Thursday, October 29, 2015

खौफ की सुरंग

हार का खौफ हर किसी को सताता है। राजनेता भी इससे अछूते नहीं होते। खास बनने के बाद भले ही उनके तेवर बदल जाते हैं। राजनीतिक दलों के पीछे भी नेताओं और आमजनों का बल होता है। जब भी चुनाव आते हैं तो प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री तक आम बन जाते हैं या फिर बनने के लिए मजबूर कर दिये जाते हैं। उन्हें सडक पर उतरने को मजबूर होना ही पडता है। तब उन्हें ऐसे-ऐसे लोगों की जी-हजूरी करनी पडती है, जिनकी सत्ता में रहते उन्हें कोई जरूरत महसूस नहीं होती। चुनावी हार का खौफ तो बडे-बडे नेताओं को पता नहीं किस-किस से मिलने और किस-किस-चौखट पर नाक रगडने को मजबूर कर देता है। कई बार तो राजनीति और भय एक दूसरे के पर्यायवाची नजर आने लगते हैं। दोनों अटूट रिश्ते में बंधे दिखायी देते हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को सिद्धांतवादी व्यक्ति माना जाता है। उनके द्वारा किसी तांत्रिक की चौखट पर जाकर शीश झुकाने की कल्पना ही अटपटी लगती है। लगता है इस बार के विधानसभा चुनावों ने उन्हें जादू-टोने के करीब ला दिया है। उनके चुनावी अंदाज ही बदल गये हैं। वैसे भी इस बार का विधानसभा चुनाव जल्लाद, शैतान, नरभक्षी, ब्रह्मपिशाच, भस्मभभूत और कुत्ता पालक जैसे उत्तेजक शब्दों के साथ-साथ प्रगतिशील माने जाने वाले नीतीश के अघोरी बाबा की शरण में जाकर मस्तक नवाने के लिए याद रखा जायेगा। बिहार के तीसरे चरण के चुनाव के पूर्व सामने आये या लाये गये वीडियो में तांत्रिक और मुख्यमंत्री अंधभक्ति और अंधश्रद्धा की सदियों पुरानी मायावी पोशाक में लिपटे नजर आते हैं। ऐसा लगता है जैसे एक टूटा और थका आदमी हर जगह से निराश होने के बाद औघड बाबा की भभूत को चाट कर 'विजयी' होने की भीख मांग रहा हो। मिलन के दौरान दोनों विभिन्न मुद्राओं में दिखते हैं। मुख्यमंत्री और तांत्रिक चारपाई पर विराजमान हैं। तांत्रिक उनकी तारीफ करते हुए कुछ-कुछ बडबडाने लगता है। तांत्रिक का नाम है झप्पी बाबा। अपने नाम को सार्थकता प्रदान करते हुए वह उन्हें बडी मजबूती के साथ जब अपनी बाहों में भरता है तो वे गदगद हो जाते हैं। चालाक तांत्रिक 'लालू प्रसाद मुर्दाबाद' के नारे ऐसे लगाता है जैसे लालू को गालियां दे रहा हो और नीतीश को चेता रहा हो कि इस धूर्त से गठबंधन कर आपने अच्छा नहीं किया।
वैसे भी राजनेताओं का तांत्रिकों के समक्ष नतमस्तक होने और नाक रगडने का लम्बा इतिहास रहा है। जब-जब कोई मुसीबत आती है तो अर्जुन सिंह से लेकर अमरसिंह तक की कतार के नेता तांत्रिकों, ज्योतिषियों और मौनी बाबाओं की चौखट पर 'वरदान' पाने को पहुंच जाते हैं। उनकी एक ही चाहत होती है कि शत्रु का नाश हो और उनकी जय-जय। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब नरेंद्र मोदी सरकार की ताकतवर मंत्री स्मृति ईरानी एक तांत्रिक के समक्ष अपनी हथेलियां फैलाये थीं और तांत्रिक उनका भविष्य बांच रहा था। स्मृति ईरानी को तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का शुक्रगुजार होना चाहिए जिन्होंने उन्हें आधी-अधूरी डिग्रीधारी होने के बावजूद केन्द्रीय मानव संशाधन विकास मंत्री के उच्चतम पद पर विराजमान कर दिया। लगता है कि स्मृति इससे भी बडा मंत्री पद पाने को लालायित हैं या फिर इस पद के छिन जाने के भय ने उनकी नींद हराम कर दी है। ऐसे खौफजदा लोग ही अक्सर तांत्रिकों और ज्योतिषों की शरण में जाते हैं। दूसरों के आगे निकल जाने का भय उनका पीछा नहीं छोडता। राजनीति की दुनिया की हकीकत को समझ पाना आसान नहीं है। यहां अपना काम निकालने के लिए हर उस शख्स का साथ लेने की तिकडमें की जाती हैं जिसकी बदौलत मतदाताओं को प्रलोभित कर वोट बटोरे जा सकते हैं। काम निकलने के बाद दूध में गिरी मक्खी की तरह फेंक देने में भी देरी नहीं लगायी जाती।
