Thursday, March 31, 2022

इनसे सावधान रहना है

    कुछ लोग देते हैं, बात-बात पर तनाव। गुस्सा ही गुस्सा। बेवजह की उदासी। अनहोनी का डर। उनका काम ही है अपना काम छोड़कर दूसरों के फटे में टांग अड़ाना। बिना मांगे सलाह देना। जिसे जानते तक नहीं, उसकी तरक्की पर जल-भुन जाते हैं। हरदम नकारात्मक विचारों की घेराबंदी में सांस लेने वालों की तादाद इन दिनों कुछ ज्यादा ही बढ़ रही है। ऐसा भी लगता है कि यह लोग सोशल मीडिया में उलझे रहने और बकबक करने के सिवाय और कोई काम ही नहीं करते। दूसरों का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए किसी भी हद तक गिरने वालों में आम लोग भी शामिल हैं और खास भी। जहां-तहां तू-तड़ाक और गंदी अश्लील भाषा की बरसात की जा रही है और उसमें ऊपर से नीचे तक भीगने के बाद भी कहीं कोई खुलकर ऐतराज नहीं है। सोशल मीडिया पर दिन-रात वायरल होते असंख्य वीडियो गुंडागर्दी और डॉनगीरी का प्रत्यक्ष प्रमाण हैं। इन गुंडों और डॉनों के नामों से भी अधिकांश लोग परिचित हैं। उन्हीं कुख्यात नामों में एक नाम है, हिंदुस्तानी भाऊ का। इसका असली नाम कुछ और है। इस भाऊ की भड़काऊ, विषैली जबान जब भी खुलती है तो मां, बहन बेटी की गंदी-गंदी गालियां ही उगलती है। इसके दिमाग में शायद ही कभी अच्छे विचार आते होंगे। सोशल मीडिया का यह दादा कभी किसी दैनिक अखबार में क्राइम रिपोर्टर था। वह खुद को सच्चा देश सेवक बताता है और उसके तमाम आभासी मित्रों को भी उसके इस दावे में सच नज़र आता है। उसके 30 लाख फालोअर्स हैं। जो उसके अश्लील और अभद्र तेवरों को पसंद करते हैं। वह कभी ब्राह्मण होने का शोर मचाता है, तो कभी कुरान की आयतें बोलकर अपने चाहने वालों को प्रभावित करने की कवायद में लग जाता है।
    खुद को सोशल मीडिया का अकेला अलबेला नायक समझने वाला हिंदुस्तानी भाऊ यह मान चुका था कि वह कुछ भी कहता... बकता रहे शासन-प्रशासन उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ सकता। वह तो अंधा और बहरा है। उसका यह हसीन भ्रम अंतत: टूट ही गया, जब कुछ दिन पहले विद्यार्थियों को भड़काने और आंदोलित करने के आरोप में महाराष्ट्र पुलिस ने उसे डंडों की पिटायी के साथ जेल की हवा खिलवा दी। हुआ यह कि राज्य की शिक्षा मंत्री ने कोरोना के थमने पर दसवीं और बारहवीं की परीक्षा ऑनलाइन की जगह ऑफलाइन करने का ऐलान कर दिया था। इस देशप्रेमी ने इंस्टाग्राम में फौरन एक वीडियो अपलोड कर दिया, जिसमें सरकारी निर्णय के विरोध में छात्रों को सड़कों पर उतरकर तीव्र प्रदर्शन करने के लिए उकसाया, जिससे मुंबई, नागपुर, औरंगाबाद, उस्मानाबाद, नांदेड़, जलगांव में हजारों छात्र सड़कों पर उतर गए। यहां तक कि शिक्षा मंत्री के घर का घेराव कर जोरदार नारेबाजी की गयी। शासन और प्रशासन ने फुर्ती दिखायी और सड़कों पर तांडव मचवाने वाले भाऊ को गिरफ्तार कर ऐसी मेहमान नवाजी की, जिससे उसकी सारी हेकड़ी जाती रही। वह हाथ-पैर जोड़ते हुए कहता रहा कि सड़क पर उतरने वाले आंदोलनकारियों से मेरा कोई लेना-देना नहीं है। मैंने तो बस यूं ही कुछ वीडियो सोशल मीडिया पर डाल दिये थे।
    सोशल मीडिया पर धमाल कर लोकप्रिय बनने की सनक केवल पुरुषों पर ही सवार नहीं है। कई महिलाएं, लड़कियां भी खुद को लेडी डॉन, रानी, महारानी और भी पता नहीं क्या-क्या समझते हुए सोशल मीडिया पर बेहयायी का नंगा नाच करती देखी जा रही हैं। सोशल मीडिया के भाऊ को अपना प्रेरणास्त्रोत मानने वाली दो लड़कियों की भी पुलिस ने हेकड़ी उतारकर रख दी। यह सोलह-सत्रह साल की लड़कियां कहने को तो दसवीं-बारहवीं में पढ़ती हैं, लेकिन गंदी-गंदी गालियों वाले धमकी भरे वीडियो बना कर अपलोड करने में अपना सारा समय बिताती थीं। छंटे हुए सड़क छाप गुंडे-बदमाशों की तरह किसी अनजान लड़की को रातों-रात उठवा कर उसका बुरा हाल कर देने की धौंस भी जमाती रहती थीं। मध्यमवर्गीय परिवार की इन छात्राओं के भड़काऊ और अश्लील वीडियो देखकर किसी को यकीन ही नहीं होता था कि किसी स्कूल में पढ़ रही छात्राओं की यह निर्लज्ज कारस्तानी है। किसी खूंखार डॉन को अपना जीवनसाथी बनाने का सपना देखने और जेल को पुण्य भूमि बताने वाली इन लड़कियों को जब पुलिस ने दबोचा तो वे मासूम बच्चों की तरह रोने-गाने लगीं कि हमें तो पता ही नहीं था कि हम कोई अपराध कर रही हैं! हमसे बहुत बड़ी भूल हो गई है, हमें माफ कर दिया जाए।
    इस तरह के छिछोरे गालीबाजों में और भी कई चेहरे शामिल हैं, जिन्हें लगता है कि इस देश को वही बचाये रख सकते हैं। दूसरे तो बस इसे डुबोने में लगे हैं। पिछले दिनों ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की सफलता के बाद हम सबने कितने तमाशे और तमाशबीन देखे। एक भले इंसान ने दबा-छिपा कर रखे गये दस्तावेजों और खून से रंगी सच्चाइयों पर एक फिल्म क्या बना दी कि हंगामा खड़ा कर दिया गया! कश्मीर और गुजरात पर पहले भी फिल्में बनी थीं। किताबें भी लिखी गयीं, लेकिन वे अधूरा सच थीं, जिन्हें न भीड़ मिली और ना ही पाठक। मिलते भी कैसे? उनकी नीयत में ही खोट था। उन्हें गुजरात दंगों में मारे गये मुसलमान तो याद रहे, लेकिन रेल के डिब्बे में राख कर दिये हिंदू याद ही नहीं आए। कुछ महान आत्माओं का तो फिर से मारकाट और दंगे करवाने का खतरनाक मकसद था। हर भारतीय को पता है कि जख्मों को कुरेदने से खुशी और खुशहाली तो मिलने से रही, लेकिन इसी देश की धरती पर रह रहे कुछ देशद्रोही बीते वक्त में हुई गलतियों को सुधारने और सबक लेने की बजाय वर्तमान में भी खून-खराबे और दंगे होते देखने को लालायित हैं। ‘द कश्मीर फाइल्स’ के निर्माता को धमकियां दी जा रही हैं कि तुमने पूरा सच दिखाने की हिम्मत कैसे और क्यों की? दूसरे फिल्म वालों की तरह अपनी फिल्म में कश्मीर की हरी-भरी वादियों और किसी नयी प्रेम कहानी का चमकदार दीदार करवा देते तो तुम्हारा क्या बिगड़ जाता! कुछ भड़के हुए लोग तो उन्हें मौत के हवाले करने को पगलाये हैं। यही वजह है कि सरकार को फिल्म निर्माता को ‘वाई’ श्रेणी की सुरक्षा देने को मजबूर होना पड़ा है। यहां यह बताना भी जरूरी है कि कश्मीर की हकीकत सामने लाने की कोशिश करने तथा उसे भारत का हिस्सा बताने वालों को धमकाने-चमकाने, मारने, पीटने की शुरुआत तो आजादी के तुरंत बाद ही हो गई थी। इसके बारे में इतिहास के पन्नों में बहुत कुछ दर्ज है, जिन्हें पढ़कर सबक लेने की जरूरत है।

