Thursday, December 30, 2010

शराब, युवा और कलम के सिपाही

शाही ब्याह के अवसर पर अपने रिश्तेदारों, मित्रों, स्नेहियों और शुभचिं‍तकों को सादर आमंत्रित करने के लिए छपवायी जाने वाली निमंत्रण पत्रिका भी काफी मायने रखती है। बदलते समय के साथ-साथ इसमें भी तरह-तरह के प्रयोग होते रहते हैं। वैसे यह भी हकीकत है कि अधिकांश निमंत्रण पत्रिकाओं में ऐसा कोई आकर्षण नहीं होता जिसे वर्षों तक याद रखा जा सके। दरअसल इस महत्वपूर्ण कार्य को महज रस्म अदायगी मान लिया जाता है और किसी पुराने निमंत्रण कार्ड की नकल कर नया निमंत्रण कार्ड तैयार करवा लिया जाता है। इसलिए जिन्हें इनके जरिये निमंत्रित किया जाता है वे कार्यक्रम की तारीख और स्थल की जानकारी पाने के लिए पत्रिका पर सरसरी नजर दौडाते हैं और फिर उसे किसी कोने के हवाले कर देते हैं।बीते सप्ताह मुझे शहर के युवा पत्रकार मयूर रंगारी की शादी की निमंत्रण पत्रिका मिली। संयोग से उस समय मैं फुरसत में था इसलिए पत्रिका को ध्यान से पढने लगा। पत्रिका में तथागत बुद्ध के शाश्वत संदेश को पढने के बाद मेरे अंदर काफी देर तक विचार-मंथन चलता रहा। सर्वप्रथम मैं चाहता हूं कि आप भी इस संदेश को अवश्य पढें:हे मानवतुम शेर के सामने जाते हुए मत डरना,क्योंकि वह शौर्य की पहचान है।तुम तलवार के नीचेसिर रखने से मत घबराना,क्योंकि वह शूरता की निशानी है।तुम आग में कूदने से मत हिचकिचाना,क्योंकि वह वीरता की परीक्षा है।तुम पर्वत की चोटी से कूद पडनाक्योंकि वह पराक्रम कीपराकाष्ठा है।लेकिन तुम शराब सेसदा भयभीत रहनाक्योंकि वह पाप, गरीबी और अनाचार की जननी है...।मेरे प्रिय पाठकों के मन में यकीनन यह जिज्ञासा उठ सकती है कि उपरोक्त पंक्तियों में ऐसी कौन-सी नयी बात है जिस पर इतना चिं‍तन किया जाए। दरअसल बात उस पत्रकार बिरादरी की है जो नशे की गुलाम हो चुकी है। कितने तो ऐसे हैं जो चौबीस घंटे टुन्न रहते हैं। बिना पिये उनकी कलम और जुबान ही नहीं चलती। कुल मिलाकर आज की तारीख में पत्रकारों की जो छवि बन चुकी है उसे सुखद तो कतई नहीं कहा जा सकता। लोगों के मन में यह धारणा भी घर कर चुकी है कि अधिकांश पत्रकार अपने मिशन से भटक चुके हैं। शराब और कबाब उनकी कमजोरी बन चुके हैं। युवाओं को पत्रकारिता इसलिए भी लुभाती है क्योंकि यहां पर मुफ्त की शराब की कोई कमी नहीं होती। बडे-बडे उद्योगपतियों, बिल्डरों और राजनेताओं की पत्रकार वार्ताओं में दारू और मुर्गे का जो जश्न चलता है वह नये पत्रकारों को एक ऐसी नयी दुनिया ले जाकर छोड देता है जहां से वे वापस नहीं आना चाहते। यह शराब ही है जो न जाने कितने पत्रकारों को भटका चुकी है और स्वर्गवासी बना चुकी है। यह सिलसिला अनवरत चलता चला आ रहा है। कुछ ही ऐसे होते हैं जो पत्रकारिता के तयशुदा लक्ष्य से नहीं भटकते। उन्हें शराब, कबाब, शबाब और लिफाफों की महक अपनी गिरफ्त में नहीं ले पाती। ऐसे में जब मैंने एक युवा पत्रकार की शादी की निमंत्रण पत्रिका में शराब के असली चरित्र को उजागर करने वाली उपरोक्त पक्तियां पढीं तो अचंभित रह गया। मन में यह विश्वास भी जागा कि अभी सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। उम्मीद की किरणें बची हुई हैं। देश के युवा वर्ग को शराब की बुराइयों से अवगत कराने और इससे दूर रहने की प्रेरणा जितने प्रेरक ढंग से पत्रकार दे सकता है और कोई नहीं।राजनेताओं और सरकार से तो ऐसी कोई उम्मीद करना ही व्यर्थ है। उन्हें तो येन-केन-प्रकारेण अपना खजाना भरने की लगी रहती है। इनके लिए यह तथ्य कोई मायने नहीं रखता कि देश के युवाओं को शराब हिजडा बना रही है। जी हां हाल ही में डॉक्टरों के दल ने सर्वेक्षण कर सनसनीखेज खुलासा किया है कि ज्यादा शराब पीने के कारण युवकों की सेक्स की शक्ति कम होती जा रही है। वे लगभग नकारा होते जा रहे हैं। मुंबई, औरंगाबाद, पुणे और सोलापुर के युवाओं से की गयी अंतरंग बातचीत के बाद यह तथ्य उजागर हुआ है कि चालीस प्रतिशत से ज्यादा युवाओं ने अत्याधिक शराब को गले लगाने के कारण अपनी जिं‍दगी बरबादी के कगार पर पहुंचा दी है। इन युवाओं की पत्नियों से चर्चा के बाद यह निष्कर्ष निकला है कि अपने पति के घोर शराबी होने के कारण वे काफी चिं‍तित और परेशान रहती हैं। पति के मुंह से आने वाली शराब की गंदी बदबू उन्हें कतई बर्दाश्त नहीं होती। शराब पीने के बाद पति का बदला हुआ रवैय्या और अमानवीय व्यवहार भी काफी आहत करने वाला होता है। ऐसे में कई महिलाएं पथभ्रष्ट होने को विवश हो जाती हैं। उन्हें जीवनपर्यंत 'चरित्रहीन' के कलंक के साथ जीना-मरना पडता है। जिसके साथ सात फेरे लिये उसी की नशाखोरी की लत के चलते अवैध संबंधों को मजबूरन ढोने की यातना तक भोगनी पडती है।यह हमारे उस समाज का चित्र है जहां पहुंचे हुए साधु-संन्यासी बुद्धिजीवी और चिं‍तक रहते हैं। शराब इंसान का नैतिक पतन तो करती है साथ ही न जाने कितने अपराधों और हत्याओं की जननी भी है। नागपुर शहर में सन २०१० में लगभग ९० हत्याएं हुई। इन अधिकांश हत्याओं के पीछे शराब और अवैध संबंधों का बहुत बडा योगदान रहा है। पर सरकार को मूकदर्शक बने रहने में ही अपनी भलाई नजर आती है। शहर मयखानों में कैसे तब्दील होते चले जा रहे हैं उसका सटीक उदाहरण है महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर। देश के हृदय स्थल में बसी इस संतरा नगरी में वर्तमान में ५७५ बीयर बार, ११३ अंग्रेजी वाइन शॉप, २७५ देसी शराब दुकान और ६ क्लब हैं। यह तो हुई वैध मयखानों की बात। चालीस लाख से ऊपर की जनसंख्या वाले इस शहर में शराब के अवैद्य ठिकानों की तादाद और भी ज्यादा है। इनकी पूरी लिस्ट पुलिस और आबकारी विभाग के कमाऊ पूतों की जेब में रहती है।महाराष्ट्र सरकार को शराबियों से कुछ ज्यादा ही लगाव है। उससे उनकी तकलीफ देखी नहीं जाती। यही वजह है कि अब तो नागपुर में ही सैकडों बीयर शॉप खुल रही हैं जहां पर कॉलेज और स्कूलों के छात्र-छात्राओं को भी निस्संकोच बीयर गटकते हुए देखा जा सकता है। जिन लडके-लडकियों की जेबें उन्हें यह शौक पूरा करने की इजाजत नहीं देतीं वे भी आपस में चंदा जमाकर बीयर शॉपी के सामने शान से लाइन लगाये खडे नजर आते हैं। सियासियों के लिए यह देश की तरक्की की निशानी है। मयूर रंगारी जैसे कुछ सजग पत्रकार इस बर्बादी के मंजर को देखकर चिं‍तित और दुखी होते हैं और महापुरुषों के संदेश छपवाते और कलम चलाते हैं। इतिहास गवाह है कि ऐसों की पहल और अनुसरण से ही सोये हुए लोग जागते हैं और धीरे-धीरे कारवां बनता चला जाता है...।

Thursday, December 23, 2010

कब तक मूकदर्शक बने रहेंगे नरेंद्र मोदी?

आज से तीस वर्ष पहले तक कांग्रेस ही राष्ट्रपिता महात्मा गांधी पर अपना एकाधिकार समझती थी। पर इधर के कुछ वर्षों से देश की दीगर राजनीतिक पार्टियां भी इस राष्ट्रीय संत के प्रति अपना अधिकार और जुडाव दर्शाने लगी हैं। दरअसल उनका भी इस हकीकत से साक्षात्कार हो गया है कि अगर देशभर के मतदाताओं के दिल में जगह बनानी है तो महात्मा गांधी के नाम का सहारा लेना ही होगा। कांग्रेस ने गांधी के नाम को भुना कर वर्षों तक देश और प्रदेशों में भरपूर सत्ता-सुख भोगा है। जब भाजपा जैसी पार्टियां गांधी के नाम की माला जपती हैं तो कांग्रेस अंदर ही अंदर कसमसा कर रह जाती है, पर कुछ कह और कर नहीं पाती। यह कांग्रेस ही है जिसने राष्ट्रपिता के नाम को अमर रखने के लिए क्या-क्या नहीं किया। देश भर में उनके नाम पर असंख्य अस्पताल, स्कूल-कॉलेज खुलवाये। बाग-बगीचों और चौक-चौराहों का नामकरण भी किया। दरअसल कांग्रेस ने यह सब कुछ अपना वोट बैंक बढाने के लिए किया। देश की अन्य राजनीतिक पार्टियां अंधी नहीं हैं। कांग्रेस का गणित समझने में उन्हें ज्यादा देरी नहीं लगी। वे भी महात्मा गांधी के नाम की माला जपने लगीं। यह सिलसिला अब हर कहीं उफान पर है। पर गांधी के नाम का जितना फायदा कांग्रेस को मिला उतना और किसी अन्य पार्टी के नसीब में नहीं आया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी तमाम नशों के खिलाफ थे। उनका मानना था कि शराब इंसान की बरबादी की असली जड है। देश के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई सच्चे गांधीवादी थे इसलिए उन्होंने गुजरात में नशाबंदी को अमलीजामा पहनाया। इसके पीछे उनका यह उद्देश्य भी था कि बापू की जन्म स्थली गुजरात नशों और नशेडि‍यों से मुक्त रहे। यह एक तरह से उनकी तरफ से गांधी बाबा को एक श्रद्धांजलि थी और देश की जनता को संदेश भी था कि सच्चे कांग्रेसी अहसान फरामोश नहीं होते। गुजरात में नशाबंदी लागू हुए वर्षों बीत गये। मोरारजी देसाई जैसे गांधीवादी भी नहीं रहे। नकलियों और नकलचियों की अच्छी खासी जमात ने कांग्रेस पर कब्जा जमा लिया। पर सवाल यह भी उठता है कि क्या वास्तव में गुजरात में दारू बंदी के अभियान को पूरी तरह से सफलता मिल पायी? क्या बापू की जन्म स्थली में शराब नहीं मिलती और बिकती? इन पंक्तियों के लेखक ने बीते सप्ताह अहमदाबाद और सूरत में कुछ दिन के प्रवास के दौरान जो नजारा देखा उससे स्पष्ट हो गया है कि गुजरात में दारू बंदी महज ढकोसला है। नेताओं और नौकरशाहों की जेबों को लबालब करने वाला सहज उपलब्ध माध्यम है।यह भी कडवा सच है कि औद्योगिक और व्यापारिक नगरी सूरत में जिस तरह से खुलेआम शराब बिकती है उससे शासन और प्रशासन का चेहरा बेनकाब हो जाता है। इस शहर के गोलवाड इलाके में चौबीस घंटे शराब बिकती है। मुख्य सडक से जुडी गलियों में सैकडों घर 'बार' में तब्दील हो चुके हैं। शराब के शौकीन जैसे ही यहां प्रवेश करते हैं शराब बेचने वाले चेहरे उन्हें निमंत्रण देने लगते हैं। दरअसल इन लोगों ने अपने-अपने घरों में विभिन्न किस्म की शराब तथा बीयर के साथ सोडा और नमकीन आदि की भरपूर व्यवस्था की हुई होती है। महिलाएं भी साकी का रोल निभाती देखी जाती हैं। इन गलियों में उन ठेलों की भरमार रहती है जहां पर अंडे, आमलेट और अन्य मांसाहारी खान-पान का प्रबंध रहता है। भीड इतनी अधिक रहती है कि सडक पर चलना भी मुश्किल हो जाता है। बडे ही सुनियोजित तरीके से वर्षों से चले आ रहे ड्राई प्रदेश में अवैध शराब के इस धंधे पर किसी भी सरकार ने अंकुश लगाने की पहल नहीं की! बताते हैं कि कई पुराने और नये नेता इसी धंधे की बदौलत आबाद हैं। उनकी राजनीति की दुकान की बरकत बनी हुई है। पुलिस वाले भी यहां आते हैं। अपना काम कर निकल जाते हैं। वैसे बताने वाले यह भी बताते हैं कि अधिकांश पुलिस वाले यहां दस्तक देने में घबराते हैं। पुरानों ने यहां पर अपनी धाक जमा रखी है। यही हाल पत्रकारों का भी है। अवैध शराब बेचने वालों में प्रतिस्पर्धा भी चलती रहती है। मार-काट भी होती रहती है। हाल ही में एक शख्स को मौत के घाट उतार दिया गया।जिस तरह से सूरत के गोलवाड में चौबीस घंटे खुलेआम शराब मिल जाती है, वैसे ही हाल लगभग पूरे गुजरात के हैं। बाहर से आने वाले व्यापारी यहां की चखने के बाद बडी शान से अपने शहरों में जाकर बताते हैं कि कहने को तो गांधी के गुजरात में शराब पर पाबंदी हैं, पर ब्लैक में जितनी चाहो उतनी ले लो...। शासन और प्रशासन की नाक काटती यह शराब मंडी इतनी अधिक प्रचारित हो चुकी है कि दूसरे प्रदेशों से आने वाले व्यापारियों को इधर-उधर दिमाग खपाने की जरूरत नहीं पडती। सूरत और अहमदाबाद में प्रति दिन लाखों कपडे और हीरे के व्यापारी आते हैं। स्थानीय व्यापारियों की भी बहुत बडी संख्या है जिनकी रात शराब के बिना नहीं कटती। जानकारों का कहना है कि सूरत, अहमदाबाद जैसे महानगरों में ही इतनी अवैध शराब बिकती है, जिसका साल भर का आंकडा अरबों-खरबों में है। दमन भी करीब है, जहां से बेहिसाब शराब ट्रकों, जीपों और अन्य वाहनों में भरकर लायी जाती है और गुजरात के कोने-कोने में पहुंचायी जाती है। कहा जाता है कि नरेंद्र मोदी ने इस अरबों-खरबों के अवैध धंधे को रोकने के प्रयास किये थे, पर उन्हें भी अपने हाथ वापिस खींच लेने पडे। उन्हीं की पार्टी के भूतपूर्व मुख्यमंत्री और मंत्रियों के तार इस गोरखधंधे के खिलाडि‍यों से अंदर तक वर्षों से जुडे हैं। कई नये-पुराने कांग्रेस के खिलाडी भी बहती गंगा में हाथ धोते चले आ रहे हैं। चुनाव लडने और दीगर शौक-पानी पूरे करने के लिए नेताओं और गुंडे-बदमाशों के लिए तो यह सदाबहार बैंक है, जहां से वे जब चाहें माल वसूल सकते हैं। ऐसे में अब, जब मोदी तीसरी बार गुजरात के मुख्यमंत्री बन गये हैं, तब उनसे यह आशा तो की जा रही है वे गुजरात के माथे पर लगे इस कलंक को धोने की हिम्मत दिखाएं। शराब बंदी के ढोंग के ढोल की चीरफाड कर कोई ऐसा कदम उठायें कि अभी तक जो अथाह धन राशि नेताओं, नौकरशाहों और माफियाओं की तिजोरी में जाती रही है, वह शासन के खाते में जमा हो। वैसे भी अब गुजरात में शराब बंदी के क्या मायने हैं? जब बंदी होने के बाद भी धडल्ले से शराब बिकती चली आ रही है, तो 'शराब बंदी' के इस ढोंग को बरकरार रखने का कोई तुक नहीं दिखता। यह भी तय है कि मोदी जब गुजरात से शराब बंदी हटाने का ऐलान करेंगे, तो तूफान उठेगा कि यह तो बापू का सरासर निरादर है। महात्मा गांधी का निरादर करने वाले ही ज्यादा शोर मचायेंगे। सौदागर किस्म के राजनीतिज्ञों का असली धर्म-कर्म ही यही है। वैसे भी यह पूरा देश महात्मा गांधी की कर्मस्थली रहा है। जब पूरे देश में शराब बिकती है और हर प्रदेश की तिजोरी में अरबों-खरबों रुपये का राजस्व जमा होता है तो फिर गुजरात क्यों वंचित रहे? गुजरात के मुख्यमंत्री के लिए यह अग्नि परीक्षा है। उनके पास दो ही रास्ते हैं या तो गुजरात में शराब पर पूरी तरह से पाबंदी लगवायें या फिर दूसरे प्रदेशों की तरह वैध शराब बिकने के रास्ते खोल दें। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि नरेंद्र मोदी को इस सारे गोरखधंधे की जानकारी न हो। गुजरात में धडल्ले से अवैध शराब का मिलना और बिकना एक तरह से उस नरेंद्र मोदी के माथे पर कलंक है जो ईमानदारी से प्रदेश के विकास में लगे हुए हैं। क्या नरेंद्र मोदी इस कलंक को नहीं धोना चाहेंगे?