इस हकीकत को वो फिल्मी सितारे बखूब समझते हैं जिन्होंने अपने कैरियर को दांव पर लगाकर राजनीति के क्षेत्र में कदम रखा। पार्टियों के प्रत्याशियों को चुनाव में विजयश्री दिलवाने का माध्यम बने, लेकिन पार्टियों तथा उनके मुखियाओं ने उन्हें वो सम्मान नहीं दिया जिसके वे हकदार थे। भाजपा में अपनी दुर्गति की पीडा झेल रहे शत्रुघ्न सिन्हा इसके जीते-जागते उदाहरण हैं। मंत्री बनने के लिए कब से तडप रहे हैं, लेकिन कोई दांव काम नहीं आ रहा है। शत्रुघ्न सिन्हा कोई साधु-महात्मा तो हैं नहीं कि राजनीति में आने के बाद सत्ता की चाहत छोड देते, लेकिन नरेंद्र मोदी हैं कि उनको मंत्री पद से वंचित रख उनके सब्र का इम्तहान लेने पर तुले हैं। शत्रुघ्न कभी सोनिया गांधी की तारीफ के गुब्बारे उडाते हैं तो कभी नीतीश कुमार को बिहार का सबसे उम्दा चमत्कारी मुख्यमंत्री बताते हैं। नरेंद्र मोदी उनके इशारों को जिस तरह से नजरअंदाज कर रहे हैं उससे यही लगता है कि बिहारी बाबू कभी भी अपने माथे पर दलबदलू का ठप्पा लगा सकते हैं। चुनावों के मौसम में फिल्मी सितारों की बहुत मांग होती है। इसलिए कांग्रेस और भाजपा के आंगन में सितारों का मेला लग जाता है। भोजपुरी फिल्मों से एकाएक राजनीति में आए मनोज तिवारी भी झटके पर झटके झेल रहे हैं। मोदी लहर में दिल्ली के मतदाताओं ने सांसद बनने का सौभाग्य प्रदान कर उन्हें वो खुशियां बख्श दीं जिनकी उन्हें कतई उम्मीद नहीं थी। हमारे यहां लोकप्रियता बहुत फलदायी होती है। बिहार के विधानसभा चुनावों में मनोज तिवारी की लोकप्रियता ने भाजपा के बडे-बडे नेताओं को बौना बनाकर रख दिया है। तिवारी को मंच पर देखते ही जनता उनसे भोजपुरी गाने सुनने की फरमाइश शुरू कर देती है। तय है कि सारी तालियां भी उन्हीं के हिस्से में आती हैं। इससे बिहार के भाजपा के नेता जलभुन कर रह जाते हैं। एक पूर्व केंद्रीय मंत्री और बिहार से पार्टी के एक बडे नेता ने साफ-साफ कह दिया कि वे उस मंच पर चढेंगे ही नहीं जिस पर यह गवैया रहेगा। मनोज का गाना खत्म होते ही जनता नेताओं के भाषण सुनने की बजाय खिसक लेती है और नेताओं को मुंह लटकाये रह जाना पडता है।

Wednesday, October 21, 2015

किसका खून खौलता है?

उसके लिए सब कुछ नया-नया था। उसकी उम्र ही क्या थी? मात्र ढाई साल! वह अपनी दादी के साथ रामलीला देखने आयी थी। दशहरा के अवसर पर दिल्ली में जगह-जगह रामलीलाएं होती रहती हैं। तब दिल्ली वाले काफी धार्मिक हो जाते हैं। वह बच्ची मंत्रमुग्ध होकर राम, सीता, लक्ष्मण और हनुमान के हाव-भाव और वेशभूषा को निहार रही थी कि अचानक लाइट चली गयी। रात के लगभग साढे ग्यारह बजे थे। आसपास अंधेरा छा गया। दादी और पोती ने घर की ओर रुख किया। सडक पर भी घुप्प अंधेरा था। घर पहुंचने को उतावली पोती दादी की उंगली छुडाकर आगे की ओर निकल गयी। उम्रदराज दादी बेफिक्र थी। घर एकदम पास था। अपना इलाका था। अपनी ही दिल्ली थी और थे अपने ही लोग। इसी दौरान दो बाइक सवार बच्ची के एकदम पास आकर रूके। उन्होंने भोली-भाली बच्ची को उठाया और सरपट ले भागे। कुछ मिनट बाद लाइट आ गयी। दादी इधर-उधर देख रही थी, लेकिन पोती तो गायब हो चुकी थी। दादी सन्न रह गयी। वह भागी-भागी घर पहुंची। परिवार वालों के पैरों तले की जमीन खिसक गयी। आसपास के लोग भी भौंचक्क रह गये। अपने ही मोहल्ले में यह कैसी अनहोनी हो गयी! सभी बच्ची को तलाशने में जुट गये। पुलिस को भी सूचना दे दी गयी। रामलीला स्थल के आसपास खोजबीन की गयी, लेकिन मासूम नहीं मिली। बच्ची को ढूंढने के लिए पुलिस ने चप्पे-चप्पे की छानबीन की। रात साढे ग्यारह बजे के आसपास गायब की गयी बच्ची आखिरकार २ बजे दूर एक पार्क में बेहोशी की हालत में खून से सनी मिली। फूल सी कोमल बच्ची के शरीर के गहरे जख्म उसके साथ हुई दरिंदगी को बयां कर रहे थे। जैसे ही इस खबर को पर लगे तो उसके बाद दिल्ली ही नहीं पूरे देश के शर्मसार होने का शोर मचा। न्यूज चैनल वालों के लिए यह जबरदस्त ब्रेकिंग न्यूज थी। तीन-चार दिन तक वैसे ही शोर-शराबा होता रहा जैसा कि हर शर्मनाक कुकर्म और जानलेवा बलात्कार के बाद होता है। लेखक के मन में कई सवालों ने खलबली मचायी। क्या वाकई देश शर्मसार है? क्या वाकई ऐसी दरिंदगी हर देशवासी के मस्तक को झुकाती है और उनके खून को खौलाती है? क्या कभी किसी के मन में यह विचार भी आता है कि अगर उनका बस चले तो वे बेटियों के साथ दुष्कर्म करने वाले हैवानों को भरे चौराहे पर गोली से उडा दें? कानून का तो व्याभिचारियों और वहशियों को कोई भय