Thursday, March 24, 2022

जंगली सुअर

यह तो सौ फीसदी सच है कि 1990 में कश्मीरी पंडितों को कश्मीर छोड़कर दर-दर भटकने को मजबूर होना पड़ा। तब लगभग उन सबने भी खामोशी ओढ़े रखी, जो आज कश्मीरी पंडितों के साथ खड़े होने का नाटक कर रहे हैं। मीडिया तो तब भी था। अधिकांश सजग पत्रकार, संपादक, लेखक, प्रोफेसर और समाजसेवी भी जिन्दा थे तब, लेकिन मतलबी सत्ताधीशों और नेताओं की तरह अंधे, गूंगे और बहरे हो गये थे। आज एक फिल्म ने सभी को जुबान, कान और आंखें दे दी हैं। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल्स’ के प्रदर्शन और उसे देखने के लिए उमड़ती भीड़ को देखकर अखबारीलाल और न्यूज चैनल वाले जोश में आ गये हैं। 32 वर्षों से अपनी जड़ों में जाकर सांस लेने की राह ताकते ये लाखों लोग अभी भी सशंकित हैं। 1990 से लेकर आज तक कश्मीर से जबरन भगाये गये हिंदुओं के दर्द को बयां करने वाली कई फिल्में बनायी गयीं। उन फिल्मों को भी देखने वालों ने देखा और फिर अपने-अपने काम पर लग गये। किसी को गुस्सा नहीं आया। किसी ने भी अपने ही देश में लुट जाने वालों से मिलने की कोशिश नहीं की। फिल्म ‘द कश्मीर फाइल’ यदि पिट जाती तो कश्मीरी पंडितों की इतनी खोज खबर नहीं होती। न ही शोर शराबा मचता और सोये हुए देशवासी जाग जाते। भारत देश की ही धरा कश्मीर में हिंदुओं के कत्लेआम और विस्थापन पर बनायी गई इस फिल्म को देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का देखना और फिर अपनी यह प्रतिक्रिया देना कि ‘जो जमात हमेशा फ्रीडम ऑफ एक्सप्रेशन के झंडे फहराते और लहराते घूमती रहती है, वह इस फिल्म में दिखायी गयी हकीकत से बौखला गयी है।’ तथ्यों और कला के आधार पर फिल्म का मूल्यांकन करने के बजाय फिल्म को ही बदनाम करने का अभियान चलाया जा रहा है। मेरा मुद्दा फिल्म नहीं है, मेरी चिंता यह है कि सत्य जो भी है, उसे देश की भलाई के लिए सही तरीके से पेश किया जाना चाहिए।’ मोदी ने जिन पर निशाना साधा, उन्हें सभी सजग भारतीय जानते-पहचानते हैं। यह वो बेरहम, तमाशबीन चेहरे हैं, जो निर्दोषों के हत्यारे नक्सलियों और आतंकवादियों की मौत पर रोते-बिलखते नज़र आते हैं, लेकिन जवानों की शहादत पर सवाल खड़े करने लगते हैं। भेदभाव करना इनकी जन्मजात नीति है। न्याय की प्रेरक परिभाषा से भी ये हरदम मुंह मोड़े रहते हैं। किसी एक पक्ष के लिए छाती तानकर खड़े हो जाना तथा हमेशा विरोध के स्वर अलापना इनका पेशा है, जिसकी कमायी पर ये जिंदा हैं।
    कश्मीर को खून के सैलाब में डुबोने वाले इस्लामिक कट्टरपंथी आतंकी संगठन जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट यानी जेकेएलएफ के नेता बिट्टा कराटे यानी फारुख अहमदडार के विडियो पहले भी आते और संवेदनशील भारतीयों का रक्त खौलाते रहे हैं। इसने 1991 में दिये गये इंटरव्यू में अपनी शान बघारते हुए बताया था कि वह बीस कश्मीरियों को मौत के घाट उतार चुका है। मजहब के नाम पर अंधे हुए इस जंगली सुअर ने यह कहकर अपना असली निर्मम चेहरा दिखा दिया था कि यदि उसे अपनी मां या भाई के कत्ल का आदेश मिलता तो वह उनकी भी हत्या कर देता। इस जंगली जानवर ने यह भी कबूला था कि उसने कश्मीरी पंडितों के सिर और दिल में गोली मारी थी और उसका निशाना कभी भी नहीं चूकता था। इस आतंकी सुअर की ट्रेनिंग भी सीमा पार उस पाकिस्तान के आतंकी कैंप में हुई थी, जहां से ट्रेंड होकर आये हजारों आतंकवादियों ने कश्मीरी हिंदुओं की नृशंस हत्या की थी। कश्मीर से जबरन