकर दबंगों का सामना किया उससे बलजीत की भी हिम्मत बढी। वह भी अन्याय के खिलाफ लडाई लडने में पीछे नहीं रहती। बंत सिंह अभी भी बिलकुल नहीं बदले हैं। उनका वही लडाकू अंदाज कायम है। अपंग होने के बावजूद भी वे आसपास के शहरों और गांवों में जाकर लोगों को शोषकों के खिलाफ खडे होने और लडने की प्रेरणा देते हैं। उनका एक ही मकसद है दलितों के जीवन में उजाला आए। वे जागें और जुल्म और अन्याय के खिलाफ बेखौफ खडे हो जाएं। अटूट संघर्ष की मिसाल बन चुके बंत सिंह पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है। उनके संघर्ष का पूरा विवरण पेश करने वाली एक किताब भी छपी है। किताब की लेखिका निरुपमा दत्त बडे गर्व के साथ कहती हैं कि बंत सिंह जैसे गरीब और अनपढ इंसान ने अन्याय के खिलाफ जिस साहस के साथ खुद को झोंक दिया और किंचित भी हार नहीं मानी, वह अभूतपूर्व भी है और प्रेरणास्त्रोत भी।
१७ जनवरी २०१६ को हैदराबाद विश्व विद्यालय के दलित छात्र रोहित वेमुला की आत्महत्या ने समूचे देश को हिलाकर रख दिया। इस विश्व विद्यालय में पहले भी आठ दलित छात्र आत्महत्या कर चुके हैं। रोहित का फांसी के फंदे पर झूल जाना कई सवाल छोड गया। क्या उसका खुद को मौत के हवाले कर देने का कदम सही था? छब्बीस साल का रिसर्च स्कॉलर (शोध छात्र) रोहित वेमुला एक साधारण परिवार में जन्मा था। वह बेहद महत्वाकांक्षी था। वर्तमान व्यवस्था और कट्टरपंथी ताकतों के प्रति उसके मन में काफी रोष था। विश्वप्रसिद्ध विज्ञान लेखक कार्ल सेगान की तरह वह भी विज्ञान लेखक बनकर नाम कमाना चाहता था। उसे देश के हालात चिंतित, विचलित और परेशान कर दिया करते थे। पता नहीं यह कैसा दौर आया है कि देखते ही देखते आपसी तनातनी का माहौल बन जाता है। अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार किसी को राष्ट्रप्रेमी का तमगा पहना दिया जाता है तो किसी को राष्ट्रद्रोही का दर्जा देकर आहत करने में देरी नहीं की जाती। आंबेडकर स्टूडेंट एसोसिएशन के सक्रिय सदस्य रोहित और उनके साथियों ने नकुल सिंह साहनी की विवादास्पद फिल्म 'मुजफ्फर नगर अभी बाकी है' को दिखाये जाने का समर्थन और मुंबई बम कांड के खलनायक खूनी दरिंदे याकुब मेनन को दी गयी फांसी का विरोध कर राष्ट्रीय स्वयं संघ और भाजपा की स्टूडेंट विग अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) की नाराजगी मोल ले ली थी। एबीवीपी के एक नेता ने अपना रोष जताते हुए रोहित और उनके साथियों को गुंडा बताया था। यह सच्चाई दीगर है कि बाद में उसने माफी भी मांग ली थी। आतंकी याकुब मेनन के प्रति हमदर्दी जताने वाले रोहित और उनके साथियों को राष्ट्र विरोधी करार देकर आहत किया गया था।
