Thursday, February 22, 2018

पतन की पराकाष्टा

देश की राजधानी में एक नेता भाषण दे रहे थे और चंद लोगों की भीड बडी एकाग्रता के साथ सुनने का नाटक कर रही थी:
"दोस्तो, भीख मांगना भी एक तरह का रोजगार है। कमाई का चोखा धंधा है। जो लोग भीख मांगने को एक तुच्छ कार्य समझते हैं उन्हें अपने दिमाग का इलाज करवाना चाहिए। भिखारी को भी मेहनत करनी पडती है। अपना खून पसीना बहाना पडता है। भीख को छोटा काम मानने वालों को पता नहीं है कि भीख के कारोबार की बदौलत लाखों परिवार खा-पचा पा रहे हैं। उनके बच्चे स्कूल-कॉलेजों में पढकर अपना भविष्य संवार रहे हैं। मेरे प्यारे भारतवासियो, आपको मैं आज देश के कुछ चुनिंदा भिखारियों की कमाई की सच्चाई से अवगत कराना चाहता हूं। आपको इस सच को जानकर हैरत होगी कि मुंबई में एक भिखारी है, जिसका नाम है मासू। वह भीख के कारोबार की बदौलत ऐश कर रहा है। मासू के ठाठ बडे निराले हैं वह रोज सुबह ऑटो रिक्शा में भीख मांगने की अपनी निर्धारित जगह पर जाता है और शाम तक करीब डेढ से दो हजार रुपये जेब में भरकर ऑटो से ही घर लौट आता है।
शरीर से दिव्यांग झारखंड के छोटू की उम्र करीब चालीस साल है। उसकी तीन बीवियां हैं। छोटू ने काफी तकलीफें झेलीं। काम की तलाश में बहुतेरे हाथ-पैर मारे, लेकिन जब बात नहीं बनी तो उसने भीख के कारोबार को अपना लिया। आज वह हर माह तीस से चालीस हजार रुपये की भीख की बदौलत मजे में है। और हां उसने अपनी तीनों बीवियों को भी इसी काम में लगा रखा है। वे भी दिनभर भीख मांगती हैं और शाम को घर लौटकर छोटू को अपनी कमाई का ब्यौरा देती हैं तो छोटू उन्हें शाबाशी देते नहीं थकता। वह तीन फ्लैटों का मालिक है जिनमें शहर के इज्जदार किरायेदार के रूप में रहते हैं। तीनों पत्नियां छोटू जैसे कमाऊ पति का साथ पाकर खुद को धन्य मानती हैं और हर जन्म में उसका साथ चाहती हैं।
महाराष्ट्र में सोलापुर का संभाजी काले अपने परिवार के चारों सदस्यों के साथ भीख मांग कर हर रोज लगभग दो हजार रुपये कमा लेता है। इसी तरह से भरत जैन हर महीने एक लाख से ज्यादा जमा कर लेता है। उसके पास भी दो फ्लैट हैं। अच्छी-खासी खेतीबाडी के साथ एक बडी दुकान भी है जिससे हजारों की कमाई हो जाती है। पटना का पप्पू तो कमाल का भिखारी है। उसके हाथ-पैर टेढे-मेढे हैं। डॉक्टर कहते हैं कि उन्हें दुरूस्त किया जा सकता है, लेकिन पप्पू इस जन्म में तो दिव्यांग ही रहना चाहता है। क्योंकि खुदा के इसी उपहार की बदौलत उसने भीख मांग कर लाखों रुपये जुटा लिए हैं। उसके बच्चे इंग्लिश स्कूल में पढ रहे हैं। साहूकारों और बैकों में जमा रकम से मोटा ब्याज आ जाता है।
मैं तो प्रभु से यही प्रार्थना करता रहता हूं कि पप्पू जैसे किस्मत के धनी, अक्लमंद इस देश में लाखों की संख्या में पैदा हों।" ताकि सरकार को लोगों की नौकरी-वोकरी की चिन्ता ही न करनी पडे। इसलिए मेरे मित्रो, मेरा आपसे सनम्र निवेदन है कि अगर आप किसी को भी भीख मांगते हुए देखें तो उसे कमतर न आंकें और न ही हिकारत भरी नजरों से दुत्कारें। वह भी दूसरों की तरह एक कारोबारी है। कोई ठग और लुटेरा नहीं।"
