Thursday, March 31, 2016

किसी की मौत, किसी की मौज

चित्र -१ : होशंगाबाद जिले में स्थित चांदौन गांव के किसान अशोक शर्मा ने १९ नवंबर, २०१४ को अपने खेत में सल्फास खाकर प्राण त्याग दिये। कहीं कोई हलचल नहीं हुई। मीडिया को इस खुदकुशी में कोई नयी बात नजर नहीं आयी। नेता भी चुप्पी साध गये। यह तो रोजमर्रा का किस्सा है। एक किसान चुपके से दुनिया में आता है और इंसानी व कुदरत की मार को न सह पाने के कारण खुदकुशी कर लेता है। महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश में तो किसानों की आत्महत्याओं की खबरें आम हो चुकी हैं। किसानों की अंधाधुंध मौतों पर सत्ताधीशों और दमदार नेताओं के चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। नौकरशाह तो मन के राजा हैं, उनके लिए अन्नदाता की कोई अहमियत नहीं है। दो एकड जमीन के मालिक अशोक पर बैंक का लगभग ६० हजार रुपये का कर्जा था। बारिश की वजह से खेत में लगी सोयाबीन की खेती के नष्ट हो जाने के कारण वह हताश और निराश हो गया था। बैंक के वसूली अधिकारियों के चलाये गये आतंकी अभियान ने उसे इस कदर भयभीत कर दिया कि उसने अंतत: आत्मघाती रास्ता चुन लिया।
चित्र - २ : साल २०१५ का सितंबर महीना। राजाराम उर्फ रज्जू आदिवासी ने कीटनाशक पीकर आत्महत्या कर ली। उसकी उम्र थी महज तीस वर्ष। वह सागर जिले के देवरी तहसील के डोंगर सलैया गांव का निवासी था। उसे भी फसल की बरबादी ने कहीं का नहीं छोडा। उस पर मात्र ५० हजार रुपये का कर्ज था। ऐसा नहीं था कि उसकी कर्ज अदा करने की नीयत नहीं थी। सोयाबीन और धान की फसल के सूख जाने के कारण वह कर्ज की रकम लौटा पाने में असमर्थ था, लेकिन बैंक वाले ब्याज सहित रकम वसूलने पर अडे थे। उसकी मजबूरी उन्हें बहाना लगती थी। खुद्दार रज्जू आदिवासी को यह तौहीन बर्दाश्त नहीं हुई। उसने चुपचाप विष निगला और सदा-सदा के लिए विदा हो गया। उसका खपरैल वाला कच्चा घर उदासी की कब्र बन कर रह गया है। मां-बाप की गीली आंखें सूखने का नाम नहीं लेतीं। कुछ पत्रकार जब उसके गांव पहुंचे तो उन्होंने देखा कि रज्जू का घर एकदम खुला पडा था। कहीं कोई ताला नहीं। वैसे भी ताले तो धनवानों के घरों के दरवाजों पर ही लगते हैं। रज्जू का घर तो खाली था और खाली है। यहां तक कि चुल्हा भी तब जलता है जब घर में आटा-चावल आता है, लेकिन ऐसा चमत्कार भी रोज तो नहीं होता।
चित्र - ३ : बैंको के अरबों रुपये के कर्जदार के जीने का अपना निराला अंदाज है। वह अकेला नहीं चलता। उसके साथ आठ-दस नौकर-चाकर और अंगरक्षक चलते हैं। एक नौकर तो चांदी की तश्तरी में तीन-चार मोबाइल फोन सजाकर चलता है। उसके किसी न किसी फोन की घण्टी हमेशा बजती रहती है। कभी-कभी तो सभी फोन एक साथ बजने लगते हैं। जिससे उसे बात करनी होती है, उसी से ही वह बात करता है। उसके नौकर-चाकर जानते हैं मालिक की किससे बात करवानी चाहिए। यह शाही ठाठ-बाट वाला चित्र है विजय माल्या का जो उद्योगपति होने के साथ-साथ देश का सम्मानित सांसद भी है। वह विभिन्न बैंको को ९ हजार करोड रुपये से अधिक रकम की चपत लगाकर सात समंदर पार भाग गया और बैंको के कर्ताधर्ता हाथ पर हाथ धरे रह गये। किसी जांच एजेंसी को भनक तक नहीं लगी। फिर सरकार तो सरकार है जो जगाने पर ही जागती है। सभी को पता था कि मस्तीखोर विजय माल्या की कंपनियां घाटे में चल रही हैं। देश और विदेशों में वह सम्पत्तियों पर संपत्तियां खरीदता चला जा रहा है। वह बैंको का कर्ज लौटाने में असमर्थ है। कर्ज लेकर घी पीने की उसकी आदत पड चुकी है फिर भी उस पर सभी मेहरबान रहे। एक आम आदमी को रहने को एक घर मिल जाए तो वह खुद को मुकद्दर का सिकंदर मान लेता है, लेकिन विजय माल्या के पास कई घर और अपार जमीन, जायदादों की भरमार है। दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरू, गोवा और पता नहीं कहां-कहां उसके आलीशान ठिकाने हैं जहां वह रंगरेलियां मनाता रहा है। बैंक अधिकारी सबकुछ देख-समझ रहे थे कि यह प्ले ब्वॉयनुमा कारोबारी कर्ज में ली गयी रकमों को धंधे में लगाने की बजाय जहां-तहां लुटा रहा है। इसके इरादे नेक नहीं हैं। फिर भी उन्होंने अपने बैंकों की तिजोरियां उसके लिए खोले रखीं। जितना धन चाहो ले लो। तुम भी मस्त रहो और हमारा भी उद्धार करते रहो। दरअसल शातिर माल्या इस देश का आम नहीं खास आदमी है जो इस सोच के साथ जीता है कि कल किसने देखा है। हाथ आये मौके को लपक लेना ही समझदारी है। यह जिन्दगी सिर्फ और सिर्फ एक बार मिली है। जितनी ऐश करनी है कर लो। भले ही दिवाला ही क्यों न पिट जाए।