रहा ही नहीं। जैसे हाल मनमोहन सरकार के वक्त में थे वैसे ही नरेंद्र मोदी के शासन काल में हैं। नारियों के लिए वही शीला दीक्षित वाली दिल्ली है जहां रात को घर से बाहर निकलने पर सैकडों सवाल खडे किये जाते थे। उन्हें अंधेरा होते ही घर में दुबक जाने की सलाह दी जाती थी। जिस दिन ढाई साल की मासूम के साथ गैंगरेप किया गया, उसी दिन दिल्ली में ही एक और पांच साल की बच्ची तीन खूंखार शिकारियों के हत्थे चढ गयी। बच्ची के माता-पिता छह महीने पहले अपने दो बच्चों के साथ काम की तलाश में राजधानी में आये थे। पिता मजदूरी करते हैं और मां किसी रईस की कोठी में खटने जाती है। रोज सुबह काम पर निकल जाने वाली मां शाम को जब घर लौटी तो उसकी बेटी का रो-रोकर बुरा हाल था। उसके गुप्तांग से ब्लीडिंग हो रही थी और कपडे खून से सने थे। मां के लिए तो यह दिल को निचोड कर रख देने वाला दर्दनाक मंजर था। बेटी ने सिसकते हुए बताया कि मकान की ऊपरी मंजिल पर रहने वाले अंकल चाकलेट वगैरा देने के बहाने जबरदस्ती उसे गोद में उठाकर अपने कमरे में ले गए। कमरे में पहले से ही मकान मालिक और एक किरायेदार मौजूद थे। तीनों ने बारी-बारी से उस पर नारकीय जुल्म ढाया और किसी के सामने मुंह खोलने पर पूरे परिवार को जान से खत्म कर डालने की धमकी दी। ऐन दशहरे के मौके पर दिल्ली में एक-एक कर चार बच्चियां दुष्कर्मियों की घिनौनी वासना का शिकार हो गयीं। मनोवैज्ञानिक कहते हैं यह नादान और मासूम बेटियां ताउम्र एक कभी भी खत्म न होने वाले सदमे में जीने को विवश रहेंगी। चाहे कितनी भी काउंसलिंग की जाए, उनका दर्द जिंदगी भर उन्हें एक डर और सदमे के साये की कैद से बाहर नहीं निकलने देगा। इस दर्द की भरपाई कोई भी नहीं कर सकता। इस घटना का असर जीवनभर देखने को मिलता है। ऐसी बच्चियां किसी पुरुष पर भरोसा नहीं कर पातीं। वे अपनी ही नजरों से गिर जाती हैं। कोई भी उत्सव इनमें खुशी की लहर नहीं ला सकता। कहते हैं कि दशहरे के दिन श्रीराम ने पथभ्रष्ट रावण का वध किया था। रावण के दस सर दस दुगुर्णों के प्रतीक हैं। काम, क्रोध, मद, लोभ, गर्व, हिंसा, पाखंड, आलस्य, व्याभिचार, द्युत। स्वयं में व्याप्त इन दुर्गुणों का नाश करने का नाम ही दशहरा है। हजारों साल से दुर्गुणों का नाश करने के नाम पर रावण के पुतले देशभर में जलाये जाते हैं। पहले पुतले छोटे होते थे। अब उनकी ऊंचाई आकाश को छूने को तत्पर नजर आती है। पुतलों के कद के साथ-साथ बुरे लोगों का कद भी बढता चला जा रहा है। कानून भी उनके समक्ष बौना नजर आता है या फिर कर दिया जाता है।
कर्नाटक के पूर्व उपमुख्यमंत्री केएस ईश्वरप्पा पर एक महिला पत्रकार ने देश में बढते बलात्कारों पर यह सवाल दागा कि... क्या ऐसे संगीन अपराधों के खिलाफ सरकार को जवाबदेह बनाने में विपक्ष विफल रहा है तो इस भाजपायी नेता ने अभद्रता की तमाम सीमाएं पार कर मुंह खोला कि -'आप एक महिला हैं। आपको यहां से अगर कोई खींचकर ले जाए और आपका रेप कर दे तो हम क्या कर सकते हैं?' सत्ताधीशों का जवाब भी ऐसा ही कुछ होता है। तभी तो व्याभिचारियों के हौसले बढते चले आ रहे हैं। उनके लिए बच्चियां सबसे आसान शिकार होती हैं। बच्चियों के साथ हो रही हैवानियत पर क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट रिपन सिप्पी का मत है कि कई बार ये लोग सेक्सुअल संतुष्टि के लिए सामने वाले पर पूरा नियंत्रण चाहते हैं। इसके लिए बच्चे इन्हें सॉफ्ट टार्गेट नजर आते हैं। छोटी बच्चियां मासूम होती हैं और विरोध भी नहीं कर पाती हैं। घरेलू झगडों, गरीबी, गंदगी में रहने के कारण ये फ्रस्ट्रेट होते हैं। अपनी फ्रस्ट्रेशन को निकालने के लिए पूरी तरह अत्याचारी हो जाते हैं और असहाय बच्चों पर आक्रोश निकालते हैं। नशे की आदत, ड्रग्स आदि लेने के कारण ये अपने आप पर नियंत्रण खो देते हैं और इस दौरान इन घटनाओं को अंजाम देते हैं। देश और प्रदेश की सरकारों की नीतियां ही कुछ ऐसी हैं कि नशाखोरों की तादाद बढती चली जा रही है। जगह-जगह देशी और विदेशी शराब की दुकानें और शराबखाने ऐसे खुल चुके हैं जैसे यह जिन्दगी की बहुत बडी जरूरत हों। गांजा, अफीम, चरस, हेरोइन और तमाम ड्रग्स भी आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं। अपने देश में अस्सी प्रतिशत दुष्कर्म की घटनाएं नशाखोरी की देन हैं। शासन और प्रशासन का अंधापन भी इस भयावह अपराध का सहभागी है।