ऐसे में मनमुटाव और झगडा बढना ही था। एबीवीपी के एक छात्र ने यह आरोप भी जडा कि आंबेडकर स्टूडेंट एसो. के तीस छात्रों ने उसे इस कदर मारा-पीटा कि उसे अस्पताल में भर्ती होना पडा। हालांकि इसका कोई पुख्ता प्रमाण नहीं मिला। लेकिन फिर भी पांच दलित छात्रों को अंतत: निलंबित कर होस्टल से खदेड दिया गया। यहां तक कि उनकी फेलोशिप तक रोक दी गयी। छात्रों के समक्ष आर्थिक संकट खडा हो गया। इस सारे कांड में राजनीति का शर्मनाक खेल खेले जाने के भी आरोप लगे। नये कुलपति सत्ताधीशों के हाथों की कठपुतली बने नजर आए। सच तो यह भी हैं कि यह तो दो छात्र संगठनों की लडाई थी जिसे मिल-बैठकर निपटाया जा सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। रोहित ने आत्महत्या कर ली। उसने अपने सुसाइड नोट में लिखा कि यूनिवर्सिटी प्रशासन को सभी दलित छात्रों को जहर उपलब्ध करवा देना चाहिए, क्योंकि उनके साथ भेदभाव हो रहा है। साथ ही वार्डन को सभी दलित छात्रों को कमरे में रस्सी भी उपलब्ध करवा देना चाहिए। लेकिन क्या रोहित की आत्महत्या को सही निर्णय माना जाए? क्या इसके सिवाय और कोई चारा नहीं था? ऊंची जाति के दबंगों के दांत खट्टे करने वाले बंत सिंह की तरह रोहित ने अंत तक लडने की हिम्मत क्यों नहीं दिखायी? उसकी जीवटता और संकल्प क्यों ठंडे पड गये? फांसी के फंदे पर झूलने की बजाय रोहित अगर अथक यौद्धा की भूमिका में नजर आता तो अखबारों की भुला दी जाने वाली खबरों की बजाय यकीनन बंत सिंह की तरह इतिहास में जगह पाता...।

Thursday, January 21, 2016

अब चुप नहीं रहेंगी लडकियां

उसका नाम रजनी है। उम्र है १४ वर्ष। बीते हफ्ते की बात है। रजनी की भाभी अमृतसर में स्थित नानक देव अस्पताल में भर्ती थी। घर में नया मेहमान आया था। बहुत खुश थी रजनी। अचानक भाभी की तबीयत बिगड गयी। डॉक्टरों ने आक्सीजन की कमी बतायी। रजनी अस्पताल के निकट स्थित दवाई दुकान की तरफ जा रही थी तभी उसका एक अधेड की तरफ ध्यान गया जो उसे घूर-घूर कर देख रहा था। उसने उसे नजरअंदाज करने की कोशिश की, लेकिन फिर भी उसका घूरना और पीछा करना जारी रहा। वह उसके करीब आया और पूछने लगा कि वह कौन है और कहां से आयी है। उसने उसे सबकुछ बता दिया। उस उम्रदराज शख्स ने उसे बताया कि वह मनोरोग अस्पताल में काम करता है। उसकी बहुत ऊंची पहुंच है। कोई भी काम एक ही झटके में करवा सकता है। अगर उसे कोई दवा या सुविधा चाहिए तो बता देना। रजनी को भाभी के पास पहुंचने की जल्दी थी। उसने उसकी बात नहीं सुनी और बिना कोई जवाब दिये आगे बढ गयी। दूसरे दिन की रात भी वह बुजुर्ग उसके निकट आया और उसे ललचायी नजरों से देखते हुए पूछने लगा कि क्या तुमने कभी कोई अश्लील फिल्म देखी है? ...देखोगी तो बहुत मजा आयेगा। रजनी को अपने पिता की उम्र से बडे अधेड पुरुष का यह व्यवहार स्तब्ध कर गया। रजनी तो शर्म से पानी-पानी हो गयी, लेकिन वह तो जैसे अश्लीलता का समूचा पाठ पढाकर उसे अपना शिकार बनाने को आतुर था। वह हाथ आये मौके को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहता था। रजनी के खामोश रहने पर वह उसके और करीब आया और कहने लगा कि मैं तुम्हें ऐसी कामुक फिल्म दिखाता हूं जिसकी तुमने कभी कल्पना ही नहीं की होगी। बहुत मज़ा आयेगा। अभी तक चुप्पी से बंधी रजनी को गुस्सा तो बहुत आया, लेकिन वह मौन साधते हुए वहां से आगे बढ गयी तो वह भी पीछे-पीछे आने लगा। रजनी ने मुडकर उसे घूरा तो वह बडी बेशर्मी के साथ मुस्कराया और बोला कि तुम्हें बहुत जल्दी है इसलिए तुम मुझे अपना