कौन नहीं जानता कि अपने देश के अधिकांश नेता जनता की आंखों में धूल झोंकने में माहिर हैं। राजनीति के व्यापार बन जाने के बाद भारतवर्ष में ऐसे नेताओं की तादाद बढती चली जा रही है, जो जनता का मूल समस्याओं से ध्यान भटकाने के लिए ऐसा-वैसा बोलकर तालियां पिटवाने की फिराक में लगे रहते हैं। इस किस्म के नेताओं की प्रेरणा का ही नतीजा है कि जो होशियार किस्म के लोग भीख नहीं मांग पाते वे गबन, ठगी, जालसाजी और लूटमारी पर उतर आते हैं। इनके पकडे जाने पर ज्यादा हैरत नहीं होती। दरअसल, हम और आप ऐसी खबरों के अभ्यस्त हो गये हैं। एक का भी काला चेहरा सामने आने के बाद किसी और नये जालसाज के पर्दाफाश होने की राह देखने लगते हैं। यह सच है कि विजय माल्या और नीरव मोदी की तरह सभी का पर्दाफाश नहीं हो पाता। कितने लुटेरों की हकीकत दबी रह  जाती है। जिनका पर्दाफाश हो जाता है वो मीडिया के 'नायक' बन जाते है। मुंबई के निकट स्थित ठाणे शहर में एक अंडे बेचने वाले की महज इसलिए हत्या कर दी गई क्योंकि खरीददार को लगा कि वह एक रुपया ज्यादा वसूल रहा है। खरीददार को यह बहुत बडी ठगी लगी। दूसरी तरफ मुंबई का हीरा व्यापारी नीरव मोदी पंजाब नेशनल बैंक को ११ हजार करोड से अधिक की चपत लगाकर विदेश भाग गया। इस शातिर कारोबारी ने दो हजार के असंख्य हीरे पचास लाख से एक करोड तक में आसानी से खपाकर कई धनकुबेरों की आंखों में बडे मज़े से धूल झोंकी। कहीं कोई शोर-शराबा नहीं हुआ। अपने देश में गरीब एक रुपये के लिए मौत का हकदार हो जाता है और जालसाज बैंकों को अरबों की चोट देकर मौज मनाते हैं। इससे तो यही लगता है कि यह देश आम आदमी का न होकर सिर्फ और सिर्फ धनकुबेरों और टोपीबाजों का है। स्वतंत्रता सेनानी लाला लाजपत राय जैसे क्रांतिकारियों की पहल और खून-पसीने से बने पंजाब नैशनल बैंक में हुए घोटाले ने सजग जनता के विश्वास को हिलाकर रख दिया है। अब तो सभी सरकारी बैंकों पर अविश्वास के बादल मंडराने लगे हैं। माल्या के बाद नीरव मोदी और उसके फौरन बाद सामने आये पेनकिंग विक्रम कोठारी के घोटाले ने यह भी सिद्ध कर दिया है कि आम उपभोक्ताओं को छोटे-मोटे लोन के लिए गारंटी और अन्य औपचारिकताओं के नाम पर चक्कर कटवाने वाले बैंक बडे उद्योगपतियों पर किस तरह से मेहरबान रहते हैं। स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि बैंको के नियंत्रण का निगरानी तंत्र लचर होने के साथ बिकाऊ भी है। बैंकों को लुटवाने में बैंक अधिकारियों के साथ-साथ उन राजनेताओं की अहम भूमिका है जो अंबानियों, अडानियों, माल्याओं, केतनों और नीरव मोदियों के चुनावी चंदों की बदौलत चुनाव लडते हैं और असली देशभक्त होने का नाटक करते नहीं थकते।

Thursday, February 15, 2018

मातम मनाती उम्मीदें

देश की राह में बहुत बडा अवरोध बने भ्रष्टाचार के जड से खात्मे के वादे के साथ जब नरेंद्र मोदी देश की सत्ता पर काबिज हुए थे... तब तमाम देशवासी कितने आशान्वित और उत्साहित थे। उन्हें लगने लगा था कि अब तो घूसखोरों, टैक्स चोरों, बेइमानो और धोखेबाजों को कोई नहीं बचा पायेगा। पुराने भ्रष्टाचारी अपना चेहरा छुपाकर यहां-वहां दुबक जाएंगे। नये तो पैदा ही नहीं हो पायेंगे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की चेतावनी और ललकार की वजह से कुछ दिन तो सन्नाटा-सा छाया रहा। लगा कि देश की तस्वीर बदलेगी ही, लेकिन धीरे-धीरे जो मंजर सामने आए उन्होंने चीख-चीख कर बताना आरंभ कर दिया कि जैसा चाहा और सोचा गया था वैसा होना असंभव है। भ्रष्टाचारियों को पटकनी देना न तब के शासकों के लिए आसान था और ना ही उन मोदी जी के लिए सहज और सरल है जिन्होंने सत्ता संभालते ही यह हुंकार भरी थी कि, 'न मैं खुद खाऊंगा और ना ही किसी और को खाने दूंगा।'  प्रधानमंत्री के इन चेतावनी भरे शब्दों का जन्मजात भ्रष्टाचारियों पर कोई खास असर नहीं पडा। उन्होंने इसे महज गीदड भभकी माना। कुछ दिन राह देखने के बाद वे अपनी पुरानी लीक पर दौडने लगे। हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोरी की पुरानी परंपरा खुलकर निभायी जाने लगी।