यह अपने देश में ही संभव हैं कि कोई कर्जदार राजा-महाराजाओं को मात देने वाली शानोशौकत भरी शाही जिन्दगी जी सकता है। माल्या के पास क्या नहीं था...? तीन आलीशान सर्वसुविधायुक्त हवाई जहाज जिनमें एक बोइंग ७२७, एक गल्फ स्ट्रीम और एक हाल्कर ७०० विमान के साथ कई फार्म हाऊस, द्वीप और २५० से अधिक विंटेज कारें। इनका मजा वह अकेले नहीं लूटता था। नेता, नौकरशाह, सत्ताधीश, सत्ता के दलाल, कई पत्रकार, संपादक, अखबारों और न्यूज चैनलों के मालिक आदि...आदि बहती गंगा में डूबकियां लगाते थे।
चित्र - ४ : बैंको से कर्ज लेकर चम्पत हो जाने वालों में और भी कई नामीगिरामी उद्योगपति शामिल हैं। भूषण स्टील के उच्च प्रतिभावान मालिकों ने देश के बैकों को ४० हजार करोड का चूना लगाया तो एस्सार स्टील ने ३० हजार करोड को चपत लगाकर चम्पत हो जाने में ही अपनी भलाई समझी। भारती शिपयार्ड, एबीजी शिपयार्ड, होटल लीला, विनसन डायमंड एंड ज्वेलरी, सूर्य विनायक इंडस्ट्रीज लि., जूम डेवलपर्स आदि ने भी विजय माल्या की राह पर चलते हुए अरबों-खरबों खाये, पचाये और फुर्र हो गये। यह परम्परा अभी भी बरकरार है। दिल्ली, मुंबई, नागपुर, पुणे, सूरत, अहमदाबाद, बेंगलुरू, रायपुर, इंदौर जैसे नगरों, महानगरो के कई धनपति सरकारी बैंको से लिये गये करोडों-करोडों रुपयों के कर्ज को चुकाने में आनाकानी कर रहे हैं। मजे की बात यह भी है कि इनकी शानो-शौकत में कहीं कोई कमी नहीं आयी है। यह भी कम हैरत की बात नहीं कि जहां कर्जदार किसानों की आत्महत्याओं की एक के बाद एक खबरें सुनने-पढने में आती हैं वहीं किसी भी दिवालिया हुए कारोबारी की आत्महत्या की खबर शायद ही सुनने में आती हो। इस जमात को डिफाल्टर होने के बाद भी फलते-फूलते देखा जाता है। कुछ चतुर व्यापारी तो शौकिया अपना दिवाला पिटवाते हैं।

Wednesday, March 23, 2016

विवादों की फसल

देश के कुछ नेता आए दिन कोई न कोई विवादित बयान देते रहते हैं। उनके शब्द शूल की तरह चुभते हैं। वे तो नये-नये विवादों का तमाशा खडा कर चैन की नींद सो जाते हैं, लेकिन सजग देशवासियों की नींद उड जाती है। ऑल इंडिया मजलिस इत्तेहादुल मुस्लिमीन के अध्यक्ष असदुद्दीन ओवैसी जैसे नेताओं ने तो यह मान लिया है कि विवादाग्रस्त भडकाऊ शब्दावली ही उनकी राजनीति को शिखर पर पहुंचा सकती है। ठंडक और शीतलता प्रदान करने वाली सीधी-सादी भाषा बोलने में उन्हें कमतरी का एहसास होता है। वैसे ओवैसी इकलौते नेता नहीं हैं जो तरह-तरह के पीडादायक, भडकाऊ बयानों को उछालकर सुर्खियां पाते रहते हैं। बीते दिनों राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि युवकों में देशप्रेम पैदा करने के लिए उन्हें भारत माता की जय के नारे लगाना सिखाना चाहिए। हमें नहीं लगता कि इसमें उनकी कोई गलत भावना छुपी है, लेकिन सांसद ओवैसी ऐसे उछल पडे जैसे उन्हें बिजली का करंट लग गया हो। उनका तमतमाता बयान आया कि भले ही मेरी गर्दन पर चाकू रख दें, लेकिन मैं भारत माता की जय नहीं बोलूंगा, क्योंकि भारतीय संविधान में ऐसा नहीं लिखा है। नेताजी को मालूम था कि उनके यह अभद्र और अविवेकी बोल देशभर में चर्चा का विषय बनेंगे। विवादों को जन्म देने और उन्हें तूफान बनाने की दुष्टता में माहिर ओवैसी के बयान को लगभग सभी न्यूज चैनल वालो ने कई-कई घण्टों तक ऐसे दिखाया और सुनाया जैसे उनके पास हितकारी समाचारों का घोर अकाल पड गया हो। उनकी निगाह में इस उग्र नेता का बयान इतना महत्वपूर्ण था, जिसका जन-जन तक पहुंचना नितांत जरूरी था। सांसद ओवैसी तो गदगद हो गये, लेकिन लाखों देशवासी आहत होकर रह गए। ओवैसी की अजूबी बयानबाजी कि खबर को विभिन्न न्यूज चैनलों पर बार-बार देखने के बाद बिहार में स्थित गोपालगंज की एक उम्रदराज महिला सादिकन खातून के दिलो-दिमाग पर ऐसा असर पडा कि वे बेहोश हो गयीं। होश में आने के बाद उन्होंने अपनी पीडा और चिन्ता अपने परिजनों को बतायी। अहिंसावादी युगपुरुष महात्मा गांधी को अपना आदर्श माननेवाली सादिकन खातून कोई आम भारतीय नारी नहीं हैं। वे स्वतंत्रता आंदोलन में भाग ले चुकी हैं। अपनी उम्र के सौवें वर्ष के पडाव पर होने के बावजूद वे देश और दुनिया की खबरों से सतत रूबरू रहती हैं। वे इस हकीकत को नहीं भूली हैं कि देश को स्वतंत्र करवाने में कैसी-कैसी तकलीफें आयीं और कुर्बानियां देनी पडीं। भारत माता की जय का नारा लगाकर शहादत देने वाले भगत सिंह, चंद्रशेखर आजाद और लाजपतराय आदि तमाम शहीदों के किस्से उन्हें अच्छी तरह से याद हैं।
