Thursday, December 29, 2011

वर्ष २०१२ के समक्ष खडा सवाल

वर्ष २०११ बहुत कुछ कहकर विदा हो गया। देश की आजादी के बाद का यही एक ऐसा वर्ष था जिसने आशाएं जगायीं और ऐसे-ऐसे सवाल उठाये जिनके जवाब वर्ष २०१२ को देने ही होंगे। पर क्या ऐसा हो पायेगा?अब यह हकीकत किसी भी सजग देशवासी से छिपी नहीं है कि देश की बदहाली का सबसे बडा कारण भ्रष्टाचार और काला धन है। बीते साल विदेशों से काला धन वापस लाने के लिए खूब भाषणबाजी हुई। आंदोलन भी हुए। पर हासिल कुछ भी नहीं हो पाया। सरकार ने कहा कि वह चाहकर भी उन लोगों के नाम उजागर नहीं कर सकती जिन्होंने देश का धन विदेशी बैकों में जमा करवा रखा है। विदेशों के बैंको में जमा भारतीय धन को वापस लाने की मांग करने वाले लगातार यह कहते रहे कि इस धन से देश का कायाकल्प किया जा सकता है। यानी बदहाली को दूर किया जा सकता है। पर देश की केंद्र सरकार ने जिस तरह से मजबूरी जतायी उससे यह तय हो गया है कि विदेशों में जमा धन वापस आना लगभग असंभव है। क्या वर्ष २०१२ की निगाहें भी विदेशों में जमा धन पर लगी रहेंगी या फिर देश में जमा अथाह काले धन पर भी उसका ध्यान जायेगा? यहां यह बता देना जरूरी है कि अपने हिं‍दुस्तान में हर वर्ष लगभग ४० लाख करोड रुपये का काला धन पैदा होता है। यह सारा का सारा धन विदेशों के बैंकों में नही चला जाता। इसका महज कुछ हिस्सा यानी लगभग ५ लाख करोड रुपये विदेशों में पहुंच जाते हैं। विदेशों में पहुंचने वाले धन में किसका कितना योगदान होता है इसका अनुमान लगा पाना मुश्किल नहीं है। सरकारी धन पर हाथ साफ करने में हमारे यहां की नौकरशाही को महारत हासिल है। नेताओं की पांचों उंगलियां घी में रहती हैं। ऐसा माना जाता है कि यदि सरकारें सतर्क रहतीं और विकास कार्यों के लिए भेजी जाने वाली रकम सही तरीके से विकास कार्यों में ही खर्च होती तो देश का चेहरा चमकता नजर आता। पर नीचे से ऊपर तक चलने वाले भ्रष्टाचार ने देश के चेहरे को ही बदरंग कर डाला है। जिस देश के अधिकांश राजनेता ही पथभ्रष्ट हो चुके हों, उसकी दुर्गति तो होनी ही है। भ्रष्टाचारी विदेशों के बैंकों में काला धन इसलिए छिपाते हैं क्योंकि उन्हें पहचान गुप्त रखने की शत-प्रतिशत गारंटी दी जाती है। देश के वितमंत्री प्रणब मुखर्जी भी इसी विवशता का हवाला देकर साफ-साफ कह चुके हैं कि विदेशों में जिन लोगों का धन जमा है उनके नाम उजागर करने में असमर्थ हैं। पर देश के बैंकों और अन्य गुप्त ठिकानों पर जो काला धन जमा है कम से कम उसे तो बाहर लाया जा सकता है। यह कोई सात समंदर पार का मामला नहीं, अपने ही देश का मामला है। जहां पर शासक जो चाहें वही कर सकते हैं। फिर यह कोई छोटी-मोटी रकम नहीं है। विदेशी बैंकों में जमा धन से कई गुना ज्यादा है यह धन। पर इस धन के बारे में कोई आवाज नहीं उठाता। किसी भी समाजसेवी और बाबा के नेत्र नहीं खुलते। कोई खादीधारी नहीं चिल्लाता। संसद में भी इस पर कोई चर्चा नहीं होती। तमाम राजनीतिक दल भी चुप्पी साधे रहते हैं। दरअसल इस काले धन की माया बडी अपरंपार है। इसी की बदौलत देश में एक समानांतर अर्थ व्यवस्था चलती चली आ रही है। इसी की ही बदौलत भारत की एक चमकती-दमकती दुनिया दिखायी देती है जिसमें भ्रष्ट अफसर, नेता, कारपोरेट घराने, तस्कर, खनिज डकैत और भू-माफियाओं के साथ मुखौटाधारी साधु-संन्यासी और सफेदपोश शामिल हैं। न जाने कितने विधायक और सांसद इसी काले धन के दम पर चुनाव जीतते हैं और फिर प्रदेश और देश पर राज करते हैं। यह लोग काले धन का कभी खात्मा नहीं होने देना चाहते। इनकी सारी सुख-सुविधाएं, कारोबार और अय्याशियां इसी के दम पर टिकी हैं। वो जमाना कब का लद चुका जब धर्मगुरू कष्टों भरा जीवन जीया करते थे। अब तो अधिकांश योगी नेताओं और धन्नासेठों की तरह सारे सुख लूट लेना चाहते हैं। इनकी जीवनशैली बडे-बडे उद्योगपतियों और नव धनाढ्यों को भी मात देती दिखायी देती है। इनका सारा का सारा ताम-झाम काले धन की नींव पर टिका होता है और यह काला धन कहां से आता है इसे जानने के लिए गुरु-महाराजों के चेले-चपाटों को जान लेना काफी है। गरीब आदमी तो इनके आसपास फटक ही नही पाता। इनके अधिकांश अनुयायी मालादार होते है। अपने-अपने क्षेत्र के महारथी।यह सच्चाई भी उजागर हो चुकी है कि देश के कई मंदिरों और मठों में अरबों-खरबों के सोने-चांदी, हीरे-जवाहरात के भंडार भरे पडे हैं। राजनेताओं और उद्योगपतियों के यहां के काले धन को खंगाला जाए तो कई धमाके सामने आ सकते हैं। मंत्रियों, अफसरों, दलालों, मीडिया दिग्गजों और तमाम कर चोरों की तिजोरियों में भी जो काला धन विद्यमान है उसे अगर बाहर लाया जाए तो तंगी से जूझ रहे देशवासियों को बहुत बडी राहत मिल सकती है पर जिन्होंने आम भारतीयों की खून-पसीने की कमायी अपने-अपने तहखानों में छिपा रखी है, वे क्या ऐसा कुछ होने देंगे? वर्ष २०१२ को इसका जवाब ही नहीं, कुछ करके भी दिखाना होगा। तभी २०११ की लडाई की सार्थकता बरकरार रहेगी।

Thursday, December 22, 2011

अदम गोंडवी का गाँव

अधिकांश साहित्यकार आम आदमी के नाम की ढपली बजाकर मजमा जुटाते हैं और वाह-वाही पाते हैं। ऐसे विरले ही होते हैं जो इस तबके के साथ वफादारी निभाते हैं। इस देश में हवा में तीर चलाने और यथार्थ से कोसों दूर रहकर कलम चलाने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। अपने परिवेश से कटकर सपनों का संसार रचने वालों को भी साहित्यजगत में स्थान मिलता रहा है। दरअसल राजनीति की तरह साहित्य के मंच पर भी जोड-तोड करने वाले मुखौटों को कुछ ज्यादा ही तवज्जों मिलती रही है। यही वजह है कि दबे कुचले, कमजोर वर्ग की आवाज को मुखर करने वाले कवि, गीतकार, शायर, और कहानीकारों को अक्सर वो सम्मान नहीं मिलता जिसके वे हकदार होते हैं। बात जब हिं‍दी गजल की होती है तो सबसे पहले दुष्यंत कुमार के नाम का जिक्र होना तय है। दुष्यंत कुमार के बाद अदम गोंडवी ही एक ऐसा नाम है जिसने प्यार मोहब्बत, इश्क और जुदाई के रंग में डूबी गजल का रूख मोडते हुए उसमें आग भरके रख दी:
''आइए महसूस करिए जिन्दगी के ताप को, मैं चमारों की गली तक ले चलूंगा आपको।''
गोंडा जिले के एक छोटे से गांव में जन्मे रामनाथ सिं‍ह उर्फ अदम गोंडवी ने जब कविताएं और गजलें लिखनी शुरू कीं तब इश्किया मिजाज के ऐसे कलमकारों का वर्चस्व था जिनका कभी भी आम आदमी की पीडा और देश की हकीकत से कभी कोई लेना-देना नहीं रहता। सत्ताधारियों की जी हजूरी करने वाले जानबूझकर अंधे और बहरे बने रहते हैं। आदम गोंडवी सच से मुंह चुराने वालो में शामिल नहीं हुए। आजाद देश में आम आदमी की दुर्गति उन्हें निरंतर चिं‍ताग्रस्त करती रही। यही चिं‍ता उनकी लेखनी के जरिये भी निरंतर उजागर होती रही:
''काजू भूने प्लेट में, व्हिस्की गिलास में
उतरा है रामराज विधायक निवास में।
जो उलझ कर रह गयी है फाइलों के जाल में
गांव तक वह रोशनी आएगी कितने साल में।''
सुरेश कलमाडी, ए. राजा, कनिमोझी जैसे अरबों-खरबों के भ्रष्टाचारी अचानक पकड में आ गये हैं। इन जैसे न जाने कितने और हैं जो देश को बेचकर खा सकते हैं। अदम गोंडवी ने तो वर्षों पहले ही सचेत कर दिया था:
''जो डलहोजी न कर पाया
ये हुक्मरान कर देंगे
कमीशन दो तो
हिं‍दुस्तान को नीलाम कर देंगे।''
भ्रष्टाचारी नेताओं ने आज हिं‍दुस्तान का क्या हाल कर डाला है, वो किसी से छिपा नहीं है। भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने वाले अन्ना हजारे जैसे समाजसेवी को भी चक्करघिन्नी बना कर रख दिया गया है। सत्ता पर काबिज चेहरे व्यवस्था के खिलाफ लडने वालों को कुचलने और खरीदने में सिद्धहस्त हैं। यही कारण है कि इस देश में दूसरा महात्मा गांधी पैदा नहीं हो पाया। दरसअल आज के हुक्मरान यह कतई नहीं चाहते कि दूसरा गांधी पैदा हो। उनके लिए एक ही गांधी बहुत है जिसका इस्तेमाल वे विविध तरीकों से सत्ता पाने के लिए करते चले आ रहे हैं। मिलबांटकर खाने के इस दौर में व्यवस्था और सरकार के खिलाफ लिखने और बोलने वालों का घोर अकाल पड गया है। फिर भी कुछ लोग अपने तयशुदा रास्तों से नहीं भटकते। अपने हाथों में हमेशा हथियार थामे रहते हैं और उस पर कभी भी जंग नहीं लगने देते। चारों तरफ फैली लूट खसोट, सांप्रदायिकता और वोटों की राजनीति पर निरंतर प्रहार करने वाले अदम गोंडवी का पिछले शनिवार को निधन हो गया पर कहीं कोई हलचल नहीं हुई। अदम गोंडवी और गरीबी में करीबी की रिश्तेदारी थी। उम्रभर वे गरीबी के दंश झेलते रहे और कलम चलाते रहे। कवि के साथ-साथ वे एक ऐसे किसान भी थे जिनकी सारी की सारी खेती की जमीन बैंक के पास गिरवी पडी है। दूसरे बदनसीब किसानों की तरह उन्होंने आत्महत्या को गले लगाने की भूल नहीं की। वे हालातों से लडते रहे और हमेशा यही संदेश देते रहे कि मैदान में डटे रहने में ही जीवन की सार्थकता है। अगर हमने हार मान ली तो शोषक जीत जाएंगे और देश को पूरी तरह से बेच खाएंगे। महात्मा गांधी भी कहा करते थे कि हिं‍दुस्तान गावों में बसता है। पर देश के गांव तो आज भी घोर बदहाली के शिकार हैं। किसानों के लिए खेती करना मुश्किल हो गया है। सरकारों को हमेशा शहरों के विकास की चिं‍ता लगी रहती है। ग्रामों के हालात चाहे कितने भी बदतर होते चले जाएं पर हुक्मरानों को इससे न फर्क पडा है और न ही पडेगा।सच तो यह है कि इस देश के हर गांव के हालात एक समान हैं। कभी राजीव गांधी ने कहा था कि दिल्ली से भेजे जाने वाले सौ रुपये में से पांच रुपये ही गांवों तक पहुंच पाते हैं। पर अब तो उन पांच रुपयों का भी गोलमाल हो जाता है। ग्रामीणों का शोषण करने वाले चेहरे-मोहरे और हथियार भी एकदम जाने पहचाने हैं। जनकवि अदम गोंडवी कभी शहरी नहीं हो सके। ताउम्र गांववासी ही रहे और अपने परिवेश का हाले बयां करते रहे:
''फटे कपडों में तन ढाके गुजरता है जहां कोई,
समझ लेना वो पगडंडी अदम के गांव जाती है।
और...
आप आएं तो कभी गांवों की चौपालों में
मैं रहूं या न रहूं, भूख में जबां होगी।''

Thursday, December 15, 2011

मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...

१३ जून १९९७ को देश की राजधानी दिल्ली के उपहार सिनेमा में आग लग गयी थी। सौ से ज्यादा लोग घायल हुए थे और ५५ मौत के मुंह में समा गये थे। बेचारों ने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि वे जहां मनोरंजन करने जा रहे हैं वहां साक्षात मौत उनका इंतजार कर रही है। ९ दिसंबर २०११ की तडके कोलकाता का 'आमरी' अस्पताल भीषण आग की चपेट में आ गया और ९३ मरीज जान से हाथ धो बैठे और कई गंभीर रूप से जख्मी हो गये। अस्पताल में तो मरीज रोगों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं पर इस अस्पताल ने तो जीवन से ही सदा-सदा के लिए मुक्ति दिला दी। यह मुक्ति ऐसी थी जिसकी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता। अस्पताल तो जीवनदाता होते हैं। मौत से उनका दूर-दूर तक नाता नहीं होता। पर कोलकाता के 'आमरी' अस्पताल ने तो मरघट को भी मात दे डाली और जिं‍दा इंसानों को ही फूंक डाला। हमारे यहां इस तरह की जानलेवा दुर्घटनाएं अक्सर होती रहती हैं। दुर्घटनाओं के कारणों की भी हमेशा यह सोच अनदेखी कर दी जाती है कि जिनके साथ घटनी थी, घट गयी, हम तो हमेशा सुरक्षित रहेंगे। कोई आग-वाग हमें कभी छू भी नहीं पायेगी। यही भ्रम ही सतत भारी पडता आया है...।दिल्ली का उपहार सिनेमा हो या फिर कोलकाता का नामी अस्पताल आमरी। दोनों ही मानवीय लालच, चालाकियों, भूलों तथा बेवकूफियों की वजह से आग की भेंट चढे और देखते ही देखते जिं‍दा इंसान लाशों में तब्दील हो गये। देश में आमरी जैसे अस्पतालों की भरमार है। इस अस्पताल के भूतल में दवाइयां, आक्सीजन सिलेंडर तथा रसायन आदि भरे पडे थे जिनकी वजह से आग लगी। यही आग मरीजों को सदा-सदा के लिए मौत के मुंह में सुला गयी। अस्पताल में जो मरीज भर्ती होते हैं उनमें से अधिकांश का शरीर इस काबिल नही होता कि वे भाग-दौड कर सकें। आमरी में भी ऐसा ही हुआ। अस्थिरोग विभाग और आईसीयू में भर्ती कई मरीज मौत को सामने पाकर भी इतने बेबस थे कि खुद को जलने और राख होने से बचा नहीं सके। अस्पताल के कर्मचारियों को भी ऐसी भयावह आपदा से निपटने के लिए कोई ट्रेनिं‍ग नहीं दी गयी थी। अस्पताल की इमारत में अग्निरोधक उपाय नदारद थे। आग भडकने के बाद अस्पताल के अधिकांश कर्मचारी भाग खडे हुए। डॉक्टरों और नर्सों को भी अपनी जान की चिं‍ता सताने लगी। उन्होंने भी वहां पर टिकना मुनासिब नहीं समझा। मरीजों को ऊपरवाले भगवान के भरोसे छोड दिया गया। नीचे वाले भगवान घोर स्वार्थी और कायर निकले।प्रदेश की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने मुख्यमंत्री होने के बावजूद इंसानियत का परिचय देने में कोई कमी नहीं की। अस्पताल में मची अफरातफरी और आग के तांडव के बीच वे घंटों वहीं डटी रहीं। उन्होंने मृतकों और घायलों के परिवारों को दूसरे नेताओं की तरह दिखावटी सांत्वना नहीं दी। वे तब मां, बहन और बेटी की तरह दुखियों के आंसू पोंछती रहीं और खुद भी चिं‍ता और पीडा से पिघलती रहीं। देश में ऐसी मुख्यमंत्री का मिलना मुश्किल है। अगर यह मुश्किल आसान हो जाए तो देश और प्रदेशों का चेहरा बदल सकता है। पर इस मुल्क के नेता तो देश को मंझदार में ही उलझाये रखना चाहते हैं। यही वजह है कि सिनेमाघरों और अस्पतालों में कोई फर्क नहीं रह गया है। येन-केन-प्रकारेण धन कमाना ही इनका असली मकसद है। देश के छोटे-बडे शहरों के अधिकांश अस्पतालों के हालात कोलकाता के आमरी अस्पताल से जुदा नहीं हैं। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में अधिकांश अस्पताल उद्योगधंधे की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। तगडे डोनेशन और मोटी-मोटी फीसें देकर अस्पताल खोलने या नौकरी बजाने वाले डॉक्टरों का धन समेटना एकमात्र मकसद रह गया है। इस शहर में मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा के मरीज इलाज कराने के लिए आते हैं। कुछ दिन पहले इसी शहर में स्थित केयर अस्पताल में आग लग गयी थी। यहां की सुरक्षा व्यवस्था भी आमरी की तरह बदहाल थी। मरीजों की किस्मत अच्छी थी जो वे बाल-बाल बच गये। इस शहर के एक बडे अस्पताल का किस्सा अक्सर प्रबुद्ध जनों के बीच सुना-सुनाया जाता है। लगभग तीन वर्ष पहले की बात है। नागपुर मेडिकल कॉलेज में भर्ती एक मरीज की मौत हो जाने के पश्चात पता नहीं क्या सोचकर उसके परिवार वाले शहर के एक बडे अस्पताल की शरण में जा पहुंचे। नामी-गिरामी हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर ने 'मरीज' को मोटी फीस के लालच में अपने अस्पताल के आईसीयू में इस आश्वासन के साथ लिटा दिया कि मरीज शीघ्र ही भला-चंगा हो जायेगा। दो दिन तक तरह-तरह का इलाज चलता रहा फिर डॉक्टर साहब ने हाथ खडे कर दिये और परिवार वाले को लाखों रुपये का बिल थमा दिया। अब परिवार वालों के धमाके की बारी थी। उनके साथ आये एक चतुर-चालाक नेतानुमा चेहरे ने डॉक्टर साहब के समक्ष मेडिकल कॉलेज का वो प्रमाणपत्र पेश कर दिया जिसमें मरीज के दो दिन पहले ही प्रभु को प्यारे हो जाने का स्पष्ट उल्लेख था। पहले तो डॉक्टर खुद को सच्चा बताते हुए तरह-तरह के लटके-झटके दिखाता रहा फिर जब सामने वाले ने मीडिया के समक्ष जाकर नंगा करने की धमकी दी तो वह हाथ-पैर जोडने लगा। शहर के एक प्रतिष्ठित डॉक्टर की साख का सवाल था। उन्होंने अपनी इस साख को एक करोड रुपये देकर किसी तरह से बचाया। फिर भी बात बाहर आ ही गयी। पिछले दिनों देश के एक राष्ट्रीय नेता के यहां आयोजित दीपावली मिलन कार्यक्रम में भी इस धन पशु डॉक्टर की कारस्तानी की चर्चा होती रही। डॉक्टर के लिए करोड-दो-करोड रुपये कोई खास मायने नहीं रखते। वे रोज लाखों के वारे-न्यारे करते थे, और कर रहे हैं...। और यह भी तय है कि उनके अंदर की इंसानियत और नैतिकता न तो पहले जिं‍दा थी और न ही आज उसके जिं‍दा होने की उम्मीद की जा सकती है...। मरीज़ों का तो भगवान ही मालिक है...।

