Thursday, August 29, 2013

नर-भेडि‍यों पर रहम क्यों?

पहले आप यह खबर पढ लें...
नई दिल्ली से पुणे जा रही इंडिगो की उडान में एक महिला ने अपने पति की धुनाई कर दी। लात और घूसों से पति परमेश्वर की पिटायी करने वाली महिला का गुस्सा शांत होने का नाम नहीं ले रहा था। वह चिल्ला-चिल्लाकर यात्रियों को बता रही थी कि इस कुकर्मी ने तो अपनी बेटी तक को नहीं बख्शा। यह वो दरिंदा है जिसे अपनी बेटी की अस्मत लूटने में कोई शर्म नहीं आयी। जब विमान में सवार यात्रियों और हवाई सुंदरियों ने महिला को ठंडा करने की कोशिश की तो उसका पारा और ऊपर चढ गया। उसकी तमतमाती पीडा इन शब्दों में मुखरित हो उठी- 'यह इंसान दिखने में तो बडा सीधा-सादा है। लेकिन इसकी घिनौनी हरकतें शैतान को भी मात देने वाली हैं। बेटी के साथ दुराचार करने वाला यह वहशी बाप कहलाने का भी हकदार नहीं है। खुद की बेटी को अपनी हवस का शिकार बनाने वाले इस नीच शख्स को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए।' सुरक्षा रक्षकों ने जैसे-तैसे उस गुस्सायी मां को अलग सीट पर बिठाया। फिर भी वह गाली-गलोच कर अपनी भडास निकालती रही। पति पूरे सफर के दौरान चुपचाप सिर झुकाए बैठा रहा। दुनिया की कोई भी मां अपनी दुलारी बिटिया के साथ अशोभनीय व्यवहार बर्दाश्त नहीं कर सकती। फिर बलात्कार तो ऐसा पाप है जो जननी की रूह तक को कंपा और रूला कर रख देता है और वह चंडिका बनने में भी नहीं सकुचाती।
वैसे तो हर मां-बाप को बेटियां जान से प्यारी होती हैं। कुछ बाप ऐसे भी होते हैं जिनकी वासना उन्हें हैवान बना देती है। जहां आस्था और विश्वास के रिश्ते कलंकित होने लगते हैं वहां मानवता तो क्या देवी-देवताओं पर से भी विश्वास उठने लगता है। इंसानों और पशुओं में अंतर कर पाना मुश्किल हो जाता है। देश के विख्यात कथा वाचक आसाराम पर देश की एक बेटी ने दुराचार का आरोप लगाया है। ७५ साल के तथाकथित संत के हाथों छली गयी बालिका की अंतहीन पीडा को झुठलाने की साजिशें की जा रही हैं। कोई भी लडकी बेखौफ होकर किसी बडी हस्ती पर ऐसे आरोप नहीं लगा सकती, जैसे आसाराम पर लगे हैं। देश की इस बहादुर नाबालिग बिटिया का कहना है कि बापू अनुष्ठान के बहाने उसे जोधपुर में मणाई स्थित आश्रम में पिछले दरवाजे से अपने कमरे में ले गये थे। उस समय अनुष्ठान के भ्रम में उसके माता-पिता कमरे के बाहर प्रार्थना कर रहे थे। वह तो आसाराम के पास जाना ही नहीं चाहती थी। परिवार वालों की अंधभक्ति ने उसे मजबूर कर दिया और वह तमाशा बन गयी। आसाराम के अंधभक्तों को १६ साल की लडकी छल-कपट और झूठ का प्रतिरूप लग रही है और उम्रदराज गुरू पूरी तरह से सीधा, सच्चा और पाक-साफ। कोई इन भक्तों से पूछे कि यदि उनकी बेटी के साथ ऐसा कुछ हुआ होता तो क्या तब भी वे चुप रह जाते। बापू के साथ खडे रह पाते? यह तो अच्छा हुआ कि लडकी बहादुर निकली। कमजोर होती तो आत्महत्या कर लेती और पूरे देश में हंगामा हो जाता। अपने देश में जिन्दा लोगों की उतनी नहीं सुनी भी जाती। स्वामी नित्यानंद के व्याभिचार के किस्सों को भी देशवासी अभी तक नहीं भूले हैं। कई महिलाओं से रिश्ते रखने वाले नित्यानंद को ५२ दिनों जेल की हवा खानी पडी थी। बाहर आते ही वह अपने प्रवचनों के धंधे में लग गया। भीड भी जुटने लगी। कुछ ढोंगी साधु-संतो के आश्रम आस्था के खंडहर बनते चले आ रहे हैं। मुंबई की शक्ति मिल भी खंडहर में तब्दील हो चुकी थी। इसी उजाड खंडहर में २२ वर्षीय फोटो पत्रकार सामूहिक दुष्कर्म का शिकार हो गयी। पांच हैवानों की यातना के दंश झेलने के बाद भी युवती का हौसला बरकरार है। यही इस देश की नारी की असली पहचान है। उसका कहना है दुष्कर्म के कहर से जिन्दगी खत्म नहीं होती। उसकी बस यही तमन्ना है कि बलात्कारियों को ऐसी कठोरतम सजा मिले कि वे दोबारा किसी महिला की ओर बुरी निगाह डालने के काबिल ही न रहें।