Thursday, December 16, 2010

हुक्मरानों की मक्कारी

अक्ल के अंधों को भले ही हकीकत समझ में न आ रही हो पर भारत वर्ष का हर सजग नागरिक देख और समझ रहा है कि लोकतंत्र की जडों को खोखला करने और उसमें तेजाब डालने वाले हाथों की गिनती बढती ही चली जा रही है। देश का हित चाहने वाले आम आदमी के हाथ से बहुत कुछ छूटता चला जा रहा है। सत्ता के कंधों पर सवार दौलतमंद देश को नीलामी की मंडी में तब्दील करने में सफल होते दिखायी दे रहे हैं। जिन्हें देश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी है वे भी लगभग समझौतापरस्त हो चुके हैं। इस परिपाटी के खिलाफ यदा-कदा कोई आवाज उठाता भी है तो उसे भी कटघरे में खडा करने के षड्यंत्र शुरू हो जाते हैं। यह सच्चाई पूरी तरह से उजागर हो चुकी है कि देश की संसद और विधान सभाओं में थैलीशाहों की सल्तनत चलती है। गरीब आदमी सांसद या विधायक बनने की सोच भी नहीं सकता। राज्यसभा के चुनाव तो सिर्फ और सिर्फ धनवीरों की ताकत का अखाडा बनकर रह गये हैं। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान ने बडे ही पते की बात कही है कि राज्यसभा की सीटें बिकती हैं। जिनके पास विधायकों को खरीदने का दम होता है वही राज्यसभा का सदस्य बन जाता है। यकीनन यह देश का दुर्भाग्य ही है कि शराब किं‍ग विजय माल्या जैसे लोग राज्यसभा में पहुंचने लगे हैं। देश और दुनिया को शराब के नशे में धकेलने वाला शख्स अपने फायदे की ही सोच सकता है। विजय माल्या की तरह और भी कई उद्योगपति, भूमाफिया, खनिज माफिया और गुंडे बदमाश किस्म के लोग विधायकों की खरीद फरोख्त कर राज्यसभा के सांसद बन लोकतंत्र का मजाक उडाते दिखायी देते हैं। राज्यसभा का चुनाव आम आदमी लड ही नहीं सकता। राज्यसभा की सीट के बदले बडे-बडे सौदों को अंजाम दिया जाता है। अधिकांश राजनीतिक पार्टियां उन्हीं रईसों को टिकट देती हैं जो उनकी झोली भरने में सक्षम होते हैं।संविधान निर्माताओं का राज्यसभा की स्थापना के पीछे बहुत बडा उद्देश्य छिपा हुआ था। बहुतेरे ईमानदार, देशप्रेमी नागरिक ऐसे भी होते हैं, जिनकी चाहत होती है कि देश के लिए कुछ खास किया जाए परंतु वे चुनावी दांव-पेंचों की उलझन से बचना चाहते हैं। उनके संस्कार भी उन्हें इस उलझन में फंसने की इजाजत नहीं देते। लोकसभा चुनाव में करोडों रुपये फूंकने पडते हैं। ईमानदार आदमी के लिए इतनी दौलत जुटाना आसमान से तारे तोडने जैसा है। यही वजह है कि बडे-बडे उद्योगपति, धन्नासेठ, भूमाफिया जिनके गोदामों में काले धन का जखीरा भरा पडा है वे हंसते-हंसते लोकसभा का चुनाव लडते हैं। जीत हासिल करने के लिए अच्छे बुरे कार्यकर्ताओं के साथ-साथ गुंडे मवालियों की फौज को भी साम, दाम, दंड, भेद की नीति के साथ चुनाव प्रचार में झोंक देते हैं। चुनाव जीतें या हारें उन्हें खास फर्क नहीं पडता। पर जो लोग लोकसभा का चुनाव लडने में असमर्थ होते हैं उनके लिए देश सेवा का एकमात्र माध्यम है राज्यसभा परंतु राज्यसभा को तो थैलीशाहों और चाटूकारों की ऐशगाह बनाकर रख दिया गया है। बिकाऊ किस्म के पत्रकार, संपादक और अखबार मालिक राज्यसभा की दहलीज में पहुंचने लगे हैं। अधिकांश राजनेताओं और राजनीतिक पार्टियों के कर्ताधर्ताओं को भी आरती गाने वाले इतने भाते हैं कि वे उनके काले इतिहास को नजरअंदाज कर राज्यसभा की टिकट थमा कर चुनाव में विजयी बनाने के सारे इंतजाम कर देते हैं।इस तथ्य को पूरी तरह से किनारे रख दिया गया है कि वैज्ञानिकों, बुद्धिजीवियों, साहित्यकारों, पत्रकारों और स्वच्छ छवि वाले देश के प्रति समर्पित उद्योगपतियों और सामाजिक क्षेत्र में ईमानदारी के साथ सक्रिय लोगों के बेहतरीन सुझावों और सेवाओं को लेने के ध्येय से ही राज्यसभा की सदस्यता का प्रावधान किया गया था। आजादी के १५-२० साल बाद तक जो चेहरे राज्यसभा में पहुंचे, उन्होंने वाकई देश की शान बढायी। हरिवंशराय बच्चन, पृथ्वीराज कपूर, नर्गिस दत्त, कुलदीप नैयर जैसे ईमानदार समर्पित चेहरों ने राज्यसभा का मान और सम्मान बढाया। किसी ने भी इनके नामों पर उंगली नहीं उठायी। पर इधर के वर्षों में राज्यसभा का काफी हद तक मजाक बना कर रख दिया गया है। कहने वाले तो यह भी कहने से नहीं चूकते हैं कि पार्टी फंड के लिए जिसमें जितनी मोटी थैलियां देने का दम होता है, उसके लिए उतनी ही राज्यसभा की सदस्यता आसान हो जाती है।आज राज्यसभा में ऐसे भी कई चेहरे हैं, जिन्होंने करोडों रुपये फूंक कर लोकसभा चुनाव लडा और बुरी तरह से हार गये। मतदाताओं ने उन्हें पूरी तरह से नकार दिया। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी और राज्यसभा की टिकट का जुगाड कर पिछले दरवाजे से देश की संसद में पहुंच गये हैं। इसे आप क्या कहेंगे? क्या यह लोकतंत्र और मतदाताओं का अपमान नहीं है? चुनाव में लगातार पिटने वाले कई चेहरे राज्यसभा में मटरगश्ती करते दिखायी देते हैं। यह सब 'माया' और संबंधों का कमाल ही है। यह थैलियां ही हैं, जो अपराधियों, दागियों और बदमाशों को भी राज्यसभा में पहुंचाती हैं। खेद की बात तो यह भी है कि ऐसे लोग केंद्रीय मंत्री भी बन जाते हैं और देश का 'लोक' और लोकतंत्र बेबस देखता ही रह जाता है। धन-बल और बाहुबल ने राज्यसभा की गरिमा को निश्चित ही बेहद नुकसान पहुंचाया है। पर इस मुद्दे पर कोई भी राजनीतिक पार्टी मुंह खोलने को तैयार नहीं है। लोकतंत्र के सर्वोच्च मंदिर में अमर-माल्या और महाजनी दलालों और सौदागरों का बोलबाला है। ऐसे में अगर देश में भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी का आंकडा हजारों-हजारों करोड को पार करता दिखायी दे रहा है तो इसमें हैरान होने वाली कौनसी बात है? जो चेहरे करोडों-अरबों फूंक कर संसद भवन पहुंचे हैं वे कोई साधु महात्मा नहीं हैं। उन्होंने अपार धन लुटाया है तो उसकी भरपाई तो करेंगे ही। किस में है दम जो उन्हें रोक सके? रही राज्यसभा में विद्वानों और कलाकारों को भेजने की बात तो यहां पर भी हर दर्जे की मक्कारी चलती है। हेमा मालिनी, जया प्रदा, जया बच्चन, एम.एफ.हुसैन जैसों के गले माला पहनायी जाती है और इन जैसों को जबरन राज्यसभा का सदस्य मनोनीत कर दिया जाता है। यह ऐसे चेहरे हैं जो न तो देश की जन समस्याओं से वाकिफ होते हैं और न ही किसी किस्म के जानकार। इनका कभी मुंह भी नहीं खुलता। राज्यसभा में भेजे जाने लायक विद्वानों का तो जैसे जबरदस्त टोटा ही पड गया है। विद्वानों के नाम पर अक्सर ऐसे मस्खरों को राज्यसभा की शोभा बढाने के लिए भेज दिया जाता है जो चुटकलेबाजी में माहिर होते हैं।ऐसे में यदि यह कहा जा रहा है कि संसद का उच्च सदन राज्यसभा औचित्यहीन है। यानी इसकी आवश्यकता ही नहीं है, तो फिर इसमें गलत ही क्या है? अब ऐसे में सवाल यह उठता है कि देश की जनता के खून-पसीने के अरबों-खरबों रुपये ढकोसले पर लूटते देखकर भी अंधे-बहरे बने हुक्मरानों के होश आखिर कौन ठिकाने लगायेगा?

Thursday, December 9, 2010

कैसी-कैसी बैसाखियां

हिं‍दुस्तान के अधिकांश नेताओं की जुबान फिसलने में देरी नहीं लगती। कई बार तो बेचारे खुद ही इतना फिसल जाते हैं कि जिन्दगी भर उठ नहीं पाते। यह भी लगभग तय हो चुका है कि नैतिकता को रोंदने में सियासी लोगों को पल भर का भी समय नहीं लगता। शब्दों के प्रयोग की मर्यादा से वंचित नेताओं की तादाद में इधर के कुछ वर्षों में अच्छा-खासा इजाफा होता देखा जा रहा है। अनुशासन, शिष्टाचार और मर्यादा का पाठ पढाने वाली पार्टी के मुखिया की तीखी वाणी कई बार सीधे और शालीन लोगों को आहत कर चुकी है पर उन्हें इससे कभी कोई फर्क नहीं पडा। वे अपने में मस्त हैं। उन्हें लगता है कि लोगों को उनका यह रंग-ढंग बहुत भाता है। उनका यही भ्रम उनकी पार्टी और उनको कब ले डूबे कहा नहीं जा सकता। अपने देश में ऐसे नेता भी हैं जिनके मुंह खोलते ही विवाद खडे हो जाते हैं। उत्तरप्रदेश और बिहार ऐसे मुंह फाडुओं से भरा पडा है जिनका गाली देने और कोसने का भी अंदाज निराला है। समाजवादी पार्टी के एक नेता हैं मोहम्मद आजम खां। उन्होंने हाल ही में एक जनसभा में अमर सिं‍ह को एक साथ दलाल, दल्ला और सप्लायर की उपाधि से विभूषित कर अपना रौद्र रूप दिखा दिया। आजम खां ने फरमाया कि सारा देश जानता है कि अमर सिं‍ह क्या हैं। कभी उन्हें सारा देश दलाल कहता था परंतु मेरी निगाह में वे हद दर्जे के दल्ले होने के साथ-साथ वो सडी-गली बैसाखी हैं जिसका कोई वुजूद ही नहीं होता। यह दल्ला बहुत बडा सप्लायर भी है। बात बडी सीधी-सी है कि आजम खां वर्षों तक अमर सिं‍ह के नजदीक रहे हैं। उन्होंने बहुत सोच समझ कर अपनी भडास निकाली है। यह भडास यह संकेत भी देती है कि वे अमर सिं‍ह को किसी पंजाबी स्टाईल की भारी-भरकम गाली से नवाजना चाहते थे पर 'दल्ला' घोषित कर चुप्पी साध गये। इस चुप्पी में अमर को ललकारने की खुली चुनौती छिपी थी। अमर को भी भडकने में ज्यादा देर नहीं लगी। उन्होंने सवाल दागा कि आजम खां बतायें कि मैंने उन्हें क्या-क्या सप्लाई किया है?... मैंने अगर मुंह खोला तो मुलायम सिं‍ह जेल में सडते नजर आयेंगे जिनकी बदौलत आज आजम खां इस कदर उचक रहे हैं। राजनीति में इस तरह की धमकियां देने के रिवाज का चलन बडा पुराना है। अमर सिं‍ह ने तो मुलायम की काली कमायी का पूरा चिट्ठा भी उजागर करने का ऐलान कर दिया है। पर यकीन जानिए ऐसा कतई नहीं होने वाला है। यह आरोप-प्रत्यारोप का तमाशा एक दूसरे का मुंह बंद करने का वही पुराना हथियार है जिसे सभी चोर-चोर मौसेरे भाई अजमाते और चलाते रहते हैं। यकीनन मुलायम सिं‍ह, आजम खां का और ज्यादा मुंह नहीं खुलने देंगे। यह भी तय है कि आजम खां, मुलायम सिं‍ह और अमर सिं‍ह के बहुत से राज़ जानते हैं। समाजवादी पार्टी से बाहर कर दिये गये आजम की फिर से घर वापसी हो चुकी है और अमर बनवास भोग रहे हैं। कोई उन्हें घास भी नहीं डाल रहा है। इसलिए अंदर ही अंदर बौखलाये और डरे हुए हैं। तभी तो अक्सर पोल खोलने की धमकियां देते रहते हैं ताकि सामने वाले की जुबान हद से ज्यादा न खुलने पाये। उनके इस अभियान में फिल्म अभिनेत्री जया प्रदा और पांच सात अन्य पिट्ठू ही खडे नज़र आये। मुलायम सिं‍ह पर अपने राजनैतिक कैरियर के कुछ ही वर्षों के दरम्यान अरबों-खरबों रुपये की माया जुटाने के जनजाहिर आरोप हैं। अमर सिं‍ह की उनसे १४ वर्ष तक गहरी मित्रता रही है। कहा तो यह भी जाता है कि राजनीति के धंधे में दोनों बराबर के हिस्सेदार थे। ऐसे में जब एक हिस्सेदार दूसरे को जेल भिजवाने की धमकी देता है तो बात हज़म नहीं होती। पर अगर यह लोग ऐसी नौटंकियां नहीं करेंगे तो फिर इन्हें नेता कैसे माना जायेगा! यह लोग नेता की पदवी को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहते क्योंकि यही पदवी ही तो इनके लिए ऐसी ढाल है जिस पर गहरे से गहरे वार का असर नहीं होता। कानून के तेवर भी ठंडे पड जाते हैं। समाजवादी पार्टी में वापसी के फौरन बाद आजमा खां का अमर पर इस तरह से तीर छोडना सुप्रीमो मुलायम सिं‍ह को भी रास नहीं आया है। पर वे मजबूर हैं क्योंकि आजम खां एक ऐसे मुस्लिम नेता हैं जिनकी मुस्लिम वोटरों पर अच्छी-खासी पकड मानी जाती है। २००९ में आजम खां ने इसलिए समाजवादी पार्टी से नाता तोड लिया था क्योंकि मुलायम सिं‍ह ने कल्याण सिं‍ह को गले लगा लिया था। कल्याण सिं‍ह से मुलायम की दोस्ती करवाने में अमर का ही पूरा योगदान था। बावरी मस्जिद विध्वंस के आरोपियों में कल्याण सिं‍ह का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। खुद कल्याण सिं‍ह को भी अयोध्या कांड का नायक कहे जाने पर कभी आपत्ति नहीं रही। ऐसे नेता के समाजवादी खेमे में आने से आजम खां का चिं‍तित और आहत होना लाजिमी भी था। पंद्रहवीं लोकसभा के चुनाव में मुलायम को कल्याण से की गयी दोस्ती की बहुत बडी कीमत चुकानी पडी। आजम खां जैसे मुसलमान नेता के किनारा करने के बाद बेचारे मुलायम ३९ लोकसभा सीटों से २३ पर जा अटके। १६ लोकसभा सीटों का घाटा कोई छोटी-मोटी चोट नहीं थी।आजम खां ने भी पार्टी से निकलने के बाद मुलायम पर कई तीर दागे थे। इन तीरों के उन पर कितने जख्म हुए इसका हिसाब उन्हीं के पास होगा। राजनीति में विषैले से विषैले वार भी मायने नहीं रखते। आजम खां तो मुस्लिम नेता हैं। मुलायम की मजबूरी से वे अच्छी तरह से वाकिफ रहे हैं जैसे अमर सिं‍ह वाकिफ हैं। आजम खां डेढ साल बाद समाजवादी पार्टी में लौट आये हैं। मुलायम ने भी राहत की सांस ली है। आगामी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों के भरपूर साथ मिलने की उम्मीद फिर से जाग गयी है। देर-सवेर अमर सिं‍ह को भी लौटना ही है। भले ही कितने तीर चला लें...।

Thursday, December 2, 2010

राजधानी दिल्ली के दाग़

वैसे तो महिलाएं किसी भी शहर में पूरी तरह से सुरक्षित नहीं हैं। पर दिल्ली की तो बात ही कुछ और है। दिल्ली तो देश की राजधानी है। यहां देश के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, सांसद, विधायक और न जाने कितने-कितने महान लोग रहते हैं फिर भी यहां की सडकों पर युवतियों की इज्जत तार-तार कर दी जाती है...! यह चिं‍ता पूरे देश को सताये हुए है और देश के रहनुमा भ्रष्टाचार की लडाई और एक दूसरे के कपडों की उतरवाई में उलझे हुए हैं। उनके पास वक्त ही नहीं है कि इस इस गंभीर बीमारी पर ध्यान दे सकें। चिं‍तन मनन कर सकें कि उनकी नाक के नीचे बलात्कार, छेडछाड और प्रताडना के सिलसिले बेलगाम क्यों होते चले जा रहे हैं? नारियों ने यह क्यों मान लिया है कि बडे लोगों का यह महानगर नर्क बनता चला जा रहा है और उनकी अस्मत पर डाका डालने वाले दरिंदों को खुला छोड दिया गया है। यह दरिंदे जब मौका पाते हैं अपना काम कर जाते हैं और पुलिस ताकती रह जाती है। बस पीछे...पीछे भागती रह जाती है और बलात्कारी हत्यारे कहीं दूर निकल जाते हैं।माया नगरी मुंबई के बारे में कहा जाता है कि इसे कभी नींद नहीं आती। यह मायावी नगरी जागते रहने को अभिशप्त है। देश की राजधानी दिल्ली इस मामले में उलटी है। लगता है राजनेताओं ने इसे भांग पिला कर इतना मदहोश कर दिया है कि अब वह होश में ही नहीं आना चाहती। वह इस भयावह तथ्य से भी बेखबर और बेपरवाह है कि उसका दामन दागों से भरता चला जा रहा है।बीते सप्ताह काल सेंटर में काम करने वाली एक युवती पर चार मर्दों ने बलात्कार कर डाला। वह युवती चार साल पहले कई सपनों के साथ दिल्ली आयी थी। दिल्ली ने उसके सपनों के चिथडे कर डाले। वह अपने एक सहकर्मी के साथ तडके दक्षिणी दिल्ली के मोती विलेज इलाके स्थित अपने घर जा रही थी। उसी समय देश की राजधानी के जवानों ने जबरन उसे अपनी कार में खींच लिया। इस तरह के गैंगरेप दिल्ली की पहचान बन चुके हैं। यही वजह है कि दिल्ली की नब्बे प्रतिशत महिलाएं घर से अकेले निकलने में घबराती हैं। सफर करना लाखों महिलाओं की मजबूरी है पर उन्हें बस में बैठने से डर लगता है। बसों और लोकल ट्रेनों में सफर करने वाले लोफर इतने बेखौफ हो चुके हैं कि शरीफ नारियों के साथ अभद्र व्यवहार करना उनकी आदत में शुमार हो चुका है। दिल्ली की सडकें, बाजार, मॉल, सिनेमाघर, रेलवे स्टेशन, बस अड्डे जैसे अधिकांश सार्वजनिक स्थल महिलाओं के अकेले आने-जाने के लायक नहीं रहे। कुछ दिन पहले की ही बात है। एक नामी अभिनेत्री बडे उत्साह के साथ दिल्ली में आयोजित मैराथन दौड में भाग लेने के लिए आयी थी। उस भीड में हजारों लोग शामिल थे पर सडक छाप मजनुओं की हिम्मत तो देखिए कि उन्होंने बिना किसी की परवाह किये अभिनेत्री को घेर कर जिस्मानी छेडछाड शुरू कर दी। ऐसी शर्मनाक बदमाशियां किसी गांव-कस्बे में अंजाम दी जाएं तो एक बारगी उन्हें नजर अंदाज किया जा सकता है पर देश की राजधानी में ऐसा तांडव यकीनन मानवीय सभ्यता और नारी सम्मान की धज्जियां उडाता प्रतीत होता है। यह भी कहा जाने लगा है कि महानगरों में ऐसा होना आम बात है और यहां रहने वाली अधिकांश महिलाएं ऐसे हादसों की अभ्यस्त हो गयी हैं। ऐसा कह देना वाकई बहुत आसान है। जो लोग ऐसा मानते हैं उनसे यह सवाल पूछने की इच्छा हो रही है कि अगर उनकी मां-बहन-बेटी के साथ राह चलते बलात्कार या घिनौनी छेडछाड हो जाए तो उन पर क्या गुजरेगी? महानगर हों या फिर शहर अथवा गांव हर जगह नारियां सम्मान और सुरक्षा चाहती हैं। जो लोग यह मानते हैं कि महानगर हर तरह के जुल्म और आतंक सहना सिखा देते हैं उन्हें अपनी सोच बदल लेनी चाहिए। यह भी सच है कि जब तक खुद पर नहीं आती तब तक ऐसे बोलवचन दागने वालों के होश ठिकाने नहीं आते। देहरादून में रहने वाले एक 'सिं‍ह' को गिरफ्तार किया गया है। वासना के इस शातिर खिलाडी ने अपने यहां बतौर पेइंग गेस्ट रह रही युवतियों के बाथरूम में बडे ही शातिराना तरीके से वेब कैमरा फिट कर रखा था। वह कई वर्षों से पेइंग गेस्ट हाऊस चलाता चला आ रहा था, जहां पर ऐसी लडकियों को ही रखा जाता था जो नौकरीपेशा या फिर किसी निजी संस्थान की छात्राएं होती थीं। बाथरूम के गीजर में हिडेन कैमरा लगाकर बतौर पेइंग गेस्ट रहने वाली कितनी युवतियों की उसने नग्न फिल्में तैयार की होंगी इस माथापच्ची में देहरादून की पुलिस उलझी हुई है। पुलिस ने जब उससे इस कमीनगी को लेकर सवाल दागा तो उसका जवाब था कि वह यह सब अपने मनोरंजन के लिए करता था। उसे युवतियों के नग्न चित्र देखने में भरपूर संतुष्टि मिलती है। यह तो संयोग ही था कि इस सेक्स रोगी के यहां रहने वाली एक छात्रा की नहाते समय अचानक कैमरे पर नजर पड गयी और भांडा फूट गया। नहीं तो पता नहीं यह सिलसिला कब तक चलता रहता। वैसे भी ऐसे न जाने कितने सिलसिले हैं जो अबाध रूप से चलते चले आ रहे हैं और कभी भी पकड में नहीं आ पाते। यदा-कदा पकड में आते भी हैं तो कुछ दिन के शोर के बाद भुला दिये जाते हैं।कहते हैं कि छोटे हमेशा बडों से शिक्षा लेते हैं और उनका अनुसरण भी करते हैं। यह बात सिर्फ इंसानों पर ही लागू नहीं होती बल्कि मशीनी सभ्यता के गुलाम होते महानगरों और शहरों पर भी लागू होती है। तभी तो जो हाल दिल्ली के हैं कमोबेश वैसे ही हालात देश के अन्य शहरों के भी होते चले जा रहे हैं।

Thursday, November 25, 2010

यह जो जिं‍दगी की किताब है...