असदुद्दीन का कहना है कि संविधान में कहीं नहीं लिखा है कि भारत माता की जय बोली जाए। उनकी इस सफाई से तो यही लगता है कि वे संविधान का अक्षरश: पालन करते हैं। वे ऐसा कोई भी काम नहीं करते जो संविधान के खिलाफ हो। मुसलमानों का मसीहा बनने के लिए हर तरह का जोर लगाते इस सांसद के छोटे भाई अकबरुद्दीन ओवैसी ने हैदराबाद में घोर आपत्तिजन आग उगलने वाला भाषण दिया था। जिसका सार यही था कि यदि पुलिस अपने हाथ बांध ले तो देश के पंद्रह करोड मुसलमान १२५ करोड हिन्दुओं का सफाया करने की हिम्मत दिखा सकते हैं। ऐसे शर्मनाक उत्तेजक बोल कोई सिरफिरा ही बोल सकता है जो हिन्दुस्तान के कानून से खेलने की सोच के साथ-साथ हिन्दु-मुसलमानो को युद्ध की आग में झोंक देने की ठाने हो। अकबरुद्दीन विधायक हैं। मुसलमानों को हिन्दुओ से लडाकर आपसी सदभाव की हत्या करने के मंसूबे पालने वाला और कुछ भी हो, लेकिन संविधान का पालन करने वाला तो नहीं हो सकता। दोनों भाई एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। मुसलमानों को उकसा कर अपनी राजनीति की रोटियां सेकना ही इनका एकमात्र मकसद है। जावेद अख्तर का यह कथन काबिलेगौर है- 'जिन्हें गुमान हो गया है कि वह राष्ट्रीय नेता हैं, जिनकी हैसियत एक शहर या मुहल्ले के छुटभइये नेता से ज्यादा नहीं है। वे कहते हैं कि किसी भी कीमत पर भारत माता की जय नहीं बोलेंगे... क्योकि यह संविधान में नहीं लिखा है। वह बताएं कि संविधान में शेरवानी और टोपी पहनने की बात कहां लिखी है? जावेद कहते हैं कि भारत माता की जय बोलना मेरा अधिकार है। मैं कहता हूं कि - भारत माता की जय, भारत माता की जय, भारत माता की जय...।' दरअसल, यही सोच हर उस भारतवासी की है जो देश में अमन चैन और भाईचारा चाहता है। देश को विकास के पथ पर अग्रसित होते देखना चाहता है न कि विवादों के दलदल में धंसते। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं कि भारत माता की जय कहने से इंकार करने वालो की जीभ काटने पर लाखों रुपये के इनाम की घोषणा कर वही बेवकूफी की जाए जो अधिकांश न्यूज चैनल वाले इनकी खबरें बार-बार दिखा कर करते चले आ रहे हैं।
भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कभी भी शाब्दिक हिंसा का सहारा नहीं लिया। बापू के नाम की माला जपने वाले आज के नेता इतने बडे मुखौंटेबाज हैं कि एक दूसरे को नीचा दिखाने के मौके तलाशते रहते हैं। बापू जैसी शालीनता, सहनशीलता, त्याग और सादगी उनमें कहीं भी नजर नहीं आती। अहिंसा के पुजारी बापू के समूचे जीवन की वास्तविक तस्वीर देखनी हो तो सेवाग्राम में स्थित बापू कुटी आश्रम से बेहतर और कोई जगह नहीं हो सकती। विवादों के भूखे और भौतिक सुख सुविधाओं को पाने के लिए अपना ईमान तक बेचने वाले नेताओं को एक बार जरूर बापू के इस आश्रम में  जाना चाहिए। यकीनन उनकी आंखें खुली की खुली रह जाएंगी कि देश के महानायक ने बिना विवादों की फसल बोये, कम से कम सुविधाओं के साथ कैसे जीवनयापन करते हुए बडी से बडी अहिंसक लडाइयां लडीं और सफलता पायी। पत्रकार मित्र डॉ. सुधीर सक्सेना तथा राजेश यादव के साथ सेवाग्राम में स्थित बापू कुटी को करीब से देखने का अवसर मिला तो मन में विचार आया कि नागपुरवासी होने के बावजूद मैंने यहां आने में इतनी देरी क्यों लगा दी! हम तीनों को बापू की सादगी ने अपने मोहपाश में ऐसा बांधा कि उससे मुक्त होने को जी ही नहीं चाहता। कुटिया के प्रांगण में ही लगे फलक पर लिखी इन पक्तियों ने तो जैसे मंत्रमुग्ध ही कर दिया :
"धरती की माटी
धरती का जल,
हवा धरती की
धरती के फल
सरस बनें, प्रभु सरस बनें
धरती के तन और
धरती के मन
धरती के सारे भाई-बहन
विमल बनें, प्रभु विमल बनें"

Thursday, March 17, 2016

तेल देखो...तेल की धार देखो

लिखने के लिए मोर्चा संभालते-संभालते एकाएक फेसबुक पर झांकने की चाहत जाग उठी। कोरबा निवासी पत्रकार मित्र वेद प्रकाश मित्तल के द्वारा शेयर की गयी आर्थिक अपराधी, राज्यसभा सांसद विजय माल्या और जी न्यूज के जुगाडू कर्ताधर्ता सुभाष चंद्रा की आपस में गले मिलती तस्वीर पर नजरें अटक गयीं। तस्वीर ही बता रही थी दोनों में गजब का याराना है। एक डिफाल्टर उद्योगपति, दूसरा ऐसा मीडिया मालिक जिसने सत्ता की चाकरी कर अपार दौलत बनायी और आजकल उपदेशक बना फिरता है। इन शातिर पूंजीपतियों की आलिंगनबद्ध मुस्कराती तस्वीर के ऊपर लिखा पाया:
"कुम्भ में मिले दो भाई,
एक कसाई दूसरा हरजाई!"