Thursday, December 8, 2011

ऐसे ही चल रहा है लोकतंत्र

ये बेचारी राजनीतिक पार्टियां। अपनों पर गाज गिराने से हमेशा कतराती हैं। पर कभी-कभी हालात बद से बदतर हो जाते हैं। कमाऊपूतों को भी बख्शना मुश्किल हो जाता है। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा भारतीय जनता पार्टी की रीढ की हड्डी के समान थे। इन्हीं ने इस पार्टी को कर्नाटक में सत्ता पाने लायक बनाया था। कर्नाटक में आज भी भाजपा की सत्ता है। येदियुरप्पा मुख्यमंत्री की कुर्सी खो चुके हैं। जेल यात्रा भी कर आये हैं। जब वे कुर्सी पर विराजमान थे, तो उनकी खूब तूती बोला करती थी। वे जब-तब बेल्लारी बंधुओं पर चाबुक बरसाते रहते थे। शोर मचाते थे कि यह बंधु महाचोर हैं। प्रदेश का खनिज बेच-बेच कर अपार दौलत के मालिक हो गये हैं। बेल्लारी बंधु भी राजनीतिक दृष्टि से येदियुरप्पा से कतई कमजोर नहीं थे। पर मुख्यमंत्री उनके राजनीतिक कद को काटने-छांटने में लगे रहते थे। लोगों को लगता था एक ईमानदार मुख्यमंत्री, भ्रष्टाचारी खनिज माफियाओं को बेनकाब कर सच्चाई सामने लाना चाहता है। पर दरअसल सच कुछ और ही था। जो जब सामने आया तो लोग चौंके बिना नहीं रह सके। येदियुरप्पा तो बेल्लारी बंधुओं का भी बाप निकला। अमानत में ख्यानत करने वाला मुख्यमंत्री प्रदेश की जनता का हित भूलकर अपना तथा अपनों का आर्थिक साम्राज्य बढाने के चक्कर में हर नैतिकता को ताक में रख चुका था। ऐन दिवाली के दिन नागपुर जा पहुंचा था। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी का इसी शहर में आशियाना है। गडकरी जी को दिवाली की 'गिफ्ट' देने के बाद वह बेखौफ और बेफिक्र था। अब कोई उसका बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। पर वह पाप का घडा ही क्या जो एक दिन न फूटे। आखिरकार येदियुरप्पा भ्रष्टाचार के आरोप में धर लिये गये। गिफ्ट कवच नहीं बन पायी। आडवानी ने भी यात्रा के दौरान कह डाला कि येदियुरप्पा तो वाकई भ्रष्ट थे। हमने पहले ही समझाया था कि संभल जाओ। पर नहीं संभले तो अब हम क्या कर सकते हैं। लालकृष्ण आडवानी किसी जमाने में पत्रकार हुआ करते थे। बेचारे येदियुरप्पा इस सच को नहीं समझ पाये कि पत्रकारों और नेताओं की एक जैसी फितरत होती है। लेना जानते हैं, निभाना नहीं। चलती गाडी में सफर करने का आनंद लेने की कला कोई इनसे सीखे। इंजन के खराब होते ही जानना-पहचानना तक भूल जाते हैं। चोट खाये महा भ्रष्टाचारी येदियुरप्पा भी अब सचेत हो गये हैं। उन्होंने कर्नाटक में भाजपा को पलीता लगाने के लिए तरह-तरह के तौर-तरीके आजमाने शुरू कर दिये हैं। वे आडवानी और गडकरी को दिखा देना चाहते हैं कि वे खुद के द्वारा बोये गये पौधे की जडें काटना भी जानते हैं। ऐसा कैसे हो सकता है कि उनका बोया पौधा कालांतर में वृक्ष बने और उसकी छाया का सुख दूसरे भोगें। आज के दौर में राजनीति तो खुद के उद्धार लिए की जाती है। वक्त आने पर दुश्मन को भी दोस्त बना लिया जाता है। येदियुरप्पा तो राजनीति के मंजे हुए खिलाडी हैं। उन्होंने कल के अपने शत्रु खनिज माफिया बेलारी बंधुओं को गले लगा लिया है। यानी दुश्मन आज एक हो गये हैं और भाजपा के तंबू उखाडने और उजाडने की कवायदें शुरू कर चुके हैं। इतिहास गवाह है कि जब दो ताकतवर शत्रु एक दूसरे के गले में बांहें डालकर तांडव मचाते हैं तो कुछ न कुछ होकर रहता है। येदियुरप्पा के समर्थको का दावा है कि उनके नेता में इतनी ताकत तो बची ही है कि वे कर्नाटक से भाजपा की सत्ता का काम तमाम कर सकते हैं। भाजपा से खार खाये पूर्व मुख्यमंत्री के समर्थकों का कहना है कि नितिन गडकरी जब से भाजपा के सुप्रीमों बने हैं तब से भाजपा के समर्पित नेताओं की इज्जत खतरें में पड गयी है। कांग्रेस अपने चहेतों को बचाती है और भाजपा साथ देने की बजाय नंगा करने पर उतारू हो जाती है। येदियुरप्पा हों या बेल्लारी बंधु, यह लोग देश की लगभग हर राजनीतिक पार्टी में विराजमान हैं। खनिज माफिया, भू-माफिया, लूट-खसोट माफिया और चमकाने-धमकाने वाले माफियाओं के बिना किसी पार्टी की गाडी नहीं चलती। मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ और उडीसा जहां पर खनिज पदार्थ अधिकतम मात्रा में हैं वहीं इनकी खूब तूती बोलती है। इन प्रदेशों में जिस-जिस पार्टी को शासन करने का मौका मिला उस-उसने जमकर चांदी काटी। गुर्गे अरबों-खरबों में खेलने लगे। पार्टी की ताकत में भी भरपूर इजाफा हो गया। कोई भी चुनाव लडने के लिए इस ताकत का होना निहायत जरूरी है। यह गुर्गे पार्टी के आर्थिक तंत्र को चलाते हैं और उसकी ऐवज में विधान परिषद और राज्य सभा पहुंचते रहते हैं। पार्टी इनके कंधों पर तब तक अपने हाथ रखे रहती है जब तक यह बेनकाब नहीं हो जाते। यह सिलसिला बहुत पुराना है। देश पर सबसे ज्यादा समय तक राज करने वाली कांग्रेस ने यह बीज बोये थे जो धीरे-धीरे पौधे बने और अब तो विशाल दरख्तों की शक्ल अख्तियार कर चुके हैं। हर राजनीतिक पार्टी इनकी छाया का आनंद लूटती रहती है। मीठे फल खा लेती है और कडवे दूसरों की झोली में उछाल देती है। दरअसल इन दरख्तों की जडें इतनी मजबूत हो चुकी हैं कि इन्हें जड से काट पाना बहुत मुश्किल है। जो भी इन्हें धराशायी करने की कोशिश करता है हमारे देश के घाघ राजनेता उसी का काम तमाम करने के लिए एकजुट हो जाते हैं। अपने देश का लोकतंत्र इसी तरह से चलता चला आ रहा है।

Thursday, December 1, 2011

चोर की दाढी में तिनका

जब कभी शराब की बुराइयों, तबाहियों और अच्छाइयों को लेकर लोगों को उलझते और दिमाग खपाते देखता हूं तो मुझे बरबस अपने स्वर्गीय मित्र विजय मोटवानी की याद आ जाती है। छत्तीसगढ के बिलासपुर के रहने वाले विजय एक युवा पत्रकार थे। खबरों को सूंघने और समझने की उनमें भरपूर क्षमता थी। सजग पत्रकार के साथ-साथ वे एक सुलझे हुए व्यंग्यकार भी थे। देश की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में धडल्ले से छपते और पढे जाते थे। पर अचानक पता नहीं कैसे उन्हें शराब की लत लग गयी। अंधाधुंध शराबखोरी ने मात्र तीसेक साल के विजय को मौत के उस गहरे समन्दर में डूबो दिया जहां से बडे से बडे तैराक वापस नहीं लौटा करते। सिर्फ यादे भर रह जाती हैं।अकेला विजय ही शराब का शिकार नहीं हुआ। न जाने कितनी उभरती प्रतिभाएं इसके भंवरजाल में उलझ कर दुनिया से रुख्सत कर चुकी हैं। यह सिलसिला रुकने और थमने का नाम ही नहीं ले रहा है। ऐसे मयप्रेमी भी हैं जिनका दावा है कि यह उनकी सेहत पर कोई असर नहीं डालती। कई तो ऐसे भी हैं जो यह मानते हैं कि उन्हें इससे ऊर्जा मिलती हैं। खुशवंत सिं‍ह का नाम काफी जाना-पहचाना है। उनके कॉलम विभिन्न अखबारों में नियमित छपते रहते हैं। वे कई चर्चित उपन्यास भी लिख चुके हैं। उनकी उम्र नब्बे का आंकडा पार कर चुकी है। फिर भी स्कॉच पिये बिना उन्हें नींद नहीं आती। पिछले सत्तर साल से बिना नागा पीते चले आ रहे हैं और लेखन भी जारी है। 'हंस' के सम्पादक जो कि एक जाने-माने कहानीकार और उपन्यासकार हैं, वे भी अस्सी साल से ऊपर के हो चुके हैं, पर नियमित 'रसरंजन' करना उनकी आदत में शुमार है। ऐसे धुरंधरों को अपना प्रेरणा स्त्रोत मानने वाले ढेरों संपादक, पत्रकार, कहानीकार अपने देश में भरे पडे हैं। देश और दुनिया में न जाने कितने कलाकार हैं जिन्हें नियमित रसरंजन किये बिना नींद ही नहीं आती। कई तो ऐसे भी हैं जो अपनी अच्छी-खासी उम्र का हवाला देकर यह बताते और जताते नहीं थकते कि शराब को अगर सलीके से हलक में उतारा जाए तो इससे कतई कोई नुकसान नहीं होता। यानी शराब अमृत का काम करती है और मस्ती में जीना सिखाते हुए उम्रदराज बनाती है। कई राजनेता और अभिनेता तो ऐसे भी हैं जो शराब से दूर रहने के भाषण झाडते रहते हैं पर खुद इसकी लत के जबरदस्त शिकार हैं। मीडिया से जुडे अधिकांश 'क्रांतिकारी' शराब के सुरूर में डूबे रहना पसंद करते हैं। वैसे भी इन लोगो को मुफ्त में डूबने को भरपूर मिल जाती है। इसलिए यह महारथी कोई मौका नहीं छोडते। देश का नवधनाढ्य वर्ग तो दारूखोरी के मामले में किसी को भी अपने समक्ष टिकने नहीं देना चाहता। इस वर्ग में भू-माफिया, बिल्डर, स्मगलर तथा भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के वो दलाल शामिल हैं जो हराम की कमायी को लुटाने के लिए बहाने तलाशते रहते हें। ऐसे लोगों की बढती भीड को देखकर जहां-तहां शराब की दूकानें खुलती चली जा रही हैं। बीयर बारों की कतारें देखते बनती हैं। हर बॉर में मेला-सा लगा नजर आता है जहां कम उम्र के युवा भी जाम से जाम टकराते देखे जा सकते हैं। स्कूल-कॉलेजों में पढनेवाली लडकियों और महिलाओं ने भी मयखानों में अपनी उपस्थिति दर्ज करवानी शुरू कर दी है। इस तरह के किस्म-किस्म के नजारों को देखकर यह कतई नहीं लगता कि हिं‍दुस्तान में गरीबी और बदहाली है। कुछ महीने पूर्व जब महाराष्ट्र में शराब की कीमतों में लगभग चालीस से पचास प्रतिशत तक की बढोतरी की गयी तो यह लगने लगा था कि पीने वालों की संख्या में जबरदस्त कमी हो जायेगी। पर मेले की रौनक जस की तस बनी रही। तय है कि यह जालिम चीज ही ऐसी है जो एक बार मुंह से लग गयी तो छूटती नहीं। इस देश में जहां अमीरों के लिए एक से बढकर एक अंग्रेजी महंगी शराबें उपलब्ध हैं तो गरीबों के लिए भी सस्ती देसी दारू के ठेकों की भी कोई कमी नहीं है। गली-कूचों तक में खुल चुके यह ठेके चौबीस घंटे आबाद रहते हैं, जहां पर खून-पसीना बहाकर चंद रुपये कमाने वालों का जमावडा लगा रहता है। कई तो ऐसे होते हैं जो दारू के चक्कर में अपने घर-परिवार को भी भूल चुके होते हैं। घर में बीवी-बच्चों को भले ही भरपेट खाना न मिले पर इन्हें डटकर चढाये बिना चैन नहीं मिलता। यह भी हकीकत है कि आलीशान बीयर बारों में सफेदपोश नेता, नौकरशाह, उद्योगपति, व्यापारी आदि-आदि तो देसी दारू के ठेकों पर छोटे-मोटे अपराधी पनाह पाते और मौज उडाते हैं।यही दारू कई अपराधों की जननी भी है। न जाने कितनी हत्याएं बलात्कार, चोरी डकैतियां और अपराध-दर-अपराध शराब और दारू की ही देन होते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ सबसे बडी लडाई लडने वाले अन्ना हजारे का मानना है कि शराब देश की सबसे बडी दुश्मन है। शराबी देश के माथे का कलंक हैं। पिछले दिनों जब उन्होंने शराबियों को पेड से बांधकर कोडे मारने की बात की तो हंगामा-सा बरपा हो गया। इस हंगामें में वो शराबी कहीं शामिल नही थे जिन्हें दुरुस्त करने के लिए अन्ना हजारे ने यह विस्फोटक तीर छोडा था। देशभर के नव धनाढ्य वर्ग के साथ-साथ पत्रकारों, संपादकों, लेखकों, नेताओं की मयप्रेमी फौज अन्ना पर पिल पडी और चीखने-चिल्लाने लगी-यह तो अन्ना की गुंडागर्दी है। ऐसी अन्नागीरी महात्मा गांधी के देश में नहीं चल सकती। यह आम आदमी की आजादी को छीनने वाला फरमान है। हम अपने कमाये धन को कैसे भी खर्च करें यह हमारा व्यक्तिगत मामला है। और भी न जाने क्या-क्या कहा जाता रहा। दरअसल अन्ना ने तो उन शराबियों की पिटायी की बात कही जो हद दर्जे के नशेडी हैं। घर के बर्तन और बीवी के जेवर तक दारू की भेंट चढाने से नहीं कतराते। उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पडता कि उनकी इस लत की वजह से उनके बाल-बच्चे भूखे मर रहे हैं। उनकी गरीबी और बदहाली की असली वजह ही यह दारू ही है। अन्ना का यह कहना गलत तो नहीं है कि घोर शराबी इंसान कई बार नशे की धुन में व्याभिचारी और बलात्कारी बन जाता है। यह नशा उसे चोर, डकैत और हत्यारा भी बना देता है। उसका विवेक नष्ट हो जाता है और वह अच्छे-बुरे की पहचान भी भूल जाता है। अन्ना के विरोध में चिल्लाने वाले क्या इस हकीकत से इंकार कर सकते हैं?

Thursday, November 24, 2011

लीला की लीला

मंत्रियों, सांसदों और विधायकों से यह उम्मीद तो कतई नहीं की जाती कि वे अपराधों को अंजाम देने के मामले में बडे-बडे अपराधियों को भी मात देने लगें। पर हो तो कुछ ऐसा ही रहा है। राजस्थान में एक केबिनेट मंत्री की नीच हरकतें सामने आने के बाद यह भी माना जाने लगा है कि हमारे कई जनप्रतिनिधी ऐसे हैं जो शर्म और नैतिकता को बेच कर बाजार में नंगे होने से भी नहीं कतराते। अय्याशियों के समंदर में डुबकियां लगाने से पहले इनके मन में किं‍चित भी यह विचार नहीं आता कि इनका असली चेहरा जब सामने आयेगा तो उस जनता पर क्या बीतेगी जिसने उन्हें अपना कीमती वोट देकर विधायक और सांसद बनने का सुनहरा मौका बख्शा है। दरअसल इस मुल्क के कई नेता और नौकरशाह चरित्रहीनता की तमाम सीमाएं लांघ चुके हैं। कुछ का चेहरा बेनकाब हो जाता है और बहुतेरे अपने-अपने मुखौटों में कैद रहते हैं। जब पर्दाफाश होता है तो लोग माथा पीटते रह जाते हैं।उम्रदराज कांग्रेसी नेता महिपाल मदरेणा पर यह कहावत सटीक बैठती है कि कुत्तों को कभी खीर हजम नहीं होती। मदरेणा राजस्थान के केबिनेट मंत्री थे। नैतिकता का दामन थामे रहते तो निश्चय ही उनका भविष्य उज्जवल होता। पर खुद पर संयम नहीं रख पाये और अर्श से फर्श पर पहुंच गये। उनके पास जनस्वास्थ्य विभाग था। नर्स भंवरी बाई उनके पास अपने तबादले के सिलसिले में पहुंची तो वे उसकी समस्या का समाधान करने की बजाय उसकी खूबसूरती और कातिल अदाओं में खोकर रह गये। भंवरी बाई भी खेली-खायी नारी थी। राजनीति के क्षेत्र में भाग्य आजमाने की मंशा भी उसने पाल रखी थी। मदरेणा से मिलने के बाद उसे यकीन हो गया कि यह शख्स उसे कांग्रेस के गढ में कोई-न-कोई जगह जरूर दिलवा देगा। उसने हल्का-सा इशारा पाते ही मंत्री जी को गले लगा लिया और उनकी हर चाहत पूरी कर दी। वासना के पुजारी मदरेणा ने भंवरी के साथ शारीरिक रिश्ते बनाने से पहले यह भी नहीं सोचा कि वह उसकी लडकी की उम्र की है। उसकी एक अच्छी-खासी बीवी भी है जो उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती आयी है।मंत्री से मिलने के बाद भंवरी की तकदीर बदल गयी। उसने अपनी पहचान का दायरा इतना विस्तृत कर लिया कि राजस्थान के और भी कुछ मंत्री और विधायक उसके करीबियों में गिने जाने लगे। नौकरशाहों को भी उसने अपने कामुक जिस्म का स्वाद चखाया और अपना काम निकलवाया। भंवरी के कहने पर कई ठेकेदारों को मनचाहे सरकारी ठेके मिलते चले गये। भंवरी के पास आलीशान घर और कारें भी आ गयीं। हवाई जहाज की यात्राएं भी उसके लिए रोजमर्रा की बात हो गयीं। वाकई भंवरी को वो सब मिल गया जो उसने चाहा था। पर ऐसे रास्तों पर चलने वालों के लिए खतरे भी बहुत होते हैं। फिर भंवरी तो अति महत्वाकांक्षी थी। राजस्थान की विधायक बन मंत्री बनना चाहती थी। पर उसे यह पता नहीं था कि जिस्मखोर मंत्री-संत्री जिनके साथ बिस्तरबाजी करते हैं, उन्हें महज सब्जबाग ही दिखाते रहते हैं। चालाक भंवरी ने सीडी बनाने-बनवाने से लेकर क्या-क्या नहीं किया पर आखिरकार उसका भी वही हश्र हुआ जो अभी तक राजनीति के गलियारों में चहल-पहल करने वालियों का होता आया है। भंवरी गायब है। राजस्थान सरकार की चूलें हिल गयी हैं।देहभोगी अय्याश मंत्री महिपाल मदरेणा को अपना चेहरा दिखाने में शर्म महसूस हो रही है। कल तो जो लोग साये की तरह साथ थे, आज कन्नी काट चुके हैं। हां उनकी पत्नी लीला मदरेणा जरूर उनके साथ हैं। वे पढी-लिखी महिला हैं। उन्हें लगता है कि उनके पति परमेश्वर को फंसाया गया है। मीडिया तिल का ताड बना रहा है। उनके शौहर ने भंवरी से जबरन बलात्कार तो नहीं किया। सबकुछ रजामंदी से हुआ है तो फिर शोर-शराबा किस लिए? पुराने जमाने में राजा-महाराजा भी तो कई-कई स्त्रियों को भोगते थे और मस्त रहते थे। उनके पति ने कोई नया काम तो नहीं किया है। लीला अपने पथभ्रष्ट पति को जिस तरह से बचाने और उसके कर्मकांड को उचित दर्शाने पर तुली हैं उससे उनकी कलुषित मानसिकता का पता चलता है। जो औरत अपने पति को इधर-उधर मुंह मारने की छूट देने की हिमायती है वह खुद कितनी दूध की धुली होगी इसका सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। हम तो बस यही कहेंगे कि अगर सभी नारियां लीला जैसी हो जाएं तो पुरुषों को भटकने और पतित होने तथा नारियों की इज्जत को खतरें में पडने से भगवान भी नहीं बचा सकता...।

Thursday, November 17, 2011

यह कैसा मज़ाक है?

कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी ने कई दिनों बाद अपनी चुप्पी तोडी। वे मानती हैं कि भाषणबाजी से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं हो सकता। अपने भाषण में उन्होंने टीम अन्ना को भी नहीं बख्शा। जहां-तहां बोलने के लिए खडे हो जाने वाले अन्ना के साथियों को अपने अंदर झांकने की सलाह भी थकी-हारी सोनिया ने दे डाली। पर यहां कौन किसी की सीख और सलाह पर चलता है। सभी खुद को ज्ञानी-ध्यानी समझते हैं। हर राजनेता को यही लगता है कि वही हिं‍दुस्तान की बागडोर संभालने का असली हकदार है। दूसरे इसे बेच खा रहे हैं और बेच खाएंगे। जिनके पास देश की सत्ता है वो उसे जकडे और दबोचे हुए हैं और दूसरे छीनने-झपटने को बेताब हैं। हर तरफ यही लडाई चल रही है। यह सच्चाई किसी से छिपी नहीं है कि आजादी के ६४ साल गुजर जाने के बाद भी देश के प्रदेश बिहार, उत्तर प्रदेश के लोगों को रोजगार की तलाश में जहां-तहां भटकना पडता है। मायानगरी मुंबई में लाखों बेरोजगारों को पनाह मिलती आयी है। कुछ कर गुजरने की चाह रखने वाले हर मेहनतकश को यह नगरी अपने में समाहित कर लेती है और इतना कुछ दे देती है कि वह यहीं का होकर रह जाता है। पिछले दिनों कांग्रेस सांसद संजय निरुपम ने जब यह कहा कि मुंबई उत्तर भारतीयों की बदौलत ही चलती-फिरती और सांस लेती है तो शिवसेना वालों ने हंगामा खडा कर दिया था। निरुपम से कई कदम आगे बढते हुए कांग्रेस के भावी प्रधानमंत्री राहुल गांधी ने उत्तर प्रदेश में अपने चुनावी मिशन की शुरुआत करते हुए जब जनता को संबोधित करते हुए कहा कि तुम लोग कब तक महाराष्ट्र जाकर भीख मांगोगे और कब तक पंजाब में जाकर मजदूरी कर अपना खून-पसीना बहाते रहोगे तो जैसे बवंडर ही मच गया। सब के सब बौखला उठे। राहुल गांधी युवा हैं और अपनी माताश्री की तरह हर बार किसी और का लिखा भाषण नहीं पढते। उनके अंदर का एंग्री यंगमैन बेकाबू हो जाता है। अच्छे-अच्छे धुरंधर वक्ता भावावेश में अपने शब्दों पर नियंत्रण नहीं रख पाते। राहुल गांधी तो नेता हैं। भीड को देखकर अपना आपा खो बैठना नेताओं की आदत में शुमार होता है। पर राहुल के मुंह से निकले 'भीख' शब्द ने तो जैसे हंगामा ही बरपा दिया। इस बार भी सबसे ज्यादा मिर्ची शिवसेना को ही लगी। उसकी तरफ से प्रतिक्रिया आयी कि जिस उत्तर प्रदेश ने नेहरू गांधी परिवार को सत्ता की भीख दी उन्हीं का वारिस यूपी वालों को 'भिखारी' कह रहा है। रेलवे की नौकरी के लिए साक्षात्कार देने गये उत्तर भारतीयों पर डंडे और मुक्के चला चुकी पार्टी के नेताओं ने यह भी कहा कि उत्तर प्रदेश से मुंबई में कोई भीख मांगने नहीं आता। हर कोई मेहनत करके रोजी-रोटी कमाता है। राहुल गांधी ने मेहनत कश देशवासियों का अपमान किया है। देश और प्रदेश के हर कांग्रेस विरोधी नेता को राहुल गांधी पर निशाना साधने का जैसे मौका मिल गया। न्यूज चैनलों पर पक्ष और विपक्ष के नेता आपस में ऐसे भिड गये जैसे किसी तमाशे को अंजाम दिया जा रहा हो। ऐसे तमाशों का अब आम जनता पर कोई फर्क नहीं पडता। उसका सिरदर्द बढाने के लिए ढेरों समस्याएं हैं जो राजनेताओं और सत्ता के निर्मम खिलाडि‍यों की देन हैं।यह भी गौर करने वाली बात है कि ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश जब यह फरमाते हैं कि भारत सबसे गंदा देश है तो कहीं कोई हलचल नहीं होती। किसी का मुंह नहीं खुलता!राहुल गांधी जब यह कहते हैं कि उत्तर प्रदेश के हालात देखकर उन्हें गुस्सा आता है तो न जाने कितने लोगों का खून इस सवाल के साथ खौल उठता है कि देश पर पचास साल से ज्यादा समय तक राज करने वाली युवराज की कांग्रेस ने इस प्रदेश को खुशहाल बनाने के लिए आखिर ऐसा क्या किया है कि आज उन्हें यहां की बदहाली पर पीडा हो रही है? केंद्र में उनकी सत्ता है और देश के कैसे हालात हैं क्या उनसे राहुल वाकिफ नहीं हैं? वो जमाना लद गया जब लोग हर नेता पर यकीन कर लेते थे। खुद नेताओं ने ही नेतारुपी जीव की साख लगभग खत्म करके रख दी है। ऐसे में राहुल पर विश्वास करने वाले कम और अविश्वास करने वाले ज्यादा हैं। हर समझदार शख्स जान-समझ रहा है कि राहुल गांधी की नजर भी अगले वर्ष उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों पर टिकी है। यहां की जीत ही उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बिठा सकती है। उत्तर प्रदेश ने हमेशा नेहरू और गांधी खानदान को सत्ता और ताकत बख्शी पर इस प्रदेश का चेहरा नहीं बदल पाया। कांग्रेस ने यदि यूपी और बिहार को औद्योगिक राज्य बनाया होता तो यहां के लोगों को कहीं भी जाने की जरूरत न पडती। बाद में इन प्रदेशों की जिन्होंने भी सत्ता संभाली उन्होंने केवल और केवल अपनी तथा आने वाली दस-बीस पुश्तों के लिए सभी इंतजाम कर लिये। बेचारी आम जनता वहीं की वहीं रही। उसे अपना पेट भरने के लिए मुंबई, दिल्ली जैसे महानगरों की खाक छाननी पडी। यह सिलसिला कहां और कब जाकर थमेगा कोई नहीं जानता। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस से लोगों का मोहभंग होने के पश्चात समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिं‍ह जब मुख्यमंत्री बने थे तो कुछ उम्मीद जागी थी। समाजवादी समाज के साथ न्याय करेगा और हर प्रदेशवासी के हिस्से में खुशहाली आयेगी। पर कुछ भी नहीं बदला। सिर्फ मुलायम सिं‍ह और उनका परिवार अरबों-खरबों में खेलने लगा। अमर सिं‍ह जैसे दलालों ने जीभर कर चांदी काट ली। भारतीय जनता पार्टी को भी मौका मिला पर वह भी कोई कमाल नहीं दिखा सकी।बहुजन पार्टी की कर्ताधर्ता मायावती की माया तो अपरंपार है। उन्हें मूर्तियां बनवाने और लगवाने से ही फुर्सत नहीं मिलती। वे अपनी करनी से इतना घबरायी हुई हैं कि अपने जीवनकाल में ही अपनी प्रतिमाएं स्थापित किये जा रही हैं। हाथ आये मौके को वे खोना नहीं चाहतीं। दलितों की तथाकथित मसीहा जनता की सेवा किये बिना ही अमर हो जाना चाहती हैं। वे इस दंभ में हैं कि उन्हें उत्तर प्रदेश की सत्ता से हटाना किसी भी राजनीतिक पार्टी के बस की बात नहीं है। बांटो और राज करो के खेल में भी गजब की महारत हासिल कर चुकी हैं वे। राहुल गांधी बहन जी के भ्रम की धज्जियां उडाने पर उतारू हैं। वे उन पर केंद्र से मिलने वाले फंड को हडप कर जाने से लेकर और न जाने कितने आरोप जडते हैं और वे सुने को अनसुना कर उनका मजाक उडाने लगती हैं। दरअसल इन दिनों देश में हर तरफ ऐसा ही कुछ चल रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि देश का भी मजाक उडाया जा रहा है?

Thursday, November 10, 2011

उम्रदराज़ नेता की रुलायी

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को समझ पाना कतई आसान नहीं है। उनके आसपास रहने वालों का भी यही मानना है। लालकृष्ण आडवाणी, जिन्होंने मोदी को गुजरात का मुख्यमंत्री बनाने में अपनी तरफ से कोई कसर नहीं छोडी थी, वे भी अंदर ही अंदर पछता रहे होंगे। पर मुंह से कुछ कह नहीं पाते। राजनीति का यही दस्तूर है कि चुप्पी साधे रहो। हर कोई अटल बिहारी वाजपेयी नहीं हो सकता जो दिल की बात फौरन उजागर कर दे। नरेंद्र मोदी को राजधर्म निभाने की सीख सिर्फ और सिर्फ अटल जी ही दे पाये थे। आडवाणी ने तो चुप्पी ही साध ली थी। चुप्पी में कहीं न कहीं समर्थन भी छिपा रहता है। राजनीति का यह अघोषित नियम है कि यदि अपनी जडे जमाये रखनी हैं तो दूसरे की खोदने की कतई हिमाकत न करो। जिन्होंने भी इस दस्तूर को निभाया वे सदैव मजे में रहे हैं।पिछले कई दिनों से मीडिया में यह खबरें आम थी कि नरेंद्र मोदी और लालकृष्ण आडवाणी के रिश्तों में खटास आ चुकी है। जबसे आडवाणी ने प्रधानमंत्री बनने की मंशा दर्शायी है तभी से मोदी खफा-खफा चल रहे हैं। दरअसल मोदी सभी को धकिया कर खुद देश के पी.एम. बनना चाहते हैं। भ्रष्टाचार और सुशासन के मुद्दे पर निकली लालकृष्ण आडवाणी की रथयात्रा से नरेंद्र मोदी के असहमत और रुष्ट होने की न जाने कितनी खबरें मीडिया की सुर्खियां बनीं। पर जब रथ यात्रा मोदी के गुजरात में पहुंची तो उसका वो स्वागत हुआ जिसकी उम्मीद खुद रथयात्री ने भी नहीं की थी। हेलीकाप्टर से पुष्पवर्षा करवा आडवानी को गदगद कर देने वाले मोदी ने जब यह कहा कि 'आडवाणी का पसीना रंग लायेगा और कमल खिलेगा' तो लोग अपनी-अपनी सोच के अनुसार अर्थ तलाशते रहे। आडवाणी के मंच पर पहुंचते ही जैसे नजारा बदल गया। मोदी और आडवाणी के बीच की खाली पडी सिं‍हासननुमा कुर्सी ने दोनों दिग्गजों के बीच की दूरी को उजागर कर ही दिया। तथाकथित भावी प्रधानमंत्रियों की 'खटास' को मीडिया में छाना ही था पर नरेंद्र मोदी बौखला उठे। बोले, मीडिया को तो चटपटी खबरें परोसने की आदत ही पड गयी है।वैसे इस खबर में चटपटा कुछ भी नहीं था। जैसा देखा गया था, वैसा ही छापा और बताया गया था। जो लोग मोदी की फितरत से वाकिफ हैं उनका यह कहना है कि मोदी जानबूझ कर आडवाणी की बगल में नहीं बैठे क्योंकि उन पर हमेशा विवादास्पद खबरें पैदा करने और खबर बनने का जूनून सवार रहता है। इसके लिए वे कुछ भी कर गुजरने का माद्दा रखते हैं। उन्हें क्रुर और कठोर शासक मानने वाले भी ढेरों हैं। सत्ता के लिए मोदी वो सब कुछ कर सकते हैं जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती। मोदी के अतीत के साथ जुडे किस्से असंख्य भारतीयों को आज भी भयग्रस्त कर देते हैं। फिर भी उन्हें चाहने और प्रधानमंत्री की कुर्सी पर देखने के इच्छुकों की संख्या भी कम नहीं है। देश और दुनिया के कई जाने-माने उद्योगपति उन्हें देश के शीर्ष सिं‍हासन पर विराजमान करने के लिए एडी-चोटी का जोर लगाते रहते हैं। यह सच्चाई कइयों को डराये हुए है। आडवाणी भी उनमें से एक हैं। आडवाणी को लौहपुरुष भी कहा जाता है। वे अपने सिद्घांतों पर हमेशा भी अडिग रहते हैं। आदमी के हर रूप की उन्हें पहचान है। पर लगता है कि वे मोदी को नहीं पहचान पाये। गुजरात में जब मोदी उनकी प्रशंसा कर रहे थे तब वे चिं‍तक और विचारक की मुद्रा में मंच पर आसीन चेहरों के भाव पढने में तल्लीन थे।यात्रा से हल्का-सा अवकाश निकाल उन्होंने अपना ८५ वां जन्मदिन दिल्ली में मनाया। जन्मदिन के उपलक्ष्य में आयोजित समारोह में भी प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की चर्चा छिड गयी। भारतीय जनता पार्टी के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथ सिं‍ह ने फरमाया कि जब मैं अखबारों में आडवाणी जी के प्रधानमंत्री पद की दौड में शामिल होने की खबरें पढता हूं तो मुझे दुख होता है। क्या आडवाणी के कद का नेता कभी खुद को प्रधानमंत्री बनाने का दावा पेश कर सकता है? वे तो इस पद के लिए सबकी स्वाभाविक पसंद हैं। वहां पर उपस्थित दूसरे भाजपाई नेताओं का भी यही मत था कि आडवाणी की नेतृत्व क्षमता का कोई सानी नहीं है। आडवाणी की इतनी प्रशंसा की गयी कि वे भावविभोर हो उठे और उनके आंसू छलक पडे। आंसू सबने देखे पर इन आंसुओं के पीछे का दर्द किसी ने भी नहीं देखा। कोई देख भी नहीं सकता। खुशी और पीडा के अश्रुओं में बहुत फर्क होता है। उम्रदराज नेता यूं ही नहीं रोया करते। इसके पीछे बहुत गहरा दर्द और अपनों के विश्वासघात की पीडा भी छिपी होती है। आडवाणी भी अपनी पीठ के पीछे वार करने वालों को जानते तो हैं पर खामोश हैं। वे ये भी चाहते हैं कि उनके हितैषी ही उनकी राह के कांटें को हटाएं। तभी बात बनेगी। आज की तारीख में लालकृष्ण आडवाणी की राह का कांटा कौन है यह तो आप सब को पता है...। जोर लगाते रहते हैं। यह सच्चाई कइयों को डराये हुए है। आडवाणी भी उनमें से एक हैं।

Thursday, November 3, 2011

मगरमच्छों की भीड में एक चेहरा ऐसा भी!

उद्योगपति मुकेश अंबानी ने मुंबई में पांच हजार करोड की गगनचुंबी इमारत तानी तो धन्ना सेठ विजय माल्या को भी जोश आ गया। उन्होंने भी दारू की कमायी से जुटायी अरबों-खरबों की दौलत का जलवा दिखाने के लिए अंबानी की टक्कर की सर्वसुविधायुक्त बिल्डिंग खडी करनी शुरू कर दी। इस देश में ऐसे नजारे आम हैं। धनपति एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए भी कुछ इसी तरह से अपनी धन-दौलत और ताकत का प्रदर्शन करते रहते हैं। वे यह भी याद नहीं रखते कि इस देश की आधी से ज्यादा आबादी गरीबी और बदहाली से जूझ रही है। करोडों भारतीय ऐसे हैं जिन्हें टूटी-फूटी झोपडी तक नसीब नहीं है। स्वार्थी और बेहया उद्योगपतियों की भीड में एक शख्स हमेशा अलग खडा नजर आता है जिसे बार-बार नमन करने को जी चाहता है। विप्रो के अध्यक्ष अजीम प्रेमजी एक ऐसी हस्ती हैं जो दोनों हाथों से कमायी गयी अथाह दौलत को अपने ऐशो-आराम पर लुटाने की बजाय देशवासियों के हित में खर्च करना अपना कर्तव्य और धर्म मानते हैं।अजीम प्रेमजी ने ऐलान किया है कि अगले वर्ष वे देश के सभी जिलों में दो-दो ऐसे स्कूल खोलने जा रहे हैं जिनमें गरीबों के बच्चों की मुफ्त में शिक्षा-दीक्षा उपलब्ध करायी जाएगी। उनकी इस घोषणा और पहल की प्रतिस्पर्धा करने के लिए कोई भी उद्योगपति सामने नहीं आया है। दरअसल अंबानी, माल्या जैसे घोर मतलबपरस्त, अय्याशों के मुंह पर प्रेमजी ने एक तमाचा जडा है जिसे हम और आप तो देख-समझ रहे हैं पर देश को लूटने-खसोटने वाले औद्योगिक घराने जानबूझकर अनाडी और नासमझ बने रहना चाहते हैं। आजादी का असली फायदा तो देश के चंद औद्योगिक घरानों ने ही उठाया है। देश की सबसे बडी बीमारी भ्रष्टाचार के भी असली पोषक यही हैं। सरकारी नीतियों को अपने पक्ष में करने के लिए सांसदों, विधायकों, मंत्रियों, संत्रियों को चारा डालने की जो महारत इन्हें हासिल है, उसका भी कोई सानी नहीं है। यह सच्चाई जगजाहिर है कि अधिकांश उद्योगपति 'चंदे' और 'फंदे' की बदौलत सरकार में अपनी पैठ रखते हैं। सरकार इन पर हर तरह से मेहरबान रहती है। इन्हें अरबों-खरबों की जमीनें पानी के भाव मुहैय्या कराने के साथ-साथ मनचाही सुविधाएं उपलब्ध करवाने में कहीं कोई कमी नहीं की जाती। यहां तक करों में भी अपार छूट दी जाती है। यह मनमाना मुनाफा कमाते हैं और उस मुनाफे का कुछ हिस्सा राजनेताओं और नौकरशाहों तक पहुंचाने के बाद बाकी बचे सारे धन को अपने बाप की जागीर समझने लगते हैं। इतिहास गवाह है कि देश में होने वाले तमाम बडे-बडे घोटालों में उद्योगपतियों राजनेताओं और अफसरों की मिलीभगत रही है। यह लोग कमायी का कोई भी मौका नहीं छोडना चाहते। इसलिए इन्होंने शिक्षाजगत को भी नहीं बख्शा। देश में जहां-जहां राजनेताओं और उद्योगपतियों के द्वारा स्कूल कॉलेज भी चलाये जा रहे हैं जहां पर शिक्षा कम और धंधा ज्यादा होता है। शिक्षण संस्थाओं के नाम पर सरकारी जमीनें हथिया ली जाती हैं और फिर तरह-तरह से लूटमार का सिलसिला शुरू कर दिया जाता है। हाल ही में महाराष्ट्र के विभिन्न सरकारी मान्यता प्राप्त स्कूलों की जांच की गयी तो ऐसे-ऐसे फर्जीवाडे सामने आये कि प्रबुद्धजनों ने माथा पीट लिया। सनद रहे कि देश के इस महाप्रदेश में अधिकांश स्कूल और कॉलेज व्यापारियों के साथ-साथ कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के नेताओं तथा उनके चेले-चपाटों के द्वारा संचालित किये जाते हैं। तथाकथित देशसेवकों के स्कूलों में छात्रों की संख्या बढा-चढा कर दर्शायी जाती है। जिस स्कूल में पचास छात्र पढते हैं वहां पर पांच-सात सौ छात्रों का उपस्थित रहना और पढना-लिखना दर्शाकर शासन के साथ धोखाधडी की जाती है। मुंबई में लगभग चालीस हजार, नागपुर में अस्सी हजार, पुणे में दो लाख, कोल्हापुर में एक लाख, रायगढ में पचास हजार, नांदेड में साठ हजार और जलगांव के विभिन्न स्कूलों में लगभग पचास हजार फर्जी छात्रों के होने का पर्दाफाश होने के बाद भी अभी और आंकडों का आना बाकी है। महाराष्ट्र में पचास लाख फर्जी छात्रों के होने का अनुमान है। इस धोखाधडी की एक खास वजह यह भी है कि महाराष्ट्र सरकार प्रत्येक छात्र के नाम पर कम से कम सौ रुपये प्रतिमाह की नगद सहायता प्रदान करने के साथ-साथ और भी कई तरह के फंड उपलब्ध कराती है। इससे सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है कि शिक्षा की आड में कितना बडा फरेब और घोटाला किया जा रहा है। यह ऐसी ठगी है जिसे सफेदपोश बेखौफ होकर अंजाम देते चले आ रहे हैं। जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री के इलाके में ही ऐसे फर्जी स्कूल चल रहे हों तो फिर दूसरों को तो खुद-ब-खुद शह मिल ही जाती है। हालांकि मगरमच्छों के लिए ऐसी लूटमारें कोई खास मायने नहीं रखतीं।मेडिकल कॉलेज, इंजिनियरिंग कॉलेज आदि में जो लाखों-करोडों का गुप्त डोनेशन लिया जाता है उसका आंकडा तो बेहद चौंकाने वाला है। यही अंधाधुंध कमायी ही नेताओं और व्यापारियों को स्कूल कॉलेज खोलने को मजबूर करती है। यह लोग अपनी-अपनी तिजोरियां भरते रहते हैं और शिक्षा का भट्ठा बैठता चला जाता है। गरीबों के बच्चे तो स्कूलों का मुंह तक नहीं देख पाते। कॉलेज तो बहुत दूर की बात है। अजीम प्रेमजी इस सच से वाकिफ हैं। इस खतरनाक सच ने उन्हें यकीनन चिं‍तित और आहत किया होगा तभी उनके दिल-दिमाग में गरीब बच्चों को मुफ्त में शिक्षा दिलाने के लिए स्कूल-दर-स्कूल खोलने का विचार आया है। विप्रो के अध्यक्ष सरकार की कार्यप्रणाली को लेकर भी बेहद चिं‍तित रहते हैं। उनका मानना है कि सरकार और नौकरशाही में निर्णय लेने की क्षमता का जबरदस्त अभाव दिखायी देता है। यही वजह है कि देश के आर्थिक विकास की रफ्तार थम-सी गयी है और महंगाई ने आम आदमी को इस कदर जकड लिया है कि उसका उससे बाहर निकलना मुश्किल हो गया है। हिं‍दुस्तान की सरकार को कौन और कैसे-कैसे चेहरे चला रहे हैं यह बताने और बार-बार दोहराने की तो कोई जरूरत ही नहीं बचती...।