Thursday, October 15, 2015

मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना

कुछ भी कहिए, लेकिन यह लिखने में कोई हर्ज नहीं कि देश की फिज़ा को बिगाडने का जबरदस्त षडयंत्र चल रहा है। जिनके हाथ खून से रंगे हैं उनकी शिनाख्त बहुत आसान है... लेकिन उन्हें दबोचने की कोशिशों का ज्यादा अता-पता नहीं है। कुछ बददिमाग नेताओं, सांसदों, मंत्रियों और साधु-साध्वियों का असली मकसद भी सबकी समझ में आने लगा है। देश के कई साहित्यकार बेहद चिंतित हैं। मोदी के आने पर धार्मिक भेदभाव ने काफी ज्यादा अपने पांव पसार लिये हैं। साहित्यकारों की नींद उड गयी है। उन्हें प्रधानमंत्री के इरादे कतई नेक नहीं लग रहे हैं। उनका आरोप है कि मोदी ने साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वालों को तांडव मचाने की खुली छूट दे दी है। नयनतारा सहगल, अशोक वाजपेयी, कृष्णा सोबती, शशि देशपांडे, सारा जोसेफ, गणेश देवी, गुरबचन भुल्लर, अजमेर सिंह औलख, आत्मजीत सिंह, अरुण जोशी, दलीप कौर तिवाना आदि साहित्यकारों ने देश में बढती साम्प्रदायिक घटनाओं और तर्कवादियों की हत्याओं के विरोध में अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाकर सरकार और साहित्य अकादमी की चुप्पी पर सवाल उठाते हुए उन्हे कठघरे में खडा कर दिया। साहित्यकारों की इस विरोधबाजी से तरह-तरह के सवाल गूंजे। कई प्रतिक्रियाएं भी आयीं।
पुरस्कार लौटाने वालों में पुराने साहित्यकार भी हैं और नये भी। कृष्णा सोबती, अशोक वाजपेयी, नयनतारा सहगल, दलीप कौर तिवाना जैसे उम्रदराज लेखकों ने साहित्य अकादमी के पुरस्कार और पद्मश्री लौटाने का ऐलान कर यह संदेश देने की कोशिश की, कि दादरीकांड और पाखंड के खिलाफ अभियान चलाने वाले लेखकों, समाजसेवकों की हत्याओं को बर्दाश्त नहीं किया जा सकता। साम्प्रदायिक हिंसा पर प्रधानमंत्री की चुप्पी भी बेहद चुभने वाली है। पुरस्कार लौटा कर विरोध जताने वाले साहित्यकारों के बारे में कहा गया कि यह लोग तब कहां थे जब कश्मीर में नरसंहार हो रहा था? दिल्ली में हुए हजारों सिक्खों के कत्लेआम से इनकी आखें क्यों नहीं खुलीं? आश्चर्य... बाबरी विध्वंस और उसके बाद हुए दंगों ने भी इन्हें जरा भी विचलित नहीं किया! कुंडा, मेरठ और मुजफ्फरनगर के अलावा कहां-कहां दंगे होते रहे, लेकिन तब तो इनकी आत्मा नहीं जागी! गोधराकांड और गुजरात के दंगों के बाद भी कोई 'शूरवीर' पुरस्कार लौटाने के लिए सामने नहीं आया? ग्वालियर के पत्रकार, लेखक और कवि राकेश अचल का यह कथन कितना सटीक है-"सम्मान लौटाना एक नपुंसक विरोध है। विरोध करना है तो मैदान में उतरिए। जिन्हें अमन और शांति का शत्रु मानते हैं उनके नाक, कान कुतरिए।" विभिन्न राजनीतिक पार्टियों के नेताओं की तरह कुछ साहित्यकारों को यदि यह लगता है कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में धर्मनिरपेक्षता पर संकट के बादल छाते चले जा रहे हैं। मुसलमानों को तरह-तरह प्रताडित किया जा रहा है और भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने का षडयंत्र रचा जा चुका है तो उन्हें अपनी कलम को हथियार बनाने से किसने रोका है? साहित्यकारों और पत्रकारों के पास कलम नाम का जो अस्त्र है उससे ही लोगों की चेतना जगायी जा सकती है और शासकों की नींद हराम की जा सकती है। पुरस्कार लौटाने से नरेंद्र मोदी जैसे राजनेता पर कोई फर्क नहीं पडने वाला। जिस शख्स ने गुजरात दंगों के संगीन आरोपों की कभी परवाह न की हो और जनता ने जिसे बार-बार प्रदेश के मुख्यमंत्री की गद्दी सौपी हो उसे ऐसे तमगे लौटाने के खेल से कोई फर्क नहीं पडने वाला। प्रधानमंत्री की कुर्सी तक पहुंचने से पहले ही वे इतनी आलोचनाएं और दबाव झेल चुके हैं। कि अब सुनकर अनसुना कर देना उनकी आदत में शुमार हो चुका है। नैतिक दबाव भी उन पर आसानी से असर नहीं डालते। उनकी सोच को बदलने के लिए कलम और वाणी को धारदार हथियार बनाने के सिवाय और कोई रास्ता नहीं है। अपने देश की जागरूक जनता लेखकों