Friday, December 27, 2013

एक सच यह भी

एक सत्यकथा के नायक ने आत्महत्या कर ली। अमूमन ऐसा होता तो नहीं है! दुराचारी तो खुद को निर्दोष साबित करने के लिए जमीन-आसमान एक कर देते हैं। तरह-तरह की कहानियां गढते हैं। बिलकुल वैसे ही जैसे इस सदी के सबसे कुख्यात कथावाचक आसाराम ने बनायी और सुनायीं। उसके कुपुत्र नारायण ने भी बाप का अनुसरण करने में देरी नहीं लगायी। स्टिंग आप्रेशनों की झडी लगाकर राजनीति के धुरंधरों की जमीनें खिसकाने वाला तहलका का सम्पादक तरुण तेजपाल भी जब देहखोरी के चक्कर में पुलिसिया फंदे में फंसा तो उसने भी अपने तमाम उसूलों को सुली पर ऐसे टांगा जैसे उसका इनसे कभी कोई नाता ही नहीं था। ऐसी बेशर्मी और बेशर्मों के मायावी काल में जब यह सच सामने आया कि यौन उत्पीडन के संगीन आरोपों की तेजाबी तपन और जलन को बर्दाश्त न कर पाने के कारण एक शख्स ने मौत को गले लगा लिया, तो हैरानी के साथ-साथ पीडा भी हुई।
दिल्ली निवासी खुर्शीद अनवर का नाता उन लोगों से था जो बुद्धिजीवी कहलाते हैं। समाजसेवा में अभिरूची रखने वाले अनवर की बेबाक और चुभने वाली लेखनी से कई लोग चिं‍तित और परेशान रहते थे। भगवा और इस्लामिक कट्टरपंथ पर उनकी लेखनी एक साथ चलती रही। उनके करीबी दोस्तों का मानना है कि वे बेहद संवेदनशील इंसान थे। मानवाधिकारों की पुरजोर पैरवी करने वाले इस लडाकू इंसान को चरित्रवानों की श्रेणी में शामिल किया जाता था। उनके यार-दोस्त तो यह दावा करते नहीं थकते कि वे फिसलने वाले इंसान नहीं थे। कई छात्राओं का कहना है कि उनकी गरिमामय उपस्थिति तो सुरक्षा का अहसास दिलाती थी।
इस दोस्त, गुरु और सोशल एक्टिविस्ट पर एक युवती ने छेडछाड और दुष्कर्म का आरोप जडा तो सभी सन्न रह गये। युवती का कहना है कि वह १२ सितंबर की रात थी। खुर्शीद के घर पर डिनर पार्टी का आयोजन था। शराब के प्याले खनक रहे थे। उसने भी बहती गंगा में हाथ धोये। ज्यादा चढाने के कारण वह अपने होश खो बैठी। मजबूरन उसे वहीं सो जाना पडा। रात में जब उसे कुछ होश आया तो उसने अनवर को अपने ऊपर पाया। नशे के अतिरेक के कारण वह विरोध ही नहीं कर पायी। अगले दिन सुबह फिर से उसके साथ दुष्कर्म करने की भरपूर चेष्टा की गयी। युवती जो कि छात्रा है और मूलरूप से मणिपुर की रहने वाली है, ने जब यह बात अपने करीबियों को बतायी तो किसी को भी यकीन नहीं हुआ। उसने अपने साथ हुए खिलवाड की जानकारी जब अपने परिवार वालों को दी तो वे उसी पर बिफर उठे। उसे दुत्कारते हुए कहा गया कि वह अपना मुंह काला करने के बाद वापस घर ही क्यों आयी? वहीं मर जाती तो अच्छा था। घर में कैद कर उसकी बार-बार पिटायी की गयी। आगे की पढाई और नौकरी करने से मना कर दिया गया। मामला जब पुलिस तक जा पहुंचा तो एक चौंकाने वाली खबर यह भी सामने आयी कि घटनावाली रात खुर्शीद ने पीडि‍ता के साथ गई एक अन्य युवती को भी अपना शिकार बनाने का षडयंत्र रचा था। उसे भी शराब पीने को मजबूर किया गया था, लेकिन उसने अपनी समझदारी बरकरार रखी। गिलास में भरी शराब वॉशबेसिन में फेंक दी।
इस खबर को लेकर देशभर के न्यूज चैनलवाले वैसा ही हो-हल्ला मचाने और सनसनी फैलाने में जुट गये जिसके लिए वे जाने जाते हैं। खबरों की तह तक जाने से कन्नी काटने वाले इलेक्ट्रानिक मीडिया को तो जैसे ऐसी टीआरपी बढाने वाली खबरों का बेसब्री से इंतजार रहता है। ऐसा कोई भी मामला उछला नहीं कि न्यूज चैनल वालों में गला काट प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है। हर किसी का यही दावा होता है कि इस खबर को हमने ही सबसे पहले दिखाने का साहस दिखाया है। हद तो यह भी है कि पांच-सात जाने-पहचाने पत्रकारों, सामाजिक कार्यकर्ताओं का पैनल बैठाकर ट्रायल शुरू कर दिया जाता है। यही जाने-पहचाने चेहरे हर चैनल पर अपने ज्ञान का बखान करते नज़र आते हैं। इनकी बेसब्री के प्याले छलकने लगते हैं और स्टुडियो में ही फैसला सुना दिया जाता है। आरोपी को दोषी ठहराने में एक पल भी देरी नहीं लगायी जाती। खुर्शीद अनवर के साथ भी यही हुआ। वे अपना पक्ष रखना चाहते थे, लेकिन स्टुडियो में बैठकर अपनी-अपनी अदालतें चलाने वालें 'जजों' ने उनकी सुनी ही नहीं। सोशल मीडिया में भी ऐसी-ऐसी कटु टिप्पणियों का जलजला-सा आया जिनसे अनवर को लगा कि वे अब किसी को अपना मुंह दिखाने के काबिल नहीं रहे। इसी सोच और भावावेश में उन्होंने १८ नवंबर की सुबह अपने फ्लैट की चौथी मंजिल से छलांग लगा दी। खुर्शीद अब इस दुनिया में नहीं हैं। पूरा सच शायद ही सामने आ पाए। पर यह भी सच है कि निर्भया बलात्कार कांड के बाद महिलाओं में गजब की जागृति आयी है। कुछेक बार ऐसा भी होता है जब महिलाएं आत्मसमर्पण करने को विवश हो जाती हैं। ऐसी नारियों का आंकडा भी अच्छा-खासा है जो भौतिक सुख-सुविधाओं के लालच में वासना के दलदल में फंस जाती हैं और दोष दूसरों पर लगाती हैं। इस तथ्य को भी नहीं नकारा जा सकता कि अधिकांश महिलाएं तथाकथित अपनों की वहशियत का शिकार होती हैं। खुर्शीद अनवर की आत्महत्या ने जो सवाल खडे किये हैं उनके भी जवाब सामने आने ही चाहिएं।

Thursday, December 19, 2013

'नक्सलवादी' की जंग

शहीद भगत सिं‍ह, चंद्रशेखर आजाद, लाला लाजपतराय, महात्मा गांधी और लाल बहादुर शास्त्री का देश हिन्दुस्तान सर्वांगीण 'सफाई' का अभिलाषी है। पंजा, कमल, हाथी, सायकल, घडी आदि-आदि सबको देख लिया। परख लिया। सब में भ्रष्टाचार के पोषक भरे पडे हैं। कहीं कम, नहीं ज्यादा। खोटे सिक्कों ने असली सिक्कों का जामा ओढकर भ्रष्टाचार, भाई-भतीजावाद, रिश्वतखोरी, अंधेरगर्दी और लूटपाट का जी भरकर तांडव मचाया। जनता बेबस तमाशा देखती रही। सफेदपोशों ने अपनी-अपनी तिजोरियां भरीं और किनारे हो गए। देश लुटा-पिटा खुद के जर्जर हालात पर रोता रहा। शातिर राजनेताओं ने आम आदमी के वोटों की बदौलत सत्ता का भरपूर सुख भोगा, अपनी आने वाली दस-बीस पीढि‍यो के भविष्य को सुरक्षित किया और उस भारत माता को भूल गये जिसकी वे कस्में खाते थे। आम आदमी की तो कोई चिं‍ता-फिक्र ही नहीं की गयी। उसके हिस्से में तो सिर्फ और सिर्फ बदहाली, गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही आयी। भरोसे और इंतजार की भी कोई सीमा होती है। इस हकीकत को देश के झांसेबाज सत्ताधीशों की शातिर जमात नहीं समझ पायी। जब दिल्ली में 'झाडू' लहरायी तो उनके होश उड गये। फिर भी नाटक जारी हैं। जो सभी को दिख रहा है उसी को कई चालाकों के द्वारा नकारा जा रहा है। अरविं‍द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, कुमार विश्वास और उनके समर्पित योद्धाओं ने वो करिश्मा कर दिखाया है जिसकी नकाबपोश नेताओं को तो कतई उम्मीद नहीं थी। सोच और हालात ही कुछ ऐसे बना दिये गये हैं कि अधिकांश लोगों ने यह मान लिया है कि इस देश की तस्वीर नहीं बदली जा सकती। हालात जस के तस रहने वाले हैं। अब क्रांतिकारियों ने इस देश की धरती पर जन्म लेना बंद कर दिया है। इसलिए जो चल रहा है, उसे चलने दो। इसी में भलाई है। लेकिन दिल्ली के चुनाव परिणामों ने उन सबकी जमीनें हिला दी हैं जो आम आदमी पार्टी के उदय के पक्षधर नहीं थे। उन्हें तो यह क्रांतिकारी दल पानी का बुलबुला लग रहा है। उन्हीं की निगाह में यह तो एक कन्फ्यूस पार्टी है, जिसका कोई भविष्य नहीं है। राजनीति के महाबलियों ने केजरीवाल की तुलना 'नक्सलवादी' से कर अपने इरादे स्पष्ट कर दिये हैं। इन्हें अब यह याद दिलाना भी जरूरी है कि बम और बारुद बिछाकर निर्दोषों की जान लेने वाले 'वो' नक्सली अंधे और लालची सत्ताखोरों की देन हैं। उन्हें तो देश के लोकतंत्र पर ही भरोसा नहीं है। ऐसे में उनका तो किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। यह नक्सली(?) भी देश के शोषकों और लुटेरों के सताये हुए हैं। यह नये तथाकथित नक्सली भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों को सबक सिखाने और उन्हें सत्ता से बाहर करने के लिए ही राजनीति के मैदान में उतरे हैं। इन्हें देश के लोकतंत्र के प्रति पूरी आस्था है। दिल्ली के वो लाखों मतदाता भी इन्हें अपना मसीहा मानते हैं जिन्होंने अपने कीमती वोट देकर विधायक बनाया है। देश का काया-कल्प करने को आतुर ऐसे 'नक्सलियो' की देश को आज बहुत जरूरत है। कोई माने ना माने, यही आज के असली नायक हैं। एक थके हारे नेता ने बयान दागा है कि अरविं‍द केजरीवाल ने अन्ना हजारे के कंधे पर रखकर बंदूक चलायी है। ऐसे अक्ल के अंधो को यह कहने में पता नहीं शर्म क्यों आ रही है कि केजरीवाल ने अपने दम पर ही वो झाडू चलायी है जिसने भ्रष्टाचारियों के चेहरों का रंग उडा दिया है। झाडू के खौफ से घबराये नेताओं को यह गम भी जिन्दगी भर सताता रहेगा कि एक आम आदमी देखते ही देखते राष्ट्रीय परिदृष्य पर छा गया और वे खिसियानी बिल्ली की तरह खम्भा नोचते रह गये। दरअसल, देशवासियों को वर्षों से ऐसे ही किसी साफ-सुथरे चेहरे की तलाश थी जो सत्ता के मद में चूर नेताओं के होश ठिकाने लगाये। शीला दीक्षित से उकतायी जनता को केजरीवाल का जिद्दी जूनून और सरल स्वभाव इस कदर भाया कि उसने मौका पाते ही घमंडी मुख्यमंत्री को उसकी औकात दिखा दी। झाडू और केजरीवाल तो एक प्रतीक हैं। आज देश को एक नहीं अनेक केजरीवालों की सख्त जरूरत है। जिस दिन इनके हाथों की झाडू जहां-तहां फैले भ्रष्टाचार के सफाये में लग जाएगी उसी दिन से खुद-ब-खुद भ्रष्टाचारी मिट्टी में दफन होते नजर आएंगे। गुस्से में उबलती आम जनता को ऐसे केजरीवालों का बेसब्री से इंतजार है जो भ्रष्ट तंत्र का सफाया कर सकें। दिल्ली के चुनावों में आम आदमी की पार्टी ने सिद्ध कर दिया है कि काले धन की बरसात किये बिना भी चुनाव जीता जा सकता है। इस देश की जनता भ्रष्टाचार-मुक्त शासन चाहती है। अरविं‍द केजरीवाल पर लोगों ने विश्वास किया। स्वच्छ शासन देने का आश्वासन तो कांग्रेस और भाजपा ने भी दिया, लेकिन मतदाताओं ने उनकी सुनने की बजाय 'आप' पार्टी पर भरोसा करने में ही अपनी भलाई समझी।
यही अरविं‍द केजरीवाल की असली अग्नि परीक्षा है। उन्हें कुछ अलग करके दिखाना ही होगा। उन्हें भ्रष्ट नौकर शाही में आमूलचूल परिवर्तन लाकर लोगों को राहत दिलानी होगी। यदि वे भ्रष्टाचार पर लगाम कसने में कामयाब होंगे तो उनके चाहने वालों की कतार और लम्बी होनी तय है। दिल्ली से शुरू हुए उनके कारवां को देश के कोने-कोने में पहुंचने और अपना परचम लहराने में ज्यादा समय नहीं लगेगा। पूरा देश उन्हें हाथों-हाथ लेने को आतुर है। क्योंकि ऐसी कोई भी जगह नहीं बची जहां रिश्वतखोरों और बेइमानों का वर्चस्व न हो। देशवासी किसी भी हालत में इनसे मुक्ति चाहते हैं और उन्हे यकीन है कि 'झाडू' ही उनके दिमाग ठिकाने लगा सकती है।
वर्षों से लटकते चले आ रहे लोकपाल बिल के पास होने के पीछे भी अरविं‍द केजरीवाल, योगेन्द्र यादव, कुमार विश्वास और मनीष सिसोदिया का अभूतपूर्व योगदान है। भले ही आज उनकी मेहनत पर पानी फेरने की साजिशें की जा रही हैं। यदि यह लोग न होते तो अन्ना का आंदोलन केन्द्र सरकार की तंद्रा को भंग नहीं कर पाता। दरअसल झाडू की धमाकेदार जीत ने कांग्रेस को लोकपाल बिल पास करवाने के लिए विवश कर दिया। यदि 'आप' नहीं जीतती तो लोकपाल भी अटका रहता।

Thursday, December 12, 2013

सत्ता की नाइंसाफी

बेटा कफन में लिपटा है। दाह संस्कार के लिए पिता का बेसब्री से इंतजार है। लाख मिन्नतों के बाद भी जेल में कैद पिता को अपने बेटे के अंतिम संस्कार में शामिल होने की अनुमति नहीं मिल पाती। कानून के रखवाले कहते हैं कि कानून सबके लिए बराबर है। मरना-जीना तो लगा ही रहता है। इसके लिए जेल के कायदे और कानून तो नहीं बदले जा सकते। ऐसी कई खबरें अक्सर पढने और सुनने में आती हैं। मृत पत्नी के अंतिम दर्शन के लिए पति फरियाद पर फरियाद करता रहा पर उसकी किसी ने नहीं सुनी। जेल में बंद बेटे को अपने पिता के अंतिम संस्कार में शामिल होने के लिए चंद घंटे देने से भी जेल प्रशासन ने मना कर दिया। यही मेरे देश की असली तस्वीर है जिसमें आम आदमी के लिए रहम की कोई गुंजाईश नहीं है। फिर ऐसे में सवाल यह है कि कुछ लोगों के साथ इतनी रहमदिली क्यों? फिलहाल, हम बात कर रहे हैं उस संजय दत्त की जो फिल्म अभिनेता है। उसके पिता स्वर्गीय सुनील दत्त अभिनेता होने के साथ-साथ कांग्रेस सांसद थे। मां भी राज्यसभा की सम्मानित सांसद थीं। उसकी बहन प्रिया दत्त भी कांग्रेस की कमान थामे हुए है और सांसद भी है। इतने महान परिवार से ताल्लुक रखनेवाले अपराधी संजय दत्त पर महाराष्ट्र सरकार खासी मेहरबान है।
अच्छे इंसान के प्रति तो हर किसी को सद्भावना होती है। कानून की नजरों में संजय एक ऐसा अपराधी है जिसकी चारों तरफ थू...थू... होनी चाहिए। वह किसी तरह की इज्जत और सम्मान के भी काबिल नहीं है। १९९३ के मुंबई बम विस्फोटों के दौरान खून-खराबा करने के मकसद से लाये गये अवैध हथियारों के जखीरों में शामिल एक राइफल को रखने के मामले में शस्त्र कानून के तहत दोषी करार दिया गया संजय दत्त पूणे की यरवदा जेल में पांच वर्ष की सजा काट रहा है। उसने जो कृत्य किया है वह तो राष्ट्रद्रोह की श्रेणी में आता है। उसके देशद्रोही आतंकी दाऊद इब्राहिम जैसों से करीबी रिश्तों का भी खुलासा हो चुका है। देश की आर्थिक नगरी मुंबई में सिलसिलेवार बम-बारूद बिछाकर सैकडों निर्दोषों की जान और हजारों को गंभीर रूप से घायल करने वाले राष्ट्रद्रोहियों से मित्रता रखने वाले संजय को कानून के शिकंजे से बचाने के लिए कई महारथियों ने अपने विवेक को सूली पर टांग दिया था। एक भूतपूर्व जज ने तो इस भयावह खलनायक को बचाने के लिए अपनी पूरी ताकत लगा दी थी। फिर भी आखिरकार उसे जेल जाना ही पडा। यहां भी वह नाटकबाजी पर उतर आया। वीआईपी कैदी की नौटंकियों काम कर गयीं। जेल में अभी कुछ माह ही गुजरे थे कि बीते अक्टुबर माह में उसे १४ दिनों के पैरोल पर रिहा कर दिया गया। सजग लोग हैरान थे। उसने इस मनचाही छुट्टी का भरपूर मज़ा लिया। जैसे ही जेल वापस जाने के दिन आए उसने फौरन खुद को बीमार बताकर और १४ दिनों का पैरोल हासिल कर लिया। ऐसी छूट आम कैदियों को सपनों में भी नसीब नहीं हो पाती। उन्हें तो कायदे-कानून का हवाला देकर जेल की काल कोठरी में दुबकने-सुबकने को विवश कर दिया जाता है। जब बात रसूखदारों की आती है तो हर कानून-कायदा उन्हीं के चरणों का दास हो जाता है। २८ दिन की छुट्टियों का आनंद लेने के बाद संजय ३० अक्टुबर को जेल लौटा ही था कि फिर से उसने अपने सत्ता के रिश्तों को भुनाना शुरू कर दिया। आश्चर्य... इसमें भी वह सफल हो गया। पिछली बार उसने अपनी बीमारी का ढोल पीटा था। इस बार उसने अपनी पत्नी मान्यता की बीमारी का दर्दीला गीत सुनाकर एक महीने के पैरोल की सौगात हासिल कर ली। दो माह में दूसरी बार पैरोल पर अभिनेता के बाहर आने के जादू ने सजग देशवासियों को सोचने के लिए विवश कर दिया है कि इस देश का यह कैसा कानून है? संजय को अपनी पत्नी मान्यता दत्त की बीमारी के कारण एक महीने का पैरोल दिया गया है। जबकि उसे हाल ही में एक फिल्मी पार्टी में देखा गया। जहां वह ठुमकती और मस्ती करती नजर आ रही थी।
मुंबई बम कांड के और भी कई आरोपी हैं जिन्होंने संजय की तरह ही आतंकियों से रिश्ते निभाये और खून-खराबा करने में उनका पूरा साथ दिया। उनके घर-परिवार के लोग भी बीमार पडते रहते हैं। कई तो खुद भी गंभीर बीमारी से पीडि‍त हैं। पर उनकी सुनने वाला कोई नहीं है। इसी बात को लेकर विरोध के स्वर भी गूंज रहे हैं। अपराधी अभिनेता को गलत तरीके से राहत और सुविधा दिये जाने के कारण प्रदेश के गृहमंत्री आर.आर. पाटील पर भी उंगलियां उठ रही हैं। कहा जा रहा है कि-जहां हजारों जरूरतमंदों के आवेदन तो अक्सर ठुकरा दिये जाते हैं वहीं मुंबई की कांग्रेस सांसद के भाई की पलक झपकते ही हर मांग पूरी कर दी जाती है! यह कहां का न्याय है? खतरनाक अपराधी की पैरवी करने वालों को क्या पता नहीं है कि इस देश की जेलों में हजारों ऐसे कैदी वर्षों से बंद हैं जो बेकसूर हैं। उन्हें साजिशों के तहत फंसाया गया है। न जाने कितने कैदी तो ऐसे भी हैं जो दमदार वकील और जमानत की रकम का इंतजाम न कर पाने के कारण जेलों में मरने और सडने को विवश हैं। उनकी चिं‍ता तो किसी को नहीं होती! कोई भूतपूर्व जज और गृहमंत्री उनके लिए तो नहीं पसीजता। यह तो सरासर नाइंसाफी है। ढोंग है। कानून के साथ बहुत बडा खिलवाड है। फिर भी हुक्मरान यह कहते नहीं थकते कि कानून की निगाह में सब एक जैसे हैं। क्या ऐसे मक्कारों के हाथों में देश और प्रदेशों की कमान रहनी चाहिए?