कुछ महीने पूर्व जब चलती बस में दामिनी पर बलात्कार की खबर से देश दहल उठा था। तब लोग सडकों पर उतर आये थे। हर किसी ने बलात्कारियों को फांसी पर लटकाने की मांग की थी। जिस तरह से सरकार ने बलात्कारियों के प्रति कडे तेवर अपनाने का ऐलान किया था उससे तो यही लगा था कि बलात्कार थम जाएंगे। पर बलात्कारों का तो सिलसिला-सा चल पडा। यह बात भी तय हो गयी है कि बलात्कारी न तो जनआक्रोश से भयभीत होते हैं और न ही कानून से। ऐसा प्रतीत होता है कि कुछ लोगों को अपनी मर्यादा खोने में फख्र महसूस होता है। जहां पिता ही बेटी की अस्मत का लुटेरा बन जाए और गुरू तथा साधु-संत ही बलात्कारी के चोले ओढने लगें वहां पर कानून को और धारदार होना ही पडेगा। जैसे को तैसे की भूमिका अपनानी ही पडेगी। बलात्कारी चाहे कोई भी हो उसे बिना कोई रियायत दिए फौरन मौत की सजा दी ही जानी चाहिए। यही समय की मांग है। बलात्कारियों के प्रति लोगों में इतना अधिक गुस्सा है कि वे कुछ भी कर सकते हैं। लोग अब कहने भी लगे हैं कि देश में तभी बलात्कार रूकेंगे जब नामी-गिरामी बलात्कारियों को भरे चौराहों पर खडा कर कुत्ते की मौत मारा जायेगा। इनका ऐसा हश्र देखकर आम अपराधी भी सुधरेंगे और बलात्कार करने का जौहर दिखाने से बाज आएंगे।

Thursday, August 22, 2013

नायक और खलनायक

प्याज तो बहुत छोटी चीज़ है। सत्ता के लिए यह कुछ भी कर सकते हैं। वैसे भी नाटक करने में इनका कोई सानी नहीं है। बडे ही सिद्धहस्त कलाकार हैं ये। डबल रोल करने में भी माहिर हैं। कई तो ऐसे भी हैं जो खलनायक होने के बावजूद भी हमेशा नायक का चोला धारण किये रहते हैं। बरसाती मेंढक भी अपने-अपने रंग में आ जाते हैं। चुनावी मौसम के आते ही देशभर में इनकी उछलकूद शुरू हो जाती है। लेकिन देश की राजधानी दिल्ली इनका बेहद पसंदीदा मंच है। देश भर के दर्शकों की निगाहें भी तो दिल्ली के इसी भव्य मंच पर टिकी रहती हैं।
मंच पर इन दिनों तरह-तरह के नाटक मंचित हो रहे हैं। मंच पर दूकाने सजी हैं। प्याज के ढेर लगे हैं। जोकरों के हाथों में तराजू हैं। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित पचास रुपये किलो में प्याज बेच रही हैं। भाजपा के विजय गोयल और आम आदमी पार्टी के अरविं‍द केजरीवाल अपने चुनावी प्याज चालीस रुपये किलो में बेच रहे हैं। तय है कि ज्यादा भीड इन्हीं दोनों स्टालों पर है। लोग धडाधड प्याज खरीद रहे हैं। शीला को गुस्सा आ रहा है। चिं‍तित भी हैं। चिं‍तन-मनन कर रही हैं। कमबख्त लुटिया डुबोने पर तुले हैं। पर मैं इनकी दाल किसी भी हाल में गलने नहीं दूंगी। देखती हूं कितने दिन तक घाटा खाकर प्याज बेचते हैं। एक-एक को नानी याद दिला दूंगी। आखिर दिल्ली में मेरी सरकार है। अपनी सल्तनत को यूं ही नहीं लुटने दूंगी। इन्हें मात देने के लिए सारी सरकारी तिजोरियां खोल दूंगी। यह लोग अगर बाज नहीं आए तो मुफ्त में प्याज के साथ-साथ दूसरी सभी सब्जियां बांटने से भी नहीं चूकूंगी। यह थके हुए खिलाडी क्या जानें सत्ता की ताकत।