यह कितने ताज्जुब की बात है कि जिस जीएसटी (गुड्स एंड सर्विस टैक्स) को लेकर दावा किया गया था कि 'एक देश एक टैक्स' की इस प्रणाली में न केवल टैक्स चोरी पर लगाम लगेगी, बल्कि विभागीय रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार पूरी तरह से खत्म हो जाएगा। उसी जीएसटी ने जहां व्यापारियों को परेशान किया वही अधिकारियों के लिए भ्रष्टाचार के नये रास्ते खोल दिये हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो कानपुर में जीएसटी कमिश्नर संसारचंद और उसका भ्रष्ट गिरोह बेखौफ होकर काली कमायी और हवाला कारोबार करने की हिम्मत नहीं दिखाता। यकीनन प्रधान सेवक की चेतावनी ऐसे धूर्तों के लिए कोई अहमियत नहीं रखती। १९८६ बैच के भारतीय राजस्व सेवा के अधिकारी संसारचंद ने जिस योजनाबद्ध तरीके से जीएसटी में चोर रास्ते निकाल कर रिश्वतखोरी को अंजाम दिया उससे यह तो तय हो गया है कि शातिर भ्रष्टाचारी यह मान चुके हैं कि उस और इस सरकार में कोई फर्क नहीं है। उनके राज में भी वे अपनी 'कला' के जरिए करोडों कमाते थे और इस सरकार के रहते भी उनका कोई बाल बांका नहीं होने वाला। हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोर सीना तानकर अपनी जेबें भर रहे हैं। आम आदमी की बदलाव की उम्मीदें मातम मना रही हैं। यह भी सिद्ध हो गया है कि सत्ताधीशों को बदल भर देने से भ्रष्टाचार का खात्मा नहीं हो सकता। बीते हफ्ते इन पंक्तियों का लेखक गोंदिया से नागपुर आ रहा था। थर्ड एसी में बैठे कई यात्री ऐसे थे जिनके पास साधारण टिकट था। टीटीई को उन्होंने दो-दो सौ रुपये थमाए और गोंदिया से नागपुर की अपनी यात्रा वातानुकूलित डिब्बे में मजे से पूरी की। रेलवे में चलने वाली लूटमार से वे लोग बखूबी वाकिफ हैं जो अक्सर यात्राएं करते रहते हैं। उन्हें पता होता है कि टीटीई को कितनी दक्षिणा देकर खुश किया जा सकता है। मुसीबत तो नये यात्रियों के हिस्से में आती है। जो अक्सर तकलीफों और मनमानी वसूली का शिकार होते रहते हैं। बहुत ही कम ऐसे टीटीई हैं जो नियम के अनुसार अपना काम कर यात्रियों को कानून का पालन करने की सीख देते हैं। कानून का पालन करने वाले यात्री जब 'रसीद' की मांग करते हैं तो टीटीआई आनाकानी करते हैं क्योंकि उन्हें यह घाटे का सौदा लगता है। देश को भले ही चोट लगती रहे, लेकिन सरकारी विभागों के अधिकांश कर्मचारी अधिकारी घूसखोरी से बाज नहीं आ रहे हैं।
देश के जैसे हालात हैं उससे लगता नहीं कि भ्रष्टाचार का खात्मा हो जाए। जिनकी फितरत ही भ्रष्टाचार करना है वे लूट-खसौट के मौके तलाशते रहते हैं। शायद ही कोई क्षेत्र बचा हो जहां भ्रष्टाचारी विराजमान न हों। आजादी के बाद का इतिहास बताता है कि सत्ताधीशों, नेताओं और नौकरशाहों ने विभिन्न तरीकों से बेईमानी और भ्रष्टाचारों को अंजाम देकर खुद की समृद्धि और देश को चोट पहुंचाने का काम किया है। यह भी देखने में आता रहा है कि हिंदुस्तान में सच्चाई और ईमानदारी के ढोल तो बहुत पीटे जाते हैं, लेकिन सच्चे कर्तव्यनिष्ठों, ईमानदारों की राह में कांटे बिछाकर उनका जीना दूभर कर दिया जाता है। गलत रास्ते अपना कर मालामाल होने वालों के लिए धनबल की बदौलत मुश्किलों से राहत पाना बहुत आसान होता है। भ्रष्टाचार के माहौल को जड से खत्म करने की कसमें खाने वाले भी अपने यहां अंतत: शांत होकर बैठ जाते हैं। देशवासी अन्ना हजारे, बाबा रामदेव, किरण बेदी, अरविंद केजरीवाल जैसों के नाम शायद ही भूल पाएं जो कुछ वर्ष पूर्व भ्रष्टाचार और अनाचार के खिलाफ लडाई लडते नजर आए थे। अन्ना