Thursday, December 5, 2013

ऐसे बनता है कारवां

अपने देश में आम आदमी को रोजी-रोटी के जुगाड में अपनी सारी उम्र खपा देनी पडती है। जहां दो वक्त की रोटी दुश्वार हो वहां बीमार होने पर अस्पतालों के खर्चे उठा पाना आसमान के तारे तोडने वाली बात है। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। प्रायवेट अस्पतालों ने तो भव्य होटलों को भी पीछे छोड दिया है। यहां के हाई-फाई डाक्टरों की फीस को चुकाने में मध्यम वर्ग के भी पसीने छूट जाते हैं। ऐसे में गरीब तो वहां पांव धरने की भी नहीं सोच सकते। किसी भी सरकार ने कभी गरीबों की चिं‍ता नहीं की। उनकी बीमारियों और मौतों को सदैव अनदेखी की गयी। गरीब तो गरीब हैं। तरह-तरह की बीमारियां और दुर्घटनाएं उन्हें जब-तब दबोच लेती हैं। ऊंची कीमतों के कारण दवाइयां उनकी पहुंच से दूर रहती हैं। दवा विक्रेताओं की अपनी कमायी से मतलब है। मनमाने दाम वसूलने में उन्हें कोई शर्म नहीं आती। ऐसे में बेचारे गरीब जाएं तो जाएं कहां? न बीमारियां उन पर रहम करती हैं और न सरकारें और राजनेता। हां, फिर भी नेताओं को बीमारों की कभी-कभार याद आ जाती है।
स्वतंत्रता दिवस, गणतंत्र दिवस और अपने जन्मदिन पर कई नेता बडे ताम-झाम के साथ अस्पतालों में अपने चेले-चपाटों के साथ मरीजों से मिलने के लिए पहुंच जाते हैं। अपने इस अभियान में वे पत्रकारों को भी अपने साथ ले जाना नहीं भूलते। उनके हाथ में पांच-सात सौ के फल और मिठाइयां होती हैं जिन्हें वे मुस्कराते हुए मरणासन्न मरीजों को वितरित करते हैं। उनकी इस सहृदयता और दानवीरता की तस्वीरें न्यूज चैनलों और अखबारों की शोभा बढाती हैं। नेताजी चंद रुपये खर्च कर लाखों की प्रसिद्धि बटोर लेते हैं। ऐसे खोखले और मायावी दौर में यदि किसी शख्स ने जरूरतमंदों को मुफ्त में दवाइयां और अन्य सुविधाएं उपलब्ध कराने का अभियान चला रखा हो तो उसे आप क्या कहेंगे?
बीते सप्ताह इस कलमकार की एक ऐसे इंसान से मुलाकात हुई जो मानवता और इंसानियत की जीती-जागती मिसाल है। उसमें नेताओं और तथाकथित समाज सेवकों वाला कोई भी अवगुण नहीं है। दीन-दुखियों के लिए अपना सबकुछ न्यौछावर कर देने वाले इस मानव को नाम कमाने की बीमारी भी नहीं है। लोग उन्हें 'मेडिसन बाबा' के नाम से जानते हैं। नारंगी रंग का कुर्ता-पायजामा उनकी खास पहचान में शामिल है। खुद का परिचय देते समय अक्सर वे यह कहने और बताने में भी संकोच नहीं करते कि वे तो सडक छाप भिखारी हैं। यह भिखारी रुपया-पैसा नहीं मांगता। दूसरों के जख्मों पर मरहम लगाने और बीमारों को चंगा करने के लिए घर-घर जाकर दवाइयां मांगने वाले इस इंसान को जरूरतमंदों की मदद करने में जो सुकून मिलता है उसे किसी परिभाषा में नहीं बांधा जा सकता। नारंगी कुर्ते पर सफेद लिखावट चमकती रहती है। 'चलता-फिरता मेडिसिन बैंक... मुफ्त दवाइयों के लिए सम्पर्क करें...०९२५०२४०९०८।' दिल्ली जैसे महानगर में जहां करीबी रिश्तों का कोई अता-पता नहीं है, वहां ऐसे परोपकारी का मिलना विस्मित कर गया। दोनों पैरों से अपंग इस शख्स को अक्सर इस चिं‍ता से रूबरू होना पडता था कि कई गरीब और बेसहारा लोगों को दवाइयों के अभाव में बेमौत मर जाना पडता है। धन के अभाव में कई बार अपने भी साथ छोड देते हैं। जब उन्हें दो वक्त की रोटी ही नसीब नहीं हो पाती तो महंगी दवाइयां खरीदना तो उनके लिए संभव ही नहीं हो सकता। उन्हें इस हकीकत का भी पता था कि कई लोगों के घरों में दवाइयों का अंबार लगा रहता है। जब उन्हें यह बेकाम की लगती हैं तो वे उन्हें कूडे-कचरे के हवाले कर देते हैं। उन्हें यह पता ही नहीं होता कि यही दवाइयां कई असहाय जरूरतमंदों के लिए संजीवनी साबित हो सकती हैं।
मेडिसन बाबा रोज सुबह अपने घर से निकलते हैं। घर-घर जाकर दवाइयां मांगते हैं। यह सिलसिला वर्षों से चल रहा है। शुरु-शुरु में लोग उनका मजाक उडाते थे। अब उनका साथ देने लगे हैं। कई सच्चे समाजसेवक और मानवता प्रेमी लोग भी उनके इस अभियान में शामिल हो गये हैं। वे उनकी सहायता करते हैं और दवाओं के साथ-साथ इलाज में काम आने वाले विभिन्न साधन-सामान उपलब्ध कराते हैं। इस फरिश्ते के घर के कमरों में दान की दवाएं, हास्पिटल बेड, सिलेंडर, वाकिं‍ग स्टिक, व्हील चेअर, रजाई, कम्बल जैसी तमाम चीजें भरी पडी हैं। जिन्हें भी सहायता की जरूरत होती है वे बेझिझक उन तक पहुंच जाते हैं। यदि कोई उनसे फोन पर सम्पर्क करता है तो उसकी समस्या का भी फौरन समाधान कर दिया जाता है। मेडिसन बाबा कहते हैं कि मेरा एक ही सपना है कि इस देश में दवाओं के अभाव में किसी गरीब को मौत के मुंह में न समाना पडे। मैं गरीबों और असहायों के लिए एक मेडिसन बैंक की स्थापना करना चाहता हूं जहां से जरूरतमंदों को मुफ्त में इलाज की तमाम सुविधाएं उपलब्ध हो सकें। राजधानी के लोग मेडिसन बाबा को पहचानने लगे हैं। मेडिसन बाबा खुद अस्पतालों में जाते हैं और जरूरतमंदों का पता लगाकर उनकी सहायता करते हैं। इस काम में वे डाक्टरों की भी सहायता लेते हैं, ताकि किसी मरीज को गलत दवाई का शिकार न होना पडे। मदर टेरेसा को अपना आदर्श मानने वाले मेडिसन बाबा की कीर्ति विदेशों तक जा पहुंची है। दीन-दुखियों से सहानुभूति रखने वाले कई विदेशी भी उनसे खासे प्रभावित हैं। वे भी उन्हें निरंतर दवाएं भेजते रहते हैं। उनका हालचाल भी पूछते रहते हैं। दिल्ली के कई पढे-लिखे युवक-युवतियों को भी उनकी सहायता कर आत्मिक संतुष्टि मिलती है। यकीनन, कारवां ऐसे ही बनता है। पहल करने वाला चाहिए।

Thursday, November 28, 2013

भेडीये होंगे बेनकाब

विचारों की आंधी कहीं थमने का नाम नहीं लेती। सोचो तो सोचते ही रह जाओ। आखिर यह क्या हो रहा है? कैसे-कैसे मंजर सामने आ रहे हैं! यह तो सरासर रिश्तो का कत्ल है। हत्यारे कोई और नहीं, अपने ही हैं। अपनी इकलौती बेटी आरुषि की निर्मम हत्या के आरोप में पिता डॉ. राजेश तलवार और मां डॉ. नूपुर को उम्रकैद की सजा सुनाये जाने की खबर सुनते ही देश के लाखों लोग हतप्रभ रह गये। एक पत्नी ने अपने पति का साथ देकर पतिव्रता का तो धर्म निभाया, लेकिन मातृत्व के धर्म को भूल गयी! इस डरावने सच ने न जाने कितने संवेदनशील भारतवासियों को आहत कर डाला। मां-बाप और बच्चों के बीच के रिश्ते में तो अपार मिठास होती है। हर बेटी अपने पिता के बेहद करीब होती है। जन्मदाता का दुलार, प्यार और वात्सल्य उसकी जडों को सींचता, संवारता और संस्कारित करता है। लगता है आरुषि इस मामले में बदकिस्मत थी। उसे भटके और बहके हुए मां-बाप मिले। जिनके जीवन का एकमात्र लक्ष्य था मौजमस्ती... भोग विलास। अपनी बेटी की अच्छी परवरिश के लिए उनके पास वक्त ही नहीं था। उसे सहेलियों, नौकरों और इंटरनेट की अश्लील दुनिया के हवाले कर दिया गया। नौकर ने माता-पिता की कमजोरी भांप ली। नादान १४ वर्षीय आरुषि उसके जाल में फंस गयी। मदहोश मां-बाप को भनक भी नहीं लगी। १५-१६ मई २००८ के रात बारह से एक बजे के बीच जब डॉ. राजेश तलवार ने अचानक अपनी मासूम बेटी को उम्रदराज नौकर हेमराज के साथ हमबिस्तर देखा तो उनका खून खौल उठा। गुस्से से भरे पिता ने पहले तो बेटी और नौकर के सिर पर गोल्फ स्टिक मारी, फिर बाद में सर्जिकल ब्लेड से दोनों का गला काट दिया। यह पूरी मार-काट मां की आंखों के सामने हुई। दोनों ने मिलकर आरुषि के कपडे ठीक किए और सारे सबूत मिटाये। कानून ने पुख्ता सबूतों के आधार पर अपना काम कर दिया है। कई लोग ऐसे हैं जिन्हें यह सज़ा रास नहीं आयी। वे तो यह मानने को तैयार ही नहीं हैं कि कोई मां-बाप अपनी ही बेटी को मौत के घाट उतार सकते हैं। कत्ल तो नौकर का भी हुआ पर उसकी मौत का किसी को कोई मलाल नहीं।
दरअसल यह ऑनर किलिं‍ग है। इज्जत के नाम पर हरियाणा और उत्तरप्रदेश में प्रेमी-प्रेमिकाओं की हत्याओं का बेखौफ होकर इतिहास रचने वालों की राह पर चलते हुए ही आरुषि और हेमराज की हत्या को अंजाम दिया गया। बेटे-बेटियों को जिन्दा जमीन में गाढने और फंदे पर लटकाने के फरमान सुनाने वाली खाफ पंचायतों को एक पढे-लिखे मां-बाप ने भी अपना आदर्श मानने में संकोच नहीं दिखाया। यह सच्चाई हिलाने और रुलाने वाली तो ही है, कई सवाल भी खडे करती है। यह किसी प्रेमी-प्रेमिका का मामला नहीं है। यह तो एक मौकापरस्त नौकर की दगाबाजी की जीती-जागती तस्वीर है। यहां तो बेटी के भटकाव की असली वजह खुद मां-बाप ही हैं जिन्होंने बेटी को जन्म तो दिया, पर उसकी देखभाल नहीं कर पाये। अपनी बेटी को विश्वासघाती नौकर के साथ आपत्तिजनक हालत में देखकर उन्होंने आपा खो दिया। यकीनन नशे में रहे होंगे। होश में होते तो बेटी को समझाते। नौकर को सजा देने के लिए कानून का सहारा लेते। एकाएक आवेश में आकर ऐसे दोहरे हत्याकांड को अंजाम न देते जो आत्मीय रिश्तों को शर्मसार कर उनके परखचे ही उडा देता। हेमराज तो एक अनपढ, अहसानफरामोश नौकर था जिसने अपने मालिक से दगाबाजी की। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल ने एक नामी शख्सियत होते हुए भी जो कुकर्म किया है क्या वह किसी भी तरह के बचाव और माफी के लायक है? इसमें कोई शक नहीं कि तरुण तेजपाल खोजी पत्रकारिता के नायक रहे हैं। उन्होंने अपने खुफिया कैमरो से कई नेताओं, खिलाडि‍यों और सत्ता के दलालों को बेनकाब किया। उनकी उपलब्धियों को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। इन उपलब्धियों के ऐवज में उन्हें दुराचार करने की खुली छूट तो नहीं दी जा सकती। शराबी पत्रकार-सम्पादक ने अपनी सहयोगी पत्रकार की आबरू लूटने का जो घोर दुष्कर्म किया है उससे उनकी सारी की सारी महानता गर्त में समा गयी है। वे किसी को मुंह दिखाने लायक भी नहीं बचे हैं। सौदेबाज सम्पादक तेजपाल ने जिस युवती का यौन उत्पीडन किया वह उनके मित्र की बेटी है और उनकी बेटी की परम सहेली है। यानी यहां भी रिश्ते का कत्ल और घोर विश्वासघात! जिसकी सुरक्षा की जानी चाहिए थी, तेजपाल उसी की अस्मत लूटने पर उतारू हो गये। एक काबिल सम्पादक का यह कैसा व्याभिचारी रूप है? कहीं ऐसा तो नहीं कि इधर-उधर मुंह मारना इस लम्पट की फितरत है। पत्रकारिता का तो महज उसने नकाब ओढ रखा था, जिसकी बदौलत उसने उत्तरप्रदेश के कुख्यात कारोबारी पोंटी चड्डा जैसों के साथ विभिन्न धंधो में साझेदारी की और अरबों की माया जमायी। उसकी बेटी ने भी स्वीकार किया है उसने अपने पिता को तब किसी नवयौवना के साथ रंगरेलियां मनाते देखा था जब वह मात्र तेरह साल की थी। अपनी ही बेटी के सामने बेनकाब हो चुके तेजपाल प्रगतिशील पत्रकार कहलाते हैं। उनकी लीक और सीख पर चलने वालों की भी खासी तादाद है। अपनी बेटी की उम्र की लडकी को अपनी अंधी वासना का शिकार बनाने वाले खोजी सम्पादक की हर तरफ थू...थू हो रही है। ऐसे में कवि मुकेश कुमार मिश्र की कविता काबिलेगौर है:
कि इस शहर का
एक भेडि‍या प्रायश्चित कर रहा है...
कुछ लोग उसके साहस की
प्रशंसा कर रहे हैं...
कुछ लोग इन्टर्नल
बताकर मामले को दबा रहे हैं
कुछ लोग सेकुलर ढंग से
इस मुद्दे को सुलझा रहे हैं...
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या 'लाल' है
क्यों????
क्योंकि भेडि‍या भेदिये का काम कर
'किसी को' तख्त दिलायेगा...
लेकिन भेडि‍या
लाल भेडि‍या
खूनी दरिंदा भेडि‍या
नहीं जानता कि
अब भेडि‍ये भीड में भी पहचाने जाएंगे
अपनी मांद से बाहर निकाले जायेंगे
कि भेडि‍या नहीं जानता कि
अपनी खाल बचाने के लिए जिस 'खोल'
को उसने ओढ रखा है...
अब जनता चुन-चुन कर
उन एक-एक धागों को तार-तार करेगी
अब इन लाल भेडि‍यों को बेनकाब करेगी...।

