Thursday, December 29, 2022

विजय-पराजय

चित्र-1 : आजकल कुछ लोगों को देश के महापुरुषों की बुराई करने का रोग लग गया है। वे दिन-रात बस इसी काम में लगे रहते हैं। उनके इस दुष्ट कर्म से न जाने कितने भारतीयों को तकलीफ और पीड़ा होती है, बेहद गुस्सा भी आता है, लेकिन बकवासियों को कोई फर्क नहीं पड़ता। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के एक युवक को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति दुर्भावना तथा उनके हत्यारे नाथू राम गोडसे के प्रति अपार सद्भावना दर्शाने वाले चंद लोगों पर इतना गुस्सा आया था कि वह मरने-मारने पर उतर आया था। सोशल मीडिया के इस जमाने में ऐसी घृणित शर्मनाक करतबबाजी बहुत उफान पर है। बीते शुक्रवार की दोपहर कविता चव्हाण नामक एक 28 वर्षीय युवती हाथ में केरोसिन से भरी बोतल और माचिस लेकर विधानभवन के सामने पहुंची। वहीं खड़े-खड़े उसने खुद पर केरोसिन उंड़ेला और तीली जलाकर खुद को आग के हवाले करने जा ही रही थी कि तभी अचानक पुलिस वालों की उस पर नजर पड़ गई। उन्होंने फौरन उसके हाथ से माचिस और केरोसीन की बोतल झपटी और उसे अपने कब्जे में लिया। यदि थोड़ी सी भी देरी हो जाती तो विधानभवन की छाती पर दिल दहलाने वाला आत्मदाह हो जाता, जिसकी गूंज दूर-दूर तक सुनायी देती। अपने शरीर को जलाकर खुदकुशी करने के इरादे के साथ लगभग 685 कि.मी. की दूरी तय कर सोलापुर से नागपुर पहुंची कविता चव्हाण सामाजिक कार्यकर्ता के साथ-साथ पत्रकार भी है। पिछले कुछ दिनों से देश के महापुरुषों के बारे में अपमानजनक शब्दावली पढ़ और सुन-सुन कर उसका मन बहुत आहत हो चुका था। राजनीति के बड़बोले खिलाड़ियों के द्वारा जानबूझकर संविधान के शिल्पकार डॉ. बाबासाहब आंबेडकर, महात्मा फुले, शिवाजी महाराज आदि की, की जा रही  अवमानना से उसे बहुत गहरी चोट पहुंची थी। उसे लगने लगा था कि गेंडे की सी मोटी चमड़ी वाले बेशर्म, बदजुबान नेताओं पर उसकी कलम की तलवार कोई असर नहीं डाल पा रही है तो उसने खुद को ही सज़ा देने की ठान ली और मौत का सामान लेकर वहां जा पहुंची, जहां मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री के साथ-साथ तमाम मंत्रियों तथा विधायकों का मेला लगा था।

चित्र-2 : मात्र 14 बरस की उम्र में ‘भारत का वीर महाराणा प्रताप’ धारावाहिक तथा कालांतर में कुछ फिल्मों में अपने अभिनय से प्रभावित करने वाली 21 वर्षीय अभिनेत्री तुनिशा शर्मा ने पंखे से लटक कर खुदकुशी कर ली। तुनिशा ने फांसी लगाने से करीब पांच घण्टे पूर्व इंस्टाग्राम पर अपनी मुस्कराती फोटो शेयर करते हुए लिखा था, जो जुनून से आगे बढ़ते हैं, वो रुकते नहीं। ऐसी सोच के साथ जीने वाली युवती का मौत की बांहों में झूल जाना अचम्भे में डाल देता है। संजना सातपुते। उम्र 20 वर्ष। यह उम्र जोशोखरोश के साथ जीने और हर विपत्ति से लड़ने के लिए होती है। सिक्के के दो पहलुओं की तरह हार-जीत तो लगी रहती है। परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर होने के बावजूद दसवीं में 85 प्रतिशत और बारहवीं में भी अच्छे खासे नंबर पाने वाली संजना ने बीएससी में दाखिला ले लिया था, लेकिन कोविड काल में पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से सबकुछ गड़बड़ होता चला गया। तब पढ़ाई के ऑनलाइन हो जाने की वजह से वह बीएससी की शिक्षा पूर्ण नहीं कर सकी। उसके बाद उसने कम्प्यूटर क्लास में भी प्रवेश लिया। आर्थिक बाधाएं और अन्य मुश्किलें खत्म होने का नाम नहीं ले रही थीं, लेकिन फिर भी संजना को देखकर यही लगता था कि वह टूटेगी नहीं। अपने सपनों को साकार करके ही दम लेगी। माता-पिता को भी अपनी परिश्रमी बेटी पर पूरा यकीन था। 15 दिसंबर, 2022 को अपने सभी प्रमाणपत्रों और दस्तावेजों को आग में राख करने के बाद जब उसने खुदकुशी की तो सभी हैरत में पड़ गये। इतनी साहसी और हिम्मती लड़की ने यह क्या कर डाला? उससे तो ऐसी कतई उम्मीद नहीं थी। सभी को वो दिन याद हो आए जब संजना ने एसटी का पास बनवाने तथा ऑनलाइन पढ़ाई के लिए मोबाइल खरीदने के लिए हफ्तों अपना खून-पसीना बहाकर रुपये जमा किये थे। अपने साथ पढ़ने वाली एक छात्रा पर अभद्र छींटाकशी करने वाले सड़क छाप मजनू की भरे चौराहे पर धुनायी तक कर दी थी। हर चुनौती का डटकर सामना करने वाली इस लड़की की खुदकुशी हर विचारवान भारतीय को तो चिंतित करने वाली है ही तथा बेटियों को शिक्षित करने के लिए तरह-तरह की योजनाएं शुरू करने की घोषणाएं करने वाली सरकार की घोर असफलता का प्रमाण तथा जीवंत दस्तावेज है संजना की आत्महत्या। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ जैसे सरकारी प्रचार और नारे के खोखलेपन का भी जीता-जागता सबूत है।

