Thursday, December 30, 2010
शराब, युवा और कलम के सिपाही
Thursday, December 23, 2010
कब तक मूकदर्शक बने रहेंगे नरेंद्र मोदी?
Thursday, December 16, 2010
हुक्मरानों की मक्कारी
Thursday, December 9, 2010
कैसी-कैसी बैसाखियां
Thursday, December 2, 2010
राजधानी दिल्ली के दाग़
Thursday, November 25, 2010
यह जो जिंदगी की किताब है...
Thursday, November 18, 2010
कुछ तो शर्म करो...
Thursday, November 11, 2010
अब नहीं तो कब सुधरोगे?
Wednesday, November 3, 2010
कौन सुलगाएगा बुझी हुई बाती?
'आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं।'
अटल जी की कविता की उपरोक्त पंक्तियां पढ कर यह आभास तो होता है कि वे देश के हालात को बदलना चाहते हैं। पर...। देश की जनता ने तो उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करवा कर बहुत कुछ कर गुजरने का पूरा अवसर मुहैया करवाया था पर वे ही थे जो कुछ नहीं कर पाये! आखिर किस से बुझी बाती सुलगाने, दीया जलाने और अंधियारा भगाने की उम्मीद की जाए?
Thursday, October 28, 2010
इन खिलौनों को तोडना ही होगा
Thursday, October 21, 2010
कालिख में लिपटी कांग्रेस
Thursday, October 14, 2010
आज की राजनीति का सच
Thursday, October 7, 2010
इंसान की औलाद...
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...।
Thursday, September 30, 2010
बाहुबलियों को सबक सिखाने का सही व़क्त
Friday, September 24, 2010
असली परीक्षा की घडी है यह
Thursday, September 16, 2010
बाजारू चेहरे
Thursday, September 9, 2010
अफ्रीका बनने के खतरों से जूझता हिंदुस्तान
Thursday, September 2, 2010
चित्र-विचित्र
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महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में कुछ बस्तियां ऐसी हैं जहां गंदगी का साम्राज्य रहता है। बरसात में तो साफ-सफाई लगभग नदारद हो जाती है। ऐसे में जनसेवकों और नेताओं का जागना और रोष व्यक्त करना जायज है। लेकिन बीते सप्ताह शिवसेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने शहर में फैली गंदगी और उससे पनपती बीमारियों को लेकर अपना रोष जताने का तरीका ही बदल डाला। महानगर पालिका की लापरवाही के प्रति शहरवासियों में भी खासा रोष था। पर शिवसेना वाले अपना रोष व्यक्त करने के लिए जब मनपा के अधिकारी रिजवान सिद्घिकी के केबिन में पहुंचे तो उनके हाथ में सुअर का एक छोटा-सा बच्चा था। उन्होंने सुअर के बच्चे को सिद्धिकी की टेबल पर रखकर जिस तरह से नारेबाजी की उससे वहां का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। यह तनाव महानगर पालिका तक ही सीमित नहीं रहा। इससे निश्चय ही मुस्लिम समाज की भावनाएं भी आहत हुए बिना नहीं रहीं। यह तो अच्छा हुआ कि साम्रदायिक सौहाद्र्र में रचे-बसे शहर के वातावरण को सजग और जागरूक नागरिकों ने बिगडने नहीं दिया लेकिन खतरा तो पैदा कर ही दिया गया था...।