घोर नाउम्मीदी के दौर में भी जब कोई आशा के दीप जलाता है तो उसे बार-बार नमन करने को मन चाहता है। किसी कवि की कविता का सार है कि अभी इस दुनिया में बहुत कुछ बाकी है। पूरी तरह से निराशा का दामन थामने की कतई जरूरत नहीं है। सब कुछ खत्म नहीं हुआ है। अभी हाल ही शहर में आयोजित एक पुरस्कार वितरण समारोह में एक ऐसे शख्स से साक्षात्कार हुआ जिनका नाम जिम्मी राणा है। जिम्मी राणा 'दिनशॉ' के मालिक हैं। करोडों की दौलत उनके कदम चूमती है। दिनशॉ दूध, दही और आईस्क्रीम के साथ वर्षों पुरानी साख और पहचान जुडी हुई है। सनराईज पीस मिशन के द्वारा जिम्मी राणा को जब पुरस्कार देने की घोषणा की गयी तो बहुतेरे लोगों की तरह मेरे मन में भी यही विचार आया कि उन्हें व्यापार धंधे की उपलब्धियों के कारण सनराईस पीस अवार्ड से नवाजा जा रहा है। वैसे भी आजकल मालदार उद्योगपतियों को मंचों पर बैठाकर सम्मानित करने का फैशन-सा चल प‹डा है। पर जब मैंने जिम्मी राणा को पुरस्कृत करने की असली वजह जानी तो मैं स्तब्ध रह गया।जिम्मी राणा इंसानियत के धर्म को निभाते हुए उन लोगों के जख्मों पर मलहम लगाते हैं जिनके पास अपना कोई आसरा नहीं है। न जाने कितने ऐसे अभागे मरीज होते हैं जिनकी बीमारी लाइलाज हो जाती है और घर-परिवार और रिश्तेदार भी मुंह मोड लेते हैं। उनके लिए जिम्मी राणा मसीहा हैं। जानलेवा रोग से आहत और अपनों से ठुकराये जरूरतमंदों के लिए उन्होंने स्नेहांचल होस्पाईस की स्थापना की है। यह एक पब्लिक चेरिटेबल ट्रस्ट है। हजारों फीट क्षेत्रफल में फैले स्नेहांचल में कैंसर जैसी खतरनाक बीमारियों का बडी आत्मीयता के साथ इलाज किया जाता है। कई मरीज ऐसे भी होते हैं जिन के परिवारों की आर्थिक स्थिति इस काबिल नहीं होती कि उनका समुचित इलाज करवा सकें। उनके लिए स्नेहांचल के द्वार हमेशा खुले रहते हैं। ऐसे भी अनेकों रोगी होते हैं जिनका इलाज करने में बडे-बडे अस्पताल असमर्थता जताते हुए घर का रास्ता दिखा देते हैं तो उन्हें भी यहां पनाह दी जाती है। स्नेहांचल में गंभीर मरीजों का इलाज ही नहीं किया जाता बल्कि उनके सोये हुए आत्मबल और आशा को भी जगाया जाता है। जीवन के अंतिम क्षणों में जो निराशा और हताशा घर कर जाती है उससे मुक्ति दिलाने के लिए भावनात्मक सुरक्षा, आत्मीयता और स्नेह की इतनी वर्षा की जाती है कि रोगी को चिरनिद्रा में सोने और जीवन को खोने का कोई मलाल नहीं होता। यानि स्नेहांचल में हंसते-खेलते हुए मृत्यु की गोद में समाने का पाठ भी पढाया जाता है। मानव सेवा के इस अद्वितिय कार्य के लिए जिम्मी राणा अपना सब कुछ समर्पित कर चुके हैं। उन्हें दुखियारों को स्नेह से सराबोर करने में अभूतपूर्व सुकून मिलता है। ऐसे महामानव को आप भी जरूर सलाम करना चाहेंगे...।जब जिम्मी राणा की बात चली है तो मुझे नारायण कृष्णन की याद आ रही है। २९ वर्षीय नारायण उन सैकडों लोगों को नियमित भरपेट खाना खिलाते हैं जो लाचार हैं, असहाय हैं और काम करने में असमर्थ हैं। विक्षिप्तों की अवहेलना और भूख भी उनसे देखी नहीं जाती। नारायण बेंगलुरू के निवासी हैं। एक फाइव स्टार होटल में हजारों रुपये के पगार वाली नौकरी करने वाले इस नौजवान को स्विटजरलैंड के एक आलीशन होटल में काम करने का न्योता मिला था। तय है कि उन्हें तनख्वाह के रूप में लाखों रुपये मिलने जा रहे थे। उन्होंने देश छोड विदेश जाने की पूरी तैयारी कर ली थी। बेंगलुरू से दिल्ली जा कर स्विटजरलैंड की फ्लाइट पकडने के बजाय उन्होंने एक दूसरी ही राह पकड ली जो प्रारंभ में तो उनके पिता को कतई रास नहीं आयी। पिता ने पुत्र को लेकर कई सपने सजा रखे थे जो एक ही झटके में धरे के धरे रह गये। हुआ यूं कि कुछ दिन पहले नारायण शहर में घूमने निकले थे। उन्होंने रास्ते में कुछ विक्षिप्त लोगों को कचरे के ढेर में से खाना ढूंढकर खाते हुए देखा तो उनका दिल भर आया। इतनी गरीबी और ऐसी विवशता कि इंसान को अपने पेट की आग को ठंडा करने के लिए गदंगी का सहारा लेना पडे! ये भी इंसान हैं और वो भी इंसान हैं जो लजीज खाने का हलका-सा स्वाद लेकर जूठन फेंक देते हैं। यह हमारी ही दुनिया है जहां पर करोडों लोग भूखे सोते हैं। दो वक्त की रोटी मिलना हर किसी के नसीब में नहीं है। पर यह कैसा नसीब है, कैसी दुनिया है और कैसे-कैसे लोग हैं! नारायण ने उसी दिन, उसी वक्त तय कर लिया कि वे कहीं नहीं जाएंगे। भुखमरी के शिकार लोगों के लिए अपना सर्वस्व न्यौछावर कर देंगे। उन्होंने होटल की लगी-लगायी नौकरी को भी लात मार दी और फिर उस जनसेवी अभियान में लग गये जो भूख से बिलबिलाते निरीह लोगों को देखने के बाद उनके दिल में जागा था। उन्होंने रेस्तरां से ढेरों खाना खरीदकर विक्षिप्तों और असहाय लोगों को खिलाना शुरू कर दिया। कोई और होता तो पांच सात दिन में उसके हौसले ठंडे पड जाते। पर नारायण तो किसी और ही मिट्टी के बने हैं।लोग उन्हें सनकी कहने लगे। पिता को भी यह पुत्र इतना खटकने लगा कि उनके मन में भी नफरत ने जगह ले ली। नारायण तो ठान चुके थे। उन्होंने किसी की कोई परवाह नहीं की। बैंक बैलेंस भी जीरो हो गया पर अपने तयशुदा लक्ष्य से कतई नहीं डगमगाये। धीरे-धीरे जब दोस्तों और करीबियों को उनके अभियान की खबर लगी तो वे भी उनके साथ जुडने लगे। हर रोज होटलों से भोजन खरीद कर जरूरतमंदों को उपलब्ध कराना आसान नहीं था। कहते हैं न कि 'जहां चाह होती है वहां राह भी निकल ही आती है।' नारायण के पिता भले ही बेटे के अन्नदाता होने से खफा रहे हों पर मां ने कभी भी बेटे के प्रति नाराजगी नहीं दिखायी। उन्होंने तो बेटे को खाना बनाने के लिए वो पुश्तैनी मकान भी सहर्ष सौंप दिया जो वर्षों से खाली पडा था। होटलों के बजाय अब इसी मकान में खाना बनने लगा। नारायण के हौसले और बुलंद होते चले गये। वे शुरू में तो अकेले ही चले थे पर आज उनका साथ देने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। उन्होंने दोस्तों की मदद से 'अक्षय' नामक संस्था की स्थापना कर ली है। इस संस्था के क्रियाकलापों से जो भी सज्जन वाकिफ होते हैं वे सहायता का हाथ बढा ही देते हैं। पुत्र की जब चारों तरफ तारीफें होने लगीं तो पिता की नाराजगी भी जाती रही। अब तो पिता भी बेटे के साथ भोजन के पैकेट थामकर सुबह-शाम भिखारियों की तलाश में निकल पडते हैं। अब नारायण की ख्याति सात समंदर पार भी जा पहुंची है तभी तो उन्हें अंतर्राष्ट्रीय संस्था सीएनएन ने समाज सेवा के लिए पुरस्कृत करने का निर्णय लिया है। नारायण कृष्णन पहले भारतीय हैं जिन्हें इस अंतर्राष्ट्रीय पुरस्कार से नवाजा जा रहा है...। यह अंतर्राष्ट्रीय सम्मान उन जुनूनी समाज सेवकों को मिलता है जो बिना किसी दिखावे और प्रचार-प्रसार के सच्चे मन से दुखियारों की सेवा में लगे रहते हैं। हर आदमी का जीवन एक किताब होता है। इस दुनिया में हजारों करोड लोग रहते हैं। अपनी-अपनी जिं‍दगी की किताब हर कोई लिखता है पर हर किसी की किताब पढने लायक नहीं होती। जिम्मी राणा और नारायण कृष्णन जैसे मानवता के पुजारियों की किताब की बात ही कुछ और होती है। इसलिए इस किताब को सभी बार-बार पढना चाहते हैं। इस लाजवाब किताब के पन्ने खुद-ब-खुद खुलते चले जाते हैं। जबकि दीगर किताबों को लोग हाथ लगाना तो दूर देखना तक पसंद नहीं करते...।

Thursday, November 18, 2010

कुछ तो शर्म करो...

''आज से बीस साल पहले नितिन गडकरी लूना पर चलते थे और आज उनके पास अरबों-खरबों की संपत्ति है। आखिर यह अपार दौलत कहां से आयी?''यह सवाल उठाया है कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिं‍ह ने। जवाब देना है उस नितिन गडकरी को जो वर्तमान में भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं और संघ के दुलारे हैं। वैसे यह बात सबको पता है कि ऐसे सवालों के जवाब कभी भी सामने नहीं आ पाते। तेरी भी चुप मेरी भी चुप की परंपरा को निभाने में विश्वास रखने वाले भारतीय नेताओं की तंद्रा तब भंग होती है जब कोई उन्हें उकसाता और उचकाता है। अगर गडकरी ने कामनवेल्थ खेलों की तैयारियों में हुई धांधलियों में राहुल गांधी के सचिव कनिष्क सिं‍ह का नाम न लपेटा होता तो दिग्गी राजा इतना मारक तीर कतई न छोडते।वैसे यह तथ्य भी काबिले गौर है कि नितिन गडकरी भाजपा के पहले अध्यक्ष हैं जिनपर सीधे तौर पर तरह-तरह के आरोप लगते चले आ रहे हैं। भाजपा और संघ में अंदर ही अंदर चिं‍ता घर करती चली जा रही है कि इस 'विवादवीर' अध्यक्ष की किस तरह से रक्षा की जाए। अभी तक उन जैसा कोई दूसरा अध्यक्ष नहीं हुआ जिस पर इस तरह के तीखे सवाल दागने के साथ-साथ बेहद संगीन आरोप लगाये गये हों। दीनदयाल उपाध्याय, अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी जैसे विचारवान नेताओं के खून पसीने से जिस भाजपा पार्टी की नींव पुख्ता की गयी उसी पार्टी के अध्यक्ष का इस तरह के सवालों से घिरना पार्टी के अच्छे भविष्य के संकेत नहीं दे रहा है।वैसे भाजपा की साख की तो उसी दिन काफी हद तक मिट्टी पलीत हो गयी थी जब कुछ वर्ष पहले तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण एक लाख रुपये की गड्डी लेते हुए धरे गये थे। बंगारू लक्ष्मण आज कहां हैं इसका पता लगाने के लिए मुनादी करानी पडेगी। अब रही बात दिग्गी राजा के द्वारा दागे गये सवाल की तो इसका उत्तर सर्वविदित है। सत्ता में आते ही नेताओं की तिजोरियां अपने आप ही लबालब हो जाती हैं और कुछ ही वर्षों में वे इतने मालदार हो जाते हैं कि धन-दौलत के मामले में बडे-बडे उद्योगपति भी उनके सामने बौने नजर आते हैं। दिग्गी राजा स्वयं दस वर्ष तक मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके हैं और गडकरी भी महाराष्ट्र के सार्वजनिक बांधकाम मंत्री के पद पर शोभायमान होने का भरपूर अवसर पा चुके हैं। हाल ही में देश के विख्यात उद्योगपति रतन टाटा ने डंके की चोट पर कहा है कि कुछ वर्ष पूर्व उनका टाटा समूह देश में सिं‍गापुर एयरलाइंस के साथ एक हवाई सेवा शुरू करने की तैयारी को अमलीजामा इसलिए नहीं पहना पाया क्योंकि उन्होंने तत्कालीन उड्डयन मंत्री द्वारा मांगी गयी १५ करोड की रिश्वत देने से इंकार कर दिया था। रतन टाटा ने देश पर राज करने वाले लोकतंत्र के प्रहरियों की वो शर्मनाम सच्चाई बयां की है जिससे आज देश फिर से एक बार शर्मिंदा हुआ है। कॉमनवेल्थ घोटाला, आदर्श घोटाला, स्पेक्ट्रम घोटाला, घोटाले पर घोटाला और बेचारा हिं‍दुस्तान...। हर तरफ से निचोडे जा रहे हिं‍दुस्तान में किसी एक को आप दोष नहीं दे सकते। ऐसा करेंगे तो कटघरे में खडे कर दिये जाएंगे। जिस पार्टी ने भी सत्ता सुख भोगा उसने जी भरकर मलायी खायी। वर्षों से यह दस्तूर चला आ रहा है। इस महारोग से कौन सी पार्टी और राजनेता अछूते हैं पहले देशवासियों के समक्ष उसका खुलासा किया जाए तो बात बनेगी। एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने के तमाशों से लोग तंग आ चुके हैं। स्वर्गीय राजीव गांधी तो ६४ करोड के बोफोर्स घोटाले में लपेटे गये थे पर आज तो ऐसे 'राजा' भी हैं जिन पर एक लाख छिहतर हजार करोड के घापे का आरोप लगा है पर फिर भी उनके चेहरे पर कोई शिकन नहीं है। बोफोर्स घोटाला लगभग इक्कीस वर्ष पूर्व गूंजा था। इस धमाकेदार गूंज ने प्रधानमंत्री राजीव गांधी को सत्ता से बेदखल तो किया ही था साथ ही उनकी छवि पर भी ऐसे गहरे दाग लगाये थे कि जो अभी तक नहीं धुल पाये हैं। इन इक्कीस सालों में भ्रष्टाचारी दानवों के हौसले इतने अधिक बढ गये हैं कि सौ-दो सौ करोड इनके लिए कोई मायने नहीं रखते। हजार-पांच हजार करोड से बात बढते-बढते पौने दो हजार करोड तक आ पहुंची है। कहां वो ६४ करोड और कहां यह एक लाख ७६ हजार करोड!... कोई नहीं जानता कि भ्रष्टाचार के ये आकाश छूते आंकडे कहां पर जाकर थमेंगे, क्योंकि देने वालों के हौसले और लेने वालों की भूख बढती ही चली जा रही है। इस देश में सभी रतन टाटा नहीं हैं जो रिश्वत देने से इंकार कर दें। जिसमें रिश्वत देने का दम होता है उसे 'अंबानी' बनने में देरी नहीं लगती। धीरुभाई अंबानी ने अगर नौकरशाहों और सत्ताधीशों की तिजोरियां न भरी होतीं तो उनका अरबों-खरबों का साम्राज्य कहीं नजर नहीं आता। देश में ऐसे उद्योगपतियों, खनिज माफियाओं, भूमाफियाओं, शिक्षा माफियाओं और अराजक तत्वों की भरमार है जो सत्ता के गलियारों में रिश्वत की मालाएं हाथ में थामे घूमते रहते हैं और येन-केन-प्रकारेण अपना काम करवा कर ही दम लेते हैं। राजनेताओं के साथ-साथ दलालों और नौकरशाहों के भी यहां मजे ही मजे हैं। देश के एक चिं‍तक जिन्होंने मंत्रियों और संत्रियों के चाल-चरित्र और परंपरागत व्यवहार का गहन अध्यन किया है, का स्पष्ट आकलन है कि घुटे हुए नौकरशाह ही अक्सर मंत्रियों को भ्रष्टाचार के मार्ग सुझाते हैं और भ्रष्टाचार के अरबों-खरबों के इस लूट के खेल में अंतत: दमदार मंत्रियों के हिस्से में पच्चीस से तीस प्रतिशत काला धन आता है और बाकी मलाई अफसर मिल बांटकर हजम कर जाते हैं। यह आकलन सही भी लगता है क्योंकि अपने देश में चपरासी, बाबू और अफसर बिना मुट्टी गर्म किये कोई भी फाइल आगे नहीं बढने देते। ऐसे में यह भी सोचने और समझने का मुद्दा है कि जब इस देश में भ्रष्टाचारी नेताओं की तिजोरियों में हजारों करोड भरे पडे हैं तो भ्रष्ट अफसरों के यहां कितना खजाना होगा...। ऐसे तंत्र-मंत्र और स्वतंत्र खेल में दिग्विजय सिं‍ह का प्रश्न कोई पहेली तो नहीं है फिर पता नहीं क्यों वे पहेलियां बुझाने का नाटक कर रहे हैं और देशवासियों को भरमा रहे हैं!

Thursday, November 11, 2010

अब नहीं तो कब सुधरोगे?