भगाये गये लाखों लोगों में कश्मीरी पंडितों के साथ-साथ कश्मीर के मुसलमान और सिख समुदाय के लोग भी शामिल थे। बेइंतहा जुल्मों के शिकार बनाये गए लोगों का वक्त पढ़ने पर उनके पड़ोसियों ने भी ज्यादा साथ नहीं दिया। उन्हें अपनी जान बचाने के लिए कहां-कहां नहीं छिपना पड़ा था। अपनी बहन-बेटियों की अस्मत को बचाने के लिए अपनी जान की कुर्बानी भी देनी पड़ी। फिर भी वहशीपन बेलगाम था। खून से सने चावलों को अकेले पड़ चुके इंसानों को खिलाया गया। रिश्तों की कोई कीमत नहीं रही। दरिंदगी ऐसी कि जब फिल्म देखकर दर्शकों का खून खौल गया, तो सोचें तब उन चश्मदीदों पर क्या गुजरी होगी, जिन्होंने अपनी बहन, बेटी और मां को हैवानी बलात्कार का शिकार होने के बाद आरामशीन से टुकड़ों में कटते देखा होगा। उग्रवादियों की क्रूर हिंसा जब लाखों भारतीयों को कश्मीर से विस्थापित करने में लगी थी, तब मानवता ने भी फांसी लगा ली थी और मानवाधिकार के पैरोकार शराब के प्यालों में डूबकर गीत और गजलें सुन रहे थे। लुटने और मरने वालों की चीत्कार उन तक पहुंच ही नहीं पा रही थी।
    आज देश के जागे हुए लोगों ने एक फिल्म की तारीफ क्या कर डाली, फिल्म ने करोड़ों-अरबों रुपये क्या कमा लिए कि अपने आपको सेक्युलर-लिबरल कहने वाले कई प्रोफेसर, ब्लागर, पत्रकार, संपादक और देश को तोड़ने के सपने देखते आ रहे कन्हैया मार्का जमूरे ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म की तर्ज पर गुजरात फाइल्स बनाने की मांग करने लगे हैं। यह नाटक-नौटंकी सिर्फ इसलिए क्यूंकि मोदी ने जनसंहार का सच दिखाने वाली ऐतिहासिक पहल की प्रशंसा कर दी! विस्थापितों ने तो कभी बदले की बात नहीं की। अरे! तुम भी बना लेते कोई फिल्म, जिसमें गुजरात दंगों का सच होता। तुम्हें किसने रोका था। तुम्ही ही तो हो जो हत्यारे आतंकवादियों को फांसी के फंदे से बचाने के लिए आधी रात को कोर्ट के दरवाजे भी खुलवाते रहते हो। तुम तो क्रिया की प्रतिक्रिया वाली सोच के मारे हो। सिर्फ विरोध करने और खामियां तलाशने के लिए जन्में हो। ऐसे ही मर-खप जाओगे। चुनाव में खड़े होकर अपनी जमानतें जब्त कराने के बाद भी अपनी औकात के असली चेहरे से कब तक बचने का ढोंग करते रहोगे?
    तुम जिस हिंदुस्तान का अन्न खाते हो, वो दुनिया का सबसे महान और बड़ा लोकतांत्रिक देश है। यहां तुम्हारा पक्षपाती तंत्र नहीं चल सकता। यहां सभी आपस में अमन चैन से रहना चाहते हैं। यहां के देशप्रेमी कभी भी तुम्हारे मंसूबे पूरे नहीं होने देंगे। यह देश एक है, एक रहेगा। तुम लाख इसके टूटने और टुकड़े-टुकड़े होने की मनोकामना के नारे लगाते रहो। कोई नहीं सुननेवाला। जब से ‘द कश्मीर फाइल्स’ फिल्म देखकर निकला हूं तभी से इसके किरदार मेरे साथ बने हुए हैं। हाथ में धारा 370 हटाओ की तख्ती लिए पुष्करनाथ पंडित के साथ और भी लाखों विस्थापित भारतीय भारत देश के प्रधानमंत्री से विनती कर रहे हैं, पूछ रहे हैं कि आपने कश्मीर से 370 धारा तो हटा दी, लेकिन हमें अब भी कब तक भटकते रहना होगा। हमें हमारी जड़ों तक पहुंचाने, ज़मीन और घर वापस दिलवाने और सुरक्षित रहने का अधिकार दिलवाने का जिम्मा भी आपका ही है। यदि आप यह काम नहीं कर पाए तो इतिहास आपकी सराहना करने में सकुचाएगा। इसलिए भले ही यहां और वहां के कितने ही जंगली सुअरों का खात्मा करना पड़े, लेकिन आप अपना धर्म निभाएं। यदि आप असफल रहे तो यहां दूर-दूर तक ऐसा कोई नहीं दिखता जो हमें न्याय दिलाए और हमारे अंधेरे दूर कर पाए।