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३१ अगस्त २०१०, दोपहर का वक्त। गोंदिया पंचायत समिति भवन के सभागृह में मीटिंग का दौर चल रहा था। इस मीटिंग में एक महिला कर्मचारी भी शामिल थीं। मधुकर डी.खोब्रागडे नामक अधिकारी पर इस महिला को देखते ही सेक्स का भूत सवार हो गया और उसने महिला को धर दबोचा। बेचारी महिला हक्की-बक्की रह गयी पर अधिकारी ने मर्यादा की सभी सीमाओं को लांघते हुए उसके होंठों को अपने मुंह में दबोच लिया ओर मुंह में रखे गुटखे को उसके मुंह में डालने की निर्लज्ज और घिनौनी हरकत कर डाली। अधिकारी की उम्र साठ वर्ष और महिला कर्मचारी की उम्र चालीस वर्ष के आसपास है। महिला की आबरू लूटने वाला अधिकारी दलित जाति का है और महिला सुवर्ण जाति की। अगर यह मामला उलटा होता तो न जाने कितना हंगामा बरपा हो जाता...। हुडदंगी आसमान सिर पर उठा लेते। वैसे भी इस घटना ने इस तथ्य को फिर से पुख्ता कर दिया है कि हमारे यहां सरकारी नौकरी बजाने वाली महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं और पुरुष कितने बेलगाम। उन्हें किसी मर्यादा और कानून-कायदे का डर नहीं है...।
Thursday, August 26, 2010
आस्था के बाजारीकरण का अखबारी तमाशा
Thursday, August 19, 2010
बात और बंदूक
Thursday, August 12, 2010
निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की ज़िद
Thursday, August 5, 2010
वे वेश्याएं हैं तो तुम क्या हो?
वर्धा में स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय िहंदी महाविद्यालय की साख पर एक बार फिर बट्टा लग गया। इस बार यह बट्टा किसी शराबी-कबाबी ने नहीं बल्कि एक बहुत बडे 'विद्वान' ने लगाया। इस विद्वान पुरुष का नाम है विभूति नारायण राय। राय इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति हैं। यह ओहदा कोई ऐसा-वैसा ओहदा नहीं है। इसकी अपनी एक गरिमा है। वैसे ही जैसी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम और पैगाम की। वर्धा में उनके नाम पर िहंदी महाविद्यालय खोले जाने के पीछे निश्चय ही यह मकसद रहा होगा कि उनकी कर्मभूमि के जरिये देश और दुनिया तक अिहंसा के पुजारी के जनकल्याणकारी संदेश अबाध रूप से पहुंचते रहें, िहंदी भाषा फलती-फूलती रहे और वर्धा का नाम भी रोशन होता रहे। इस महान दायित्व को लेखक विभूति नारायण ने इतनी सूझबूझ और दूर अंदेशी के साथ निभाया कि देश और दुनिया के लोग थू...थू करते रह गये। सजग महिलाओं का आक्रोश इस हद तक जा पहुंचा कि अगर यह बदतमीज उन्हें कहीं मिल जाता तो वे उसे भरे चौराहे पर नंगा कर चूिडयां पहनाने से नहीं चूकतीं। राय खुद को बहुत बडा लेखक समझते हैं। उन्हें अपनी अक्ल और कलम पर बहुत फख्र है। पुलिस अधिकारी रह चुके हैं इसलिए कुछ भी कहने, करने और बकने से बाज नहीं आते। जानते हैं कि कोई भी इनका बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। देश के नामी-गिरामी राजनेताओं तक भरपूर पहुंच रखते हैं इसलिए महिलाओं के बारे में कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। इसी मनचाही आजादी की राह पर उद्दंड सांड की तरह छलांगें लगाते हुए राय ने एक साक्षात्कार में महिला लेखिकाओं के बारे में जहर उगलते हुए कहा है कि ''लेखिकाओं में यह साबित करने की होड लगी है उनसे बडी छिनाल कोई नहीं है... यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक कितने बिस्तरों में कितनी बार हो सकता था...।''