चित्र - 3 : हाथ-पैर और शरीर के सभी अंग सही सलामत हों तो किसी भी उपलब्धि को हासिल कर लेना सहज बात है, लेकिन दिव्यांग होते हुए भी लोगों की सहायता करना और प्रेरणास्त्रोत बनना बच्चों का खेल नहीं। 45 वर्षीय सोदामिनी पेठे खुद सुन नहीं सकतीं, फिर भी बधिरों का बुलंद स्वर बन चुकी हैं। सोदामिनी देश की पहली बधिर वकील हैं। फरीदाबाद के विधि और शोध संस्था से वकालत की पढ़ाई करने वाली सोदामिनी बधिरों को अदालतों में इंसाफ दिलाने के लिए कमर कस चुकी हैं। एडवोकेट सोदामिनी सांकेतिक भाषा में बताती हैं : बधिर होने की वजह से उन्हें पग-पग पर तकलीफें और परेशानियां झेलनी पड़ीं। इसी दौरान दिल्ली में वकालत पर हुई एक कार्यशाला के दौरान उन्होंने एक बधिर वकील को देखा, जो अमेरिका की नेशनल एसोसिएशन ऑफ डेफ के सीईओ थे। वे उनसे काफी प्रभावित हुईं। उनके लिए यह जानकारी भी अत्यंत चौंकाने वाली थी कि अमेरिका में पांच सौ से ज्यादा बधिर वकील हैं, जो दुभाषिए के माध्यम से अदालतों में अपने मामलों की बहस करते हैं। तब उसे कई उन बधिरों की याद हो आयी, जिन्हें अपनी अदालती समस्याएं सुलझाने के लिए वकील नहीं मिलते। कोई भी उनकी सांकेतिक भाषा को समझने के लिए अपना वक्त बर्बाद नहीं करना चाहता। तभी सोदामिनी ने पक्का निर्णय कर लिया कि मुझे भी कानून की पढ़ाई कर बधिरों की सहायता करनी है। सोदामिनी के माता-पिता और भाई-बहन सुन और बोल सकते हैं। उनके पति भी उन्हीं की तरह बधिर हैं और उनका 15 साल का बेटा भी सुन बोल सकता है। सोदामिनी भी नौ साल की उम्र तक अच्छी तरह से सुन-बोल सकती थीं, लेकिन दिमागी बुखार ने उनकी यह हालत बना दी, लेकिन तब तक वह शुरुआती भाषा सीख चुकी थीं, इसलिए उन्होंने बोलने और सुनने में सक्षम बच्चों के स्कूल में पढ़ाई की। हालांकि उस समय तक वह बधिरों के द्वारा इस्तेमाल की जाने वाली सांकेतिक भाषा नहीं जानती थीं। उन्होंने बधिरों से जुड़ी संस्थाओं से संपर्क किया और नोएडा डेफ सोसायटी से जुड़ गईं। वहां पर सब लोग बिना बोले ही सांकेतिक भाषा में ढेर सारी बातें किया करते थे। इस माहौल ने उन्हें एक नई ऊर्जा से ओतप्रोत कर दिया। आज के मतलबपरस्त, आपाधापी और छलांगे मारते समय में हर कोई अपनी ही चिंता करता है। जो लोग हर तरह से तंदुरुस्त और सक्षम हैं, वे भी दूसरों की सहायता के लिए समय नहीं निकाल पाते या निकालना नहीं चाहते, लेकिन सोदामिनी ने खुद बधिर होने के बावजूद अन्य बधिरों की परेशानियों को जानने-समझने के बाद यह जो निर्णय लिया है वह यकीनन काबिले तारीफ और वंदनीय है।

Thursday, December 22, 2022

कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

     बिहार में जहरीली शराब ने फिर 80 से ज्यादा लोगों को मौत की नींद दे दी और कइयों को तड़पने और मरने के लिए अस्पताल पहुंचा दिया। फिर वही हुआ जो हमेशा होता आया है। आरोप-प्रत्यारोप की नाटक-नौटंकी और शोर शराबा। विपक्षी पार्टी भाजपा ने नीतीश सरकार को घेरने के लिए पूरी तरह से कमर कस ली। सवालों के गोले दागे जाने लगे। जब शराब बंदी है तो शराब पीकर लोगों की मौत कैसे हो गई? कहां से मिली उन्हें शराब? यह मौतें नहीं, नरसंहार है। सरकार को हर मृतक को चार लाख का मुआवजा देना ही होगा। नीतीश के एक मंत्री ने तुनकते और उछलते हुए कहा कि जहरीली शराब पीकर जो मरे हैं वे सरकार से पूछ कर तो नहीं पीने गए थे। उन्हें पता तो होगा ही कि प्रदेश में दारू पीने पर पूरी बंदिश है। जिनकी गलती है, वही भुगतें। आपा खो चुके मुख्यमंत्री ने चीख-चीख कर कहा, ‘‘पियोगे तो मरोगे ही। पियक्कड़ों को तो भगवान भी नहीं बचा सकता। मैं तो अदना-सा इंसान हूं। मैंने अपने बिहार की जनता के भले के लिए शराब बंदी लागू की है। शराब बंदी के बाद मेरे प्रदेश की मां-बहन, बेटियां सभी खुश हैं। डेढ़ करोड़ से ज्यादा लोगों ने शराब पीनी छोड़ दी है। जो मेहनत का पैसा कभी शराब की भेंट चढ़ जाता था अब वो बच्चों की शिक्षा, सेहत में खर्च हो रहा है। लोगों का रहन-सहन सुधरा है। अपराधों में कमी आयी है। हमारे विरोधी अक्ल और आंख के अंधे लगते हैं। मैं ही उन्हें बताये देता हूं कि देश के दूसरे प्रदेशों में भी ज़हरीली शराब पीकर लोग मरते रहते हैं। इसलिए वे मेरी सरकार के विरोध की नाटक-नौटंकी से बाज आएं। यही विरोधी जब हमारे साथ थे तब तो इन्होंने शराब बंदी का खुलकर समर्थन किया था। और हां, मेरे प्रदेश में शराब पीकर मरने वालों को किसी भी हालत में मुआवजा नहीं दिया जाएगा।’’ 

    बीते वर्ष भी जब देशवासी जगमग दिवाली की खुशियां मना रहे थे, तब भी शराब बंदी वाले प्रदेश बिहार में नकली शराब पीकर लगभग चालीस लोग परलोक सिधार गये थे। कई पियक्कड़ों की आंखों की रोशनी हमेशा-हमेशा के लिए छिन गई थी। बिहार सरकार ने पांच अप्रैल, 2016 में ही शराब के उत्पादन, व्यापार, भंडारण, परिवहन, विपणन और सेवन पर इस इरादे से रोक लगायी कि जो लोग शराब पीकर अपना बसा-बसाया घर उजाड़ देते हैं, उनके घर परिवार की औरतें और बच्चे अभावों और तकलीफों की मार झेलने को विवश हो जाते हैं, उन्हें जब शराब ही नहीं मिलेगी तो पैसा बचेगा और उनकी कंगाली दूर हो जाएगी। परिवार खुशहाल हो जाएंगे। शराब बंदी के बाद कई लोगों की जिन्दगी सुधर गई। उन्होंने सरकार का शुक्रिया और आभार भी माना, लेकिन जो अखंड पियक्कड़ थे वे खुद पर अंकुश नहीं लगा पाये। उनकी पीने की लत जस की तस बनी रही। होना तो यह चाहिए था कि शराब बंदी लागू होने के बाद पूरे बिहार प्रदेश में शराब का नामों-निशान ही नहीं रहता, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। वैध शराब की दुकानों पर ताले लगते ही तस्करों ने शराब के कारोबार की कमान संभाल ली। पुलिस की नाक के नीचे शराब बनने और बिकने लगी। कहीं असली तो कहीं नकली। जहरीली शराब पीकर मौत के मुंह में समाने वालों की खबरें भी आने लगीं। इन मौतों के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया जाने लगा। साथ ही कई विद्वानों, बुद्धिजीवियों के बयान भी आने लगे कि सरकार कौन होती है शराब पर पाबंदी लगाने वाली? यह तो सीधे-सीधे नागरिकों के मौलिक अधिकारों पर चोट है। घोर नाइंसाफी है। जो लोग वर्षों से शराब पीते चले आ रहे हैं उनसे आप यह कैसे उम्मीद कर सकते हैं कि वे एकाएक पीना छोड़ देंगे। शराब के पक्ष में अपने-अपने तर्क रखने वालों में ज्यादा संख्या उनकी थी, जो शराब बंदी के पक्ष में थे, लेकिन यह भी सच है कि सरकार ने शराब बंदी तो कर दी, लेकिन जगह-जगह अवैध शराब के बनने और बिकने-बिकवाने पर पूरी तरह बंदिश लगाने में असफल रही। तब भी मुख्यमंत्री महोदय का बयान आया था कि आखिर लोगों को शराब कैसे मिल जाती है? शराब बंदी कानून की समीक्षा की जाएगी। 