Friday, October 28, 2011

वो दिन कब आयेगा?

कांग्रेस सांसद संजय निरुपम स्वयं को उत्तर भारतीयों का एक सशक्त नेता मानते हैं। कभी शिवसेना में रह चुके हैं इसलिए बोलने के मामले में किसी भी तरह का जोखिम लेने को तत्पर रहते हैं। खुद को चर्चा में बनाये रखने की कला का भी उन्हें खूब ज्ञान है। ऐन दिवाली से पहले नागपुर में हुए उत्तर भारतीयों के सम्मेलन में उन्होंने फरमाया कि मुंबई की लाइफ लाइन उत्तर भारतीयों के हाथ में है। अगर ये लोग एक दिन के लिए भी काम बंद कर दें तो मुंबई ठप हो जाएगी। संजय का तीर निशाने से जरा भी नहीं चूका। शिवसेना के कार्याध्यक्ष उद्धव ठाकरे आग बबूला हो उठे। उनका बयान आया कि मुंबई की रफ्तार को रोकने की कोशिश करने वालों के होश ठिकाने लगा दिये जाएंगे। कार्यकर्ता भी जोश में आ गये। शिवसेना के कार्यकर्ताओं ने मुंबई में विभिन्न स्थानों पर संजय निरुपम के दीवाली की शुभकामनाओं वाले पोस्टरों पर कालिख पोत डाली तो कांग्रेस के कार्यकर्ता भी पीछे नहीं रहे और उन्होंने भी उद्धव ठाकरे के पोस्टरों के साथ जैसे को तैसा की कहावत को चरितार्थ कर अपनी मनोकामना पूरी कर डाली। जुबानी जंग ने पोस्टर जंग की शक्ल अख्तियार कर ली। इसका भी खूब प्रचार हुआ। कांग्रेस और शिवसेना दोनों ने फटाके और फुलझडि‍यां छोडने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। वैसे भी संजय निरुपम जब से कांग्रेस में आये हैं तब से खुद को कांग्रेस का वफादार सिपाही साबित करने के अभियान में लगे हैं। जब वे शिवसेना में थे तब जी भरकर कांग्रेस की ऐसी-तैसी किया करते थे। उनके बुलंद तेवरों को देखते हुए ही उन्हें शिवसेना के मुखपत्र सामना का कार्यकारी संपादक बनाया गया था। उनके संपादकत्व में प्रकाशित होने वाले सामना के अंकों में कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी को भी नहीं बख्शा जाता था। तब शिवसेना उत्तर भारतीयों पर जब-तब टूट पडा करती थी पर संजय निरुपम मौन रहते थे। इसी मौन के इनाम के तौर पर शिवसेना ने उन्हें राज्यसभा का सांसद बनाने का मौका भी दिया था। जब उन्हें लगा कि शिवसेना में ज्यादा दिनों तक दाल नहीं गलने वाली तो उसे नमस्कार कर कांग्रेस का दामन थाम लिया। कांग्रेस ने कुछ साल तक इंतजार करवाया फिर लोकसभा का चुनाव लडवाया। शिवसेना के समय की बोयी फसल काम आयी और वे चुनाव जीत गये। वर्तमान में वे मुंबई में कांग्रेस के सांसद हैं और उनकी सोच और भाषा बदल गयी है। अब वे उत्तर भारतीयों के जबरदस्त हितैषी हो गये हैं। इसी का नाम राजनीति है जो फिलहाल इस देश में चल रही है। शिवसेना सुप्रीमों बाल ठाकरे ने अपने अखबार सामना की सम्पादकीय में समर्थकों को आह्वान किया कि इस बार कांग्रेस नरकासुर का वध करके दिवाली मनाएं।गौरतलब है कि नरकासुर एक राक्षस था, जिसका भगवान श्री कृष्ण ने अपनी पत्नी सत्यभामा की सहायता से संहार किया था। नरकासुर ने सोलह हजार लडकियों को कैद कर रखा था और उन पर बेहद जुल्म ढाता था। श्री कृष्ण ने सभी लडकियों को जालिम की कैद से मुक्ति दिलवायी थी। इसी उपलक्ष्य में दिवाली के एक दिन पहले नरक चतुर्दशी मनायी जाती है।यह कोई पहला मौका नहीं था जब बाल ठाकरे ने कांग्रेस को निशाने पर लिया हो। उत्तर भारतीयों की तारीफ करना संजय निरुपम को भले ही महंगा न पडा हो पर कांग्रेस के दिग्गज तो हिल ही गये। वैसे भी पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस हिलडुल ही तो रही है। जिसे देखो वही उसकी जमीन खिसकाने पर उतारू है। डॉ. मनमोहन सिं‍ह के राज में जिस तरह से महंगाई में निरंतर इजाफा होता चला जा रहा है उससे आम आदमी बहुत बुरी तरह से खिन्न है। विरोधी दलों और नेताओं को तो जैसे मनचाही मुराद मिल गयी है। जो देशवासी सोचने-समझने में सक्षम हैं वे नेताओं की तमाशेबाजी को देखकर हतप्रभ हैं। मुल्क की मूल समस्याओं पर ध्यान देने और सोचने की किसी भी दल और नेता के पास फुर्सत नहीं दिखती। सभी एक-दूसरे के खिलाफ बयानबाजी में जुटे हैं। भ्रष्टाचार और काला धन देश की सबसे भयंकर समस्याएं है। देश की आधी से ज्यादा जनता वर्तमान व्यवस्था से नाखुश है। कुछ लोगों ने इस काली व्यवस्था को बदलने की ठानी है पर इसमें राजनीति आडे आ रही है। जन आंदोलन करने वालों को तरह-तरह से प्रताडि‍त किया जा रहा है। सत्ता का सुख भोग रहे राजनेता इस तथ्य को भी भूल गये हैं कि आम जनता ने उन्हें भ्रष्ट व्यवस्था को बदलने के लिए चुना है। होना तो यह चाहिए था कि देश की तरक्की के रास्ते में आने वाली समस्याओं को दूर करने के लिए बिना पार्टीबाजी के दलदल में धंसे सभी नेता एक मंच पर खडे नजर आते। पर नजारा तो हैरान और परेशान करने वाला है। भ्रष्टाचार और काले धन के खिलाफ अलख जगाने वालों के खिलाफ भी कुछ चेहरे 'एकजुट' हो चुके हैं। उन्हें हर किसी में खोट नजर आता है। ऐसे में आम जनता के दिमाग में यह सवाल भी कुलबुलाने लगा है कि अगर हिं‍दुस्तान में सभी चोर और अपराधी हैं तो फिर साधु कौन है? आखिर वो वक्त कब आयेगा जब राजनीति को किनारे रख आम आदमी के हित में सोचा और किया जायेगा?यकीन मानिए अब लोग बयानों और भाषणों से उकता गये हैं। जो जिसके जी में आता है बोल देता है और खुद को नायक का दर्जा देने पर तुल जाता है। देश भर के अखबारों, न्यूज चैनलों में वही नेता छाये नजर आते हैं जो विवाद खडा करने में माहिर हैं। गंभीर और विचारवान नेताओं को हाशिये में डालने और वाचालों की वाह-वाही करने के षडयंत्र को इस देश की आम जनता भी समझने और परखने लगी है इसलिए देश में जनक्रांति के आसार भी नजर आ रहे हैं जिसे न सत्ताधारी भांप पा रहे हैं और न ही वे जो सत्ता हथियाने की फिराक में हैं।

Thursday, October 20, 2011

पर्दे के पीछे के शिकारी

लोग हैं कि चैन से जीने नहीं देते। बोलो तो तकलीफ। चुप रहो तो तरह-तरह के शक-शुबहा। अन्ना हजारे पिछले कुछ महीनों से लगातार बोल रहे थे। समझदार हैं, इसलिए उन्होंने जान लिया कि लोग अब बोर होने लगे हैं। हर मामले में उनकी टांग फंसाई कई लोगों को रास नहीं आ रही है। उनके साथी प्रशांत भूषण पर भी जो हमला हुआ उससे भी वे सोचने को विवश हो गये कि अगर ऐसे ही चलता रहा तो बात बिगड सकती है। बात न बिगडे इसलिए उन्होंने कुछ दिनों तक बात ही न करने का निर्णय ले डाला। अन्ना के मौन व्रत धारण करने के बाद अन्य लोगों ने धडाधडा बोलना शुरू कर दिया। अन्ना ने मौन व्रत धारण करने से पहले जब यह कहा कि स्वास्थ्य और आत्मिक शांति के लिए वे यह मार्ग अपनाने जा रहे हैं तो कांग्रेस के महासचिव दिग्विजय सिं‍ह चुप नहीं रह पाये। उन्होंने गोली दागी कि झूठ बोल रहे हैं अन्ना। भ्रष्टाचार के संगीन आरोपों के चलते जेल भेज दिये गये कर्नाटक के भाजपाई पूर्व मुख्यमंत्री बी.एस.येदियुरप्पा को लेकर दागे जाने वाले सवालों से बचने के लिए उन्होंने मौन साध लिया है। आरोपों-प्रत्यारोपों के इस जमाने में असली सच की तह तक पहुंच पाना बेहद मुश्किल होता चला जा रहा है। बहरहाल, अन्ना टीम के एक दमदार सदस्य हैं संतोष हेगडे जिनके चलते येदियुरप्पा को यह दिन देखने पडे हैं। उन्होंने बडी ही वजनदार बात कही है कि जरूरत से ज्यादा बोलने पर बेशुमार गलतियां होती चली जाती हैं। वैसे चुप्पी के भी कई मायने होते हैं। यह चुप्पी ही है जो कुछ लोगों के चेहरे पर खूब फबती है। अपने देश के प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह अक्सर चुप रहते हैं। पर लोग हैं कि उसमें भी अर्थ खोजते रहते हैं। देश और दुनिया के कई महानुभावों को उनकी मंद-मंद मुस्कराहट और चुप्पी बहुत भाती है। वे चाहते हैं कि हिं‍दुस्तान का यह पी.एम. यूं ही अपना काम करता रहे। अमेरिका के राष्ट्रपति बराक ओबामा उनकी खामोशी के जबरदस्त मुरीद हैं। वे यह रहस्योद्घाटन भी कर चुके हैं कि वैसे तो मनमोहन सिं‍ह बोलते नहीं पर जब बोलते हैं तो उन्हें पूरा संसार सुनता है। वैसे यह कला हर किसी के नसीब में नही होती। दिग्विजय सिं‍ह जैसे लोग जब बोलते हैं तो लोग सुनते कम और खीजते ज्यादा हैं।अन्ना कांग्रेस पर जब खुलकर तीर चलाने लगे तो दिग्गी राजा उन्हें भाजपा और संघ के हाथों की कठपुतली घोषित करने लगे। प्रशांत भूषण ने कश्मीर में जनमत-संग्रह की फुलझडी क्या छोडी कि जहां-तहां बम फटने लगे। कुछ लोगों ने प्रशांत भूषण को सुप्रीम कोर्ट के उनके चेंबर में जा घेरा और घूसों और मुक्कों की बरसात कर दी। अपने देश में ऐसे पच्चीस-पचास बुद्धिजीवी हैं जो मानवाधिकार के नाम पर ऊलजलूल बकवास करते रहते हैं। प्रशांत भूषण के देश को तोडने और आहत करने वाले बयान ने अन्ना को भी हैरत में डाल दिया। मौनव्रत में रहने के बावजूद वे अपना आक्रोश दबा नहीं पाये। उन्होंने अपने ब्लॉग पर लिखा कि मैं आज भी कश्मीर के लिए पाकिस्तान से लडने और अपनी कुर्बानी देने के लिए सहर्ष तैयार हूं। उन्होंने देशवासियों को याद दिलाया कि वे देश के सजग सैनिक रहे हैं और भारत-पाक युद्ध में भाग लेकर अपने माथे पर गोली भी झेल चुके हैं। उस गोली का निशान आज भी उनके माथे पर कायम है। यकीनन अन्ना का देश प्रेम बेमिसाल है। ऐसे में प्रशांत भूषण जैसे देश तोडक मनोवृत्ति के शख्स का उनकी टीम में रहना नहीं सुहाता। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अर्थ यह तो नहीं है कि आप कश्मीर को भारत से अलग करने की बात करने लगें। प्रशांत भूषण माओवादियों के पक्ष में भी निरंतर बयानबाजी कर देशवासियों को निराश करते रहे हैं। पर फिर भी लोकतांत्रिक व्यवस्था में असहमत होने पर हिं‍सा का मार्ग अपनाना कतई उचित नहीं लगता। उत्तर प्रदेश की यात्रा के दौरान टीम अन्ना के अरविं‍द केजरीवाल पर चप्पल फेंक दी गयी। उन पर चप्पल फेंकने वाले युवक जितेंद्र पाठक का कहना है कि केजरीवाल देश की जनता को बरगलाने में लगे हैं। कल तक इसी युवक को केजरीवाल में देश को जगाने वाला एक देशभक्त नजर आ रहा था। वह भ्रष्टाचार के खिलाफ दिल्ली में चले अन्ना के आंदोलन में भी भाग ले चुका है। प्रशांत भूषण पर हमला करने वाला तेजिं‍दर सिं‍ह बग्गा भी अन्ना हजारे के समर्थन में तिहाड जेल के बाहर जोरदार प्रदर्शन कर चुका है। गजब की सच्चाई तो यह भी है कि जितेंद्र पाठक कांग्रेस पार्टी और बग्गा भारतीय जनता युवा मोर्चा की कार्यकारिणी में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा चुके हैं। ऐसे में यह भी लगने लगा है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ चलायी जा रही अन्ना हजारे की मुहिम को राजनीति के शिकारी लहुलूहान कर खत्म कर देने पर उतारू हैं। अरविं‍द केजरीवाल पर चली चप्पल को नजअंदाज नहीं किया जा सकता। इस चप्पल को जिस हाथ ने उछाला है उसके पीछे और भी कई दिमाग हो सकते हैं। इनकी शिनाख्त करना बेहद जरूरी है। इस देश में कई ताकतें ऐसी हैं जो भ्रष्टाचार के रावण का दहन नहीं होने देना चाहतीं। इसलिए वे भ्रष्टाचार के अंधेरे के खिलाफ मशाल उठा कर चल रहे हर चेहरे को संदिग्ध दर्शाने पर तुली हैं। हम मानते हैं कि इस दुनिया के हर इंसान में कोई न कोई छोटी-मोटी कमी और कमजोरी होती है पर इसका अर्थ यह नहीं कि जो काम अभी तक किसी ने नहीं किया हो, उसी काम को करने के लिए अगर देश के चंद जुनूनी चेहरे सामने आये हैं तो उनकी हौसला-अफजाई करने की बजाय बेवजह टांग खिं‍चाई की जाए। ऐसे में तो असली समस्या धरी की धरी रह जाएगी और पर्दे के पीछे बैठकर तीर चलाने वालों का मकसद पूरा हो जायेगा। दरअसल अब वो समय आ गया है जब इस देश की आम जनता को साजिशकर्ताओं की अनदेखी कर भ्रष्टाचार के खिलाफ लडने के लिए आगे आने वाले योद्धाओं का भरपूर साथ देना चाहिए। सच्चे इंसान की पहचान कर पाना ज्यादा मुश्किल काम नही है। अगर हम इस दायित्व को निभाने में सफल होंगे तभी देश का हर नागरिक खुशहाल होगा और दिवाली की जगमगाहट पर कुछ लोगों का नहीं बल्कि हर किसी का अधिकार होगा। आप सबको दिवाली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 13, 2011