और पत्रकारों का सम्मान करती है। उनके लिखे और बोले का उस पर बहुत गहरे तक असर पडता है। इतिहास गवाह है कि साहित्यकारों और पत्रकारों की आक्रामक लेखनी और बुलंद आवाज  ने बेलगाम सत्ताधीशों को कई बार आसमान से जमीन पर पटक कर उनके होश ठिकाने लगाने का करिश्मा कर दिखाया है। कुशासन, अनाचार और भ्रष्टाचार के खिलाफ होने वाली हर लडाई में देशवासी खुद-ब-खुद शामिल हो जाते हैं। जनता के साथ की ताकत की बदौलत ही कई युद्ध सफलतापूर्वक लडे जा चुके हैं। याद कीजिए वो दौर जब इंदिरा गांधी ने देश पर जबरन आपातकाल थोपा था और लोकतंत्र खतरे में पड गया था। तब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी की हिटलरी प्रवृति के खिलाफ पूरे देश में घूम-घूम कर अभियान चलाया था। देश के कई साहित्यकारों और पत्रकारों ने आपात काल के विरोध में कलम के जरिए जनता को जागृत कर जयप्रकाश के आंदोलन को देश के कोने-कोने में पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोडी थी। यह बात अलग है कि तब कुछ साहित्यकार और पत्रकार बिकने से नहीं बच पाये थे। जयचंद तो हर काल में हुए हैं। उत्तरप्रदेश के मंत्री आजम खान को लगता है कि भारत में मुसलमान खौफ में जी रहे हैं। उनके अधिकारों का हनन हो रहा है। एक ताकतवर मंत्री ही जब देश के अंदरूनी मामले को संयुक्त राष्ट्र (यूएन) ले जाने का साहस दिखाए तो करोडों भारतीयों का खून खौलना नाजायज तो नहीं? जो तकलीफ देश में बयां करनी चाहिए और उसका हल भी यहीं तलाशना चाहिए... उसे सात समंदर पार ले जाकर वे खुद को किस किस्म का देशभक्त और मुसलमानो का एकमात्र खैरख्वाह साबित करना चाहते हैं? बदहवास आजम खान की यह बदमाशी अपने ही देश का सरासर अपमान है। पुरस्कार लौटाकर देश का अपमान तो साहित्यकारों ने भी किया है। उन्ही की वजह से विदेशों में देश बदनाम तो हुआ ही है कि भारत कैसा देश है जहां बुद्धिजीवियों की बात नहीं सुनी जाती। उन्हें वर्षों की तपस्या के बाद हासिल किये गये तमगों को लौटाने को मजबूर होना पडता है। दादरी कांड में अपने पिता अखलाक की मौत के बाद वायुसेना में कार्यरत उनके बेटे मुहम्मद सरताज बेहद संयत बने रहे। अमानवीयता और बर्बरता की पराकाष्ठा पार करने वाली इस घटना के बाद भी सरताज शांति और भाईचारे की अपील करना नहीं भूले। वे अभी भी यही कहते नहीं थकते-'सारे जहां से अच्छा हिन्दोसतां हमारा, मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर करना'। उन्मादियों के हाथों मारे गये पिता के बेटे का मर्यादित रहकर सभी को मिलजुलकर रहने का संदेश देना साम्प्रदायिक सौहार्द बिगाडने वाले हत्यारों और दरिंदों के मुंह पर ऐसा तमाचा है जिसकी गूंज दूर-दूर तक गयी है। कवि, गज़लकार श्री अशोक रावत की लिखी यह पंक्तियां राजनेताओं की नीयत और आज के यथार्थ को कितने सहजअंदाज से बयां करती हैं :
"हमदर्द मेरे हर मौके पर, वादों को निभाना भूल गये,
दुनिया के फसाने याद रहे, मेरा ही फसाना भूल गए।
कुछ बेच रहे हैं जात-पात, कुछ मंदिर मस्जिद गुरुद्वारे,
सब अपनी जिम्मेदारी का एहसास जताना भूल गए।
ये बीफ मटन की चिनगारी, ये आरक्षण के दांव पेच,
लगता है जैसे बादल भी आग बुझाना भूल गए।"

Thursday, October 8, 2015

अफवाहों की आंधी

इस देश में अफवाहें और शक भी कम कहर नहीं ढाते। हंसते-खेलते इंसानों की बलि ले ली जाती है। बलि लेने वाले भी अपने इर्द-गिर्द के लोग होते हैं। भले ही वे अपनी गलती को ना स्वीकारें, लेकिन फिर भी कहीं न कहीं उनकी भागीदारी तो होती ही है। तटस्थता, चुप्पी और अनदेखी का लबादा ओढकर उस शर्मनाक सच से नहीं बचा जा सकता जो कातिलों का हौसला बढाता है। कहते हैं कि दुनिया में हर बीमारी का इलाज है, लेकिन शक का नहीं। इस लाइलाज बीमारी ने कितनों की जानें लीं और कितने खून-खराबे हुए इसका कोई हिसाब नहीं है। इस जानलेवा रोग के इलाज की जिन लोगों पर जिम्मेदारी है वही इसे पनपाने और बढाने में लगे रहते हैं। कौन हैं वे लोग? हर कोई जानता है इस देश के वोटप्रेमी नेता, कट्टरपंथी ताकतें और तथाकथित बुद्धिजीवी... समाज के ठेकेदार जिनके बहकाने, भडकाने के कारण यह बीमारी महाविनाशी बनती चली जा रही है। देश की राजधानी से