Thursday, August 30, 2012

चोर मचाए शोर

देश के नौजवानों का गुस्सा उफान पर है। अब उन्हें आश्वासनों से आश्वस्त कर पाना आसान नहीं है। युवकों की एक बडी जमात को यह बात समझ में आ गयी है कि देश के वर्तमान शासकों में से ज्यादातर भरोसे के काबिल नहीं हैं। देश को रसातल में ले जाने के दोषियों की लगभग शिनाख्त हो चुकी है। ऐसे विकट दौर में मुल्क की राजनीति के मंच पर कोई भी ऐसा चेहरा नजर नहीं आता जिस पर आज की पीढी पूरी तरह से यकीन कर सके। यही वजह है कि भ्रष्टाचार के खिलाफ लडाई लडने वालों को किराये की भीड जुटानी नहीं पडती। लोकपाल के लिए सतत संघर्षरत अन्ना हजारे इसका ज्वलंत उदाहरण हैं। उनके एक इशारे पर देशभर में युवाओं के हुजूम का सडकों पर उतर आना यही दर्शाता है कि वे वर्तमान शासन व्यवस्था से नाखुश हैं। उन्हें किसी ऐसे नायक की बेसब्री से तलाश है जो देश की डूबती नैय्या को किनारे लगा सके।
अन्ना हजारे और उनकी टीम पिछले डेढ वर्ष से भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग छेडे हुए है। मनमोहन सरकार जब टस से मस होती नहीं दिखी तो टीम ने राजनीति के मैदान में उतरने का ऐलान कर दिया। कई राजनेताओं ने इस फैसले की खिल्ली उडायी। इस खिल्ली के पीछे जबरदस्त भय छिपा है। भ्रष्टाचारी हमेशा भयग्रस्त रहते हैं। सत्ता के लुट जाने का डर उनकी नींद हराम किये रहता है। अगर शासक पूरी तरह से ईमानदार होते तो 'लोकपाल' कब का अस्तित्व में आ चुका होता। जहां अपनी गर्दने कटने का डर हो वहां नंगी तलवारें नहीं लटकायी जातीं। कोई बेवकूफ ही ऐसी भूल करेगा। हमारे देश के नेता तो वैसे भी जनता को बेवकूफ बनाने के लिए जाने जाते हैं। कल तक अन्ना हजारे के नेतृत्व में भ्रष्टाचार के खिलाफ जंग लडने वाले अरविं‍द केजरीवाल और उनके समर्थक बीते रविवार को जब कोयला घोटाला मुद्दे को लेकर प्रधानमंत्री मनमोहन सिं‍ह, सप्रंग अध्यक्ष सोनिया गांधी और भाजपा के अध्यक्ष नितिन गडकरी के आवास को घेरने निकले तो उनके साथ जोशो-खरोश से लबालब युवक-युवतियों की जो भीड थी, उसने यह संदेश तो दे ही दिया है कि सत्ता की आड में लूटमार करने वाले शासक और राजनेता सावधान हो जाएं। भ्रष्टाचारियों को बेनकाब करने के लिए सडक पर उतरे योद्धाओं ने यह भी स्पष्ट कर दिया है कि लगभग सभी राजनीतिक दलों में ऐसे लोग शामिल हैं जो मुल्क की संपदा को लूटने में कोई परहेज नहीं करते। कांग्रेस और भाजपा के नेताओं ने मिलजुल कर कोयले की अंधी लूट मचायी और अरबो-खरबों के वारे-न्यारे किये। इस हकीकत को पता नहीं क्यों किरण बेदी ने नजर अंदाज कर दिया! उन्हें भाजपा ईमानदार लगने लगी और कोयले के सर्वदलीय लुटेरों के खिलाफ सडक पर उतरने से कन्नी काट गयीं। कल तक अन्ना टीम के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती रहीं किरण बेदी के इस नये रूख में भी रहस्य छुपे हैं। नितिन गडकरी ऐसे चेहरों पर नजर बनाये रखने में माहिर हैं। कुछ माह बाद यदि यह खबर सुनने में आती है कि किरण बेदी को भाजपा ने राज्यसभा का सांसद बनाने की तैयारी कर ली है तो आश्चर्य नहीं किया जाना चाहिए। सडक से लेकर संसद तक छिडे कोल युद्ध में राजनेताओं को एक दूसरे पर कीचड उछालने का भी अच्छा-खासा अवसर मिल गया।
भाजपा की कद्दावर नेत्री सुषमा स्वराज ने डंके की चोट पर कह डाला कि कांग्रेस ने सिर्फ कोयले की दलाली में ही नहीं, बल्कि लोहे की दलाली में भी 'मोटा माल' खाया है। कांग्रेस के बयानवीरों ने जब सुषमा को रेड्डी बंधुओं की याद दिलायी तो उन्होंने रहस्योद्घाटन कर डाला कि कांग्रेस के एक मुख्यमंत्री ने रेड्डी बंधुओ से भी मोटी थैलियां ली थीं। हमारे यहां के नेता बडे कमाल की चीज हैं। पता नहीं कौन-कौन से रहस्य अपने अंदर दबाये रहते हैं। जब उन पर कोई वार करता है तभी रहस्योद्घाटन करते हैं! वर्ना चुप्पी बनाये रहते हैं। क्या ऐसे देशभक्तों को बार-बार सलाम नहीं करना चाहिए? वैसे सुषमा और रेड्डी बंधुओं के रिश्ते बडे पुराने हैं। रेड्डी बंधु सुषमा को अपनी बहन मानते हैं। सब जानते हैं कि बहन और भाई एक दूसरे की रक्षा करने के अटूट रिश्ते से बंधे होते