    जहां पर प्रशासन और माफिया मिले हुए हों वहां मुख्यमंत्री का ऐसा खोखला और बनावटी बयान गुस्सा दिलाता है। आप किसे मूर्ख बना रहे हैं सीएम साहब! आप राजनीति के चाणक्य कहलाते हैं, दूरबीन के बिना भी आपको दूर-दूर तक दिखायी देता है। आपको सब पता है। आप जानते हैं कि आपकी अधिकांश पुलिस तथा आबकारी विभाग बिका हुआ है। कुछ मंत्री भी शराब माफियाओं से रिश्वत की थैलियां पा कर खुश और संतुष्ट हैं। बड़े-बड़े शराब माफियाओं, तस्करों और असली-नकली शराब के निर्माताओं तथा धंधेबाजों को तमाम ऊंचे लोगों का पूरा संरक्षण मिला हुआ है। तभी तो जब से प्रदेश में शराब बंदी हुई है, तभी से अखंड पियक्कड़ों को शराब मिलती चली आ रही है। जहरीली शराब पीकर हर बार गरीब ही मरते हैं। अमीरों को तो उनकी मनपसंद महंगी शराब उनके घर तक पहुंचा दी जाती है। आपका शराब बंदी का कानून भी उनका कुछ नहीं बिगाड़ पाया। अवैध, नकली और सस्ती-कच्ची शराब, शराब बंदी से पहले भी नशेड़ियों को परलोक पहुंचाती थी और आज भी जान की दुश्मन बनी हुई है। 

जब शराब की दुकानों पर कानूनन ताले लग चुके हैं तब किसी को भी पीने के लिए शराब नहीं मिलनी चाहिए। यदि मिलती है, तो यह शासन और प्रशासन की घोर विफलता है। शराब के नशे के गुलामों को कहां पता होता है कि वे शराब के नाम पर जहर पीने जा रहे हैं। यह कहर तो अचानक टूटता है। तब पियक्कड़ों की भी नींद टूटती है। जब तक कोई बड़ा धमाका नहीं होता तब तक शासन और प्रशासन भी बेफिक्र रहता है। जहरीली शराब पीकर मरने वालों की कतारें लगते ही सरकारी बंदोबस्त की दौड़ धूप शुरू हो जाती है। खेतों, खलिहानों, जंगलों, नदियों तथा तालाबों के आसपास अवैध शराब बनाने की भट्टियां नजर आने लगती हैं। नकली शराब के कारखानों का भंडाफोड़ हो जाता है। तोड़फोड़ होती भी दिखती है, लेकिन उनका क्या जिनकी जहरीली शराब पीने से मौत हो चुकी होती है? उनके परिवारों का क्या कसूर जिन्होंने सरकार की अक्षमता और लापरवाही के चलते अपने पिता, भाई चाचा आदि को हमेशा-हमेशा के लिए खो दिया। क्या अब यह भूखे मर जाएं? हाथ में कटोरा लेकर भीख मांगने को निकल पड़ें? मुख्यमंत्री महोदय अब आप ही तय करें कि आपको क्या करना है। शराब बंदी कानून को यदि सफलतापूर्वक आप लागू नहीं करवा सकते तो यह आपकी घोर असफलता का ऐसा जीवंत दस्तावेज है, जिसके पन्ने तब-तब खोले जाते रहेंगे, जब-जब विषैली शराब पीने वालों की जान और उनकी आंखों की रोशनी छिनती रहेगी और उनके परिवार वाले रोते-कलपते रहेंगे। तब-तब आपको भी कसूरवार मानकर कोसा जाता रहेगा कि कैसे अंधे मुख्यमंत्री हैं आप?