मोबाइल नंबर दे दो। मैं तुम्हारे मोबाइल फोन पर गर्मा-गर्म वीडियो भेज देता हूं। आराम से उसे देखना फिर मुझसे मिलना। अब तो जैसे गुस्से के मारे रजनी के तनबदन में आग लग गयी। वह खडे-खडे मुस्करा रहा था। रजनी ने अस्पताल में तैनात खाकी वर्दीधारी को अय्याश की हरकत से अवगत कराया। उसे फौरन दबोच लिया गया। पुलिस के हत्थे चढते ही उसने शराफत की चादर ओढते हुए कहा कि मैं तो इस बच्ची को जानता ही नहीं। बेवजह यह मुझपर इल्जाम लगा रही है। इसे मेरी उम्र का भी ख्याल नहीं। भला मैं इतनी घिनौनी हरकत कैसे कर सकता हूं! रजनी उसके रंग बदलने पर हैरान थी, लेकिन पुलिस को भी यकीन था कि वह झूठी नहीं हो सकती। पुलिस ने जब उस शातिर पर सख्ती दिखायी और जेल में ठूंसने का डर दिखाया तो वह हाथ-पांव जोडने लगा। उसने अपनी गलती स्वीकारते हुए कहा कि उससे लडकी को पहचानने में भूल हो गयी। (यानी वह उसे बाजारू समझ रहा था।) वह रोने का नाटक करने लगा। इसी दौरान रजनी ने पुलिस के सामने ही उसके गाल पर चार तमाचे जड दिये। वह गुस्से में तमतमा रही थी। उसका बस चलता तो उसकी गर्दन दबोच डालती। अधेड को और पिटने का भय था। वह रजनी के सामने हाथ जोडकर गिडगिडाने लगा - 'तुम तो मेरी पोती जैसी हो। मुझसे बहुत बडी भूल हो गयी है। माफ कर दो बेटी...।' रजनी को यह समझते देर नहीं लगी कि यह वासना का खिलाडी बहुत बडा ढोंगी है। ऐसे ही लोग रंग बदलने में गिरगिट को भी मात दे देते हैं। रजनी ने चीखते हुए कहा, "तुम जैसे भेडियों को अच्छी तरह से जानती हूं मैं... जो लडकियों की अस्मत से खिलवाड करने के लिए यहां-वहां कुत्तों की तरह घूमते रहते हैं। तुम्हें तो उम्रभर के लिए सलाखों के पीछे धकेल दिया जाना चाहिए।" अस्पताल में जुटी भीड ने रजनी की पीठ थपथपायी।
बहुत कम लडकियां ऐसी हिम्मत दिखा पाती हैं। रजनी की तरह ही लखनऊ शहर की ऊषा विश्वकर्मा के साहस को यह कलम सलाम करती है। ऊषा को अपने साथ पढने वाले लडके के बलात्कार के दंश का शिकार होने के बाद परिचितों, रिश्तेदारों और आसपास के लोगों की तानाकशी का शिकार होना पडा। पहले वह घबरायी और कुछ-कुछ टूटी जरूर, लेकिन बाद में उसने खुद को ऐसा खडा किया कि आज एक मिसाल बन हजारों लडकियों की प्रेरणा और ताकत बन गयी है। ऊषा ने बारहवीं करने के बाद स्लम के बच्चों को पढाने के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी। उसी दौरान उसने जाना कि हमारे देश में बच्चियां कितनी असुरक्षित हैं। एक बच्ची पर उसके चाचा ने बलात्कार किया तो ऊषा ने पुरजोर आवाज उठायी। बलात्कारी का बाल भी बांका नहीं हुआ। उसके विरोध को दबाने के कई षडयंत्र रचे गये। काफी चिन्तन-मनन करने के पश्चात उसने पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ डटकर मुकाबला करने के लिए युवतियों का एक संगठन बनाया जिसे नाम दिया गया- रेड ब्रिगेड। रेड ब्रिगेड उन बच्चियों और लडकियों के लिए लडती है जो घर तथा बाहर अनाचार और यौन शोषण का शिकार होती हैं। ऊषा ने अपने दोस्तों के साथ मिलकर एक 'जेंडर सेंसटीविटी वर्कशाप' की तो इसमें शामिल ५५ लडकियों में से ५३ की यही पीडा थी कि