हैं। कांग्रेस के कई नेता सुषमा से मोटे माल की परिभाषा जानने को ऐसे उतावले दिखे जैसे भ्रष्टाचार के खेल में वे जन्मजात अनाडी हों। देश के एक बडे खनन समूह  वेदांता रिसोर्सेज ने खुलासा किया है कि उसने पिछले तीन वर्षों के दौरान देश के विभिन्न राजनीतिक दलों को २८ करोड का चंदा दिया है। वेदांता के कर्ताधर्ता अनिल अग्रवाल ने यह तो नहीं बताया कि किस पार्टी को कितना धन दिया गया पर समझने वालों के लिए इशारा ही काफी है। भारतवर्ष में कांग्रेस, भाजपा, सपा, बसपा का सिक्का चलता है। कोई भी उद्योगपति इन्हें मोटा या छोटा माल दिये बिना अपने काले-पीले धंधों को अंजाम नहीं दे सकता। देश के जितने भी कुख्यात खनन माफिया, भू-माफिया, दारू माफिया और संदिग्ध उद्योगपति हैं, सभी राजनीतिक पार्टियों को थैलियां पहुंचाते हैं। इन थैलियों को चंदा कह लें या फिर मोटा माल बात एक ही है...। हा यह बात दीगर है कि पार्टियों की औकात देखकर ही भेंट चढायी जाती है। राजनीतिक पार्टियां भी इस माल पर अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझती हैं। इसी से उनकी पार्टियों का कारोबार चलता है। मतदाताओं को 'माल' बांटने के लिए भी इसी 'मोटे माल' का उपयोग किया जाता है। पार्टी के खाते में आडा-तिरछा चंदा बडी आसानी से समाहित हो जाता है और उंगलियां भी नहीं उठ पातीं। न जाने कितने नेता चंदे की बदौलत मालामाल हो गये हैं। बसपा सुप्रीमों मायावती इसका जीवंत उदाहरण हैं।

Thursday, August 23, 2012

मीडिया का दम

ढोंगी समाजवादी मुलायम सिं‍ह यादव के लाडले अखिलेश यादव ने उत्तर प्रदेश की सत्ता तो हासिल कर ली पर वहां की आम जनता सपनों के इस सौदागर से खुश नहीं है। लोगों को लगने लगा है कि वे बुरी तरह से ठगे गये हैं। यूपी की तस्वीर को बदल पाना अखिलेश के बस की बात नहीं है। इस युवा मुख्यमंत्री की भले ही कैसी भी मजबूरी हो पर वोटरों ने तो उन्हें प्रदेश के कायाकल्प के लिए ही चुना था। मुलायम सिं‍ह जानते थे कि वे मतदाताओं का विश्वास खो चुके हैं इसलिए उन्होंने अपने पुत्र के कंधे पर बंदूक रख कर अपना स्वार्थ साधने की योजना बनायी और उसमें सफल भी हो गये...। दिखावे के तौर पर अखिलेश को मुख्यमंत्री बना तो दिया गया है पर असली ताकत मुलायम और उनकी कुटिल मंडली के हाथ में है, इसलिए अराजक तत्व अपनी मनमानी करने को स्वतंत्र हैं। बेचारे अखिलेश चाहते हुए भी कुछ नहीं कर पा रहे हैं। मीडिया के सब्र का पैमाना भी भरने लगा है। उसने भी अखिलेश को निशाने पर लेना शुरू कर दिया है। बीते सप्ताह चंद अराजक तत्वों ने कुछ पत्रकारों की पिटायी कर दी। कलम के पुजारी बौखला उठे और सीधे जा पहुंचे मुख्यमंत्री के दरबार। मुख्यमंत्री ने उनकी हर शिकायत ध्यान से सुनी और उन्‍‍हें भरोसा दिलाया कि उनके रहते अब कोई पत्रकारों का बाल भी बांका नहीं कर पायेगा। अखिलेश पत्रकारों पर इतने मेहरबान हो गये कि उन्होंने यूपी के पत्रकारों को एकदम सस्ती कीमतों पर सर्व-सुविधायुक्त घर देने का ऐलान कर दिया। इतना ही नहीं उनके लिए मुफ्त इलाज की सुविधा उपलब्ध करवाने की घोषणा भी कर डाली। जिन मीडिया कर्मियों के कैमरे और वाहन तोडे गये थे उनकी क्षतिपूर्ति भी सरकारी खजाने से हो गयी। यह है मीडिया का दम। जिस मुख्यमंत्री को जनता से किये गये वादे पूरे करने में नानी याद आ रही है उसने पत्रकारों को चुटकी बजाते ही प्रसन्न और संतुष्ट कर दिया। पत्रकारों के चेहरे भी चमक उठे। मुलायम सिं‍ह भी जब प्रदेश के मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने भी कई अखबारों के चापलूस सम्पादकों और पत्रकारों को भारी-भरकम उपहारों और पुरस्कारों से नवाजने में कोई कसर बाकी नहीं रखी थी। आरती गाने वाले कलमवीरों के लिए सरकारी खजाना लुटा देने वाले मुलायम सिं‍ह देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना संजोये हैं। वे जानते हैं कि सपने कैसे साकार किये जाते हैं। बाप के गुण बेटे तक पहुंचने में देरी नहीं लगती। अखिलेश एक अच्छे बेटे का फर्ज निभा रहे हैं। उन्होंने भी यह बात गांठ बांध ली है कि लोगों के असंतोष भरे स्वरों को मीडिया