Thursday, March 17, 2022

आजमाइश

    इतिहास गवाह है कि आम आदमी ही इतिहास रचा करता है। उदाहरण हमारे सामने हैं। फिर भी हम पूरे मन से गौर करने को तैयार नहीं। वर्षों से यही ढोल बजता चला आ रहा है कि अपने देश में चुनावी जंग जीतने के लिए धन का होना जरूरी है। ईमानदारी यहां काम नहीं आती। गरीब आदमी सिर्फ दूसरों के लिए तालियां पीटता रह जाता है। सत्ता तो जोड़-जुगाड़ुओं के हिस्से में आती है। हममें से कइयों ने यही मान लिया है कि इस देश का लोकतंत्र राम भरोसे ही चलते रहने वाला है, लेकिन मैं यह हरगिज नहीं मानता। बिना कोशिश के हार मान लेने वालों को नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल की संघर्षों भरी यात्रा की किताब के पन्ने-दर-पन्ने को कम-अज़-कम एक बार जरूर पढ़ लेना चाहिए। दोनों ने देश और दुनिया को बार-बार चौंकाया है। केजरीवाल तो शुरू-शुरू में खूब मजाक के पात्र बने। मजाक तो उनका आज भी उड़ाने वाले उड़ाते हैं, भले ही उन्होंने दिल्ली के बाद पंजाब की सत्ता पर काबिज होने का इतिहास रच डाला है। दिल्ली नगर-राज्य की तर्ज पर पंजाब में भी केजरीवाल की आम आदमी पार्टी ने ऐसे-ऐसे प्रत्याशी चुनाव में उतारे जो न तो बाहुबलि थे और न अपार धनपति फिर भी उन्होंने धुरंधरों को हराकर अभूतपूर्व कमाल कर दिखाया। पंजाब के मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी जिन्हें, अपनी कांग्रेस पार्टी और खुद पर आसमान की ऊंचाई से भी ज्यादा भरोसा और अहंकारी अभिमान था, उन्हें आम आदमी पार्टी के जिस 35 वर्षीय लाभ सिंह उगोसे ने औंधे मुंह गिराया वह मोबाइल फोन दुरुस्त करने की छोटी-सी दूकान का मालिक था। उसकी मां सरकारी स्कूल में सफाई कर्मी तो पिता अदने से ड्राइवर, जिनकी कमायी और संपत्ति का कोई भी बड़ी सहजता से अंदाज लगा सकता है। लाभ सिंह के पास भी कुल 75 हजार रुपये थे, जिनकी चुनावी लड़ाई में कोई पूछ-परख और अहमियत नहीं होती। धनवान प्रत्याशी तो चंद मिनटों में लाखों रुपये फूंक देते हैं। लाभ सिंह उगोसे की मां ने बेटे के विधायक बनने के बाद भी स्कूल में जाना और झाड़ू लगाना नहीं छोड़ा है। उनका कहना है कि वे जीवनपर्यंत यही काम करती रहेंगी। यही उनकी ड्यूटी है। फर्ज है। जीवन का अहम हिस्सा है। विधायक के मेहनतकश पिता दर्शन सिंह बोले कि हम पहले की तरह अपना जीवन जीएंगे। हमारी तो बस यही इच्छा है कि बेटा जनकल्याण में किसी भी तरह का भेदभाव न करते हुए अपने कर्तव्य को अच्छी तरह से निभा।
    मेरा तो यही मानना है कि परिवार ही वो पाठशाला है, जहां इंसान अच्छे और बुरे की शिक्षा पाता है। अपने देश भारत में अधिकांश माता-पिता और रिश्तेदार यही मानते हैं कि सरकारी नौकरी और विधायकी, सांसदी और मंत्री की कुर्सी अंधाधुंध कमायी का जरिया है, जिसने यहां धन नहीं बनाया उससे बड़ा निकम्मा और बेवकूफ तो और कोई हो ही नहीं सकता। पांच बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहकर मालामाल हुए प्रकाश सिंह बादल और उनके बेटे शिरोमणि दल के नेता सुखवीर सिंह बादल को भी आम आदमी पार्टी के सहज-सरल चेहरों ने धूल चटवायी, तो वहीं राजाओं-महाराजाओं की तरह मौज करने वाले पूर्व सीएम कैप्टन अमरिंदर सिंह को 19 हजार मतों से हराने वाला आप का चेहरा भी धन और रूतबे के मामले में जीरो है, लेकिन मतदाताओं ने उसे जीत का सेहरा पहनाकर बता दिया कि अब हमें अहंकारी राजनेताओं की कतई जरूरत नहीं है। पंजाब के बड़े नेताओं में शामिल और बात-बात पर छक्कों की तरह ताली ठोकने वाले नवजोत सिंह सिद्धू