हजारे की टीम के तेवरों देखकर तो ऐसा लगा था कि यह योद्धा देश में बदलाव लाकर ही दम लेंगे। सभी भ्रष्टाचारी जेल की सीखचों के पीछे नज़र आएंगे। देशवासियों को भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों से हमेशा-हमेशा के लिए मुक्ति मिल कर रहेगी। लेकिन अन्ना हजारे के आंदोलन की प्रभावी तस्वीर तो सामने नहीं आयी। हां यह जरूर हुआ कि कुछ चेहरों को सत्ता पाने का सुख हासिल जरूर हो गया। अरविंद केजरीवाल और उनके साथियों ने आम आदमी पार्टी बनायी और आज वे दिल्ली की सत्ता का मज़ा लूट रहे हैं। अरविंद केजरीवाल दिल्ली के मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वैसा चमत्कार नहीं दिखा सके जैसे कि उनके दावे थे। किरण बेदी ने पहले तो अरविंद केजरीवाल की आम आदमी पार्टी के खिलाफ भाजपा की टिकट से विधान सभा चुनाव लडा। पराजित होने के बावजूद उन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पुरस्कृत करते हुए पांडिचेरी की उपराज्यपाल बना दिया। बाबा रामदेव पर भी मोदी सरकार का भरपूर आशीर्वाद बरसा। उन्हें देश के विभिन्न प्रदेशों में अरबों की जमीनें कौडियों के दाम सौंप दी गयीं। बाबा ने लोकसभा चुनाव के दौरान भाजपा के पक्ष में जो धुआंधार चुनाव प्रचार किया और माहौल बनाया उसकी कीमत वसूल कर बता दिया कि वे कितने पहुंचे हुए 'सौदागर' हैं। आंदोलन से सबने कुछ न कुछ हासिल किया, लेकिन अन्ना हजारे के हिस्से में साख खोने और ठगे जाने की पी‹डा ही आयी। अब तो हालात यह हैं कि यदि अन्ना फिर से किसी आंदोलन का बिगुल बजाते हैं तो देशवासी लगभग उसे अनसुना कर देंगे। अवसर का फायदा उठाने वाले चेहरों ने एक ईमानदार देशप्रेमी की साख पर भी बट्टा लगा दिया है।

Thursday, February 8, 2018

विकलांग और विकलांगता

कहानी -१ : रविवार का दिन था। नौंवी कक्षा में पढने वाली मालविका पूरी तरह से छुट्टी मनाने के मूड में थी। वह घर से बाहर निकली। घर के पास ही सरकारी गोला-बारूद डिपो था। कुछ दिन पहले ही उस डिपो में आग लगी थी। कई विस्फोटक पदार्थ आसपास के इलाके में बिखरे पडे थे। अचानक मालविका की नजर अपनी जींस की फटी जेब पर गई। उसके मन में उसे फेविकॉल से दुरुस्त करने का विचार आया। फेविकॉल को जींस पर चिपकाने के बाद किसी भारी वस्तु की जरूरत थी। मालविका ने भारी वस्तु की तलाश में अनजाने में एक ग्रेनेड बम को उठाया और घर के अंदर जैसे ही दाखिल हुई कि ग्रेनेड फट गया। मालविका कुछ समझ पाती इससे पहले ही उसका शरीर लहूलुहान हो चुका था और आंखों के सामने था दमघोटू अंधेरा ही अंधेरा। उसे फौरन अस्पताल पहुंचाया गया। अस्पताल के डॉक्टर उसकी हालत देख चिन्ता में पड गए। उसके हाथ और पैर पूरी तरह से क्षतिग्रस्त हो चुके थे। पूरे दो साल तक अस्पताल में इलाज चलता रहा। कई बार सर्जरी करनी पडी। जान तो बच गई, लेकिन उस हादसे की वजह से उसे अपने दोनों हाथ गंवाने पडे। मालविका की तो दुनिया ही बदल गई। २००२ में जो लडकी भली-चंगी थी, २००४ में अपंग हो चुकी थी। बिना हाथों के वह कैसे जीएगी इसी सवाल ने उसे महीनों तक बेचैन रखा। कभी भी नहीं भुलाये जा सकने वाले इस दर्दनाक हादसे के बाद और कोई लडकी होती तो शायद आत्महत्या ही कर लेती, लेकिन मालविका ने बिना हाथों के ऊंची उडान उडने का फैसला कर लिया। उसने माध्यमिक स्कूल परीक्षा में बतौर प्रायवेट अभ्यर्थी हिस्सा लिया और सहायक की मदद से अच्छे नंबरों से परीक्षा पास करने के पश्चात अर्थशास्त्र में आनर्स की डिग्री ली। पढाई के दौरान ही प्रेरक साहित्य पढने और सामाजिक कार्यों में भी उसकी रूचि बढने लगी। दिल्ली स्कूल से एमएसडब्ल्यू और मद्रास स्कूल से एम.