के ढोल का शोर ही दबा सकता है। ऐसा कतई नहीं है कि सिर्फ राजनेता ही मीडिया को साधने के लिए विभिन्न तिकडमें आजमाते हैं। स्वर्गीय धीरूभाई अंबानी के सुपुत्रों की तरह गौतम अदानी भी देश के एक नामचीन उद्योगपति हैं। अंबानी बंधुओं की तर्ज पर काम करते हुए उन्होंने भी चंद वर्षों में अरबों-खरबों का साम्राज्य खडा कर लिया है। दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिं‍दुस्तान में अनवरत तरक्की हासिल करने के लिए कौन से रास्ते पर चलना चाहिए और किन-किन हस्तियो को साधना और रिझाना चाहिए इस कला में अदानी ने भी श्रेष्ठता हासिल कर ली है। केंद्र सरकार के कई मंत्री उनकी जेब में रहते हैं। उन्हें देश के किसी भी प्रदेश में अपनी विद्युत परियोजनाएं प्रारंभ करने और विभिन्न उद्योग लगाने के लिए कौडि‍यों के भाव सरकारी जमीनें उपलब्ध करवा दी जाती हैं। किसानों की खेती की जमीनें हडपने की भी उन्हें खुली छूट दे दी जाती है। मजदूरों का शोषण और उनकी जान के साथ खिलवाड करना इनके लिए आम बात है।
उनके कारखानों में सुरक्षा के पुख्ता इंतजाम न होने के कारण मजदूरों के घायल होने तथा मौत के मुंह में समाने की खबरें आती रहती हैं। पर ये खबरें सुर्खियां हासिल नहीं कर पातीं। अफसरों, जनप्रतिनिधियों और छुटभइये किस्म के नेताओं को अपनी जेब में रखने वाले अदानी जहां कहीं भी अपना उद्योग लगाते हैं वहां के मीडिया का खास ध्यान रखते हैं। बडे अखबार मालिकों से दोस्ताना बनाने में देरी नहीं लगाते। तथाकथित सिद्धांतवादी अखबारों पर इस कदर विज्ञापनों की बरसात कर देते हैं कि उनके तमाम सिद्धांतों की ही धज्जियां उड जाती हैं। कुछ जागरूक पत्रकार अदानी के कारनामों की खबरें अपने अखबारों के संपादकों के पास भेजते भी हैं तो उन्हें रद्दी की टोकरी के हवाले कर दिया जाता है। महाराष्ट्र के सजग पाठक अदानी के जादू से वाकिफ हो चुके हैं। इस जादूगर की मेहरबानी से गुजरात के उन पत्रकारों की भी किस्मत खुल गयी है जो मक्खनबाजी में माहिर हैं। खबर है कि मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी और अदानी की आरती गाने तथा दलाल की भूमिका निभाने वाले तीस पत्रकारों के अभूतपूर्व समर्पण से प्रसन्न होकर अदानी ने उन्हें ३० से ७० लाख रुपये की कीमत के फ्लैट उपहार में दिये हैं।
जो उद्योगपति पत्रकारों को लाखों रुपयों के फ्लैट की सौगात दे सकता है वह अखबारों के संपादकों और मालिकों के लिए कितना कुछ कर सकता है इसका सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता है। वैसे भी अब अधिकांश बडे अखबार उद्योगपतियों, बिल्डरों, भूमाफियाओं और खनिज माफियाओं के द्वारा चलाये जा रहे हैं। देश में कोयला घोटाला को लेकर जबरदस्त शोर मचा है। अखबारों में रोज खबरें छप रही हैं कि कैसे हजारों करोड के कोयला घोटाले को अंजाम दिया गया। यह भी कम चौंकाने वाली सच्चाई नहीं है कि देश के एक बडे अखबार के मालिकों ने अखबार का रौब दिखाकर बिजली परियोजना के नाम पर अवैध तरीके से दो कोयला ब्लाक हथियाये और बिजली उत्पादन करने की बजाय कोयले का कारोबार कर ७६५ करोड का घपला कर डाला। बिजली परियोजना अभी भी अधर में लटकी है। खुद को भारत का सबसे बडा समाचार पत्र समूह कहने वालों का बस चले तो देश की सारी दौलत को अपनी तिजोरी में कैद कर लें। लोगों के मन में अक्सर सवाल उठता है कि बडे-बडे चालीस और साठ पेज के अखबार डेढ-दो रुपये में कैसे बेचे जाते हैं। आखिर घाटे का व्यापार क्यों किया जाता है? दरअसल हमारे देश में नामी-गिरामी अखबार मालिकों से सरकारें भी डरती हैं। कई अखबार मालिक दिखावे के लिए अखबार निकालते हैं पर उनके असली कमाऊ धंधे कुछ और होते हैं। अरबो-खरबों के सरकारी ठेके लेना, कोयला ब्लॉक आबंटन करवाना और करोडों की सरकारी जमीनों को कौडियों के भाव पाना ही इनका असली मकसद है। कुछ ऐसे पहुंचे हुए अखबार मालिक भी हैं जिन्हें आम जनता तो दुत्कारती है पर फिर भी वे राज्यसभा के सांसद बनते चले आ रहे हैं। ये सब लेन-देन का खेल है जिसे अपने देश में बखूबी अंजाम दिया जा रहा है।

Thursday, August 16, 2012

एक सच यह भी...