भाजपा के लिए तो यह बदला लेने का बेहद अच्छा मौका है। वह यह कैसे भूल सकती है कि १९९८ में इसी प्याज की वजह से ही उसने शीला दीक्षित से मात खायी थी और अपनी सत्ता गंवानी थी। आम आदमी पार्टी के सुप्रीमो केजरीवाल को भी प्याज के आसमान छूते दामों ने सत्ता पाने के भ्रम का शिकार बना दिया है। उन्हें भी इतिहास के दोहराये जाने का यकीन है। उन्हें यह भी भरोसा है कि इस बार सिर्फ और सिर्फ उनकी ही किस्मत का ही ताला खुलने वाला है। कांग्रेस और भाजपा आपस में लड मरेंगे और दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार बनेगी।
चुनावों में जीत का सेहरा बांधने को लालायित कई नेता टोटकेबाजी और भ्रम के भंवर में डूबे हैं। यह लोग देशवासियों को भी भ्रम का शिकार बनाये रखना चाहते हैं। इनके चेहरे पर लुभावने मुखौटे सजे हुए हैं। भ्रम जब कभी फलदायी हो जाता है तो उसके साथ विश्वास भी जुड जाता है। यह विश्वास धीरे-धीरे अंधविश्वास में तब्दील हो जाता है। अंधविश्वास ने इस देश का कितना कबाडा किया है और किस कदर अपराधों को जन्म देने का सिलसिला बनाये रखा है उससे सभी सजग भारतवासी वाकिफ हैं। पर नेताओं को इससे कोई फर्क नहीं पडता। मरना तो उन्हें पडता है जिन्हें अंधविश्वासियों के दिलों में जडे जमा चुकी तूफानी आस्था के खात्मे के लिए खुली जंग लडनी पडती है...।
दरअसल देश का आम आदमी लुटे-पिटे दर्शक की मुद्रा में है। उसे सत्ता के कुछ लुटेरों ने भरे बाज़ार लूट लिया है। नेता और मुनाफाखोर दोनों मजे में हैं। प्याज की जमाखोरी करने वाले कई सफेदपोश नेतागिरी के धंधे के भी सिकंदर हैं। किसी का कांग्रेस से तो किसी का भाजपा आदि... आदि से टांका भिडा है। इस देश के गरीब के पास न तो खाने के लिए पैसे हैं, न ही दवाओं को खरीदने के लिए। जीवनरक्षक दवाएं तो अब उसके लिए सपना होने जा रही हैं। बहुराष्ट्रीय दवा कंपनियों ने मुंह मांगी कीमतों पर भारतीय दवा कंपनियों को खरीदने का अभियान तेज कर दिया है। ऐसे में दवाएं कितनी महंगी होंगी और जिं‍दगियां कितनी सस्ती हो जाएंगी इसकी सहज कल्पना की जा सकती है। आठ सौ करोड रुपये से ज्यादा की कीमत की भारतीय दवाओं पर विदेशी कंपनियों का कब्जा होने जा रहा है। सरकार बेबस है। देश का रुपया लगातार गिर रहा है। अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री के दिमाग ने काम करना बंद कर दिया है। महंगाई अपनी चरम सीमा को पार कर चुकी है। देश दिवालिया होने के कगार पर है। घपले-घोटाले करने वाले आनंदित हैं। उनके कुकर्मों की फाइलें गुम होने लगी हैं। यह कोई नयी बात नहीं है। भ्रष्टाचारियों को बचाने के लिए बडी-बडी ताकतें अपना काम करती रहती हैं। साजिशें चलती रहती हैं। जब हाथ की सफाई कारगर नहीं हो पाती तो उस कार्यालय को ही राख कर दिया जाता है जहां फाइलें सजी होती हैं। कोयला घोटाले की कई फाइलें गायब हो गयी हैं। इन फाइलों को पहिये नहीं लगे थे। तय है कि नौकरशाहों, नेताओं और उद्योगपतियों ने ही यह खेल खेला है। इस पूरी की पूरी जमात को ऐसे खेल खेलने का बडा पुराना तजुर्बा है। इन डकैतों के गिरोह में कुछ मीडिया दिग्गज भी शामिल हैं। यह मीडिया के वो मक्कार चेहरे हैं जिनका पूरा कालाचिट्ठा खुलना अभी बाकी है।  सत्ताधीश भी नहीं चाहते कि ऊंचे लोगों पर कोई आंच आए। चुनाव सिर पर हैं। करोडों-अरबों का मोटा चंदा भी तो इन्हीं से मिलता है... इन्हें नाराज करने का जोखिम कोई भी राजनीतिक पार्टी नहीं उठाना चाहती।

Wednesday, August 14, 2013

कैसी आज़ादी... किसकी आज़ादी?