Thursday, November 21, 2013

भाई-भतीजावाद की राजनीति

यह अपना देश हिन्दुस्तान ही है, जहां असंतुष्ट और बेचैन आत्माओं की लम्बी कतारें लगी हैं। शोर मचता है, काम होता नहीं। दरअसल देश कई संकटों से जूझ रहा है। चरित्र के चित्र धुंधला गये हैं। आदर्शों का बडा टोटा है। महात्मा गांधी की इस धरा पर ईमानदार और चरित्रवान नेताओं की कमी के चर्चे सरहदें पार कर चुके हैं। युवाओं को दूर-दूर तक ऐसा कोई नेता नजर नहीं आता जिसके पदचिन्हों पर गर्व के साथ चला जा सके। वाकई युवा पीढी असमंजस में है। उसे कुछ सुझता ही नहीं। ऐसे में उन्हें फिल्मी सितारे और क्रिकेटर ही अपने असली नायक प्रतीत होते हैं।
राजनेताओं को यह बात बडी खलती है। उन्हें पहले सी इज्जत मिलनी बंद हो गयी है। जिसे देखो वही दुत्कारने वाली निगाह से देखने लगा है। मीडिया और दूसरे क्षेत्रों के दिग्गजों के भी कुछ ऐसे ही हाल हैं। तहलका के सम्पादक तरुण तेजपाल एक युवती के यौन शोषण के चलते कटघरे में हैं। ऊंची-ऊंची झाडने और इस-उस का स्टिंग आप्रेशन कर खुद को पत्रकारिता का एकमात्र चरित्रवान महारथी बताने वाले तरुण के चेहरे का सारे का सारा चरित्र और 'तेज' गायब हो गया है। यह कोई इकलौता मामला नहीं है। राजनेताओं के साथ गठबंधन कर माल बनाने वाले पत्रकारिता के कई दलाल बेनकाब हो चुके हैं। सबकी कलई खुल चुकी है। फिर भी जहां देखो वहां पुरस्कार पाने, दिलाने और हथियाने की होड मची है। देश और दुनिया के जाने-माने क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर और प्रोफेसर सी.एन.राव को भारतरत्न घोषित करने के बाद देश के इस सर्वोच्च सम्मान पर सियासत करने वालो के झुंड भी नजर आने लगे हैं। किसी ने कहा कि इसके असली हकदार तो पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी हैं, तो किसी-किसी ने हाकी के जादूगर ध्यानचंद, तो कुछ ने और भी अपने मनचाहे नामों की वकालत कर डाली। जदयू नेता शिवानंद को सचिन को भारतरत्न देने के फैसले ने जैसे आग-बबूला कर दिया। उन्होंने फरमाया कि मेरी समझ में नहीं आ रहा कि ध्यानचंद को नजरअंदाज कर सचिन को भारतरत्न क्यों दिया गया। ध्यानचंद ने जब देश का मान बढाया तब उन्हें खास सुविधाएं नहीं मिलती थीं। सचिन मुफ्त में तो नहीं खेलते। उन्हें खेलने के ऐवज में करोडों रुपये मिलते हैं। नेताजी से कोई यह तो पूछे कि क्या आप लोग फोकट में राजनीति करते हो। क्या आपकी बिरादरी थैलियां नहीं समेटती? इसमें दो मत नहीं हो सकते कि अटल बिहारी वाजपेयी भारतरत्न के बेहद काबिल अधिकारी हैं। उनकी आदर्श छवि ने करोडों देशवासियों का दिल जीता है। वे बेहतरीन प्रधानमंत्री थे। इसके साथ ही वे ऐसे निर्विवाद आदर्श चरित्रधारी हैं जिनसे युवा वर्ग प्रेरणा लेता आया है और लेता रहेगा। इस महापुरुष को तो भारतरत्न के सम्मान से नवाजने में किसी किस्म की राजनीति नही की जानी चाहिए थी। पर अपने देश में तो हर मामले में राजनीति होती है। चरित्रवान और ईमानदार चेहरों की जानबूझकर अनदेखी की जाती है।
दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में यह जरूरी भी नहीं कि हर राजनेता हर किसी की पहली पसंद हो। फिर भी अटल बिहारी वाजपेयी पर उंगली उठाने वाले कम ही मिलेंगे। जिस उदार मन से उन्होंने राजनीति का सफर तय किया उसका कोई सानी नहीं है। सभी पुरस्कारों पर एक ही परिवार का तो एकाधिकार क्यों है, इस सवाल का जवाब भी देशवासी चाहते हैं।
अटल जी की तरह सचिन ने करोडों लोगों के दिलों में अमिट छाप छोडी है। २४ साल के अपने क्रिकेट करियर में सचिन ने ऐसे-ऐसे कीर्तिमान रचे कि युवा तो युवा देश का हर वर्ग उनका दिवाना हो गया। सचिन की ऐतिहासिक सफलता की कहानी से हर कोई सबक ले सकता है। सफलता के शिखर पर पहुंचने के बाद भी अहंकार उन्हें छू भी नहीं पाया। सचिन ने तारीफों के साथ-साथ आलोचनाओं की बौछारे भी झेलीं। तब भी वे कभी विचलित नहीं हुए। उनका उत्साह और आत्मविश्वास सतत बना रहा। सचिन ने इस तथ्य को और भी पुख्ता कर दिया है कि कडी मेहनत और अटूट लगन की बदौलत कुछ भी हासिल किया जा सकता है। सिर्फ सपने देखने से कुछ हासिल नहीं होता। जो परिश्रम करता है वह अपनी मनचाही मंजिल तक पहुंचता ही है। सचिन तेंदुलकर को उनकी कर्तव्यनिष्ठा, विनम्रता और सौम्यता का जो पुरस्कार मिला है, उससे सबक लेने की जरूरत है न कि आलोचना करने की। जो लोग यह सोचते हैं कि सचिन देश के इस सर्वोच्च सम्मान के काबिल नहीं हैं, उनके बारे में कुछ भी कहना और लिखना व्यर्थ है। सभी को अपनी बात कहने की आजादी है। इस आजादी का मनचाहा दुरुपयोग करने वाले भी ढेरों हैं। इस देश के लोकतंत्र की कमान राजनेताओं के हाथ में है। वही पूरी व्यवस्था चलाते हैं। देश को चलाने वालो की नीयत में अगर खोट नहीं होता तो राम मनोहर लोहिया और अटल बिहारी वाजपेयी को तो कब का भारतरत्न के सम्मान से नवाजा जा चुका होता। दरअसल, राम मनोहर लोहिया को तो खुद समाजवादियों ने ही भूला दिया। उन्होंने लोहिया के सच्चे अनुयायी होने को नगाडा बजाकर सत्ता का तो भरपूर सुख भोगा पर अपने आदर्श (?) को भारतरत्न देने की पुरजोर मांग कभी भी नहीं उठायी। चाहे मुलायम हों, लालू हों या फिर नीतीश, सबके सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। जिस तरह से कांग्रेसियों ने महात्मा गांधी के नाम का सिक्का भुनाया उसी तरह का रास्ता तथाकथित लोहियावादियों ने अपनाया। रहा सवाल हॉकी के जादूगर ध्यानचंद को भारतरत्न देने का तो हमारे यहां क्रिकेटरों को जो सम्मान और नाम मिलता है, हाकी के खिलाडि‍यो को नहीं मिल पाता। क्रिकेटरों को तो भगवान बना दिया गया है और बाकी किसी भी खेल के धुरंधर की कभी कोई परवाह ही नहीं की जाती। यह परिपाटी तभी टूटेगी जब इस देश की आम जनता जागेगी।

Thursday, November 14, 2013

बचकानी और घटिया बयानबाजी

नेता डरे हुए हैं। चुनाव सिर पर हैं। बेचारों की नींद गायब है। प्रचार करना भी जरूरी है। घर से बाहर निकले बिना काम नहीं चलने वाला। जीत-हार की चिं‍ता तो अपनी जगह है। जबसे मोदी की रैली में बम फटे हैं, तभी से उन्हें अपनी जान भी खतरे में नजर आने लगी है। आतंकियों के बमों की सलामी झेलने के बाद नरेंद्र मोदी की पार्टी भी दहशत की गिरफ्त में है। भाजपा की तरफ से मोदी को वैसी ही सुरक्षा व्यवस्था उपलब्ध करवाये जाने की मांग की गयी है जैसी कि देश के प्रधानमंत्री को मिलती है। मोदी छोटी-मोटी हस्ती नहीं हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री तो हैं ही, भाजपा के भावी पीएम भी हैं। केंद्रीय गृहमंत्री सुशील कुमार शिं‍दे ने इस मांग पर पानी फेर दिया है। गृह राज्यमंत्री आरपीएन सिं‍ह ने तो अजब-गजब तर्क देकर लोगों को चौंका दिया है। उनका कहना है कि राजग सरकार की ढीली-सुरक्षा व्यवस्था के कारण ही पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी को अपनी कुर्बानी देनी पडी थी। मंत्री हैं तो पढे-लिखे फिर भी पुराने जख्मों को कुरेदने से बाज नहीं आते। यह तो एक तरह से बदला लेने की सोच है। नरेंद्र मोदी की पटना में हुई हुंकार रैली में जिस तरह से आतंकियो ने बमों के धमाके किये और निर्दोषों को मौत के हवाले किया, उसे कोई छोटी-मोटी घटना तो नहीं कहा जा सकता। यह तो मोदी की किस्मत अच्छी थी, जो वे बच गये। असली निशाना वही तो थे। आतंकियों का देशभर में अशांति फैलाने का इरादा था। वैसे भी मोदी वर्षों से आतंकियों के निशाने पर हैं। जब इस सच का सबको पता है तो उनकी सुरक्षा व्यवस्था में किसी भी तरह की कमी और कोताही क्यों? देश पहले भी सुरक्षा के अभाव में दो पूर्व प्रधानमंत्रियों को खो चुका है। निर्दोष नागरिकों के मौत के मुंह में समाने और उनके हताहत होने का आंकडा भी हजारों में है। जो नेता मजाकबाजी में लगे हैं उन्हें होशो-हवास में आना चाहिए। यह मज़ाक का वक्त नहीं है। कांग्रेस के ही एक और नेता हैं राज बब्बर। यह महाशय कभी समाजवादी पार्टी में हुआ करते थे। खुद को मुलायम सिं‍ह का हनुमान बताया करते थे। इन्हें समाजवाद पर बडे-बडे भाषण झाडते भी अक्सर देखा जाता था। तब ये कांग्रेस की नीतियों का मज़ाक उडाने वालों में अग्रणी थे। इन्हें कांग्रेस और कांग्रेसी भ्रष्टाचार की जीती-जागती मूरत नज़र आते थे। पार्टी सुप्रीमो मुलायम सिं‍ह के खासमखास (तब के) अमर सिं‍ह की वजह से उन्हें समाजवादी पार्टी छोडनी पडी। राज बब्बर का कहना था कि अमर सिं‍ह सत्ता का दलाल हैं। उन जैसा भ्रष्टाचारी देश में आज तक पैदा नहीं हुआ। मुलायम सिं‍ह इस भ्रष्टाचारी के इशारों पर नाचते हैं। किसी दूसरे की सुनते ही नहीं। ऐसे में उनके पास समाजवादी पार्टी को त्यागने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था। कभी कांग्रेस को पानी पी-पीकर कोसने वाले अभिनेता-नेता ने कांग्रेस का दामन थामने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने कांग्रेस के गढ में डेरा जमाकर बैठे भ्रष्टाचारी दिखायी ही नहीं दिये। तब से लेकर अब तक वही हाल है। उनकी इसी होशियारी के चलते ही कांग्रेस ने उन्हें हाथों-हाथ लिया। उन्हें फौरन लोकसभा के चुनाव की टिकट भी दे दी गयी। चुनाव जीतने के बाद तो उन्होंने हवा में उडना शुरु कर दिया। कांग्रेस को ही देश की भाग्य निर्माता और एकमात्र ईमानदार पार्टी बताने के अभियान में जुट गये। जो काम कभी समाजवादी पार्टी के लिए करते थे, अब कांग्रेस के लिए करने लगे। इसी पलटबाजी की कला की बदौलत ही राज बब्बर राजनीति में खूंटे गाढने में सफल हुए हैं। जिन फिल्मवालों के पास यह हुनर नहीं था वे अपने-अपने काम धंधों में लग गये हैं। गोविं‍दा और धर्मेन्द्र इसकी जीवंत मिसाल हैं।
घाट-घाट का पानी पी चुके राज बब्बर कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी और पार्टी के भावी पीएम राहुल गांधी की गुडबुक में आने के लिए कोई भी मौका नहीं चूकना चाहते। देशवासियों को याद होंगे उनके यह बोल वचन कि मुंबई में बारह रुपये में भरपेट खाना मिल जाता है। जबकि इस मायानगरी में इतने रुपयों में तो हल्का-फुल्का नाश्ता भी नहीं मिलता। मोदी को प्रधानमंत्री के समकक्ष सुरक्षा मुहैया कराये जाने की मांग के जवाब में उनका यह कहना उनकी ओछी मानसिकता को दर्शाता है- चाहे कसाब हो या मोदी, सरकार तो सभी को सुरक्षा देती है। क्या यह एक कुंठाग्रस्त नेता की घटिया सोच नहीं है? दरअसल, बचकानी और घटिया बयानबाजी करने वाले ऐसे नेताओं ने ही देश का कबाडा करके रख दिया। इन्होंने यदि भारत माता की आत्मा को पहचाना होता, मुसलमानों को महज वोट बैंक नहीं समझा होता, युवकों को शिक्षा और रोजगार दिलाने में अपनी आधी भी ऊर्जा लगा दी होती, भ्रष्टाचार को पनपने ही न दिया होता, अपराधियों को शह नहीं दी होती और आदिवासियों को अनदेखी न की होती तो आज किसी भी राजनेता पर इस तरह से खतरे के बादल न मंडराते। यह मतलब परस्त राजनेता तो अपने ही देश को सुरक्षित और व्यवस्थित नहीं रख पाए। ऐसे में दुश्मनों की हिम्मत तो बढनी ही थी। पाकिस्तान इस देश के हुक्मरानों, राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की रग-रग से वाकिफ हो गया है। उसने इनकी औकात जान और पहचान ली है। इसलिए वह बेखौफ होकर आतंकवादियों को हिं‍दुस्तान भेजता है और वे बडी आसानी से अपना काम कर जाते हैं। इस देश को चलाने वाले यदि होश में आ जाएं तो किसी बाहरी और अंदरूनी ताकत में दम नहीं कि वह बम-बारूद बिछाने की हिम्मत कर सके।

Sunday, November 10, 2013

तारीफ करना मना है...

भारत रत्न लता मंगेशकर। कौन है जो इस नाम से वाकिफ नहीं। अपनी मधुर आवाज़ के जादू से सम्मोहित कर लेने वाली लताजी के प्रशंसको की संख्या का अनुमान लगा पाना बेहद मुश्किल है। वर्षों बीत गये...उनका जादू और सम्मोहन जस का तस है। जिसने भी उनके गाये गीत सुने, वह उनका हमेशा-हमेशा के लिए मुरीद हो गया। स्वर कोकिला लता मंगेशकर राज्यसभा की मनोनीत सदस्य भी रह चुकी हैं। हर दिल अज़ीज़ लता दीदी का कभी भी किन्हीं विवादों से कोई लेना-देना नहीं रहा। अपने संगीत की सृष्टि में मगन रहने वाली इस महानतम हस्ती ने बीते सप्ताह एक कार्यक्रम के दौरान अपनी चाहत उजागर कर दी: 'मेरी ही नहीं पूरे देश की इच्छा है कि नरेंद्र मोदी भारत के प्रधानमंत्री बनें।' इस देश के संविधान ने हर नागरिक को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की है। इसे छीनने और इस पर प्रहार करने का किसी को कोई हक नहीं है। लताजी की इस हार्दिक इच्छा ने कई राजनीतिबाजों के तन-बदन में आग लगा दी। उनकी तल्ख वाणी का एक ही अभिप्राय है कि जानी-मानी हस्तियों को अपनी पसंद जाहिर करने का कोई हक नहीं है। कांग्रेस और उसकी साथी पार्टी राष्ट्रवादी कांग्रेस ने तो लताजी को इशारों ही इशारों में यह कह डाला कि आपने नरेंद्र मोदी की तारीफ कर उस पार्टी के साथ अहसान फरामोशी की है जिसने आपको राज्यसभा की मनोनीत सदस्य बना कर सम्मानित किया था।
दरअसल, करोडो-करोडों संगीत प्रेमियों के दिलों पर राज करने वाली लता मंगेशकर तो कला और संगीत की पुजारी हैं। उन्हे अगर राजनीति और राजनेताओं की असली फितरत का पता होता तो वे राज्यसभा की दहलीज पर कदम रखने की सोचती ही नहीं। उन्हें क्या पता था कि उन्हें जीवनभर उन सत्ता के खिलाडि‍यों की शान में कसीदे पढने होंगे जिन्हें वे नापसंद करती हैं। लेकिन सियासत और राजनीति का यही दस्तूर है। जिन्हें राज्यसभा के इनाम से नवाजा जाता है उनसे जीवनभर 'वफादारी' की ही उम्मीद की जाती है। देश की लगभग सभी बडी राजनीतिक पार्टियां उद्योगपतियों, पत्रकारों, लेखकों, अभिनेताओं, अभिनेत्रियों और स्थापित कलाकारों को राज्यसभा की सदस्यता से नवाजती ही इसलिए हैं कि उनके गुणगान के ढोल बजते रहें। जब से देश आजाद हुआ है तभी से यह परंपरा चली आ रही है। उद्योगपतियों और व्यापारियों के द्वारा राजनीतिक दलों को थैलियां पहुंचाने और फायदा उठाने का चलन तो आम है। पत्रकारों, सम्पादकों आदि...आदि को राज्यसभा की माला पहनाने के पीछे राजनीतिक पार्टियों का बहुत बडा स्वार्थ छिपा होता है। अच्छे खासे विद्धानों और कलमकारों को तोता बनाकर राजनीति की ओछी शाब्दिक जंग में झोंक दिया जाता है। कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को तोते पालने का कुछ ज्यादा ही शौक है। मजबूरी भी है। वर्तमान में जहां कांग्रेस के पास विजय दर्डा और राजीव शुक्ला जैसे 'ढोलकीनुमा' राज्यसभा सांसद हैं तो भाजपा के पास बलबीर पुंज, तरुण विजय और चंदन मित्रा जैसों की भरमार रही है, जो अपनी पार्टी की जय-जयकार करते नहीं थकते। लोकमत ग्रुप के कर्ताधर्ता, राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने बीते वर्ष नरेंद्र मोदी की शान में कुछ मधुर तराने गाये थे, जो कांग्रेस को कतई रास नहीं आये थे। खूब हो-हल्ला मचा था। जिस थाली में खाते हैं उसी में छेद करने के आरोप भी इस हवा-हवाई अखबार मालिक पर लगे थे। दर्डा पत्रकार होने के साथ-साथ व्यापारी भी हैं। सौदेबाजी में माहिर हैं। इसलिए बात आयी-गयी हो गयी। यहां अपने पाठक मित्रों को यह याद दिलाना भी जरूरी है कि विश्व विख्यात अर्थशास्त्री अमत्र्य सेन ने जब मोदी को प्रधानमंत्री की कुर्सी के अयोग्य बताया था तो भाजपा के अहसानों तले दबे नामी पत्रकार चंदन मित्रा ने उनसे भारतरत्न वापस लेने की मांग कर दी थी। वैसे यह अच्छी बात है कि कांग्रेस के किसी बडबोले सेवक ने लता मंगेशकर को भारत रत्न लौटाने का फतवा जारी नहीं किया।
पत्रकारिता के कई धुरंधर बडी दूर की सोचकर राजनीति में आते हैं। इन्हें अपने कर्तव्यों और दायित्वों का अच्छा-खासा ज्ञान होता है। यह लोग अपने अखबारों और न्यूज चैनलों में अपनी पार्टी की यशगाथा को ही प्राथमिकता देते हैं। अपने पालनहारों के दाग-धब्बों को धोने की भी इनकी जिम्मेदारी होती है। इसके ऐवज में इन्हें कोयला, पत्थर, रेत, लोहा और तरह-तरह के खनिज पदार्थ खाने-पचाने को मिलते रहते हैं। शादीशुदा अभिनेता धर्मेंद्र से ब्याह रचाने वाली हेमा मालिनी और रेखा जैसी बदनाम नायिकाएं भी राज्यसभा में पहुंचने में कामयाब हो जाती हैं। इनकी एकमात्र योग्यता होती है आकर्षण और भीड जुटाने की क्षमता। इस देश की राजनीतिक पार्टियां विख्यातों के साथ-साथ कुख्यातों को भी भरपूर दाना डालती हैं। दस्यू सुंदरी फूलन देवी और हत्यारे शहाबुदीन जैसों को लोकसभा की चुनावी टिकट देकर अपनी अक्ल के दिवालियापन का सबूत पेश करने वाले दलों के मुखियाओ से जब इस बाबत सवाल किया जाता है तो वे बडी बेशर्मी के साथ कहते हैं कि जिनमें चुनाव जीतने की क्षमता होती है उन्हीं को मैदान में उतारा जाता है।
राजनीति पार्टियों की इसी सोच की वजह से ही खूंखार हत्यारे, डकैत, माफिया और राष्ट्रद्रोही चेहरे भी संसद की गरिमा पर बट्टा लगाते चले आ रहे हैं। देश के किसी भी दल को अपनी आलोचना बर्दाश्त नहीं होती। मीडिया भी जब उन्हें आईना दिखाने की कोशिश करता है तो वे भडक उठते हैं। उस पर प्रतिबंध लगाने की मांग की जाने लगती है। कांग्रेस इन दिनों न्यूज चैनलो से खफा है। अधिकांश न्यूज चैनलों के चुनावी सर्वेक्षण उसकी लुटिया डूबने का दावा कर रहे हैं। इसलिए देश की सबसे पुरानी पार्टी ने ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाने की मांग कर डाली है। भाजपा गदगद है। चुनावी सर्वेक्षण उसके पक्ष में जो हैं। उसने कांग्रेस पर निशाना साधा है कि कांग्रेस मीडिया के काम में दखलअंदाजी कर रही है। एक लोकतांत्रिक देश में ओपिनियन पोल पर पाबंदी लगाना पूरी तरह से नाजायज़ है। वैसे यह भी सच है कि यदि न्यूज चैनल वाले भाजपा को पिटता हुआ बता रहे होते तो उसके भी तेवर बिलकुल वैसे ही होते हैं जैसे कांग्रेस के हैं...। इस देश की हर पार्टी कपटी और ढोंगियों से भरी पडी है जिन्हें आलोचना, विरोध और सच तो किसी भी हालत में बर्दाश्त नहीं होता। इन्हें वो चेहरे तो अपने जन्मजात दुश्मन लगते हैं जो इनके कट्टर और दमदार विरोधियों की तारीफ करने का साहस दिखाते हैं।

Thursday, October 31, 2013

कैसे-कैसे मंज़र!