नेताओं के चक्कर में अपनी हंसती-खेलती जिं‍दगी को नर्क बनाने और दर्दनाक मौत के हवाले हो जाने वाली महत्वाकांक्षी युवतियों की वास्तविक संख्या का पता लगा पाना आसान नहीं है। इस सिलसिले कहीं अंत होता भी नजर नहीं आता। १९९५ में देश की राजधानी दिल्ली में सुशील शर्मा नामक युवा कांग्रेस नेता ने अपनी प्रेमिका नैना साहनी को तंदूर की धधकती आग में झोंक दिया था, क्योंकि उसे शक था कि वह उसके प्रति वफादार नहीं है। हालांकि वह खुद भी हद दर्जे का लम्पट था। इधर-उधर मुंह मारे बिना उसे चैन नहीं मिलता था। पर उसे प्रेमिका ऐसी चाहिए थी जो सती-सावित्री हो। आधुनिक विचारों वाली नैना साहनी ने राजनीति में जगह बनाने के लिए सुशील शर्मा को अपने मोहपाश में बांधने की भूल की थी, जिसका खामियाजा उसे भुगतना पडा। दरिंदगी और हैवानियत की तमाम सीमाएं पार करके रख देने वाली इस राक्षसी घटना के उजागर होने के बाद लगा था कि युवतियां इससे सबक लेंगी और अय्याश नेताओं के आसपास जाने से भी कतरायेंगी। पर ऐसा हो नहीं पाया। इतिहास गवाह है कि कामुक नेताओं को हमेशा उन नारियों की तलाश रहती है जो अपने मादक रंग-रूप की बदौलत कुछ पाना चाहती हैं। राजनीति के प्रांगण में एक से बढकर एक नारायण दत्त तिवारी भरे पडे हैं जिनकी हवस कभी भी मिटने का नाम नहीं लेती। जहां-तहां इनके जाल बिछे रहते हैं। जिनमें कई बार सच्ची और सीधी नारियां भी फंस जाती हैं। कुछ का भला हो जाता है और कुछ का बहुत बुरा हश्र होता है। मधुमिता का नाम आज भी कई लोगों को याद होगा। अच्छी-खासी कविताएं लिखा करती थी। अभिनय कला में पारंगत होने के कारण मंचों पर छा जाया करती थी। ऐसे ही किसी कार्यक्रम में उत्तर प्रदेश के एक अय्याश मंत्री की उस पर नजर पड गयी। पता नहीं रंगीले मंत्री ने मधुमिता को कौन-से चमकते सपने दिखाये कि वह भटक गयी। उसे खबर थी कि मंत्री शादीशुदा है। फिर भी वह उसके मोहपाश में बंध गयी। एक पढी-लिखी युवती ने अपनी मान-मर्यादा को इसलिए ताक पर रख दिया था क्योंकि उसे भौतिक सुविधाओं की अपार भूख थी। मंत्री के लिए यह कोई बडी बात नहीं थी। हराम की कमायी को अपनी अय्याशियों पर लुटाना उसका पुराना शगल था। पहले भी न जाने कितनी युवतियों का वह यौन शोषण कर चुका था। वह निरंतर बचता आया था। मधुमति गर्भवती भी होती रही और मंत्री पर शादी करने का दबाव भी बनाती रही। मंत्री के राजी होने का सवाल ही नहीं उठता था। आखिरकार वो दिन भी आ गया जब एक उभरती हुई कवयित्री की संदिग्ध मौत की खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया। दोनों के अवैध रिश्तों पर देशभर के अखबारों के पन्ने रंगे गये और न्यूज चैनल वाले झूम-झूमकर मधुमिता और अमरमणी त्रिपाठी के वासना में डूबे रिश्तों के अफसाने सुनाते रहे। मधुमिता की मौत से भी सबक लिया जा सकता था। ऐसी घटनाएं आंखें खोलने का काम करती हैं। किसी ने शायद सच ही कहा है कि इश्क अंधा होता है...।
अनुराधा बाली उर्फ फिज़ा और गीतिका शर्मा ने भी मधुमिता की कहानी को दोहराया है। दोनों इस जहां से विदा हो चुकी हैं। दोनों के हिस्से में भी संदिग्ध मौत आयी है। दोनों ही समझदार कहलाती थीं। पढी-लिखी थीं। फिर भी नेताओं के मायाजाल में ऐसे उलझीं कि काला इतिहास बनकर रह गयीं। फिज़ा और गीतिका की मौत ने एक फिर से यह भी साबित कर दिया है कि ऐसे फिसलन भरे रिश्तों का अंजाम बुरा ही होता है। गैर मर्दों पर आसक्त हो जाने वाली नारियों के लिए भी यह बहुत बडा सबक है। अनुराधा और गीतिका इतनी सक्षम तो थीं कि अपनी मेहनत के बलबूते पर सम्मानजनक जीवन जी सकती थीं। पर उनके बहुरंगी सपनों ने उनके पैरों की जमीन छीन ली। अनुराधा ने खुद को हरियाणा