१५ अगस्त २०१३। राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' की १७ वीं वर्षगांठ। जिस निष्पक्ष और निर्भीक अखबार को देखते ही देखते लाखों सजग पाठकों ने हाथों-हाथ लिया हो और पूरी आत्मीयता के साथ अपनाया हो उसके बारे में ज्यादा लिखने की वैसे तो कोई गुंजाइश नहीं बचती। लेकिन मामला वर्षगांठ का है। यानी मौका भी है और दस्तूर भी इसलिए दिल की बात कहने का इससे अच्छा कोई और अवसर हो भी तो नहीं सकता। वैसे भी अभी तक जहां पर 'विज्ञापन की दुनिया' पहुंचा है, वह मंजिल नहीं पडाव मात्र है।
१५ अगस्त १९९६ के शुभ दिन 'विज्ञापन की दुनिया' की यात्रा की शुरुआत हुई। स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर ही इस अखबार के प्रकाशन के पीछे और भी कई उद्देश्य थे। धन्नासेठों के अखबारों में नौकरी करते-करते और उनके दांवपेचों को देखते-समझते यह बात तो समझ में आ गयी थी कि पत्रकारिता को पतित करने की कैसी-कैसी साजिशें रची जा रही हैं। राजनेताओं और भिन्न-भिन्न माफियाओं के इशारों पर चलने वाले तथाकथित बडे-बडे अखबार अपने आकाओं की आरती गाने के सिवाय और कुछ नहीं कर रहे हैं। उद्योगपतियों, बिल्डरों और नेताओं के अखबारों के प्रकाशन का एकमात्र उद्देश्य दौलत कमाना तथा सरकार और जनता को बेवकूफ बनाना है। खुद को बुद्धिजीवी और प्रगतिशील कहने वाले सम्पादकों को बाजारी और अंगूठा छाप मालिकों की जी हजूरी करते देख बहुत पीडा होती थी। मोटी तनख्वाह के लालच में उनके दडंवत होने के शर्मनाक अंदाज को देखकर गुस्सा भी आता था। हालात आज भी पूरी तरह से नहीं बदले हैं। ऐसे हालातों में निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता की कल्पना ही नहीं की जा सकती। हां... राज्यसभा का सदस्य जरूर बना जा सकता है। करोडों के सरकारी ठेके हथियाये जा सकते हैं। कौडिं‍यों के मोल सरकारी जमीनों की खैरात पायी जा सकती है। स्कूल, कालेज और दारू की फैक्टरियां खोलने के लायसेंस बडी आसानी से प्राप्त किये जा सकते हैं। सरकारी जमीनों को कौडिं‍यों के मोल हासिल करने में भी कोई अडचन नहीं आती। लगभग मुफ्त में पायी गयी इन लम्बी-चौडी जमीनों पर भव्य व्यावसायिक इमारतें खडी कर अरबों-खरबों के वारे-न्यारे किये जा सकते हैं। अब तो कुछ मीडिया दिग्गज दलाली भी करने लगे हैं। पिछले दिनों देश के दो अखबार मालिकों ने हजारों करोड की कोयला खदाने हथिया कर अपने जबरदस्त दमदार होने का सबूत पेश कर दिया है। आम आदमी कल्पना भी नहीं कर सकता कि कारोबारी अखबारीलाल अखबारों की आड में कितने काले-पीले धंधों को अंजाम देते हैं। सरकारी तंत्र को यह ताकतवर लोग अपनी उंगलियों पर नचाते हैं। नचैयों की भी अपनी कमजोरियां और मजबूरियां होती हैं। पत्रकारिता के ऐसे दुखद और दमघोंटू माहौल में 'विज्ञापन की दुनिया' के प्रकाशन का निर्णय लिया गया। देशभर के सजग पाठकों के बीच अपनी छाप छोडने में इस साप्ताहिक को ज्यादा समय नहीं लगा। हमारी कल्पना से भी कहीं बहुत ज्यादा लोग इससे जुडते चले गये और कारवां बनता चला गया। ऐसे में हमारा विश्वास और भी पुख्ता हो गया कि पाठक ऐसे अखबारों को कतई पसंद नहीं करते जो अपने धंधे चमकाने की पत्रकारिता करते हों। जिनपर किसी राजनीतिक पार्टी का ठप्पा लगा हो। सजग पाठक सिर्फ और सिर्फ ऐसी कलम के पक्षधर हैं जो बेखौफ हो और किसी भी कीमत पर बिकने को तैयार न हो। सरकारी विज्ञापनों के लिए सरकार के हर गुनाह की अनदेखी करने वाले अखबारों को पहचानने में भी सजग पाठक देरी नहीं लगाते। फिर भी वे ऐसे अखबारों को इसलिए भी ताउम्र खरीदते रहते हैं क्योंकि महंगाई के जमाने में भी यह डेढ-दो रुपये