Thursday, December 15, 2022

वो रक्त से सना मंज़र

     महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में विधानभवन के निकट 23 नवंबर 1994 की शाम जिस तरह से निर्दोषों का खून बहा और उन्हें मौत की नींद मिली, उसकी मिसाल इतिहास में कम ही देखने-पढ़ने को मिलती है। सत्ताधीशों के गैरजिम्मेदाराना व्यवहार और प्रशासकीय अव्यवस्था के कारण देश का लोकतंत्र पहले भी कई बार आहत हुआ है। तब शीत सत्र के दौरान गोवारी समाज का विशाल मोर्चा अपनी मांगों को लेकर सड़कों पर उतरा था। उनकी प्रमुख मांग थी कि उन्हें अनुसूचित जनजाति में शामिल किया जाए। सुबह से भीड़ जुटने लगी थी, शाम होते-होते तक भीड़ बहुत बढ़ चुकी थी। तभी अचानक विधानभवन से कुछ ही दूर मॉरिस कॉलेज टी प्वॉइंट पर ऐसी भगदड़ मची कि लोग इधर-उधर भागने लगे। बेतहाशा शोर-शराबा होने लगा। शांत मोर्चा अशांति की गिरफ्त में आ गया। तब शाम के लगभग छह बजे थे। बेकाबू भीड़ को नियंत्रित करने के लिए पहले तो पुलिस ने लाठीचार्ज किया फिर गोलीबारी की, जिसमें 114 बेकसूर लोगों की मौत हो गयी और लगभग पांच सौ लोग बुरी तरह से जख्मी हो गए। मृतकों और जख्मी होने वालों में स्त्री-पुरूष, बच्चों, युवक, युवतियों तथा वृद्ध-वृद्धाओं का समावेश था। गोवारी नेता सुधाकर गजबे के नेतृत्व में अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण एवं अन्य सुविधाओं की मांग को लेकर यह विशाल मोर्चा आयोजित किया गया था। 23 नवंबर की सुबह से ही ट्रकों, बसों एवं पैदल पूरे विदर्भ से बच्चे, बूढ़े, जवान नागपुर आने शुरू हो गये थे। सभी आशान्वित थे कि वे अपनी एकजुटता दर्शाकर सरकार को यह विश्वास दिलाने में सफल होंगे कि अब गोवारी समाज को अनदेखा करना संभव नहीं है। लोकतंत्र में अपनी बात कहने का सभी को हक है और फिर यह तो शासन से एक छोटी-सी गलती सुधारने की मांग के लिए एक शांतिपूर्ण मोर्चा था। ज्ञातव्य है कि महाराष्ट्र शासन के 24 अप्रैल 1985 के जी.आर. में गोंड गोवारी के बीच में मात्र एक कामा नहीं लगने से गोवारी समाज को अनुसूचित समाज में नहीं गिना गया। शासन से कई बार इस छोटी-सी गलती को सुधारने की मांग की गयी। पर शासन ने ध्यान देना कतई जरूरी नहीं समझा। शाम पांच बजे तक गोवारी समाज के लगभग पचास हजार स्त्री-पुरुष एवं बच्चों का यह मोर्चा पूरी तरह से नियंत्रित एवं शांत था। उत्साही भोलीभाली जनता की इस विशाल भीड़ को गोवारी नेता संबोधित कर रहे थे। गोवारी नेताओं के साथ-साथ मोर्चे में शामिल भूखी प्यासी भीड़ को पूरा यकीन था कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उनकी फरियाद सुनने के लिए उन तक अवश्य पहुंचेंगे। वक्त बीतता चला जा रहा था...। मोर्चे के नेताओं ने बार-बार पुलिस अधिकारियों से निवेदन किया कि वे अपनी बात मंत्रियों तक पहुंचाना चाहते हैं, चूंकि प्रदेश के लगभग सभी मंत्रीगण विधानसभा के शीतकालीन सत्र में भाग लेने के लिए नागपुर आये हुए हैं, यदि अब भी वे हमारे बीच न आ सकें तो फिर उनके यहां होने का क्या फायदा! मंत्रियों की राह देखते-देखते थक और निराश हो चुके मोर्चे में तनाव के लक्षण दिखायी देने लगे और फिर गोवारी नेताओं का आक्रोशभरा भाषण भी प्रारंभ हो गया। तनावपूर्ण वातावरण की गंभीरता को देखकर पुलिस अधिकारियों ने अपने अंतिम प्रयास के रूप में विधानसभा भवन में चर्चाओं में व्यस्त मंत्रियों के पास खबर भेजी कि स्थिति बिगड़ रही है इसलिए एक बार आंदोलनकारियों से आकर मिल लें। पर किसी भी मंत्री के कान पर जूं तक नहीं रेंगी, जबकि आदिवासी विकास मंत्री मधुकरराव पिचड़ का दायित्व था कि वे आदिवासी भाइयों की फरियाद सुनने के लिए दौड़े चले आते। पर वे तो अपनी ही मस्ती में डूबे थे। उनके चाटुकारों ने उन्हें घेर रखा था। चुटकलेबाजी चल रही थी। मंत्री जी के कमरे में ठहाके गूंज रहे थे। लगभग साढ़े पांच बजे के आसपास नेताओं ने महिलाओं एवं बच्चों को मोर्चे के आगे लाकर खड़ा कर दिया। देखते ही देखते चार हजार से अधिक महिलाएं, छोटी लड़कियां, लड़के तथा निरीह और मासूम बच्चे मोर्चे के आगे एकत्रित हो गये। इसी बीच अचानक भीड़ में से किसी सिरफिरे ने बैरिकेट उठाकर पुलिस कर्मचारियों पर फेंक दिया। इस घटना के तुरंत बाद पुलिस और एस.आर.पी. के जवानों ने बिना कुछ विचारे लाठीचार्ज करना प्रारंभ कर दिया। लाठीचार्ज शुरू होते ही ऐसी भगदड़ मची, जैसे कोई भूचाल आ गया हो। अनियंत्रित और घबरायी भीड़ को जहां रास्ता दिखा वहां भागने लगी। इस भागदौड़ में मोर्चे के आगे एकत्रित हुए छोटे-छोटे बच्चों एवं महिलाओं का बहुत बुरा हाल हुआ। हजारों की भीड़ उन्हें कुचलते-मसलते और रौंदते हुए भागने लगी और सामने चप्पे-चप्पे पर खड़ी पुलिस की गोलियों, लाठियों की मार और भय भी मौत का भयंकर कारण बना। 

    सात बजते-बजते तक कई लाशें बिछ चुकी थीं। लगभग डेढ़ घंटे तक कई घायल कराहते रहे और अंतत: वे मौत के मुंह में समा गये। अब तो खाकी वर्दीधारी भी बेबस नज़र आ रहे थे। कुछ देर के बाद उन्होंने लाशों को जानवरों की तरह एस.टी. की बसों में भरना शुरू कर दिया। एक के ऊपर दूसरी और तीसरी लाश बेरहमी से फेंकी जाने लगी, जिनमें थोड़ी-बहुत जान बची थी, उन्होंने भी मेडिकल कॉलेज पहुंचते-पहुंचते तक दम तोड़ दिया।  23 नवंबर बुधवार की उस रात मेडिकल कॉलेज के परिसर में बिखरी लाशों को देखकर पत्थर से पत्थर दिल इंसान के भी आंसू बहने लगे थे। कई लोगों की रुलाई थमने का नाम नहीं ले रही थी। मौत भी अपनी इस दुर्गति पर छाती पीट रही थी। हजारों रोते बिलखते स्त्री, पुरुषों और बच्चों के कारण पूरा अस्पताल श्मशानघाट लग रहा था। लोग अपने सगे संबंधियों की लाशें तलाश रहे थे और इस पीड़ादायक और रोंगटे खड़े कर देनेवाले मंजर ने साक्षात नरक को नागपुर में लाकर बैठा दिया था। इसी तरह से लाशों और घायलों को नागपुर के मेयो अस्पताल भी पहुंचाया गया। मरने वालों में अधिकांश संख्या महिलाओं एवं बच्चों की थी। पुलिस प्रशासन का कहना था कि नेताओं के उकसावे में आकर मोर्चा देखते ही देखते उग्र तथा अनियंत्रित हो गया था। इसीलिए लाठीचार्ज करने को विवश होना पड़ा। अगर पुलिस लाठियां नहीं चलाती तो स्थिति और भी खतरनाक रूप धारण कर सकती थी। मोर्चे में शामिल कुछ लोगों ने पुलिस पर पथराव किया, इससे भी स्थिति बिगड़ी। किसी तरह से मौत का निवाला बनने से बच गये भुक्तभोगियों का कहना था कि अगर मोर्चे में शामिल हुए लोगों को हुल्लड़बाजी या पथराव ही करना था तो वह शाम होने का इंतजार क्यों करते! दिन भर सब कुछ शांत रहा और शाम को पुलिस लाठीचार्ज के बाद ही ये दिल दहलाने वाला खूनी मं़जर सामने आया। नागपुर में हर साल दिसंबर के महीने में सरकारी सर्कस यानी शीतकालीन सत्र का आयोजन होता है। इस सत्र को कायदे से चलना तो तीन सप्ताह तक चाहिए पर आठ-दस दिन में ही इसके तंबू उखड़ने शुरू हो जाते हैं। हर वर्ष महाराष्ट्र की उपराजधानी नागपुर में सरकार का राजधानी मुंबई से आगमन होता है। सच तो यह है कि शीत सत्र के नाम पर विधायकों, मंत्रियों, अधिकारियों और छोटे-बड़े नेताओं का ‘मेला’ लगता है। करोड़ों रुपये फूंक दिये जाते हैं और अंतत: उस विदर्भ को ठेंगा मिलता है, जिसके भले के लिए इतना बड़ा तामझाम किया जाता है। नागपुर में हर वर्ष शीतकालीन सत्र आयोजित किये जाने के पीछे भी दिलचस्प किस्सा जुड़ा हुआ है। बात उन दिनों की है, जब विदर्भ का महाराष्ट्र में विलय नहीं हुआ था। तब विदर्भ के नेताओं के परामर्श से एक समझौता हुआ था कि नागपुर को उपराजधानी बनाया जाए। नागपुर को यह सम्मान देने के पीछे कई उद्देश्य थे। विदर्भ की विभिन्न समस्याओं पर चर्चा करने और उन्हें सुलझाने के लिए हर साल छह सप्ताह का सत्र आयोजित करने का निर्णय लिया गया था, जो घटते-घटते तीन सप्ताह तक जा पहुंचा। हर साल मुख्यमंत्री, मंत्रियों, विधायकों, अफसरों और कर्मचारियों का बंबई (मुंबई) से नागपुर आगमन होता है। विधानभवन के निकट ही सभी विधायकों के लिए दो कमरों के आवास बनाये गये हैं। हर वर्ष इन आवासों की साफ-सफाई और पुतायी की जाती है। नयी चादरें, गद्दे, तकिये, कंबल खरीदे जाते हैं। कम कीमत पर शाकाहारी तथा मांसाहारी लजीज से लजीज भोजन उपलब्ध कराया जाता है। विधानभवन के बाहर संतरे, मौसम्बी के जूस के स्टॉल भी लगाये जाते हैं। सैकड़ों अस्थायी कर्मचारियों को मंत्रियों, विधायकों की सेवा में झोंक दिया जाता है।