फिल की पढाई पूरी कर मालविका ने कर्मठता, हौसले और जुनून की ऐसी दास्तान लिख दी जिसे जानने और समझने के लिए लोग व्यग्र हो गये। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम तक भी मालविका के पराक्रम की गाथा पहुंची तो उन्होंने उसे राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर सतत आगे बढते चले जाने की प्रेरणा के साथ अपार शुभकामनाएं दीं। राष्ट्रपति का पीठ थपथपा कर उत्साहवर्धन करना मालविका के लिए अभूतपूर्व पुरस्कार था। मालविका को प्रारंभ के संघर्ष भरे दिनों में मां ने कहा था कि आईने के सामने खडी होकर मुस्करा कर देखो तो तुम्हें अपनी सूरत दुनिया में सबसे सुंदर दिखेगी। अधूरे शरीर के साथ जीवन को संपूर्णता रंगों से सजाने की शपथ लेने वाली मालविका जब मंच पर बोलने के लिए खडी होती तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते। उसकी प्रेरित करने वाली भाषण कला का सम्मान देश में ही नहीं विदेशों में भी होने लगा। कई विदेशी संस्थाए उसे अपने यहां मोटीवेशन स्पीच (प्रेरक भाषण) देने के लिए निमंत्रित करने लगीं। मालविका कहती हैं कि नकारात्मकता से बचने से कई समस्याएं पलक झपकते ही खत्म हो जाती हैं। कभी भी यह नहीं सोचना चाहिए कि उनके साथ बुरा हुआ है या हो रहा है। बस आप अपनी सोच बदल दो तो दुनिया ही बदल जाएगी। गलत मनोभाव ही जीवन की एकमात्र विकलांगता है।
कहानी - २ : नक्सलियों के खिलाफ अपनी जान हथेली पर रखकर लडाई लडनेवाली आदिवासी महिला दशाय बाई को भले ही सारा देश न जानता हो, लेकिन लाल आतंक से त्रस्त हो चुके बस्तर के अधिकांश लोग उन्हें बखूबी जानते-पहचानते हैं। तभी तो वे उन्हें असली शेरनी का दर्जा देते हुए ईश्वर से यही प्रार्थना करते हैं कि देश की हर नारी दशाय बाई की तरह हिम्मती बन अमन और विकास के शत्रुओं के दांत खट्टे करती नजर आए, जिससे भारतीय महिलाओं की छवि पूरी तरह से बदल जाए। २१ अप्रेल २०१५ को दशाय बाई के पति पांडुरंग की नक्सलियों ने इसलिए हत्या कर दी थी क्योंकि वे कभी भी उनके सामने सिर झुकाने को तैयार नहीं हुए। नक्सली गांवों के विकास में रोढा अटकाते हैं और पांडुरंग ने गांव में प्राथमिक शाला, स्वास्थ्य केंद्र, सडक, बिजली और सुरक्षा का सपना देखा था। पांडुरंग सदैव गांववासियों को समझाते थे कि वे नक्सलियों के छल-कपट और फरेब का शिकार न हों। नक्सली उनके हितैषी नहीं, शत्रु हैं। पांडुरंग की हत्या करने के पश्चात नक्सलियों ने मान लिया था कि अब कोई उनकी राह में रोडा बनने की हिम्मत नहीं जुटा पायेगा, क्योंकि उनसे टकराने का क्या अंजाम हो सकता है इसका उन्होंने पुख्ता संदेश दे दिया है। खूंखार हत्यारे नक्सलियों के इस भ्रम को तोडा दशाय बाई ने और पति के संकल्प को अंजाम तक पहुंचाने के लिए कमर कस ली। ग्रामीणों को नक्सलियों के झांसे से बचाने के लिए अपनी जान तक की कुर्बानी देने को तैयार दशायबाई पढी-लिखी तो नहीं हैं, लेकिन बस्तर के दर्द और नक्सलियों के असली सच से पूरी तरह से वाकिफ हैं। उन्हें पता है कि कौन सच्चा है और कौन झूठा। उन्होंने यह भी जान लिया है कि आदिवासियों में जागृति कैसे आयेगी और उनकी विभिन्न समस्याओं का समाधान कैसे हो सकता है। वे ग्रामीणों को शासन की विभिन्न योजनाओं से अवगत कराते हुए उनसे जोडने का प्रयास करती हैं। यदि कोई समस्या आती है तो समाधान के लिए ब्लाक मुख्यालय से लेकर जनपद मुख्यालय पहुंचती हैं। ग्रामीणों को मुख्य धारा में लाने के लिए जनजागरण अभियान और संगोष्ठियों का आयोजन करती