वो नेता ही क्या जो काला-पीला न करे। इस कलाकारी की बदौलत झोली में बरसने वाली काली कमायी को ठिकाने लगाने के लिए भी बडा दिमाग लगाना पडता है। जो अक्ल के कच्चे होते हैं वो जल्द ही मीडिया और कानूनी फंदे के शिकार हो जाते हैं। इसलिए अपने देश के अधिकांश शातिर नेता बहुत दूर की सोचकर चलते हैं। भ्रष्टाचार की माया को ऐसे-ऐसे ठिकाने लगाते हैं कि कानून भी ताकता रह जाता है। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण को इसलिए कुर्सी खोनी पडी क्योंकि उनके ठिकाने उजागर हो गये और विरोधी पार्टी के नेताओं और मीडिया ने शोर मचाना शुरू कर दिया। महाराष्ट्र में कौन-सा नेता कितना ईमानदार है यह अपने आप में गहन शोध का मुद्दा है। तभी तो जैसे ही आदर्श हाऊसिं‍ग सोसाइटी भ्रष्टाचार में मुख्यमंत्री की संलिप्तता का पर्दाफाश हुआ वैसे ही केंद्रीय मंत्री विलासराव देशमुख, सुशील कुमार शिं‍दे से लेकर महाराष्ट्र के कद्दावर नेता-मंत्री नारायण राणे और अनिल देशमुख जैसों के नाम भी प्रकट होने शुरू हो गये। यह कहावत भी पूरी तरह से चरितार्थ हो गयी कि राजनीति के हमाम में लगभग सब नंगे हैं। जिसके चेहरे से नकाब उठाओ वही ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार में डूबा नजर आता है। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं ने तो कमर ही कस डाली कि कांग्रेस की ऐसी की तैसी करके ही दम लेना है परंतु मनचाही बात बन नहीं पायी। कांगे्स ने भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के सौदागर साथी अजय संचेती और उनके ड्राइवर के नाम पर आदर्श सोसायटी में झटके गये फ्लैटों का धमाका कर दिया। इस धमाके का कमाल ही कहेंगे कि भाजपा की बोलती ही बंद हो गयी। देश की जागरूक जनता ने भी जान-समझ लिया कि हमाम में तो ये सभी नंगे हैं फिर भी आपस में पंगे लेते रहते हैं और जनता को बेवकूफ बनाते रहते हैं! अब गडकरी यह तो कहने से रहे कि मैं अजय संचेती को नहीं जानता। मेरा उससे कोई लेना-देना नहीं है। यदि अजय ने आदर्श घोटाले में साझेदारी की है तो तय है कि 'आका' की बदौलत ही। बताते हैं कि भाजपा अध्यक्ष के खजाने में ऐसे रत्नों की भरमार है। इनकी शिनाख्त सिर्फ जौहरी ही कर सकता है। सरकार-वरकार के बस की बात नहीं है। यह भी मुद्दे की बात है कि अगर गडकरी एंड कंपनी पर लगा आरोप सिद्ध हो जाता है तो सवाल यह भी उठेगा कि जिस तरह से मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण की कुर्सी छीन ली गयी वैसा ही कुछ भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी के साथ भी हो पायेगा?अपनी सास, साले-साली को कारगिल के शहीदों के हिस्से के करोडों रुपये के फ्लैट मुफ्त के भाव दिलवाने वाले अशोक चव्हाण अगर राजनीति के असली कलाकार होते तो ऐसी भूल नहीं करते जो फौरन पकड में आ जाए। अपने ड्राइवर, रसोइये, विश्वस्त चमचे आदि के नाम करोडों की सम्पति खरीद कर चैन की बंसी बजा सकते थे जैसे कि दूसरे बजा रहे हैं। वैसे तो ऐसा लगभग सभी भ्रष्ट नेता करते हैं पर महाराष्ट्र में इस परंपरा को बडे ही बेजोड तरीके से निभाया जाता है। क्या मजाल कि कोई सिद्ध कर दे कि नेताजी ने कहां-कहां पर अरबों-खरबों का निवेश कर रखा है, संपत्तियां खरीद रखी हैं और टुकडों पर पलने वाले तरह-तरह के माफिया और गुंडे-मवाली पाल रखे हैं।देश और दुनिया में महाराष्ट्र का नाम जिस सम्मान के साथ लिया जाता है वैसी ही सम्मानजनक स्थिति कभी यहां के नेताओं की भी थी। लगता है अब वो दिन लद गये हैं। राजनेताओं को इज्जत और शोहरत से ज्यादा दौलत और बदनामी लुभाने लगी है। सत्ता की ताकत की बदौलत हथियाये गये स्कूलों-कालेजों, शक्कर कारखानों और दारू की फैक्टरियों से बरसने वाली अपार दौलत से जब इनका पेट नहीं भरा तो इन्होंने खनिज और भूमाफियाओं से दोस्तियां गांठने में भी परहेज नहीं किया। बहुतेरों का एक ही मकसद रहा है जितना हो सके उतना बटोर लो। कल का क्या भरोसा?इसी चक्कर में बुरी तरह से फंसे अशोक चव्हाण चलते कर दिये गये। चव्हाण साहब ने बडी मेहनत से विधानसभा चुनाव जीता था। साल भर पहले की ही तो बात है जब उन्होंने प्रदेश भर के चुनिं‍दा अखबारों में पूरे-पूरे पन्नों के लेख छपवाये थे। फोटो भी खूब छपी थीं। जिन अखबार वालों को पेड न्यूज की बख्शीश नहीं मिली थी वे आग बबूला भी हो गये थे। पर मुख्यमंत्री का बाल भी बांका कर पाना उनके वश की बात नहीं थी। थैलियां देकर अपनी तारीफ में लेख और न्यूज छपवाने के संगीन आरोप का मामला आखिरकार हाईकमान तक भी गया था पर अनसुना कर दिया गया, जैसे यह तो आम बात है। ऐसा तो हर बडा नेता करता है। दरअसल अशोक चव्हाण पर कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी और युवराज राहुल गांधी को बेहद विश्वास था। इसी विश्वास के चलते ही उन्हें दो वर्ष पूर्व महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनाया गया था। अशोक चव्हाण के साथ उनके पिताश्री शंकरराव चव्हाण की ईमानदार छवि भी जुडी हुई थी जिसे बेटे ने ध्वस्त कर दिया है। अशोक चव्हाण ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी के विश्वास की भी धज्जियां उडायी हैं। तभी तो जैसे ही उनकी छुट्टी की गयी वैसे ही फौरन राहुल गांधी को कहना पडा कि अब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री का पद पूरी तरह से ईमानदार व्यक्ति को ही सौंपा जायेगा। राहुल गांधी के इस कथन से यह पीडा भी स्पष्ट झलकी कि महाराष्ट्र में ईमानदार कांग्रेसी नेताओं का टोटा पड गया है। पृथ्वीराज चव्हाण महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री बना दिये गये हैं। पृथ्वीराज दिल्ली की राजनीति के चर्चित योद्धा हैं। वे दो बार १९९१ और १९९६ में महाराष्ट्र की कराड लोकसभा सीट से चुनाव जीत कर जननेता होने का सबूत दे चुके हैं। महाराष्ट्र से ही राज्यसभा सदस्य चुने गये पृथ्वीराज को भी सोनिया गांधी का खासमखास माना जाता है। केंद्रीय मंत्रिमंडल में उनके पास राज्यमंत्री की हैसियत से पांच महत्वपूर्ण विभाग थे जिनमें प्रधानमंत्री कार्यालय के अलावा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय, कार्मिक, पेंशन मंत्रालय और संसदीय कार्यमंत्रालय शामिल थे। तय है कि उनकी भरपूर योग्यता को देखते हुए उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री तो बनाया ही गया है, साथ ही महाराष्ट्र के नामी-गिरामी सत्तालोलुप और भ्रष्टाचारी कांग्रेसी नेताओं को चेताया और सुझाया गया है कि अगर तुम लोगों में काबिलियत होती तो दिल्ली से मुख्यमंत्री भेजने की नौबत ही न आती। अभी भी वक्त है... होश में आओ... सुधर जाओ...। आज दिल्ली से मुख्यमंत्री भेजा गया है कल को मंत्री भी भेजे जा सकते हैं...।

Wednesday, November 3, 2010

कौन सुलगाएगा बुझी हुई बाती?

राजनेताओं, नौकरशाहों, उद्योगपतियों, सत्ता के दलालों और चम्मचों के जमावडे के गठजोड ने देश को निगल जाने की ठान ली है। भ्रष्टाचार पर भ्रष्टाचार, घोटालों पर घोटाले करते चले जाने में अब इन्हें कतई शर्म नहीं आती। हद दर्जे की निर्लज्जता इनकी नस-नस में समा गयी है। कफनचोरों को भी मात देने लगे हैं यह। आज यह बात दावे के साथ कही जा सकती है कि इस देश में कुछ ही ऐसे नेता होंगे, जिनका लक्ष्य वास्तव में देश सेवा है। ऐसे नीयतखोरों की भीड बढती ही चली जा रही है, जो देश के हित के लिए राजनीति में नहीं आये हैं। अपने घर-परिवार और अपने चहेतों के लिए राजनीति के डंके बजाना ही इनके जीवन का मूलमंत्र है। इसलिए इन्हें हमेशा देश को लूटने-खसोटने के मौकों की तलाश रहती है। देश में ईमानदारों का इतना अकाल पड जायेगा और भ्रष्टाचारियों की इतनी अधिक तादाद बढ जायेगी इसकी तो किसी ने भी कल्पना नहीं की थी। ऊपर से नीचे तक सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे साबित हो रहे हैं। देश में जब अटलबिहारी वाजपेयी की सरकार थी तब समाजवादी जार्ज फर्नाडीस देश के रक्षा मंत्री थे। उन्होंने तब करोडों के ताबूत घोटाले को अंजाम देकर भारत माता का सर शर्म से झुकाया था। तब एकबारगी यह भी लगा था कि देश में इस किस्म के कफन चोर अपवाद स्वरूप होंगे। पर बीते सप्ताह महाराष्ट्र में जैसे ही कारगिल के शहीदों के परिजनों को मकान उपलब्ध कराने के लिए बनायी गयी आदर्श हाऊसिं‍ग सोसायटी का घोटाला सामने आया तो यकीन हो गया कि देश में ऐसे बहुतेरे कफन चोर हैं जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है। यह कितनी शर्म की बात है कि शहीदों के परिवार वालों को फ्लैट उपलब्ध कराने के लिए बहुमूल्य रक्षा भूमि ली गयी और फ्लैटों की आपस में बंदरबांट कर ली राजनेताओं, नौकरशाहों और सेवा निवृत्त सैन्य अधिकारियों ने। इन ठग और लूटेरों में जब प्रदेश के मुखिया अशोक चव्हाण का नाम उजागर हुआ तो हडकंप मच गया। इस तरह के दिखावटी हडकंप अक्सर मचते रहते हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। जब से देश आजाद हुआ है तभी से इस किस्म की लूटमार चलती चली आ रही है। जो पकड में आ जाता है वही चोर कहलाता है। चोर-चोर का शोर मचाने वाले कितने पाक-साफ हैं इसकी खबर भी देशवासियों को है। पर बेचारे आखिर करें तो क्या करें! उनके हाथ में कुछ भी तो नहीं है।वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब यह सारा देश कुछ भ्रष्टतम उद्योगपतियों, राजनेताओं, नौकरशाहों का बंधक बन कर रह जायेगा। हो सकता है कि कुछ पाठकों को मेरी यह सोच अविश्वसनीय लगे और उनका मन आहत हो पर यही कडवा सच है। अगर वक्त रहते हम सब देशवासी नहीं जागे तो यह कडवा सच एक ऐसे विष में तब्दील हो जायेगा कि खुली हवा में सांस लेना दूभर हो जायेगा। सोचिए, चिं‍तन कीजिए कि देश का ऐसा कौन-सा प्रदेश है जहां राम राज्य चल रहा हो। राम के नाम पर सत्ता हथियाने वाली भारतीय जनता पार्टी की मध्यप्रदेश में सरकार है। यह सरकार उद्योगपतियों को सरकारी जमीन कौडिं‍यों के दाम ऐसे बांट रही है कि हाथ में आया मौका कहीं चूक न जाए। छत्तीसगढ में भी कमोबेश ऐसे ही हालात हैं। भाजपा का ऐसा कोई नेता नहीं बचा जिसने बहती गंगा में हाथ न धोए हों। छापे पर छापे पड रहे हैं। कल के छुटभैयों के यहां करोडों का काला धन बरामद हो रहा है।जो लोग सत्ता के करीब हैं, सत्ता के दलाल हैं इस लोकतंत्र में वही खुशनसीब हैं। देश और प्रदेशों की बेशकीमती सरकारी जमीन, मूल्यवान वनोपज, खनिज पदार्थ और राष्ट्र की तमाम धन दौलत इनकी खानदानी जागीर बन चुकी है। सत्ता पर काबिज राजनेताओं के चम्मचे, चेले-चपाटे जिस तरह से सरकारी ठेके हथिया रहे हैं और धांधलियां कर रहे हैं उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि इन्हें 'आका' का मूक समर्थन हासिल है। जितना दम है लूट लो। हाथ आये मौके का पूरा फायदा उठा लो। इनसे कोई यह कहने की हिम्मत भी नहीं करता कि कुछ तो शर्म करो। इतनी नीचता मत दिखाओ। जनता के जिस वोट से सिं‍हासन पर पहुंचे हो उसका भी तो कुछ ख्याल करो। अगर सत्ताधीशों ने आम जनता की चिं‍ता की होती तो आज देश के इतने बदतर हालात कतई न होते। एक तरफ आकाश को छूने को आतुर अट्टालिकाओं की कतार है जहां रोशनी ही रोशनी है और इन्हीं आलीशान अट्टालिकाओं के मध्य में ऐसी झुग्गी-झोपडिं‍यों की भरमार है जहां पर इंसान जानवरों से भी बदतर जीवन जीते हैं। अंधेरा इतना कि सूरज की किरणें तक नहीं पहुंच पातीं। ऐसा लगता है कि रोशनी का कहीं रास्ते में ही अपहरण कर लिया गया है। त्योहारों के देश में त्योहारों का इतना बाजारीकरण करके रख दिया गया है कि जिनकी जेबें भरी हैं उनके लिए रोज दिवाली है और धनहीनों के लिए दीपावली हो या फिर कोई भी त्योहार अपनी बदहाली और गरीबी पर मातम मनाने के अवसर के अलावा और कुछ नहीं। यह हालात बने नहीं बनाये गये हैं उन शातिर और शैतान सोच के सफेदपोश चेहरों के द्वारा जो पूरा समुंदर खुद ही पी जाना चाहते हैं। देश में रच-बस चुकी असमानता की खाई को भरने और हर दहलीज तक उजियारा पहुंचाने की बातें तो बहुतेरे करते हैं पर उस परिवर्तन का कहीं अता-पता नहीं दिखता जिसकी आज देश के करोडों लोगों को बेहद जरूरत है। भारत के पूर्व प्रधानमंत्री श्री अटल बिहारी वाजपेयी को देश की वर्तमान हालत को देखकर बहुत पीडा और चिं‍ता (?) होती है और वे आह्वान करते हैं:
'आओ फिर से दीया जलाएं
भरी दोपहरी में अंधियारा
सूरज परछाई से हारा
अंतरतम का नेह निचोडें-
बुझी हुई बाती सुलगाएं,
आओ फिर से दीया जलाएं।'
अटल जी की कविता की उपरोक्त पंक्तियां पढ कर यह आभास तो होता है कि वे देश के हालात को बदलना चाहते हैं। पर...। देश की जनता ने तो उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर विराजमान करवा कर बहुत कुछ कर गुजरने का पूरा अवसर मुहैया करवाया था पर वे ही थे जो कुछ नहीं कर पाये! आखिर किस से बुझी बाती सुलगाने, दीया जलाने और अंधियारा भगाने की उम्मीद की जाए?

Thursday, October 28, 2010

इन खिलौनों को तोडना ही होगा

देश को बांटने और तोडने वाली ताकतें सिर उठा चुकी हैं और उनका बाल भी बांका नहीं हो पा रहा है! एक हैं अरुंधति राय जो अपने आपको बहुत बडा तीसमारखां समझती हैं। उन्हें लगता है कि उनसे ज्यादा इस विशाल देश में और कोई अक्लमंद है ही नहीं। अरुंधति कुछ किताबें भी लिख चुकी हैं। अपने लिखे पर भी खासा घमंड है उन्हें। इस घमंड की एक वजह यह भी हो सकती है कि उन्हें बुकर प्राइज (विदेशी) भी मिल चुका है। अपने देश की तौहीन करने पर आमादा रहने वाली इस लेखिका को नाम की भी जबरदस्त भूख है। उनकी इस आदिम भूख को दूसरे देश पुरस्कार आदि देकर मिटाने की कोशिश में लगे रहते हैं पर भूख है कि मिटने का नाम ही नहीं लेती। बढती ही चली जा रही है। इस खूंखार भूख ने अरुंधति को बेचैन और बदहवास करके रख दिया है। इसी बदहवासी में कुछ भी बकने से बाज नहीं आतीं। देश का बच्चा-बच्चा जानता है कि कश्मीर भारत का है और भारत का ही रहेगा। दुनिया की कोई भी ताकत कश्मीर को भारत से अलग नहीं कर सकती। पर देशद्रोही किटाणुओं में रची-बसी अरुंधति कहती हैं कि जम्मू-कश्मीर कभी भारत का हिस्सा था ही नहीं इसलिए भारत को कश्मीर से और कश्मीर को भारत से आजादी की आवश्यकता है। अरुंधति राय को अगर आप करीब से देखेंगे तो आपको लगेगा कि यह तो बडी ही भोली-भाली मृदुभाषी महिला हैं पर इस महिला की असलियत कुछ और ही है। विदेशों से मिली खैरात की बदौलत देश के साथ देशद्रोह तक कर सकने को तैयार ख‹डी इस शैतान औरत की असली जगह तो जेल है। इसका इस तरह से खुली हवा में सांस लेना देश की शांत आबोहवा को इतना विषैला बनाकर रख देगा कि जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का जितना दुरुपयोग अरुंधति कर रही हैं उतना शायद ही किसी ने किया हो। इनकी देखा-देखी और भी पाक परस्त चेहरे देश को बांटने और तोडने की साजिशों के जाल बुनने लगे हैं। जो औरत आज यह कह रही है कि कश्मीर को भारत से आजादी की आवश्यकता है कल तो वह यह कहने से नहीं चूकेगी कि नक्सलियों को भारत से आजादी की आवश्यकता है। नक्सली ही इस देश के असली मालिक हैं और भारत नक्सलियों की ही शर्त मान ले।न जाने कितनी बार यह विषैली औरत नक्सलियों के समर्थन में भाषणबाजी कर लोगों के गुस्से का शिकार हो चुकी है, फिर भी इसकी मदहोशी बढती ही चली जा रही है। विदेशों में बैठे इसके आकाओं ने पता नहीं इसकी कितनी झोली भर दी है कि कठपुतली का नाच थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। कठपुतली को भारत के लोकतंत्र में ही खोट नजर आता है। हिं‍दुस्तान को फरेबी देश बताने वाली इस फरेबी नारी को ताकत और साहस देने वालों की इस देश में भी अच्छी-खासी तादाद है। यह तादाद है उन चेहरों की जो खुद को बुद्धिजीवी कहते हैं और जब-तब इस अलगाववादी प्रचार की भूखी लेखिका के पक्ष में आ खडे होते हैं। इन तथाकथित बुद्धिजीवियों ने विदेशों के बुद्धिजीवियों से भी टांके भिडा रखे हैं। तभी तो जब भी सरकार अरुंधति जैसियों ओर जैसों की नकेल कसने के प्रयास करती है तो यह भ्रम खडा कर दिया जाता है कि इनके साथ तो पूरी दुनिया खडी है...। देशद्रोह और अलगाववाद की भाषा बोलने वालों की श्रृंखला में इन दिनों एक नाम और खासी चर्चा में है। दरअसल गिलानी ओर अरुंधति एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। अरुंधति की तरह गिलानी भी खाते तो हिं‍दुस्तान की हैं पर गाते किसी और के लिए हैं। जम्मू-कश्मीर की आजादी का राग अलापने वाले गिलानी ने तो देश को तोडने की कसम ही खा ली है। अगर ऐसा नहीं होता तो वे भारत के अभिन्न अंग लद्दाख को भारत से अलग करने की कवायद में नजर नहीं आते। गिलानी की यह देशद्रोही सोच देशभक्तों का खून खौला चुकी है पर सरकार खामोश है। जो शख्स भारत सरकार को पानी पी-पीकर कोसता रहता है जिस जहरीले इंसान पर करोडों का टैक्स बकाया है, भरने की जिसकी नीयत ही नहीं है उस शैतान को कब तक बर्दाश्त करता रहेगा भारत देश? दरअसल अरुंधति हो या गिलानी दोनों भारत विरोधी ताकतों के खिलौने हैं जिन्हें फौरन तोड देना ही बेहतर होगा।