    114 गोवारियों की शहादत और अथाह संघर्ष के बाद मुंबई उच्च न्यायालय की नागपुर खंडपीठ ने गोवारी ‘आदिवासी ही होने’ का फैसला सुनाया था, लेकिन लोकशाही आघाड़ी सरकार ने उच्च न्यायालय के इस फैसले के विरोध में उच्चतम न्यायालय में चुनौती दे दी। इस पर उच्चतम न्यायालय ने मुंबई उच्च न्यायालय के आदेश रद्द करने से गोवारियों के मुंह का निवाला छीनते हुए उन्हें फिर निराशा और चिंता में डाल दिया। शहादत और संघर्ष के 28 वर्ष बीत जाने के बाद भी वे न्याय पाने की राह ताक रहे हैं। गोवारियों की शहादत के बाद कई नये और पुराने जन्मजात मतलबी नेताओं को अपनी राजनीति की दुकानें चमकाने का सुअवसर मिल गया था। मृतकों को श्रद्धांजलि देने और उनके परिजनों को और अधिक मुआवजा राशि देने की मांग वाली प्रेस विज्ञप्तियां लेकर नये-नये चेहरे भी समाचार पत्रों के कार्यालयों में पहुंचने लगे थे। यह महारथी दो-चार किलो सेब, संतरे लेकर अपने फोटोग्राफर के साथ अस्पतालों में जाते और घायलों को मुस्कराते हुए फल प्रदान करते हुए फोटो खिंचवा अखबारों के दफ्तरों में पहुंच जाते थे। अपनी फोटो के साथ विज्ञप्ति छपवाने की उनमें होड़ लग गई थी। उनके लिए लोगों की निगाह में आने और छाने का यह सुनहरा मौका था। एक बार छपे तो फिर नाम और फोटो छपवाने का उन्हें रोग लग गया। कालांतर में यह छपास रोगी खुद को नेता समझने लगे। बड़े नेताओं के आगे-पीछे घूमने लगे। जो ज्यादा चतुर-चालाक थे वे पार्षद और विधायक भी बने। जिनमें लगन थी, जनहित का सच्चा जज़्बा था वे टिके रहे। बाकी अपनी जेबें भरने के बाद गायब हो गये। संतरा नगरी में कर्मठ नेताओं की कभी कमी नहीं रही। कुछ नाम तो ऐसे हैं, जिनका वर्षों से प्रदेश और देश की राजनीति में डंका बज रहा है। हां, कुछ गोवारी नेताओं ने भी कुर्सी का सुख भोगते हुए खूब चांदी काटी। आम गोवारी आज भी ठगे से वहीं के वहीं हैं। नागपुर के जीरो मॉइल परिसर में शहीदों की याद में बनाए गए शहीद स्मारक पर प्रति वर्ष 23 नवंबर को लाखों गोवारी श्रद्धासुमन अर्पित करने के लिए आते हैं। एक बार फिर से न्याय पाने की उम्मीद, आकांक्षा और अटूट संकल्प की भावना के साथ अपने-अपने गांव लौट जाते हैं... श्रद्धांजलि देने के लिए नेताओं का भी अच्छा-खासा जमावड़ा लगता है।

Saturday, December 10, 2022

अब नहीं, तो कब बदलेंगे?

‘‘बहकना मत बेटियों
कुल को समझो खास।
पैंतीस टुकड़ों में कटा
श्रद्धा का विश्वास।
भरोसा मत कीजिए
सब पर आंखें मींच
स्वर्ण मृग के भेष में
आ सकता है मारीच...।’’

    बेटियों के वीभत्स और राक्षसी हत्याकांड की खबरें सिर्फ मां-बाप को ही नहीं दहलाती, डरातीं। हर संवेदनशील इंसान को भी चिंताग्रस्त कर उसकी नींद उड़ा देती हैं। श्रद्धा को अपने मोहपाश में बांधकर आफताब ने जो हैवानियत और दरिंदगी दिखायी, उससे जवान बेटियों के माता-पिता जहां भीतर तक सिहर गए, वहीं सजग कलमकारों ने भी लड़कियों को बहुत सोच समझकर अपने फैसले लेने की सलाह देते हुए बहुत कुछ लिखा। उन्हीं रचनाकारों में से किसी एक ने श्रद्धा हत्याकांड से आहत होकर जो कविता लिखी उसी की ही हैं उपरोक्त पंक्तियां, जिन्हें मैं आप तक पहुंचाने से खुद को रोक नहीं पाया। हर मां-बाप की यही तमन्ना होती है कि उनकी बेटी खुश रहे। उसका ब्याह ऐसे इंसान से हो, जो उसे दुनियाभर की सुख-सुविधाएं, मनचाही खुशियां, सुरक्षा और मान-सम्मान दे। इस पवित्र रिश्ते में जुड़ने के बाद उनकी बेटी को कभी भी यह न लगे कि उसका किसी गलत व्यक्ति से पाला पड़ गया है और उसे मजबूरी में रिश्ते को निभाना पड़ रहा है। हमारे यहां के बुजुर्ग अपनी बेटियों, बहनों, नातिनों, पोतियों के ब्याह के लिए योग्य लड़का तलाशने में जमीन-आसमान एक कर दिया करते थे। बेटी-बहन के भावी पति के बारे में हर तरह की जानकारी जुटाने के बाद ही कोई अंतिम निर्णय लेते थे, लेकिन अब जमाना बदल गया है। विचारों में भी परिवर्तन आ गया है। परंपराएं टूट रही हैं। पुरानी परिपाटियां तोड़ी जा रही हैं। 

    अधिकांश मां-बाप की यही ख्वाहिश होती है कि उनके चुनाव और सुझाव की अवहेलना न हो। उन्हें अपने फैसले और चुनाव पर भरपूर यकीन होता है। जल्दबाजी, नासमझी और भावुकता की तेज धारा में बहकर गलत फैसले लेने वाली लड़कियों का हश्र उनसे छिपा नहीं रहता। आफताब के प्यार में पागल हुई श्रद्धा ने जब अपने रिश्ते के बारे में अपने घर वालों को बताया तो उन्हें बिलकुल पसंद नहीं आया। श्रद्धा समझ गई कि आफताब का मुस्लिम होना उनकी अस्वीकृति की प्रमुख वजह है। श्रद्धा ने उन्हें मनाने तथा समझाने की बहुतेरी कोशिशें कीं, लेकिन वे जिद पर अड़े रहे। आखिरकार श्रद्धा ने माता-पिता को यह कहकर झटका दे दिया कि वह अब बच्ची नहीं, बड़ी हो चुकी है। वयस्क होने के कारण उसे अपने सभी फैसले लेने का कानूनन हक है। 