महिला लेखिकाओं के बारे में पूरे होशो-हवास के साथ ऐसा गंदा बयान देने वाले विभूति को हर किसी ने लताडा, कोसा और जी भरकर बददुआएं दीं। देशभर में शायद ही ऐसा कोई लेखक और लेखिका बचे होंगे जिन्होंने इस बेलगाम 'पुरुष वेश्या' को दुत्कारा और फटकारा न हो। देश की जानी-मानी लेखिकाओं को वेश्या का दर्जा देने वाले इस दागी शख्स में कुंठा और ईष्या कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वे लेखक हैं और कुछ उपन्यास भी लिख चुके हैं जिन्हें उनकी पाली-पोसी चौकडी के अलावा और किसी ने कभी भी नहीं सराहा। दूसरी तरफ मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, जया जादवानी जैसी कई खुले दिमाग की आजाद ख्याल महिला लेखिकाएं हैं जिन्होंने असंख्य पाठकों में अपनी जगह बनाते हुए लेखन के क्षेत्र में पुरुष लेखकों के वर्चस्व पर जमकर सेंध लगायी है। यही हकीकत विभूति राय जैसे तमाम लेखकों को कचोटती रहती है और उनके अंदर जमा हो चुकी गदंगी बाहर आये बिना नहीं रहती। इधर के वर्षों में कई पुरुष लेखकों की ऐसी पुस्तकें प्रकाशित होकर चर्चा में आयी हैं जो दरअसल में उनकी आत्मकथा ही हैं। अपनी आत्मकथा में लेखकों ने अपने विवाह के पूर्व के इश्कियां किस्सों से लेकर विवाहेतर संबंधों का चटकारे ले-लेकर वर्णन किया है। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने वेश्याओं के कोठों तथा मयखानों में बेसुध होकर अपनी जवानी गलायी और अपनी आत्मकथा में इस मदमस्त अय्याशी का इस तरह से िढंढोरा पीटा जैसे उनसे बडा इस दुनिया में और कोई मर्द पैदा ही नहीं हुआ हो। अपने यहां ऐसे दिलफेंक किस्म लेखक भी हैं जो खूबसूरत लेखिकाओं पर डोरे डालने से बाज नहीं आते और जब असफलता हाथ लगती है तो लेखिकाओं को ही चरित्रहीन घोषित कर देते हैं। ऐसे चरित्रहीन लेखकों के असंख्य अफसाने इतिहास में दर्ज हैं। मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा जैसी यथार्थ लेखन करने वाली जीवंत लेखिकाओं ने जब अपनी आत्मकथा में पुरुषों की इस जगजाहिर प्रवृति पर चोट की तो हंगामा बरपा हो गया। विवाहेतर संबंधों, देह के विभिन्न रिश्तों, असली-नकली प्रेम संबंधों और पुरुषों की नपुंसकता और बेवफायी पर महिला लेखिकाओं का कलम चलाना और भोगे हुए यथार्थ को सामने लाना विभूति राय जैसों को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने महिला लेखिकाओं को वेश्या कहने की जुर्रत कर डाली! वाकई यह कितनी हैरानी की बात है कि ऐसे घटिया और लंपट किस्म के व्यक्ति को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय िहंदी महाविद्यालय वर्धा का उपकुलपति बना दिया गया! विभूति की लंपटता का एक किस्सा कहानीकार महेंद्र दीपक ने भी बयां किया है। दीपक १९७१ से लंदन में बसे हैं। िहंदी के कहानीकार हैं इसलिए स्वाभाविक है कि उनके मन में भारतीय साहित्यकारों के प्रति सम्मान और श्रद्धा कूट-कूट कर भरी हुई थी। गत माह लंदन में एक विशेष साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित हुआ था। इसमें भाग लेने के लिए कुछ साहित्यकारों के साथ विभूति नारायण भी वहां पहुंचे थे। कहानीकार दीपक ने भारतीय लेखकों को अपने घर सादर आमंत्रित किया जिनमें विभूति राय भी शामिल थे। दोपहर का समय था। विभूति पूरी तरह नशे में टुन्न थे। दीपक के घर पहुंचते ही वे सोफे पर लुढक गये। उनकी जवान बहुओं को राय का आंखें फाड-फाड कर ताकना और घूरना बेहद बुरा लगा। किचन में सहायता के लिए पडौस से आयी लडकी ने तो दीपक को यहां तक कह डाला कि दादाजी आप कैसे-कैसे लोगों को घर पर बुलाते हैं? अस्सी वर्षीय लेखक दीपक का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी खुद को इतना अपमानित महसूस नहीं किया था।