उनके साथ उन्हीं के घर में चाचा, मामा, चचेरे, मौसेरे भाई और यहां तक सगे भाई और पिता ने बलात्कार कर रिश्तों को कलंकित किया था। यह सच यकीनन बेहद चौकाने वाला है कि बाहर की तुलना में घर तथा आसपास ज्यादा दुष्कर्मी रहते और बसते हैं। शोषण का शिकार होने वाली बच्चियों को तो घर परिवार की महिलाओं का भी पूरा साथ नहीं मिलता। रजनी का तमाचा और ऊषा विश्वकर्मा की खुली जंग यही कह रही है कि अब किसी बलात्कारी की खैर नहीं। अब चुप नहीं रहेंगी लडकियां। घर और बाहर के दुराचारियों को सबक सिखाने के लिए किसी भी हद तक जाने की ठान ली है उन्होंने।

Thursday, January 14, 2016

धार्मिक उन्माद के हश्र से वाकिफ हैं देशवासी

यह कोई नयी बात नहीं है। जब भी चुनाव करीब होते हैं तो अयोध्या में राम मंदिर बनाने की खबरें आने लगती हैं। मस्जिद का मुद्दा भी गरमा जाता है। दोनों पक्ष आमने-सामने आ जाते हैं। उत्तरप्रदेश में २०१७ में विधानसभा चुनाव होने हैं। भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने ऐलान कर दिया है कि इस साल के अंत से पहले यूपी में स्थित अयोध्या में राम मंदिर निर्माण का कार्य शुरू हो जायेगा। विश्व हिन्दु परिषद ने तो देश के हर गांव में भगवान राम का मंदिर बनाने के फैसले की घोषणा कर दी है। अयोध्या में राम मंदिर बनाने का डंका पीटने वाले जानते हैं कि यह मामला कितना गंभीर है। विवाद उच्चतम न्यायालय में है। यानी फैसला आना अभी बाकी है। फिर भी मंदिर बनाने का राग जोर-शोर से अलापा जाने लगा है। पहले यह खबर आयी कि राम मंदिर बनाने के लिए अयोध्या में शिलाएं पहुंचने लगी हैं। इस खबर के फौरन बाद मस्जिद बनाने के लिए धडाधड पत्थरों के आने की खबरें मीडिया में सुर्खियां पाने लगीं। ऐसी खबरें अमनपरस्त भारतीयों को चिन्ता में डाल देती हैं। उन्हें फिर से दंगों और लूटपाट की घटनाओं का दौर याद आने लगता है। बाबरी मस्जिद ध्वस्त किये जाने के बाद भाईचारे का जिस तरह से खात्मा हुआ था उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। पता नहीं इतिहास से सबक लेने की पहल क्यों नहीं की जाती? यह भी सच है कि कई नेताओं का धंधा राम मंदिर और बाबरी मस्जिद के नाम पर ही फलता-फूलता रहा है। सुब्रमण्यम स्वामी का यह कथन कितना हैरत में डाल देने वाला है कि देश के उत्थान के लिए राम मंदिर का निर्माण होना जरूरी है। क्या वाकई? दिल्ली विश्वविद्यालय में आयोजित सेमिनार में स्वामी के इस कथन के गूंजते ही भारी बवाल हो गया। छात्र संगठनों ने दिल्ली विश्वविद्यालय को ही भगवे रंग में रंगने का आरोप लगाते हुए आयोजन स्थल के बाहर जमकर विरोध प्रदर्शन किया। स्वामी को यह नजारा देखकर बहुत गुस्सा आया और उन्होंने विरोध करने वालों को असहिष्णु करार देकर नजरअंदाज करने का नाटक करते हुए ऊंची आवाज में कहा कि हम मंदिर बनाने के लिए प्रतिबद्ध हैं। मैं जो कहता हूं, वह होता है। अब कह रहा हूं कि मंदिर बनेगा, तो हर हाल में बनेगा। विरोध करने वाले छात्रों को दिल्ली विश्वविद्यालय में राम मंदिर पर सेमिनार आयोजित किये जाने पर घोर आपत्ति थी। उनका कहना था कि यह एक विवादित मुद्दा है। विश्वविद्यालय में इस तरह का आयोजन कतई नहीं होना चाहिए। 