ऐन दिवाली से कुछ दिन पूर्व पटना में हुई भाजपा की चुनावी महारैली ने दबे-छिपे खतरों के संकेत दे दिये हैं। यह तो खबर थी कि कई ताकतें नरेंद्र मोदी से खफा हैं। उनकी हुंकार रैली को जिस तरह से बम और बारुद से सलामी दी गयी उससे बिहार सरकार की निष्क्रियता की भी पोल खुल गयी है। नीतीश कुमार सुशासन के दावे करते हैं। उनके सुशासन में एक के बाद एक बमों का फटना, छह लोगों का बे-मौत मारा जाना और लगभग सौ लोगों का घायल होना उनकी घोर लापरवाही और नाकामी को ही दर्शाता है। मोदी की पटना किसी भी हालत में रैली न होने पाए, ऐसा तो नीतीश कुमार शुरू से ही चाहते थे। राजनीतिक शत्रुता तो समझ में आती हैं पर यह सिलसिलेवार धमाकेबाजी कई शंकाएं पैदा करती है। सत्ता के नशे में चूर मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन नजर नहीं आयी। मृतकों और घायलों के प्रति उन्होंने ऊपरी तौर पर ही संवेदना और सहानुभूति दर्शायी। यह निर्मम चेहरा किसी को भी नहीं भाया। क्या राजनीति इंसान को पत्थर से भी गया-बीता बना देती है? उनकी निगाहें सिर्फ और सिर्फ मोदी की हुंकार रैली और उनके भाषण पर टिकी रहीं। तभी तो उन्होंने मोदी के सवालों के सिलसिलेवार जवाब देने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने मोदी को अज्ञानी और हिटलर का अनुयायी घोषित कर तालियां बटोरीं। यकीनन नीतीश अंदर से घबराये हुए हैं। उन्हें मोदी का भय खाये जा रहा है। उन्हीं के प्रदेश की राजधानी में आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन ने जिस तरह का खूनी खेल खेला उससे तो अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनावों पर भी भयावह खतरा मंडराने लगा है। मुख्यमंत्री के दंभी तेवरों से तो यही लगा कि वे बिहार के जन्मजात शासक हैं। वे जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा। अपने राजनीतिक विरोधियों का बिहार की धरा पर कदम धरना भी इन्हें खलता है। उनके इसी रवैये के कारण ही उनकी पार्टी के कुछ नेता भी उनसे काफी नाराज हैं। जेडीयू के मुखर सांसद शिवानंद तिवारी ने तो मुख्यमंत्री के चेहरे का रंग ही उतार दिया। उन्होंने भरी सभा में कहा कि नीतीश जमीनी नेता नहीं हैं। नरेंद्र मोदी ने पिछडे परिवार में जन्म लेकर कडा परिश्रम कर जो मुकाम हासिल किया है उसकी तारीफ की ही जानी चाहिए। हुंकार रैली के दौरान भाषण देते वक्त नरेंद्र मोदी ने शालीनता का दामन छोडने की भूल नहीं की। नीतीश ने तो नरेंद्र मोदी की तुलना जेल में कैद दुराचारी आसाराम से ही कर डाली। उनकी इस सोच ने उनके अंदर छिपे कपटी चेहरे को उजागर कर दिया है। राजनीति इतनी विषैली भी हो सकती है, इसका भी पता चल गया है।
देश के पांच राज्य पूरी तरह से चुनावी रंग में डूब चुके हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा, दिल्ली राजस्थान और मिजोरम में कांग्रेस की सत्ता है। दोनों पार्टियों ने सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकडमों और प्रलोभनों का जाल फेंकना शुरू कर दिया है। दिल्ली में 'आप' पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस की नींद हराम कर दी है। शीला दीक्षित को पता नहीं क्यों फिर से दिल्ली की सत्ता पाने का पूरा भरोसा है। उनके राज में दिल्ली में कितने बलात्कार हुए और कितनी लूटपाट की घटनाएं हुर्इं, इसका तो शायद उन्हें अता-पता नहीं है फिर भी बडी-बडी बातें करने से बाज नहीं आतीं। इसी शीला ने कभी कहा था कि लडकियों को अंधेरा होते ही घरों में दुबक जाना चाहिए। यानी वे उनकी सुरक्षा कर पाने में असमर्थ हैं। दोनों ही पार्टियां लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं कर वही वर्षों पुराना खेल खेल रही हैं। धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति करने में कांग्रेस और भाजपा को महारथ हासिल है। इस जंग में 'आप' के सुप्रिमो अरविंद केजरीवाल की कितनी दाल गल पाती है इस ओर सभी की निगाहें लगी हैं। सभी जानते हैं कि बिना धन-बल के चुनाव लड पाना असंभव है। फिर भी यदि वे जमे-जमाये सूरमाओं को पटकनी देने में कामयाब हो जाते हैं तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं होगा कि इस देश में ईमानदारी की अभी भी पूछ होती है...। जहां-जहां भाजपा की सत्ता है वहां पर कांग्रेस जी-जान लगा रही है कि किसी भी तरह से बिल्ली के भाग्य से छींका तो टूट जाए। वही हाल भाजपा का भी है। वह भी येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस शासित प्रदेशों को अपने कब्जे में लेना चाहती है। सत्ता को पाने और हथियाने का जबरदस्त नाटक चल रहा है। जनहितकारी मुद्दों का कहीं अता-पता नहीं है। कोई पार्टी बिजली मुफ्त देने का प्रलोभन दे रही है तो किसी ने एकाध रुपये किलो में चावल-गेहूं देने का वायदा कर वोटरों को फांसने के लिए अपना-अपना जाल फेंक दिया है। भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी कांग्रेस की धारणा है कि वह दिल्ली में चौथी बार भी चुनाव जीतने की अधिकारी है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आश्वस्त हैं कि मतदाता तीसरी बार भी उन्हीं के गले में विजय की माला पहनाएंगे। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी अपनी चाउरबाबा की छवि को भुनाने की फिराक में हैं। उन्होंने जब छत्तीसगढ की कमान संभाली थी तो प्रदेशवासियों के दिलों में उम्मीद जगी थी कि वे प्रदेश में उद्योग धंधो की कतार खडी कर देंगे। जिनसे लोगों को रोजगार मिलेगा। गरीबी और बदहाली दूर होगी। लोगों को यह भी भरोसा था कि नक्सली समस्या का भी खात्मा हो जायेगा। डॉ. रमन चाउर वाले बाबा बनकर अपनी छवि को चमकाने में तो कामयाब जरूर हुए पर छत्तीसगढ की हालत में कोई खास सुधार नहीं कर पाये। लोगों को औने-पौने दाम पर या फिर मुफ्त में चावल-दाल उपलब्ध करवा कर गरीबी तो दूर नहीं की जा सकती। अब इसका जवाब तो डॉ. रमन ही दे सकते हैं कि उन्होंने मूल समस्याओं के निराकरण की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया? उन्हें इस बात की भी खबर होगी कि नक्सलियों ने उस आतंकी संगठन इंडियन मुजाहीदीन से हाथ मिला लिए हैं, जिसने पटना में बम बिछाकर मनचाहा खूनी कहर ढाया।
वसुंधरा राजे भी राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने के सपनों के घोडे पर सवार हैं। उन्हें यकीन है कि अशोक गहलोत भले ही असली जादूगर हों पर इस बार उनका ही जादू चलने वाला है। प्रदेश की जनता रानी साहिबा को हाथोंहाथ लेने को तैयार खडी है। सत्ता के सिंहासन के लिए बेशुमार आश्वासन बांटते राजनेताओं के भ्रम को अगर कोई तोड सकता है तो वे सिर्फ और सिर्फ मतदाता ही हैं। देखें, इस बार वे क्या करते हैं। जागते हैं या फिर सोये के सोये रह जाते हैं। दरअसल आजकल चुनावी मंचों पर अभिनेताओं की भरमार हो गयी है। फिल्मी अभिनेताओं की तो पूछ रही नहीं, इसलिए नेता ही अभिनेता बन गये हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अतीत की दास्तानें सुनाने में सुकून मिलता है। भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के अभिनय का तो कहीं कोई सानी ही नहीं है। ऐसे बनावटी और दिखावटी दौर में समस्त देशवासियों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 24, 2013

पत्रकार को किसने मारा?

पत्रकारों को तो हिम्मती और दिलेर माना जाता है। हर संकट-कंटक और जुल्म से भिडने का उनमें अभूतपूर्व साहस होता है। उनकी निर्भीक कलम बडे-बडे माफियाओं, जालसाजों और भ्रष्टाचारियों की रूह को कंपा कर रख देती है। यह भी सबको खबर है कि अराजक तत्वों को बेनकाब करने वाले निष्पक्ष पत्रकारों को अक्सर कई जानलेवा तूफानों का सामना भी करना पडता है। भ्रष्ट सत्ताधीशों, अफसरों और राजनेताओं के द्वारा खोजी पत्रकारों को पिटवाये और मरवाये जाने की कितनी ही खबरें पढने और सुनने में आती रहती हैं। फिर भी पत्रकारों का उत्साह कम नहीं होता। पत्रकारीय दायित्व को निभाते हुए समाज के शत्रुओं के साथ उनकी लडाई सतत जारी रहती है। बीते सप्ताह भोपाल के एक पत्रकार की आत्महत्या कर लेने की खबर बेहद स्तब्ध कर गयी। समर्पित कलमकारों को वतन के लुटेरों और धोखेबाजों के द्वारा गोलियों से भून-भूना देने के दौर में एक सजग पत्रकार को जहर पीकर इस दुनिया से विदायी लेनी पडी! यह तो वाकई बेहद चौकाने वाली घटना है।
देश के प्रदेश मध्यप्रदेश की राजधानी के पत्रकार राजेंद्र सिं‍ह राजपूत एक जुनूनी पत्रकार थे। बिलकुल वैसे ही जैसे हर देश प्रेमी पत्रकार होता है। उन्हें कहीं से खबर लगी कि मौजूदा काल में जब देश के लाखों पढे-लिखे नवयुवक नौकरियों की तलाश में मारे-मारे भटक रहे हैं, तब कई शातिरों ने शासन और प्रशासन की आंख में धूल झोंककर अच्छी-खासी सरकारी नौकरियां हथिया ली हैं। वे फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए ऐसे ३०० अफसरों की पुख्ता जानकारी हासिल की जिन्होंने सामान्य वर्ग के होने के बावजूद अनुसूचित जाति के फर्जी प्रमाण पत्र बनवाये और भारत सरकार तथा विभिन्न प्रदेशो में शानदार रूतबे वाली नौकरियां पायीं। यह तो शासन और प्रशासन के साथ बहुत बडी धोखाधडी थी। इसका पर्दाफाश होना बहुत जरूरी था। पत्रकार राजपूत ने सजग पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए अपने अखबार में उन तमाम जालसाजों को नंगा करने का अभियान शुरू कर दिया, जो फर्जी प्रमाण पत्रों की बदौलत मेडिकल आफिसर, इंजिनियर, रजिस्ट्रार, इन्कम टैक्स कमिश्नर, पुलिस और वन अधिकारी आदि-आदि की कुर्सी पर काबिज होकर ऐश कर रहे हैं। योग्य उम्मीदवार जिन्हें नौकरी की दरकार है वे अपनी किस्मत को कोस रहे हैं।
फर्जीवाडा कर अफसरी के मज़े लूटने वाले २५० लोगों के खिलाफ राजपूत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका भी दायर करवायी। उनकी शिकायत पर मध्यप्रदेश शासन की राज्य स्तरीय अनुसूचित जाति छानबीन समिति ने २० सितंबर २००६ को ५६ अधिकारियों, कर्मचारियों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने का आदेश दे दिया। इतना ही नहीं उनके फर्जी प्रमाण पत्रों को राजसात कर दंडात्मक कार्रवाई करने व उनके पुत्र-पुत्रियो के जाति प्रमाण पत्र भी निरस्त कर राजसात करने का आदेश पारित कर पत्रकार राजपूत की खबर पर पूरी सच्चाई की मुहर लगा दी।
राजपूत यकीनन पत्रकारिता के धर्म निभा रहे थे, लेकिन फर्जीवाडा करने वालों की धाकड जमात उनकी जान की दुश्मन बन गयी। उनका अपहरण किया गया। शिकायत वापसी के लिए आवेदन पत्र एवं शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये गये। उनकी पत्नी और बेटी को भी धमकाया गया। मारने-पीटने और फर्जी केस में फंसाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चला दिया गया। आरोपी अफसरों की ऊपर तक पहुंच थी, इसलिए राजपूत की किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुख्य सचिव, डीजीपी, आईजी से लेकर हर पुलिस अफसर और सत्ताधीश की चौखट पर जाकर फरियाद की, कि माई-बाप मुझे बचाओ। फर्जीवाडा करने वाला गिरोह मेरी जान लेने को उतारू है। मेरे खिलाफ अलग-अलग थानों में धोखाधडी के फर्जी केस दर्ज करवा दिये गये हैं। यह तो 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' वाली बात है। मैंने जालसाजों को बेनकाब कर देश की सेवा की है। इन ठगों और लुटेरों को तो जेल में होना चाहिए। पर इनका तो बाल भी बांका होता नहीं दिखता। मैं आखिर कहां जाऊं? सच की लडाई लडने वाला पत्रकार जालसाजों से निरंतर जूझता रहा। न शासन ने उसकी सुनी, न ही प्रशासन ने। सफेदपोश गुंडों की धमकियों और चालबाजियों ने उसका तथा उसके परिवार का जीना इस कदर हराम कर दिया था कि आखिरकार उसे आत्महत्या करने को विवश होना पडा। आत्महत्या करने से पहले उसने २२ पेज का एक सुसाइड नोट भी लिखा, जिसमें उन तमाम बदमाश अफसरों के नाम दर्ज हैं। यकीनन राजपूत कायर तो नहीं था। अगर बुजदिल होता तो इस जंग की शुरुआत ही नहीं करता। दरअसल, उन्हीं जालसाज कायरों ने ही उसकी हत्या की है जिसका उन्होंने बेखौफ होकर पर्दाफाश किया। उन्हें तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। पर उन्हें मौत दे दी गयी। यह कैसी व्यवस्था है? उनकी मौत के बाद मुख्यमंत्री का बयान आया कि पत्रकार के परिवार के लोग मेरे परिवार जैसे ही हैं। मैं इनकी हर तरह से सहायता करने को कटिबद्ध हूं। यह कैसी विडंबना है कि एक जीते-जागते पत्रकार को पूरी तरह से निरीह बनाकर रख दिया गया और उसके मरने के बाद उसके परिवार को दाल-रोटी देने और न्याय दिलाने का आश्वासन दिया जा रहा है! यह ढोंग कब तक चलता रहेगा।

Thursday, October 17, 2013

जैसा बोया, वैसा काटा

अपने आश्रमों में यौन वर्द्धक दवाइयां बनाने और बेचने वाले प्रवचनकार के बेटे को पुलिस तलाश रही है। बेटे पर भी वही आरोप हैं जिनके चलते सौदागर बाप को सलाखों के पीछे जाना पडा है। गहराई से सोचें तो बडी हैरानी होती है। कोई आम बाप-बेटा होते तो ज्यादा आश्चर्यचकित होने की कोई वजह नहीं थी। दोनों शौकीनों पर विश्वास करने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। बाप के अनुयायियों की संख्या तो करोडों में बतायी जाती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या ज्यादा है। यह महिलाएं उसे अपना भगवान मानती रही हैं। कई तो ऐसी भी हैं जिनके पूजाघरों में आसाराम की तस्वीर को खास जगह मिली हुई थी। बेचारी सुबह-शाम नतमस्तक होती थीं। उनकी आस्था और विश्वास को आसाराम ने जो घाव दिये हैं उनका भर पाना असंभव है। देश के दूसरे सच्चे संत भी चिं‍तित और दुखी हैं। एक कुसंत के कुकर्मो ने पूरी की पूरी संत बिरादरी को सिर झुकाने को मजबूर कर दिया है। न पहले कभी ऐसा देखा गया और न ही सुना गया। खबरें चीख-चीख कर बता रही हैं कि आसाराम तो आसाराम, उसका बेटा, बेटी और पत्नी भी ...छल कपट के प्रतिरूप हैं। इनके छलावी संसार में पावन रिश्तों की गरिमा को सूली पर लटकाया जा चुका है। ऐसे में मन में विचार आता है कि यह लोग एक दूसरे से किस तरह से पेश आते होंगे। क्या इन्हें एक दूसरे से निगाह मिलाते हुए कोई शर्म-वर्म नहीं आती होगी? इस देश के किसी भी साधारण परिवार में जब कोई मुखिया व्याभिचार के दलदल में फंस जाता है तो सभी परिजन उससे दूरियां बना लेते हैं। बाप का बलात्कारी होना संतानों को अंतहीन पीडा देता है। बेटियां तो शर्म के मारे पानी-पानी हो जाती हैं। यह भी हकीकत है कि एक सच्चा हिन्दुस्तानी पिता अपने दुराचारी पुत्र की शक्ल देखना भी पसंद नहीं करता। यहां तो सबके सब कीचड में धंसे लगते हैं। बेटा बाप से दस कदम आगे है। बाप ने अपने दुलारे को शिक्षा ही कुछ ऐसी दी कि वह सिर्फ और सिर्फ देहभोगी बनकर रह गया। होना तो यह चाहिए था कि कपटी कथावाचक को पत्नी दुत्कारती और बहन अपने कामुक भाई को लताडती। पता नहीं इनकी ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो यह चुपचाप दुष्कर्मियों की संगी-साथी बनी रहीं।
भारतवर्ष तो एक ऐसा देश है जहां कोई भी वफादार पत्नी अपने बदचलन पति को बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसका बेटा अगर बलात्कारी और घोर व्याभिचारी हो तो उसे अपना जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है। उसके लिए लोगों को अपना मुंह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है। समाज में सिर उठाकर चलने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। चमगादड का सूरमा लगाने वाले आसाराम का तो पूरा परिवार ही मुखौटेबाज लगता है। अपने भक्तों को अनुशासन, शालीनता और मर्यादा का पाठ पढाने वाले आसाराम ने पतन का जो काला इतिहास लिखा है उसे कोई भी शरीफ आदमी पडना नहीं चाहेगा। भोगी और विलासी आसाराम ने जैसा बोया, वैसा ही काटा है। उसकी लम्बी जेल यात्रा के बाद कुकर्मी बेटे का भी जेल जाना तय है। अफीमची आसाराम ने अपने बेटे का नाम नारायण तो रखा पर वह उसे इंसान भी नहीं बना पाया। उसमें ऐसे-ऐसे कुसंस्कार भर दिये कि वह भोगी और विलासी बन सेविकाओं के साथ बलात्कार कर अपनी मर्दानगी दिखाने लगा। तथाकथित संत से शैतान बने बाप-बेटे ने यह भ्रम पाल लिया था कि उनकी लीलाएं हमेशा पर्दे में ढकी रहेंगी। यह तो अच्छा हुआ कि एक बहादुर लडकी सामने आयी और उसने वासना में डूबे बाप-बेटे का काला चिट्ठा खोलकर रख दिया।
आसाराम के प्रवचनों के सम्मोहन के कट्टर कैदियों के अभी भी होश ठिकाने नहीं आए हैं। राम जाने, इस शख्स ने उन्हें ऐसी कौन सी अफीम खिलायी है जो उनका नशा टूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। जैसे-जैसे वक्त बीत रहा है भुक्तभोगियों और प्रत्यक्ष दर्शियो की संख्या बढती चली जा रही है। हवस के पुजारियों ने कितनी नारियों की अस्मत लूटी इसका असली आंकडा तो शायद ही कभी सामने आ पाए। पर क्या यह कम चौंकाने वाली बात है कि आसाराम किसी भी युवती को भोगने से पहले उसे अफीम और अन्य उत्तेजक नशों का गुलाम बनाता था। 'पंचेड बूटी' के आदी एक तथाकथित संत का यह भोगी चेहरा यकीनन भयभीत करता है। पैरों तले की जमीन खिसकने लगती है। आसाराम ने अपने भक्तों के साथ जो अक्षम्य विश्वासघात किया है उसकी तो कभी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था। खुद को कृष्ण-कन्हैया दर्शाते हुए बाप-बेटे भोली-भाली युवतियों को अपनी अंधी और दंभी वासना का शिकार बनाते रहे। अंध भक्त भी अनदेखी कर तालियां बजाते रहे। चढावा चढाते रहे और जाने-अनजाने में अपनी बहू-बेटियो को भोगियों के निशाने पर लाते रहे। किसी ने सच ही कहा है कि पाप का घडा एक न एक दिन भरकर ही रहता है और पापी को अपना मुंह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है। फरेबी आसाराम और उसके परिवार की जो दुर्गति हुई है और एक तथाकथित संत का जो शैतानी चेहरा सामने आया है उससे उन लोगों को यकीनन सबक लेना चाहिए जो मुखौटेधारियों की शिनाख्त किये बिना फौरन उनके अंधभक्त बन जाते हैं। यह उम्मीद भी की जा सकती है कि देश को ऐसे धूर्तो से मुक्ति मिलेगी। आसाराम जैसे सभी पाखंडी जेल में नजर आएंगे...।