के राजनेता चंद्रमोहन की सेज तक पहुंचा दिया तो गीतिका हरियाणा के ही मंत्री गोपाल कांडा के इशारों पर नाचती रही। इसमें जबरदस्ती ही नहीं, मनमर्जी भी थी। पहल किसने की यह बात भी कोई मायने नहीं रखती। जहां आपसी रजामंदी हो वहां नारी को अबला और पुरुष को सबल कहकर किसी एक पक्ष के प्रति सहानुभूति दर्शाना बेमानी है। अनुराधा जब चंद्रमोहन से पहली बार मिली तब वह प्रदेश का उपमुख्यमंत्री था। उपमुख्यमंत्री कोई छोटी-मोटी हस्ती नहीं होता। एक बडी हस्ती के प्रति आसक्त होने के पीछे अनुराधा का भी स्वार्थ था। उसे अपने वो तमाम सपने साकार करने थे जो अधूरे रह गये थे। चंद्रमोहन ने देह की प्यास बुझाने के लिए अपने पद की गरिमा को ताक पर रख दिया तो अनुराधा ने भी नैतिकता और मर्यादा के चोले को उतार फेंका। वह जानती थी कि चंद्रमोहन पहले भी किसी के साथ सात फेरे ले चुका है। अनुराधा ने एक बाल-बच्चेदार शख्स को हथियाने के लिए अपना धर्म तक बदलने में देरी नहीं लगायी। चंद्रमोहन तो उस पर बुरी तरह से आसक्त था ही। धर्म उसने भी बदला पर वह प्यार के धर्म को नहीं निभा पाया। दोनों का प्यार अगर सच्चा होता तो उनके जुदा होने के हालात न बनते। स्वार्थ पर टिके रिश्तों का हमेशा यही अंजाम होता है। गीतिका को भी पता था कि जो धनाढ्य नेता उससे नजदीकियां बढाने को आतुर है, वह उसकी उम्र की लडकी का पिता है। गीतिका की भले ही कोई और मजबूरी रही हो पर कोई भी मर्द किसी युवती के साथ जबरन शारीरिक संबंध नहीं बना सकता। गीतिका का गर्भपात करवाना दर्शाता है कि वह पूरी तरह से निर्दोष नहीं थी। ऐसे में...?

Friday, August 10, 2012

वर्षगांठ पर अपनी बात...

किसी भी जीवंत अखबार के लिए उसकी वर्षगांठ बहुत मायने रखती है। इस अवसर पर प्रसन्नता होना भी स्वाभाविक है। सफलताओं के आकलन और असफलताओं के कारणों को जानने-समझने का भी यह सटीक अवसर है। महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर से प्रकाशित होने वाले आपके प्रिय राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' ने अपने प्रकाशन के सोलह वर्ष पूर्ण कर १७ वें वर्ष में प्रवेश कर लिया है। इस साप्ताहिक का प्रकाशन क्यों किया गया... इसका जवाब इंकलाबी शायर अकबर इलाहाबादी के इस शेर में बखूबी दिया गया है:
''खींचो न कमाने व न तलवार निकालो।
जब तोप मुकाबिल हो तो अखबार निकालो।''
स्वतंत्रता दिवस के पर्व पर १९९६ में जब 'विज्ञापन की दुनिया' का प्रकाशन प्रारंभ किया गया था तब देश के बेहद चिं‍ताजनक हालात थे। देवेगौडा देश के प्रधानमंत्री थे। उनका होना न होना एक बराबर था। दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश रामभरोसे चल रहा था। धनबल और बाहुबल ने अपनी जडें जमा ली थीं। चुनावों में अंधाधुंध काला धन खर्च कर येन-केन-प्रकारेण विधानसभाओं, लोकसभा तथा राज्यसभा में पहुंचने वालों का सिलसिला जोर पकड चुका था। अपराधियों ने खुद को सुरक्षित रखने के लिए राजनीति की डगर पकडनी शुरू कर दी थी। कई नेताओं को भी अराजकतत्वों का साथ फायदे का सौदा नजर आने लगा था। चुनाव प्रक्रिया में सुधार लाने के लिए तब के चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषण ने अपना डंडा चला दिया था। भ्रष्ट राजनीति के वो शातिर खिलाडी जो चुनाव प्रचार में करोडों रुपये फूंकते हैं और लाखों दर्शाते हैं उनकी चूलें हिलने लगी थीं। वे नये-नये रास्ते खोजने में लग गये थे। देश के कई अखबारों में विज्ञापनों की कीमत पर खबरें छापी जाने लगी थीं। धन्ना सेठों और अपने-अपने क्षेत्र के दबंग माफियाओं ने जबरन पत्रकारिता के क्षेत्र में घुसपैठ कर अखबार निकालने का अभियान-सा चला दिया