और काले धनवाले धनवान विक्रम सिंह मजीठिया की राजनीति की पूरी की पूरी दूकान झाड़ू ने साफ कर दी। ध्यान रहे कि कैप्टन अमरिंदर की दिली चाहत थी कि सिद्धू किसी भी हालत में जीतने न पाए वहीं सिद्धू भी यही चाहते थे, लेकिन पंजाब के सजग मतदाताओं ने दोनों को खाली हाथ कर यह संदेश दे दिया है कि आज की राजनीति में बिन पेंदी के लोटे तो कचरे में ही फेंकने के काबिल हैं। जोकरगिरी से जबरन नेता बने पंजाब कांग्रेस के मुखिया नवजोत और अकाली दल के कद्दावर चेहरे मजीठिया को होशियारपुर में जन्मी जीवनजोत कौर ने शर्मनाक तरीके से धूल और कचरे के हवाले किया है। इन दोनों को तो अब डूबकर मर जाना चाहिए, लेकिन बेशर्मों की चमड़ी बड़ी मोटी है। ‘सवा लाख से इक लड़ाऊं’ की लोकप्रिय छवि वाली जीवनजोत कौर का यह पहला चुनाव था। उनके नाना स्वतंत्रता सेनानी रहे हैं। जीवनजोत कौर ने कुछ समय पहले ही एलएलबी की है। वे प्रारंभ से गरीबों और असहायों के लिए कुछ खास कर गुजरना चाहती थीं। अरविंद केजरीवाल उन्हें भले इंसान लगे। 2015 में ही वे आम आदमी पार्टी से जुड़ गई थीं। दो दिग्गजों को मात देने के बाद भी जीवनजोत को कोई गरूर नहीं। हां, उनमें आत्मविश्वास लबालब है। अब तो बस पंजाब के जन-जन के काम आना है। अरविंद केजरीवाल ने पंजाब की जनता को नशा खत्म करने, अधिक से अधिक सरकारी अस्पताल खोल/मुफ्त इलाज की सुविधा दिलवाने, बेहतर रोजगार और स्कूल-कॉलेज खोलने का जो वादा किया है, उसे पूरा करने का अब समय आ गया है।
    पंजाब के मुख्यमंत्री भगवंत मान को नशे के गर्त में डूबे अपने पंजाब प्रदेश को ‘रंगला पंजाब’ बनाने में ज्यादा देरी नहीं करनी चाहिए। भांगड़ा, गिद्धा और कुश्ती के शौकीन पंजाब के लोगों ने उनकी बुराइयां गिनाने वालों की पूरी तरह से अनदेखी कर अपार भरोसे के साथ उन्हें सत्ता के सिंहासन पर विराजमान किया । यह अभूतपूर्व जनादेश उन्हें वक्त गुजारने के लिए नहीं मिला। सरकारी कार्यालयों में सिर्फ शहीद भगतसिंह और संविधान निर्माता डॉ. बाबासाहब आंबेडकर की तस्वीरें भर लगा देने से कुछ नहीं होगा। तस्वीरें और प्रतिमाएं तो शांति के दूत महात्मा गांधी की भी इस देश में जहां-तहां लगायी गईं। उनके नाम का जाप करते हुए वर्षों तक वोट भी हथियाये गये, लेकिन तब के सत्ताधीशों के शासन में देशवासियों को अशांति, अराजकता, भ्रष्टाचार, असुविधाएं और भयावह तकलीफें ही मिलीं। भगवंत को शहीदे आजम भगतसिंह और बाबासाहब के दिखाये और सुझाये मार्ग पर चलकर उनके तथा जनता के मान पर किसी भी तरह की आंच नहीं आने देनी है। यही उनकी असली आजमाइश का वक्त है। पंजाब में व्याप्त कितने-कितने अंधेरों का दूर करने की उनकी जिम्मेदारी है। इक्कीसवीं सदी का भारत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह खुद को पूरी तरह समर्पित कर देने वाले सत्ताधीश चाहता है, जिनकी नीयत में कोई खोट न हो। सफलता और असफलता अपनी जगह हैं, लेकिन आपकी नीयत में हेरफेर नहीं आना चाहिए। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भले ही सभी चुनावी वादे पूरे न कर दिखाये हों, लेकिन वे सतत कर्मवीर की भूमिका में नजर आते हैं। उनके विरोधी भी कहते हैं कि हमने ऐसा परिश्रमी पीएम पहले कभी नहीं देखा। दिन-रात बस काम ही काम। विश्राम नाम का शब्द तो उनकी सोच में ही शामिल नहीं है। इसलिए अधिकांश भारतीय उन्हें संत-महात्मा का दर्जा देने से भी नहीं सकुचाते। उन्हें पक्का यकीन है इस योद्धा के होते हुए उन्हें अंदर और बाहर का कोई भी गद्दार और शत्रु छू नहीं सकता।