हैं। नक्सली आये दिन धमकी देते रहते हैं कि वह चुपचाप घर में बैठ जाए नहीं तो उसका भी उसके पति जैसा हश्र होगा। लेकिन वह उनकी धमकियों की किंचित भी परवाह न करते हुए पति के अधूरे काम को पूरा करने में तल्लीन हैं। सडक, बिजली, पानी और चिकित्सा सुविधाओं के लिए उनकी मेहनत धीरे-धीरे रंग भी लाने लगी है। जिस तरह से ग्रामवासी उसकी सुनते हैं और उसकी ढाल बने नजर आते हैं उससे नक्सलियों को भी लगने लगा है कि अब इस शेरनी का रास्ता रोक पाना आसान नहीं है। नक्सलियों के आतंक की वजह से वर्षों तक पूरी तरह विकास की धारा से वंचित रहे बस्तर की अब धीरे-धीरे तस्वीर बदल रही है। कई महिलाएं आदिवासी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलने का साहस जुटाने लगी हैं। कभी नक्सलवाद से बुरी तरह से प्रभावित रहे दंतेवाडा में आदिवासी महिलाएं ई-रिक्शा दौडा कर अपने परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं। नक्सलियों की दरिंदगी की हत्यारी दास्तानें किसी से छिपी नहीं हैं। दलितों, शोषितों, किसानों, आदिवासियो को उनके हक दिलाने और उन्हें शोषण से मुक्ति दिलाने के नाम पर वर्षों पहले शुरू किया गया आंदोलन आज शोषकों और लुटेरों का संगठित गिरोह बनकर रह गया है। व्यापारियों, उद्योगपतियों, नेताओं और नौकरशाहों से वसूली करने वाले कई नक्सली लाखों-करोडों में खेलते हैं। उनके पास कारें हैं, जेवर हैं, बंगले हैं और उनके बच्चे नामी-गिरामी स्कूलों और कॉलेजों में पढते हैं। कई नक्सली कमांडर करोडपति-अरबपति बन चुके हैं। अभी हाल ही में बिहार और झारखंड के नक्सली कमांडर संदीप यादव की लाखों की चल और अचल संपत्ति ईडी ने जब्त की है। संदीप यादव के साथ उसकी पत्नी, बेटा और दामाद की वो सम्पत्ति भी जब्त की गयी जिसे-दरिंदे ने उनके नाम से खरीदा था। ८८ नक्सली वारदातों को अंजाम देने वाले इस धूर्त पर पांच लाख का इनाम रखा गया। उसने सुरक्षा बलों पर कई हमले किये जिसमें लगभग डेढ दर्जन सुरक्षाबल के जवान शहीद हो चुके हैं।
कहानी -३ : छत्तीसगढ के ही बस्तर जिले के एक स्कूल में शिक्षिका हैं... मैडम फुलेश्वरी देवी। यह मैडम नशे की लत की शिकार हैं। शराब के नशे में टुन्न होकर बच्चों को पढाती हैं। होश में वह कम ही नजर आती हैं। यह रहस्य तब खुला जब पिछले दिनों स्कूल का इंस्पेक्शन करने के लिए एक टीम वहां पहुंची। टीम यह देखकर स्तब्ध रह गई कि शिक्षिका नशे में धुत्त थीं और जैसे-तैसे बच्चों को पढा रही थीं। टीम को लोगों ने बताया कि यह महिला टीचर तो प्रतिदिन शराब पीकर ही स्कूल पढाने आती हैं। टीम के समक्ष टीचर ने स्वयं स्वीकार किया कि शराब पीना उसकी दिनचर्या का हिस्सा है। बिना पिये बच्चों को पढाना उसके लिए संभव नहीं है। वैसे भी शराब पीना उनकी संस्कृति का हिस्सा है। मैडम के शराब के प्रति लगाव के पीछे का कारण सुनकर इंस्पेक्शन टीम के सदस्य भी बगलें झांकने लगे। नशे की गुलाम हो चुकी फुलेश्वरी देवी को यह भी याद नहीं रहा कि वे एक शिक्षिका हैं। उनके रहन-सहन और क्रियाकलापों का बच्चों पर प्रभाव न पडे ऐसा तो हो ही नहीं सकता। लेकिन उन्हें इससे क्या लेना-देना। अपनी कमजोरी और बुराई को छुपाने के लिए अच्छा-खासा बहाना भी उन्हें मिल गया है। दरअसल, यह नशेडी शिक्षिका ही असली विकलांग है जिसे अपने वास्तविक कर्तव्य का ही ज्ञान नहीं है। शिक्षिका ने अगर अच्छे और सार्थक मनोभावों के साथ अपने दायित्व को निभाने की सोची होती तो ऐसी शर्मसार करने वाली विकलांगता के मोहपाश में फंस कर नहीं रह जातीं।

Thursday, February 1, 2018

आखिर कैसे आयेगा बदलाव?