मात्र ४५ किलोमीटर दूर उत्तरप्रदेश के दादरी उपखंड स्थित बिसहाडा में मोहम्मद अखलाक को सैकडों लोगों की उन्मादी भीड ने गोमांस खाने के शक में पीट-पीटकर मार डाला। वर्षों तक गांव के प्रधान रहे भाग सिंह मीडिया के सामने आये तो रोने गाने लगे : "इस खौफनाक घटना ने मुझे स्तब्ध कर दिया। मैं सोचता रहा कि जिस गांव में कभी भी हिन्दू-मुस्लिम विवाद नहीं हुआ वहां अच्छे भले इंसान की निर्दयता के साथ हत्या कैसे कर दी गयी?" गांव के प्रधान के घडियाली आंसुओं से हकीकत पर पर्दा नहीं डाला जा सकता। कोई उनसे पूछे कि अगर गांव में इतना सदभाव और भाई-चारा था तो शक और अफवाह के चलते देखते ही देखते एक जिन्दा इंसान लाश में कैसे तब्दील कर दिया गया? भीड को किसी की जान लेने का हक किसने दे दिया? मोहम्मद अखलाक के हत्यारे कहीं बाहर से तो नहीं आये थे। थे तो उसी गांव के ही जहां पर हिन्दू और मुसलमानों में तथाकथित रूप से अभूतपूर्व सर्वधर्म समभाव का वातावरण था।
ताज्जुब! ...गांव के मंदिर के पुजारी ने ढिंढोरा पीटा कि ५२ वर्षीय अखलाक के परिवार ने एक गाय के बछडे को मारकर उसका मांस पकाया और खाया है तो वर्षों पुराने भाईचारे के परखच्चे उड गये और सच्चाई जाने बिना एक बुजुर्ग की निर्मम हत्या और उसके बेटे को लहुलूहान करके रख दिया गया। इसके बाद तो देशभर में घटिया राजनीति और जहरीले बयानों का तांता लगने में जरा भी देरी नहीं लगी। इसी दौरान सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश मार्कंडेय काटजू का बहुत ही घटिया बयान आया: 'हां मैं गोमांस खाता हूं, खाता रहूंगा, मुझे कौन रोक सकता है। दुनिया भर के लोग गाय का मांस खाते हैं। गाय महज एक जानवर है। उसे माता मानना बेवकूफी की बात है।' संजय दत्त जैसे देशद्रोही के बचाव में जमीन-आसमान एक कर देने की अक्लमंदी दिखाने वाले काटजू को अगर गोमांस अच्छा लगता है तो वे जी भरकर खाएं, उन्हें किसने रोका है, लेकिन इस तरह से भावनाएं भडकाने वाले शब्द उछालने के क्या मायने हैं? यह तो जलती हुई आग में पेट्रोल छिडकने वाली शर्मनाक कारस्तानी है जो काटजू जैसों की फितरत बन चुकी है। उन्हें यह अधिकार किसने दिया है कि वे उन करोडों हिन्दुओं की भावनाओं को आहत करें जो गाय को अपनी माता मानते हैं। आप पर तो कहीं कोई यह दबाव नहीं डाला जा रहा है कि आप गाय को मां मानें। इस तरह की बकवासबाजी करने का किसी को भी कोई हक नहीं है। काटजू जैसे भडकाऊ प्रवृत्ति के लोगों के कारण ही हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच अविश्वास की दीवारें खडी होती हैं। पूर्व न्यायाधीश काटजू और यूपी के नगर विकास एवं अल्पसंख्यक कल्याण मंत्री आजम खान और भगवाधारी सांसद साक्षी महाराज तथा साध्वी प्राची जैसे लोग ऐसे चेहरे हैं जो कभी जोडने की बात नहीं करते। अधिकांश देशवासी भी इन्हें भरोसे के काबिल नहीं समझते। इनकी बातों को हवा में उडा देते हैं। फिर भी कुछ विघ्नसंतोषी लोग हैं जो इनके कट्टर मुरीद हैं जिनके कारण देश आहत होता रहता है। कहते हैं कि पेट में गया जहर सिर्फ एक आदमी को मारता है और कान में गया जहर सैकडों रिश्तों की हत्या कर देता है। यह लोग यही कर रहे हैं। अपने देश में विषैले बोल बोलकर उन्माद फैलाने वालों में कुछ हिन्दू भी शामिल हैं और मुसलमान भी। इस देश का आम हिन्दू और मुसलमान अमन और शांति के साथ जीवन बसर करना चाहता है, लेकिन धर्म के ठेकेदारों के हमेशा यही इरादे रहे हैं कि उनमें आपसी दूरियां और अस्थिरता बनी रहे। इसी से उनके स्वार्थ सधते हैं। इनकी शरारतों का कोई अंत नहीं है। हिन्दू और मुसलमानों को लडाने के इन्हें सभी तरीके आते हैं। तभी तो कभी कहीं पर गाय के कटने का वीडियो आ जाता है तो कभी कोई शातिर मंदिर के सामने तो कभी मस्जिद के सामने मांस का टुकडा फेंक चलता बनता है और दंगे हो जाते हैं। बाजार, बस्तियां और घर जला दिये जाते हैं। लाशें बिछ जाती हैं। मरने वालों में हिन्दू भी होते हैं और मुसलमान भी। इस सच को सभी समझते हैं, लेकिन फिर भी कुछ लोग इंसानियत और सर्वधर्म और एकता के शत्रुओं के बहकावे में क्यों आ जाते हैं? उन पर मोहम्मद जकी खान जैसे मानवता प्रेमी कोई असर क्यों नहीं डाल पाते?