अंडा खाये फकीर

एक ही हफ्ते में दो धुरंधरों की किताबों का विमोचन हुआ। पहले हैं चेतन भगत जो कि नामी-गिरामी लेखक हैं। दूसरे हैं राजनीतिक नितिन गडकरी जो संघ की मेहरबानी से भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन हवा में उड रहे हैं। युवाओं के चहेते लेखक चेतन भगत की नई किताब 'रिवोल्यूशन २०२०:लव, करप्शन, एंबिशन' बाजार में आते ही हाथों हाथ बिक गयी। भारत वर्ष में जहां दमदार माने-जाने हिं‍दी लेखकों की किताब के किसी भी संस्करण की चार-पांच सौ से ज्यादा प्रतियां नहीं छपतीं वहीं चेतन की अंग्रेजी में लिखी इस किताब की दस लाख प्रतियां छापी गयी हैं और हैरत की बात यह भी है कि पहले ही दिन दो लाख से ज्यादा किताबों की रिकॉर्ड तोड बिक्री हो गयी। बनारस की एक प्रेम कहानी में रचे-बसे चेतन के इस उपन्यास में शैक्षणिक जगत में व्याप्त भ्रष्टाचार की सच्ची तस्वीर पेश की गयी है। चेतन ने किताब लिखने से पहले कई बार बनारस की गलियों की खाक छानी। देश की विभिन्न शिक्षण संस्थाओं का अंदरूनी हाल-चाल भी जाना।आज यह कौन नहीं जानता कि देश की अधिकांश बडी-बडी शिक्षण संस्थाएं लालची उद्योगपतियों, काले-पीले कारोबारियों और भ्रष्ट नेताओं की गिरफ्त में हैं। इन धनखोरों के कॉलेजों में प्रवेश पाने के लिए छात्रों को लाखों रुपये की रिश्वत देनी पडती है। बेचारे मां-बाप अपने बच्चों के सुनहरी भविष्य के लिए जैसे-तैसे रुपयों का इंतजाम कर निजी कॉलेज संचालकों की मंशा को पूरा करते हैं। प्रतिभा न होने के बावजूद थैलियां देकर डॉक्टर और इंजिनियर बनने वाले युवक जहां मौका मिलता है वहां भ्रष्टाचार करने से नहीं चूकते। इसे उनकी विवशता भी कहा जा सकता है। दिया है तो लेंगे भी। असली डाकू ये नहीं वो हैं जो माल कमाने के लिए स्कूल कॉलेज चलाते चले आ रहे हैं। यह ऐसे डकैत हैं जो जनता को भी लूटते हैं और सरकार को भी। सरकार की नादानी कहें या मिलीभगत कि वह इन्हें करोडों की जमीनें कौडि‍यों के भाव खैरात में दे दी जाती हैं। फिर भी इनका पेट नहीं भरता। इन धनपशुओं ने शिक्षा संस्थानों में विद्या दान की बजाय उसे बेचना शुरू कर दिया है। जिनकी जेबे भारी हैं उन्हीं की नालायक औलादें डॉक्टर और इंजिनियर बन रही हैं और देश में भ्रष्टाचार बढा रही हैं। महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, हरियाना और जहां-तहां सत्ता का सुख भोग चुके राजनेताओं के स्कूल कॉलेज हैं। 'चौधरी', 'भाऊ', 'बाबू' जैसे तमाम नामधारी राजनीति में आते ही इसलिए हैं कि मेडिकल और इंजिनियर कॉलेज खोल अपने मंसूबे पूरे कर सकें। महाराष्ट्र में तो नेता विधायक बनते ही 'कॉलेज' हथिया लेते हैं और मंत्री बनने के बाद तो कॉलेजों की कतार लग जाती है।शासन से अधिकतम अनुदान ऎंठने के लिए निर्लज्ज धोखाधडी को भी बेखौफ होकर अंजाम दिया जाता है। महाराष्ट्र में कई शालाओं की जांच करने पर यह असलियत सामने आयी है कि संचालक फर्जीवाडा कर शासन को कई तरह से लूटते-खसोटते चले आ रहे हैं। छात्रों की संख्या कम होने के बावजूद कई गुना अधिक दर्शाकर अनुदान की लूटखोरी के खेल को खेलने के साथ-साथ शिक्षकों को नौकरी देने के नाम पर अच्छी-खासी ठगी की जाती है। मेडिकल कॉलेज, इंजिनियर कॉलेज से लेकर शाला, आश्रम शाला, जूनियर कॉलेज, हाईस्कूल और मतिमंद बच्चों के लिए चलने वाले स्कूलों की आड में शासन तथा जनता के करोडों-करोडों रुपये लूटने का जो शर्मनाक धंधा चल रहा है उसके रूकने और थमने के कहीं आसार नजर नहीं आते। इस लूटमारी से हर दल और हर नेता वाकिफ है। जिस दल की सरकार बनती है उसके नेता बहती गंगा में हाथ धो लेते हैं।भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी ने अपने शारीरिक वजन को घटाने में सफलता पा ली है। अब वे दिल्ली में अपना वजन बढाना चाहते हैं। वैसे भी जब से वे दिल्ली भेजे गये हैं तभी से उन्हें यह गम सताता रहा है कि महाराष्ट्र की तरह दिल्ली में उनकी दाल गल नहीं पा रही है। दिल्ली वाले उन्हें गाली-गलौज करने वाला नेता समझते हैं इसलिए उन्होंने आध्यात्मिक गुरू श्री श्री रविशंकर के हाथों अपनी एक किताब का लोकार्पण करवा डाला। 'विकास के पथ पर' नामक किताब में ओरिजनल और नया कुछ भी नहीं है जैसा कि चेतन भगत की किताब में है। गडकरी समय-समय पर जो भाषण देते रहे हैं उन्हीं का संग्रह मात्र है यह किताब। दिल्ली के प्रभात प्रकाशन द्वारा प्रकाशित इस किताब की कितनी प्रतियां बिकीं इस पर दिमाग खपाना बेकार की बात है। ऐसी किताबें न तो बिकती हैं और न ही इन्हें बेचने के लिए प्रकाशित किया जाता है। इन किताबों का मकसद खुद को बुद्धिजीवी साबित करना होता है। इन किताबों को आम पाठक न तो पढते हैं और न ही उनकी ऐसी कोई जिज्ञासा और इच्छा होती है। दरअसल यह संग्रहालयों की शोभा बढाती रहती हैं और यह भी दर्शाती रहती हैं कि नेता जी लेखक भी हैं...। यह बात भी लगभग हर किसी को पता है कि अधिकांश नेताओं के भाषण किसी और के लिखे होते हैं। नेता तो सिर्फ दूसरे के लिखे को मंच पर पढने का ही काम करते हैं। फिर भी नेताओं को अपने नाम से किताब छपवाने का 'सुख' तो मिल ही जाता है। ओरिजनल लेखक में कहां इतना दम कि वह नेता जी का विरोध कर सके। नेता तो नेता बडे-बडे अखबारों के संपादक भी दूसरों के लिखे संपादकीय लेखों के संग्रह की किताबें अपने नाम पर छपवा कर लेखक होने का गौरव हासिल कर लेते हैं। कई अखबार मालिक तो ऐसे भी हैं जो अपने तथा अपने दुलारे के नाम से बडे अधिकार के साथ वह कॉलम प्रकाशित करते चले आ रहे हैं जो दरअसल उनके संपादकीय सहयोगियों के द्वारा लिखा जाता है। मजे की बात तो यह भी है कि ऐसे कॉलम किताब का रूप भी पा लेते हैं जिस पर अखबार मालिक की फोटो परिचय सहित छपी रहती है...। इसे कहते हैं मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाये फकीर....।

Wednesday, October 5, 2011

राम कहां हैं?

त्योहारों का मौसम है। कुछ नेताओं की याददाश्त गुम हो चुकी है तो कुछ सपनों की बंजर-बगिया में फूल खिलाने के अभियान में लग गये हैं। सबसे पहले बात केंद्रीय गृहमंत्री पी. चिदंबरम की। कोई कितनी भी पी ले पर वह इस कदर होश नहीं खोता जैसे चिदंबरम ने खोये हैं। वे सब कुछ भूल गये हैं। अगला-पिछला कुछ भी उन्हें याद नहीं है। देश के गृहमंत्री जिन पर देश की सुरक्षा व्यवस्था की जिम्मेदारी है वे ही अगर घपले-घापों के आरोप लगने पर यह कहें कि भूल गया सब कुछ याद नहीं अब कुछ... तो देश कैसे चलेगा! कुछ लोग तो अब यह भी मान चुके हैं कि यह देश चलना-फिरना भूल गया है। सत्ता-उपासकों ने इसके चक्के जाम करके रख दिये हैं। ऐसे लोग भी हैं जो यह कहते-फिरते हैं कि देश का सत्यानाश कर दिया गया है और जो सत्यानाशी हैं वे सर्कस के जोकर की तरह उछल-कूद रहे हैं। आइना हर किसी का चेहरा-मोहरा दिखा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी जब यह कहते हैं कि यदि प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह ने इसी तरह से भ्रष्टाचार करने वालों को संरक्षण देना जारी रखा तो वे शीघ्र ही घोटालों की आंच में झुलसे नजर आएंगे और उनकी अगली केबिनेट की बैठक तिहाड जेल में होगी तो सुनने-पढने वालों को बरबस हंसी आ जाती है। दरअसल इस हंसी के पीछे भी एक गहरा व्यंग्य भाव छिपा होता है। जिस पार्टी में राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में रिश्वतखोर बंगारू लक्ष्मण, भ्रष्टम मुख्यमंत्री येदियूरप्पा और रेड्डी बंधुओं जैसे खनिज माफियाओं का वर्चस्व रहा हो उस पार्टी के मुखिया का हर बयान आसानी से हजम नहीं किया जा सकता। वैसे खबर यह भी है कि करीब दस साल पहले टीवी पत्रकारों से सरेआम घूस लेते दिखने वाले भारतीय जनता पार्टी के तत्कालीन अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण पर गडकरी काफी मेहरबान हो गये हैं। उन्हें उन पर दया आने लगी है। इसलिए उन्होंने अपनी पार्टी के इस दलित नेता के निर्वासन का खात्मा करते हुए उन्हें तामिलनाडु में 'कमल' को खिलाने और चमकाने के काम पर लगा दिया है। वैसे यह तो तय है कि यह वर्ष तिहाड के नाम को रोशन करने वाले वर्ष के रूप में याद किया जायेगा। कितने-कितने महारथी तिहाड की शोभा बढा रहे हैं। न जाने कितने वर्षों से देशवासी ऐसे ऐतिहासिक अवसर की राह देख रहे थे। नोट के बदले वोट के चक्कर में जब से अमरसिं‍ह की गिरफ्तारी हुई है तब से देशवासियों के मन में कहीं न कहीं यह भरोसा तो जागा ही है कि कानून के रखवाले यदि चाहें तो हाई प्रोफाइल लोग भी सीखंचों के पीछे पहुंचाये जा सकते हैं। सरकारी भ्रष्टाचारियों की निरंतर होती गिरफ्तारियों से प्रफुल्लित भारतीय जनता पार्टी हमेशा की तरह काठ की हांडी में मसालेदार पुलाव बनाने की तैयारियों में जुट गयी है। इस पार्टी के दिग्गजों को दूसरों के घरों के जलने-फुंकने का सदैव इंतजार रहता है। लालकृष्ण आडवाणी, सुषमा स्वराज, अरुण जेटली, राजनाथ सिं‍ह और वेकैंया नायडू को किसी ज्योतिष ने पूरी तरह से आश्वस्त कर दिया है कि सन २०१२ में कभी भी मध्यावद्धि चुनाव होने तय हैं। दशहरे के बाद यानी ११ अक्टुबर से आडवाणी चालीस दिन की यात्रा पर निकलने वाले हैं। इस यात्रा का एक मकसद तो कांग्रेस को डराना है और दूसरा गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के होश ठिकाने लगाते हुए उन्हें उनकी हैसियत से रूबरू कराना है। वैसे यह तो आने वाला वक्त ही बतायेगा कि कौन किस पर भारी पडता है। भारतीय जनता पार्टी में प्रधानमंत्री पद को लेकर मोदी और आडवाणी के बीच चल रही लडाई को देख कर एक असली योद्धा की बरबस याद हो आती है। इसी जूझारू योद्धा ने पार्टी को खादपानी देकर सींचने में कोई कमी नहीं की। उसकी बोयी फसल को आज भी काटा जा रहा है। जी हां हम उन अटल बिहारी वाजपेयी का जिक्र कर रहे हैं जिनके अटूट परिश्रम और निष्कलंक छवि की बदौलत भारतीय जनता पार्टी ने लोगों के दिल में जगह बनायी थी। एक निष्पक्ष और निर्भीक राजनेता आज विश्राम की मुद्रा में है। आडवाणी दिखावे के तौर पर मोदी का कितना भी विरोध कर लें पर उनमें अटल जैसा साहस और आकर्षण पूरी तरह से नदारद है। यह अकेले और इकलौते अटल बिहारी वाजपेयी ही थे जिन्होंने मोदी को गुजरात में राजधर्म का पालन करने की सीख दी थी। यह भी सच है कि मोदी ने इसे सुन कर भी अनसुना कर दिया था। ऐसे में यह सोचना कि आडवानी मोदी को उनकी हैसियत दिखा पायेंगे यकीनन सपने देखने जैसी बात है। भाजपा में चल रहे पटका-पटकी के खेल को देखकर सजग देशवासी अब कतई अचंभित नहीं होते। वे तो सिर्फ अपना माथा पीटकर रह जाते हैं कि कुर्सी के भूखे नेताओं की वजह से हालात कहां से कहां जा पहुंचे हैं। देश के गृहमंत्री भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों का साथ देने के आरोप में कटघरे में खडे हैं। जिस व्यक्ति पर देश की रक्षा का जिम्मा है वही असहाय की मुद्रा में यह कह रहा है कि उसे भूलने की बीमारी है। उनसे ज्यादा सवाल न किए जाएं। जिस देश के गृहमंत्री की याददाश्त का दिवाला पिट गया हो उस देश का क्या होगा सोचकर ही भय लगने लगता है। कांग्रेस की सर्वेसर्वा सोनिया गांधी जिस तरह से चुप और खामोश हैं उससे भी लोग बेहद विस्मित हैं। लगता है वे भी थकहार गयी हैं। हकीकत तो यही है कि मंदिर के नाम पर सत्ता पाने वाली भाजपा और कांग्रेस का हाथ जनता के साथ के नारे लगाने वाली कांग्रेस पूरी तरह से बेनकाब हो चुकी हैं। ऐसे में सियासत के खिलाडि‍यों की याददाश्त ने भले ही उन्हें धोखा दे दिया हो पर सजग देशवासियों के होश चुस्त और दुरुस्त हैं... इसलिए वे 'रावण' को जलाना तथा राम को पूजना कभी भी नहीं भूलते। पर रावणों की भीड में राम कहां हैं?

Thursday, September 29, 2011

नेहरू के आंसू

अपने हिं‍दुस्तान में नयी-नयी परिभाषाएं सामने आती रहती हैं। हाल ही में योजना आयोग ने कहा है कि देश के शहरी इलाकों में हर महीने ९६५ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को और ग्रामीण इलाके में हर महीने ७८१ रुपये खर्च करने वाले व्यक्ति को गरीब नहीं माना जा सकता। यानी इस तरह के खर्चीले नागरिक धनवानों की श्रेणी में आते हैं। इसलिए इन्हें कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उपलब्ध नहीं कराया जाना चाहिए। इस देश में एक से एक अक्लमंद भरे पडे हैं जो समय-समय पर अमीरी और गरीबी की नयी परिभाषाएं गढते रहते हैं और असहाय देशवासियों के मुंह पर तमाचे जडते रहते हैं। कोई इनसे पूछे कि श्रीमानजी ३०-३२ रुपये की आज के जमाने में कीमत ही क्या बची है जो इसे खर्च कर सकने में समर्थ इंसान को अमीर बताने पर तुले हो? इतने रुपयों में तो एक वक्त का पौष्टिक नाश्ता तक नहीं मिल पाता। आप हैं कि लोगों के जख्मों पर नमक छिडकने पर तुले हैं। यह मनमोहन सरकार देश को कहां ले जाना चाहती है कुछ भी समझ में नहीं आ रहा। ९६५ रुपये प्रति माह खर्च करने वाले शहरी को धनवान मानने वाली इस सरकार की नीतियों का तो कोई माई-बाप ही नजर नहीं आता। ऐसा लगता है कि लोगों को भूखों मारने और पैदल करने की पूरी तैयारियां की जा चुकी हैं। पेट्रोल की कीमत ७५ रुपये प्रति लीटर तक पहुंच गयी है फिर भी सरकार को चैन नहीं है। उसके इरादे इसे सौ से ऊपर पहुंचाने के हैं। हमारा देश दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश कहलाता है पर यहां पर आम लोगों की चिं‍ता छोड खास लोगों की चाकरी की जाती है। वे देश जो भारत की तुलना में काफी कमजोर और छोटे हैं वहां पर भी पेट्रोल के भाव इस कदर आग लगाने वाले नहीं हैं। पडोसी देश पाकिस्तान में पेट्रोल की कीमत मात्र २६ रुपये और बांग्लादेश में २२ रुपये प्रति लीटर है। मनमोहन सरकार महंगाई बढाने के साथ-साथ लोगों का मजाक भी उडा रही है। इस देश के मंत्री-संत्री अपनी मौज मस्ती पर लाखों रुपये उडाने में परहेज नहीं करते और आम आदमी के चंद रुपयों पर भी निगरानी रखी जाती है। दलितों के तथाकथित मसीहा रामविलास पासवान जैसे नेता एक वक्त के खाने पर हजारों रुपये फूंकने का दम रखते हैं और योजना आयोग सुप्रीम कोर्ट को यह बताते हुए कतई नहीं हिचकिचाता कि शहर में ३२ रुपये और गांव में २६ रुपये खर्च करने वाला व्यक्ति बीपीएल परिवारों को मिलने वाली सुविधा को पाने का हकदार नहीं है। लगता है योजना आयोग के कर्णधारों ने आंखों पर पट्टी बांध रखी है। उन्हें देशवासियों को निरंतर लहुलूहान करती महंगाई दिखायी ही नहीं देती। आज जब सौ के नोट की कोई औकात नहीं रही तब बत्तीस और छबीस रुपये किसी खेत की मूली हैं? सब्जियों के भाव कहां से कहां पहुंच गये हैं। अदना सा प्याज बीस से पच्चीस रुपये किलो तक जा पहुंचा है और अंधी और बहरी सरकार पच्चीस-तीस रुपये में घर चलाने की बात करती है! सरकार को जो काम करना चाहिए उसे तो वह करती नहीं। उसकी सारी ताकत इधर-उधर की बातों में लगी हुई है। इस देश में खाद्यानों के अपार भंडार भरे पडे हैं जिन्हें गरिबों को सस्ते से सस्ते दामों में उपलब्ध करा कर भुखमरी का खात्मा किया जा सकता है। देश का गरीब तबका भरपेट भोजन चाहता है पर अपना खून-पसीना बहाने के बाद भी उसकी यह हसरत धरी की धरी रह जाती है। देश का ऐसा कोई प्रदेश नहीं बचा है जहां किसानों को आत्महत्या करने को विवश न होना पडता हो। केंद्र और राज्य सरकारें हजारों करोड रुपये के पैकेज घोषित करती रहती हैं पर हालात जस के तस बने रहते हैं। जरूरतमंदो तक सहायता राशि पहुंच ही नहीं पाती। मंत्री और नौकरशाह राजीव गांधी के कथन को सार्थकता प्रदान करते रहते हैं कि ऊपर से भेजे जाने वाले सौ रुपयों में से मात्र पंद्रह रुपये ही जनता तक पहुंच पाते हैं। अभावग्रस्त किसानों की आत्महत्याओं का आंकडा बढता चला जाता है और शासक और प्रशासक खोखली चिं‍ता दर्शाते रह जाते हैं। दरअसल इस देश के किसान को तो अनाथ बना कर रख दिया गया है। अन्नदाता ही दाने-दाने को मोहताज है। आजादी के फौरन बाद देश के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर नेहरू को जब किसी ने किसानों की दुर्दशा का हवाला देते हुए बताया था कि किसान के बच्चे गोबर से अनाज निकालकर खाने को विवश हैं तो वे संसद में रो पडे थे। उनके आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। तब और अब के किसान के बच्चे के दयनीय हालात में कोई फर्क नहीं आया है। उलटे दशा और दिशा और भी बिगड गयी है और सियासत के खिलाडी अक्सर घडि‍याली आंसू बहाते रहते हैं। यह भी सौ फीसदी सच है कि पंडित नेहरू की विरासत को संभाल रहे राजनेताओं को तो आपस में लडने-झगडने और एक-दूसरे के कपडे फाडने से ही फुर्सत नहीं मिल पाती। वे इस कदर निर्मोही हो गये हैं कि किसानों के फांसी के फंदे पर झूलने के समाचार उन्हें कतई विचलित नहीं करते। वे तो सिर्फ अपने यार-दोस्तों और घर-परिवार में ही मगन रहते हैं। किसानों के नाम पर नेतागिरी करने वाले भी किसानों के भले की नहीं सोचते। फसल उगाने वाला किसान घाटा उठाता है और घाघ व्यापारी मुनाफा कमाता है। राजनेताओं को चुनाव के समय धन्नासेठ और मिल मालिक मोटे चंदे देते हैं इसलिए वे उन्हीं के हित की बात सोचते हैं। इसका जीता-जागता सबूत है महाराष्ट्र जहां पर राज्य सरकार गन्ना किसानों के नाम पर चीनी मिलों को अरबो-खरबों की खैरात बांटती रहती है। मिल मालिक गन्ना उत्पादक किसान को जी भरकर शोषण करते हैं। शोषक मिल मालिक बैंको को भी करोडों रुपये का चूना लगाने से बाज नहीं आते। यानी उनके ठाठ बने रहते हैं और अपने खून-पसीने से खेतों को सींचने वाले किसान निरंतर भुखमरी के कगार पर पहुंचने के बाद जहर खाकर या फांसी के फंदे पर झूल देश की लुंज-पुंज व्यवस्था को आखिरी सलाम कर संसार से ही कूच कर जाते हैं। ऐसे में आंसू बहाना तो दूर... किसी के चेहरे पर कहीं कोई शिकन भी नज़र नहीं आती।