Thursday, October 10, 2013

हर भ्रष्ट नेता को भेजो जेल

यह अब किसी शोध का विषय नहीं है। खोज-खबर के लिए यहां-वहां भटकने की भी जरूरत नहीं है। दिग्गज राजनेता खुद-ब-खुद सच उगलने लगे हैं। खुद को तथा अपनी जमात को बेझिझक बेनकाब करने लगे हैं। आज की तारीख में राजनीति सबसे बढि‍या धंधा है। इसके लिए किसी पूंजी की जरूरत नहीं। बस एक खास किस्म के हुनर और चालाकी की दरकार है। जो शख्स किसी उद्योगधंधे के काबिल न हो, जो अच्छा डॉक्टर, वकील, पत्रकार, इंजिनियर बनने से चूक जाए, उसे फौरन राजनीति में कदम धर देने चाहिए। यहां उसकी हर मनोकामना पूरी होने में देरी नहीं होगी। राजनीति में फटेहाल फकीरों को भी अरबों कमाने में देरी नहीं लगती। चालू और चालाक तो सभी को पछाडने की कूवत रखते हैं।
यह पुख्ता विचार हैं कांग्रेस के ही एक उम्रदराज सांसद के, जिनका नाम है चौधरी वीरेंद्र सिं‍ह। यही चौधरी साहब कभी यह रहस्योद्घाटन भी कर चुके हैं कि इसी देश में १०० करोड की दक्षिणा देकर राज्यसभा का सांसद बना जा सकता है। यानी धन के दम पर काले चोर भी लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर में प्रवेश पाकर अपनी मनमानी कर सकते हैं। १०० करोड की लागत लगाकर हजारों करोड की काली कमायी करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। वाइएसआर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष जगमोहन रेड्डी की धन-संपत्ति का डेढ-दो वर्षों में ४०० गुना बढ जाना राजनीति के धंधे के अजब-गजब कमाल को दर्शाने और बताने का जीवंत उदाहरण है। जय हो मेरे निराले देश हिन्दुस्तान की, जहां माया की माया बडी ही अपरम्पार है। देश के प्रदेश झारखंड, जहां आदिवासियों को भूखे पेट सोने को विवश होना पडता है, और बार-बार मरना पडता है, वहां के एक शातिर मुख्यमंत्री ने हजारों करोड रुपये एक ही झटके में समेट लिए। यह बात दीगर है कि उसे जेल भी जाना पडा। उसकी पत्नी उसे बेकसूर बताती रही। मधु कोडा के काले धन पर कोई आंच नहीं आयी। जब वह अदालती चक्करों से मुक्त हो जायेगा तो इसी दौलत की बदौलत राजनीति के मैदान में नये-नये झंडे गाडेगा। उसके चाहने वालों की भीड भी सतत उसके पीछे खडी नजर आयेगी। यही वजह है कि मधु के चेहरे पर कभी भी कोई शिकन नहीं देखी गयी। उसे अपने इस विश्वासघाती दुष्कर्म पर कोई शर्म-वर्म नहीं आयी। वैसे भी जन्मजात भ्रष्टाचारी कभी भी शर्मिन्दगी महसूस नहीं करते। जेल की दीवारों में कैद होकर अपने काले करमों का दण्ड भुगत रहे हरियाणा के ओमप्रकाश चोटाला ने भी यही किया। खुद को देश की एकमात्र सिद्धांतवादी पार्टी मानने वाली भाजपा के येदियुरप्पा ने भी आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही अपनी असली औकात दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। अपने बेटों और दामादों को सरकारी जमीनें कौडी के दाम देकर पार्टी के नाम पर ही ऐसा दाग जड दिया, जिसका मिट पाना असंभव है। औरों से अलग होने का ढोल पीटने वाली भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और नितिन गडकरी ने भी कमल की साख को ही कटघरे में खडा कर दिया है। दलित बंगारू लक्ष्मण का तो भाजपा की राजनीति से लगभग पत्ता ही साफ हो गया, लेकिन गडकरी पार्टी के भावी पी.एम. नरेंद्र मोदी की नैय्या पर सवार होकर चौके-छक्के लगाने की फिराक में हैं। उन्होंने नागपुर से लोकसभा चुनाव लडने की तैयारियां शुरू भी कर दी हैं। जमीनी चुनावी दंगल से कन्नी काटते चले आ रहे गडकरी के लिए आगामी लोकसभा चुनाव किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होगा। अभी से वोटरों को लुभाने के एक सुत्रीय कार्यक्रम में लग चुके गडकरी को कांग्रेस ने पटकनी देने की दमदार योजनाएं बनानी भी शुरू कर दी हैं। जैसे ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बजेगा, ढोल बजाने लगेंगे। चतुर कांग्रेसी 'पूर्ति' के चमत्कारी पन्ने खोलने के अभियान में जुट जाएंगे। इसी का नाम राजनीति है। फिर अपने देश में तो सत्ता और राजनीति के काम करने के अपने ही अंदाज हैं। किसका कब तक उपयोग करना है, कब किसे बेनकाब करना है और किसे कब तक बचाना और छिपाना है, इसके भी तयशुदा फार्मूले हैं। चारा घोटाले में फंसने के बाद भी वर्षों तक लालू प्रसाद यादव का राजनीति और सत्ता में बने रहना क्या दर्शाता है? एक कुटिल घोटालेबाज बिहार की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बडे मज़े के साथ विराजमान रहता है और जब जेल जाने की नौबत आती है तो अपनी अनपढ घरवाली को बिहार की सत्ता ऐसे सौंपता है जैसे मुख्यमंत्री का पद कोई सोने का हार हो जिसे कोई रईस दूल्हा अपनी दुल्हन को पहना कर उसे रिझा रहा हो। लोकतंत्र का इससे भयावह और कोई मज़ाक नहीं हो सकता। लालू प्रसाद जैसे भ्रष्टाचारियों ने हमेशा लोकतंत्र का मजाक ही उडाया है। फिर भी इन्हें जेल की हवा खिलाने में वर्षों लग जाते हैं। देश की जनता राजनीति के सभी भ्रष्टाचारियों को जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहती है। दो-चार को सजा दे दिये जाने से देशवासियों को राहत नहीं मिलने वाली। जितने भी भ्रष्टाचारी हैं, उनकी असली जगह जेल ही है। उन्हें बचाने और छुपाने की तमाम कोशिशें बंद होनी चाहिए। शासन और प्रशासन के पास हर राजनीतिक डकैत की जन्मपत्री है। इसलिए इन डकैतों का खुली हवा में सांस लेना वातावरण को और बिगाडेगा। इनकी देखा-देखी और ठग और लुटेरे पैदा होंगे और देश कभी भी खुशहाली का चेहरा नहीं देख पायेगा।

Thursday, October 3, 2013

साफ-सुथरे लोकतंत्र के हत्यारे

सुप्रीम कोर्ट ने 'राइट टू रिजेक्ट' को मतदाताओं का अधिकार बताते हुए वोटिं‍ग मशीन में इसे एक विकल्प के रूप में शामिल करने को कहा है...। वाकई यह एक ऐतिहासिक फैसला है। जिस काम को अंजाम देने के लिए देश की संसद टालमटोल करती चली आ रही थी, उसे आखिरकार न्यायालय ने कर दिखाया। दरअसल कोर्ट का हुक्मरानों के मुंह पर यह जबर्दस्त तमाचा है। देश के सजग मतदाताओं को इसका वर्षों से इंतजार था। बेचारे वोट देने तो जाते थे, लेकिन जब किसी भी उम्मीदवार को अपने पैमाने पर खरा नहीं पाते थे, तो मायूस हो जाते थे। गुस्सा भी आता था। यह कैसा लोकतंत्र है, जहां खुद राजनीतिक पार्टियां ही दागी और अपराधी चेहरों को जानते-समझते हुए भी चुनावी टिकट दे देती हैं। मजबूरन दागदार प्रत्याशी को मतदान करना पडता है। उनके न चाहते हुए भी गुंडे, बदमाश, चोर-उच्चके और हद दर्जे के भ्रष्टाचारी विधायक और सांसद बन जाते हैं। कई मतदाता तो ऐसे भी होते हैं जो दबंगो और लुटेरो को वोट देने के बजाय घर-परिवार और यार-दोस्तो के साथ छुट्टी मनाते हैं। वे शहर के किसी गुंडे और हत्यारे को मंत्री, मुख्यमंत्री बनाकर लोकतंत्र की आत्मा को लहुलूहान करने के भागीदार होने से बचना चाहते हैं। यही वजह है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिन्दुस्तान में औसतन पचास से पचपन प्रतिशत तक की वोटिं‍ग होती आयी है। इस आधी-अधूरी वोटिं‍ग के चलते ही खोटे सिक्कों की चांदी हो जाती है।
यदि सब कुछ दुरुस्त रहा और राजनीतिक पार्टियों ने कोई चाल नहीं चली तो यह तय है कि मतदाताओ को कई राज्यों में शीघ्र होने जा रहे विधानसभा चुनावों और आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसी इलेक्ट्रानिक मशीनों से मतदान करने का अवसर मिलेगा, जिनमें 'इनमें से कोई नहीं' का बटन भी जुडा होगा। मतदाताओं के इस अभिव्यक्ति के अधिकार से इतना तो होगा ही कि जगजाहिर अराजकतत्वों का पत्ता साफ हो जायेगा। यह बहुत जरूरी है। हर सजग मतदाता को अपने क्षेत्र के प्रत्याशी की पूरी खोजखबर रहती है। मीडिया भी लोगों को जगाने के काम में लगा रहता है। ऐसा भी देखा गया है कि भ्रष्ट और बेइमान लोग कुछ समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों को धन की चमक दिखाकर अपने पक्ष में करने में सफल हो जाते हैं। पेड न्यूज की बीमारी के चलते ऐसे लोग मतदाताओं की आंखों में धूल झोंकने में भी सफल हो जाते हैं। जब से मीडिया पर पूंजीपतियो ने कब्जा जमाया है, तभी से गुंडे बदमाशों की बन आयी है। बेलगाम हो चुके पूंजीपति-मीडिया ने लोकतंत्र के चेहरे को मनमाने तरीके से बदरंग किया है। पूंजीपतियों के अपने स्वार्थ होते हैं। भ्रष्ट राजनेताओं से इनका अंदरूनी गठबंधन होता है। भ्रष्टों को चुनाव में विजयी बनाने के लिए यह लोग पत्रकारिता के उसूलों को नीलाम कर देते हैं। दरअसल, मीडिया की ताकत का दुरुपयोग करने में यह लोग कोई कमी नहीं छोडते। इनका मीडिया के क्षेत्र में आना ही मीडिया के पतन का कारण है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इन्होंने काली कमायी और सत्ता की दलाली का अड्डा बनाकर रख दिया हैं। भ्रष्टाचारियों की आरती गाना और शैतानों को साधु की तरह पेश करना इनका पेशा है। पत्रकारिता की मूल भावना से इनका कोई वास्ता नहीं है। पेड न्यूज के असली जनक यही पूंजीपति ही हैं। चुनावी मौसम में तीर की तरह छोडी जाने वाली खबरें अक्सर मतदाताओं को भ्रम में डाल देती हैं। आज जब मतदाताओं को अपने विकल्प को चुनने का अधिकार मिलने जा रहा है तो भ्रष्ट मीडिया के दिमाग का दुरुस्तीकरण भी बेहद जरूरी है। पर अफसोस की बात यह भी है कि कई अखबारीलाल राज्यसभा के सांसद बन कर सरकार को अपने इशारे पर नचा रहे हैं। पिछले दिनों मीडिया के दिग्गजों के द्वारा कोयले की खदाने हथियाये जाने की पुख्ता खबरों के बाद इस तथ्य का खुलासा हो गया है कि दर्डा और अग्रवाल जैसों की जमात के लोग पत्रकारिता की आड में कैसे गुल खिलाते चले आ रहे हैं।
पूंजीपतियों की तरह ही कुछ राजनेताओं ने भी मीडिया के क्षेत्र में अतिक्रमण कर उसे शर्मनाक सौदेबाजी का अड्डा बना कर रख दिया है। राजनेताओ के अखबार और न्यूज चैनल अपनी-अपनी पार्टी की पूरी बेशर्मी के साथ पैरवी करते हैं। खुद राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देने में दिलेरी दिखाती हैं, जिनके यहां बेहिसाब धन भरा पडा है। यह धन काला है या सफेद इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। धन और बाहुबल को चुनाव जीतने का एकमात्र जरिया मानने वाली राजनीतिक पार्टियों की निगाह में गरीबों और ईमानदारों की कोई कीमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को ऐसी सभी संदिग्ध प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार देकर साफ-सुथरे लोकतंत्र की उम्मीदें जगा दी हैं। इन दिनों जिस तरह से भ्रष्टाचारियों को जेल यात्राओं पर भेजा जा रहा है उससे देश के अच्छे भविष्य की उम्मीदें भी जगने लगी हैं। इसके लिए बधाई और अभिनंदन का पात्र है देश का सुप्रीम कोर्ट, जिसके कारण भ्रष्ट नेताओं के चेहरे का रंग उडता जा रहा है। इस सदी के भ्रष्टतम नेता, चारा घोटाले के नायक लालू प्रसाद यादव को दोषी पाये जाने पर तत्काल जेल भेज दिया गया। यह वही लालू प्रसाद है जो बिहार का सर्वशक्तिमान मुख्यमंत्री और देश का रेलमंत्री रह चुका है। यह लुटेरा देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा था। देशवासियों की किस्मत अच्छी है... कि इसका असली चेहरा सामने आ गया और महाधूर्त के पीएम बनने के मंसूबे धरे के धरे रह गये...। मेडिकल कॉलेज (एमबीबीएस) के प्रवेश घोटाले में दोषी सिद्ध हुए रशीद मसूद को चार साल की सजा सुनायी गयी और जेल में डाल दिया गया है। अब वो वक्त आ गया है जब सजग वोटर राजनीति के भ्रष्ट और अमर्यादित खिलाडि‍यों की मनमानियों और तिकडमबाजियों से मुक्ति पा सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने वोट देने के अधिकार का सजग होकर सदुपयोग करना है...।

Thursday, September 26, 2013

राजनीति के ठेकेदारों की नपुंसकता

कई सवाल वर्षों से जवाब मांग रहे हैं। जवाब नदारद हैं। सरकारें खामोश हैं। प्रशासन ने हाथ बांध रखे हैं। कितना भी खून खराब हो जाए, लाशें बिछ जाएं, नेताओं के कानों पर जूं तक नहीं रेंगती। बेचारा कानून हत्यारों को हाथ लगाने से घबराता है। सज़ा तो बहुत दूर की बात है। आजादी के इतने वर्षों के बाद भी यह कैसा दमघोटू आतंकी अधेरा ही अंधेरा नज़र आता है? हरियाणा के एक गांव में दलित युवक का हाथ काट डाला गया। क्या आपको पता है कि उस युवक का कसूर क्या था? दरअसल उसने एक धनवान किसान के खेत में रखे मटके को छूने की हिमाकत की थी। उसे प्यास लगी थी। उसने मटके से पानी पी लिया। उसी दौरान एक दबंग युवक उसके पास आया। उसने उसकी जाति पूछी। जैसे ही उसने खुद को हरिजन बताया तो युवक का खून खौल उठा। एक हरिजन की इतनी हिम्मत! हमारे मटके का पानी पीने का साहस दिखाए। गुस्साये किसान के बेटे ने उसे सबक सिखाने की ठानी। इधर-उधर नजर दौडायी। साइकिल में लगी दरांती निकाली। हरिजन युवक का हाथ ऐसे काट डाला जैसे किसी पेड की सडी टहनी को काटा जाता है। हरियाणा में ऐसा होना आम बात है। कुछ ही खबरें मीडिया में सुर्खियां पाती हैं। अधिकांश खबरों को जहां का तहां दफन कर दिया जाता है। गांव-कस्बों के पत्रकार दबंगों के खिलाफ कलम चलाने से घबराते हैं। नेताओं और समाजसेवकों की संदिग्ध भूमिका भी दबंगों के हौसले बढाती रहती है। आज भी देश के प्रदेश हरियाणा, पंजाब, उत्तरप्रदेश और बिहार में दलितों को इंसान की निगाह से नहीं देखा जाता। उनके साथ जानवरों से भी बदतर व्यवहार किया जाता है। प्रेमी जोडों के प्रति भी कुछ ऐसे ही हालात हैं। यह भी एक किस्म की छुआछूत की बीमारी है। प्रेमियों को पकड-पकड कर मौत के घाट उतार दिया जाता है। हरियाणा में तो ऐसे बदतर हालात हैं कि लगता ही नहीं कि हम इक्कसवीं सदी में रह रहे हैं। इस प्रदेश में खाप पंचायतें देश के कानून को कुछ समझती ही नहीं। इनका अपना कानून है। खाप पंचायत के फरमान की अनदेखी करने वाले प्रेमियों को कुत्ते से भी बदतर मौत की सौगात देने का चलन है। खाप पंचायत का तथाकथित कानून एक ही समुदाय एवं गांव में शादी की अनुमति नहीं देता। ऑनर किलिं‍ग यानी झूठी शान के लिए क्रूरतम हत्याओं को अंजाम देना आम बात है। इस आधुनिक दौर में भी हर वर्ष सैकडों प्रेमियों को इसलिए मार डाला जाता है, क्योंकि वे समाज और अपने परिवार की इच्छा के खिलाफ प्रेम और शादी करने की हिम्मत दिखाते हैं।
दलितों और प्रेमियों का एक जैसा हश्र करने वाले हरियाणा के रोहतक शहर में बीते सप्ताह झूठी शान के लिए एक युवक और युवती की निर्मम हत्या कर दी गयी। धर्मेंद्र और निशा का यही दोष था कि उन्होंने सच्चा प्रेम किया था। वे दोनों शादी करना चाहते थे। एक साथ जीना चाहते थे। पर उनके घरवाले कतई नहीं चाहते थे कि वे जीवनभर के लिए एक दूसरे के हो जाएं। यह दोनों प्रेमी इतने फटेहाल थे कि धन के अभाव में आर्य समाज मंदिर में शादी नहीं कर पाए। उनकी दिली इच्छा तो यही थी। धर्मेंद्र ने शादी के लिए कुछ रुपयों के लिए अपने गांव के दोस्त को फोन किया। धर्मेंद्र का दोस्त उस वक्त निधि के घर पर ही बैठा था। घर वालों को उनकी असली मंशा का पता चल गया। उन्होंने उसी दोस्त के माध्यम से प्रेमी जोडे को राजीखुशी शादी करवा देने का झांसा देकर बुलवाया और खात्मा कर दिया। इस खौफनाक हत्याकांड को अंजाम देने में युवती के परिजनों ने जो निर्मम भूमिका निभायी उससे बडे से बडे दिलवाला इंसान भी विचलित हो सकता है। ऐसे मामलों में पुरुषों को तो क्रूर कर्म करने का आदी माना जाता है, लेकिन एक मां के बेरहमी भी बेनकाब हो गयी। युवती की मां चीख-चीख कर हत्यारों का मनोबल बढाती रही और यह कहती रही कि इस कलमुंही ने पूरे परिवार की इज्जत पर बट्टा लगाया है। इसे जीने का कोई हक नहीं है। यह ऐसी मौत की हकदार है जिसे देखकर कोई भी बेटी घर से बाहर झांकने और परिवार की नाक कटवाने की जुर्रत न कर पाए। निर्मोही मां की आंखों के सामने एक मासूम बेटी की गर्दन धड से अलग कर दी गयी। प्रेमी युगल की चीखें गूंजती रहीं पर किसी को रहम नहीं आया। आसपास के लोगों ने भी उन्हें बचाने की बजाय हत्यारों का पूरा-पूरा साथ देने की नपुंसकता दिखायी। यह वही नपुंसकता है जो दलितों पर जुल्म ढाये जाने पर लोगों की चुप्पी में नजर आती है और इसी नपुंसकता की वजह से देश में बलात्कारों की संख्या को गिन पाना मुश्किल होता चला जा रहा है। देश के प्रदेशों में होने वाले आतंकी हमले और साम्प्रदायिक दंगे भी इसी मूक हिजडेपन की देन हैं।
यह कितनी हैरत की बात है कि इज्जत के नाम पर होने वाली अधिकांश हत्याओं में कभी लडके तो कभी लडकी के पूरे परिवार की सहमति होती है। कभी-कभी तो लडके और लडकी के परिवार वाले मिलकर ही मर्जी से विवाह करने के इच्छुक या सगोत्रीय प्रेमी जोडों को मौत की नींद सुला देते हैं। स्थानीय नेताओं की चुप्पी तो समझ में आती है पर मुख्यमंत्री की कुर्सी संभालने वाले दिग्गज उम्रदराज नेता भी आनर किलिं‍ग की वकालत करते नजर आते हैं।
प्रा. दामोदर मोरे की कविता में उठाये गये प्रश्न पता नहीं कब तक उत्तर की बाट जोहते रहेंगे :
''मुझे बताओ! हमारे लिए
जातिवाद का जाल कौन बिछाता है?
हमारी राह पर ऊंच-नीच का गतिरोधक
कौन और क्यों खडा करता है?
अज्ञान के अंधियारे में हमें कौन ढकेलता है?
अन्याय की आग में हमें कौन जलाता है?
अस्पृश्यता की नागिन को,
हमारे आंगन में किसने छोडा है?
हमें हीन बनाकर इन्सानियत का गला किसने घोटा है?''
दलितों के दुश्मनों और इज्जत की खातिर अपनी ही संतानों के हत्यारों की अक्ल अगर समय रहते ठिकाने नहीं लगायी गयी तो भविष्य में और...और होने वाले अनर्थ की कल्पना कर यह कलम कांप उठती है। अब तो होश में आओ हुक्मरानों और राजनीति के ठेकेदारो... कब तक वोटों के लालच में अंधे और बहरे बने रहोगे?