था। महंगी और लक्जरी कारों पर 'प्रेस' के स्टिकर श्रमजीवी पत्रकारों का मुंह चिढाने लगे थे। और मजे की बात यह कि अधिकांश अखबारों का किसी न किसी राजनीतिक पार्टी से अटूट वास्ता था। उनमें छपने वाली खबरें बता देती थीं कि यह अखबार कांग्रेस का है, भारतीय जनता पार्टी का है या फिर बहुजन समाज पार्टी अन्यथा समाजवादी पार्टी का। अपने निजी स्वार्थों को पूरा करने के लिए पत्रकारिता के तमाम उसूलों की बलि चढाये जाने के उस दौर में राष्ट्रीय साप्ताहिक 'विज्ञापन की दुनिया' का प्रकाशन इस अटूट इरादे से किया गया कि इस साप्ताहिक की अपनी एक अलग पहचान होगी। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारिता करते हुए आम आदमी की समस्याओं और तकलीफों को सामने लाते हुए शासन और प्रशासन को जगाने का अभियान चलाया जायेगा। जनहित के मुद्दों की कतई अनदेखी नहीं होगी और चाहे कुछ भी हो जाए पर इसे किसी पार्टी या नेता की कठपुतली नहीं बनने दिया जायेगा।
हमें गर्व है कि हम अपना तयशुदा लक्ष्य और रास्ता नहीं भूले। पूंजीपतियों के अखबारों से टक्कर लेते हुए 'विज्ञापन की दुनिया' निरंतर सिद्धांतो की लडाई लडता चला आ रहा है। शिक्षण माफियाओं, भू-माफियाओं और धर्म के ठेकेदारों को बेनकाब करते चले आ रहे इस अखबार ने भ्रष्ट राजनेताओं और दिशाहीन सत्ताधीशों को कभी भी नहीं बख्शा। हमारा मानना है कि हिं‍द के असली दुश्मन हैं जातिवाद, धर्मवाद, भ्रष्टाचार, अनाचार और अंधभक्ति। साम्प्रदायिक ताकतें अव्यवस्था फैलाने के साथ-साथ देश की प्रगति में बेहद बाधक बनी हुई हैं। देश के कुछ समाज सेवक और राजनेता ऐसे भी हैं जो आतंकवादियों और नक्सलियों के प्रति मित्रता भाव रखते हैं। आजादी के इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी लोगों को अपनी जाति और धर्म के व्यक्ति को वोट देना जरूरी लगता है। दोस्ती और रिश्तेदारी भी खूब निभायी जाती है। तरह-तरह के प्रलोभन और धन की भूमिका भी जगजाहिर है। इस चक्कर में अपराधियों को भी सत्ता तक पहुंचने का मौका मिलता चला आ रहा है। 'विज्ञापन की दुनिया' ने जो देखा वही छापा। जब यह हकीकत हमारे सामने आयी कि कुछ बडे राजनेताओं के अपने-अपने गिरोह हैं जिनमें भू-माफिया, बिल्डर माफिया, कोयला माफिया, रेत माफिया, शराब माफिया और शिक्षण माफिया शामिल हैं तो हमने उनकी गहराई से तहकीकात कर निरंतर खबरें छापीं। जिससे गिरोहबाज और सौदागरनुमा नेता बौखला उठे। दरअसल महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में कुछ ऐसे राजनेता हैं जिन्होंने ऐसे गुर्गे पाल रखे हैं जो उनकी छत्रछाया में रहकर निरंतर तरह-तरह के काले-पीले धंधों को बेखौफ अंजाम देते रहते हैं। चुनाव के समय इन्हीं के द्वारा जुटाया गया काला धन मतदाताओं को लुभाने के काम आता है। इन्हीं गुर्गों को सरकारी ठेके दिलाये जाते हैं। हरे भरे जंगलों के दरख्तों को काटने और वहां की खनिज सम्पदा के दोहन की भी उन्हें खूली छूट दे दी जाती है। चंद सिक्कों की ऐवज में कोयले की खदानों की लीज देकर उन्हें अरबपति और खरबपति बना दिया जाता है। यह कितनी शर्मनाक सच्चाई है कि महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में बैंकों का कर्ज न चुका पाने के कारण बेबस किसानों को आत्महत्या करनी पडती है और दूसरी तरफ शक्कर कारखाने चलाने वाले राजनेताओं के पिट्ठू सरकारी बैकों का अरबों-खरबों रुपया हजम कर जाते हैं। यह भी काबिलेगौर है कि इस विशाल प्रदेश में कुछ बडे नेताओं के भी शक्कर कारखाने हैं जो हमेशा घाटे में चलते रहते हैं और कर्ज डूबोने का काम करते हैं। इस तथाकथित घाटे के बावजूद भी नेताओं और शक्कर कारखाने के मालिकों की नोटों की तिजोरियों की संख्या में इजाफा होता चला जाता है। ऐसे राजनेता भी हैं जो देशद्रोहियों से नजदीकियां रिश्ते रखते हैं। 