Thursday, September 22, 2011

मोदी की पीडा और ताकत

देश में लगता है जैसे कोई जबरदस्त नाटक चल रहा है। पात्र इतने बेबस हो गये हैं कि अपनी निर्धारित भूमिका से हटने में कोई परहेज नहीं करते। कल तक जो लालकृष्ण आडवानी प्रधानमंत्री बनने के ख्वाब संजोये थे आज बरबस पलटी मार चुके हैं। कह रहे हैं कि उन्हें आर.एस.एस. से लेकर पार्टी तक इतना मान-सम्मान मिल चुका है कि अब उन्हें किसी पद की ख्वाहिश नहीं रही। क्या वाकई यह दिल से निकला सच है या कुछ और? मोदी के तीन दिन के उपवास ने उनके कद को जिस तरह से दिखाया है उसके सामने तो बडे-बडे नेता बौने नजर आने लगे हैं। यह भी कहा जा रहा है कि नरेंद्र मोदी ने बडी चालाकी के साथ भारतीय जनता पार्टी को हाइजैक कर लिया है। मोदी पार्टी से भी बडे हो गये हैं। उनके शत्रु तौल-तौल कर बोलने में अपनी भलाई समझने लगे हैं। मौके की नजाकत को देखकर छा जाने का जो हुनर गुजरात के इस मुख्यमंत्री में है उससे राजनीति के बडे-बडे दिग्गज गच्चा खा जाते हैं। गुजरात दंगे के बाद से ही मोदी को घेरने और ढेर करने की कोशिशों में लगे उनके विरोधियों को यह बात तो समझ में आ ही गयी है कि यह शख्स किसी ऐसी-वैसी मिट्टी का नहीं बना है। इसका जितना विरोध होता है यह उतना ही खुद को ताकतवर दर्शाता है। बार-बार छाती ठोंक कर कहता है कि मुझे अकेला मत समझो। मेरे साथ छह करोड गुजराती खडे हैं। विरोधी इस इंतजार में हैं कि मोदी कभी यह तो कहें कि उनके साथ देश की सवा सौ करोड जनता खडी हुई है। अब जब आडवानी ने कह दिया है कि उनकी रथयात्रा के पीछे प्रधानमंत्री बनने का लालच नहीं छिपा है तो मोदी निश्चय ही गदगद हैं। देश के कई बुद्धिजीवी तो उन्हें अछूत मानते हैं। वे डरते हैं कि अगर मोदी के द्वारा किये गये और किये जा रहे अच्छे कामों की भूले से भी तारीफ कर दी तो उनके इर्द-गिर्द के संगी-साथी उन्हें भी सांप्रदायिक मानने लगे हैं। दबी जबान से मोदी की आरती गाने वाले कई हैं पर खुले मंचों पर उनका साहस जवाब दे जाता है। कल तो जो अमेरिका नरेंद्र मोदी को कोस रहा था वह भी उनकी आर्थिक नीतियों का मुरीद हो गया है। जिस तरह से मोदी ने गुजरात का विकास किया है उसे देखते हुए उसे भी यह कहने को विवश होना पडा है कि मोदी भारत वर्ष के अच्छे प्रधानमंत्री सिद्ध हो सकते हैं। खुद को प्रगतिशील कहने वाली बुद्धिजीवियों की कौम को नरेंद्र मोदी के द्वारा चुना गया विकास का रास्ता दिखायी ही नहीं देता। उन्हें बार-बार गुजरात दंगो की याद आ जाती है। न्यूज चैनल वाले भी कम बाजीगर नहीं हैं। सदभावना उपवास तोडने के बाद लगभग तमाम चैनल वाले लगातार मोदी के भाषण का सीधा प्रसारण दिखाते रहे जैसे ही उनका भाषण खत्म हुआ तो चैनल वालों को २००२ के दंगों की याद आ गयी और निमंत्रित बुद्धिजीवियों के मुख से यह कहलवाया जाने लगा कि मोदी तो हत्यारे हैं। उनके दामन पर सांप्रदायिकता के ऐसे दाग हैं, जो मोदी के इस जन्म में तो नहीं मिट सकते। दरअसल मोदी को निरंतर कटघरे में खडा करने और उनका विरोध करते रहने का फैशन-सा चल पडा है। कांग्रेस और दूसरी राजनैतिक पार्टियों में भी ऐसे नेता भरे पडे हैं जो यह मानते हैं कि गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में मोदी ने सर्वजनहित के जो काम किये हैं वे बेमिसाल हैं। बंद कमरों में मोदी की तारीफें करने वाले वोट बैंक और अपनी पार्टी के नियम-कायदों से बंधे हुए हैं। उन्हें मालूम है कि खुलेआम मोदी की तारीफ भारी पड सकती है। मोदी के उपवास और सदभावना कार्यक्रम के मंच पर लोकसभा में विपक्ष की नेता सुष्मा स्वराज ने उनकी तारीफ करते हुए रहस्योद्घाटन के अंदाज में बताया कि विरोधी भी मोदी के सदभाव के कायल हैं। सुषमा ने अपनी बात को मजबूती प्रदान करने के लिए पीडीपी नेता मेहबूबा मुफ्ती के तथाकथित कथन का हवाला दिया कि पिछले दिनों राष्ट्रीय एकता परिषद की बैठक में महबूबा ने स्वयं बताया कि उनके एक मुसलमान दोस्त गुजरात में उद्योग लगाना चाहते थे। मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने आधे घंटे में ही वो सारी औपचारिकताएं पूर्ण कर उद्योग लगाने की हरी झंडी दे दी। मोदी अपने प्रदेश में सर्वधर्म समभाव का आदर्श पेश कर रहे हैं। मोदी राजनेता हैं। उन्होंने ठान लिया है कि दाग धोने का एक ही रास्ता है लोगों के दिल में बस जाओ। जो बीत गया सो बीत गया। अपने आलोचकों का मुंह बंद करने के लिए वे हमेशा कहते भी हैं कि गुजरात की जनता ही मेरे लिए सर्वोपरि है। मैंने कभी हिं‍दू-मुसलमान को अलग-अलग तराजू पर तौलने की कोशिश नहीं की। पर उनके विरोधी यह मानने को तैयार ही नहीं होते कि मोदी मुसलमानों के हितचिं‍तक हो सकते हैं। यही वजह है कि दूसरी राजनैतिक पार्टियों के नेता मोदी के नाम से ही बिचकते हैं। यह क्या कम हैरान कर देने वाली सच्चाई है कि एक तरफ सुषमा स्वराज जब यह कहती हैं कि महबूबा मुफ्ती मोदी की प्रशंसक हैं तो दूसरी तरफ बवाल खडा हो जाता है। महबूबा चिल्लाने और शोर मचाने लगती हैं कि यह सरासर झूठ है। महबूबा जैसे नेताओं के मन में यह बात घर कर चुकी है कि मोदी को मुसलमान अपना शत्रु मानते हैं ऐसे में अगर हमने मोदी की तारीफों के पुल बांधे तो हम कहीं के नहीं रहेंगे। मुसलमानों के वोटों को अपने पाले में रखने के लिए नरेंद्र मोदी जैसे नेताओं का सतत विरोध करते रहना एक नहीं अनेक नेताओं की जन्मजात मजबूरी है। मोदी को यह हकीकत भी परेशान करती है कि खुद उनकी पार्टी के नेता पूरी तरह से उनका समर्थन नहीं करते। मोदी पर भ्रष्ट होने के आरोप भी लगने लगे हैं। पर मोदी बेफिक्र हैं। उन्हें गुजरात की जनता पर भरोसा है जिसने उन्हें दो बार एकतरफा जीत दिलवायी तो इस बार भी दिलवा ही देगी...।

Thursday, September 15, 2011

मत चूको आडवानी!

भारतीय जनता पार्टी के उम्रदराज नेता लालकृष्ण आडवानी रथ यात्राएं निकालने में कुछ ज्यादा ही यकीन रखते हैं। अभी तक वे पांच रथ यात्राएं निकाल चुके हैं और छठवीं यात्रा का उन्होंने बडे जोर-शोर के साथ ऐलान कर दिया है। कई लोग यह कहते हैं कि राजनीति से संन्यास लेने की उम्र में आडवानी जी पर देश का प्रधानमंत्री बनने का जुनून छाया हुआ है। ८३ वर्षीय इस भाजपाई को युवाओं पर ज्यादा भरोसा नहीं दिखता। उन्हें लगता है जिस मुस्तैदी के साथ वे देश की बागडोर संभाल सकते हैं, दूसरा कोई नहीं संभाल सकता। वे आखिरी दम तक पी.एम. बनने की लडाई लडते रहना चाहते हैं। लोग चाहे कुछ भी कहते और सोचते रहें। कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि काठ की हांडी बार-बार नहीं चढती। पर आडवानी जैसे सत्ता के खिलाडी कहावतों में यकीन नहीं रखते। वैसे राजनीति के इस लाल को जब देश का उपप्रधानमंत्री बनने का मौका मिला था तभी उसने ठान लिया था कि चाहे कुछ भी हो जाए पर आखिरी सांस तक प्रधानमंत्री बनने के सपने को पूरा करने के युद्ध को लडते ही रहना है। वैसे भी जो नेता सत्ता का स्वाद चख चुके होते हैं उन्हें खाली-पीली बैठना कतई रास नहीं आता। राम जन्म भूमि रथ यात्रा, जनादेश यात्रा, स्वर्ण जयंति रथ यात्रा, भारत उदय यात्रा और भारत सुरक्षा यात्रा निकाल चुके आडवानी को रथ यात्राएं निकालने का तो जैसे चस्का ही लग गया है। वे जब भी किसी नयी रथ यात्रा की घोषणा करते हैं तो सरकार घबरा उठती है। लगभग बीस वर्ष पूर्व जब उन्होंने राम जन्म भूमि रथ यात्रा निकाली थी तब देश में जो माहौल बना था वह सुखद तो नहीं था। यह भी सच्चाई है कि उसी रथ यात्रा ने आडवानी एंड कंपनी के आकाशी मंसूबों में रंग भर दिया था और सत्ता भी दिलायी थी। 'राम' के नाम पर केंद्र में सत्ता का सुख निचोड चुकी भारतीय जनता पार्टी हमेशा यह दर्शाते नहीं थकती कि वह ईमानदारों की पार्टी है। तभी तो आडवानी ने भ्रष्टाचार के खिलाफ रथयात्रा निकालने की घोषणा की है। पूरे जोश और सच्ची नीयत के साथ भ्रष्टाचार के खिलाफ बिगुल फूंकने वाले अन्ना हजारे को भी अडवानी की इस नयी तैयारी ने यह कहावत याद दिला दी है कि मेहनत करे मुर्गी और अंडा खाये फकीर...। अब यह बताने की जरूरत तो नहीं है कि जिस जीवंतता के साथ अन्ना हजारे ने भ्रष्टाचार के मुद्दे को उठाया वह नेताओं के बस की बात नहीं हो सकती। अन्ना हजारे ने बडे पते की बात कही है कि जिस देश में करोडों लोग भूखे मर रहे हों वहां रथ यात्रा का कोई औचित्य नहीं है। पर अन्ना का सुझाव अगर आडवानी मान लें तो फिर उन्हें राजनेता कौन कहेगा? अन्ना को किसी बडे पद और कुर्सी का लालच नहीं है, लेकिन अन्ना ने एक बार फिर से आडवानी के सपनों को पर तो लगा ही दिये हैं। यही वजह है कि 'मत चूको चौहान' की तर्ज पर आडवानी ने उडने और दौड लगाने की ठान ली है। हश्र चाहे जो भी हो। लोग हैं कि कहने और बोलने से बाज नहीं आते। कहां अटल बिहारी वाजपेयी और कहां लालकृष्ण आडवानी। भारतीय जनता पार्टी को सत्ता दिलवाने में अटल जी का जो योगदान था उसे दूसरा कोई भाजपाई न तो निभा पाया है और न ही निभा पायेगा। आडवानी जी जो हैं सो हैं। वक्त भी अब पहले-सा नहीं रहा। उन्नीस सौ नवासी-नब्बे और २०११ के बीच बहुत बडा फासला है। लोगों की सोच बदल चुकी है। अंध भक्ति का जमाना लद चुका है। आडवानी की जब पहली रथ यात्रा निकली थी तब देश भर में उनका जो स्वागत-सत्कार हुआ था, इस बार उसके आसार कम ही नजर आते हैं। देश की जनता ने भाजपा के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार के 'फीलगुड' और 'शाइनिं‍ग इंडिया' को काफी करीब से देखने और जानने-समझने के बाद आडवानी की देश के भावी प्रधानमंत्री बनने की तमाम संभावनाओं पर भी विराम जड दिया था। भारत की आम जनता बार-बार धोखे खाने की आदी नहीं रही। उसके सब्र का बांध कब का टूट चुका है। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि आडवानी इस हकीकत से वाकिफ न हों। फिर भी वे बिल्ली के भाग्य से छींका टूटने के इंतजार में हैं! उन्हें यह भी अच्छी तरह से मालूम है कि वर्तमान में लगभग पूरा देश अन्ना हजारे के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के असर की गिरफ्त में है। एकाएक छठवीं रथयात्रा की घोषणा कर आडवानी ने यह दर्शा दिया है कि गर्म तवे पर रोटी सेंकने का कोई भी मौका वे खोना नहीं चाहते। अगले साल सात राज्यों में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। लोकसभा चुनाव २०१४ में होने हैं। अगर भाजपा ने इन राज्यों के विधानसभा चुनावों में झंडे गाड लिये तो पूरा का पूरा श्रेय आडवानी की रथ यात्रा मिलेगा। तय है कि २०१४ के लोकसभा चुनाव के असली भाजपाई नायक भी लालकृष्ण आडवानी ही होंगे। तो क्या बाकी बेचारे खाली हाथ तालियां बजाते रह जाएंगे? गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के सपनों का क्या होगा? वे भी आडवानी से कम जिद्दी नहीं हैं। दुनिया के सबसे ताकतवर देश अमेरिका ने भी मोदी के हौसलें बुलंद कर दिये हैं। उसकी निगाह में नरेंद्र मोदी में प्रधानमंत्री बनने के सभी गुण विद्यमान हैं। अन्ना हजारे की तर्ज पर 'उपवास' का रास्ता पकडने वाले मोदी अपनों और बेगानों को चारों खाने चित्त करने की तमाम कलाओं से वाकिफ हैं। अगर न होते तो गुजरात की गद्दी को इतनी मजबूती के साथ पकडे रखने में कामयाब न हो पाते। लालकृष्ण आडवानी के लिए न तब राह आसान थी और न ही अब। आडवानी की रथयात्रा के शुरू होने के साथ ही अन्ना हजारे की भी यात्रा शुरू हो जायेगी। आडवानी वोटों के लिए तो अन्ना लोगों को जगाने के लिए निकलेंगे। ८४ साल के करीब पहुंचने जा रहे आडवानी की सक्रियता देख भाजपा के ५४ वर्षीय राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को अपना मोटापा घटाने और सोयी हुई शक्ति को जगाने के लिए मुंबई के एक अस्पताल में भर्ती होने को विवश होना पडा है। अपने निरंतर बढते कारोबार और मोटापे की वजह से लोगों के निशाने पर रहने वाले गडकरी भी कच्चे खिलाडी नहीं हैं। वे भी सत्ता के लिए ही राजनीति में आये हैं...। ऐसे में विभिन्न दरख्तों पर बैठे गिद्ध क्या करते हैं यह देखना भी दिलचस्प होगा...।

Thursday, September 8, 2011

ऊंट आया पहाड के नीचे?