गोंडा जिले के नवाबगंज में अठारह वर्षीया युवती के साथ गांव के ही एक युवक ने निकाह का आश्वासन देकर शारीरिक रिश्ते बना लिए। युवती जब गर्भवती हो गई तो युवक के परिवार वालों ने यह कहकर गर्भपात करवा दिया कि गर्म के दौरान निकाह नाजायज है। युवती मान गयी। कुछ दिनों के पश्चात युवक बदला-बदला-सा नज़र आने लगा। युवती उससे बात करना चाहती तो वह तरह-तरह की बहानेबाजी कर कन्नी काटने लगता। शंकाग्रस्त युवती ने उसपर निकाह करने का दबाव बनाया तो उसने स्पष्ट इनकार कर दिया। उसने उसे उसकी अश्लील फोटो वायरल करने की धमकी देकर हमेशा-हमेशा के लिए मुंह बंद रखने की धमकी दे डाली। युवती समझ गई कि वासना का शिकार बनाकर उसके साथ धोखाधडी की गई है। युवती अपनी मां के साथ पुलिस थाना जा पहुंची और आरोपी युवक व उसके परिवार वालों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवा दी। मां-बेटी के इस हौसले से गांव वाले बौखला गये। उनका मानना था कि दोनों ने गांव की इज्जत उछालने का दुस्साहस किया है। गांव की बात गांव में ही रहनी चाहिए थी। नाराज गांववालों ने पंचायत बैठायी और मां-बेटी को पंचायत के समक्ष हाजिर होने का फरमान सुनाया। दोनों के साथ अपराधियों की तरह व्यवहार कर उन्हें धूप मे खडा रखा गया। पंचायत में पंचों ने सिर्फ और सिर्फ युवती को कसूरवार ठहराते हुए संपूर्ण परिजनों का बहिष्कार करने का निर्णय सुना दिया। इतना ही नहीं पांच हजार रुपये का जुर्माना और पीडिता का निकाह करने के बाद उसके परिवारवालों को फकीरों को भरपेट भोजन कराने की सजा भी सुना दी।
देश की राजधानी दिल्ली के निकट स्थित नोएडा में एक कलियुगी शक्की बाप ने अपनी ही बेटी को चुन्नी से गला घोंटकर मौत के घाट उतार दिया। बेटी का दोष सिर्फ इतना था कि वह फोन पर किसी से बात कर रही थी। बेटी बारहवीं की छात्रा थी। लोकलाज की चिन्ता के रोगी निर्दयी बाप ने बेटी का खात्मा करने के बाद खुद ही पुलिस को सूचना दी कि साहब मैंने अपनी बेटी की हत्या कर दी है। झूठी शान में बेटी की हत्या करने वाले बाप के चेहरे पर कोई शिकन नहीं थी। लोकलाज का रोना रोने वाले हमारे समाज में अधेडों और बुजुर्गों को जब हवस की आग झुलसाती है तो वे किस कदर शैतान बन जाते हैं इसकी भी ढेरों हकीकतें हैं। इन सच्ची दास्तानों में वे दरिंदे भी शामिल हैं जिन्हें कुदरत दादा, नाना, बाप, चाचा, भाई, मामा आदि-आदि बनने का मौका देती है, लेकिन यह लोग रिश्तों और अपनी उम्र की परवाह किये बिना ऐसी-ऐसी शैतानियां करते देखे जाते हैं कि जिससे इंसानियत और रिश्ते शर्मसार हो जाते हैं।
पूर्वी दिल्ली के गाजीपुर इलाके में एक उन्नीस वर्षीय युवती अपने नाबालिग दोस्त के साथ घूम रही थी। इस बीच एक अधेड शख्स उनके पास पहुंचा और उन्हें धमकाने लगा कि वे अश्लील हरकतें बंद कर अपने-अपने घर चले जाएं। वर्ना वह उन्हें अय्याशी करने के जुर्म में हवालात पहुंचवा देगा। डर के मारे दोनों ने वहां से खिसकने में ही अपनी भलाई समझी। लडके के चलने की रफ्तार तेज थी। युवती धीरे-धीरे चल रही थी। अधेड के लिए यह अच्छा मौका था। सुनसान