'मेरी मुर्गी की एक टांग' की नीति पर चलने वाले स्वामी बार-बार यही रट लगाये रहे कि उनका उद्देश्य लोगों को जगाना तथा यह समझाना है कि यह विवादित मुद्दा नहीं है। यह देश की जरूरत है। यदि सरकार इस पर विधेयक लाती है तो अच्छा है वरना इसके लिए उच्चतम न्यायालय के फैसले का इंतजार किया जायेगा। देश के विकास के लिए राम मंदिर के निर्माण को जरूरी बताने वाले स्वामी के कथन का क्या यह भावार्थ भी है कि अगर अयोध्या में मंदिर नहीं बना तो देश में महंगाई, भुखमरी, बेरोजगारी और बिग‹डी अर्थ व्यवस्था जस के तस बनी रहेगी? सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा। साक्षी महाराज भाजपा के सांसद हैं। उनका बयान भी कम हैरतअंगेज नहीं। वे फरमाते हैं कि राम मंदिर का निर्माण करने के बाद ही भारतीय जनता पार्टी २०१९ के लोकसभा चुनाव में उतरेगी। मंदिर अभी नहीं तो कब बनेगा? यानी नरेंद्र मोदी सिर्फ और सिर्फ मंदिर निर्माण के लिए ही प्रधानमंत्री की कुर्सी पर काबिज हुए हैं! साक्षी महाराज ने तो अपने दिल की कह दी। फिर ऐसे में आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तेहादुल मुसलमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन औबेसी भी कहां पीछे रहने वाले थे। उन्होंने ललकारने के अंदाज में तान छेडने में जरा भी देरी नहीं लगायी कि अयोध्या में राम मंदिर नहीं बल्कि मस्जिद बनकर रहेगी। इस तनातनी और उलझाव का कोई पार नहीं दिखता।
विश्व हिन्दु परिषद, बजरंग दल और शिवसेना ने एकजुट होकर १९९२ में बाबरी मस्जिद को ढहाया था। शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे तो सीना तानकर कहा करते थे कि हां मेरे शिवसैनिकों ने ही बाबरी मस्जिद को ढहाया है। भाजपा के नेता इस मामले में कभी खुलकर सामने नहीं आये, लेकिन जब भी चुनाव निकट आते हैं तो भाजपा और उससे जुडे संगठनों के विभिन्न चेहरे राम मंदिर के मुद्दे को गर्म करने में अपनी पूरी ताकत झोंक देते हैं। ऐसे में देश के प्रधानमंत्री की चुप्पी भी बेहद चौंकाती है। अब तो यह सवाल भी उठने लगा है कि मोदी सरकार विकास की राह पर चलेगी या फिर कट्टर ताकतों के हाथों का खिलौना बन कर रह जाएगी? प्रधानमंत्री की चुप्पी से इस शंका को बल मिलने लगा है कि स्वामी और साक्षी महाराज जैसों को भाजपा आलाकमान की शह मिली हुई है। यह तय है कि यदि मंदिर के मुद्दे को इसी तरह से उछाला जाता रहा तो दोनों पक्षों के नेताओं के चेहरे तो चमकेंगे, लेकिन देश में भय और तनातनी बढेगी और कई खतरे सिर उठाते नजर आएंगे जो यकीनन देश के हित में तो नहीं होंगे। मंदिर और मस्जिद के नाम पर उन्माद भडकाने वाले नेताओं को अब कौन समझाये कि देश बदल रहा है। जनता दंगों और फसादों के हश्र से वाकिफ है। वह खून-खराबा नहीं अमन-चैन चाहती है। इसलिए जब तक अदालत का फैसला नहीं आता तब तक चुप्पी में ही भलाई है।

Thursday, January 7, 2016

और भी हैं 'उदारता' के अभिलाषी