Thursday, September 19, 2013

विषैला काला चोलाधारी

दिल्ली में हुए सामूहिक दुष्कर्म के चार अपराधियों को मौत की सजा सुना दी गयी। देश भी तो यही चाहता था। जैसी क्रुरता, वैसी सज़ा। लेकिन इसी देश में कुछ लोग ऐसे भी हैं जिन्हें यह सज़ा रास नहीं आयी और ऐसी मिर्ची लगी कि तमतमाकर रह गये। वैसे यह अच्छा हुआ। काले कोटधारी का भी काला सच सामने तो आया। उस दोपहर ढाई बजे माननीय जज ने जैसे ही चारों दरिंदों को फांसी की सज़ा सुनाई तो पूरे कोर्टरूम में तालियां बज उठीं। जज का यह कहना था कि अपराधियों ने क्रुरता की सारी सीमाएं तोड दीं। यह ऐसा अपराध है, जिसने समाज को हिलाकर रख दिया। ऐसे में अदालत आंख मूंदे नहीं रह सकती। समाज में सख्ती का संदेश जाना जरूरी है। इस खुशी और तसल्ली के माहौल में एक व्यक्ति ऐसा भी था जो गुस्से के मारे फडफडा रहा था। यह शख्स था बलात्कारियों का वकील, जिसका नाम है एस.पी.सिं‍ह। माननीय जज के द्वारा फैसला सुनाये जाने के बाद इस वकील ने गुस्से में जोर से मेज पर हाथ मारा। आंखें तरेरीं और जब जज बाहर जाने लगे तो यह महाशय चीखे -'यह सरासर अन्याय है। जज साहब आपने सत्यमेव जयते की जगह झूठमेव जयते का परचम लहराकर न्याय का गला घोटने का संगीन अपराध किया है।'
बलात्कारियों को सज़ा सुनाने वाले जज पर उंगलियां उठाने वाले बचाव पक्ष के इस वकील ने निर्भया के चरित्र पर भी अपने अंदाज से शर्मनाक तीर चलाये। उसने आपत्तिजनक बयान देकर देश और दुनिया को स्तब्ध कर डाला : ‘अगर मेरी बेटी इस तरह से किसी दोस्त के साथ फिल्म देखने जाती और रात में उसके साथ घूमती-फिरती तो मैं उसे अपने फार्म हाऊस में लाकर परिवार के सामने पेट्रोल छिडकर आग लगा देता।' दरअसल एस.पी.सिं‍ह नामक यह वकील उन लोगों का मुखिया है जो औरत को गुलाम समझते हैं और हिकारतभरी सोच रखते हैं। दरअसल, यह लोग रहते तो इक्कासवीं सदी में हैं पर इनकी मंशा पूरी की पूरी तालीबानी है। इनकी निगाह में महिलाएं ही व्याभिचारी हैं और पुरुष देवता। यही लोग पुरुष को तो खुले सांड की तरह विचरण करने की छूट देने की पैरवी करते हैं, लेकिन औरतों को अपने-अपने घरों के पिं‍जरों में कैद देखना चाहते हैं। यह कतई नहीं चाहते कि नारी पढे-लिखे और पुरुष की बराबरी करने का साहस दिखाए। इन्हें नारी की स्वतंत्रता शूल की तरह चुभती है। इनकी यही मंशा रहती है कि बहू-बेटियां इनके इशारों पर नाचें। भूल से भी बाहर न ताकें। यह अपने परिवार का एकमात्र सुप्रीमों कहलाना पसंद करते हैं। कथावाचक भी अपने प्रवचनी और आश्रमी संसार का सुप्रीमो है। सुप्रीम को एक नाबालिग के साथ दुष्कर्म करने में कोई लज्जा नहीं आयी। हर सुप्रीमो बेलगाम और लज्जाहीन हो जाता है। गलियों, सडकों-चौराहों और जलसों-जलूसों में छाती तानकर अहंकारी भाषा में भाषणबाजी करता है।
अपने घरवालों पर दुशासन करते-करते उद्दंड सुप्रीमो के हौसले बुलंद हो जाते हैं। इनकी गुंडागर्दी और दादागिरी इस कदर बढ जाती है कि आसपास के लोगों के साथ-साथ पूरे समाज में अपनी धाक जमाने में लग जाते हैं। जो इनकी नहीं सुनते, उन्होंने ठिकाने लगाने में भी यह देरी नहीं लगाते। यही लोग आनरकिलिं‍ग को बढावा देते हैं। इस किस्म के समाज सुधारकों और तथाकथित चरित्रवानों ने यह धारणा बना रखी है कि रेप के लिए सिर्फ और सिर्फ लडकियां ही जिम्मेदार होती हैं। उनका पहनावा अच्छे-भले इंसानों की नीयत को डांवाडोल कर देता है। शरीफजादो को अर्धनग्न युवतियां खुद-ब-खुद आमंत्रण देती हैं। बाद में शोर मचाती हैं। रूढि‍वादी और विषैली सोचवाले ऐसे लोग चाहते हैं कि युवतियां बंद गले के कपडे पहनें। उनके जिस्म का कोई भी हिस्सा दिखना नहीं चाहिए। इनकी निगाह में लडकियों की लडकों से दोस्ती बलात्कार की जननी है। जिन महिलाओ को अपनी अस्मत को बचाये रखना हो उन्हें न तो मॉडर्न कपडे पहनने चाहिए और न गैर पुरुषों के निकट जाना चाहिए। दोस्ती-यारी से तो कोसों दूर रहना चाहिए। यह देश अभी उतना विशाल हृदयी नहीं हुआ है जितना कि समझने की भूल की जा रही है। लडकियों को अपनी पसंद के ही लडकों से भूलकर भी शादी नहीं करनी चाहिए। यानी लव मैरिज भी घोर अपराध है। मां-बाप जिससे बांधे उसी को स्वीकार कर लेना चाहिए। किसी भी युवक से बात करने से पहले अपने परिवार के बडे-बुजुर्गों की राय और अनुमति भी अवश्य लेनी चाहिए। हिं‍दु संस्कृति का संरक्षक होने का दावा करने वाले इन चेहरों का मानना है कि नारियों को सीता को अपना आदर्श मानते हुए सति-सावित्री की तरह जीवन जीना चाहिए। अपने पति-परमेश्वर की तमाम रावणी प्रवृतियों को भी हंसते-खेलते झेलने की आदत डाल लेनी चाहिए...। ऐसा होने पर ही उनकी बेटियां पथभ्रष्ट होने से बच पायेंगी। सच तो यह है कि अपनी संतानो को विचारहीनता और संकीर्णता के दमघोटू वातावरण में सांसें लेने को विवश करने वाले ऐसे लोगों के दम पर ही खाप पंचायतें बेलगाम हैं और खुद को कानून से ऊपर मानती हैं। मनमाने फैसले सुनाकर सच्चे प्रेमियों की जानें तक ले लेती और दंगे करवाती हैं। कहीं न कहीं शासन और प्रशासन भी इनकी अनदेखी कर देता है। मामला वोटों का है इसलिए हुक्मरान भी चुप्पी साधे हैं...।

Thursday, September 12, 2013

मायावी संतों की ठगी के हैं बहुतेरे हिस्सेदार

यह अच्छा हुआ। जैसे-तैसे सच बाहर तो आया। आसाराम को भगवान मानने वालो का भ्रम तो टूटा। कई अंध भक्त अभी भी जागना नहीं चाहते। पता नहीं उनकी कौन-सी मजबूरियां हैं? यह शख्स हद दर्जे का सौदागर है। अपने भक्तों के साथ भी सौदेबाजी करना इसकी फितरत है। जिस किशोरी के साथ इसने दुराचार किया उसी के पिता ने इसका मुखौटा उतार डाला। वह अपना माथा पीटने को विवश है। उसे तो इस ढोंगी को बहुत पहले ही पहचान लेना चाहिए था। अंधश्रद्धा अंधेर का कारण बन गयी। बिटिया के भविष्य पर सवालिया निशान लग गये। पछतावे की आग में जलते पिता को बार-बार उस दोपहरी की याद हो आती है जब शातिर आसाराम ने अपने अनुयायियों की उपस्थिति में चुटकी बजाते हुए उससे कहा था कि बोल तुझे कितने रुपये चाहिए। अपने अराध्य के सवाल के पीछे छिपी महा दगाबाजी को वह समझ ही नहीं पाया था। उसे तो यही लगा था कि वे उसे उसकी गुरूभक्ति से प्रसन्न होकर पुरस्कृत करना चाहते हैं।
आसाराम ने तब यह कहा भी था कि यह मेरा सच्चा भक्त है। सच्चे भक्त के साथ ऐसा सलूक! समर्पित भक्त की बेटी पर भी रहम नहीं आया। कभी भी न मिटने वाले दंश और दाग दे डाले! कहावत है... 'डायन भी एक घर छोड देती है।' आसाराम से यह भी नहीं हो पाया! पीडि‍त किशोरी का भाई कहता है कि मैंने तो अपने पिता को कई बार मना किया था। अंधभक्त पिता माने ही नहीं। अपने अच्छे-खासे ट्रांसपोर्ट के व्यवसाय को नजर अंदाज कर आसाराम की सेवा में लगे रहे। पैसा और समय बर्बाद करते रहे। आसाराम का असली चेहरा सामने आते ही भाई का दिल दहल उठा। गुस्से के मारे वह पागल हो उठा। यह अंतहीन गुस्सा ही है जिसकी वजह से आसाराम के कृत्य से आहत किशोरी ने राज्य महिला कल्याण निगम की अध्यक्ष लीलावती के समक्ष अपने इरादे स्पष्ट करने में कोई संकोच नहीं किया। जब उससे यह पूछा गया कि अगर कानूनी लडाई लडते-लडते तुम्हारे पिता ने अपने घुटने टेक लिए तो तुम क्या करोगी? तमतमाई किशोरी का जवाब था : 'तब मैं इस वहशी बाबा को खुद गोली से उडा दूंगी। इस बाबा ने न जाने कितनी बेटियों के जीवन को बर्बाद किया है। जब तक इसे अपने दुष्कर्मों की सजा नहीं मिलेगी, मैं चैन से नहीं बैठूंगी।' क्रोध और अपमान की आग में झुलसी किशोरी की अथाह पीडा को उसके इस कथन से भी समझा और जाना जा सकता है : 'वह रात मेरे जीवन की भयावह काली रात थी...। ताउम्र नहीं भूल पाऊंगी वह घिनौना खेल जो मुझ पर कहर बनकर टूटा। आसाराम ने हमारे तमाम सपने चूर कर दिए। ऐसे वासनाखोरों को सबक सिखाने के लिए मैंने आईएस बनने की ठान ली है। कभी मेरा इरादा सीए बनने का था।'
आसाराम को जेल भेजे जाने के बाद कई लडकियां और भी सामने आयीं, जिनपर उसने गलत नजर डाली थी और अश्लील व्यवहार किया था। यह सिलसिला और लंबा चलने वाला है। लोगों की आस्थाओं के साथ खिलवाड करने वाले इस शख्स ने इतिहास ही कुछ ऐसा रचा है। इस काले इतिहास के कई पन्ने खुलने के बाद भी उसके कई भक्त ऐसे हैं जिन्हें यकीन ही नहीं हो रहा है। उनके लिए आसाराम आज भी भगवान हैं। इस घोर विवादास्पद भगवान के आश्रमों में चलने वाले गोरखधंधों और वहां के शाही ठाठबाट के नजारें भी कम हैरान करने वाले नहीं हैं। स्वयंभू संत के चेलों का आक्रामक होना भी बेहद चौंकाता है। कई आश्रमों पर चेलों ने पहरेदारी करनी शुरू कर दी है। मीडिया को देखते ही वे दादागिरी दिखाये लगते हैं। सभी आश्रमों में मीडिया का प्रवेश निषेध कर दिया गया है। फिर भी मीडिया वाले पहुंच ही जाते हैं। जबलपुर के आश्रम के मुख्य द्वार पर चेलों ने ताले जड दिये और यह गुरुमंत्र बुदबुदाते नजर आये : 'बापू हमारे बाप हैं, उनके खिलाफ मीडिया जो कर रहा है उसके कारण मीडिया का आश्रम में प्रवेश सख्त निषेध कर दिया गया है।' जब कुछ पत्रकार वहां पहुंचे तो उन्हें धमकाया-चमकाया गया : 'तुम लोग बापू की ताकत से वाकिफ नहीं हो इसलिए इतना शोर-शराबा कर रहे हो। हमारे बापू भी पत्रकार और सम्पादक हैं। उनके सम्पादन में कई पत्र-पत्रिकाओं का प्रकाशन होता है। पत्रिका 'ऋषिप्रसाद' का सर्कुलेशन लाखों में है। अकेले जबलपुर में ही इसके १६ हजार स्थायी ग्राहक हैं, जो तन, मन और धन से बापू के साथ हैं। ऐसे में आप लोग खुद अंदाजा लगा लिजिए कि इसी शहर में एक आवाज पर कितने लोग इकट्ठे हो सकते हैं और आप लोगों का दिमाग दुरुस्त कर सकते हैं।'
आसाराम के दम पर मालामाल हुए सेवक उसके लिए कुछ भी करने को तैयार दिखते हैं। शिवा नामक सेवक के पास २०० करोड की सम्पत्ति का होना इस रहस्य से पर्दा हटाने के लिए काफी है कि कुछ भक्त अपने 'देवता' के प्रति इतने समर्पित क्यों हैं। नागपुर, मुंबई, दिल्ली, छिं‍दवाडा, इंदौर, जबलपुर, जोधपुर आदि शहरों में आसाराम के आशीर्वाद से मालामाल हुए ऐसे सेवकों की सहज ही शिनाख्त की जा सकती है। जो आसाराम के मोटे-मोटे चंदों, फंदों, प्रवचनी कार्यक्रमों और आश्रमों की बदौलत फर्श से अर्श तक जा पहुंचे हैं। यह भी सच है कि इस किस्म के स्वार्थी भक्तों की बदौलत ही आसाराम भौतिक सुख-सुविधाओं का ऐसा विशाल साम्राज्य खडा करता चला गया, जिसकी सच्चाई बेहद विस्मित करने वाली है। बीते शनिवार को इंदौर के खंडवा रोड स्थित आसाराम के आश्रम का भव्यतम नजारा जगजाहिर हो गया। यह भी स्पष्ट हो गया कि जब भी उस पर कोई संकट आता तो वह इंदौर की दौड क्यों लगाता है। आसाराम जिस कुटिया में एकांतवास करता रहा उसकी भव्यता बडे-बडे रईसों के बंगलों को मात देती है। यह आलीशान कुटिया करीब पांच हजार वर्गफीट में बना ढाई मंजिला सर्व-सुविधायुक्त बंगला है, जहां आसाराम और उसके लाडले नारायण साई की रासरंग भरी लीलाएं चलती थीं। कुटिया में बना स्वीमिं‍ग पूल पिता-पुत्र के मौज मनाने के तौर-तरीकों का भी पर्दाफाश करता है। अब निर्णय लेने का सटीक वक्त आ गया है। देश में जहां-जहां आसारामों, सुधांशु महाराजों, नित्यानंदो और इच्छाधारियों जैसे मुखौटेधारियों ने आश्रमों, स्कूलों और कुटियाओं के नाम पर सरकारी जमीनें पायी हैं और अवैध कब्जे किये हैं उन पर फुटपाथ पर रहने वाले गरीबों को बसाया जाए। दिखावटी साधु-संतों को सरकारी खैरातें मिलनी बंद होनी चाहिए। यह कहां का इंसाफ है कि सफेदपोश ठगों को अरबों-खरबों की ऐसी जमीनें मुफ्त में दे दी जाएं जहां हजारों-लाखों बेघरों को बसाया जा सकता है और उन्हे खुले आसमान के आंधी-पानी और तमाम मुसीबतों से निजात दिलायी जा सकती है। यह तो सरासर अन्याय है। लोकतंत्र का अपमान है। धोखेबाजी है। अब इसे और बर्दाश्त नहीं किया जाना चाहिए। अगर मायावी संतों की जमीनें गरीबों और असहायों को नहीं दी जातीं तो रास्ते और भी हैं। सजग जरूरतमंदों के लिए इशारा ही काफी है। जब सीधी उंगली से घी न निकले तो उंगली टेडी करने में कोई हर्ज नहीं है...।

Thursday, September 5, 2013

इतने बुरे दिन...?