    2022 के नवंबर महीने में जब आफताब के हाथों श्रद्धा के पैंतीस टुकड़े किये जाने की खबर देश के तमाम न्यूज चैनलों तथा अखबारों में सुर्खियां बनकर गूंजीं तो देशवासी हतप्रभ रह गये। प्रेमी के हाथों टुकड़े-टुकड़े हुई श्रद्धा भी लोगों के निशाने पर आ गई : अपने मां-बाप की सलाह मान लेती तो इतनी बुरी मौत नहीं मरती। अपनी मनमानी करने वाली नालायक औलादों का अंतत: यही हश्र होता है। अरे भाई, जब इतनी समझदार थी तो अपने लिव-इन पार्टनर के महीनों जुल्म क्यों सहती रही? जिस दिन उसने हाथ उठाया, गाली-गलौच की, उसी दिन उसको अकेला छोड़कर नई राह पकड़ लेती। कॉल सेंटर की अच्छी खासी नौकरी थी। भूखे मरने की नौबत आने का तो सवाल ही नहीं था। कौन नहीं जानता कि आफताब जैसे धूर्त अपनी प्रेमिकाओं को अपने खूंटे से बांधे रखने के लिए कितनी-कितनी चालें चलते हैं, लेकिन पच्चीस साल की यह वयस्क युवती उसके इन साजिशी शब्द जालों के मायने ही नहीं समझ सकी कि यदि तुमने मेरा साथ छोड़ दिया तो मैं खुदकुशी कर लूंगा। ऐसे निर्दयी लोग मरते नहीं, मारा करते हैं। जब सिर पर मौत का खतरा मंडरा रहा था तो अपने मां-बाप के घर भी तो जा सकती थी। वो कोई राक्षस तो नहीं थे, जो बेटी को सज़ा देने पर उतर आते। अपनी गलती को स्वीकार कर माफी मांग लेती तो वे अपनी बेटी को जरूर गले लगा लेते। 

    श्रद्धा हत्याकांड को लेकर जितने मुंह उतनी बातों के शोर तथा तरह-तरह की खबरों को सुनते-पढ़ते मेरी आंखों के सामने जूही का चेहरा घूमने लगा। पांच वर्ष पूर्व जूही कॉलेज की पढ़ाई के दौरान एक मुस्लिम युवक के प्रेम पाश में ऐसी बंधी कि कालांतर में दोनों ने कोर्ट मैरिज कर ली। शादी से पूर्व जूही ने अपने मां-बाप को मनाने के भरसक प्रयास किये थे। मां तो मान भी गईं थीं, लेकिन पिता नहीं माने। जूही के पिता कॉलेज में लेक्चरर थे। हिंदी और अंग्रेजी के जाने-माने विद्वान! अंत तक अड़े रहे। चाहे कुछ भी हो जाए, मैं अपनी बेटी की शादी किसी दूसरे धर्म के लड़के से हर्गिज नहीं होने दूंगा। शादी के कुछ दिन बाद जूही को जब लगा कि अब पिता शांत हो गये होंगे तो वह उमंग और खुशी में झूमती अपने माता-पिता के घर जा पहुंची। मां जैसे ही दामाद और बेटी के स्वागत के लिए तत्पर हुई तभी जंगली जानवर की सी फुर्ती के साथ पिता ने बेटी पर गंदी-गंदी गालियों की बरसात करते हुए आदेशात्मक स्वर में कहा कि, इस घर में फिर कभी पैर रखने की भी जुर्रत मत करना। बस यह समझ लेना कि हम तुम्हारे लिए मर चुके हैं। 

    जूही को फिर कभी किसी ने उस घर में नहीं देखा, जहां वह जन्मी और पली बढ़ी थी। इस दौरान जूही दो बच्चों की मां भी बन गई। पति ने उस पर प्यार बरसाने में कभी कोई कमी नहीं की। लोग इस आदर्श जोड़ी को देखकर तारीफें करते नहीं थकते। पिछले साल अचानक हार्ट अटैक से पिता के गुजरने पर भी जूही को घर में नहीं घुसने दिया गया। यह बंदिश उसके भाइयों को अपने पिता के कारण लगानी पड़ी थी, जिन्होंने घर के सभी सदस्यों को पहले से ही कह रखा था कि मेरी मौत के बाद भी जूही के कदम घर में नहीं पड़ने चाहिए। श्मशान घाट पर पुरुषों की भीड़ थी। महिलाएं श्मशान घाट पर नहीं जातीं, लेकिन जूही श्मशान घाट पर अपने पिता की जलती चिता के सामने अंत तक आंसू बहाती खड़ी रही थी। यह मार्मिक द़ृष्य देखकर मैं भी अपनी आंखों को नम होने से नहीं रोक पाया था। श्रद्धा के माता-पिता जूही के पिता की तरह जिद्दी और कू्रर रहे होंगे इस पर ज्यादा विचार-मंथन करने का कोई फायदा नहीं। श्रद्धा तो अब लौटने से रही, लेकिन किसी युवती के साथ घर परिवार वालों का ऐसा दुत्कार भरा आहत करने वाला व्यवहार न हो इस पर चिंतन-मनन तो किया ही जा सकता है। न्यूज चैनलों और अखबारों में ऐसी खबरें आती ही रहती हैं। मीडिया इन खबरों को इसलिए प्रचारित-प्रसारित करता है कि बेटियां सतर्क और सावधान हो जाएं। बच्चे कितने ही बड़े क्यों न हो जाएं माता-पिता के लिए तो बच्चे ही रहते हैं। अपनी बेटियों का ऐसा विभत्स अंत उन्हें जीते जी मार डालता है। राजेशों, सुशीलों तथा आफताबों के चंगुल से बचाये रखने का दायित्व सिर्फ मां-बाप का ही नहीं है। 

    यह भी सच है कि आज भी अपने यहां का समाज और परिवार पूरी तरह से इतने खुले दिल के नहीं हुए हैं कि वे लिव-इन-रिलेशन और प्रेम विवाह के लिए तुरंत हामी भर दें। कुछ परिवार तो आज भी लड़के-लड़की की दोस्ती को पसंद नहीं करते। उन्हें वो खबरें डराती रहती हैं, जो अक्सर पढ़ने और सुनने में आती हैं। लेकिन किसी भी श्रद्धा और नैना को अपने प्रेमी का पूरा सच भी कहां पता होता है। साथ रहने के बाद ही हकीकत बाहर आती है। युवकों की तरह युवतियों में भी बगावत की प्रवृत्ति का होना सहज बात है, लेकिन फिर भी अधिकांश मां-बाप बेटियों से कुछ और ही उम्मीद रखते हैं। उनके लिए बेटियों का आज्ञाकारी और संस्कारवान होना जरूरी है। 