दीपक की उपकुलपति महोदय से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है इसलिए उन पर अविश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा व्यक्ति इतने गरिमामय ओहदे पर क्यों और कैसे बैठाया गया? अब एक सवाल और भी है कि विभूति नारायण राय का यह घटिया साक्षात्कार जिस पत्रिका ने छापा उसकी इसके पीछे कौन-सी मंशा और मजबूरी थी? हाल ही में िहंदी के कथाकार अवध नारायण मुदगल का साक्षात्कार पढने में आया। पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये जाते हैं उसका खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि १९८२ में उन्हें 'सारिका' पत्रिका के संपादन का दायित्व सौंपा गया था। मालिक चाहते थे कि किसी भी तरह से पत्रिका का सर्कुलेशन बढना चाहिए। दरअसल उन्हें सम्पादक का पद येन-केन-प्रकारेण पत्रिका का सर्कुलेशन बढाने की शर्त पर ही सौंपा गया था। अवध नारायण मुदगल ने अपना दिमाग लडाया। देह व्यापार पर पांच विशेषांक निकालने की घोषणा कर दी। जब पहला अंक बाजार में आया तो पत्रिका की बिक्री में इतना उछाल आया कि मालिक भी दंग रह गये। बाद के अंकों ने तो और भी धमाका किया और सारिका हजारों-हजारों प्रतियों के बडे हुए सर्कुलेशन के साथ हाथों-हाथ बिकने लगी।उपकुलपति विभूति नारायण राय का साक्षात्कार जिस प्रतिष्ठित पत्रिका में छपा है उसका नाम है - नया ज्ञानोदय। इसके संपादक हैं रवींद्र कालिया जो खुद एक स्थापित कथाकार हैं। उन्होंने जुलाई-अगस्त के जो विशेषांक बाजार में उतारे उन्हें नाम दिया गया ''बेवफाई सुपर विशेषांक।'' अगस्त २०१० के विशेषांक में ही िहंदी लेखिकाओं को वेश्या करार देने वाला साक्षात्कार छापा गया है...। एक और अदभुत सच यह भी है कि उपकुलपति और संपादक महोदय दोनों की बीवियां पदमा राय और ममता कालिया भी लेखिकाएं हैं और ममता कालिया तो विभूति की मेहरबानी से महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा में नौकरी भी करती हैं और मोटी तनख्वाह पाती हैं। विभूति नारायण राय और रवींद्र कालिया ने अपनी मनोवृत्ति उजागर कर दी है। यह लोग उस दंभी पुरुष समान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी सामंती सोच आज भी िजंदा है। यह लोग कभी सुधर नहीं सकते। कवियत्री रंजना जायसवाल ने अपनी कविता 'तुम्हारा भय' में ऐसे ही मुखौटेबाजों का असली चेहरा दिखाया है:
रिक्तता भरने के लिए
तुमने चुनी स्त्री
और भयभीत हो गए।
तुमने बनाए
चिकें...किवाड...परदे
फिर भी तुम्हारा डर नहीं गया
तुमने ईजाद किए
तीज-व्रत पूजा-पाठ
नाना आडंबर
मगर डर नहीं गया
तुमने तब्दील कर दिया उसे
गूंगी मशीन में
लेकिन संदेह नहीं गया
जब भी देखते हो तुम
खुली खिडकी या झरोखा
लगवा देते हो नई चिकें
नए किवाड-नए पर्दे
ताकि आजादी की हवा में
खुद को न पहचान ले स्त्री।