सत्ताधीश भी कम चालाक नहीं होते। हमेशा मौके की ताक में रहते हैं। वर्षों से राह देख रहे अदनान सामी को भारतीय नागरिकता के उपहार से तब नवाजा गया जब चारों तरफ असहिष्णुता का शोर-शराबा उफान पर है। मोदी सरकार की साख को बट्टा लग रहा है। कुछ साहित्यकारों, कलाकारों और फिल्म अभिनेता शाहरुख खान तथा आमिर खान को देश में सहनशीलता के कमतर होते चले जाने की पीडा ने सताया तो उनका दर्द चीख की शक्ल में उभर कर आया तो हंगामा ही  बरपा हो गया। आमिर ने तो बंद कमरे में जाहिर की गयी अपनी पत्नी की चिन्ता और तकलीफ जगजाहिर कर दी। उन्होंने बताया कि मेरी पत्नी किरण की नींद गायब हो चुकी है। उन्हें बच्चों के भविष्य की चिन्ता सताने लगी है। यह देश अब रहने लायक नहीं लगता। यहां के लोग सच्चाई को बर्दाश्त करने से कतराने लगे हैं। कुछ साधु-साध्वियां और राजनेता खुलेआम भडकाऊ शब्दावली का इस्तेमाल करने लगे हैं। अमन और शांति का खात्मा होता चला जा रहा है। पाकिस्तानी गायक अदनान ने वक्त की नजाकत को समझा। उन्होंने देखा कि लोहा गर्म है। अपना काम निकालने का यही सही मौका है। उन्होंने फौरन विभिन्न न्यूज चैनलों पर अपनी पहुंच बनायी और मुफ्त में अपने गायन के कार्यक्रम प्रस्तुत कर अपनी मंशा को भी तेज हवा दे दी कि वे पक्के हिन्दुस्तानी बन 'जय हिन्द' बोलना चाहते हैं। न्यूज चैनल वालों ने शाहरुख और आमिर पर निशाना साधते हुए उनसे गर्मा-गर्म सवाल दागे तो उनका जवाब आया कि मुझे तो भारत में कहीं भी असहिष्णुता दिखायी नहीं देती। भारत में अगर सहनशीलता का अभाव होता तो वे कुछ राजनीतिक दलों के विरोध के बावजूद यहां की नागरिकता पाने के लिए इस कदर बेचैन नहीं रहते।
अदनान के पाकिस्तानी नागरिक होने के बावजूद भारत वर्ष में डटे रहने का विरोध शिवसेना के साथ-साथ भाजपा ने भी किया था। यह बात दीगर है तब भाजपा विपक्ष में थी। भाजपा के राज में अदनान को एक ही झटके में भारतीय नागरिकता दिये जाने से समझा जा सकता है कि सत्ता की कैसी-कैसी मजबूरियां होती हैं। जो काम कल तक विपक्ष में रहते गलत था आज सत्ता संभालते ही सही हो गया!
शिवसेना अभी भी सरकार के इस कदम का विरोध कर रही है। देश के अधिकांश लोगों ने अदनान को भारत की नागरिकता दिये जाने का स्वागत ही किया है। सच्चे कलाकार सबके अपने होते हैं। उन्हें सरहदों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। कलाकारों को पंछी भी कहा जाता है। जहां जी चाहा वहीं डेरा जमा लिया। फिर भारत तो एक ऐसा देश है जो हमेशा से दुनिया भर के गायकों, साहित्यकारों, संगीतकारों और विभिन्न कलाओं के चितेरों को आकर्षित करता रहा है। भारतवासी भी प्रतिभावानों का स्वागत और मान-सम्मान करने में कोई कंजूसी नहीं करते। हर संगीतप्रेमी दिल को छू लेने वाले गायक अदनान पिछले बारह-तेरह वर्ष से भारत में रह रहे हैं। वे ऐसे अनूठे गायक हैं, जिन्हें एक बार सुनने के बाद बार-बार सुनने का मन होता है। पाकिस्तानी मूल के होने के कारण उन्हें भारतीय नागरिकता देने का विरोध होता चला आ रहा था। ऐसा इसलिए भी हो रहा था, क्योंकि आतंकियो को पनाह देने वाले पाकिस्तान में भारतीय कलाकारों की कोई पूछ नहीं होती! मौत के सौदागर