Thursday, October 21, 2010

कालिख में लिपटी कांग्रेस

अपने यहां के राजनेताओं को लाजवाब भाषण देने और ऊंची-ऊंची हांकने में गजब की महारत हासिल है। मुखौटे लगाने की कला में भी लगभग सबके सब पारंगत हैं। बिहार में विधानसभा चुनावों का श्री गणेश हो चुका है। खबरों पर खबरें आ रही हैं कि फलां-फलां पार्टी ने इस बार भी गुंडे, बदमाशों, बाहुबलियों को अपना-अपना प्रत्याशी बनाने में कोई कमी नहीं की है। लोग भी यह मान चुके हैं कि बिहार को अपनी जागीर समझने वाले लालू प्रसाद यादव, रामविलास पासवान और नीतीश कुमार इतने बेबस हैं कि वे चाह कर भी अराजक तत्वों से मुक्ति नहीं पा सकते। पर लोगों को तो हैरत राहुल गांधी को लेकर हो रही है। वे पिछले कुछ महीनों से लगातार देश भर में यह कहते घूम रहे हैं कि उनकी एक ही मंशा है कि राजनीति में साफ सुथरे चेहरों का प्रवेश हो। देश और प्रदेश की कमान ऐसे युवाओं के हाथ में हो जिनमें राष्ट्रहित की भावना कूट-कूट कर भरी हो। भाई-भतीजावाद और चम्मचगिरी को पूरी तरह से हेय दृष्टि से देखने का दावा करने वाले युवा राहुल को बिहार में प्रत्याशी खडे करने के मामले में जिस तरह से सांप सूंघ गया उससे तो यही निष्कर्ष निकलता है कि वे भी हवा में तीर छोडने वाले खिलाडी हैं। जमीनी बदलाव लाना उनके बस की बात नहीं है। तभी तो बिहार में कांग्रेस की टिकट पर कई अपराधी और घोर विवादास्पद सफेदपोश भी चुनाव ल‹ड रहे हैं। राहुल चाहते तो संदिग्ध प्रत्याशियों को टिकट दिये जाने का खुलकर विरोध करते हुए उनका पत्ता साफ करवा सकते थे पर ऐसा नहीं हुआ...। इसे राजनीतिक विवशता कहें या कुछ और...? जवाब तलाशना कतई मुश्किल नहीं है। सवाल नीयत और उस दृढ इच्छाशक्ति का है जो गधे के सींग की तरह गायब हो चुकी है। आज की लगभग तमाम राजनीति और राजनेता धनबल के सियासी रास्ते पर चल रहे हैं। राहुल से कुछ अलग उम्मीद थी पर बिहार के चुनाव ने हकीकत बयां कर दी है कि राहुल बोलवचनों के जितने वीर हैं, करनी और कथनी में एक रूपता लाने के मामले में फकीर के फकीर हैं। कोई अगर यह कहे कि बिहार में प्रत्याशियों का चयन करते समय राहुल की राय नहीं ली गयी होगी, इस बात पर भला कौन विश्वास कर सकता है?कांग्रेस सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इशारों पर नाचने वाली पार्टी है और उसी पार्टी ने जब दागियों को मैदान में उतारने में परहेज नहीं किया तो लालू-पासवान जैसों को दोष देना बेकार है। यह भी जाना-माना सच है कि आज की तारीख में पेशेवर नेताओं और अराजक तत्वों के पास धन की भरमार है। यही योग्यता उन्हें किसी भी पार्टी की टिकट दिलवाती है और वे बडी आसानी से चुनावी मैदान में कूदते हैं और धनबल और बाहुबल से जीत भी हासिल कर लेते हैं। ईमानदार और समर्पित लोगों के लिए राजनीति में अब तो कोई जगह ही नहीं बची है। राजनीति के अखंड सौदागरों ने देश को खरीद-फरोख्त का ऐसा बाजार बना कर रख दिया है जहां दिग्गज राजनेताओं की कीमत का भी सरेआम भंडाफोड हो रहा है। देश का आम आदमी जान गया है राजनीति के हमाम में सब नंगे हैं। इसलिए चोर-चोर मौसेरे भाई वाले रिश्तों में प्रगाढता गहराती चली जा रही है। पिछले दिनों महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रदेशाध्यक्ष माणिकराव ठाकरे और पूर्व मंत्री सतीश चतुर्वेदी खुद ही कबूल कर चुके हैं कि पार्टी के विभिन्न कार्यक्रमों के लिए येन-केन-प्रकारेण धन जुटाया जाता है। मंत्री लाखों रुपयों की थैलियां देते हैं। मुख्यमंत्री को भी करोडों की व्यवस्था करनी पडती है। ऊपर तक 'देन' पहुंचायी जाती है। यह तो सबको खबर थी कि राजनीतिक पार्टियां अपने नेताओं की सभाओं के लिए तरह-तरह से धन वसूलती हैं पर इतना बडा खेल होता होगा इसकी कल्पना नहीं थी। देशवासियों ने पहली बार जाना कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी को निमंत्रित करने और सभाएं आयोजित करने के लिए करोडों की दक्षिणा चढानी पडती है।घुटे हुए कांग्रेसी भले ही इस सच्चाई को झुठलाने के लिए शब्द जाल फेंकते रहें पर कांग्रेस में पैसे के लेन-देन का खुलासा तो खुद उन कांग्रेसियों ने ही किया है जिनका अपना अच्छा-खासा वजूद है। इतना बडा रहस्योद्घाटन होने के बाद भी मैडम और राहुल गांधी का कुछ न बोलना बहुत कुछ कह गया है...। जब देश की सबसे पुरातन पार्टी के ऐसे हाल हैं तो भाजपा, शिवसेना, समाजवादी, बसपा आदि...आदि के कमाल और धमाल पर लिखने और बताने की जरूरत ही कहां बचती है...!

Thursday, October 14, 2010

आज की राजनीति का सच

वे अपनी पार्टी के सुप्रीमों हैं। पार्टी उनके घर की जागीर है इसलिए हर तरह की मनमानी की उन्हें खुली छूट मिली हुई है। किसी में दम नहीं कि उनके फैसले के खिलाफ मुंह खोलने की हिम्मत दिखाए। कांग्रेस, भारतीय जनता पार्टी, शिवसेना, बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी तथा लालू रामविलास मार्का तमाम राजनीतिक पार्टियों में आम कार्यकर्ताओं से दरी-चादरें बिछवाने, झाडू लगवाने और नारे उगलवाने का ही काम लिया जाता है। कुछ ही ऐसे होते हैं जिनकी किस्मत जोर मारती है और वे भीड को चीरते हुए मंचों तक पहुंच पाते हैं। कुछेक ऐसे भी होते हैं जो राजनीतिक खानदान की पैदाइश तो नहीं होते पर उनमें वो चालाकी और चालगिरी कूट-कूट कर भरी होती है, जो जन्मजात शातिर नेताओं की पहली पहचान है। महाराष्ट्र की राजनीति में दबंग नेता की ख्याति पा चुके नारायण राणे का नाम तो आपने जरूर सुना होगा। ये महाशय पहले शिवसेना में थे। बाल ठाकरे की चरण वंदना करते-करते प्रदेश के मुख्यमंत्री तक बनने में सफल होने वाले राणे का एक बयान काबिले गौर है। वे फरमाते हैं कि राजनीति में कभी उनका कोई गॉडफादर नहीं रहा। अपने ही बलबूते पर उन्होंने वो सफलताएं बटोरी हैं जो अक्सर उनके शत्रुओं को खटकती रहती हैं। नारायण को अब कौन समझाये कि जब आप किसी की चमचागिरी और नाक रगडाई से कोई बडा पद पाते हैं तो उसके बाद आपको कोई हक नहीं बनता कि यह कहें कि आपका कोई गॉडफादर नहीं है। यह तो नमक हरामी और अहसान फरामोशी की हद है...। कभी कट्टर शिवसैनिक रहे राणे को जब यह लगा कि शिवसेना का अब सत्ता में आना मुश्किल है तो उन्होंने बिना वक्त गंवाये देश की सबसे पुरातन पार्टी कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने भी उन्हें अपनी गोद में बिठाने में कोई परहेज नहीं किया। कांग्रेस के दिग्गज यह भी भुला बैठे कि यही राणे कभी कांग्रेस की सुप्रीमों सोनिया गांधी को अपमानजनक संबोधनों से नवाजा करते थे। राजनीति में राणे जैसों का कभी बाल बांका नहीं होता क्योंकि उनके साथ विशाल वोट बैंक होता है। तिजोरियां भी इनकी लबालब भरी रहती हैं। राणे के एक दुलारे बेटे सांसद भी बन गये हैं। उन पर गुंडागर्दी और तोडफोड के अक्सर आरोप लगते रहते हैं। राणे अपने बेटे के गॉडफादर होने की बखूब भूमिका निभाते हुए महाराष्ट्र सरकार में मंत्री पद का भरपूर सुख भोग रहे हैं। हकीकत यह है कि राजनीति में गॉडफादर का होना बहुत जरूरी है। जिन पर गॉडफादर्स का हाथ नहीं होता वे अधर में लटके रह जाते हैं। कुछ पर जन्मजात गॉडफादर का हाथ रहता है तो कुछ अपने दम पर गॉडफादर बनाते हैं। राजनीति का यही दस्तूर है। भले ही कोई माने या ना माने।कई तथ्य ऐसे होते हैं जिनसे धीरे-धीरे पर्दा हटता है। पर्दा हटने के बाद मुखौटे उतरते हैं पर बेनकाब होने वालों को कोई फर्क नहीं पडता। इसलिए तो कहा गया है कि राजनीति अच्छे भले इंसान को 'बेहया' और मतलबपरस्त बना देती है। जो लोग निरंतर खबरों से वास्ता रखते हैं उन्हें याद होगा कि शिवसेना के शहंशाह अक्सर गांधी परिवार पर परिवारवाद चलाने का आरोप लगाया करते थे। तब उनके पुत्र राजनीति में नहीं आये थे। पर जब पुत्र उद्धव ठाकरे ने कमर कस ली तो बाल ठाकरे ने वही किया जो कांग्रेस और दीगर पार्टियां करती आयी हैं। बाल ठाकरे को तो अपने परिवार में ही विरोध का सामना करना पडा। परिणाम स्वरूप भतीजा राज ठाकरे विद्रोह का बिगुल बजाते हुए अपनी बनायी पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की कमान संभाले हुए है। ताजा खबर यह भी है कि बाल ठाकरे के पोते यानि उद्धव ठाकरे के बेटे आदित्य ठाकरे को भी राजनीति में उतारा जाना तय कर लिया गया है। आदित्य को युवा सेना की कमान सौंपने की तैयारियां जोर-शोर से चल रही हैं। गॉडफादर बनने और परिवारवाद को पोषित करने का इससे बेहतर उदाहरण और क्या हो सकता है। इसी परिवारवाद के विद्रोह स्वरूप नारायण राणे शिवसेना से अलग हुए थे पर बाल ठाकरे को इससे कोई फर्क नहीं पडा था। शिवसेना जरूर कमजोर हुई थी। महाराष्ट्र में पार्टी बाद में और परिवार पहले का दस्तूर कोई नयी बात नहीं है। यहां के स्थापित नेता 'घर' को इसलिए प्राथमिकता देते हैं क्योंकि उन्हें बाहर वालों पर यकीन नहीं होता। बेचारे कई बार विश्वासघात के शिकार जो हो चुके हैं इसलिए कोई जोखिम नहीं लेना चाहते। जमीनी कार्यकर्ताओं को मन मार कर राजनेताओं की औलादों के नखरे झेलने पडते हैं और चप्पलें उठानी पडती हैं। महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री अशोकराव चव्हाण अगर दिवंगत कांग्रेसी नेता शंकरराव के सुपुत्र न होते तो शायद ही उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री बनने का सौभाग्य प्राप्त होता। महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख जो वर्तमान में केंद्रीय उद्योगमंत्री हैं, को भी परिवारवाद ही रास आता है। उनके सुपुत्र अमित देशमुख कांग्रेस की राजनीति में अपनी पकड बनाने में लगे हैं। गॉडफादर के रूप में पिता का आशीर्वाद ऐसा बना हुआ है कि महाराष्ट्र युवक कांग्रेस का अध्यक्ष बनने से भी उन्हें कोई नहीं रोक पायेगा। जबकि काबिलियत के मामले में और भी बहुतेरे हैं। जिन्होंने कांग्रेस के लिए अपना खून-पसीना बहाया है पर यहां त्याग और समर्पण की नहीं, गॉडफादर की तूती बोला करती है। दूसरी कोई आवाज नहीं सुनी जाती। कहने को देश में लोकतंत्र है पर कैसा लोकतंत्र है इसका बेहतर जवाब वही दे सकते हैं जो वर्षों तक किसी राजनीतिक पार्टी की सेवा करते-करते उम्रदराज हो गये हैं पर उन्हें कोई पहचानता तक नहीं है। राजनेताओं के नकारा से नकारा पूतों को भी मीडिया ऐसे हाथों-हाथ लेता है जैसे इनका जन्म ही देश पर राज करने के लिए ही हुआ हो...।

Thursday, October 7, 2010

इंसान की औलाद...

जैसी उम्मीद थी वैसा ही हुआ। देश के सजग सपूतों ने ऐसा कुछ भी नहीं किया जिससे भाईचारा आहत होता। हर किसी ने भारतमाता के सम्मान को बरकरार रख अयोध्या के फैसले का स्वागत किया। कुछ मुलायमनुमा सियार जरूर कूदते-फांदते नजर आये पर जनता से मिले घोर तिरस्कार ने उनकी भी बोलती बंद कर दी। यह देश अब अमन और शांति के साथ जीना चाहता है। अतीत में मंदिर-मस्जिद और धर्म के नाम पर हुए खूनी खेल और भयावह तमाशों ने बहुत बडा सबक दिया है। लोग नेताओं की असलियत से वाकिफ हो चुके हैं। उनमें संयम और परिपक्वता आ गयी है, पर बडे दु:ख की बात है कि कुछ नेता वहीं के वहीं हैं। हिं‍दुओं और मुसलमानों को लडाने की साजिशी मंशा आज भी उनमें यथावत बनी हुई है। अयोध्या विवाद पर आये उच्च न्यायालय के फैसले को जिस तरह से मुलायम सिं‍ह ने कटघरे में खडा करने की कोशिश की उससे यह तथ्य तो अब एकदम पुख्ता हो गया है कि मुलायम सिं‍ह के लिए मुसलमान महज वोटर भर हैं और वोटरों में लिये यह सियार देश को जोडने नहीं, तोडने की चाहत पाले हुए है। यह अच्छा ही हुआ कि मुलायम सिं‍ह की असलियत मुसलमानों की भी समझ में आ गयी है। इस बार मुलायम का दांव उल्टा पडा है। जो उन्होंने सोचा था वह हो नहीं पाया। बदनीयत मुलायम कट्टर हिं‍दू - मुसलमान नेताओं को भडकाने की चाल में नाकामयाब होकर अपना माथा पीटने को विवश हैं। मुलायम की साजिश पर पानी फेरते हुए जिस तरह से दोनों समुदायों के धार्मिक नेताओं ने संयम और परिपक्वता का परिचय दिया उससे यकीनन भारतमाता का सिर और ऊंचा हुआ है। दलितों की राजनीति कर अपना स्वार्थ साधने वाले रामविलास पासवान जिन्होंने फैसले को निराशाजनक बता कर मुसलमानों का हितैषी बनने का ढोंग किया वे भी अमन पसंद मुसलमानों के समक्ष बेहद बौने साबित होकर रह गये। इतिहास गवाह है कि मुलायम, लालू और पासवान जैसे हद दर्जे के मतलबपरस्त नेताओं की राजनीति धर्मांध मुसलमान नेताओं के भरोसे चलती आयी है। यह लोग इस हकीकत से रू-ब-रू हो ही नहीं पाये कि आज की युवा पीढी, चाहे वो मुसलमानों की हो या हिं‍दुओं की, धर्मांधता पर यकीन नहीं रखती। धर्म के असली मायने आज की सजग युवा पीढी ने जान और समझ लिये हैं। २१ वीं सदी के भारत में अलगाववाद और मजहबी उन्माद के लिए कोई जगह बाकी नहीं बची है। युवाओं को मालूम है कि देश के विकास और जन-जन की बेहतरी के लिए शांति, अमन और भाईचारे का होना बेहद जरूरी है। यह ६ दिसंबर १९९२ का नहीं २०१० का वो हिं‍दुस्तान है जहां हिं‍दू और मुसलमानों से पहले इंसान बसते हैं। इंसानों का हैवानियत से कोई लेना-देना नहीं हो सकता। वैसे भी सारी दुनिया जानती है कि यह भारत देश ही है जिसने हमेशा इंसानियत का पैगाम दिया है। जिन हैवानों ने इंसानियत के जिस्म को छलनी करने का पाप किया उन्हें इतिहास काफी माफ नहीं करेगा। हम यह भी जानते और मानते हैं कि अयोध्या पर आये फैसले से कुछ भारतवासी नाखुश हैं पर इस नाखुशी के मौके पर भी उन्होंने जिस संयम और परिपक्वता का आदर्श उदाहरण प्रस्तुत किया, वही इस देश की मूलभूत पहचान है। इसी पहचान की देन हैं वर्षों पहले लिखी गयी किसी कवि की यह पंक्तियां-तू हिं‍दू बनेगा न मुसलमान बनेगा
इंसान की औलाद है इंसान बनेगा...।

Thursday, September 30, 2010

बाहुबलियों को सबक सिखाने का सही व़क्त

यह अच्छा ही हुआ है कि देश की राजनीति के सुपर दलाल अमर सिं‍ह और मसखरे लालू प्रसाद यादव की डुगडुगी बजनी काफी कम हो गयी है। ऐसे लोगों का हाशिये में चले जाना ही देशहित में है। हाशिये में होने के बावजूद भी अमर सिं‍ह और लालू प्रसाद बेचैन हैं। अपनी करनी पर चिं‍तन करने के बजाय दूसरों को दोष देने में लगे हैं। अमर तो दार्शनिक की मुद्रा में आ गये हैं। उन्हें अब जाकर पता चला है कि यह दुनिया स्वार्थियों से भरी पडी है। उन्होंने जिनका मुश्किलों में साथ दिया वो आज उनसे कन्नी काट रहे हैं। अपने जर्जर शरीर के साथ जीवन की आखिरी राजनीतिक जंग लड रहे अमर का बडबोलापन भी अब गायब हो चुका है। पर लालू हार कर भी हारने को तैयार नहीं हैं। कभी अपनी पत्नी राबडी देवी को जबरन बिहार की मुख्यमंत्री बनवा कर अपनी दुकानदारी चला चुके लालू महाराज अब अपने लाडले को राजनीति में स्थापित करने के फेर में हैं। उनका मानना है कि उनका छोकरा बडे-बडों की छुट्टी कर देने का दम रखता है। राहुल, वरुण आदि उसके सामने कुछ भी नहीं हैं। लालू को लग रहा था कि वे जैसे ही अपने घर के चिराग के राजनीतिक प्रवेश की घोषणा करेंगे वैसे ही पूरे बिहार का वातावरण लालूमय हो जायेगा। पर इस बार तो वो हो गया जिसकी कल्पना लालू ने शायद ही कभी की हो। बाप ने जैसे ही बेटे की राजनीति में प्रवेश की औपचारिक घोषणा की, युवा समर्थकों का खून खौल उठा। उन्होंने बिना कोई लिहाज किये पार्टी के कार्यालय के सामने ही लालू का पुतला जला डाला। अपना पुतला जलाये जाने का मतलब लालू न समझे हों ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लालू को तो यकीन था कि जिस तरह से उन्होंने अपनी अनपढ गंवार राबडी को जबरन राजनीति में लाकर बिहार की मुख्यमंत्री बनाया था और उनके समर्थक बिना किसी विरोध के तालियों के साथ स्वागत करते नजर आये थे इस बार भी वैसा ही होगा। बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री यह तथ्य भुला बैठे कि आज के युवा उनकी चाल बाजियों का शिकार होने को कतई राजी नहीं हो सकते। अपने दो सालों को विधायक व सांसद बनाने में सफल रहे इस जोकर नेता का दिमाग जरूर ठिकाने लग गया होगा। उन्हें अपनी राजनीतिक औकात का भी पता चल गया होगा। बिहार में लालू का पुतला फूंका जाना यह बताता है कि वहां के युवा लकीर के फकीर बनने को तैयार नहीं हैं। बिहार में शीघ्र ही विधानसभा चुनाव होने हैं। देखने-सुनने और पढने में आ रहा है कि इस बार भी कई बाहुबली अपनी किस्मत आजमाने के लिए कमर कस चुके हैं। पप्पू यादव, साधु यादव, ददन पहलवान, मो. शहाबुद्दीन और तस्लीमुद्दीन जैसे कालिख पुते चेहरों की जमात के गुंडे बदमाशनुमा नेता विभिन्न पार्टियों की टिकट पाने के लिए कतार में लग चुके हैं। बाहुबलिया को प्रश्रय देने में लालू प्रसाद का तो कोई सानी नहीं है परंतु सुशासन का दावा करने वाले मुख्यमंत्री नीतीशकुमार का भी बाहुबलियों से पिं‍ड छुडा पाना आसान नहीं है। जो लोग बिहार की राजनीति से गहरे तक वाकिफ हैं उनका कहना है कि बिहार की समूची राजनीति ही बाहुबलियों और अराजक तत्वों के इर्द-गिर्द घूमती है। देखा जाए तो यह बिहार के माथे का ऐसा कलंक है जिसे मिटाये बिना गौतम बुद्ध, महावीर और महात्मा गांधी के विचारों को अपना आदर्श मानने वाले प्रदेश का कल्याण नहीं हो सकता। यह काम भी बिहार के युवाओं को ही करना है और इसके लिए विधानसभा चुनावों से उपयुक्त भला और कौन-सा वक्त हो सकता है...।