दादरी में जब गोमांस खाने की अफवाह के चलते अखलाक को पीट-पीटकर मार डालने की खबर देश की शान पर बट्टा लगा रही थी और अमन के दुश्मनों के चेहरे की रौनक बढा रही थी तभी लखनऊ में कुएं में गिरी गाय को बचाने के लिए जकी खान सांप्रदायिक ताकतों के मुंह पर तमाचे जडने के काम में लगा था। हुआ यूं कि हिन्दू बाहुल्य भीतलखेडा इलाके में एक गाय कुएं में गिर गयी। लोगों ने क्रेन मंगाकर उसे बाहर निकालने का प्रयास किया, लेकिन सफलता नहीं मिल पायी। तभी इसी इलाके में रहने वाला पेंटर जकी खान नमाज पढने जा रहा था। कुएं के सामने खडी क्रेन और भीड को देखकर जब उसे पता चला कि गाय कुएं में गिर गयी है तो वह फौरन क्रेन के जरिए पट्टे के सहारे कुएं में उतर गया। करीब पहुंचने पर गाय ने उस पर सींग से वार कर दिया। उसने चोट की परवाह ना करते हुए गाय को बाहर निकाल कर ही दम लिया। वह जब कुएं से बाहर निकला तो भीड ने तालियां बजायीं। प्रफुल्लित लोगों ने उसे शाबासी देते हुए अपने गले से लगा लिया। हिन्दुस्तान के करोडों हिन्दू और मुसलमान सिर्फ और सिर्फ जात-पात और धर्म से उठकर जीने में विश्वास रखते हैं। उन्हें धर्मनिरपेक्ष सोच के लोग भाते हैं। आतंकी और सांप्रदायिक चेहरों के प्रति उनका कतई लगाव और जुडाव नहीं है। उन सबकी सोच और चाहत सोशल मीडिया पर छायी किसी कवि की लिखी कविता की इन पंक्तियों के अर्थ से कतई भिन्न नहीं है:
मैं मुस्लिम हूं
तू हिन्दू है
दोनों हैं इंसान...
ला मैं तेरी
गीता पढ लूं
तू पढ ले कुरान।
अपने तो दिल में है दोस्त
बस एक ही अरमान...
एक थाली में खाना खाये
सारा हिन्दुस्तान।

Thursday, October 1, 2015

इस हकीकत को समझो...

आजकल अच्छी खबरों का तो जैसे अकाल पड गया है। ऐसा भी लगता है कि सकारात्मक खबरों को ज्यादा अहमियत नहीं दी जाती। राजनीति, सेक्स और अपराधकर्म से जुडी खबरों से अखबार भरे नजर आते हैं। न्यूज चैनल वाले भी यही मानते हैं कि लोग मनोरंजन चाहते हैं। उन्हें गंभीर विषय पसंद नहीं आते। इसलिए वे भी सनसनी मचाये रहते हैं। फिर भी जब आशा के दीप जलाने वाली खबरें सुर्खियां पाती हैं तो बहुत अच्छा लगता है। कल जब अखबार के पन्ने पलटने शुरू किये तो एक खबर के इस शीर्षक ने बरबस आकर्षित कर लिया : 'राधास्वामी की शरण में पहुंचे फोर्टिस के शिवेंदर' आकर्षित होने की एक वजह यह भी थी कि अखबारों में छोटे-मोटे लोगों के बारे में इस तरह से खबरें नहीं छपतीं जिस तरह से यह खबर छापी गयी थी। मन में एकाएक जिज्ञासा जागी कि आज के इस दौर में जब आश्रमों और डेरों को लेकर जबरदस्त अविश्वास का माहौल है और साधु-साध्वियों के नकाब उतर रहे हैं, तब ऐसे में सत्संगी होने जा रहा यह शिवेंदर नामक शख्स कौन है और उसने आखिर ऐसा निर्णय क्यों लिया?