उपरोक्त पंक्तियां बताती हैं कि लोगों में सत्ता के दलालों और आर्थिक दानवों के प्रति कितना गुस्सा है। वे खुलकर गाली नहीं दे सकते, लेकिन क्या यह शब्द किसी गाली और तमाचे से कम हैं? तय है कि अंदर ही अंदर आग जल रही है। अभी भी सब्र के पैमाने पूरी तरह से नहीं छलकें हैं, लेकिन विरोध के जो स्वर गूंज रहे हैं वे आने वाले भयंकर तूफान के संकेत तो दे ही रहे हैं।
इस तस्वीर ने यह भी बता दिया कि माल्या की मीडिया के धुरंधरों से कैसी नजदिकियां रही हैं। देश के अधिकांश नामी-गिरामी पत्रकार और संपादक उसकी महफिलों में जाम छलकाते हुए कमसिन बालाओं के साथ गुल्छर्रे उडाते हुए महंगे उपहार पाते रहे हैं। ऐसे में जब  अहसानफरामोश न्यूज चैनल वालों ने 'दोस्ती' का लिहाज नहीं किया तो माल्या को गुस्सा आ गया। उसने धमकाने के अंदाज में मीडिया को चेताया कि मैंने तुम लोगों पर इतने उपकार किये हैं जिनका कर्जा तुम कभी नहीं उतार सकते। मैंने तुम्हें सुख-सुविधाओं के समंदर में गोते लगवाये, विदेशों की सैर करवायी, सुरा और सुंदरी से लेकर हर वो अय्याशी का सामान उपलब्ध करवाया जिसकी तुमने मांग की। आज जब मेरा बुरा वक्त आया तो तुम लोग गिरगिट की तरह रंग बदलने पर उतर आये। मुझे ठग और लुटेरा कहने लगे। मैं अगर तुम लोगों की पोल खोलूंगा तो पता नहीं कहां-कहां मुंह छिपाते फिरोगे। मैंने तुम मतलबपरस्तों को जो खैरातें दी हैं उनके सभी सबूत मेरे पास हैं।
सरकारी बैकों का हजारों करोड रुपये कर्ज लेकर नहीं चुकाने और फिर रातों-रात देश छोडकर भाग जाने वाले माल्या के बचाव में भी कुछ राजनीतिक दिग्गज उतर आये। जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुला ने कहा कि वे भगौडे नहीं हैं, बल्कि सम्मानित कारोबारी हैं। देश के पूर्व प्रधानमंत्री एच.डी. देवगौडा ने फरमाया कि माल्या देश के सपूत हैं, वह देश छोडकर नहीं भागे हैं। उन्होंने यह सवाल भी दागा कि ६० अन्य प्रमुख कर्जदार हैं जो कर्ज अदायगी में आनाकानी करते चले आ रहे हैं। ऐसे में अकेले माल्या पर ही क्यों निशाना दागा जा रहा है। विपक्ष और मीडिया तो हाथ धोकर उनके पीछे पड गया है? दरअसल ऐसे भाई-भतीजावाद के हिमायती नेताओं के कारण ही आजादी के इतने वर्षों बाद देश में असमंजस की स्थिति है। बैंकों से मोटे कर्ज लेकर उन्हें शराब-कबाब की भेंट चढा देने वाला शख्स सम्मानित कारोबारी कैसे हो सकता है? जब सरकारी बैंके छोटे-मोटे कर्जदाताओं को सूली पर लटकाने को उतर आती हैं तो माल्या जैसों के साथ ढिलायी और हमदर्दी गुस्सा तो दिलाती ही है। सात समंदर पार निकल जाने वाले विजय माल्या ने भी चोरी उस पर सीना जोरी के अंदाज में ट्वीट किया कि मैं भगौडा नहीं हूं। मैं भारतवर्ष का सम्मानित राज्यसभा सदस्य और उद्योगपति हूँ।
देशवासियों के खून-पसीने के ९ हजार करोड से ऊपर के धन का गबन करने वाला यह अय्याश आखिर सांसद बनने में कैसे सफल हो गया? माल्या को देवगौडा की पार्टी जेडीएस के समर्थन के चलते वर्ष २००२ और २०१० में कर्नाटक में दो कार्यकाल के लिए राज्यसभा की सदस्यता की सौगात हासिल हुई। कांग्रेस और भाजपा ने भी उसे साथ देने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। तय है कि यह उपकार मुफ्त में तो नहीं किया गया होगा। इसकी पूरी फीस वसूली ही गयी होगी। राज्यसभा सांसद बनने के बाद माल्या का रूतबा बढता चला गया। बैंको के खजाने की मोटी रकमें कर्ज के रूप में उसकी तिजोरियों में समाती चली गयीं। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं है कि अपने देश में विधायकों और सांसदों का कैसा-कैसा जलवा रहता है। अदना-सा विधायक भी पांच साल में करोडपति तो बन ही जाता है। भ्रष्ट सांसदों को अरबपति बनने में देरी नहीं लगती। सांसदों को अपने व्यक्तिगत काम निकालने के लिए सिर्फ इशारे की जरूरत होती है। विजय माल्या ने अपने नाम के आगे सांसद लगवाने के लिए हजारों करोड यूं ही नहीं फूंके। इस पदवी का उसे भरपूर लाभ मिला। जो बैंक अधिकारी व्यापारी माल्या को लोन देने से कतराते थे, वही अधिकारी उसके सांसद बनते ही दण्डवत होने लगे और फिर कर्ज की बौछार शुरु कर दी। अंधा मांगे दो आंखें की तर्ज पर माल्या ने जी भरकर लोन हथियाये और रकम को अंदर करने के साथ-साथ दोनों हाथों से लुटाता चला गया।