Friday, September 24, 2010

असली परीक्षा की घडी है यह

राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का फैसला २४ सितंबर को आने वाला है। देश की आम जनता के साथ-साथ तमाम राजनैतिक पार्टियों और नेताओं की निगाहें भी इस फैसले पर लगी हैं। जो लोग स्वार्थी राजनेताओं की फितरत से वाकिफ हैं वे कुछ-कुछ घबराये हुए हैं। देश की राजधानी दिल्ली भी चिं‍ताग्रस्त है। देशभर में शंकाओं आशंकाओं और कुशंकाओं से जन्मा डर चहल-कदमी करता नजर आ रहा है। फैसले को लेकर 'अयोध्या' भले ही शांत दिखायी दे रहा है पर देश के प्रदेशों में सामाजिक और राजनीति सरगर्मियां तेज हो गयी हैं। सर्वधर्म समभाव की भावना के साथ जीने वालों ने सामाजिक सदभाव बनाये रखने की अपनी कोशिशों को तेज कर दिया है। हिं‍दु हों या मुसलमान सब यही चाहते हैं कि देश में अमन और शांति बनी रहे। इतिहास गवाह है दंगों ने सिर्फ जिं‍दगियां छीनी हैं और कुछ नहीं दिया। २१ सितंबर की दोपहर डेढ बजे जब मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं तब मुझे छ:दिसंबर १९९२ याद आ रहा है। अयोध्या में इसी दिन भारतीय जनता पार्टी, विश्व हिं‍दु परिषद और शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने लालकृष्ण आडवानी, साध्वी उमा भारती आदि की रहनुमाई में विवादित ढांचे को गिरा दिया था। देशभर में हिं‍दू-मुसलमानों के बीच भडके दंगों में दो हजार से ज्यादा लोग मारे गये थे। आपसी भाईचारा भी बुरी तरह से लहुलूहान हुआ था। इसी कांड की बदौलत कालांतर में भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना को सत्ता का सुख भोगने का अवसर भी मिला था। अटल बिहारी वाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने थे और देशवासियों ने उनसे जो उम्मीदें लगायी थीं सबकी सब धरी रह गयी थीं। राम के नाम पर सत्ता पाने वालों का सच सामने आने में जब ज्यादा वक्त नहीं लगा तो सजग देशवासियों का मोहभंग होने में भी देरी नहीं लगी। आज भी इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद विवाद का मामला काफी संवेदनशील है और देश में ऐसे चेहरों की भी खासी तादाद है जो इस संवेदनशीलता का राजनीतिक फायदा लेने को व्याकुल हैं। इसके लिए वे कुछ भी कर और करवा सकते हैं पर सवाल यह है कि आज के नितांत बदले हुए दौर में देश का आम आदमी उनके साथ खडा होने को तैयार है? जवाब आप और हम सभी जानते हैं। दरअसल यह उस देश की परीक्षा की घडी है जहां के लोग धोखा खाने के बाद चेत चुके हैं। अधिकांश लोगों को धर्म के खिलाडिं‍यों की वो राजनीति भी समझ में आ गयी है जो भाई-भाई का खून बहाने और दंगों पर दंगे कराने से नहीं हिचकिचाती। अमन-पसंद लोगों को मंदिर या मस्जिद से कोई लेना-देना नहीं है। अलगाव फैलाने वाले ही मंदिर-मस्जिद की बात करते हैं। आम हिं‍दुस्तानी तो विवादित स्थल पर राम-रहीम चिकित्सालय, विद्यालय बनाये जाने का पक्षधर है। भंते सुरई सरसाई ने कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को एक सुझाव दिया था कि अयोध्या स्थित राम कुंड की जगह को छोडकर उसके एक तरफ राम मंदिर, दूसरी तरफ मस्जिद, एक तरफ बौद्ध विहार, गुरूद्वारा जैसे सभी धर्मों के पूजाघरों का निर्माण किया जाए ताकि यह विवादित स्थल भारत देश की विभिन्न संस्कृतियों की एकता का प्रतीक बन जाए। मैडम जी को यह सुझाव पसंद तो बहुत आया था पर उस पर अमल नहीं हो सका। क्यों नहीं हो सका इसका जवाब राजनेता और उनकी राजनीति ही बेहतर तरीके से दे सकती है। वैसे अपने देश में नेताओं की ही चलती है। आम आदमी की कोई नहीं सुनता। खास लोगों के धूम-धडाके और शोर-शराबे में उसकी आवाज दम तोड देती है। यह अच्छी बात है कि सांप्रदायिक सौहाद्र्र का गला घोटने वालों के खिलाफ अब लोग खुलकर बोलने लगे हैं। १९९२ में जो कोहरा था वो २०१० में नहीं हैं। लोग एक दूसरे को गले लगाना हितकर मानते हैं। खून खराबे का डरावना इतिहास सच्चे भारतीयों को कतई नहीं लुभाता। देश और देशवासी काफी आगे निकल आये हैं। जो लोग अफवाहों और उत्तेजनाओं को फैलाने का धंधा करते हैं वे भी जानते समझते हैं कि अब लोग खून की होली खेलने वालों के झांसे में कतई नहीं आने वाले। एक सच यह भी जान लीजिए कि राम के नाम पर सत्ता का सुख भोगने वाली भाजपा हो या फिर कांग्रेस दोनों अयोध्या के मामले को लटकाये रखना चाहते हैं। सोचिए कि अगर राम मंदिर बन गया तो उसके बाद भाजपा के लिए कौन-सा मुद्दा बचेगा? कई बार तो यह शक भी होता है कि कांग्रेस और भाजपा दोनों अंदर से एक हैं। अगर दोनों पार्टियां ठान लेतीं तो इसका हल कब का निकल चुका होता। जिस मामले का साठ साल तक फैसला नहीं हो सका उसका इतनी जल्दी सुलझना आसान नहीं है। महाराष्ट्र में फैसले से पहले की सरगर्मियां तेज हो चुकी हैं। मुख्यमंत्री के निर्देश पर सभी पालकमंत्रियों ने अपने-अपने जिलों में डेरा डालना शुरू कर दिया है ताकि कोई गडबड न होने पाये। पुलिसवालों की सभी छुट्टियां रद्द कर दी गयी हैं और चौंकाने वाली बात यह है कि प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील ने लोगों को सुरक्षा की भरपूर गारंटी देने के बजाय घर से बाहर न निकलने की सलाह दी है। तय है कि जैसे हाल महाराष्ट्र के हैं वैसे ही अन्य प्रदेशों के हैं। पर इस बार असली इम्तहान तो आम जनता का है जिसे हथियार बना कर खूनी खेलों को अंजाम दिया जाता रहा है...।

Thursday, September 16, 2010

बाजारू चेहरे

अपने देश में एक से बढकर एक 'बयानवीर' भरे पडे हैं। नेताओं वाली इस बीमारी से वो सितारे भी अछूते नहीं हैं जो हमेशा मीडिया की सुर्खियों में बने रहते हैं। सलमान खान और शाहरुख खान जैसे कई नायक हैं जिन्हें विवादों में रहने की आदत पड गयी है। तूफानी विवाद उनकी जरूरत और फितरत बन गये हैं। वहीं दूसरी तरफ ऐसे राजनीतिक नायकों की भी कमी नहीं है जो इस इंतजार में रहते हैं कि कब यह सितारे मुंह भर खोलें और यह उन पर अपनी बंदूकें तान दें। ज्यादा वक्त नहीं बीता जब शाहरुख ने किसी पाकिस्तानी क्रिकेटर की पैरवी की थी और देश भर में ऐसे हंगामा बरपा हो गया था जैसे धरती फट गयी हो और आसमान गायब हो गया हो। कुछ चेहरे शाहरुख खान को 'देशद्रोही' के खिताब से नवाजने से भी नहीं चूके थे। शिवसेना ने तो जिद ही पकड ली थी कि शाहरुख माफी मांगे नहीं तो...। शाहरुख अपनी बयान पर अडिग रहे थे। इस विस्मयकारी अडिगता के पीछे उन पंजा छाप राजनेताओं की ताकत थी जो हमेशा इस नायक के साथ खडे नजर आते हैं। इन नेताओं ने शाहरुख का साथ इसलिए भी दिया था क्योंकि भाजपा और शिवसेना की हर बात का विरोध करना उनका 'राजनीतिक धर्म' है। वैसे भी कांग्रेस हो या भाजपा दोनों को नामवर चेहरों की तलाश रहती है। यह 'नाम' कुख्याति की देन हो तब भी कोई फर्क नहीं पडता। तभी तो अपने देश में दस्यू सुंदरी फूलन देवी को चुनाव जितवा कर लोकसभा भवन के अंदर सांसद बनाकर बिठा दिया जाता है...। हत्यारे, बलात्कारी भी इसी काबिलियत के दम पर किसी भी पार्टी का चुनावी टिकट पाने में सफल हो जाते हैं। फिल्मी सितारे इनकी पहली पसंद बन चुके हैं। किसी को कहीं कोई आश्चर्य नहीं होगा जब किसी लोकसभा चुनाव में शाहरुख खान कांग्रेस पार्टी की टिकट पर चुनाव लडते नजर आएंगे। संजय दत्त को देश के सबसे बडे सत्ता के दलाल अमरसिं‍ह ने झटक लिया वर्ना आज वे कांग्रेस के पाले में नजर आ रहे होते। बहन और भाई दोनों की एक साथ तूती बोल रही होती।इन 'सिद्धांतवादी' पार्टियों को इस बात से भी कोई फर्क नहीं पडता कि नामवर चेहरा कैसे-कैसे अपराध कर चुका है। कभी भी वर्षों तक के लिए जेल भेजा जा सकता है। शाहरुख पर किसी भी तरह के अपराध का कलंक नहीं है। पर सलमान खान के अपराधों की लंबी फेहरिस्त है। सलमान खान की फिल्में हिट होती हैं। वे जहां भी जाते हैं लोगों का हुजूम पागलों की तरह उन पर टूट पडता है। पत्रकारों को हीरो की डांट-फटकार और दुत्कार सुनने के बाद भी कोई फर्क नहीं पडता।वे तो अहंकारी और बदतमीज सलमान के ग्लैमर के वशीभूत होकर अपनी गरिमा को भी नीलाम कर देते हैं। पत्रकारों और राजनेताओं को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले फिल्मी नायक को खुद के असली नायक होने का जबर्दस्त भ्रम हो चुका है। हाल ही में उसने पाकिस्तान के एक टीवी चैनल से साक्षात्कार के दौरान कह डाला कि 'मुंबई हमलों को इतना तुल इसलिए दिया गया क्योंकि उसमें कुलीन लोगों को निशाना बनाया गया था। अगर गरीब निशाना बनते तो इतनी हाय- तौबा कतई न मचती। अपनी अक्ल के घोडे दौडाते हुए उसने यह भी कह दिया कि इस हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ नही था। हमारे देश की सुरक्षा व्यवस्था ही इतनी पंगु है कि बडा हमला आसानी से हो गया। देश में पहले भी इस तरह के कई हमले हो चुके हैं। २६/११ के हमलों को लेकर हाय-तौबा मचाने वाले तब कहां थे?' सलमान के इस बयान के सामने आते ही तीखी प्रतिक्रियाओं का सिलसिला शुरू हो गया। शिवसेना और महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना ने पहले तो बवाल मचाया पर फिर उनके सुर तब ठंडे पड गये जब सलमान ने माफी मांग ली। शिवसेना सुप्रीमो को सलमान की माफी मांगने की अदा इस कदर भायी कि उन्होंने कह डाला कि सलमान शाहरुख से ज्यादा समझदार और भले मानुष हैं। जिन्हें झुकने में शर्म महसूस नहीं होती। वाकई यह अच्छा हुआ कि बडबोले सलमान ने माफी मांग कर लोगों के गुस्से को शांत कर दिया। सलमान यह भूल गये थे कि मुंबई हमला कोई छोटा-मोटा हमला नहीं था। यह तो सीधे-सीधे पाकिस्तान के द्वारा भारत पर किया गया आक्रमण था जिसमें कई भारतीय मारे गये थे। सवाल यह भी है कि सलमान ने कैसे तय कर लिया कि हमले के पीछे पाकिस्तान का हाथ नहीं था? क्या सलमान कसाब को भारतीय नागरिक मानते हैं? पाकिस्तान टीवी चैनल पर अपनी औकात से ऊंचा बयान देने वाले सलमान को यह भरोसा था कि इससे उसकी पाकिस्तान में अच्छी छवि बनेगी। उसकी फिल्मों को जमकर प्रचार भी मिलेगा और बाजार भी। सलमान ने ऊटपटांग बयान देकर अपने मकसद को भुना लिया है। लोग उसे राष्ट्रद्रोही कहें या राष्ट्रप्रेमी इससे उसे क्या फर्क पडने वाला है! वक्त और मौके के हिसाब से कुछ भी बक देना और फिर तमाशा देखना उसका शगल है...।

Thursday, September 9, 2010

अफ्रीका बनने के खतरों से जूझता हिं‍दुस्तान

कुछ खबरें बहुत चौंकाती हैं। हतप्रभ कर जाती हैं। लगातार सोचने का सिलसिला थमने का नाम ही नहीं लेता। सुलगते हुए सवाल जिस्म और आत्मा को झुलसा कर रख देते हैं...। यह जो पुरुष नाम का जीव है इसकी शैतानियत और हैवानियत का दूर-दूर तक क्यों अंत होता नजर नहीं आता? यह सवाल उन तमाम मांओं और बेटियों का है जो देश और दुनिया में फैले कामुक दरिंदों की हवस से जूझने को विवश हैं। भारतवर्ष में सदियों से ऐसी कई मान्यताएं और परंपराएं चली आ रही हैं जो नारियों को तरह-तरह के बंधनों और सामाजिक वर्जनाओं की जंजीरों में बांधे रखने की पक्षधर हैं। देश में ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है जो आज भी बेटियों को अभिशाप मानते हैं। कइयों को अपनी बच्चियों के घर से बाहर निकलने पर भय सताता है। ऐसों की भी अच्छी-खासी तादाद है जो घर में बेटी के पैदा होते ही उम्र भर के लिए चिं‍तित हो जाते हैं। इन चिं‍ता की लकीरों ने दूर सरहद पार तक अपने पैर पसार रखे हैं। पुरुषों की वासना के दंश से बचाने के लिए अफ्रीका में छोटी-छोटी बच्चियों पर जो अत्याचार किया जाता है उसकी कल्पना मात्र से ही संवेदनशील इंसान की रूह कांप जाती है। खुद मांएं ही अपनी बेटियों पर जुल्म ढाती हैं। विवशता में किये जाने वाले इस जुल्म को 'प्रथा' का जामा पहना दिया गया है। यहां कई इलाके ऐसे हैं जहां पर आठ-दस साल की बच्चियों के स्तनों को इस्त्री किया जाता है। आग में घंटों गर्म किये गये सिलबट्टे से उनकी मासूम छातियों को क्रुरता के साथ मसला जाता है। यह क्रुर कर्म सालों साल तब तक चलता रहता है जब तक उनके लडकी होने के निशान मिट न जाएं। शैतानों की नजरों से बचाये रखने के लिए जो मांएं अपनी बेटियों पर यह कहर ढाती हैं दरअसल वे भी इसका शिकार हो चुकी होती हैं। जीवन भर जिस पीडा से वे जूझती रहती हैं वही पीडा अपनी बच्चियों को सौगात में देने के पीछे उनका एक ही मकसद होता है अपनी बेटियों को वासना के दरिंदों से सुरक्षित रखना। दरअसल अफ्रीका में उन शैतानों की बहुतेरी तादाद रही है जिनकी भूखी निगाहें नारी देह तलाशती रहती हैं। वे मासूम बच्चियों को भी नहीं बख्शते। दस-बारह साल की लडकियों के साथ बलात्कार होते रहते हैं और खेलने-कूदने की छोटी-सी उम्र में वे गर्भवती बना दी जाती हैं। वे जब मां बन जाती हैं तो ताने देने वाले मुंह फाडकर खडे हो जाते हैं। घरों और स्कूलों के दरवाजे भी बंद हो जाते हैं। व्याभिचार और अत्याचार की शिकार हुई मासूम लडकियों का जीवन अंतत: नर्क बनकर रह जाता है। औरत के रूप में जन्म लेने की पीडा उन्हें मरते दम तक रूलाती रहती है। कामुक पुरुषों को इससे कोई फर्क नहीं पडता। अपना देश भी तो देह के भूखे भेडिं‍यों से भरा पडा है। पर हां यहां अफ्रीका जैसे भयावह और बदतर हालात नहीं हैं। फिर भी जो चि‍ताजनक हालात हैं उन्हें नजर अंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। विषैले जख्म को नासूर बनने में कितनी देर लगती है। अखबारों और न्यूज चैनलों में आये दिन छोटी उम्र की बच्चियों के अपहरण के समाचार छाये रहते हैं। इसी हफ्ते उत्तरप्रदेश के शहर बिजनौर की एक नाबालिग लडकी का अपहरण कर उसे एक लाख रुपये में एक ऐसे शख्स को बेच दिया गया जिसकी शादी नहीं हो पा रही थी। इसी तरह से न जाने कितनी मासूम बच्चियां काल कोठरी में कैद हैं जिनके बडे होने की राह देखी जा रही है ताकि उन्हें देह के बाजार में उतारा जा सके। यह सिलसिले आज से नहीं बल्कि वर्षों से चला आ रहा है। अपने ही घर-परिवार में छोटी लडकियों के शोषित होने की न जाने कितनी खबरें दिल दहलाती रहती हैं। आज का अखबार मेरे सामने है। छत्तीसगढ की औद्योगिक नगरी भिलाई में स्थित दो स्कूलों में शिक्षकों के द्वारा छात्राओं के साथ की गयी छेडछाड की खबरों की सुर्खियां भयावह भविष्य के संकेत दे रही हैं। ज्ञानदीप हायर सैकेंडरी स्कूल में सातवीं कक्षा में पढने वाली एक छात्रा के साथ स्कूल का प्राचार्य ही पिछले डेढ वर्ष से छेडछाड करता चला आ रहा था। यह कमीना इंसान छात्रा को कभी कम्प्यूटर कक्ष तो कभी अपने कमरे में बुलाकर अपनी मर्दानगी दिखाया करता था। जब भेद खुला तो हंगामा मच गया। लोग अय्याश प्राचार्य को पीटने के लिए दौड पडे पर कायर गायब हो गया। इसी तरह से कन्या प्राथमिक शाला में पांचवी कक्षा में पढने वाली बच्ची को वहशी शिक्षक कमरे में साफसफाई के लिए बुलाता और फिर छेडछाड पर उतर आता। इस तरह की न जाने कितनी घटनाएं रोज देशभर में घटती हैं। कुछ सामने आती हैं और बहुतेरी पर्दे के पीछे रह जाती हैं। जिस देश में नारी को पूजने का ढोंग किया जाता है वहां पर जिस तरह से स्कूल-कॉलेजों में शिक्षक और प्रोफेसर गुरू-शिष्य के पवित्र रिश्ते की धज्जियां उडाने पर तुले हैं उससे पालकों के मन में भय घर करता जा रहा है। मांएं बुरी तरह से डरी और सहमी हुई हैं। शिक्षालयों को मंदिरों का दर्जा भी दिया गया है पर यह मंदिर आज शोषण के अड्डों में तब्दील होते चले जा रहे हैं और सभ्य समाज का सिर शर्म से झुकता चला जा रहा है। बीते सप्ताह एक खबर पढने और सुनने में आयी। मथुरा में एक शिक्षक अपनी शिष्या के साथ कई दिन तक मुंह काला करता रहा। मथुरा जैसे और भी अनेक शहर और गांव हैं जो यौन शोषण अड्डों में तब्दील होते चले जा रहे हैं। लोगों का गुरुजनों से विश्वास हटता चला जा रहा है। अगर हालात काबू में नहीं लाये गये तो एक दिन ऐसा भी आयेगा जिस दिन हिं‍दुस्तान और अफ्रीका में फर्क करना मुश्किल हो जायेगा।