में मिल जाते हैं। रद्दी में बेचने पर भी फायदा हो जाता है। ऐसे अखबारों के मालिकों को तो मुफ्त में भी अखबार बांटने से कोई फर्क नहीं पडता। सरकार की आखों में धूल झोंककर अधिकतम कीमत पर विज्ञापन हथियाने के लिए धन्नासेठ ऐसे ही फंडे अपनाते हैं। मुफ्त में अखबार बांटते हैं और उसे बिक्री में दर्शाकर अपना सर्कुलेशन बढाते हैं। इससे काली कमायी भी सफेद हो जाती है। अखबार के अलावा भी इनके कई धंधे होते हैं। मंत्रियों और नेताओं की जेबों से निकाली गयी रकम को भी तो सफेद करना होता है।
राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' केवल अपने पाठकों और शुभचिं‍तकों की बदौलत ही भ्रष्टाचारियों की नींद हराम करता चला आ रहा है। सिद्धांतों से समझौता करना इसने सीखा ही नहीं। गलत को सही बनाने का खेल इसे नहीं भाता। बडे से बडे तुर्रमखां के आगे झुकना भी इसके उसूल के खिलाफ है। शासकों के तलवे चाटने वालो से नफरत करने वाले 'विज्ञापन की दुनिया' ने कभी भी शासकों के दरबार में हाजिरी नहीं बजायी। हमें अपने साथ-साथ अपने उन लाखों पाठकों के मान-सम्मान और स्वाभिमान की सदैव चिन्ता रहती है। उनके अपार विश्वास को हम कभी भी ठेस नहीं पहुंचने देंगे। यह हमारी प्रतिज्ञा भी है और वायदा भी।
१५ अगस्त २०१३...। भारतवर्ष की आजादी की ६६वीं वर्षगांठ। क्या होते हैं ६६ वर्ष के मायने? इसका जवाब शासक तो देने से रहे जिन्होंने सतत भ्रष्टाचार के कीर्तिमान रचे और भारत माता की आत्मा को आहत-दर-आहत किया। अब तो देशवासियों को जाग ही जाना चाहिए। कब तक बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, शोषण, लूटमारी, अनाचार, व्याभिचार, माफियागिरी और महंगाई के दंश पर दंश झेलते रहेंगे? हिन्दुस्तान से भी छोटे कई देश दस-बीस साल में कहां से कहां पहुंच गये और यह विशालतम देश हाथों में भीख का कटोरा थामे लगभग वहीं का वहीं खडा है। इस देश के नेता यही मानकर चल रहे हैं कि चंद लोगों के अरबपति-खरबपति बन जाने से मुल्क की तस्वीर बदल गयी है। गरीबी का खात्मा हो गया है। देश में चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। देश को हांकने वाले नेता अंधे तो कतई नहीं हैं। यह तो हद दर्जे के शातिर और चालाक हैं। आम जनता को हर हाल में भ्रम के भंवर में फंसाये रखना चाहते हैं। यह सतत अपने मकसद में कामयाब भी होते चले आ रहे हैं। जिस दिन हम और आप पूरी तरह से जाग जाएंगे तब इनकी हस्ती मिटते देर नहीं लगेगी। कब जागेंगे हम-सब?
समस्त देशवासियों को स्वतंत्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, August 8, 2013

नेताओं को ही है बोलने की आज़ादी?

उन्हें किसी और का बोलना नहीं सुहाता। वे सिर्फ और सिर्फ सत्ता के भूखे हैं। उनका सिर्फ एक ही मकसद है। कुर्सी के लिए जोड-तोड करते रहना। मिल जाए तो उस पर कब्जा जमाये रहना। उनके अपने कोई उसूल नहीं हैं। सब कुछ उधार पर कायम है। जिधर बम उधर हम। आस्था और निष्ठा शब्द भर हैं इनके लिए। हां हम बात कर रहे हैं उन दोगले नेताओ की जिनके लिए वोट ही सब कुछ हैं। इनके लिए वे देशवासियों को आपस में लडाने और बांटने की कुटिल साजिशों में तल्लीन हैं। महाराष्ट्र की राजनीति में नारायण राणे का अच्छा-खासा दबदबा है। यह महाशय प्रदेश के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। यह सौभाग्य इन्हें तब मिला था जब महाराष्ट्र में शिवसेना-भाजपा की सरकार थी। मात्र आठ महीने तक मुख्यमंत्री के सिं‍हासन पर विराजमान रहने वाले नारायण राणे को शिवसेना ने फर्श से अर्श तक पहुंचाया। यह भाजपा-शिवसेना की बदकिस्मती थी कि उसे दोबारा महाराष्ट्र की