आसाराम ने हाथ-पैर तो खूब मारे पर बात बन नहीं पायी। आखिरकार उसे जेल जाना ही पडा। जेल जाने से पहले उसने कई नाटक किये। क्या कुछ नहीं कहा। धमकियां देने से भी बाज नहीं आया चतुर-चालाक कथावाचक। शासन और प्रशासन को डराता रहा। अपने अंधभक्तों को भी भडकाता रहा। पहले कहा कि एकांतवास के लिए जेल है अच्छी जगह। फिर बोल फूटे कि जेल भेजा गया तो शरीर त्याग दूंगा। जेल के अन्न-जल को हाथ भी नहीं लगाऊंगा। पुलिसिया पूछताछ में यह सवाल भी दागा कि पोती जैसी शिष्या के साथ एकांतवास गुनाह है क्या? अपनी गिरफ्तारी से ऐन पहले उसने राजस्थान सरकार को खुली धमकी दे डाली : मदहोश सरकार होश में आओ। ध्यान रखो कि कुछ ही महीने बाद प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। कोई आलाकमान तुम्हें बचा नहीं पायेगा। दुनिया के १६७ देशों में मेरे अनुयायियों की भरमार है। देश भर में फैले मेरे चार करोड भक्त तुम्हारा बाजा बजा सकते हैं। मुझे फंसाओगे तो हर हाल में चुनाव हार जाओगे। किसी फकीर को परेशान करना ठीक नहीं है।
खुद को कानून और अदालत से ऊपर समझने वाला आसाराम आखिर तक लुका-छिपी का खेल खेलता रहा। पीडि‍ता को लेकर द्विअर्थी टिप्पणी-दर-टिप्पणी भी जारी रही। दुनिया को नैतिकता का पाठ पढाने वाले वाचक ने नैतिकता की धज्जियां उडाकर रख दीं। आसाराम पर सरकार और राजनीतिक पार्टियां हमेशा मेहरबान रहीं हैं। इस बार भी उसे यकीन था कि अकूत दौलत और प्रभावशाली शिष्य उसके रक्षाकवच साबित होंगे। आसाराम के एक पुराने साथी जिनका नाम राजू चांडक है, कहते हैं कि उन्होंने राजस्थान में आसाराम को एक महिला के साथ संभोग करते देख लिया था, तभी से उससे घृणा हो गयी। ऐसे और भी कई आंखों देखे किस्से हैं। अहमदाबाद के कई लोगों का दावा है कि यह महापुरुष १९५९ में शराब का धंधा करता था। इसने शराब पीकर परशुराम नाम के व्यक्ति के साथ मिलकर एक व्यक्ति की हत्या कर दी थी। यह वही आसाराम है जिसपर अहमदाबाद में ही १६ मामले दर्ज हैं। तंत्र साधना के लिए दो बच्चों की बलि देने और आश्रम के नाम पर सीधे-सादे लोगों की जमीने हडपने वाले इस शख्स ने आसुमल से आसाराम बापू तक का सफर जिस चालाकी के साथ तय किया उसका भी भंडाफोड हो गया है। कभी शराब का कारोबार करने वाले आसाराम की सौदागर प्रवृति का इससे बडा सबूत और क्या हो सकता है कि उसने अपने अनुयायियों की संख्या बढने के साथ-साथ अपने धंधो में भी विस्तार करना शुरू कर दिया। पहले आयुर्वेद की दवाओं का कारोबार फैलाया। फिर तरह-तरह के साबुन, शैम्पू, अगरबत्ती, फलो के जूस और पत्र-पत्रिकाओं की दुकानें सजाने और जमीने हथियाने का कीर्तिमान रच डाला।
आसाराम ने अपने धर्म के धंधे को जमाने के लिए एक किताब भी लिखी जिसका नाम है गुरुभक्ति। इस किताब में चतुर आसाराम ने अपने चेलों को सुझाया कि गुरू से कभी भी सवाल-जवाब मत करो। गुरू गलत हो तब भी चुप्पी साधे रहो। इतना ही नहीं उसने अपने शिष्यों को चेताया कि यदि शिष्य गुरू से सवाल-जवाब करता है या फिर गुरू के आदेशों की अवहेलना करता है तो उसके बुरे दिन आने में देरी नहीं लगती। एक दिन ऐसा भी आता है जब वह अपार कष्टों के तूफानों में घिर कर रह जाता है। आसाराम ने इस किताब में यह नसीहत भी दे डाली कि गुरू के आलोचकों के खिलाफ हिं‍सात्मक होना अपराध नहीं है। यानी गुरू जो कहे, जो करे, वही सही। बाकी सब बेकार और गलत। बहादुर आसाराम ने अपने सैनिकों का मनोबल बढाने के लिए यह भी लिखा कि यदि आलोचक दूसरे धर्म का हो तो उसकी जीभ तक काट डालो। नाबालिग से दुष्कर्म करने के पुख्ता आरोप के चलते जैसे ही स्वयंभू संत आसाराम की गिरफ्तारी हुई तो उसके चेले-चपाटे भडक उठे। नई दिल्ली रेलवे स्टेशन पर एकत्रित होकर ट्रेनें रोक दीं। पीडि‍त लडकी के पिता को आसाराम के समर्थकों ने धमकी दी कि उनके गुरू के खिलाफ सीबीआई की जांच की मांग करने से बाज नहीं आए तो उनकी सात पुश्तें बर्बाद कर दी जाएंगी। खाकी वर्दी को भी खरीदने की कोशिश की गयी। इतना ही नहीं आसाराम के कई अंध-भक्त जोधपुर के अलग-अलग स्थानों पर मीडिया कर्मियों को मार-पीट, शांति भंग और धरना प्रदर्शन कर गिरफ्तार हुए और फिर अदालत के आदेश पर जेल भेज दिये गये, जहां आसाराम कैद हैं। उनकी इस गिरफ्तारी का एकमात्र मकसद अपने भगवान के निकट रहना और उनकी भरपूर सेवा करना है। इस महागुरु की गिरफ्तारी के बाद यह खुलासा हो गया है कि वे लडकियों से अकेले में मिला करते थे। यह उनका शौक था। बाबा रामदेव ने आसाराम का कांड सामने आने के बाद साधु-संतो को तुरंत यह सलाह दे डाली कि वे महिलाओं से एकांत में मिलने से बचें। काश! बाबा ने यह सुझाव पहले दिया होता तो कम से कम आसाराम को इतने बुरे दिन तो न देखने पडते...।

Thursday, August 29, 2013

नर-भेडि‍यों पर रहम क्यों?

पहले आप यह खबर पढ लें...
नई दिल्ली से पुणे जा रही इंडिगो की उडान में एक महिला ने अपने पति की धुनाई कर दी। लात और घूसों से पति परमेश्वर की पिटायी करने वाली महिला का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा था। वह चिल्ला-चिल्लाकर यात्रियों को बता रही थी कि इस कुकर्मी ने तो अपनी बेटी तक को नहीं बख्शा। यह वो दरिंदा है जिसे अपनी बेटी की अस्मत लूटने में कोई शर्म नहीं आयी। जब विमान में सवार यात्रियों और हवाई सुंदरियों ने महिला को ठंडा करने की कोशिश की तो उसका पारा और ऊपर चढ गया। उसकी तमतमाती पीडा इन शब्दों में मुखरित हो उठी- 'यह इंसान दिखने में तो बडा सीधा-सादा है। लेकिन इसकी घिनौनी हरकतें शैतान को भी मात देने वाली हैं। बेटी के साथ दुराचार करने वाला यह वहशी बाप कहलाने का भी हकदार नहीं है। खुद की बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाने वाले इस नीच शख्स को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।' सुरक्षा रक्षकों ने जैसे-तैसे उस गुस्सायी मां को अलग सीट पर बिठाया। फिर भी वह गाली-गलोच कर अपनी भडास निकालती रही। पति पूरे सफर के दौरान चुपचाप सिर झुकाए बैठा रहा। दुनिया की कोई भी मां अपनी दुलारी बिटिया के साथ अशोभनीय व्यवहार बर्दाश्त नहीं कर सकती। फिर बलात्कार तो ऐसा पाप है जो जननी की रूह तक को कंपा और रूला कर रख देता है और वह चंडिका बनने में भी नहीं सकुचाती।
वैसे तो हर मां-बाप को बेटियां जान से प्यारी होती हैं। कुछ बाप ऐसे भी होते हैं जिनकी वासना उन्हें हैवान बना देती है। जहां आस्था और विश्वास के रिश्ते कलंकित होने लगते हैं वहां मानवता तो क्या देवी-देवताओं पर से भी विश्वास उठने लगता है। इंसानों और पशुओं में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। देश के विख्यात कथा वाचक आसाराम पर देश की एक बेटी ने दुराचार का आरोप लगाया है। ७५ साल के तथाकथित संत के हाथों छली गयी बालिका की अंतहीन पीडा को झुठलाने की साजिशें की जा रही हैं। कोई भी लडकी बेखौफ होकर किसी बडी हस्ती पर ऐसे आरोप नहीं लगा सकती, जैसे आसाराम पर लगे हैं। देश की इस बहादुर नाबालिग बिटिया का कहना है कि बापू अनुष्ठान के बहाने उसे जोधपुर में मणाई स्थित आश्रम में पिछले दरवाजे से अपने कमरे में ले गये थे। उस समय अनुष्ठान के भ्रम में उसके माता-पिता कमरे के बाहर प्रार्थना कर रहे थे। वह तो आसाराम के पास जाना ही नहीं चाहती थी। परिवार वालों की अंधभक्ति ने उसे मजबूर कर दिया और वह तमाशा बन गयी। आसाराम के अंधभक्तों को १६ साल की लडकी छल-कपट और झूठ का प्रतिरूप लग रही है और उम्रदराज गुरू पूरी तरह से सीधा, सच्चा और पाक-साफ। कोई इन भक्तों से पूछे कि यदि उनकी बेटी के साथ ऐसा कुछ हुआ होता तो क्या तब भी वे चुप रह जाते। बापू के साथ खडे रह पाते? यह तो अच्छा हुआ कि लडकी बहादुर निकली। कमजोर होती तो आत्महत्या कर लेती और पूरे देश में हंगामा हो जाता। अपने देश में जिन्दा लोगों की उतनी नहीं सुनी भी जाती। स्वामी नित्यानंद के व्याभिचार के किस्सों को भी देशवासी अभी तक नहीं भूले हैं। कई महिलाओं से रिश्ते रखने वाले नित्यानंद को ५२ दिनों जेल की हवा खानी पडी थी। बाहर आते ही वह अपने प्रवचनों के धंधे में लग गया। भीड भी जुटने लगी। कुछ ढोंगी साधु-संतो के आश्रम आस्था के खंडहर बनते चले आ रहे हैं। मुंबई की शक्ति मिल भी खंडहर में तब्दील हो चुकी थी। इसी उजाड खंडहर में २२ वर्षीय फोटो पत्रकार सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हो गयी। पांच हैवानों की यातना के दंश झेलने के बाद भी युवती का हौसला बरकरार है। यही इस देश की नारी की असली पहचान है। उसका कहना है दुष्कर्म के कहर से जिन्दगी खत्म नहीं होती। उसकी बस यही तमन्ना है कि बलात्कारियों को ऐसी कठोरतम सजा मिले कि वे दोबारा किसी महिला की ओर बुरी निगाह डालने के काबिल ही न रहें।
कुछ महीने पूर्व जब चलती बस में दामिनी पर बलात्कार की खबर से देश दहल उठा था। तब लोग सडकों पर उतर आये थे। हर किसी ने बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग की थी। जिस तरह से सरकार ने बलात्कारियों के प्रति कडे तेवर अपनाने का ऐलान किया था उससे तो यही लगा था कि बलात्कार थम जाएंगे। पर बलात्कारों का तो सिलसिला-सा चल पडा। यह बात भी तय हो गयी है कि बलात्कारी न तो जनआक्रोश से भयभीत होते हैं और न ही कानून से। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों को अपनी मर्यादा खोने में फख्र महसूस होता है। जहां पिता ही बेटी की अस्मत का लुटेरा बन जाए और गुरू तथा साधु-संत ही बलात्कारी के चोले ओढने लगें वहां पर कानून को और धारदार होना ही पडेगा। जैसे को तैसे की भूमिका अपनानी ही पडेगी। बलात्कारी चाहे कोई भी हो उसे बिना कोई रियायत दिए फौरन मौत की सजा दी ही जानी चाहिए। यही समय की मांग है। बलात्कारियों के प्रति लोगों में इतना अधिक गुस्सा है कि वे कुछ भी कर सकते हैं। लोग अब कहने भी लगे हैं कि देश में तभी बलात्कार रूकेंगे जब नामी-गिरामी बलात्कारियों को भरे चौराहों पर खडा कर कुत्ते की मौत मारा जायेगा। इनका ऐसा हश्र देखकर आम अपराधी भी सुधरेंगे और बलात्कार करने का जौहर दिखाने से बाज आएंगे।

Thursday, August 22, 2013

नायक और खलनायक

प्याज तो बहुत छोटी चीज़ है। सत्ता के लिए यह कुछ भी कर सकते हैं। वैसे भी नाटक करने में इनका कोई सानी नहीं है। बडे ही सिद्धहस्त कलाकार हैं ये। डबल रोल करने में भी माहिर हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो खलनायक होने के बावजूद भी हमेशा नायक का चोला धारण किये रहते हैं। बरसाती मेंढक भी अपने-अपने रंग में आ जाते हैं। चुनावी मौसम के आते ही देशभर में इनकी उछलकूद शुरू हो जाती है। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली इनका बेहद पसंदीदा मंच है। देश भर के दर्शकों की निगाहें भी तो दिल्ली के इसी भव्य मंच पर टिकी रहती हैं।
मंच पर इन दिनों तरह-तरह के नाटक मंचित हो रहे हैं। मंच पर दूकाने सजी हैं। प्याज के ढेर लगे हैं। जोकरों के हाथों में तराजू हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पचास रुपये किलो में प्याज बेच रही हैं। भाजपा के विजय गोयल और आम आदमी पार्टी के अरविं‍द केजरीवाल अपने चुनावी प्याज चालीस रुपये किलो में बेच रहे हैं। तय है कि ज्यादा भीड इन्हीं दोनों स्टालों पर है। लोग धडाधड प्याज खरीद रहे हैं। शीला को गुस्सा आ रहा है। चिं‍तित भी हैं। चिं‍तन-मनन कर रही हैं। कमबख्त लुटिया डुबोने पर तुले हैं। पर मैं इनकी दाल किसी भी हाल में गलने नहीं दूंगी। देखती हूं कितने दिन तक घाटा खाकर प्याज बेचते हैं। एक-एक को नानी याद दिला दूंगी। आखिर दिल्ली में मेरी सरकार है। अपनी सल्तनत को यूं ही नहीं लुटने दूंगी। इन्हें मात देने के लिए सारी सरकारी तिजोरियां खोल दूंगी। यह लोग अगर बाज नहीं आए तो मुफ्त में प्याज के साथ-साथ दूसरी सभी सब्जियां बांटने से भी नहीं चूकूंगी। यह थके हुए खिलाडी क्या जानें सत्ता की ताकत।
भाजपा के लिए तो यह बदला लेने का बेहद अच्छा मौका है। वह यह कैसे भूल सकती है कि १९९८ में इसी प्याज की वजह से ही उसने शीला दीक्षित से मात खायी थी और अपनी सत्ता गंवानी थी। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल को भी प्याज के आसमान छूते दामों ने सत्ता पाने के भ्रम का शिकार बना दिया है। उन्हें भी इतिहास के दोहराये जाने का यकीन है। उन्हें यह भी भरोसा है कि इस बार सिर्फ और सिर्फ उनकी ही किस्मत का ही ताला खुलने वाला है। कांग्रेस और भाजपा आपस में लड मरेंगे और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनेगी।
चुनावों में जीत का सेहरा बांधने को लालायित कई नेता टोटकेबाजी और भ्रम के भंवर में डूबे हैं। यह लोग देशवासियों को भी भ्रम का शिकार बनाये रखना चाहते हैं। इनके चेहरे पर लुभावने मुखौटे सजे हुए हैं। भ्रम जब कभी फलदायी हो जाता है तो उसके साथ विश्वास भी जुड जाता है। यह विश्वास धीरे-धीरे अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। अंधविश्वास ने इस देश का कितना कबाडा किया है और किस कदर अपराधों को जन्म देने का सिलसिला बनाये रखा है उससे सभी सजग भारतवासी वाकिफ हैं। पर नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पडता। मरना तो उन्हें पडता है जिन्हें अंधविश्वासियों के दिलों में जडे जमा चुकी तूफानी आस्था के खात्मे के लिए खुली जंग लडनी पडती है...।
दरअसल देश का आम आदमी लुटे-पिटे दर्शक की मुद्रा में है। उसे सत्ता के कुछ लुटेरों ने भरे बाज़ार लूट लिया है। नेता और मुनाफाखोर दोनों मजे में हैं। प्याज की जमाखोरी करने वाले कई सफेदपोश नेतागिरी के धंधे के भी सिकंदर हैं। किसी का कांग्रेस से तो किसी का भाजपा आदि... आदि से टांका भिडा है। इस देश के गरीब के पास न तो खाने के लिए पैसे हैं, न ही दवाओं को खरीदने के लिए। जीवनरक्षक दवाएं तो अब उसके लिए सपना होने जा रही हैं। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने मुंह मांगी कीमतों पर भारतीय दवा कंपनियों को खरीदने का अभियान तेज कर दिया है। ऐसे में दवाएं कितनी महंगी होंगी और जिं‍दगियां कितनी सस्ती हो जाएंगी इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। आठ सौ करोड रुपये से ज्यादा की कीमत की भारतीय दवाओं पर विदेशी कंपनियों का कब्जा होने जा रहा है। सरकार बेबस है। देश का रुपया लगातार गिर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। महंगाई अपनी चरम सीमा को पार कर चुकी है। देश दिवालिया होने के कगार पर है। घपले-घोटाले करने वाले आनंदित हैं। उनके कुकर्मों की फाइलें गुम होने लगी हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए बडी-बडी ताकतें अपना काम करती रहती हैं। साजिशें चलती रहती हैं। जब हाथ की सफाई कारगर नहीं हो पाती तो उस कार्यालय को ही राख कर दिया जाता है जहां फाइलें सजी होती हैं। कोयला घोटाले की कई फाइलें गायब हो गयी हैं। इन फाइलों को पहिये नहीं लगे थे। तय है कि नौकरशाहों, नेताओं और उद्योगपतियों ने ही यह खेल खेला है। इस पूरी की पूरी जमात को ऐसे खेल खेलने का बडा पुराना तजुर्बा है। इन डकैतों के गिरोह में कुछ मीडिया दिग्गज भी शामिल हैं। यह मीडिया के वो मक्कार चेहरे हैं जिनका पूरा कालाचिट्ठा खुलना अभी बाकी है।  सत्ताधीश भी नहीं चाहते कि ऊंचे लोगों पर कोई आंच आए। चुनाव सिर पर हैं। करोडों-अरबों का मोटा चंदा भी तो इन्हीं से मिलता है... इन्हें नाराज करने का जोखिम कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं उठाना चाहती।

Wednesday, August 14, 2013

कैसी आज़ादी... किसकी आज़ादी?