Friday, March 11, 2022

कलंक

    आपकी बहन, बेटी, पत्नी की अस्मत लुट जाए तो आपको कैसा लगेगा? मुझे पता है कि आप ऐसा कोई भी ख्याल अपने मन में नहीं लाना चाहते। फिर भी जरा कल्पना तो करें। मेरे अनुरोध के जवाब में आप यह कहने से नहीं चूकने वाले कि हम तो अपनी बहन, बेटियों पर गलत निगाह डालने वाले की बोटी-बोटी ही नोच डालेंगे। आपकी तरह और भी कोई अपने परिवार की बेटियों की इज्जत पर डाका पड़ते नहीं देख सकता। फिर भी देश भारत में रोज बलात्कार हो रहे हैं। जिन बेटियों की इज्जत तार-तार हो रही है क्या वे लावारिस हैं? माना वे असहाय हैं, गरीब हैं, अकेली हैं, लेकिन क्या उनकी हिफाजत करने की किसी की भी जिम्मेदारी नहीं है? आज जो मंज़र हमारे सामने हैं, वही तमाम सुलगते सवालों का जवाब हैं। गरीबी, बदहाली, भुखमरी और गरीब उस भारत का असली चेहरा हैं, जिन्हें कुछ भारतीय देखना ही नहीं चाहते। अपने में मदमस्त इन सर्वशक्तिमान मायापतियों में कई बद और बदनाम शामिल हैं, जो गरीबों को इंसान ही नहीं समझते। नारी जिस्म इनके निशाने पर रहता है। उसका शोषण करने का कोई मौका नहीं छोड़ते। महिलाओं पर अत्याचार ढाने में अनपढ़ ही नहीं, पढ़े-लिखे सफेदपोश भी पीछे नहीं हैं। जिनसे रक्षा और सुरक्षा की उम्मीद की जाती है वे भी दुष्कर्मों की पताका फहरा रहे हैं।
    एक सोलह वर्ष की गर्भवती लड़की की आपबीती सुनकर किसी भी सज्जन इंसान का कलेजा कांप सकता है। यह लड़की अपने पति के साथ महाराष्ट्र में स्थित रईस नेता की चीनी मिल में अपने पति के साथ कुछ महीने पूर्व काम करने गई थी। मजदूरी दिलाने वाले ठेकेदार ने उन्हें मोटी रकम दिलाने के आश्वासन के साथ पूरी सुरक्षा की शाब्दिक गारंटी दी थी, लेकिन हकीकत में ऐसा नहीं हुआ। उसी की तरह मध्यप्रदेश के सिवनी शहर के आसपास के सैकड़ों स्त्री-पुरुष मजदूरों को भी वहां पर ले जाया गया था और लगातार 16 से 18 घंटे काम करवाने के बाद भी पैसे नहीं दिए जा रहे थे। इतना ही नहीं, महिला मजदूरों की जबरन इज्जत लूटी जा रही थी। पुरुषों के विरोध करने पर उन्हें मार-मार कर अधमरा कर दिया जाता था। जेल में कैद अपराधियों से भी बदतर हालत में दिन-रात खटते लगभग 300 बंधुआ मजदूरों को जब मिल मालिकों के चंगुल से मुक्त करवाया गया तो पता चला कि जुल्मियों की सामंतवादी सोच अभी भी किस कदर जिंदा है। वह लड़की सुबह चार बजे पानी भरने जा रही थी तभी उसे जबरन जंगल में ले जाया गया। शुरू में दो वहशी थे। बाद में एक और शामिल हो गया। उन्होंने उसे जबरदस्ती कुछ खिलाया, जिससे वो बेहोश हो गई। उसके बाद तीनों ने बारी-बारी उस पर बलात्कार पर बलात्कार किया। इसी दौरान उसके गुप्तांग में कोई ऐसा तरल पदार्थ डाला गया, जिससे वह बेइंतहा पीड़ा से तड़पती रही। तीनों बलात्कारियों के मन में किंचित भी विचार नहीं आया कि वह गर्भवती है। नृशंस बलात्कार से जब उसका वहीं गर्भपात हो गया तो ठेकेदार का एक आदमी उसे लेबर कैम्प तक घसीट कर लाया। तब उसका पूरा जिस्म खून से सना था। दर्द के मारे छटपटा रही थी। घटना के एक हफ्ते बाद भी उसकी हालत नहीं सुधरी। लगातार रक्तस्त्राव होता रहा। किसी ने भी उसके प्रति रहम नहीं दर्शाया। उलटे उसे और उसके पति को धमकाया गया कि यदि मुंह खोला तो दोनों की हत्या कर जंगल में गाड़ देंगे और किसी को कुछ भी पता नहीं चलेगा। कुछ दिनों के पश्चात जब उसकी हालत थोड़ी सुधरी तो उसका फिर अपहरण कर सामूहिक बलात्कार किया गया।
    नंगल गांव के स्कूल में पढ़ने वाली बच्चियों को शंका की निगाह से देखा जाने लगा है। बेटियों के माता-पिता चिंता में हैं। उनके गांव की हर तरफ बदनामी हो चुकी है। बेटियों के भविष्य को लेकर चिंतित अभिभावक सोचने लगे हैं कि कहीं शादी-ब्याह में अड़चनें न खड़ी हो जाएं। इसकी वजह है एक देहभोगी शिक्षक, जिसने गुरू-शिष्या के पवित्र रिश्ते को कलंकित करते हुए ऐसा वासना का खेल खेला, जिसने हर किसी को गुस्सा दिला दिया है। अमृतपाल नाम का यह नराधम पच्चीस वर्षों से रोपड़ के नंगल गांव में स्कूल चला रहा था। अचानक जब सोशल मीडिया पर ऐसी अश्लील तस्वीरों तथा वीडियो की झड़ी लग गई, जिनमें नंगल गांव के स्कूल का प्रिंसिपल बच्चियों के साथ अश्लील हरकतें करता नजर आ रहा था तो लोगों के पैरोंतले की जमीन खिसक गई। बच्चियों के माता-पिता का माथा चकराने लगा। कई दिनों तक पुलिस अंधी बनी रही। उसने लोगों की शिकायत पर ध्यान देना कतई जरूरी नहीं समझा। क्रोधित नागरिकों की सड़क पर उतरकर आंदोलन करने की धमकी के बाद पुलिस ने अय्याश शिक्षक को दबोचा तो यह सच सामने आया कि वह बीते कई वर्षों से अपने स्कूल की छात्राओं की अस्मत लूटता चला आ रहा था। इसके लिए उसने एक से एक तरीके ईजाद कर रखे थे। यह शैतान कम्प्यूटर क्लास में रखे सभी कम्प्यूटरों में अश्लील फिल्मों और तस्वीरों के फोल्डर बना कर रख देता तथा लड़कियों को कहता कि इन्हें बिलकुल न खोलें। जैसे ही कोई लड़की अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए अश्लील फिल्मों वाले फोल्डर को खोलती तो वह उसके पास जाकर उसके बदन पर हाथ फेरने लगता। विरोध करने पर वह धमकाते हुए कहता कि ज्यादा मुंह खोला तो तुम्हारे मां-बाप को बता दूंगा कि तुम चरित्रहीन हो चुकी हो। तुम्हें गंदी फिल्में देखने की लत लग चुकी है।
    वह छात्राओं को फेल करने और स्कूल से निकाल देने की धमकी देते हुए उनका यौन शोषण करता रहा और किसी को खबर ही नहीं लगी। शिक्षा क्षेत्र में बेखौफ होकर वासना का तांडव मचाते रहे इस हैवान ने असंख्य लड़कियों को अपनी वासना का शिकार बनाया और धड़ाधड़ अश्लील वीडियो भी बनाये। शंका तो यह भी है कि इस वहशी ने छात्राओं को अन्य सफेदपोश देहभोगियों के बिस्तरों तक भी पहुंचाया होगा। उसके राजनीति के बड़े नामों से करीबी संबंध हैं। कुकर्मी का पाप सामने आते ही वे धुरंधर उसे बचाने के लिए हाथ-पैर मारते दिखे, लेकिन यह अच्छी बात है कि बार कौंसिल ने ठान लिया है कि इस शैतान के बचाव में कोई भी वकील खड़ा नहीं होगा। यह सच किसी से छिपा नहीं कि समाज में विचरण कर रहे सफेदपोश दुराचारी अपने बचाव के कई रास्ते तलाश कर लेते हैं। उनका केस लड़ने के लिए नामी-गिरामी वकीलों की फौज खड़ी हो जाती है। अधिकांश सक्षम बलात्कारी बड़ी आसानी से छूटते हुए अपनी मस्ती में यही राग अलापते रहते हैं कि आप चाहे कितने विश्व महिला दिवस मनाते हुए नारी शक्ति को सलाम करते रहो, लेकिन हमारे लिए तो वह सिर्फ सेक्स की गुड़िया ही है, जिसे रौंदने, नोचने, तोड़ने-मरोड़ने से हमें कोई भी नहीं रोक सकता। और हां, किसी के दु:खी होने, चीखने-चिल्लाने से भी हमें कोई फर्क नहीं पड़ता...।