'विज्ञापन की दुनिया' ने माफियाओं और सत्ताधारियों के भाईचारे पर बार-बार कलम की तलवार चलाकर सजग पत्रकारिता के दायित्व को निभाया है। देश और समाज के वातावरण में जहर घोलने वाले अराजक तत्वों के खिलाफ 'विज्ञापन की दुनिया' की कलम सतत चलती चली आ रही है। शासन और प्रशासन में बैठे भ्रष्टाचारियों को भी कभी बख्शा नहीं गया। सरकार की गलत नीतियों पर भी बेखौफ होकर शब्दबाण बरसाये गये। जनहित के कामों की तारीफ भी की गयी। पर हैरत की बात यह भी है कि सरकार कभी भी अपनी बुराई बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसे सच शूल की तरह चुभता है। सरकार चलाने वाले देश और प्रदेश को अपनी बपौती मान लूटते-खसोटते रहें और 'विज्ञापन की दुनिया' चुपचाप तमाशा देखता रहे यह भला कैसे संभव है? सत्ता के मद में चूर शासन और प्रशासन को भी 'विज्ञापन की दुनिया' की निष्पक्षता और निर्भीकता कम ही रास आती है। दरअसल जो चाटूकारिता करते हैं वही उन्हें भाते हैं। झूठी प्रशंसा के जन्मजात भूखों को अब कौन समझाये कि बेखौफ होकर सच को सामने लाना ही पत्रकारिता का पहला धर्म है। जो इस धर्म की सौदेबाजी करते हैं उन्हें पत्रकारिता में रहने का कोई अधिकार नहीं है। 'विज्ञापन की दुनिया' अपने पत्रकारीय दायित्व को निभाने के लिए प्रतिज्ञाबद्ध है। यह संकल्प कभी टूट नहीं सकता क्योंकि  इसके साथ देश के लाखों सजग पाठक, शुभचिं‍तक, आत्मीय जन और अपनी जान को दांव पर लगा देने वाली समर्पित टीम है।
स्वतंत्रता दिवस और वर्षगांठ के पर्व पर समस्त देशवासियों को हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, August 2, 2012

नकली और असली भीड

पिछले वर्ष की तरह इस वर्ष भी अन्ना हजारे और बाबा रामदेव ने भ्रष्ट राजनेताओं और सरकार की नींद उडा कर रख दी है। बाबा कुछ ज्यादा जोश में हैं। वजह भी स्पष्ट दिखायी दे रही है। उनके खासमखास साथी बालकृष्ण को जेल भेज दिया गया है। उन्हें यकीन हो गया है कि सरकार हाथ धोकर उनके पीछे पड गयी हैं। ऐसे में वे अगर शांत बैठे रहेंगे तो उनपर भी आंच आ सकती है। सरकार का क्या भरोसा कि उन्हें भी सलाखों के पीछे पहुंचा दे। योग गुरु माहौल बनाने में लग गये हैं। इस कला में वे खासे पारंगत हैं। इसलिए दुश्मन के दुश्मनों के यहां हाजिरी लगाने और उनकी आरती गाने में कोई कसर नहीं छोड रहे हैं।
अन्ना हजारे की टीम को गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी मानवता के हत्यारे लगते हैं तो रामदेव को वे ऐसे महात्मा नजर आते हैं जिनमें कोई खोट नहीं है। भगवा वस्त्रधारी बाबा ने अहमदाबाद के एक कार्यक्रम में फरमाया कि सभी मुझसे गुजरात के भ्रष्टाचार के बारे में पूछते हैं। मुझे तो यह प्रदेश निरंतर प्रगति करता नजर आता है। भ्रष्टाचार का तो यहां नामो-निशान नहीं दिखता। मोदी ने कुछ भी गलत नहीं किया। अगर किया होता तो कांग्रेस नीत यूपीए सरकार उन्हें जेल में डाल चुकी होती। अब तो यह बात तय हो गयी है कि नौ अगस्त को दिल्ली के रामलीला मैदान में काले धन की वापसी के लिए अनशन करने जा रहे योगी ने नरेंद्र मोदी को क्लीन चिट दे दी है। ऐसे में जब अन्ना हजारे और उनकी टीम के लोग मोदी की बखिया उधेडेंगे तो क्या होगा? निश्चय ही बाबा तैश में आये बिना नहीं रहेंगे। ऐसे में सारा का सारा खेल बिगड भी सकता है। हो सकता है कि बाबा इसकी भी पूरी तैयारी कर चुके हों। वैसे भी अन्ना और बाबा में बहुत अंतर है। बाबा की सोच बदलती रहती है पर अन्ना अडिग रहते हैं। बाबा को उद्योग-धंधों की चिं‍ता है तो अन्ना का सिर्फ अपने लक्ष्य की।