लेकिन प्रश्न यह भी है कि लिव-इन में रहने, प्रेम विवाह करने तथा किसी गैर धर्म के युवक से विवाह सूत्र में बंध जाने से संस्कारों की तो हत्या नहीं हो जाती। अपवाद और खतरे कहां नहीं हैं? परिवारों को झूठी शान के घेरे से बाहर आना ही होगा। तभी ऐसी मौतें थमेंगी। कोई भी श्रद्धा आफताब की नीयत को पहचानने के बाद एक मिनट भी उसके नजदीक नहीं रहेगी। फौरन अपने माता-पिता, भाई-बहनों के पास लौट आएगी। ऐसी क्रूर घटनाओं से यदि सबक नहीं लिया जाता तो यह नादानी और बेवकूफी की हद होगी। यह भी सच है कि इस तरह के मोहजाल में फंसने वाली युवतियों में कहीं न कहीं यह उम्मीद बनी रहती है कि उनके साथी में आज नहीं तो कल बदलाव आ ही जाएगा। कई इस इंतजार में उम्र गुजार देती हैं। बगावत कर प्रेम विवाह करने या लिव-इन रिलेशन में रहने वाली महिलाएं जब जान जाती हैं कि उनके साथ जबरदस्त धोखा हुआ है तो उन्हें कई तरह की चिंताएं घेर लेती हैं। कभी परिवार और समाज के सामने शर्मिंदगी की सोच तो कभी जीना भी यहां मरना भी यहां का भाव पैरों में जंजीरें डाल देता है। ऐसी तोड़ देने वाली भयावह स्थितियां अरेंज मैरिज में भी आती हैं। अधिकांश भारतीय परिवार अपनी बेटियों के कान में यह मंत्र फूंकने से नहीं चूकते कि हर हाल में पति से निभाते रहना। शादी के बाद बेटी बेगानी हो जाती है। उस पर मायके का नहीं पति और ससुराल का पूरा हक रहता है। वे जैसा चाहें उनकी मर्जी। अच्छी पत्नी का बस यही फर्ज है कि चुपचाप सहती रहे, उफ... तक न करे। चाहे कितनी भी तकलीफें आएं परिवार और दोस्तों के सामने खुद को खुश और संतुष्ट दिखाती रहे।

चश्मा तो बदलो ज़रा

    पहले बात सुशील शर्मा और नैना साहनी की। हो सकता है आज की नयी पीढ़ी उनके नाम से ही वाकिफ न हो। आज से 27 वर्ष पूर्व इन दोनों का नाम देश और दुनिया में आफताब और श्रद्धा से कहीं ज्यादा जोर से गूंजा था। तब भले ही सोशल मीडिया की धूम नहीं थी फिर भी इनकी खबरें पत्र-पत्रिकाओं में तो महीनों छपती और पढ़ी जाती रही थीं। 1995 के जुलाई महीने में राजधानी दिल्ली गर्मी से परेशान थी। उसी गर्मी की एक रात कांग्रेस का युवा नेता सुशील शर्मा जब अपने घर लौटा तो उसने देखा कि उसकी पत्नी नैना साहनी टेलीफोन पर मतलूब करीम से हंस-हंसकर बातें कर रही है। मतलूब करीम नैना का पूर्व प्रेमी था। दोनों जी-जान से एक दूसरे को चाहते थे, लेकिन धर्म आड़े आ गया था। नैना के माता-पिता ने दोनों की शादी नहीं होने दी थी। बाद में नैना ने सुशील शर्मा से शादी कर ली। नैना भी सुशील की तरह कांग्रेस की युवा नेता थी। 29 वर्षीय नैना को आज़ाद पंछी की तरह उड़ना पसंद था। सुशील शर्मा से शादी ही उसने यह सोचकर की थी कि भविष्य में उस पर किसी भी तरह की कोई रोक-टोक और बंदिश नहीं होगी। वह जो चाहेगी वही करने के लिए स्वतंत्र होगी, लेकिन सुशील के लिए पत्नी का अर्थ था, ऐसी औरत जो पति को आंख मूंदकर अपना परमेश्वर माने। उसके हर आदेश का सिर झुकाकर पालन करे। वो दिन को रात कहे तो वह किसी भी तरह की आनाकानी न करे। खुले दिल की नैना विवाह के बाद भी अपने पूर्व प्रेमी को नहीं भूली थी। जब भी कोई मौका हाथ आता तो दोनों हंस बोल लेते। एक दूसरे का हालचाल भी जान लेते। यही हकीकत सुशील को बहुत चुभती थी। वह शंका की आग में जलता रहता था कि जिस पर उसका पूरा हक है, वह किसी और के बारे में भी सोचती है। उसका हालचाल लेती है और अपना हालचाल उसे बताती है। इसी बात को लेकर सुशील और नैना में हमेशा जुबानी जंग तो कभी-कभार मारपीट भी होती रहती थी। संदेह की आग में झुलसते सुशील ने अपने जासूसों को भी नैना के पीछे लगा रखा था। उस रात जब वो घर लौटा तो उसने देखा कि नैना टेलीफोन पर किसी से बात कर रही है। अपनी बात खत्म करने के बाद जैसे ही नैना ने फोन रखा तो सुशील ने री-डायल कर दिया। उसकी शंका में जान थी। दूसरी तरफ उसका पूर्व प्रेमी मतलूब करीम ही था। अथाह गुस्से के मारे उसका खून खौल गया। नैना कुछ जान और समझ पाती इससे पहले ही उसने उसे गोलियों से भून डाला। 

    पत्नी की लाश कमरे के फर्श पर पड़ी थी और पति उसे ठिकाने लगाने की तरकीबें खोजने में लग गया। इसी दौरान उसने अपने किसी खास शातिर दोस्त को भी वहां बुलवा लिया। दोनों ने मिलकर पहले तो नैना के मृत शरीर को बड़े से प्लास्टिक में लपेटा फिर उसे चादर में बांधकर अपनी कार की डिक्की में रख अशोक यात्री निवास जा पहुंचे। यह होटल सुशील शर्मा का ही था। लाश को फौरन तंदूर पर रखा गया। तंदूर का मुंह छोटा होने के कारण लाश का एक साथ तंदूर में समाना संभव नहीं था, इसलिए उसे चाकू से धड़ाधड़ टुकड़ों में काटा गया। नारी जिस्म के टुकड़ों पर मक्खन का लेप लगाकर दोनों कसाई उन्हें जलते तंदूर में धड़ाधड़ डालने लगे, जिससे धधकते तंदूर की आग की लपटें तेज होती चली गयीं। इंसानी जिस्म के जलने की तीखी गंध और धुआं भी ऊपर की तरफ उठने और फैलने लगा। तभी किसी सब्जी बेचने वाली महिला का ध्यान उस तरफ गया तो वह आग...आग कहकर शोर मचाने लगी। महिला के जोर-जोर से चिल्लाने की आवाज जैसे ही वहां गश्त लगा रहे पुलिस कर्मी ने सुनी तो वह तुरंत मौके पर जा पहुंचा। उसे यह कहकर अंदर जाने से जबरन रोका गया कि यह नेताजी का होटल है, किसी ऐरे-गैरे का नहीं। अंदर पुराने कागजात और पार्टी के झंडे, बेनर, पोस्टर जलाये जा रहे हैं। लेकिन उस सजग और कर्तव्यपरायण खाकी वर्दीधारी ने उनकी एक भी नहीं सुनी। वह दिवार फांदकर अंदर जा पहुंचा। तंदूर में मानव शरीर को जलता देखकर उसके होश उड़ गये। पांव तले जमीन ही खिसक गई। 