सत्ता नहीं मिल पायी। सत्ता पिपासु नारायण राणे को जब यह लगा कि अब शिवसेना में टिके रहना उनके लिए फायदे का सौदा नहीं है तो उन्होंने कांग्रेस का दामन थाम लिया। वे जब तक शिवसेना में रहे, कांग्रेस सुप्रीमों सोनिया गांधी के खिलाफ बेहूदा भाषण बाजी करते रहे। अपने नेता बाल ठाकरे की तर्ज पर विदेशी सोनिया की खिल्ली भी उडाते रहे। उनके कांग्रेस में समाने की एकमात्र वजह थी किसी भी तरह से महाराष्ट्र का फिर से मुख्यमंत्री बनना। इसके लिए उन्होंने कई बार अपने उग्र तेवर भी दिखाये। मीडिया के सामने रोना भी रोया कि कांग्रेस ने उनके साथ दगाबाजी की है। उन्होंने तो कांग्रेस का दामन ही इस शर्त पर थामा था कि उन्हें ही महाराष्ट्र का सीएम बनाया जायेगा। जो कांग्रेस देश की जनता से किये गये वायदे नहीं निभा पायी उस पर घाघ नारायण राणे ने कैसे और क्यों यकीन कर लिया यह तो वही जानें। वैसे कांग्रेस ने उन्हें पूरी तरह से निराश भी नहीं किया। शिवसेना से दगाबाजी करने और कांग्रेस की सीटें बढाने का उन्हें भरपूर ईनाम मिला। वर्तमान में वे महाराष्ट्र सरकार में उद्योग मंत्री हैं। नारायण 'मलाई' प्रेमी हैं। कांग्रेस भी जानती है। अगर उसके भी कभी शिवसेना जैसे हाल हुए तो वे राजनीति के किसी दूसरे ठिकाने की दहलीज पर पहुंच कर सलामी ठोकने में देरी नहीं लगायेंगे। ऊंची कुर्सी की चाह उन्हें कहीं भी ले जा सकती है। उनसे कुछ भी करवा और बुलवा सकती है। शिवसेना वाले 'गुण' उन्होंने त्यागे नहीं हैं। ना ही ऐसा कोई इरादा है।
कहावत है... खरबूजा, खरबूजे को देखकर रंग बदलता है। राजनेताओं की औलादों को यह गुण विरासत में मिलता है। इसका जीता-जागता उदाहरण हैं नारायण के लाडले नितेश राणे। यह भी राजनीति में झंडे गाढने को बेताब हैं। अब वो पुराना जमाना तो रहा नहीं जब राजनीति में जमने के लिए जनसेवा की जाती थी। यह तो एक दूसरे की कब्रें खोदने और बकने-बकवाने का जमाना है। जो जितना तीखा और भडकाऊ बोलता है, उतना ही अधिक सुना और सुनाया जाता है। इस मूलमंत्र को आत्मसात कर चुके नारायण पुत्र का बस चले तो सारे के सारे गुजरातियों को मुंबई से खदेड दे। उसका कहना है कि मुंबई के अधिकांश गुजराती नरेंद्र मोदी के घोर समर्थक हैं। दिन-रात उसी की माला जपते रहते हैं। उसे पक्का यकीन है कि गुजराती सिर्फ और सिर्फ भारतीय जनता पार्टी को ही वोट देते हैं। यह तो सरासर दगाबाजी है। ऐसे दगाबाजों को मोदी की शरण में चले जाना चाहिए। काहे को मुंबई में कमाई कर मौजमस्ती कर रहे हैं। नितेश को डर है कि मोदी परस्त गुजराती मुंबई को कही गुजरात न बना दें। इसलिए समय रहते इस बीमारी का इलाज हो ही जाना चाहिए।
यह सौ फीसदी सच है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश में लोगों के बोलने, सोचने और करने पर उंगलियां उठाने का चलन बढता चला जा रहा है। मुसलमान अगर कांग्रेस या समाजवादी पार्टी की तरफ झुकते हैं तो किसी न किसी राजनीतिक पार्टी को ऐतराज होता है। फिल्म स्टार अमिताभ बच्चन अगर उत्तर प्रदेश और गुजरात का गुणगान करते हैं तो उन पर फौरन निशाना साध दिया जाता है। लगता है कि कुछ नेताओं ने यह मान लिया है कि उन्हें ही सिर्फ बोलने और लताडने का हक है। शोभा डे एक अच्छी लेखिका हैं। देश में उनकी अपनी पहचान है। पिछले दिनों जैसे ही तेलंगाना नाम के नये राज्य के बनने का ऐलान हुआ तो उन्होंने ट्विटर पर लिख डाला कि मुंबई के साथ भी ऐसा क्यों नहीं हो सकता? उनके इतना भर लिखने से हंगामा हो गया। उन पर ताने कसे जाने लगे। एक अदनी-सी लेखिका और पेज थ्री की फैशनपरस्त नारी की यह मजाल कि वह मुंबई को महाराष्ट्र से अलग