बाबा और उनके चेले-चपाटों पर ढेरों उंगलियां उठती रही हैं। योग को उद्योग में तब्दील कर देने में भी उनका कोई सानी नहीं है। आरोपों में दम है इसलिए योगी बेचैन, भयभीत और विचलित नजर आता है। अन्ना के चेहरे की ताजगी और शालीनता में कोई फर्क नजर नहीं आता। यह बात दीगर है कि बीते एक साल में उनकी टीम के बारे में बहुत कुछ सुनने में आया। अरविं‍द केजरीवाल के आपा खो बैठने को लेकर तरह-तरह के सवाल उठते रहे। आयकर विभाग ने भी उनकी घेराबंदी की। किरण बेदी और भूषण बाप-बेटे को आरोपों के कटघरे में खडा कर यह कहा जाता रहा कि अन्ना टीम खुद पूरी तरह से पाक-साफ नहीं है। ऐसे में उसे दूसरों पर उंगलियां उठाने का कोई अधिकार नहीं है। इतना कुछ होने के बाद भी अन्ना हजारे पर कभी कोई उंगली नहीं उठी। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अन्ना बाबा नहीं हैं। बाबा की बाजीगरी से भी अन्ना का कोई लेना-देना नहीं है। बाबा रामदेव को इस बात का भी गुरुर है कि उनमें भीड जुटाने की जबर्दस्त क्षमता है। इस बार के अनशन में जब शुरू के दिनों में पिछले वर्ष की तरह भीड नहीं जुटी तो बाबा ने भी मजाक उडाया और मीडिया ने भी। यह भी कहा गया कि अन्ना का जादू खत्म हो चुका है। उनके साथियों ने साख का सत्यानाश करके रख दिया है। पिछले वर्ष लगातार तेरह दिनों के अनशन से सरकार की नींद उडाकर रख देने वाले अन्ना के इस बार फिर से अनशन पर बैठते ही देखते ही देखते जो भीड उमडी उससे कई लोगों को धक्का लगा। मीडिया भी भौंचक्का रह गया। पर आम जनता के चेहरे खिल उठे। यही आम जनता ही अन्ना की असली ताकत है जो उन्हें हारते हुए नहीं देखना चाहती। उसे पता है अन्ना की हार में उसकी हार है और भ्रष्टाचारियों की जीत। लोगों को बहकाना कतई संभव नहीं है। वे जानते हैं कि अन्ना टीम भ्रष्टाचार का खात्मा करने और भ्रष्टाचारियों को सजा दिलाने के लिए जिस मजबूत लोकपाल बिल को लाने पर अडी है उसमें आम जन का ही हित छिपा है। भ्रष्टाचार और महंगाई ने आम आदमी के चेहरे की रौनक छीन ली है। इसलिए इस बार वह भी आर-पार की लडाई लडने को इच्छुक है। अन्ना हजारे तो नायक हैं ही। उनकी नैतिक ताकत लाजवाब है। पिछली बार उनके अनशन से सरकार हिल-सी गयी थी। इस बार अरविं‍द केजरीवाल, मनीष सिसोदिया और गोपाल राय ने भूख हडताल पर बैठकर देशवासियों को यह संदेश तो दे ही दिया है कि वे देशहित के लिए अपना बलिदान भी दे सकते हैं और बाबा रामदेव की तरह मैदान छोडकर भागने वालों में नहीं हैं। अन्ना हजारे की टीम का साहस सराहना के काबिल है। ऐसा पहली बार हुआ है कि कोई आंदोलन सरकार से टकराने की ठाने है और उसके भ्रष्ट मंत्रियों के चेहरों के रंग उड चुके हैं। सरकार भी लोकपाल आंदोलन की अहमियत से वाकिफ है और वह यह भी जानती है कि इस बार आंदोलनकारी उसकी कोई बात सुनने वाले नहीं हैं। कहावत है कि 'दूध का जला छाछ फूंक-फूंक कर पीता है।' अन्ना टीम सरकार पर यकीन करने को कतई तैयार नहीं दिखती। यह कहना भी गलत है कि देश की जनता ऐसे आंदोलनों से थक चुकी है और उसका मोहभंग हो चुका है। लोगों का मोह तब भंग होता जब उन्हें अन्ना के एजेंडा में कोई बदलाव नजर आता। अन्ना भी वही हैं और उनकी टीम के हौसले भी जस के तस हैं। रही बात भीड की तो उसे अनशन की सफलता और असफलता का पैमाना मान लेना भारी भूल होगी। पिछली बार भीड का बहुत-सा हिस्सा तमाशा देखने के लिए भी जुटा था पर इस बार जो भीड है वो अनशन को अंजाम तक ले जाने वाली भीड है। सरकार भी इस हकीकत को समझ रही है। दिखावे के लिए भले ही वह यह कह रही हो कि उसे ऐसे आंदोलनों और भूख हडतालों से कोई फर्क नहीं पडता।