Thursday, September 2, 2010

चित्र-विचित्र

अपनी असहमति और नाराज़गी प्रकट करने के लिए संवाद से बढकर और कोई बेहतर रास्ता नहीं हो सकता। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो यह तय कर लेते हैं कि हम सही हैं और दूसरे गलत हैं और वे संवाद के बजाय अप्रिय और अराजक वारदातों को अंजाम देने लगते हैं। मर्यादाहीन हो जाते हैं। अब इन नक्सलियों की बात करें तो इस देश में ऐसे कम ही लोग होंगे जो इनकी हिं‍सक वारदातों को सही ठहराते हों। पर नक्सलियों को लगता है कि वे लूटपाट और मार-काट के जिस रास्ते पर चल रहे हैं वो सही है। उन्हें यह दर्द भी सताता है कि सरकारें उनकी पीडा को नहीं समझतीं। प्रशासन भी उनके साथ अन्याय करता है। उन्हें कहीं से भी न्याय नहीं मिलता इसलिए वे अपने तरीके से अपनी लडाई लड रहे हैं। नक्सलियों को विभिन्न सरकारी नुमाइंदों, व्यापारियों, राजनेताओं, पूंजीपतियों और समाज सेवकों में सिर्फ 'शोषक' का चेहरा ही नजर आता है! नक्सली देश के तमाम मीडिया से भी नाखुश हैं। हाल ही में भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) के द्वारा विभिन्न दैनिक समाचार पत्रों के कार्यालय में एक पर्चा भेजा गया है। इस पर्चे में 'पूंजीवादी मीडिया की साम्राज्यवादी लुटेरों से साठगांठ' शीर्षक के अंतर्गत जो भडास निकाली गयी है और बौखलाहट दर्शायी गयी है उसे आप भी पढ और जान लें:''महाराष्ट्र, उडीसा, छत्तीसगढ और झारखंड में सरकारें बडे पूंजीपतियों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के मुनाफे के लिए स्थानीय आदिवासियों का दमन और शोषण कर रही हैं। टाटा, जिं‍दल, मित्तल और पोस्को जैसे बडे पूंजीपतियों और विदेशी कंपनियों के मुनाफे के लिए आदिवासियों को उजाडने या मार डालने की साजिश में अखबार भी इन साम्राज्यवादियों का साथ दे रहे हैं। इन अखबारों के मालिक घोर पूंजीपति हैं और इनके यहां काम करने वाले सम्पादक और पत्रकार कुत्ते हैं।''
*****
महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में कुछ बस्तियां ऐसी हैं जहां गंदगी का साम्राज्य रहता है। बरसात में तो साफ-सफाई लगभग नदारद हो जाती है। ऐसे में जनसेवकों और नेताओं का जागना और रोष व्यक्त करना जायज है। लेकिन बीते सप्ताह शिवसेना के कुछ कार्यकर्ताओं ने शहर में फैली गंदगी और उससे पनपती बीमारियों को लेकर अपना रोष जताने का तरीका ही बदल डाला। महानगर पालिका की लापरवाही के प्रति शहरवासियों में भी खासा रोष था। पर शिवसेना वाले अपना रोष व्यक्त करने के लिए जब मनपा के अधिकारी रिजवान सिद्घिकी के केबिन में पहुंचे तो उनके हाथ में सुअर का एक छोटा-सा बच्चा था। उन्होंने सुअर के बच्चे को सिद्धिकी की टेबल पर रखकर जिस तरह से नारेबाजी की उससे वहां का वातावरण तनावपूर्ण हो गया। यह तनाव महानगर पालिका तक ही सीमित नहीं रहा। इससे निश्चय ही मुस्लिम समाज की भावनाएं भी आहत हुए बिना नहीं रहीं। यह तो अच्छा हुआ कि साम्रदायिक सौहाद्र्र में रचे-बसे शहर के वातावरण को सजग और जागरूक नागरिकों ने बिगडने नहीं दिया लेकिन खतरा तो पैदा कर ही दिया गया था...।
*****
३१ अगस्त २०१०, दोपहर का वक्त। गोंदिया पंचायत समिति भवन के सभागृह में मीटिं‍ग का दौर चल रहा था। इस मीटिं‍ग में एक महिला कर्मचारी भी शामिल थीं। मधुकर डी.खोब्रागडे नामक अधिकारी पर इस महिला को देखते ही सेक्स का भूत सवार हो गया और उसने महिला को धर दबोचा। बेचारी महिला हक्की-बक्की रह गयी पर अधिकारी ने मर्यादा की सभी सीमाओं को लांघते हुए उसके होंठों को अपने मुंह में दबोच लिया ओर मुंह में रखे गुटखे को उसके मुंह में डालने की निर्लज्ज और घिनौनी हरकत कर डाली। अधिकारी की उम्र साठ वर्ष और महिला कर्मचारी की उम्र चालीस वर्ष के आसपास है। महिला की आबरू लूटने वाला अधिकारी दलित जाति का है और महिला सुवर्ण जाति की। अगर यह मामला उलटा होता तो न जाने कितना हंगामा बरपा हो जाता...। हुडदंगी आसमान सिर पर उठा लेते। वैसे भी इस घटना ने इस तथ्य को फिर से पुख्ता कर दिया है कि हमारे यहां सरकारी नौकरी बजाने वाली महिलाएं कितनी सुरक्षित हैं और पुरुष कितने बेलगाम। उन्हें किसी मर्यादा और कानून-कायदे का डर नहीं है...।

Thursday, August 26, 2010

आस्था के बाजारीकरण का अखबारी तमाशा

तीस लाख से ऊपर की जनसंख्या वाला शहर नागपुर देश के बीचों-बीच एक गुलदस्ते की तरह सजा हुआ है इसलिए यह शहर देश का हृदय स्थल कहलाता है। अपनी लय में थिरकने वाले इस शहर की कई ऐसी खासियतें हैं जो इसे एक अलग और खास पहचान देती हैं। इस शहर से पिछले छियासठ वर्षों से एक दैनिक अखबार प्रकाशित होता चला आ रहा है। इस उम्रदराज अखबार को आज भी अपने पाठकों को बांधे रखने के लिए तरह-तरह की कलाबाजियों का सहारा लेना पड रहा है। बीते सप्ताह इस अखबार की ओर से मोतियों का प्रसाद बांट कर खूब प्रचार बटोरा गया। यह मोती कोई ऐसे-वैसे मोती नहीं थे! इन मोतियों के प्रसाद को बांटने से पहले कई दिनों तक अखबार और पोस्टर-होर्डिंग के माध्यम से प्रचार का जबरदस्त फंडा अपनाते हुए ऐलान किया गया कि नवभारत की ओर से साईं चरणों में सिद्ध पारिवारिक सुख समृद्धि के प्रतीक २१,००० मोती एवं पावन भभूत का नि:शुल्क वितरण किया जाने वाला है। इन मोतियों को जिन बिल्डरों समाज सेवकों, व्यापारियो, नेताओं और अन्य कारोबारियों ने सपत्नीक 'सिद्ध'(!) किया था उनकी तस्वीरे भी अखबार में छापी गयी थीं। साईं भक्तों को अधिक से अधिक संख्या में शहर के साईं मंदिर में पहुंच कर 'सिद्ध मोती' और 'भभूत' का प्रसाद ग्रहण करने के लिए आमंत्रित किया गया था। अखबार यह भी बताना नहीं भूला कि 'साईं भक्तों को मोती वितरण के पीछे का उद्देश्य घर-घर में समृद्धि और खुशहाली लाना है। यह मोती ना केवल साईं श्रद्धा के प्रतीक होंगे बल्कि इन्हें घर में रखने से हर तरह की खुशहाली की बरसात होगी। प्रसाद के रूप में वितरित होने वाले हर मोती के भीतर शांति और समृद्धि की गहराही छिपी हुई है। हजारों सीपों के बीच महासागर की अनंत गहराई में किसी एक सीप में एक मोती होता है। ऐसा मोती जब साईं चरणों में अपनी आराधना करके भक्त के पास पहुंचता है तो वह पारस पत्थर की तरह हो जाता है।'नागपुर के सबसे पुराने अखबार के कर्ताधर्ताओं ने एक नहीं पूरे इक्कीस हजार अनमोल मोतियों का 'प्रसाद' वितरित किया! वाकई यह कोई आसान काम नहीं था। महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में अपनी पहुंच और साख की बदौलत एन.बी.बाण्ड का जाल फैलाकर लाखों लोगों के साथ विश्वासघात कर उनके सपने छलनी कर चुके नवभारत वालों के लिए कुछ भी मुश्किल नहीं है। आज जब देशभर में लोगों की भावनाओं को भुनाने और आस्था के साथ खिलवाड करने का खेल चल रहा है तो ऐसे में अखबार वाले भी पीछे रहने को तैयार नहीं हैं। तरह-तरह के दावों और भरपूर प्रचार के बाद जब शहर में स्थित साईं मंदिर में भभूत के साथ मोतियों का प्रसाद बांटा गया तब जो अफरा-तफरी मची उससे अखबार मालिक बेहद आनंदित हुए और उन्हें तो जैसे मनचाही मुराद मिल गयी। साईं का प्रसाद पाने के लिए भीड ऐसे टूट पडी कि पुलिस के लिए भी संभालना मुश्किल हो गया। महिलाएं और बच्चे भीड में बुरी तरह दबकर रोने और चिल्लाने लगे। कई महिलाएं बच्चों को गोद में लेकर घंटों रोती बिलखती रहीं। बहुतेरियों ने बडी मुश्किल से खुद को भीड से सुरक्षित निकाला और अपने घर पहुंच कर राहत की सांस ली। साईं मंदिर में गुरुवार के दिन वैसे भी भारी भीड रहती है और प्रसाद बांटने के लिए जानबूझकर ही इसी दिन को चुना गया था! मोती इक्कीस हजार थे और बुलावा लाखों को दिया गया इसलिए धक्का-मुक्की और पटका-पटकी के ऐसे भयावह हालात बन गये कि लोग मौत के मुंह में भी समा सकते थे। परंतु पुलिसकर्मियों की जबरदस्त मुस्तैदी और साईंबाबा की कृपा से किसी की जान नहीं गयी। पर यह कहां का न्याय है कि आपके पास 'प्रसाद' की मात्रा कम हो और आप पूरे शहर को ही नहीं पूरे प्रदेश को न्योता दे दें और लोगों की जान खतरे में डाल दें? सर्वधर्म समभाव का संदेश देने वाले शिर्डी के साईंबाबा के भक्तों की संख्या आज करोडों में है पर कुछ लोग भक्ति और आस्था के बाजारीकरण पर उतर आये हैं। साईं ट्रस्ट भी इस मामले में पीछे नहीं है। उसने तो लंदन में १९ सितंबर को आयोजित होने जा रहे साईं सम्मेलन में साईं पादुकाओं को ले जाने का दृढ निश्चय कर लिया था। साईं के सजग भक्तों को ट्रस्ट के धंधेबाज धुरंधरों की नीयत समझ में आ गयी और ऐसा धुआंधार विरोध शुरू हुआ कि ट्रस्टियों को अपना फैसला वापस लेना पडा। साईं भक्तों का कहना है कि सच्चा साईं भक्त खुद शिर्डी आकर पादुकाओं का दर्शन करता है। साईं की निशानी लोगों के घर नहीं जाती। जिनकी साईं के प्रति आस्था है वे हजारों मील का सफर तय कर शिर्डी पहुंच ही जाते हैं। इसके लिए किसी भी तरह के प्रकार के फंडे की कोई जरूरत नहीं है। यह तथ्य भी याद रखा जाना चाहिए कि जिस दिन नवभारत के द्वारा सिद्ध मोतियों का प्रसाद बांटा गया उसके कुछ ही घंटों बाद शहर के कुछ तथाकथित साईं भक्तों की एक जमात ने एक अजब-गजब पराक्रम कर डाला। नागपुर में एक इलाका है जो यशोधरा नगर कहलाता है। यहां पर एक प्लॉट काफी दिनों से खाली पडा था। कुछ लोगों के मन में यह विचार आया कि क्यों न यहां पर साईंबाबा की मूर्ति स्थापित कर मंदिर बना दिया जाए। विचार को साकार करने के लिए फौरन साईंबाबा की मूर्ति खरीद ली गयी और फिर उसे स्थापित कर दिया गया। मूर्ति को देखने और नमन करने के लिए लोगों की भीड उमड पडी। प्लॉट खाली जरूर पडा था पर लावारिस नहीं था। जैसे ही प्लॉट के मालिक नवाज अंसारी अहमद को इसकी खबर लगी तो उसके पैरों के तले की जमीन ही खिसक गयी। वह भागा-भागा अपने प्लॉट पर पहुंचा। उसने मूर्ति की स्थापना करने वालों को बताया कि श्रीमानजी आप जिस जमीन पर आप मंदिर बनाने जा रहे हैं उसका स्वामी और कोई नहीं मैं ही हूं। कृपया आप मूर्ति हटा लें। पर उसकी बात को अनसुना कर दिया गया और देखते ही देखते वातावरण तनावपूर्ण हो गया। बिगडते हालात की खबर पुलिस तक भी जा पहुंची और उसने किसी तरह से लोगों को समझा-बुझाकर तनावपूर्ण स्थिति को नियंत्रित करने में सफलता पायी।इस देश में धर्म, आस्था और विश्वास के साथ जितना विश्वासघात हुआ है उतना शायद ही और किसी के साथ हुआ हो। दैनिक नवभारत वाले जब साईंबाबा के नाम से मोती और भभूत बांटने की तैयारियों में लगे थे और धडाधड येन-केन-प्रकारेण अपने पाठकों को लुभाने में जुटे थे तब मेरे मन में लगातार यह विचार आ रहा था कि यह कैसा तमाशा है! इस पर अगर मैंने कलम नहीं चलायी तो उन साईं भक्तों के साथ घोर अन्याय होगा जो आज इस सच से दूर हैं कि साईबाबा के नाम पर भी बाजार सजने लगे हैं। माल बेचा जाने लगा है और अपनी डूबती साख को फिर से जमाने के हथकंडे अपनाये जाने लगे हैं। अभी तक तो जो कर्म ढोंगी साधु संत किया करते थे वो कर्म अब मीडिया भी करने लगा है... और मीडिया की देखा-देखी और 'चेहरे' पर कमर कसने लगे हैं...।

Thursday, August 19, 2010

बात और बंदूक

यह हिं‍दुस्तान है। यहां मुद्दों को सुलगाया जाता है। बेमतलब की बातों में देशवासियों को उलझाया जाता है। समस्याएं जब तक विषैली नहीं बन जातीं तब तक कोई इलाज नही तलाशा जाता। दरअसल यह देश देश नहीं एक प्रयोगशाला बन चुका है। हर कोई प्रयोग करने लगा है। जिन लोगों को देश चलाने का जिम्मा दिया गया है वे एक-दूसरे पर वार करने में लगे हैं। यह लोग समस्या को जड से खत्म करने के लिए देशहित में एकजुट होकर एक स्वर में बोलने से कतराते हैं। आज जब देश एक और बटवारे की आहट से सशंकित और भयभीत है तब भी शासकों के चेहरे पर कोई शिकन नजर नहीं आती। देश बाहरी हमले को सहता आया है और उसने दुश्मनों को मुंहतोड जवाब देकर एक ओर दुबक कर बैठने के लिए विवश भी कर दिया है। पर घर के हमलावरों से वह बेहद घबराया हुआ है। अपनों के साथ खून की होली खेलने के लिए जिस बर्बरता और निर्ममता की जरूरत होती है वह इसके संस्कारों में नहीं है। इसी का फायदा जी भरकर उठाया जा रहा है।इसमें दो मत नहीं हो सकते कि आज देश नक्सलियों के आतंक से इस कदर जूझ रहा है कि उसे कुछ सूझ नहीं रहा है। यह आतंक अगर कहीं बाहर से आया होता तो उसे मिटाने के लिए ज्यादा ताकत नहीं लगानी पडती। इस बार के स्वतंत्रता दिवस पर देश के राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने बेकाबू होती नक्सली समस्या को लेकर गहन ‍चिं‍ता व्यक्त करते हुए नक्सलियों को राष्ट्र की मुख्य धारा में शामिल होने और हथियार छोडकर बातचीत की राह अपनाने की सलाह दी। नक्सलियों को इस तरह से समझाने के अनेकों प्रयास किये जा चुके हैं पर नक्सली नेता खून-खराबे से बाज ही नहीं आना चाहते। स्वतंत्रता दिवस के मौके पर ही देश की रेलमंत्री ममता बनर्जी ने लालगढ की सार्वजनिक सभा में आंध्रप्रदेश में पुलिस मुठभेड में मारे गये नक्सली नेता आजाद के मामले की जांच की मांग कर डाली। ममता ने तो यहां तक कह डाला कि नक्सलियों के खिलाफ सुरक्षाबलों द्वारा चलाये जा रहे अभियान पर भी विराम लगा दिया जाना चाहिए। ममता की यह मांग सोचने पर विवश करती है कि आखिर उनकी मंशा क्या है?ममता बनर्जी को एक संघर्षशील नेता का दर्जा मिला हुआ है। वह दूसरे राजनेताओं से निश्चय ही अलग हैं और उनकी सादगी भी सभी को लुभाती है। बंगाल में उन्हें जननेता के रूप में जो सम्मान मिलता चला आ रहा है वह हर किसी को नसीब नहीं होता। नक्सलवाद के बीज भी बंगाल से ही फूटे थे। इन बीजों को अगर खाद-पानी नहीं मिलता तो आज वे दरख्त नहीं बन पाते। ममता बनर्जी जैसे नेताओं ने अगर पहल की होती तो हालात इतने बेकाबू नहीं हो पाते। नक्सलवाद आज की पैदावार नहीं है। ममता भी कोई नयी-नवेली नेता नहीं हैं। इस रोग से वे तब से वाकिफ हैं जब से इसने पैर पसारने शुरू किये थे। अपने बलबूते पर राजनीतिक संघर्ष कर बहुत ऊपर तक पहुंचीं ममता को भी अब टिके रहने के लिए लालू, पासवान और मुलायम जैसे शातिरों के शातिरपने का सहारा लेना पड रहा है।सवाल यह उठता है कि सरकार नक्सलियों के प्रति नर्म रुख क्यों अपनाये? सरकार ने तो उन्हें कई मौके दिये पर वे ही हैं जो अपनी हरकतों और दगाबाजियों से बाज नहीं आते। उन्होंने देश के विभिन्न प्रदेशों में कितने जवानों का खून बहाया और कितनी निर्मम हत्याएं कीं, ममता भी जानती हैं। ममता ही क्यों वे भी जानते हैं जो नक्सलियों की हिमायत में झंडे लेकर जब-तब खडे हो जाते हैं। बीते कई वर्षों से नक्सली आतंक से निरंतर आहत और घायल होते चले आ रहे ‍हिं‍दुस्तान में ऐसे कई नेता, बुद्धिजीवी और मानवाधिकार संगठन के कार्यकर्ता हैं जिन्हें नक्सलियों के हाथों मारे गये जवान नहीं दिखते पर वो नक्सली जरूर दिख जाते हैं जिन पर सरकार हाथ डालने की पहल करती है। उन्हें सरकार हिं‍सक नजर आती है और नक्सली बेबस और बेकसूर! यह तथाकथित बेकसूर कितने बेकसूरों की बलि ले चुके हैं और लेने पर आमादा हैं इसकी चिं‍ता-फिक्र करने की कोई तैयारी नक्सलियों के प्रति सहानुभूति रखने वालों में कहीं नजर नहीं आती। इसकी असली सोच और नीयत भी पहेली बनी हुई है।स्वतंत्रता दिवस के अवसर पर देश के कई स्थानों पर नक्सलियों ने काले झंडे फहराये। माओवादी नेता आजाद की मौत को हत्या करार देने वाली ममता ने नक्सलियों और सरकार के बीच मध्यस्थता करने की मंशा भी जतायी। माओवादी नेता किशनजी ने भी संघर्ष विराम के संकेत तो दिये हैं, पर क्या ऐसा होगा इसे लेकर पूर्व को तरह अब भी संदेह बरकरार है। यह समस्या मिल बैठकर हल कर ली जाए इससे बेहतर बात और कोई हो ही नहीं सकती। पर इतिहास गवाह है कि नक्सली नेता जो कहते हैं उस पर अमल नहीं करते। वे हमेशा भ्रम पैदा करते रहते हैं। जब हमारे प्रधानमंत्री ओर गृहमंत्री यह कहते हैं कि पहले नक्सली हत्याएं करना बंद करें फिर बातचीत की पहल की जा सकती है तो इसमें गलत क्या है? सभी जान-समझ चुके हैं कि नक्सलियों पर जब भी दबाव पडता है तो उनके नेताओं की तरफ से बातचीत के सुझाव आने लगते हैं लेकिन तब भी उनकी हिं‍सक गतिविधियां थमती नहीं हैं। नक्सलियों के शुभचिं‍तक अपने लाडले नक्सलियों को इस तथ्य से तो अवगत करा ही सकते हैं कि बात के साथ बंदूक और खून खराबे के सिद्धांत का देश के लोकतंत्र में कोई स्थान नहीं हो सकता...।