रास्ते पर उसने युवती को दबोचा और उसका शील हरण कर लिया। इसके बदले में उसने युवती के हाथ में दो सौ रुपये भी जबरन थमा दिए। उस उम्रदराज अय्याश का युवती को बलात्कार के बाद रुपये देना यकीनन यही दर्शाता है कि वह ऐसे कुकर्म करने का पुराना खिलाडी है। ऐसे चरित्रहीनों की निगाह में रात को अकेले या किसी दोस्त के साथ घूमने वाली कोई भी युवती बाजारू ही होती है। उसे चंद सिक्कों में खरीदा जा सकता है, लेकिन यह युवती वैसी नहीं थी। उसने थाने में शिकायत कराने में जरा भी देरी नहीं लगायी। ऐसे नराधमों की यह सोच भी होती है कि चरित्रवान नारियां बलात्कार का शिकार होने के बाद भी लोकलाज के भय से शोर-शराबा नहीं करतीं।
देश के ही प्रदेश उत्तरप्रदेश में २६ जनवरी यानी गणतंत्र दिवस की शाम एक टीवी एंकर को अकेली देखकर दो मोटर सायकल सवार युवकों ने अपनी बेहूदा छींटाकशी का शिकार बनाया। बहादुर युवती ने जब उन्हें फटकारा तो वे और बेखौफ होकर अश्लील शब्दावली का इस्तेमाल करने लगे। बदमाश युवकों ने युवती को ऐसी-वैसी समझ लिया था, लेकिन युवती ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवा कर युवकों को सलाखों के पीछे भेजकर ही दम लिया। कहने को तो सख्त कानून बना दिये गये हैं, लेकिन फिर भी महिलाएं खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर पा रही हैं। अपने ही देश भारतवर्ष में पिछले दिनों एक फिल्म को रोकने के लिए इस कदर हंगामें हुए कि लगा कि नारी की इज्जत की रक्षा के लिए भारतवासी कुछ भी कर सकते हैं। इस खबर ने तो पूरे विश्व के लोगों के कान खडे कर दिये कि डेढ हजार महिलाओं ने जौहर के लिए पंजीयन करवाया। कई सजग लोगों के मन में यह विचार भी आया कि रानी पद्मावती के जीवन पर बनी फिल्म 'पद्मावत' को लेकर किसी पुरुष ने ऐसी बहादुरी क्यों नहीं दिखायी? महिलाओं की तरह कोई मर्द क्यों अपने प्राणों की आहूति देने के लिए तैयार नहीं हुआ? दरअसल, यही वो चालाकी है जिसका पुरुष वर्ग सदियों से इस्तेमाल कर स्त्रियों को मोहरा बना उन्हें तरह-तरह की आग के हवाले करता चला आ रहा है। जब नारी जागने को तत्पर होती है तो उसे परंपराओं और यातनाओं के पहाड के तले दबाने की कोशिश की जाती हैं। इन कोशिशों की तस्वीर कई रूप में सामने आती रहती है। महाराष्ट्र के शहर नागपुर में एक तीन-चार दिन की दुधमुंही बच्ची को सडक पर फेंक दिया गया। नवजात बच्ची को कंपाकंपा देने वाली ठंड में रोता-कराहता देख राह चलते लोग रूक गए और उनकी आंखें भीग गयीं। यह तब की बात है जब पूरे देश में नारी के सम्मान की रक्षा के लिए 'पद्मावत' फिल्म का विरोध किया जा रहा था। जगह-जगह आगजनी की जा रही थी। सरकारी और निजी संपत्तियां फूंकीं जा रही थीं। फिल्म के प्रदर्शन पर रोक नहीं लगाये जाने पर देश को बहुत बडे संकट के हवाले करने का शोर मचाया जा रहा था। यह देखकर घोर ताज्जुब होता है कि बिना देखे, जांचे, परखे कपोल कल्पित शंकाओं के बहाव में बहकर तूफान खडा करने वालों को ऐसे जीते-जागते सच क्यों नहीं दिखायी देते। कहीं ऐसा तो नहीं कि वे बदलाव के पक्षधर ही नहीं हैं?