करने वाली बयानबाजी करे। शोभा डे को सबक सिखाने की नीयत से कई चेहरे सडकों पर भी उतर आये। उनके खिलाफ जोरदार प्रदर्शन भी किया गया। सत्ता के नशे में चूर राजनेताओं को दर्पण दिखाने वाले रास नहीं आ रहे। दलित चिं‍तक-लेखक कंवल भारती को भी बीते सप्ताह इसलिए उत्तरप्रदेश की समाजवादी सरकार ने इसलिए गिरफ्तार कर लिया क्योंकि उन्होंने आरक्षण और दुर्गा नागपाल के मुद्दे को लेकर फेसबुक पर अपने दिल की बात कह दी थी। उनके यह लिखने पर कि उत्तरप्रदेश में अखिलेश का नहीं, आजम खां का राज चलता है... फौरन गिरफ्तार कर लेना यही दर्शाता है कि मदहोश मंत्रियों को आलोचना कतई बर्दाश्त नहीं होती। उन्हें दरबारी-चाटूकार ही सुहाते हैं। यह है अपना देश भारत वर्ष जहां पर आम आदमी के बोलने पर पाबंदी है। यह हक नेताओं ने अपने लिए आरक्षित कर लिया है। वे जो कहें वही सही!... ऐसे अहंकारी नेताओं को शायद ही कभी यह विचार आता होगा कि बुद्धिजीवी हों या आम आदमी सभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के हिमायती हैं। यह उनका नैतिक अधिकार है। संविधान ने सिर्फ मंत्रियों-संत्रियों, नेताओं और उनकी औलादों को ही अपने विचार व्यक्त करने की आजादी नहीं दी है।

Thursday, August 1, 2013

दुर्गा शक्ति को सलाम

अब तो इस देश की आम जनता को यकीन कर ही लेना चाहिए कि नेताओं, सत्ताधीशों और सत्ता के दलालों ने हिं‍दुस्तान को मंडी में तब्दील करके रख दिया है। जिधर देखो उधर मतलब परस्त सौदागर और उनकी सौदेबाजी। खरीदने और बेचने की इस भ्रष्ट मंडी में ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा का कोई मोल नहीं है। बेइमानी और मनमानी का सिक्का धडल्ले से चल रहा है। नकली ने असली को बाहर खदेड दिया है। आयाराम, गयाराम यानी दलबदलूओं के प्रदेश हरियाणा के राज्यसभा सांसद वीरेंद्र सिं‍ह ने अपनी ही पार्टी कांग्रेस तथा खुद को भरे चौराहे पर निर्वस्त्र कर डाला। इस कांग्रेसवीर ने रहस्योद्घाटन किया कि एक बार किसी ने मुझे बताया था कि राज्यसभा की सीट पाने के लिए १०० करोड खर्च करने पडते हैं। लेकिन खुशकिस्मती से उसे यह सीट ८० करोड में मिल गयी और उसे २० करोड का फायदा हो गया। वैसे यह कोई नयी जानकारी नहीं है। लगभग सब जानते हैं। लेकिन कांग्रेस के एक नामी नेता और सांसद के मुंह खोलने से हंगामा हो गया। वैसे अभी तक यही अनुमान लगते थे कि इस देश में दारू किं‍ग विजय माल्या, भ्रष्ट अखबारीलाल, उद्योगपति और खनिज माफिया, पच्चीस-पचास करोड की दान-दक्षिणा की बदौलत राज्यसभा में आसानी से पहुंच जाते हैं। यह अस्सी और सौ करोड का खेल तो वाकई हैरत में डालने वाला है। इतने में तो कोई अच्छी-खासी फैक्टरी लगायी जा सकती है, जिसमें सैकडों बेरोजगारों को रोजगार मिल सकता है और खुद भी मालामाल हुआ जा सकता है। लेकिन अब यह तय लगता है कि कारखाने खडे करने से बेहतर धंधा तो राजनीति और राजनेताओं का कंधा है। करोडों रुपये की भेंट चढाकर राज्यसभा या विधान परिषद की सीट का जुगाड करो और पांच वर्षों में इतनी दौलत कमा लो जितनी बडे-बडे उद्योगपति भी न कमा पाते हों। अपने मुल्क में वर्षों से यही तो हो रहा है। ईमानदार चेहरों के लिए राज्यसभा की दहलीज तक पहुंच पाना मुंगेरीलाल के सपने जैसा है। जिनकी जेब में दम होता है उन्हें ही यह तोहफा मिलता है। भले ही वे हद दर्जे के अपराधी क्यों न हों। उनकी तिजोरियां ही उनकी असली योग्यता होती हैं।