    अपनी प्रेमिका-पत्नी का क्रूर हत्यारा सुशील शर्मा 23 साल की सज़ा भुगतने के बाद अपनों के साथ अब बड़े मजे से रह रहा है। जब वह जेल से बाहर निकला तो उसका तिरस्कार नहीं, स्वागत किया गया। कई मीडिया वालों ने उसके प्रति सहानुभूति दर्शाते हुए उसकी तारीफों के पुल बांधने का अभियान चला दिया।

    देश के एक नामी-गिरामी अखबार ने प्रथम पेज पर हत्यारे की तारीफ करते हुए उसकी ताजी तस्वीर के साथ छापा कि जेल में रहकर शर्मा ने दिन-रात नैना की याद में आंसू बहाए। रिहाई के बाद भी नैना को याद कर उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बरसने लगते हैं। वह साईं बाबा और देवी दुर्गा का कट्टर भक्त है। ऐसे धार्मिक इंसान के हाथों पता नहीं कैसे इतना बड़ा अपराध हो गया। अपनी प्रिय पत्नी की हत्या करने की उसकी कोई मंशा नहीं थी। गुस्सा अच्छे-अच्छों के दिमाग पर ताले जड़ देता है। फिर होनी तो होनी है, उसे भला कौन टाल पाया है। देश के एक और चर्चित अखबार ने पहले पेज पर उसकी तथा उसके उम्रदराज पिता की भावुक कर देनेवाली तस्वीर लगाते हुए अपने लाखों पाठकों को बताया कि सुशील बचपन से ही अपने माता-पिता का आज्ञाकारी बेटा रहा है। अपने बेटे की रिहाई की खबर सुनकर सुशील की मां घंटों खुशी के आंसू रोती रही। उसने गद्गद् होते कहा कि अब हमारी उम्र दस साल और बढ़ गई। हमारा दुलारा बेटा हमारी सेवा में कोई कसर बाकी नहीं रखेगा। देश के ही किसी और दैनिक ने अपने पाठकों को जानकारी दी कि सुशील शर्मा अपार मनोबल वाला है। हिंद देश को आज ऐसे ही नेताओं की जरूरत है। सुशील ने जेल में मानसिक तनाव से बचने के लिए पांच साल में पांच करोड़ बार गायत्री मंत्र का जाप कर अन्य कैदियों में प्रेरणा का दीप जलाया। शैतान की तारीफों के पुल बांधकर उसके प्रति अपार हमदर्दी दर्शाने वाले मीडिया ने न तो नैना साहनी को याद किया और ना ही उसके परिजनों का हालचाल जानने की सोची। उसके लिए तो नैना साहनी बस किसी के भी हाथों मरने के लिए ही जन्मी थी और यह भूल सुशील जैसे महात्मा के हाथों हो गई। 

    जब-जब सन 2022 की बात होगी तो श्रद्धा हत्याकांड और कुछ अन्य दिल दहला देने वाले ऐसे पाप काण्डों का भी जिक्र जरूर निकलेगा। श्रद्धा भी अपने प्रेमी... पति के हाथों गला घोंटकर मार डाली गयी। मुंबई की 27 वर्षीय श्रद्धा वालकर ने आफताब पूनावाला से बड़ी शिद्दत के साथ प्यार किया था। उसके साथ लिव-इन में रहने के लिए उसने अपने मां-बाप की भी नहीं सुनी थी। श्रद्धा और आफताब दोनों कॉल सेंटर में नौकरी बजाते थे। आफताब की फेमिनिस्ट, समलैगिकता का समर्थक, फोटोग्राफर, फूड ब्लॉगर तथा शेफ होने की खुबियों ने श्रद्धा को अपना अंधभक्त बना दिया था। घूमना-फिरना दोनों को पसंद था। हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों की मदमस्त हरियाली के सैर-सपाटे के साथ और भी कई जगह दोनों खूब घूमे थे। दोनों में तीखे मनमुटाव तथा झगड़े भी होते रहते थे। श्रद्धा कई बार उसके हाथों पिटी, लहूलुहान हुई। एक बार मुंबई के पुलिस थाने में उसके खिलाफ रिपोर्ट भी दर्ज करवायी। फिर रजामंदी होने पर ठंडी पड़ गई। 10 मई, 2022 को आफताब श्रद्धा को दिल्ली ले आया। आफताब और हिंसक हो गया। फिर भी नैना को कहीं न कहीं यह भरोसा भी था कि आफताब सुधर जाएगा। लेकिन उसने तो अपनी उस प्रेमिका के 35 टुकड़े कर डाले जो उसे मेरी जान... मेरी जान कहते नहीं थकती थी। सुशील शर्मा की तरह आफताब ने भी जल्लाद होने का जो भयावह सबूत पेश किया उस पर सोचने भर से ही रूह कांप जाती है। नैना और श्रद्धा दोनों आजादी पसंद भी थीं और बोल्ड भी। अच्छी-खासी समझदार और पढ़ी-लिखी होने के बावजूद पिटती रहीं। लांछन, आरोप तथा अवहेलना झेलती रहीं। दोस्तों ने बार-बार कहा कि ऐसे शंकालु वहशी प्रेमी...पति के साथ एक दिन भी रहना ठीक नहीं। पढ़ी-लिखी हो। अपने पैरों पर खड़े होने की क्षमता है। क्यों जुल्म सह रही हो? दोनों ने फैसला लेने में देरी कर दी और शैतानों ने उनके टुकड़े-टुकड़े कर अपना असली रूप दिखा दिया। आफताब और सुशील में कोई फर्क नहीं। दोनों की हैवानियत एक जैसे तिरस्कार और दुत्कार की हकदार है, लेकिन जब कुछ लोग हत्यारों को धर्म के चश्मे से देखते हुए चीखते-चिल्लाते हैं तो किसी गहरी साजिश की शंका होने लगती है। आफताब क्रूर हत्यारा है। उसने एक ऐसी नारी के टुकड़े कर जंगली जानवरों को खिला दिए जो उस पर बेइंतहा भरोसा करती थी। भरोसे का बड़ी बेरहमी से कत्ल करने वालों की बहुत बड़ी फेहरिस्त है, जिसमें हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई आदि सभी के कलंकित नाम हैं। श्रद्धा मर्डर केस में ‘लव जिहाद’ के एंगल पर माथापच्ची करने वालों का ध्यान हिंसा और हिंसक प्रवृत्तियों की तरफ क्यों नहीं जाता? श्रद्धा वालकर हत्याकांड के बाद एक वीडियो ने सजग संवेदनशील भारतीयों को चिंता में डाल दिया, जिसमें राशिद नाम का व्यक्ति यह कहता नज़र आया कि गुस्से में आदमी 35 तो क्या 36 टुकड़े भी कर सकता है। बाद में पुलिसिया पूछताछ में यह सच सामने आया कि इस वीडियो को बनाने और उसमें नजर आने वाले शख्स का नाम राशिद नहीं, विकास कुमार है...। आदतन अपराधी विकास के खिलाफ पहले से पांच मुकदमें दर्ज हैं।