पाकिस्तान के द्वारा भारत में आत्मघातियो को भेजने और बम-बारुद बिछाने की वजह से भी अदनान को देश की नागरिकता देने में आनाकानी की जा रही थी। वैसे पाकिस्तान की अभी भी 'कुत्ते की पूंछ' वाली स्थिति है। उसकी जमीन पर आज भी आत्मघाती तैयार करने के कारखाने चल रहे हैं। ऐसे में अदनान के प्रति एकाएक दिखायी गयी मोदी सरकार की उदारता हैरान तो करती ही है। ऐसे में हमें बांग्ला लेखिका तस्लीमा नसरीन की याद आ रही है जो पिछले कई वर्षों से भारत की नागरिकता के लिए हाथ-पैर मार रही हैं। तस्लीमा एक जानी-मानी सजग लेखिका हैं। नारियों पर होने वाले अत्याचारों, विभिन्न सामाजिक बुराइयों और कट्टरपंथियो पर बेखौफ होकर कलम चलाने वाली इस साहसी साहित्यकार को अपने देश से इसलिए खदेड दिया गया क्योंकि उसने झुकना और समझौते करना सीखा ही नहीं। अदनान की तरह सत्ता की चाकरी करना भी तस्लीमा के लिए संभव नहीं। मीडिया भी उनके पक्ष में खडा होने से घबराता है। नरेंद्र मोदी तो साहित्यकारों और कलाकारों के पारखी हैं। सच को सुनने और सहने का भी उनमें जबर्दस्त माद्दा है। ऐसे में खुलकर अपनी बात कहने और लिखने वाली साहसी लेखिका तस्लीमा और पाकिस्तानी मूल के कनाडाई लेखक तारिक फतह सहित अन्य लेखकों, गायकों, कलाकारों पर उदारता दिखाने में देरी नहीं करनी चाहिए। भारत दुनिया की एक बडी आर्थिक शक्ति के रूप में उभर रहा है। दुनिया भर की प्रतिभाओं का देश के प्रति आकर्षण बढता चला जा रहा है। महात्मा गांधी का मानना था कि भारत सभी धर्मों, सम्प्रदायों और समुदायों की साझा संस्कृति वाली राष्ट्रीयता है। यहां संकीर्णता के लिए कोई जगह नहीं है। गंगा-जमुनी तहजीब और साम्प्रदायिक सौहार्द भारतवर्ष की असली पहचान हैं। इस देश के चरित्र को पूरी तरह से जानने के लिए वाराणसी की उस नाजनीन अंसारी के सेवाभाव से अवगत होना जरूरी है जिन्हे २२ जनवरी को राष्ट्रपति के शुभहस्ते सम्मानित किया जाने वाला है। तरह-तरह की तकलीफों और दबावों के बावजूद आपसी एकता और सद्भाव की अलख जगाने वाली नाजनीन का एक बुनकर परिवार में जन्म हुआ। आर्थिक तंगी ने पढाई-लिखाई में अडंगे तो डाले, लेकिन नाजनीन ने हार नहीं मानी। स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल कर चुकी नाजनीन को फतवे और धमकियां भी झेलनी पडीं, लेकिन अमन-शांति का अभियान बदस्तूर जारी रहा। वर्ष २००६ में ब्लास्ट के दूसरे दिन ७० मुस्लिम महिलाओं को लेकर वे संकट मोचन मंदिर पहुंचीं और वहां बैठकर शांति और सद्भाव के लिए हनुमान चालीसा का पाठ किया। रामचरित मानस, हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा, शिव चालीसा का उर्दू में अनुवाद कर चुकी यह भारतीय नारी प्रत्येक रामनवमी व दीपावली पर मुस्लिम महिलाओं के साथ विशाल भारत संस्थान में श्रीराम आरती कर सर्वधर्म समभाव का सजीव उदाहरण पेश करती चली आ रही है। साम्प्रदायिक सौहार्द के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देने वाले ऐसे कई हिन्दु-मुसलमान हैं जिन्होंने कभी भी प्रचार की चाह न करते हुए खुद को देश के अमन-चैन के लिए समर्पित किया हुआ है।