राज्यसभा और विधान परिषद की तरह ही लोकसभा और विधान सभा के चुनाव लड पाना सच्चे और सीधे लोगों के बस की बात नहीं रही। हाल ही में असोसिएशन फार डेमोक्रैटिक रिफॉम्‍‍र्स(एडीआर)ने गहन अध्यन्न के पश्चात यह निष्कर्ष निकाला है कि अपराधी छवि के उम्मीदवारों के मुकाबले साफ-सुथरे रेकॉर्ड वाले उम्मीदवारों के लिए चुनाव जीतना बेहद टेढी खीर होता है। काले धन की बरसात कर येन-केन-प्रकारेण चुनाव जीतने वालों का जनसेवा से कोई लेना-देना नहीं होता। कम से कम समय में अधिकतम माया बटोरना ही उनका एकमात्र मकसद होता है। राजनीति के अपराधीकरण के इस दौर में शरीफ लोग तो राजनीति में कदम रखने से ही घबराते हैं। यही वजह है कि चोर-उचक्के भी चुनाव जीत जाते हैं। इनके चेहरे अलग-अलग होते हैं, लेकिन मकसद एक ही होता है! रेत माफिया, भू-माफिया, तेल माफिया, कोल माफिया और तमाम काले धंधों के सरगना इनके संगी-साथी होते हैं। मिल-बांटकर कमाने और खाने वाले। इसे मीडिया की गजब की सतर्कता का कमाल ही कह सकते हैं कि बहुत-सी दबी-छिपी सच्चाइयां लगातार बेपर्दा हो रही हैं और लोगों को चौंका रही हैं।
मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिं‍ह चौहान को प्रदेश और देश का एक सम्मानित नेता माना जाता है। भारतीय जनता पार्टी उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी के काबिल भी समझती है। ऐसे राजनेता का नाम जब किसी माफिया से जुडता है तो लोग स्तब्ध रह जाते हैं और यह सोचने को विवश हो जाते हैं कि आखिर किस पर भरोसा किया जाए! मुख्यमंत्री शिवराज के एकदम करीबी रेत माफिया दिलीप सूर्यवंशी और सुधीर शर्मा के यहां आयकर विभाग द्वारा मारे गये छापे में जो डायरियां मिलीं उनमें स्पष्ट तौर पर उल्लेख किया गया है कि उन्होंने माइनिं‍ग लायसेंस लेने के लिए प्रदेश के खनिज मंत्री राजेंद्र शुक्ला को मोटी घूस दी थी। इतना ही नहीं उच्च शिक्षा मंत्री लक्ष्मीकांत शर्मा और भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी को भी करोडों की सौगात देने का जिक्र है। कुछ ऐसा ही हाल उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री अखिलेश सिं‍ह यादव का है। उन्होंने रेत तस्करों के दबाव में आकर ईमानदार आईएएस अधिकारी दुर्गा शक्ति नागपाल को निलम्बित करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। दुर्गा नागपाल के निलंबन के खिलाफ देशभर में जब खूब हो-हल्ला मचा तो यह भी प्रचारित किया गया उन्होंने मस्जिद की दिवार को तोडने का आदेश दिया था। उनकी इस लापरवाही से दंगा भडकने की जबरदस्त आशंका थी। अब अखिलेश सरकार यह तो कहने से रही कि उसने मुसलमानों के वोटों की दिवार को और अधिक मजबूत बनाने के लिए एक ईमानदार अधिकारी के मनोबल की हत्या करने की कोशिश की है। अखिलेश के कारनामे से स्पष्ट है कि सत्ताधीशों की मतलबपरस्त कौम ईमानदार अधिकारियों के काम में बाधा डालती है। अवैध कारोबारियों की पीठ थपथपाती है। यही कारोबारी कभी न कभी राज्यसभा में पहुंचने के अधिकारी भी बन जाते हैं। दुर्गा की तरह अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित रहने वाले अधिकारी अक्सर सत्ताधीशों के दुलारों का निशाना बनते हैं। महाराष्ट्र के नासिक में २५ जनवरी २०११ को तेल माफिया ने एडीएम यशवंत सोनवने को तेल से नहलाकर जिन्दा जला दिया था। इसी तरह से ४ मार्च २०१२ को मध्यप्रदेश के मुरैना जिले में अवैध खनन माफिया के विरुद्ध कार्यवाई करने गये अधिकारी नरेंद्र कुमार को सरे आम ट्रेक्टर से कुचल कर खत्म कर दिया गया था। यह कोई नयी बात नहीं है। दुर्गा की किस्मत अच्छी थी जो रेत माफियाओं के हाथों मरने से बच गयीं। शक्ति कभी हारा नहीं करती। आज पूरा देश उनके साथ है। उनके साहस और आत्म-स्वाभिमान का कोई बाल भी बांका नहीं कर सकता। यह कलम दुर्गा शक्ति को सलाम करती है।