अभी तक हम यही देखते और सुनते आये हैं कि व्यापारी, उद्योगपति कर्ज लेकर इतनी मेहनत करते हैं कि अपने विकास के साथ-साथ कर्ज को नियमित पटा कर साख में बढोत्तरी करना अपना दायित्व मानते हैं, लेकिन माल्या ने कर्जें लिए ही डुबाने के लिए। माल्या आश्वस्त था कि वह इस देश का सांसद है और उसकी तूती हमेशा बोलती रहेगी। नौ हजार करोड तो क्या ९० हजार करोड का कर्ज लेने के बाद भी उस पर कोई आंच नहीं आयेगी। जब सत्ताधीश, नौकरशाह और अधिकांश मीडिया वाले उसके साथी हैं, खैरख्वाह हैं तो उसके बुरे दिन आने का तो सवाल ही नहीं उठता। वह देश और दुनिया की सुंदरियों को अपनी बाहों में समेटे कैलेंडर पर कैलेंडर निकालने में मगन रहा। अभिनेताओं, अभिनेत्रियों, नेताओं, सांसदों, मंत्रियों-संत्रियों को अपने निजी हवाई जहाजों से देश और दुनिया की सैर करवाता रहा। शबाब और शराब की बरसातें कर सभी को मदमस्त करता रहा। उसके सभी 'कृपापात्र' मुंह और आंखें बंद किये रहे। उसके यहां काम करने वाले लाखों कर्मचारी तनख्वाह के लिए भी तरसते रहे, लेकिन माल्या को इससे कोई फर्क नहीं पडा। उसे तो देश और विदेशों में आलीशान फार्म हाऊस, बंगले और महंगी से महंगी कारों को खरीदने और अय्याशी में डूबने से फुर्सत ही नहीं मिली। कल तक जिनकी जुबान पर ताले जडे थे आज वे चीख रहे हैं, चिल्ला रहे हैं कि विजय माल्या सरकार की आंखों में धूल झोंककर भाग गया! उसे पकडा क्यों नहीं गया? यह तमाशेबाजी नयी नहीं है। ढोल पीटने वाले भी बडे पुराने खिलाडी हैं...।

Friday, March 11, 2016

लम्हों की खता

"जनता का शोषण करने वाले नेताओं, अफसरों और दलालों को फांसी पर लटका दिया जाना चाहिए... या गोलियों से भून दिया जाना चाहिए।" यह कहना है राजेश रंजन उर्फ पप्पू यादव का। यह महाशय बिहार के माधोपुर से सांसद होने के साथ जन अधिकार पार्टी के संरक्षक हैं। इनका मानना है कि भारत में सुधार का कोई और रास्ता नहीं बचा है। दस फीसदी नेता-अफसर नब्बे फीसदी लोगों का शोषण कर रहे हैं। कोई उनका कुछ भी नहीं बिगाड पा रहा है। पप्पू यादव ने उस लालू प्रसाद यादव को फांसी पर लटकाने की ललकार लगायी है जिनको कभी वे अपना सर्वेसर्वा और बिहार का मसीहा कहते नहीं थकते थे। चारा-चोर लालू के भ्रष्ट होने की जानकारी तो उन्हें तब भी थी जब वे उनके महिमामंडन में कोई कसर नहीं छोडते थे। मतभेद होने और साथ छूटने के बाद शब्द भी आक्रामक हो जाते हैं। अपने यहां की राजनीति और नेताओं की यह जगजाहिर परिपाटी है। वैसे भी पप्पू यादव जैसे नेताओं को गंभीरता से नहीं लिया जाता। कुकरमुत्ते की तरह उगने वाले ऐसे नेता बडी आसानी से पाला बदल लेते हैं। ताज्जुब है कि फिर भी यह लोग चुनाव जीत कर देश के सबसे बडे मंदिर संसद भवन पहुंच जाते हैं। समर्पित, ईमानदार, शालीन और सुलझे हुए नेताओं के लिए इन्हें चुनावी मैदान में पटकनी देना टेढी खीर हो जाता है। अपने विरोधियों के खिलाफ इनकी जुबान तेजाब उगलते हुए कैंची की तरह चलती रहती है। इनके विरोधियों के चेहरे बदलते रहते हैं। जिधर दम उधर हम की नीति पर चलते हुए इनकी राजनीति का सफर जारी रहता है।