Thursday, March 3, 2022

हत्यारे

    कोरोना से अभी पूरी तरह से दुनिया को मुक्ति मिली भी नहीं कि रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध का आगाज हो गया। दो प्रतिद्वंद्वी मुल्कों की आपसी लड़ाई ने पूरे विश्व को भयभीत कर तीसरे विश्वयुद्ध के खतरे की शंका से झकझोर डाला। तोपों, बम-बारूदों वाली अंधी लड़ाई ने फिर से उन युद्धों की याद दिला दी, जिनमें लाखों लोगों की जानें जा चुकी हैं। रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे खूनी संघर्ष में एक से बढ़कर एक डरावने मंज़र दिल दहला रहे हैं। देखते ही देखते इंसान को राख में बदलने वाले बम गिराये जा रहे हैं। देश और दुनिया के उन अभिभावकों की नींदें उड़ चुकी हैं, जिनके बच्चे यूक्रेन में फंसे हैं। यह वो बच्चे हैं, जो खुशी-खुशी अपने सपनों को साकार करने के लिए यूक्रेन गये थे। यूक्रेन के जापोरीज्या चिकित्सा महाविद्यालय में एमबीबीएस की पढ़ाई कर रहे आशीष ने वीडियो कॉल कर इंदौर निवासी अपने माता-पिता से थरथराते स्वर में बताया कि जहां वह रह रहा है वहां से पांच किलोमीटर दूर हो रहे धमाकों की आवाज उसे डरा रही है। हर तरफ जबर्दस्त अफरा-तफरी का माहौल है। दुकानों में राशन और एटीएम में नगदी पूरी तरह से खत्म हो गई है। दुकानदारों ने कार्ड से भुगतान लेने से मनाही कर दी है। उत्तरप्रदेश के बिजनौर निवासी सना उर्ररहमान जो कि इवानो फ्रेंकविस्क इंटरनेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में एमबीबीएस में प्रथम वर्ष का छात्र है, उसकी भी आपबीती आशीष से जुदा नहीं। अपने वर्तमान और भविष्य को लेकर आशंकित सना का कहना था कि सुपर मार्केट में लोगों ने दाल, आटा, फल, ब्रेड, मैगी, जूस सबकुछ खरीद कर अपने-अपने घरों में जमा कर लिया है। ऐसे में हमें मैगी, फल, ब्रेड या जूस से गुजारा करना पड़ रहा है। इनका भी जल्द ही खत्म हो जाने का अंदेशा है। इसके बाद हमारा क्या होगा, हमें नहीं पता। कर्नाटक के 21 वर्षीय नवीन शेखरप्पा की तो जान ही छिन गयी। नवीन खार्किव नेशनल मेडिकल यूनिवर्सिटी में फोर्थ ईयर का छात्र था। वह खाना खाने का सामान लेने के लिए स्टोर के पास खड़ा था। तभी किसी बंदूक की गोली ने उसके प्राण ले लिए। ऐसे हजारों आशीषों और सना उर्ररहमानों की दिल दहला देनेवाली हकीकतों ने उनके परिजनों की भूख और प्यास छीन ली। जब मैंने जाना कि यूक्रेन में भारत के करीब 14,000 मेडिकल छात्र हैं तो मैं स्तब्ध रह गया। अपने देश में तो मेडिकल कॉलेजों की भरमार है, तो कौन-सी वजह उन्हें विदेश तक खींच कर ले गयी? वही राजनेताओं, मंत्रियों, धन्नासेठों की धन की भूख और लूटमार। जिसने भारत देश को गर्त में ले जाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। अपने यहां निजी मेडिकल कॉलेज से एमबीबीएस की डिग्री लेने के लिए मां-बाप को कम से कम एक करोड़ रुपये की रिश्वती कुर्बानी देनी पड़ती है। इतनी बड़ी रकम की व्यवस्था आम परिवारजन तो सपने में भी नहीं कर सकते। इसलिए भारत में गरीब लड़के, लड़कियां डॉक्टर और इंजीनियर बनने के सपने देखते रह जाते हैं। यूक्रेन में डॉक्टर बनने के लिए मात्र बीस से पच्चीस लाख का ही खर्च आता है। यूक्रेन से मिली डॉक्टरी की डिग्री की पूरी दुनिया में मान्यता है। इसलिए भारत के साथ-साथ कई अन्य देशों के छात्र भी यहां अपने सपने पूरे करने के लिए आते हैं। मेडिकल छात्र की मौत के लिए क्यों न उन धनलोलुपों को कसूरवार माना जाए, जिनकी वजह से भारतमाता के लाल डॉक्टर बनने के लिए विदेश जाने को विवश होते हैं? रूस के साथ-साथ यह धनपशु भी भारतीय प्रतिभा के हत्यारे ही हैं। अब वक्त आ गया है, जब शोषक हत्यारों की शिनाख्त कर कड़ी से कड़ी सज़ा देनी चाहिए।
    जब सभी को किसी भी तरह से अपनी जान बचाने और सुरक्षित अपने देश पहुंच की पड़ी थी तब हरियाणा की एक सत्रह वर्षीय लड़की ने तो मानवता का जीवंत ग्रंथ ही लिख डाला। हिंदुस्तान के हजारों छात्र-छात्राओं की तरह दादरी जिले की रहने वाली नेहा सांगवान भी यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रही है। युद्ध के शुरू होते ही उसके परिजनों ने उसकी वापसी की व्यवस्था कर दी थी, लेकिन नेहा ने यूक्रेन छोड़ने से इसलिए स्पष्ट इंकार कर दिया, क्योंकि उसका मकान मालिक युद्ध लड़ने के लिए जा चुका है। अब उसकी पत्नी और तीन बच्चे ही घर में अकेले हैं। नेहा को अपनी तकलीफ से कहीं ज्यादा उनकी तकलीफ का तीव्र अहसास हुआ और उसने उन्हें इस मुश्किल की घड़ी में अकेले छोड़ना कतई मुनासिब न समझते हुए तब तक आग में जलते यूक्रेन में रहने का पक्का इरादा कर लिया जब तक मकान मालिक वापस नहीं लौट आता। नेहा के पिता भी एक वीर सैनिक थे। वह भी अपने पिता के पदचिन्हों पर चल रही है। उसका मानना है कि यह सारी दुनिया ही एक परिवार है। संकट काल में अपने परिवार के काम आना ही इंसान होने की निशानी है।
    सच तो यह है कि जब अपनी जान खतरे में हो तो इंसान को अपनी जान बचाने के सिवाय और कुछ नहीं सूझता। आज तो सोशल मीडिया के दौर में जब आदमी सामने मर रहा होता है और लोग तमाशबीन बने रहते हैं। अपनी सारी अक्लमंदी उसकी तस्वीरें खींचने और वीडियो बनाने में लुटा देते हैं। ऐसे में नेहा को सलाम करना ही चाहिए, जिसके लिए इंसानियत, कर्तव्य, नैतिकता और मानवीयता महज शब्द नहीं, जीवन जीने के मूलमंत्र हैं। दरअसल, भारत ही ऐसा देश है, जो प्रेम और इंसानियत का दामन कभी भी नहीं छोड़ता। सभी को पता है कि युद्ध के नतीजे कभी भी अच्छे नहीं होते। फिर भी रूस के हुक्मरान पागल कुत्ते की तरह यूक्रेन को खंडहर बनाने पर तुले हैं। रूस के राष्ट्रपति ब्लदिमीर पुतिन की यह धमकी कि कोई बीच में आया तो ऐसा हश्र करूंगा, जो पहले कभी नहीं देखा होगा, उसके घोर जिद्दी और अहंकारी होने का प्रमाण है। हालांकि वह अच्छी तरह से जानता है कि यह युद्ध उसके देश की भी कमर तोड़कर रख देने वाला है। फिर भी बारूद के ढेर पर बैठकर खुद को महाबली दर्शाने की सनक के नशे में वह गहरे तक डूबा है। उसके देश के ही कई लोग उसकी इस जिद का विरोध करने के लिए सड़कों पर उतर चुके हैं। युद्ध किस तरह से सर्वनाशी होता है इसे शासक नहीं सैनिक ही अच्छी तरह से जानते हैं। डॉ. वी.पी. सिंह, जो कि एक बहादुर सैनिक (कर्नल) होने के साथ-साथ सजग कवि भी हैं, लिखते हैं कि यह युद्ध कोई अंतिम युद्ध नहीं। हम विध्वंस से कुछ भी नहीं सीखते। इसलिए युद्ध लड़ने को अभिशप्त हैं...
‘‘फिर कहीं शासक चढ़े हैं अहम रथ पर
फिर कहीं सैनिक बढ़ेंगे मरण पथ पर
फिर चलेंगी चीखती पागल हवाएं
सिर धुनेंगी फिर कहीं झुलसी दिशाएं
फिर कहीं संबंध का व्यापार होगा
फिर धरा का अश्रु से सिंगार होगा
फिर जवानी लड़ेगी, बलिदान देगी
कोई झंडा कहीं रौंदा जाएगा
कोई झंडा गगन में लहराएगा।
खेल यह वर्चस्व का चलता रहेगा
विश्व भीषण आग में जलता रहेगा
निरर्थक बहता रहे, वो रक्त हैं हम।
युद्ध लड़ने के लिए अभिशप्त हैं हम!!’’