कारण चाहे जो भी हों पर राहत देने वाली बात तो जरूर है कि देश में भ्रष्टाचारियों के खिलाफ माहौल बन चुका है। दिल्ली में बैठी केंद्र सरकार के कानों पर भी जूं रेंगने लगी है और एक-एक कर देश के लुटेरों को सलाखों के पीछे पहुंचाया जाने लगा है। राजनीति के कुख्यात दलाल अमर सिं‍ह की तिहाड जेल रवानगी से यह संदेश भी देने की कोशिश की गयी है कि देर है पर अंधेर नहीं...। हालांकि इसके पीछे भी बहुत बडी राजनीति देखी जा रही है। पिछले कई वर्षों से कर्नाटक में अपनी दादागिरी की बदौलत सामानांतर सरकार चलाते चले आ रहे खनन माफिया रेड्डी बंधुओं पर भी आखिरकार सीबीआई के शिकंजे ने असर दिखाया है और उन्हें भी जेल में डाल दिया गया है। रेड्डी बंधुओं और अमर सिं‍ह में ज्यादा फर्क नहीं है। दोनों ही राजनीति के माथे का ऐसा कलंक हैं जिनकी जडें बहुत गहरे तक समायी हैं। ऐसे ही दुष्टों और बेइमानों के कारण ही कई लोग राजनीति को वेश्या का दर्जा देने में नही हिचकिचाते। नेताओं का नकाब ओडकर खुले आम डकैती करने वाले रेड्डी बंधुओं को प्रारंभ से ही भारतीय जनता पार्टी का साथ मिलता चला आ रहा है। अब जब वे जेल भेजे जा चुके हैं तो पार्टी के दिग्गजों की सिट्टी-पिट्टी ही गुम हो चुकी है। उन्हें यह भय भी सता रहा है कि कहीं रेड्डी बंधुओं के समर्थक विधायक बगावत पर उतरने के बाद मौजूदा कर्नाटक सरकार की ही धराशायी न कर दें। वैसे यह खतरा तो है ही। जो भ्रष्टाचारी सरकार बनाने में मददगार हो सकते हैं वे अपना बुरा वक्त आने पर भट्ठा भी बिठा सकते हैं। रेड्डी बंधु और अमर सिं‍ह जैसे अवैध करोबारी राजनीतिक गलियारों में विचरण करने वाले ऐसे सांप हैं जो दूध पिलाने वाले को भी काटे बिना नहीं रहते। यही इनकी असली फितरत है जिसे राजनीति के बडे-बडे खिलाडी जानते समझते तो हैं पर उनका इनके बिना काम भी नहीं चलता। आडे वक्त के लिए इन खोटे सिक्कों को संभाल कर रखना उनकी मजबूरी है। कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में बडे-बडे राजनेताओं की शह पर अवैध उत्खनन कर हजारों करोड रुपये के वारे-न्यारे कर चुके रेड्डी बंधुओं के यहां मारे गये छापे में केवल ३० किलो सोना और चार-पांच करोड नगद बरामद हुए। देखा जाए तो यह कुछ भी नहीं है। जो धनपशु एक मंदिर में आठ सौ हीरों का जडा मुकुट और स्वर्ण जडि‍त करोडों की साडी अर्पित कर सकते हैं उनके लिए यह रकम कोई मायने नहीं रखती। उनके लिए मंदिरों में करोडों का चढावा चढाने और नौकरशाही को मुंहमांगी थैलियां देने में ज्यादा फर्क नहीं है। उनके यहां से अरबों-खरबों की दौलत बरामद होनी चाहिए थी। इससे ज्यादा माल तो आजकल शहरों के सरकारी ठेकेदारों के यहां मारे गये छापों में ही बरामद हो जाता है। सरकारों को अपनी उंगलियों पर नचाने वाले रेड्डी बंधुओं के पास कितनी काली दौलत होगी इसका अता-पता तो उन्हें भी नहीं होगा। ऐसे में सीबीआई तो क्या दुनिया की कोई भी जांच एजेंसी इन खनिज माफियाओं की लुकी-छिपी अथाह दौलत के असली ठिकानों का पता नहीं लगा सकती।डकैती और हेराफेरी में चंदन तस्कर विरप्पन को मात देने वाले रेड्डी बंधुओं को अगर राजनीति का मुखौटा पहनने का अवसर न मिला होता तो ये लोग बहुत पहले ही सरकारी मेहमान बना कर जेल भिजवा दिये गये होते। देश के तमाम शातिर लुटेरे इस हकीकत से बहुत जल्दी वाकिफ हो जाते हैं कि यदि उन्हें बेखौफ होकर अपने काले धंधों को अंजाम देते रहना है तो राजनीति और सत्ताधारियों का दामन थामना ही होगा। कर्नाटक के पूर्व लोकायुक्त संतोष हेगडे यदि इन डकैतों का पर्दाफाश नहीं करते तो यह अभी तक खुली हवा में सांस ले रहे होते। बिलीकोरे बंदरगाह से ३५ लाख टन लौह अयस्क रातों-रात गायब करने का कीर्तिमान रच चुके रेड्डी बंधुओ के समक्ष दुनिया की सबसे बडी प्रख्यात स्टील निर्माता कंपनी आर्सेलर मित्तल लिमिटेड भी कोई मायने नहीं रखती। लक्ष्मी मित्तल देश और दुनिया के जाने-माने उद्योगपति हैं और उन्होंने यह मुकाम खून-पसीना बहाकर हासिल किया है। रेड्डी बंधुओं ने तो देश की बहुमूल्य खनिज सम्पत्ति की हेराफेरी कर हजारों करोड का साम्राज्य खडा किया है। हराम की कमायी करने वाले किस तरह से अंधाधुंध दौलत लुटाते हैं उसे जानने के लिए यह जान लेना भी जरूरी है कि रेड्डी बंधु सोने की जिस कुर्सी पर विराजमान होते हैं उसकी कीमत है ढाई करोड। जिस सोने की प्रतिमा के समक्ष सिर झुकाते हैं वह तीन करोड की है। घर में खाने-पीने के जो बर्तन हैं वो भी सोने के हैं। सैर-सपाटे के लिए इन रईसों के पास चार हेलिकॉप्टर हैं। राजसी ठाठ-बाट वाला यह जलवा देश के लुटेरों की असली नीयत को बयां कर देता है। सत्ता के दलाल अमर ‍सिं‍ह की भी कुछ ऐसी ही दास्तां है। वे किसी जमीन में फकीर थे। राजनेताओं से नजदीकियां बढाने के बाद देखते ही देखते मालामाल हो गये। उनके जेल जाने पर किसी को भी हैरानी नहीं हुई।सत्ता के इस दलाल की भी वर्षों पहले जेल रवानगी हो गयी होती पर कुछ राजनेताओं ने इसे सतत बचाए रखा। सत्ताधारियों को ब्लैकमेल करने में माहिर अमर सिं‍ह ने उद्योगपतियों, मंत्रियों, मुख्यमंत्रियों से दोस्ती-यारी कर जो अरबों-खरबों रुपये कमाये उसका काला-चिट्ठा मीडिया के द्वारा कई बार उजागर किया गया पर उनका बाल भी बांका नहीं हो पाया। 'कैश फॉर वोट' कांड के नायक रहे अमर सिं‍ह ने राजनीति के मैदान में सर्कसबाजी कर न जाने कितनी दौलत कमायी। अपनी इस अथाह काली माया को सफेद करने के लिए पचासों फर्जी कंपनियां भी खडी कीं। कार्पोरेट घरानों को प्रलोभन देकर राजनेताओं और उनकी पार्टियों के लिए चुनावी फंड जुटाने वाला ऊंट अब पहाड के नीचे आ चुका है। देखें क्या होता है...। वैसे अमर सिं‍ह आसानी से हार मानने वालों में नहीं हैं। कई राजनीतिक दिग्गजों के रहस्य उनकी मुट्ठी में कैद हैं। क्या पता क्या धमाका कर गुजरें। धमाका तो रेड्डी बंधु भी कर सकते हैं क्योंकि उन्होंने भी जो खनन डकैतियां की हैं उनमें वे अकेले नहीं थे। न जाने कितने और सफेदपोश भी उनके साथ शामिल थे। तभी तो उन तमाम सफेदपोशों के चेहरों के रंग भी उड चुके हैं।

Thursday, September 1, 2011

ऐसे में देश का क्या होगा?

यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि एक तरफ देशभर का मीडिया और तमाम जागरूक लोग शोर मचाते हैं, चिल्लाते हैं, और सरकार को कोसते हैं कि आतंकियों को फांसी के फंदे पर लटकाने में जानबूझकर देरी लगायी जाती है वहीं दूसरी तरफ जब किसी आतंकी हत्यारे को फांसी देने का ऐलान कर तारीख निर्धारित कर दी जाती है तो कुछ राजनीतिज्ञ फांसी का विरोध करना शुरू कर देते हैं। यह बताने की अब कोई जरूरत नहीं बची है कि आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं होता। फिर भी राजनीति और कानून की कुश्तियां लडने वाले इस तथ्य को जानबूझकर नजरअंदाज कर देते हैं और हत्यारों को बचाने के लिए किसी भी हद तक जाते हुए धर्म और मजहब की दुहाई देने से नहीं चूकते। देश के भूतपूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी के हत्यारों को ९ सितंबर को दी जाने वाली फांसी की सजा इसलिए टल गयी क्योंकि कुछ सामाजिक संगठन और नेता ऐसा नहीं चाहते। उन्हें राजीव गांधी की नृशंस हत्या को लेकर कोई मलाल नहीं है। उनकी पूरी सहानुभूति तो उन हत्यारों के साथ है जिन्होंने बडी ही बेरहमी के साथ देश के एक युवा नेता को मौत की नींद सुला दिया। भारत को दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश कहा जाता है परंतु यहां पर लोगों की कम और शातिर राजनीतिज्ञों की ज्यादा चलती है। अपनी मनमानी को सर्वोपरि मानने वाले यह लोग कानून के राज का खात्मा कर अपनी दादागिरी चलाने पर आमादा हैं। इस देश का आम आदमी कभी भी यह नहीं चाहता कि नृशंस हत्याएं करने वालों को माफ कर दिया जाए। आतंकवादियों को खून बहाने की खुली छूट दे दी जाए। परंतु देश के कुछ नेता, वकील और भीड की एक जमात यह मानने लगी है कि हत्यारे भी माफी के हकदार हैं। यह देश महात्मा गांधी के अहिं‍सावादी विचारों पर यकीन रखने वाला देश है। २१ मई १९९१ को तामिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में लिट्टे ने राजीव गांधी की इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वे अहिं‍सा के मार्ग पर चलने के पक्षधर थे और लिट्टे को लोगों का खून बहाना पसंद था। असंख्य लोगों का रक्त बहाने के बाद भी तमिल ईलम का जो सपना लिट्टे ने देखा था वह पूरा नहीं हो पाया। पर जिस तरह से राजीव गांधी के हत्यारों को बचाने की जंग जारी है। तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता जो कि लिट्टे की घोर विरोधी मानी जाती हैं उन्हें भी करुणानिधि ने हत्यारों के पक्ष में नतमस्तक होने को विवश कर दिया है। द्रमुक वर्तमान में यूपीए सरकार में कांग्रेस की सहयोगी पार्टी है। ऐसा भी नहीं है कि कांग्रेस को यह जानकारी न रही हो कि द्रमुक का शुरू से ही लिट्टे को घोर समर्थन रहा है फिर भी कांग्रेस ने सत्ता सुख पाने के लिए उसका साथ लेने में परहेज नहीं किया। देश की राजनीति का चरित्र ही कुछ ऐसा है कि अपने फायदे के लिए किसी भी समझौते को करने में संकोच नहीं किया जाता। अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार नीति, नियम और सिद्धांतों की बलि चढा दी जाती है।करुणानिधि कांग्रेस की कमजोरी से वाकिफ हैं इसलिए वे और उनके साथी राजीव गांधी की के हत्यारों को बचाने के अभियान में लग गये हैं। करुणानिधि को इस तथ्य से कोई लेना-देना नहीं है कि देश की सबसे बडी अदालत ने तीनों मुजरिमों को फांसी की सजा सुना दी है। इस सजा के खिलाफ अपराधियों ने राष्ट्रपति के समक्ष माफी की गुहार लगायी थी जिसे नामंजूर कर दिया गया। करुणानिधि के लिए अदालत और राष्ट्रपति की भी कोई अहमियत नहीं है। उनका पूरा ध्यान राजनीति और अपने वोट बैंक पर टिका हुआ है। यह भी सच है कि उनके लिए तमिल और तमिलनाडु पहले है और हिं‍दुस्तान बाद में। करुणानिधि तामिलनाडु के मतदाताओं के द्वारा ठुकराये जा चुके हैं और उनकी कुर्सी पर जयललिता विराजमान हैं। यह पीडा भी उन्हें बेचैन किये हुए है। फांसी की सजा पाए हत्यारो को बचाने के लिए धर्म और जातीयता का खतरनाक खेल खेलने वाले नेताओं को इस बात की कतई चिं‍ता नहीं है कि वे देश में अराजकता फैलाने का काम कर रहे हैं। तामिलनाडु की तरह पंजाब में भी एक आतंकवादी को फांसी दिये जाने का विरोध किया जा रहा है। उस आतंकवादी के पंजाबी होने के कारण कुछ राजनीतिक और सामाजिक संगठनों ने पंजाब में काफी हो-हल्ला मचा रखा है। यहां तक कर पंजाब सरकार भी उनके साथ खडी हुई है। तामिलनाडु और पंजाब की देखा-देखी जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्लाह भी संसद भवन पर हमले के दोषी अफजल गुरू को फांसी के फंदे से बचाने के लिए अपना राग अलापने लगे हैं। वै‍से भी जम्मू-कश्मीर सरकार यह आशंका जताती चली आ रही है कि यदि अफजल को फांसी होती है तो राज्य में गडबडी हो सकती है। यह कितनी हैरतअंगेज मांग है कि तमिल हत्यारों को इसलिए फांसी मत दो क्योंकि तमिलनाडु में हालात बिगड जाएंगे, पंजाबी आतंकवादी को फांसी देने पर पंजाब का पारा ऊपर चढ जायेगा और अफजल गुरु को सजा देने पर जम्मू-कश्मीर के हालात हाथ से बाहर निकल जाएंगे। इन नेताओं से कोई यह तो पूछने वाला है ही नही कि ऐसे में भारतवर्ष कहां होगा?

Thursday, August 25, 2011

भिखारी की खुद्दारी

मध्यप्रदेश के सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन का दावा है कि यदि उन्हें प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान दस करोड रुपये उपलब्ध करवा दें तो वे छिन्दवाडा लोकसभा सीट भाजपा के खाते में डलवा सकते हैं। फिलहाल कांग्रेस के कमलनाथ छिन्दवाडा के सांसद हैं। छिन्दवाडा लोकसभा क्षेत्र में कमलनाथ की तूती बोलती है। यह सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। सिर्फ एक बार भाजपा के बुजुर्ग नेता सुंदरलाल पटवा ने छिन्दवाडा लोकसभा से विजयश्री हासिल की थी। अपने विवादास्पद क्रियाकलापों के चलते अक्सर चर्चाओं के घेरे में रहने वाले गौरीशंकर बिसेन ने यह भी कहा है कि चुनाव प्रचार के लिए दस करोड के साथ-साथ एक हेलीकाप्टर एवं सिने अभिनेत्री हेमा मालिनी का साथ अगर उन्हें मिल जाए तो वे कमलनाथ को बडी आसानी से पटकनी दे सकते हैं। हेमा मालिनी भाजपा की राज्यसभा सांसद हैं। देश के कोने-कोने के मतदाताओं को अपने पाले में लाने के लिए भाजपा इस सुंदरी का खुलकर इस्तेमाल करती रहती है। छिन्दवाडा लोकसभा चुनाव जीतने के लिए कमलनाथ जिस तरह से नोटों की बरसात करते हैं उसके सामने अन्य किसी पार्टी का प्रत्याशी टिक नहीं पाता। कमलनाथ येने-केन-प्रकारेन चुनाव जीतने के लिए कितनी दौलत लुटाते होंगे इसे लेकर तरह-तरह के अनुमान लगाये जाते हैं। वैसे भी कमलनाथ के पास धन-दौलत की कोई कमी नहीं है। उनके परिवार के कई उद्योगधंधे हैं। उन्हें सरकारी ठेके भी आसानी से मिल जाते हैं। इसलिए कमलनाथ जैसे सौदागर चुनाव में धन लुटाने के मामले में सदैव आगे रहते हैं। भाजपा के सहकारिता मंत्री भी चुनावी राजनीति के घाघ खिलाडी हैं। उन्हें मालूम है कि चुनाव चाहे विधानसभा का हो या लोकसभा का अंधाधुंध धनवर्षा करनी ही पडती है। न जाने कितने मतदाताओं को दारू की बोतलों, कम्बलों, साडि‍यों और कडकते नोटों से रिझाना पडता है तभी वे वोट देने के लिए अपने घर से बाहर निकलते हैं। अब वो जमाना भी नहीं रहा कि पार्टी के कार्यकर्ता फोकट में अपना समय जाया करें। अगर चुनाव जीतना है तो गुंडे-मवालियों की फौज भी तैयार करनी पडती है और इनकी कीमत की तो कोई सीमा ही नहीं होती। ईमानदारी के साथ चुनाव लडने की मंशा रखने वाले प्रत्याशी का तो मैदान में कदम रखते ही पसीना छूटने लगता है। भारतवर्ष के चुनाव आयोग ने लोकसभा चुनाव के लिए २५ लाख रुपये की खर्च सीमा तय की हुई है पर बिरले ही ऐसे होते हैं जो इतने रुपयों में काम चला लेते हैं। दरअसल यह अंदर की बात है कि कौन प्रत्याशी कितने करोड उडाकर चुनाव जीतता है और चुनाव आयोग के नियम-कायदों की धज्जियां उडाता है। किसी भी राजनीतिक पार्टी और उसके प्रत्याशी के द्वारा इस रहस्य को सरेआम उजागर नहीं किया जाता। गौरीशंकर बिसेन बडबोले भी हैं और भोले भी इसलिए लोकतंत्र की जडों को खोखला करते चले आ रहे गूढ मंत्र का भारी भीड के बीच जाप कर गए। यह दौर ही कुछ ऐसा है जब 'देर आये पर दुरुस्त आये' की तर्ज पर दबा और छिपा सच सामने आने लगा है। ऐसा भी नहीं है कि सजग जन इससे वाकिफ न रहे हों। इंडियन जस्टिस पार्टी के सुप्रीमो उदित राज की पीडा है कि इस देश में सिर्फ पैसे वाले ही चुनाव जीत सकते हैं। देश के अधिकांश मतदाता दारू और कम्बल में बिक जाते हैं। उन्होंने एक न्यूज चैनल पर अपना दुखडा रोते हुए बताया कि वे अच्छी-खासी सरकारी नौकरी में थे। मजे से जीवन गुजर रहा था। देश के दबे-कुचले लोगों की दुर्गति और पीडा उन्हें हमेशा आहत करती रहती थी। इसलिए उन्होंने राजनीति में कदम रखने की ठान ली। परंतु राजनीति में पदार्पण करने के बाद उनका साक्षात्कार जिस कडवी हकीकत से हुआ उससे उनकी रूह कांप उठी और पैरों तले की जमीन खिसक गयी। चुनाव हारने के बाद उन्हें एक ही बात समझ में आयी कि राजनीति में तो सिर्फ और सिर्फ पैसा ही बोलता है और धनपतियों की ही चलती है। सोच और सिद्धांत के बलबूते पर चुनाव जीतना असंभव है।उदित राज ही नहीं और भी कई सुलझे हुए लोग हैं जो यह मानते हैं कि अगर नेता भ्रष्टाचारी हैं तो अनेकों मतदाता भी बिकाऊ हैं। दरअसल भारत की यह वो तस्वीर है जिसमें हर तरफ गौरीशंकर बिसेन जैसे सत्ताधारी हैं जिनकी सोच यही जाहिर करती है कि देश के मतदाताओं को आसानी से खरीदा जा सकता है। यहां यह भी कहने में हर्ज नहीं है कि जिन्होंने देश को लूटा-खसोटा उन्होंने ही आम देशवासियों को भिखारी बना कर रख दिया है। इन्होंने अगर ईमानदारी से अपना कर्तव्य निभाया होता तो देश में इस कदर असमानता और बदहाली का आलम न होता। जो नेता नोट देकर वोट लेते हैं वे कभी भी यह नहीं चाहेंगे कि इस देश से गरीबी हटे और आम आदमी खुशहाल हो। पर अब उनके चाहने से कुछ नहीं होने वाला। मतदाताओं को इस सच का पता चल गया है कि भ्रष्टाचारियों के झांसे में आकर उन्होंने अभी तक भारत माता का काफी अहित किया है। मजबूरन वोट बेचने वालों ने अपने स्वाभिमान का कभी सौदा नहीं किया। इस देश के आम आदमी को ना जाने कितनी मजबूरियों के हाथों का खिलौना बनने को विवश होना पडता है। जिन लोगों ने भीख को अपना पेशा बना लिया है उनके अंदर की खुद्दारी भी अभी जिं‍दा है। नागपुर की जनता उस समय अचंभित रह गयी जब उसने जनलोकपाल ओर भ्रष्टाचार के मुद्दे पर भिखारियों को सडकों पर अन्ना हजारे के पक्ष और सरकार के खिलाफ नारेबाजी करते देखा। शहर के तमाम भिखारियों ने मोर्चा निकाला। उनके हाथों में जो तख्तियां थीं उन पर लिखा था:
''भिखारियों का ऐलान, सारे राजनेता हैं बेईमान, जो अन्ना को देगा धोखा, भिखारी उससे भीख नहीं लेगा।''
इसे अब आप क्या कहेंगे कि पेशेवर भिखारी भी यह कहने लगे हैं कि वे भ्रष्टाचारियों से भीख नहीं लेंगे...।

Thursday, August 18, 2011

खत्म नहीं हुआ है सब कुछ...