वक्तृत्व कला में पारंगत नये चेहरों की राजदलों को सतत जरूरत रहती है। उनकी गिद्ध दृष्टि शाब्दिक आग उगलने वाले विवादास्पद चेहरों पर गढी रहती है। मौका पाते ही वे उन्हें अपने पाले में ले लेते हैं। अभी तक हम यही सुनते और देखते आ रहे थे कि लोग देशद्रोहियो से पूरी तरह से नफरत करते हैं, लेकिन पिछले दिनों जिस तरह से संसद हमले के दोषी अफजल गुरु और आतंकी मकबूल बट्ट के चहेतों के नारे सुने तो स्तब्ध रह गये। इन्हीं नारों के शोर के बीच कन्हैया का नाम किसी तूफान की तरह सामने आया और चर्चा का विषय बन गया। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्र संघ के अध्यक्ष कन्हैया को सात समंदर पार तक ख्याति, कुख्याति दिलवाने में मीडिया के साथ-साथ चतुर बयानवीरों की भूमिका हैरत में डाल देती है। देशद्रोह के आरोप में जमानत पर जेल से बाहर आए कन्हैया को कुछ राजनैतिक दलों ने ऐसे दुलारा-पुचकारा जैसे पिता अपने बेटे की पीठ थपथपाता है। ऐसा भी लगा कि इस देश में एक नये क्रांतिकारी नेता ने जन्म ले लिया है। कन्हैया ने अपनी भाषणबाजी से उनका दिल जीत लिया जिन्हें मोदी सरकार खटकती रहती है। उसे जेल भेजा तो गया था देशद्रोह के आरोप में, लेकिन वह जेल से नायक बनकर निकला। क्या कन्हैया और उसे 'हीरो' बनाने को आतुर लाल चेहरेधारी इस सच को नकार सकते हैं कि कन्हैया जिस जेएनयू छात्र संघ का अध्यक्ष है उसी में यह भडकाऊ नारे नहीं लगे? : 'कितने अफजल मारोगे, घर घर से अफजल निकलेगा... भारत तेरे टुकडे होंगे, इंशा अल्ला... इंशा अल्ला... भारत की बर्बादी तक, जंग रहेगी, जंग रहेगी।'
आम आदमी को रोष और आक्रोश की आग में झुलसा देने वाले इन नारों के पक्ष में चाहे कितनी भी दलीले दी जाएं, कन्हैया को बेकसूर, नादान, भोला और मासूम बताया जाए, लेकिन इस कलम को यह कतई मंजूर नहीं। सच को छुपाना भी छल है, देश से गद्दारी है। ऐसा तो हो नहीं सकता कि वह इन नारों को ईजाद करने वालों और गुंजाने वालों से अनभिज्ञ हो। कन्हैया की तस्वीर को येन-केन-प्रकारेण भावी नेता के फ्रेम में सजाने को आतुल नक्सलवादियों के हितैषी बुद्धिजीवी अपने होश खो चुके लगते हैं या फिर साजिशन आखें बंद किये हैं। सजग देशवासी यह कैसे भूल सकते हैं कि जेएनयू के कारण देश के अन्य विश्वविद्यालओं के छात्र भी उत्तेजक और अलगाववादी नारेबाजी पर उतर आये। उन्हें भी आतंकी याकूब मेनन, मकबूल और अफरोज बेगुनाह नजर आने लगे। उसके बाद तो जैसे सिलसिला सा चल पडा। जेएनयू के बाद जादवपुर विश्वविद्यालय में छात्रों की भीड के द्वारा यह नारे लगाना... 'हर अफजल बोले आजादी, गिलानी बोले आजादी, हम छीन के लेंगे आजादी- आखिर कौन से सच और सोच को दर्शाता है? ...इन्हें प्रेरणा तो कन्हैया के विश्वविद्यालय से ही मिली। इन नारों को उछालकर देश का वातावरण बिगाडने की कोशिश से इंकार तो नहीं किया जा सकता।
कौन राष्ट्रद्रोही है और कौन देशप्रेमी... इस सवाल में उलझने की बजाय यह जानने-समझने की भरसक कोशिश की जानी जरूरी है कि ऐसे हालातों के बनने और बनाने के पीछे कौन सी बाहरी और अंदरूनी ताकतें काम कर रही हैं। आस्तीन के सांपों को तो हर हालत में कुचला ही जाना चाहिए। हवा में हाथ उछालने, गुस्सा दर्शाने और फतवे जारी करने से कुछ भी हासिल नहीं हेने वाला। इससे तो देश के दुश्मनों के हौसले और बुलंद होंगे। उनके हितैषी और खुद वे भी यही तो चाहते हैं। कन्हैया जैसे ही जमानत पर बाहर आया तो उसके कट्टर विरोधी पोस्टरबाजी पर उतर आये। पूर्वांचल सेना नाम के संगठन की ओर से लगाए गए पोस्टर में कन्हैया को गोली मारने वाले को ११ लाख रुपये का इनाम देने का ऐलान कर उत्तेजना और सनसनी फैलाने की भरपूर कोशिश की गयी। वहीं बदायूं के भाजपा नेता कुलदीप ने कन्हैया की जीभ काटने वाले को पांच लाख के पुरस्कार से नवाजने की घोषणा कर भारत के टुकडे करने के सपने देखने वाले अफजल प्रेमियों के सीनों को और चौडा कर दिया। एक तरफ जहां कन्हैया पर जुबानी हमलों के बारुद दागे जा रहे थे वहीं दूसरी तरफ लुधियाना की रहने वाली पंद्रह साल की जाह्नवी ने कन्हैया को खुली बहस की चुनौती देकर नारेबाजों के खिलाफ गुस्से में तमतमाते भारतीयो को आइना दिखाया कि यह वक्त होश में रहने का है, बेहोश होने का नहीं। दसवीं की पढाई कर रही इस छात्रा को कन्हैया के द्वारा प्रधानमंत्री की खिल्ली उडाना कतई रास नहीं आया। उसका मानना है कि कन्हैया और उसका गिरोह राजनीति से प्रेरित होकर प्रधानमंत्री और देश की साख को बट्टा लगाने पर तुला है।