१५ अगस्त २०१३। राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' की १७ वीं वर्षगांठ। जिस निष्पक्ष और निर्भीक अखबार को देखते ही देखते लाखों सजग पाठकों ने हाथों-हाथ लिया हो और पूरी आत्मीयता के साथ अपनाया हो उसके बारे में ज्यादा लिखने की वैसे तो कोई गुंजाइश नहीं बचती। लेकिन मामला वर्षगांठ का है। यानी मौका भी है और दस्तूर भी इसलिए दिल की बात कहने का इससे अच्छा कोई और अवसर हो भी तो नहीं सकता। वैसे भी अभी तक जहां पर 'विज्ञापन की दुनिया' पहुंचा है, वह मंजिल नहीं पडाव मात्र है।
१५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन 'विज्ञापन की दुनिया' की यात्रा की शुरुआत हुई। स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर ही इस अखबार के प्रकाशन के पीछे और भी कई उद्देश्य थे। धन्नासेठों के अखबारों में नौकरी करते-करते और उनके दांवपेचों को देखते-समझते यह बात तो समझ में आ गयी थी कि पत्रकारिता को पतित करने की कैसी-कैसी साजिशें रची जा रही हैं। राजनेताओं और भिन्न-भिन्न माफियाओं के इशारों पर चलने वाले तथाकथित बडे-बडे अखबार अपने आकाओं की आरती गाने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे हैं। उद्योगपतियों, बिल्डरों और नेताओं के अखबारों के प्रकाशन का एकमात्र उद्देश्य दौलत कमाना तथा सरकार और जनता को बेवकूफ बनाना है। खुद को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहने वाले सम्पादकों को बाजारी और अंगूठा छाप मालिकों की जी हजूरी करते देख बहुत पीडा होती थी। मोटी तनख्वाह के लालच में उनके दडंवत होने के शर्मनाक अंदाज को देखकर गुस्सा भी आता था। हालात आज भी पूरी तरह से नहीं बदले हैं। ऐसे हालातों में निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हां... राज्यसभा का सदस्य जरूर बना जा सकता है। करोडों के सरकारी ठेके हथियाये जा सकते हैं। कौडिं‍यों के मोल सरकारी जमीनों की खैरात पायी जा सकती है। स्कूल, कालेज और दारू की फैक्टरियां खोलने के लायसेंस बडी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। सरकारी जमीनों को कौडिं‍यों के मोल हासिल करने में भी कोई अडचन नहीं आती। लगभग मुफ्त में पायी गयी इन लम्बी-चौडी जमीनों पर भव्य व्यावसायिक इमारतें खडी कर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं। अब तो कुछ मीडिया दिग्गज दलाली भी करने लगे हैं। पिछले दिनों देश के दो अखबार मालिकों ने हजारों करोड की कोयला खदाने हथिया कर अपने जबरदस्त दमदार होने का सबूत पेश कर दिया है। आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कारोबारी अखबारीलाल अखबारों की आड में कितने काले-पीले धंधों को अंजाम देते हैं। सरकारी तंत्र को यह ताकतवर लोग अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। नचैयों की भी अपनी कमजोरियां और मजबूरियां होती हैं। पत्रकारिता के ऐसे दुखद और दमघोंटू माहौल में 'विज्ञापन की दुनिया' के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। देशभर के सजग पाठकों के बीच अपनी छाप छोडने में इस साप्ताहिक को ज्यादा समय नहीं लगा। हमारी कल्पना से भी कहीं बहुत ज्यादा लोग इससे जुडते चले गये और कारवां बनता चला गया। ऐसे में हमारा विश्वास और भी पुख्ता हो गया कि पाठक ऐसे अखबारों को कतई पसंद नहीं करते जो अपने धंधे चमकाने की पत्रकारिता करते हों। जिनपर किसी राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगा हो। सजग पाठक सिर्फ और सिर्फ ऐसी कलम के पक्षधर हैं जो बेखौफ हो और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार न हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार के हर गुनाह की अनदेखी करने वाले अखबारों को पहचानने में भी सजग पाठक देरी नहीं लगाते। फिर भी वे ऐसे अखबारों को इसलिए भी ताउम्र खरीदते रहते हैं क्योंकि महंगाई के जमाने में भी यह डेढ-दो रुपये में मिल जाते हैं। रद्दी में बेचने पर भी फायदा हो जाता है। ऐसे अखबारों के मालिकों को तो मुफ्त में भी अखबार बांटने से कोई फर्क नहीं पडता। सरकार की आखों में धूल झोंककर अधिकतम कीमत पर विज्ञापन हथियाने के लिए धन्नासेठ ऐसे ही फंडे अपनाते हैं। मुफ्त में अखबार बांटते हैं और उसे बिक्री में दर्शाकर अपना सर्कुलेशन बढाते हैं। इससे काली कमायी भी सफेद हो जाती है। अखबार के अलावा भी इनके कई धंधे होते हैं। मंत्रियों और नेताओं की जेबों से निकाली गयी रकम को भी तो सफेद करना होता है।
राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' केवल अपने पाठकों और शुभचिं‍तकों की बदौलत ही भ्रष्टाचारियों की नींद हराम करता चला आ रहा है। सिद्धांतों से समझौता करना इसने सीखा ही नहीं। गलत को सही बनाने का खेल इसे नहीं भाता। बडे से बडे तुर्रमखां के आगे झुकना भी इसके उसूल के खिलाफ है। शासकों के तलवे चाटने वालो से नफरत करने वाले 'विज्ञापन की दुनिया' ने कभी भी शासकों के दरबार में हाजिरी नहीं बजायी। हमें अपने साथ-साथ अपने उन लाखों पाठकों के मान-सम्मान और स्वाभिमान की सदैव चिन्ता रहती है। उनके अपार विश्वास को हम कभी भी ठेस नहीं पहुंचने देंगे। यह हमारी प्रतिज्ञा भी है और वायदा भी।
१५ अगस्त २०१३...। भारतवर्ष की आजादी की ६६वीं वर्षगांठ। क्या होते हैं ६६ वर्ष के मायने? इसका जवाब शासक तो देने से रहे जिन्होंने सतत भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचे और भारत माता की आत्मा को आहत-दर-आहत किया। अब तो देशवासियों को जाग ही जाना चाहिए। कब तक बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, शोषण, लूटमारी, अनाचार, व्याभिचार, माफियागिरी और महंगाई के दंश पर दंश झेलते रहेंगे? हिन्दुस्तान से भी छोटे कई देश दस-बीस साल में कहां से कहां पहुंच गये और यह विशालतम देश हाथों में भीख का कटोरा थामे लगभग वहीं का वहीं खडा है। इस देश के नेता यही मानकर चल रहे हैं कि चंद लोगों के अरबपति-खरबपति बन जाने से मुल्क की तस्वीर बदल गयी है। गरीबी का खात्मा हो गया है। देश में चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। देश को हांकने वाले नेता अंधे तो कतई नहीं हैं। यह तो हद दर्जे के शातिर और चालाक हैं। आम जनता को हर हाल में भ्रम के भंवर में फंसाये रखना चाहते हैं। यह सतत अपने मकसद में कामयाब भी होते चले आ रहे हैं। जिस दिन हम और आप पूरी तरह से जाग जाएंगे तब इनकी हस्ती मिटते देर नहीं लगेगी। कब जागेंगे हम-सब?
समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, August 8, 2013

नेताओं को ही है बोलने की आज़ादी?

उन्हें किसी और का बोलना नहीं सुहाता। वे सिर्फ और सिर्फ सत्ता के भूखे हैं। उनका सिर्फ एक ही मकसद है। कुर्सी के लिए जोड-तोड करते रहना। मिल जाए तो उस पर कब्जा जमाये रहना। उनके अपने कोई उसूल नहीं हैं। सब कुछ उधार पर कायम है। जिधर बम उधर हम। आस्था और निष्ठा शब्द भर हैं इनके लिए। हां हम बात कर रहे हैं उन दोगले नेताओ की जिनके लिए वोट ही सब कुछ हैं। इनके लिए वे देशवासियों को आपस में लडाने और बांटने की कुटिल साजिशों में तल्लीन हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में नारायण राणे का अच्छा-खासा दबदबा है। यह महाशय प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यह सौभाग्य इन्हें तब मिला था जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी। मात्र आठ महीने तक मुख्यमंत्री के सिं‍हासन पर विराजमान रहने वाले नारायण राणे को शिवसेना ने फर्श से अर्श तक पहुंचाया। यह भाजपा-शिवसेना की बदकिस्मती थी कि उसे दोबारा महाराष्ट्र की सत्ता नहीं मिल पायी। सत्ता पिपासु नारायण राणे को जब यह लगा कि अब शिवसेना में टिके रहना उनके लिए फायदे का सौदा नहीं है तो उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया। वे जब तक शिवसेना में रहे, कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के खिलाफ बेहूदा भाषण बाजी करते रहे। अपने नेता बाल ठाकरे की तर्ज पर विदेशी सोनिया की खिल्ली भी उडाते रहे। उनके कांग्रेस में समाने की एकमात्र वजह थी किसी भी तरह से महाराष्ट्र का फिर से मुख्यमंत्री बनना। इसके लिए उन्होंने कई बार अपने उग्र तेवर भी दिखाये। मीडिया के सामने रोना भी रोया कि कांग्रेस ने उनके साथ दगाबाजी की है। उन्होंने तो कांग्रेस का दामन ही इस शर्त पर थामा था कि उन्हें ही महाराष्ट्र का सीएम बनाया जायेगा। जो कांग्रेस देश की जनता से किये गये वायदे नहीं निभा पायी उस पर घाघ नारायण राणे ने कैसे और क्यों यकीन कर लिया यह तो वही जानें। वैसे कांग्रेस ने उन्हें पूरी तरह से निराश भी नहीं किया। शिवसेना से दगाबाजी करने और कांग्रेस की सीटें बढाने का उन्हें भरपूर ईनाम मिला। वर्तमान में वे महाराष्ट्र सरकार में उद्योग मंत्री हैं। नारायण 'मलाई' प्रेमी हैं। कांग्रेस भी जानती है। अगर उसके भी कभी शिवसेना जैसे हाल हुए तो वे राजनीति के किसी दूसरे ठिकाने की दहलीज पर पहुंच कर सलामी ठोकने में देरी नहीं लगायेंगे। ऊंची कुर्सी की चाह उन्हें कहीं भी ले जा सकती है। उनसे कुछ भी करवा और बुलवा सकती है। शिवसेना वाले 'गुण' उन्होंने त्यागे नहीं हैं। ना ही ऐसा कोई इरादा है।
कहावत है... खरबूजा, खरबूजे को देखकर रंग बदलता है। राजनेताओं की औलादों को यह गुण विरासत में मिलता है। इसका जीता-जागता उदाहरण हैं नारायण के लाडले नितेश राणे। यह भी राजनीति में झंडे गाढने को बेताब हैं। अब वो पुराना जमाना तो रहा नहीं जब राजनीति में जमने के लिए जनसेवा की जाती थी। यह तो एक दूसरे की कब्रें खोदने और बकने-बकवाने का जमाना है। जो जितना तीखा और भडकाऊ बोलता है, उतना ही अधिक सुना और सुनाया जाता है। इस मूलमंत्र को आत्मसात कर चुके नारायण पुत्र का बस चले तो सारे के सारे गुजरातियों को मुंबई से खदेड दे। उसका कहना है कि मुंबई के अधिकांश गुजराती नरेंद्र मोदी के घोर समर्थक हैं। दिन-रात उसी की माला जपते रहते हैं। उसे पक्का यकीन है कि गुजराती सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को ही वोट देते हैं। यह तो सरासर दगाबाजी है। ऐसे दगाबाजों को मोदी की शरण में चले जाना चाहिए। काहे को मुंबई में कमाई कर मौजमस्ती कर रहे हैं। नितेश को डर है कि मोदी परस्त गुजराती मुंबई को कही गुजरात न बना दें। इसलिए समय रहते इस बीमारी का इलाज हो ही जाना चाहिए।
यह सौ फीसदी सच है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में लोगों के बोलने, सोचने और करने पर उंगलियां उठाने का चलन बढता चला जा रहा है। मुसलमान अगर कांग्रेस या समाजवादी पार्टी की तरफ झुकते हैं तो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को ऐतराज होता है। फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन अगर उत्तर प्रदेश और गुजरात का गुणगान करते हैं तो उन पर फौरन निशाना साध दिया जाता है। लगता है कि कुछ नेताओं ने यह मान लिया है कि उन्हें ही सिर्फ बोलने और लताडने का हक है। शोभा डे एक अच्छी लेखिका हैं। देश में उनकी अपनी पहचान है। पिछले दिनों जैसे ही तेलंगाना नाम के नये राज्य के बनने का ऐलान हुआ तो उन्होंने ट्विटर पर लिख डाला कि मुंबई के साथ भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता? उनके इतना भर लिखने से हंगामा हो गया। उन पर ताने कसे जाने लगे। एक अदनी-सी लेखिका और पेज थ्री की फैशनपरस्त नारी की यह मजाल कि वह मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने वाली बयानबाजी करे। शोभा डे को सबक सिखाने की नीयत से कई चेहरे सडकों पर भी उतर आये। उनके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन भी किया गया। सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं को दर्पण दिखाने वाले रास नहीं आ रहे। दलित चिं‍तक-लेखक कंवल भारती को भी बीते सप्ताह इसलिए उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने आरक्षण और दुर्गा नागपाल के मुद्दे को लेकर फेसबुक पर अपने दिल की बात कह दी थी। उनके यह लिखने पर कि उत्तरप्रदेश में अखिलेश का नहीं, आजम खां का राज चलता है... फौरन गिरफ्तार कर लेना यही दर्शाता है कि मदहोश मंत्रियों को आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं होती। उन्हें दरबारी-चाटूकार ही सुहाते हैं। यह है अपना देश भारत वर्ष जहां पर आम आदमी के बोलने पर पाबंदी है। यह हक नेताओं ने अपने लिए आरक्षित कर लिया है। वे जो कहें वही सही!... ऐसे अहंकारी नेताओं को शायद ही कभी यह विचार आता होगा कि बुद्धिजीवी हों या आम आदमी सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। यह उनका नैतिक अधिकार है। संविधान ने सिर्फ मंत्रियों-संत्रियों, नेताओं और उनकी औलादों को ही अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं दी है।

Thursday, August 1, 2013

दुर्गा शक्ति को सलाम

अब तो इस देश की आम जनता को यकीन कर ही लेना चाहिए कि नेताओं, सत्ताधीशों और सत्ता के दलालों ने हिं‍दुस्तान को मंडी में तब्दील करके रख दिया है। जिधर देखो उधर मतलब परस्त सौदागर और उनकी सौदेबाजी। खरीदने और बेचने की इस भ्रष्ट मंडी में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का कोई मोल नहीं है। बेइमानी और मनमानी का सिक्का धडल्ले से चल रहा है। नकली ने असली को बाहर खदेड दिया है। आयाराम, गयाराम यानी दलबदलूओं के प्रदेश हरियाणा के राज्यसभा सांसद वीरेंद्र सिं‍ह ने अपनी ही पार्टी कांग्रेस तथा खुद को भरे चौराहे पर निर्वस्त्र कर डाला। इस कांग्रेसवीर ने रहस्योद्घाटन किया कि एक बार किसी ने मुझे बताया था कि राज्यसभा की सीट पाने के लिए १०० करोड खर्च करने पडते हैं। लेकिन खुशकिस्मती से उसे यह सीट ८० करोड में मिल गयी और उसे २० करोड का फायदा हो गया। वैसे यह कोई नयी जानकारी नहीं है। लगभग सब जानते हैं। लेकिन कांग्रेस के एक नामी नेता और सांसद के मुंह खोलने से हंगामा हो गया। वैसे अभी तक यही अनुमान लगते थे कि इस देश में दारू किं‍ग विजय माल्या, भ्रष्ट अखबारीलाल, उद्योगपति और खनिज माफिया, पच्चीस-पचास करोड की दान-दक्षिणा की बदौलत राज्यसभा में आसानी से पहुंच जाते हैं। यह अस्सी और सौ करोड का खेल तो वाकई हैरत में डालने वाला है। इतने में तो कोई अच्छी-खासी फैक्टरी लगायी जा सकती है, जिसमें सैकडों बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है और खुद भी मालामाल हुआ जा सकता है। लेकिन अब यह तय लगता है कि कारखाने खडे करने से बेहतर धंधा तो राजनीति और राजनेताओं का कंधा है। करोडों रुपये की भेंट चढाकर राज्यसभा या विधान परिषद की सीट का जुगाड करो और पांच वर्षों में इतनी दौलत कमा लो जितनी बडे-बडे उद्योगपति भी न कमा पाते हों। अपने मुल्क में वर्षों से यही तो हो रहा है। ईमानदार चेहरों के लिए राज्यसभा की दहलीज तक पहुंच पाना मुंगेरीलाल के सपने जैसा है। जिनकी जेब में दम होता है उन्हें ही यह तोहफा मिलता है। भले ही वे हद दर्जे के अपराधी क्यों न हों। उनकी तिजोरियां ही उनकी असली योग्यता होती हैं।
राज्यसभा और विधान परिषद की तरह ही लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लड पाना सच्चे और सीधे लोगों के बस की बात नहीं रही। हाल ही में असोसिएशन फार डेमोक्रैटिक रिफॉम्‍‍र्स(एडीआर)ने गहन अध्यन्न के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराधी छवि के उम्मीदवारों के मुकाबले साफ-सुथरे रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना बेहद टेढी खीर होता है। काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने वालों का जनसेवा से कोई लेना-देना नहीं होता। कम से कम समय में अधिकतम माया बटोरना ही उनका एकमात्र मकसद होता है। राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में शरीफ लोग तो राजनीति में कदम रखने से ही घबराते हैं। यही वजह है कि चोर-उचक्के भी चुनाव जीत जाते हैं। इनके चेहरे अलग-अलग होते हैं, लेकिन मकसद एक ही होता है! रेत माफिया, भू-माफिया, तेल माफिया, कोल माफिया और तमाम काले धंधों के सरगना इनके संगी-साथी होते हैं। मिल-बांटकर कमाने और खाने वाले। इसे मीडिया की गजब की सतर्कता का कमाल ही कह सकते हैं कि बहुत-सी दबी-छिपी सच्चाइयां लगातार बेपर्दा हो रही हैं और लोगों को चौंका रही हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान को प्रदेश और देश का एक सम्मानित नेता माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल भी समझती है। ऐसे राजनेता का नाम जब किसी माफिया से जुडता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं और यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि आखिर किस पर भरोसा किया जाए! मुख्यमंत्री शिवराज के एकदम करीबी रेत माफिया दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां आयकर विभाग द्वारा मारे गये छापे में जो डायरियां मिलीं उनमें स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है कि उन्होंने माइनिं‍ग लायसेंस लेने के लिए प्रदेश के खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला को मोटी घूस दी थी। इतना ही नहीं उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को भी करोडों की सौगात देने का जिक्र है। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सिं‍ह यादव का है। उन्होंने रेत तस्करों के दबाव में आकर ईमानदार आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। दुर्गा नागपाल के निलंबन के खिलाफ देशभर में जब खूब हो-हल्ला मचा तो यह भी प्रचारित किया गया उन्होंने मस्जिद की दिवार को तोडने का आदेश दिया था। उनकी इस लापरवाही से दंगा भडकने की जबरदस्त आशंका थी। अब अखिलेश सरकार यह तो कहने से रही कि उसने मुसलमानों के वोटों की दिवार को और अधिक मजबूत बनाने के लिए एक ईमानदार अधिकारी के मनोबल की हत्या करने की कोशिश की है। अखिलेश के कारनामे से स्पष्ट है कि सत्ताधीशों की मतलबपरस्त कौम ईमानदार अधिकारियों के काम में बाधा डालती है। अवैध कारोबारियों की पीठ थपथपाती है। यही कारोबारी कभी न कभी राज्यसभा में पहुंचने के अधिकारी भी बन जाते हैं। दुर्गा की तरह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहने वाले अधिकारी अक्सर सत्ताधीशों के दुलारों का निशाना बनते हैं। महाराष्ट्र के नासिक में २५ जनवरी २०११ को तेल माफिया ने एडीएम यशवंत सोनवने को तेल से नहलाकर जिन्दा जला दिया था। इसी तरह से ४ मार्च २०१२ को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में अवैध खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाई करने गये अधिकारी नरेंद्र कुमार को सरे आम ट्रेक्टर से कुचल कर खत्म कर दिया गया था। यह कोई नयी बात नहीं है। दुर्गा की किस्मत अच्छी थी जो रेत माफियाओं के हाथों मरने से बच गयीं। शक्ति कभी हारा नहीं करती। आज पूरा देश उनके साथ है। उनके साहस और आत्म-स्वाभिमान का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह कलम दुर्गा शक्ति को सलाम करती है।