    कई तस्वीरें नि:शब्द करते हुए देश प्रेम के असली मायने बता रही हैं। सैनिक हाथ में बंदूक थामे गली से गुज़र रहा है। एक ढाई-तीन साल का मासूम दीवार से लगे खंभे की ओट में खुद को बचाने के लिए दुबका खड़ा है। इसी तस्वीर के साथ विख्यात गज़लकार राजेश रेड्डी की ये पंक्तियां हैं,
‘मिरे दिल के किसी कोने में
इक मासूम सा बच्चा
बड़ों की देखकर दुनिया
बड़ा होने से डरता है...।’

    सोशल मीडिया पर एक बच्ची का वीडियो वायरल हो रहा है। गुस्से में उबलती बच्ची विदेशी सैनिक से चीख-चीखकर कह रही है, यह मेरा देश है। तुम्हारा मेरे देश में क्या काम...! फौरन भागो यहां से नहीं तो मैं तुम्हारा मुंह नोच लूंगी। देश और दुनिया का हर सजग लेखक, कवि बहुत दूर की सोचता है। उसे आज के साथ आने वाले कल की चिंता भी सतत घेरे रहती है। कालजयी कवि, गीतकार गोपालदास नीरज ने तीसरे युद्ध की आशंका को देखते हुए वर्षों पूर्व एक लंबी कविता लिख दी थी। उसी कविता की कुछ पंक्तियां...
‘‘मैं सोच रहा हूँ अगर तीसरा युद्ध हुआ तो,
इस नई सुबह की नई फसल का क्या होगा।
मैं सोच रहा हूं गर जमीं पर उगा खून,
इस रंगमहल की चहल-पहल का क्या होगा।
किलकारी भरते हुये दूध से ये बच्चे,
निर्भीक उछलती हुई जवानों की ये टोली।
रति को शरमाती हुई चांद सी ये शकलें,
संगीत चुराती हुई पायलों की ये बोली।
क्या इन सब पर खामोशी मौत बिछा देगी,
क्या धुंध धुआं बनकर सब जग रह जायेगा।
क्या कूकेगी कोयलिया कभी न बगिया में,
क्या पपीहा फिर न पिया को पास बुलायेगा।
मैं सोच रहा हूं क्या उनकी कलम न जागेगी,
जब झोपड़ियों में आग लगायी जायेगी।
क्या करवटें न बदलेंगी उनकी कब्रें जब,
उनकी बेटी भूखी पथ पर सो जायेगी।’’