नरेंद्र मोदी भारत वर्ष के प्रधानमंत्री हैं न कि भाजपा के। कन्हैया जैसे लोग भाजपा के खिलाफ कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। अभिव्यक्ति की उन्हें पूरी आजादी है, लेकिन देश के प्रधानमंत्री का अपमान कतई बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। कन्हैया वक्तृत्व कला में माहिर है। राजनीतिक दलों को ऐसे चेहरे हमेशा लुभाते रहे हैं। इसलिए उसे अपने-अपने जाल में फंसाने की पूरी तैयारियां हो चुकी हैं। राजनेता हमेशा अपना फायदा देखते हैं। वोटों के लालच में देश भी दांव पर लग जाए तो उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। अपने मन-मस्तिष्क के दरवाजों और खिडकियों पर ताले जड चुकी मुखौटेबाज मतलबपरस्तों की टोली क्या निम्न पंक्तियों के अर्थ को समझने की कोशिश करेगी? :
'वो दौर भी देखा है
तारीख की आंखों ने
लम्हों ने खता की थी
सदियों ने सज़ा पायी।'

Thursday, March 3, 2016

सत्ता का अहंकार, कैसे-कैसे चाटुकार

कल एक तस्वीर पर नजर पडी। बस गौर से देखता ही रह गया। एक सत्तर-पचहत्तर वर्षीय वृद्ध कांग्रेस नेता ज्योतिरादित्य सिंधिया के चरणों में झुके हैं और सिंधिया का हाथ आशीर्वाद देने की गर्वीली मुद्रा में वृद्ध के कंधे पर हैं। मन में विचार आया कि अपने बाप-दादा की उम्र के बुजुर्ग से अपना पैर पकडवाने में सांसद सिंधिया को कुछ शर्म-वर्म भी आयी होगी या यह सब उनकी सामंती आदत में शुमार है। उम्रदराज लोगों को अपने कदमों में झुकाते रहो और खुद के राजा-महाराजा होने के जन्मजात अहंकार में डूबे रहो। उम्रदराज लोगों के द्वारा नेताओं के चरण छूने, जूता पहनाने और उनके पैरों पर माथा टेकने की अनेकों तस्वीरें देखने में आती रहती हैं। इन नतमस्तक होने वालों में अधिकांश असहाय और गरीब भारतवासी होते हैं। जिनकी कहीं नहीं सुनी जाती और वे नेताओं के दरबार में बहुत उम्मीदों के साथ खिंचे चले आते हैं, लेकिन यहां भी उन्हें कमतर होने का अहसास कराया जाता है। ऐसा भी नहीं है कि सभी झुकने वाले सिर बेबसों और मजबूरों के होते हैं। कई शातिर भी राजनेताओं के समक्ष नतमस्तक होने की कलाकारी दिखाते हुए अपने स्वार्थ सिद्ध करने में सफल, तो कभी असफल हो जाते हैं। ऐसी हैरतअंगेज हकीकतों की लम्बी फेहरिस्त है...। पिछले दिनों दलितो की तथाकथित मसीहा मायावती के पैरों को छूती एक महिला की तस्वीर जब अखबारों और सोशल मीडिया में छायी तो लोगों को कतई हैरानी नहीं हुई। भाग्यवान मायावती के लिए यह कोई नयी बात नहीं थी। उनकी चरणवंदना को लालायित रहने वालों में प्रतिस्पर्धा चलती रहती है। वे किसी भी तरह से बहन जी के समीप पहुंचने और उनकी नजरों में आने को बेचैन रहते हैं। कुछ तो इस भ्रम में रहते हैं कि उनका आशीर्वाद उन्हें फर्श से अर्श तक पहुंचा सकता है। वे रंक से राजा बन सकते हैं, लेकिन इस बार तो जैसे धमाका हो गया। महिला तस्वीर को छुपाकर नहीं रख पायी। शायद वह प्रचार पाने की जल्दी में थी। बहन जी ने चरण छूती तस्वीर को जगजाहिर करने के लिए न केवल उस महिला को फटकारा, अपनी बहुजन समाज पार्टी से भी बाहर का रास्ता दिखा दिया। उनके इस हिटलरी फैसले ने महिला को अपना मुंह खोलने को विवश कर दिया। महिला का धमाकेदार बयान आया कि वह लाखों रुपये की थैलियां बहन जी को अर्पित कर चुकी हैं। उसे विधानसभा की टिकट देने का आश्वासन दिया गया था। इसलिए उसने बहन जी की मांग के अनुसार धन अर्पण करने में कोई कमी नहीं रखी। चरण छूकर उसने टिकट देने के वायदे के लिए धन्यवाद और आदर का जो प्रदर्शन किया था उसी की तस्वीर फेसबुक पर डाली गयी थी। घूमते-घुमाते यह तस्वीर देशभर के अखबारों में छप गयी। इसमें मेरा क्या दोष है?
तामिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता के चरणों में लोटपोट होने वाले भक्तों की भी कितनी तस्वीरें मीडिया में जगह पाती रहती हैं। यह मीडिया का ही कमाल है कि खामोश तस्वीरें भी बोलने लगती हैं और दबा-छिपा कडवा सच एकाएक बाहर आ जाता है। मायावती पर धन लेकर चुनावी टिकटें बांटने के संगीन आरोप लगना कोई नयी बात नहीं है। मायावती ही क्यों देश के लगभग हर राजनीति दल पर मोटी दक्षिणा लेकर धनवानों को चुनावी मैदान में उतारने का हो-हल्ला मचता रहता है, लेकिन इसे भी लोकतंत्र की मजबूरी और जरूरत मानकर खामोशी की चादर तान ली जाती है। बेचारे समर्पित नेता और कार्यकर्ता हाथ मलते रह जाते हैं और खरीददारों की मायावी ताकत कहां से कहां पहुच जाती है। यही वजह है कि आज देश की राजनीति में थैलीशाहों का वर्चस्व है। चंद गरीबों की ही देश और प्रदेशों की सत्ता में नाममात्र की भागीदारी है। जिनकी जेबें खाली होती हैं उनके लिए चुनाव लडना आकाश के तारे तोडने की कोशिश जैसा है। दरअसल, उनके लिए तो 'न नौ मन तेल होगा, न राधा नाचेगी' वाली नौबत ला दी जाती है। यानी जिनके पास भरपूर तेल होता है वे नाचते भी हैं और नचवाते भी हैं।
धन और लोकप्रियता की माया भी बडी अपरंपार है। कभी-कभी तो कुख्याति, ख्याति को मात दे देती है और दस्यु सुंदरी फूलन देवी लोकसभा का चुनाव जीतकर लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर...संसद भवन में पहुंच जाती है। देश की राजनीति में शातिर दिमागधारियों की कमी नहीं है। जो कहते कुछ हैं, करते कुछ हैं। सत्ता ही उनका ईमानधर्म है। यह चालाक चेहरे कहीं पर निगाहें तो कहीं पर निशाना की कहावत को चरितार्थ करते हुए अपनी चालें चलते रहते हैं। अभिनेता-सांसद शत्रुघ्न सिन्हा को बयान पर बयान देने का महारोग है। उन्हें लगता है कि देशवासी उनकी तथाकथित विद्वता से अवगत होने को सतत आतुर रहते हैं। उनका एक ताजा-ताजा बयान है कि फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को राष्ट्रपति बनाया जाए। उन्होंने जिस अंदाज में यह हास्यापद सुझाव रखा है उससे तो यही लगता है कि राष्ट्रपति के चुनाव में यारों की सिफारिश का अहम रोल है। वे जो कहेंगे उसे फौरन मान लिया जायेगा। यह वही शत्रुघ्न हैं जो खुद मोदी सरकार में मंत्री बनने के लिए नाक और ऐडियां रगडते-रगडते थक गये हैं और अब अपने हम निवाला, हम प्याला को राष्ट्रपति के सिंहासन पर विराजमान होते देखना चाहते हैं। अपनी ही पार्टी के नेताओं के द्वारा लगातार दुत्कारे जाने वाले इस भाजपा सांसद ने शिगूफेबाजी की सभी हदें पार कर दी हैं। यह बताने की जरूरत नहीं है कि राजनीति के वो धुरंधर जो वर्षों से राष्ट्रपति भवन में पहुंचने को बेचैन हैं वे किसी दूसरे की दाल नहीं गलने देंगे। चाहे वो रतन टाटा ही क्यों न हों, जो निर्विवाद और बेदाग हैं। रतन टाटा को राष्ट्रपति पद के लिए सर्वोत्तम बताने वालों को किसी शंका के कटघरे में खडा नहीं किया जा सकता। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी उन्हें पसंद करते हैं। इसमें दो मत नहीं हो सकते कि रतन टाटा, अंबानी और अदानी जैसे उद्योगपतियों से अलग हैं। विवादों से दूर रहने वाले रतन टाटा को भारत की शान माना जाता है। सन २००० में पद्मभूषण और २००८ में पद्म विभूषण से नवाजे जा चुके इस गौरवशाली उद्योगपति को २०१२ में अमेरिका के रॉक फेलर फाउंडेशन ने लाइफटाइम एचिवमेंट अवार्ड से सम्मानित किया। रतन टाटा सही मायने में जनसेवा में विश्वास रखने वाले परोपकारी और दानी स्वभाव की आदर्श शख्सियत हैं। अपने उद्योग-व्यापार को बढाने के साथ-साथ देशवासियों की चिन्ता करने और उनके विकास के प्रति समर्पित रहनेवाले रतन टाटा ने अपने ६५ फीसदी से अधिक शेयर चैरिटेबल ट्रस्ट में निवेश कर यह दर्शा दिया कि वे उन पूंजीपतियों में शामिल नहीं हैं जो देश में कमायी गयी धन-दौलत को सुख-सुविधाओं का अंबार खडा करने में लुटाकर चैन की नींद सोते रहते हैं। लाखों लोगों को नौकरी और रोजगार उपलब्ध कराने वाले रतन टाटा की राष्ट्रपति की उम्मीदवारी पर सजग देशवासियों को तो कोई आपत्ति नहीं होगी, यकीनन वे गर्वित और हर्षित होंगे, लेकिन राजनीति शायद ही ऐसा होने दे। उसे विजय माल्या जैसे विलासितापूर्ण जीवन जीने वालों से कोई परहेज नहीं होता जो सरकारी बैंकों का अरबो-खरबों रुपया खा-पचा जाते हैं। राजदलों के मुखिया ऐसे भोगी और विलासी लोगों को विधानसभा और राज्यसभा का सदस्य बनवा कर गर्व महसूस करते हैं।