Thursday, August 12, 2010

निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की ज़िद

'विज्ञापन की दुनिया' का यह अंक जो आपके हाथ में है इसके प्रकाशन के साथ ही इस राष्ट्रीय साप्ताहिक ने अपनी यात्रा के १४ वर्ष पूर्ण कर १५ वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। १५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन इस सर्वधर्म समभाव के मूलमंत्र पर चलने वाले समाचार पत्र की यात्रा का शुभारंभ हुआ था। विज्ञापन की दुनिया का जब महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशन आरंभ हुआ था तब इसके नाम को लेकर भी तरह-तरह की बातें की जाती थीं और भाई लोग उपहास उडाते हुए यह कहने से भी नहीं चूकते थे कि भला यह भी कोई नाम है...! कइयों ने तो इसके अंधकारमय भविष्य की भविष्यवाणी भी कर दी थी। पर हमने अपने सजग पाठकों के साथ-साथ चलते हुए जिस लक्ष्य की ओर कदम बढाने और मंजिल तक पहुंचकर ही दम लेने की प्रतिज्ञा के साथ विज्ञापन की दुनिया की शुरुआत की थी उस पर आज भी कायम हैं। यात्रा अभी जारी है। हम यह मानते हैं कि पत्रकारिता वह जुनूनी पेशा है जिसका रास्ता और संघर्ष कभी खत्म नहीं होता। जब इस साप्ताहिक के प्रकाशन की रूपरेखा बनायी जा रही थी तब हमने यह भी तय कर लिया था कि जिस तरह से साहित्य समाज का दर्पण होता है। वैसे ही 'विज्ञापन की दुनिया' भी देश और दुनिया का आईना होगा। सच चाहे कितना भी कडवा क्यों न हो उसे हर हाल और हालत में उजागर किया जायेगा। हम यह भी जानते थे कि यह रास्ता उतना आसान नहीं है। सोचने और करने के बीच बहुत बडा फासला होता है पर हमने इसी सोच और फासले को मिटाने की ठानी थी और इस जिद को पूरा करने में हम कितने सफल हुए इसका जवाब जानने के लिए इतना ही जान लेना काफी है कि आज विज्ञापन की दुनिया के पाठकों की संख्या लाखों में है। देशभर के सजग पाठकों को इस साप्ताहिक अखबार का बडी बेसब्री से इंतजार रहता है क्योंकि उन्हें यकीन हो चुका है कि यही एकमात्र साप्ताहिक है जो सजगता, निर्भीकता और निष्पक्षता के साथ पत्रकारीय दायित्व को धर्म समझ कर निभाता है और मुखौटे नोचने से नहीं घबराता। बीते चौदह वर्ष के दौरान सफेदपोश अराजक तत्वों को जिस रफ्तार और निर्भीकता के साथ बेनकाब किया गया उससे बौखला कर अपराधियों के गठजोड से फलने-फूलने वाले नेताओं और भूमाफियायों ने इस अखबार को बंद करवाने के लिए न जाने कितने हथकंडे अपनाये। पर हम अपने मार्ग पर डटे रहे, डटे हैं और डटे रहेंगे। अखबार के माध्यम से मुनाफा कमाना हमारा कभी उद्देश्य नहीं रहा। न ही हमने कभी भी पूंजीपतियों और राजनेताओं के आश्रय की तलाश की। उत्साही पत्रकारों की टीम और समर्पित सहयोगियों की बदौलत ही विज्ञापन की दुनिया ने यह मुकाम हासिल किया है कि आम आदमी इसे अपना साथी समझता है। आज के दौर में मीडिया आम आदमी के सरोकार से निरंतर दूर होता चला जा रहा है पर हमारा यह मानना है कि कोई भी अखबार सिर्फ आमजन के दम पर ही चल सकता है। यही वजह है कि विज्ञापन की दुनिया में उन्हीं खबरों को प्रमुखता दी जाती है जिनका आम आदमी से जुडाव होता है। आम आदमी के जीवन के कई रंग-रूप होते हैं और विज्ञापन की दुनिया में उसी तस्वीर को पेश किया जाता है। इधर के कुछ वर्षों से यह देखने में आ रहा है कि कुछ पत्रकारों पर भी ढेरों उंगलियां उठने लगी हैं। भ्रष्ट राजनेताओं और तरह-तरह के माफियाओं के साथ उनका नाम जोडा जाने लगा है। जिस तरह से कभी बिकाऊ नेताओं पर आरोपों की बौछार होती थी वैसे ही बौछार पत्रकारों और सम्पादकों पर होने लगी है। यह लोगों का आक्रोश ही है जो पत्रकारिता को 'वेश्या' कहने से भी नहीं कतराता। ऐसा तो हो नहीं सकता कि इस रोष के पीछे कोई ठोस वजह न हो। वजह है, बहुत बडी वजह है जिससे वो तमाम बुद्धिजीवी किस्म के सम्पादक भी वाकिफ हैं जो लाखों रुपये महीने की पगार लेकर पूजीपतियों के अखबारों में नौकरियां बजाते हैं और तब तक चुप्पी साधे रहते हैं जब तक उन पर कोई आंच नहीं आती। यही वो कलम के खिलाडी हैं जो विभिन्न मंचों पर मीडिया के बिक जाने और 'पेड न्यूज' का रोना रोते हुए ‍घ्‍ाि‍‍डयाली आंसू बहाते हैं। दरअसल आज इन मुखौटेबाजों से भी सावधान हो जाने का वक्त आ गया है। यह लोग भ्रष्ट और बिकाऊ नेताओं से भी ज्यादा खतरनाक हैं। इन्हें अगर वास्तव में मीडिया की बरबादी और बदहाली की इतनी ि‍चंता होती तो यह उन धनासेठों के यहां चाकरी करने से पहले हजार बार सोचते...। दरअसल इनमें ऐसा करने का दम ही नहीं है। यह तो सिर्फ दिखावे के शेर हैं, जो अपने मतलब के लिए दहाडते रहते हैं और पूजीपतियों के अखबारों के लिए ढाल बन उन्हें जनता और सरकार को उल्लू बनाने और लूटने के भरपूर अवसर मुहैय्या कराते रहते हैं। विज्ञापन की दुनिया ने मीडिया के बहुत बडे वर्ग में रच-बस चुके इस शातिराना खेल और इसके खिलािडयों को अनेकों बार बेनकाब किया है और इनकी शैतानियों के विषैले दंश को भी झेला है। हमें कई बार धमकियों भरी भाषा में यह समझाने की भी कोशिश की गयी कि हमें अपनी बिरादरी के लोगों के बारे में भूल कर भी कलम नहीं चलानी चाहिए। हर अखबारनवीस को दूसरे का साथ देना चाहिए। अधिकांश अखबार वाले इसी उसूल पर चलते हैं। जिनसे उनके प्रगाढ रिश्ते होते हैं, उन्हें हत्यारा और लूटेरा होने के बावजूद भी कलम की नोक से छूआ तक नहीं जाता।विज्ञापन की दुनिया को ऐसे नियम-कायदे कतई स्वीकार नहीं हैं, जिनकी आड में दोस्ती, रिश्तेदारी और धंधेबाजी निभायी जाए। माफियाओं, भ्रष्टाचारियों, फरेबियों, डाकूओं और चोर लूटेरों में अपने-पराये का भेदभाव हम पत्रकारिता के धर्म को भ्रष्ट और कलंकित करने के भागीदार नहीं बनना चाहते। न ही हम भीड में शामिल हो सकते हैं। सच की लडाई लडने के लिए हमें अकेले चलना आता है और अपनी राह बनाना भी जानते हैं। आखिर ऐसा क्यों है कि देश के अधिकांश लोगों को आजादी के इतने वर्ष बीतने के बाद भी यह आजादी झूठी लगती है और देश को सच्चे दिल से प्यार करने वालों के दिलों में असंतोष और आक्रोश ने घर कर लिया है? दरअसल जब देश आजाद हुआ था तब लोगों के मन में यह विश्वास जागा था कि अब उनकी सभी समस्याओं का निदान हो जायेगा। पर आज के हालात देखकर यह कहने को विवश होना पडता है कि देश को स्वतंत्र कराने के लिए देशभक्तों ने जो कुर्बानियां दी थीं, उनका प्रतिफल आम जन को नहीं मिल पाया। चंद मुट्ठी भर चालाकों ने इतना कुछ समेट लिया कि देश खुद बेबस नजर आने लगा है। राज्यों की सीमा और भाषा को लेकर लडाई-झगडे शुरू हो चुके हैं। ऐसे नेताओं की भरमार होती चली जा रही है जो भारत देश की बात करने के बजाय प्रदेश की बात करते हैं और वे यह भी चाहते हैं कि लोग उनका अनुसरण करें। देश में ऐसी राजनीतिक पार्टियां उफान पर हैं, जिनके नेताओं ने देश को तोडने का षडयंत्र रचने में कोई कोर-कसर नहीं छोडी है...। राज्य, प्रांत, भाषा, जाति, धर्म और संप्रदाय की राजनीति करने वालों ने एक दूसरे के बीच दूरियां बनाने और शत्रुता के बीज बोने का जो अनवरत अभियान चला रखा है उसे खुली आंखों से देखने के बाद भी कई मीडिया दिग्गज तटस्थ बने हुए हैं। जैसे उन्हें इससे कोई लेना-देना ही न हो। पर हमारी निगाह में यह बहुत बडा अपराध है। देश टूटने और जलने के भयावह खतरे से जूझ रहा हो और हम चुप्पी साधे रहें... यह गद्दारी न तो हम कर सकते हैं और न ही होने दे सकते हैं। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए भले ही हमें कितने विरोधों और साजिशों का सामना करना पडे पर हम अपनी सोच और राह नहीं बदल सकते। हम जानते हैं... और हमें पूरा यकीन है कि देशभर के सजग पाठक और शुभचि‍ंतक हमारे साथ हैं, और रहेंगे। फिर ऐसे में घबराना कैसा...! देश भर में फैले तमाम समर्पित पाठकों, शुभचि‍ंतकों, संवाददाताओं, लेखकों एजेंट बंधुओं और तमाम सम्पादकीय सहयोगियों को स्वतंत्रता दिवस एवं विज्ञापन की दुनिया की वर्षगांठ की हार्दिक शुभकामनाएं...।

Thursday, August 5, 2010

वे वेश्याएं हैं तो तुम क्या हो?

वर्धा में स्थित महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय ि‍हंदी महाविद्यालय की साख पर एक बार फिर बट्टा लग गया। इस बार यह बट्टा किसी शराबी-कबाबी ने नहीं बल्कि एक बहुत बडे 'विद्वान' ने लगाया। इस विद्वान पुरुष का नाम है विभूति नारायण राय। राय इस विश्वविद्यालय के उपकुलपति हैं। यह ओहदा कोई ऐसा-वैसा ओहदा नहीं है। इसकी अपनी एक गरिमा है। वैसे ही जैसी राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के नाम और पैगाम की। वर्धा में उनके नाम पर ि‍हं‍दी महाविद्यालय खोले जाने के पीछे निश्चय ही यह मकसद रहा होगा कि उनकी कर्मभूमि के जरिये देश और दुनिया तक अि‍हंसा के पुजारी के जनकल्याणकारी संदेश अबाध रूप से पहुंचते रहें, ि‍हंदी भाषा फलती-फूलती रहे और वर्धा का नाम भी रोशन होता रहे। इस महान दायित्व को लेखक विभूति नारायण ने इतनी सूझबूझ और दूर अंदेशी के साथ निभाया कि देश और दुनिया के लोग थू...थू करते रह गये। सजग महिलाओं का आक्रोश इस हद तक जा पहुंचा कि अगर यह बदतमीज उन्हें कहीं मिल जाता तो वे उसे भरे चौराहे पर नंगा कर चूि‍डयां पहनाने से नहीं चूकतीं। राय खुद को बहुत बडा लेखक समझते हैं। उन्हें अपनी अक्ल और कलम पर बहुत फख्र है। पुलिस अधिकारी रह चुके हैं इसलिए कुछ भी कहने, करने और बकने से बाज नहीं आते। जानते हैं कि कोई भी इनका बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। देश के नामी-गिरामी राजनेताओं तक भरपूर पहुंच रखते हैं इसलिए महिलाओं के बारे में कुछ भी बोलने के लिए स्वतंत्र हैं। इसी मनचाही आजादी की राह पर उद्दंड सांड की तरह छलांगें लगाते हुए राय ने एक साक्षात्कार में महिला लेखिकाओं के बारे में जहर उगलते हुए कहा है कि ''लेखिकाओं में यह साबित करने की होड लगी है उनसे बडी छिनाल कोई नहीं है... यह विमर्श बेवफाई के विराट उत्सव की तरह है। मुझे लगता है कि इधर प्रकाशित एक बहु प्रचारित-प्रसारित लेखिका की आत्मकथात्मक पुस्तक का शीर्षक कितने बिस्तरों में कितनी बार हो सकता था...।''महिला लेखिकाओं के बारे में पूरे होशो-हवास के साथ ऐसा गंदा बयान देने वाले विभूति को हर किसी ने लताडा, कोसा और जी भरकर बददुआएं दीं। देशभर में शायद ही ऐसा कोई लेखक और लेखिका बचे होंगे जिन्होंने इस बेलगाम 'पुरुष वेश्या' को दुत्कारा और फटकारा न हो। देश की जानी-मानी लेखिकाओं को वेश्या का दर्जा देने वाले इस दागी शख्स में कुंठा और ईष्या कूट-कूट कर भरे हुए हैं। वे लेखक हैं और कुछ उपन्यास भी लिख चुके हैं जिन्हें उनकी पाली-पोसी चौकडी के अलावा और किसी ने कभी भी नहीं सराहा। दूसरी तरफ मन्नू भंडारी, मैत्रेयी पुष्पा, कृष्णा सोबती, प्रभा खेतान, जया जादवानी जैसी कई खुले दिमाग की आजाद ख्याल महिला लेखिकाएं हैं जिन्होंने असंख्य पाठकों में अपनी जगह बनाते हुए लेखन के क्षेत्र में पुरुष लेखकों के वर्चस्व पर जमकर सेंध लगायी है। यही हकीकत विभूति राय जैसे तमाम लेखकों को कचोटती रहती है और उनके अंदर जमा हो चुकी गदंगी बाहर आये बिना नहीं रहती। इधर के वर्षों में कई पुरुष लेखकों की ऐसी पुस्तकें प्रकाशित होकर चर्चा में आयी हैं जो दरअसल में उनकी आत्मकथा ही हैं। अपनी आत्मकथा में लेखकों ने अपने विवाह के पूर्व के इश्कियां किस्सों से लेकर विवाहेतर संबंधों का चटकारे ले-लेकर वर्णन किया है। कई तो ऐसे हैं जिन्होंने वेश्याओं के कोठों तथा मयखानों में बेसुध होकर अपनी जवानी गलायी और अपनी आत्मकथा में इस मदमस्त अय्याशी का इस तरह से ि‍ढंढोरा पीटा जैसे उनसे बडा इस दुनिया में और कोई मर्द पैदा ही नहीं हुआ हो। अपने यहां ऐसे दिलफेंक किस्म लेखक भी हैं जो खूबसूरत लेखिकाओं पर डोरे डालने से बाज नहीं आते और जब असफलता हाथ लगती है तो लेखिकाओं को ही चरित्रहीन घोषित कर देते हैं। ऐसे चरित्रहीन लेखकों के असंख्य अफसाने इतिहास में दर्ज हैं। मन्नू भंडारी, प्रभा खेतान, मैत्रेयी पुष्पा जैसी यथार्थ लेखन करने वाली जीवंत लेखिकाओं ने जब अपनी आत्मकथा में पुरुषों की इस जगजाहिर प्रवृति पर चोट की तो हंगामा बरपा हो गया। विवाहेतर संबंधों, देह के विभिन्न रिश्तों, असली-नकली प्रेम संबंधों और पुरुषों की नपुंसकता और बेवफायी पर महिला लेखिकाओं का कलम चलाना और भोगे हुए यथार्थ को सामने लाना विभूति राय जैसों को इतना नागवार गुजरा कि उन्होंने महिला लेखिकाओं को वेश्या कहने की जुर्रत कर डाली! वाकई यह कितनी हैरानी की बात है कि ऐसे घटिया और लंपट किस्म के व्यक्ति को महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय ि‍हंदी महाविद्यालय वर्धा का उपकुलपति बना दिया गया! विभूति की लंपटता का एक किस्सा कहानीकार महेंद्र दीपक ने भी बयां किया है। दीपक १९७१ से लंदन में बसे हैं। ि‍हंदी के कहानीकार हैं इसलिए स्वाभाविक है कि उनके मन में भारतीय साहित्यकारों के प्रति सम्मान और श्रद्धा कूट-कूट कर भरी हुई थी। गत माह लंदन में एक विशेष साहित्यिक कार्यक्रम आयोजित हुआ था। इसमें भाग लेने के लिए कुछ साहित्यकारों के साथ विभूति नारायण भी वहां पहुंचे थे। कहानीकार दीपक ने भारतीय लेखकों को अपने घर सादर आमंत्रित किया जिनमें विभूति राय भी शामिल थे। दोपहर का समय था। विभूति पूरी तरह नशे में टुन्न थे। दीपक के घर पहुंचते ही वे सोफे पर लुढक गये। उनकी जवान बहुओं को राय का आंखें फाड-फाड कर ताकना और घूरना बेहद बुरा लगा। किचन में सहायता के लिए पडौस से आयी लडकी ने तो दीपक को यहां तक कह डाला कि दादाजी आप कैसे-कैसे लोगों को घर पर बुलाते हैं? अस्सी वर्षीय लेखक दीपक का कहना है कि उन्होंने अपने जीवन में पहले कभी खुद को इतना अपमानित महसूस नहीं किया था।दीपक की उपकुलपति महोदय से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी नहीं है इसलिए उन पर अविश्वास करने का प्रश्न ही नहीं उठता। पर प्रश्न तो यह उठता है कि ऐसा व्यक्ति इतने गरिमामय ओहदे पर क्यों और कैसे बैठाया गया? अब एक सवाल और भी है कि विभूति नारायण राय का यह घटिया साक्षात्कार जिस पत्रिका ने छापा उसकी इसके पीछे कौन-सी मंशा और मजबूरी थी? हाल ही में ि‍हंदी के कथाकार अवध नारायण मुदगल का साक्षात्कार पढने में आया। पत्र-पत्रिकाओं की प्रसार संख्या बढाने के लिए कैसे-कैसे हथकंडे अपनाये जाते हैं उसका खुलासा करते हुए उन्होंने बताया कि १९८२ में उन्हें 'सारिका' पत्रिका के संपादन का दायित्व सौंपा गया था। मालिक चाहते थे कि किसी भी तरह से पत्रिका का सर्कुलेशन बढना चाहिए। दरअसल उन्हें सम्पादक का पद येन-केन-प्रकारेण पत्रिका का सर्कुलेशन बढाने की शर्त पर ही सौंपा गया था। अवध नारायण मुदगल ने अपना दिमाग लडाया। देह व्यापार पर पांच विशेषांक निकालने की घोषणा कर दी। जब पहला अंक बाजार में आया तो पत्रिका की बिक्री में इतना उछाल आया कि मालिक भी दंग रह गये। बाद के अंकों ने तो और भी धमाका किया और सारिका हजारों-हजारों प्रतियों के बडे हुए सर्कुलेशन के साथ हाथों-हाथ बिकने लगी।उपकुलपति विभूति नारायण राय का साक्षात्कार जिस प्रतिष्ठित पत्रिका में छपा है उसका नाम है - नया ज्ञानोदय। इसके संपादक हैं रवींद्र कालिया जो खुद एक स्थापित कथाकार हैं। उन्होंने जुलाई-अगस्त के जो विशेषांक बाजार में उतारे उन्हें नाम दिया गया ''बेवफाई सुपर विशेषांक।'' अगस्त २०१० के विशेषांक में ही ि‍हंदी लेखिकाओं को वेश्या करार देने वाला साक्षात्कार छापा गया है...। एक और अदभुत सच यह भी है कि उपकुलपति और संपादक महोदय दोनों की बीवियां पदमा राय और ममता कालिया भी लेखिकाएं हैं और ममता कालिया तो विभूति की मेहरबानी से महात्मा गांधी विश्वविद्यालय वर्धा में नौकरी भी करती हैं और मोटी तनख्वाह पाती हैं। विभूति नारायण राय और र‍वींद्र कालिया ने अपनी मनोवृत्ति उजागर कर दी है। यह लोग उस दंभी पुरुष समान का प्रतिनिधित्व करते हैं जिनकी सामंती सोच आज भी ि‍जंदा है। यह लोग कभी सुधर नहीं सकते। कवियत्री रंजना जायसवाल ने अपनी कविता 'तुम्हारा भय' में ऐसे ही मुखौटेबाजों का असली चेहरा दिखाया है:

रिक्तता भरने के लिए

तुमने चुनी स्त्री

और भयभीत हो गए।

तुमने बनाए

चिकें...किवाड...परदे

फिर भी तुम्हारा डर नहीं गया

तुमने ईजाद किए

तीज-व्रत पूजा-पाठ

नाना आडंबर

मगर डर नहीं गया

तुमने तब्दील कर दिया उसे

गूंगी मशीन में

लेकिन संदेह नहीं गया

जब भी देखते हो तुम

खुली खिडकी या झरोखा

लगवा देते हो नई चिकें

नए किवाड-नए पर्दे

ताकि आजादी की हवा में

खुद को न पहचान ले स्त्री।