राजनीति से अलविदा, नैतिक मूल्य तमाम
नंगों के इस देश में, धोबी का क्या काम...
जिस देश की जनता अपने ही चुने जनप्रतिनिधियों की धोखाधडी की शिकार हुई हो और जहां देखते ही देखते अरबों-खरबों के घोटालों और भ्रष्टाचार का इतिहास रच दिया गया हो वहां पर राजनेताओं की साख पर लगे दाग-दर-दाग से आहत होकर यदि कोई कवि उपरोक्त पंक्तियां लिखने को विवश होता है तो उसके अंदर घर कर चुके गुस्से और निराशा को नजरअंदाज भी तो नहीं किया जा सकता। इस देश के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह स्वाधीनता दिवस पर राष्ट्र के नाम दिये गये संदेश में जब यह कहते हैं कि अनशनों और धरना प्रदर्शनों से देश का भ्रष्टाचार खत्म नहीं हो सकता तो लोग अवाक रह जाते हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ खुलकर जंग लडने वाले अन्ना हजारे को जब जेल भेज दिया जाता है तो आम जनता का गुस्सा फूट पडता है और वह सडक पर आ जाती है। हालात यहां तक जा पहुंचते हैं कि सरकार को झुकना पडता है। जो प्रधानमंत्री लाल किले पर अनशन और शांत आंदोलन के प्रति बेपरवाह नजर आते हैं वही अपना माथा पकड कर बैठ जाते हैं। उन्हें अंतत: अपनी गलती का अहसास हो ही जाता है। अन्ना की जीत में आम जनता की जीत शामिल है और यही लोकतंत्र का असली चेहरा है जिसे हुक्मरान नजरअंदाज करते आये हैं। आंकडे चीख-चीख कर बता रहे हैं कि वर्ष १९९२ से लेकर अब तक देश में छत्तीस महाघोटाले हो चुके हैं, जिनकी वजह से देशवासियों के खून पसीने के ८० लाख करोड भ्रष्टाचारियों की तिजोरियों में समा चुके हैं। इस देश का आम आदमी तरह-तरह की समस्याओं से निरंतर जूझ रहा है पर राजनेताओं ने उसकी चिं‍ता करनी ही छोड दी है। देश के लिए नासूर बन चुके भ्रष्टाचार के कारण ही महंगाई बेलगाम हो चुकी है। खाद्यान और दूसरी जरूरी वस्तुओं के मूल्यों में बेहिसाब वृद्धि के चलते पिछले तीन सालों में उपभोक्ताओं की जेब से छह लाख करोड रुपये काला बाजारियों, नेताओं, दलालों और बेईमान व्यापारियों की जेबों में जा चुके हैं। मुल्क में बडे ही सुनियोजित ढंग से लूट-खसोट का कारोबार चल रहा है। राजनेता, अफसर, उद्योगपति, व्यापारी और छोटे-बडे सरकारी कर्मचारी अपने-अपने तौर-तरीकों के साथ भ्रष्टाचार को बेखौफ होकर अंजाम देते चले आ रहे हैं। उन्हें दबोचने के मामले में देश का कानून इतना बौना है कि उसकी कुछ भी चल नहीं पाती। ऐसे में जब अन्ना हजारे जनलोकपाल के लिए अपनी जान तक दांव पर लगाने के लिए सामने आये तो भ्रष्टाचार से त्रस्त जनता उनके साथ खडी हो गयी। यह बात सरकार को रास नही आयी। पर देशवासी परिवर्तन चाहते हैं। उनकी बर्दाश्त करने की हिम्मत जवाब दे चुकी है। आम आदमी को हर जगह भाई-भतीजावाद और रिश्वतखोरों का सामना करना पडता है। पढाई से लेकर नौकरी तक अपनी जेबें ढीली करनी पडती हैं। कई लोग तो यह भी मान चुके हैं कि हिं‍दुस्तान से भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म हो ही नहीं सकता। दरअसल इस तरह के नकारात्मक और निराशावादी विचार लोगों में इसलिए अपनी जगह बना चुके हैं क्योंकि जिन्हें देश को चलाने की जिम्मेदारी सौंपी गयी उनमें से अधिकांश नेता भ्रष्ट और बेईमान निकले। नेताओं की देखा-देखी अफसरशाही ने भी लोगों को बुरी तरह से निराश और हताश किया है। पिछले दिनों काली कमायी करने वाले कई मंत्रियों और अफसरों को जेल भेजा गया। मध्यप्रदेश के आईएएस अधिकारी अरविं‍द जोशी और टीनू जोशी के यहां से बरामद हुई अपार दौलत ने तो आयकर अधिकारियों को भी हतप्रभ कर दिया। नोट गिनने के लिए मशीने मंगवानी पडीं। इसतरह की भ्रष्ट जमात देश के हर प्रदेश में भरी पडी है। महिलाएं भी भ्रष्टाचार के मामले में पीछे नहीं हैं। ज्यादा दिन नहीं बीते जब सीबीआई ने पंजाब के शहर मोहाली की प्रथम महिला डीएसपी राका गीरा को रिश्वत लेते हुए रंगे हाथ गिरफ्तार करने में सफलता पायी। राका गीरा ने लोगों की इस धारणा के परखच्चे उडाकर रख दिये कि महिलाएं काफी हद तक संवेदनशील ईमानदार होती हैं। भ्रष्टाचार और रिश्वतखोरी से दूर रहती हैं। इस महिला पुलिस अधिकारी के घर मारे गये छापे में करोडों रुपये की नगदी, हीरे जवाहरात तथा हथियार तो मिले ही साथ ही 'बार' में सजी जो विदेशी शराब की पचासों बोतलें मिलीं उनसे यह भी स्पष्ट हो गया महिलाएं भी नशाखोरी में इतिहास रच रही हैं। उन्होंने खुद को किसी भी हद तक जाने के लिए तैयार कर लिया है। उन्हें भी पुरुषों की तरह मौकों का इंतजार रहता है। फिर भी पूरी तरह से निराश होने की जरूरत नहीं है। अभी भी देश में अन्याय से लडने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। यह बात दीगर है कि उन्हें वो तवज्जो नहीं दी जाती जिसके वे हकदार हैं। यह वो लोग हैं जो लाख तकलीफें सहने के बावजूद अपने सिद्धांतों से समझौता नहीं करते। बडी से बडी मुसीबत और तूफान के सामने डटे रहते हैं।मदुराई के जिलाधिकारी यू. सागायम का नाम भले ही ज्यादा जाना-पहचाना न हो पर वर्षों से जो लडाई वे लडते चले आ रहे हैं उसे हाशिये में नहीं डाला जा सकता। सागायम एक ऐसे आईएएस अधिकारी हैं जिन्हें अपने उसूलों पर कायम रहने की वजह से १८ बार तबादलों की सज़ा भुगतनी पडी है पर फिर भी उनका मनोबल नहीं टूटा है। वे न खुद रिश्वत लेते हैं और न ही किसी को लेने देते हैं। उनकी इस परिपाटी के चलते उनके दुश्मनों की संख्या भी कम नहीं है। उनसे न तो उनके उच्चाधिकारी खुश रहते हैं और न ही नीचे वाले। उन्होंने दो वर्ष पूर्व स्वेच्छा से अपनी संपत्ति की घोषणा करते हुए बताया था कि उनके पास सात हजार एक सौ बहत्तर रुपये का बैंक बैलेंस और १९ लाख रुपये का एक मकान है। ईमानदारी के साथ अपना कर्तव्य निभाते चले आ रहे इस अधिकारी की बेटी जब गंभीर रूप से बीमार हुई तो अस्पताल में भरती कराने के लिए उनके पास एक मुश्त पांच हजार रुपये भी नहीं थे। यकीनन बेहद हैरतअंगेज सच्चाई है यह। उस समय यू. सागायम आबकारी विभाग में उपायुक्त थे। इस देश में आबकारी अधिकारी करोडों के वारे-न्यारे करते रहते हैं पर कुछ ऐसे भी हैं जो कहीं भी रहें, अपना ईमान नहीं बेचते। इसी तरह से अपने यहां चंद ऐसे राजनेता भी हैं जिन्होंने अपने माथे पर चरित्रहीन होने का दाग नहीं लगाया है। ऐसे लोग ही आशाएं जगाते हैं कि अगर ठान लिया जाए तो देश में कैंसर की शक्ल अख्तियार कर चुके भ्रष्टाचार के कलंक को मिटाया और धोया जा सकता है:
''अभी खत्म नहीं हुआ है सबकुछ
बचा है औरतों में धीरज
बाकी है बच्चों में भोली मुस्कान
आदमी की आंखों में अभी भी हैं सपने
दुनिया को खूबसूरत व बेहतर बनाने के लिए
बाकी है बहुत कुछ
अभी खत्म नहीं हुआ है सबकुछ''।

Wednesday, August 3, 2011

इज्जत की जंग

पाकिस्तान की विदेश मंत्री हिना रब्बानी भारत आई तो प्रिं‍ट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में छा गयीं। अखबारों और न्यूज चैनलों ने पडौसी देश की इस महिला मंत्री की शिक्षा-दीक्षा और राजनीतिक सूझबूझ के बारे में देशवासियों को अवगत कराना कतई जरूरी नहीं समझा। बस हर तरफ उनके खूबसूरत चेहरे, पहनावे और रहन-सहन का बखान होता रहा। अमेरिका की एक प्रतिष्ठित यूनिवर्सिटी से होटल मैनेजमेंट में एमएससी कर चुकीं ३४ वर्षीय हिना एक सुलझी हुई महिला हैं और अपनी योग्यता की बदौलत पाकिस्तान की पहली विदेश मंत्री बनने में सफल हुई हैं। उन्होंने पाकिस्तान में वर्ष २००८ में हुए आम चुनाव में पी पी पी की टिकट पर चुनाव लडा था और हजारों वोटों से जीती थीं। यानी हिना सिर्फ अपनी खूबसूरती की वजह से इस मुकाम तक नहीं पहुंची हैं। हिना को भारत यात्रा के दौरान यही बात खटकती रही कि हिं‍दुस्तानी मीडिया ने उसे महज आकर्षक मॉडल की तरह पेश किया और उसकी उपलब्धियों को नजरअंदाज कर दिया। हिना की कातिल खूबसूरती और पतली कमर का गुणगान तो पाकिस्तान के अखबार भी करते रहे हैं पर हिना को भारत से ऐसी उम्मीद नहीं थी। हिना के मन में यह बात बैठ गयी है कि भारतीय मीडिया ने उनके साथ बेशर्मी भरा रवैया अख्तियार करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनके राजनीतिक कद की अनदेखी करते हुए सिर्फ और सिर्फ उनकी फैशनपरस्त कीमती पोशाक, डिजायनर हैंडबैग और कीमती धूप के चश्में पर बार-बार टिप्पणी कर बेशर्मी की सारी हदें पार कर दीं। नारियां चाहे कहीं की भी हों पर उन्हें हमेशा यह शिकायत रहती है कि बेशर्मों की निगाहें उनके पहनावे और देह के भूगोल पर ही टिकी रहती हैं। इसमें सिर्फ मीडिया को दोषी ठहराने से कुछ नहीं होगा। दोषियों की जमात तो हर तरफ खडी नजर आती है। कहने को दुनिया बदल चुकी है और हम २१ वीं सदी में रह रहे हैं, लेकिन पुरुष की मानसिकता नहीं बदली है। वह खुद को राजा समझता है और स्त्री को अपना गुलाम। आज की पढी-लिखी नारी पुरुषों की दादागिरी सहने को तैयार नहीं है। वह उनकी इस सोच से बेहद खफा है कि नारियां देह मात्र हैं। पुरुषों की वासना को भडकाने के लिए वे जानबूझकर बदन दिखाऊ वस्त्र पहनती हैं। पुरुषों की इसी मानसिकता के खिलाफ दिल्ली में 'बेशर्मी मोर्चा' निकाला गया। दरअसल इस मोर्चे की प्रेरणा उन्हें कनाडा से मिली जहां एक पुलिस अधिकारी ने यह कहा कि हम महिलाओं को तभी सुरक्षा दे पायेंगे जब वे स्लट (बेशर्म) कपडे पहनना छोड देंगी। हिं‍दुस्तान में भी ऐसा मानने वालों की कमी नहीं है कि महिलाओं का पहनावा पुरुषों को उकसाता है और ऐसे में कई बार वे बेकाबू हो जाते हैं। आखिर वे भी तो इंसान हैं...। राजधानी में निकाले गये बेशर्मी मोर्चा को इज्जत की जंग भी कहा गया। इस जंग में भाग लेने वाली लडकियों का कहना था कि हम आजाद देश की आजाद नागरिक हैं। हमें क्या पहनना है और कैसे रहना है यह फैसला करने का अधिकार किसी ओर को कतई नहीं है। हम मॉडर्न कपडे पहनें या छोटे कपडे इस पर पुरुषों को मिर्ची क्यों लगती है? एक सुलझी हुई अभिनेत्री का बयान आया कि दिल्ली देश की राजधानी है फिर भी यहां महिलाएं सुरक्षित नहीं हैं। जिन लोगों की सोच गंदी है वही लोग यह कहते हैं कि लडकियों का कम कपडे पहनना, फैशन करना या देर रात घर से बाहर निकलना छेडछाड को बढावा देता है। अगर ऐसा होता तो भंवरी देवी का बलात्कार नहीं होता।वैसे यह सच है कि उन महिलाओं के साथ भी बलात्कार होते देखे गये हैं जो बनाव श्रृंगार से दूर रहती हैं और बदन उघाडू वस्त्र भी नहीं पहनतीं। छेडछाड और बलात्कार के लिए महिलाओं के पहनावे को दोषी ठहराने वालों के लिए नारियां इंसान न होकर हाट में खरीदे गये पशु के समान हैं जिन्हें मनमाने ढंग से सताने में उन्हें मज़ा आता है। मज़ा लेने में तो मीडिया भी नहीं चूकता। न्यूज चैनल वालों की नजर में पाकिस्तानी हिना रब्बानी हों या हिं‍दुस्तानी लडकियां सब एक समान हैं। ये वही देखते हैं जो इन्हें दिखाना होता है। 'बेशर्मी मोर्चा' के दौरान अधिकांश चैनल वालों ने सारा फोकस महिलाओं के पहनावे पर ही केंद्रित रखा और उन लडकियों को बार-बार दिखाया जो आधे-अधूरे कपडे पहन कर अंग प्रदर्शन कर रही थीं। महिलाओं का शारीरिक शोषण करने वाले जहां-तहां भरे पडे हैं। पुलिस थानों में महिला सिपाहियों पर बलात्कार और दुष्कर्म की खबरें अक्सर पढने में आती रहती हैं। शिक्षण संस्थानों में जहां नैतिकता और शालीनता का पाठ पढाया जाता है वहां भी छात्राओं का शीलहरण हो जाता है। वासनाखोरों के लिए मर्यादा महत्वहीन है। नारी देह ही हमेशा उनके निशाने पर रहती है। मौका मिलते ही वे शैतानियत पर उतर आते हैं। इसे अब आप क्या कहेंगे कि चेन्नई के एक कॉलेज में शिक्षक ने छात्रा को बाथरूम में ले जाकर कपडे उतारने को विवश कर दिया। बताते हैं कि इस कॉलेज में छात्राओं के मोबाइल फोन ले जाने पर प्रतिबंध लगा हुआ है। शिक्षक महाशय ने पहले बैग की तलाशी ली फिर तलाशी के नाम पर वो कर्मकांड कर डाला जिससे इस सोच पर मुहर लग गयी कि लडकियां कहीं भी सुरक्षित नहीं हैं। चेन्नई के इस कॉलेज में तलाशी के बहाने छात्राओं को निर्वस्त्र करने की कुछ घटनाएं पहले भी हो चुकी हैं। सच तो यह है कि महिलाओं के प्रति समाज का जो नजरिया है उसमें नीचे से ऊपर तक खोट ही खोट है। गंवार ही नहीं पढे-लिखे भी स्त्रियों पर बलात्कार का कहर ढाने और हिं‍सा के चाबुक बरसाने में अपनी बहादुरी समझते हैं। कई बार भरी भीड की आंखों के सामने राह चलती महिलाओं की इज्जत तार-तार कर दी जाती है पर लोग तटस्थ बने रहते हैं। समाज की इसी संवेदनहीनता की वजह से अगर महिलाएं बेशर्मी मोर्चा निकालती हैं तो समाज के कई ठेकेदारों को तकलीफ क्यों होती है?

Thursday, July 28, 2011

धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटाता देश

राष्ट्रमंडल खेलों में अरबों-खरबों के वारे-न्यारे करने के आरोपी सुरेश कलमाडी के बारे में एक अजब-गजब जानकारी आयी है कि उन्हें भूल जाने की बीमारी है। वैसे अभी तक नेताओं को लपेटे में लेने वाली कई तरह की बीमारियों के बारे में सुना और जाना जाता था पर स्मृतिलोप नामक यह नयी बीमारी अचंभित कर देने वाली है। यह बीमारी इंसान को भुलक्कड बना देती है। कलमाडी के परिजनों का कहना है कि यह उनकी पुरानी बीमारी है।अभी तक तो हम यही सुनते आये थे कि नेताओं की स्मरण शक्ति लाजवाब होती है पर यहां तो उल्टा हो गया! खिलाडि‍यों के खिलाडी के घरवालों का यह भी कहना है कि कलमाडी कई बार तो कल का खाया-पिया भी याद नहीं रख पाते। इस अजूबी खबर को जिसने भी सुना वह हैरान होने के बजाय भ्रष्ट नेताओं की कौम को कोसता नजर आया। खुद को बचाने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपने यहां वैसे भी ऐसे-ऐसे महंगे वकीलों की अच्छी-खासी तादाद है जो अपने मुवक्किल को पाक-साफ दर्शाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें खोजते रहते हैं। तय है कि जेठमालानी टाइप के किसी वकील ने अपना दिमाग लडाया है और भ्रष्टाचारी की याददाश्त खो जाने की खूबसूरत कहानी गढ कर पेश कर दी है। पर अब देशवासी ऐसी कहानियों पर कतई यकीन नहीं करते। कानून की आंख में धूल झोंकने के लिए गढी गयी इस कहानी ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि इस मुल्क के नेता आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए नये-नये बहाने और तरीके तलाशने में कोई कसर नहीं छोडते। यह लोग अक्सर कामयाब भी हो जाते हैं। दरअसल इनका कोई ईमानधर्म ही नहीं है। अब टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले में जेल की हवा खा रहे पूर्व दूरसंचार मंत्री की याददाश्त वापिस लौट आयी है। वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मैंने जो कुछ भी किया उसकी पूरी जानकारी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम को थी। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग कर डाली है। यह बात दीगर है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा से इस्तीफा लेने में उनका पसीना छूट गया। कांग्रेस के एक नेता मणिशंकर अय्यर की निगाह में कांग्रेस पार्टी एक सर्कस है। परंतु सजग देशवासियों को हर राजनीतिक पार्टी के रंग-ढंग सर्कस जैसे नजर आते हैं। इस सर्कस में जोकर भी हैं और लुटेरे भी जिन्होंने देश का तमाशा बनाकर रख दिया है। इनके बेशर्म तमाशों से उकता कर अदालत को हंटर उठाने को विवश होना पड रहा है। क्या यह सरकार के लिए शर्म की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को उसे बार-बार फटकार लगानी पडती है और उसके बाद ही वह जागती है। २२ अगस्त २००८ के दिन कैश फॉर वोट कांड का मामला सामने आया था। इस संगीन मामले को दबाने के भरसक प्रयास किये गये। सरकार ने तो आंखें ही मूंद ली थीं। पर कोर्ट की लताड के बाद हलचल शुरू हो पायी। सत्ता के दलाल अमर सिं‍ह कटघरे में हैं। अमर सिं‍ह ही खरीद फरोख्त और लेन-देन की असली कडी थे। पाठक मित्रों को याद होगा कि अमेरिका से एटमी करार के मुद्दे पर वाम मोर्चा के साठ सांसदों ने मनमोहन सरकार से जब समर्थन वापस ले लिया था तब सरकार की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। यदि उस संकट के समय समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य छोटे दल समर्थन नहीं देते तो सरकार धराशायी हो जाती। तब भाजपा के तीन सांसदो ने लोकसभा में विश्वास मत से ठीक पहले एक करोड रुपयों की नोटों की गड्डियां लहराते हुए धमाका किया था कि उन्हें गैरहाजिर रहने के लिए यह नोट दिये गये हैं। यह एक तरह से लोकतंत्र की हत्या का मामला था। हत्यारों में अमर सिं‍ह के साथ-साथ सोनिया गांधी के खासमखास अहमद पटेल ने भी सुर्खियां बटोरी थीं। पर धीरे-धीरे शोर थम गया और राजनीति के दलाल दूसरे कामों में लग गये। इस तरह के और भी कई मामले हैं जिन्हें नेताओं ने मीडिया को खुश करते हुए आसानी से दबाकर रख दिया है। कैश फार वोट के मामले में यदि मीडिया का एक वर्ग अपना जमीर नहीं बेचता तो इसका तभी पर्दाफाश हो जाता। पर जहां चोर-चोर मौसेरे भाइयों का वर्चस्व हो वहां सच्चाई के सामने आने की उम्मीद रखना खुद को धोखा देने से ज्यादा और कुछ नहीं है। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि हमारा मुल्क धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटा रहा है तो गलत नहीं होगा।