वाकई शिवेंदर बहुत बडी हस्ती हैं। वे फोर्टिस अस्पताल के मालिक हैं। देश के १५ शहरों में मरीजों को इलाज की बेहतरीन सुविधा उपलब्ध करवाने के कारण अच्छी-खासी ख्याति अर्जित कर चुके इस अस्पताल की पूंजी पांच हजार करोड रुपये से ज्यादा है। उनके अस्पतालों की ये चेन दुनिया भर के दस देशों में अपनी सेवाएं देती चली आ रही है। देश और दुनिया में अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा कर चुके ४० वर्षीय शिवेंदर ने फोर्टिस हेल्थ केयर कंपनी को चलाने और जमाने के लिए बीस वर्ष तक अथक मेहनत की और खूब पसीना बहाया। जब धन-दौलत का सुख भोगने का वक्त आया तो शिवेंदर ने सुविधा भोगी उद्योगपतियों और व्यापारियों के पदचिन्हों पर चलने के बजाय अपने जमे-जमाये कारोबार से किनारा कर राधा स्वामी सत्संग ब्यास के सेवक बनने का ऐलान कर देश और दुनिया को हैरत में डाल दिया। यकीनन उनके महाराजा से जन सेवक बनने की खबर ने करोडों लोगों के दिल को भी छू लिया। शिवेंदर ने संन्यास लेने की वजह इन शब्दों में बतायी: 'मेरा संकल्प रहा है कि हम जिन्दगी को बचाएं और उसे और बेहतर बनाएं। पिछले कुछ समय से मैं महसूस कर रहा हूं कि मुझे जो कुछ मिला है उसे समाज को सीधे सेवा के जरिए लौटाना चाहिए।' अपने इसी उद्देश्य के लिए उन्होंने राधास्वामी सत्संग ब्यास का दामन थामा है। गौरतलब है कि राधास्वामी का मतलब होता है... आत्मा के भगवान। सत्संग का मतलब होता है सच्चाई से अवगत कराना। ब्यास एक कस्बा है, जो पंजाब की पवित्र नगरी अमृतसर के पास स्थित है। इसकी स्थापना १८९१ में की गयी थी। राधास्वामी का मूल उद्देश्य धार्मिक संदेश देकर लोगों की जीवन में सुधार और मानवता की सेवा करना है। भारतवर्ष के साथ-साथ दुनियाभर के ९० देशों में सक्रिय इस आध्यात्मिक और दार्शनिक संस्था का किसी भी राजनीतिक दल और व्यावसायिक संगठन से कोई वास्ता नहीं है। किसी ने सच कहा है कि इस विशाल सृष्टि में सबसे ज्यादा रहस्यमय अगर कोई है तो वह इंसान है। उसे पूरी तरह से समझ पाना बहुत मुश्किल है। वह कब क्या कर जाए उसे खुद पता नहीं होता। धन-दौलत से हर किसी को आत्मिक खुशी नहीं मिलती। प्रसन्नता और संतुष्टि भी किसी भी बाजार में नहीं बिकती। इन्हें खुद ही खोजना पडता है। अपने मन की करने के लिए किसी की सलाह और इंतजार में समय क्यों गंवाना?
अपने देश में पति, पत्नी के बीच मनमुटाव, तनातनी और फिर तलाक की नौबत आ जाना कोई नयी बात नहीं है। बबलू सिंह और उसकी पत्नी सोनू अरोरा को जब लगा कि अब उन दोनों का साथ रह पाना मुश्किल है तो उन्होंने जबलपुर के कुटुंब न्यायालय में तलाक के लिए अर्जी दायर कर दी। आपसी कटुता की वजह से दोनों को एक-दूसरे का चेहरा देखना गवारा नहीं था। कोर्ट के चक्कर काटते-काटते छह माह बीत गये। इस बीच बबलू सिंह की किडनी खराब हो गयी। बीते मंगलवार को मामले की सुनवाई के दौरान मीडिएटर जब दोनों पक्षों को समझाइश दे रहे थे तभी बबलू ने बताया कि उसकी एक किडनी खराब हो चुकी है और उसे लगातार डायलिसिस की जरूरत पडती है। यह सुनते ही सोनू को एक झटका-सा लगा। उसकी आंखें भर आयीं। वह तलाक लेने के इरादे को भूल मौत के कगार पर खडे पति का उदास और बीमार चेहरा ताकने लगी। वह एक ही झटके में पति के निकट जा पहुंची और उसे आश्वस्त करते हुए कहा कि तुम चिंता मत करो। मैं तुम्हें अपनी किडनी दूंगी। तुम्हें कुछ भी नहीं होगा। कल तक तलाक के लिए अडी पत्नी की इस आत्मीयता ने कोर्ट में मौजूद सभी लोगों को स्तब्ध कर दिया। उनकी आंखों से झर-झर कर आंसू गिरने लगे। इसे आप क्या कहेंगे? जिन्दगी का यही असली सच है। जीवन की हकीकत को किसी कवि ने इन शब्दों में बयां किया है:
कभी कभी
आप अपनी जिन्दगी से
निराश हो जाते हैं
जबकि
दुनिया में उसी समय
कुछ लोग
आपकी जैसी जिन्दगी
जीने का सपना देख रहे होते हैं।
घर पर खेत में खडा बच्चा
आकाश में उडते हवाई जहाज को देखकर
उडने का सपना देख रहा होता है,
परन्तु
उसी समय
उसी हवाई जहाज का पायलट
खेत और बच्चे को देख
घर लौटने का सपना
देख रहा होता है
यह जिन्दगी है।
जो तुम्हारे पास है, उसी का मजा लो।
अगर धन-दौलत
रुपया पैसा ही
खुशहाल होने का सीक्रेट होता,
तो अमीर लोग नाचते दिखायी पडते,
लेकिन गरीब बच्चे
ऐसा करते दिखायी देते हैं।
इसलिए दोस्तो
यह जिन्दगी...
सभी के लिए खूबसूरत है
इसको जी भरकर जीयो
इसका भरपूर लुत्फ
उठाओ
क्योंकि
जिन्दगी ना मिलेगी दोबारा।