Thursday, February 25, 2021

रिश्ते-फरिश्ते

        आप भी उससे मिलेंगे तो यही लगेगा कि कोई किताब पढ रहे हैं। आधे में छोडने का तो बिलकुल मन नहीं करेगा। पन्ना-पन्ना पढकर ही दम लेंगे। इस किताब में कुछ भी काल्पनिक नहीं। सौ फीसदी सच है। हकीकत है। ऐसी किताबें जुनून और जिद की कलम से लिखी जाती हैं। यह किताबें अंधेरे में भी चमकती नज़र आती हैं। इस किताब की असली नायिका मां है तो नायक बेटा है। नायक का नाम है श्रीकांत बोला। उम्र तीस वर्ष। जन्मजात नेत्रहीन है। झोपडी से महल तक पहुंचने की संघर्ष गाथा उसी की जुबानी...
        "मेरा जन्म १९९१ में आंध्रप्रदेश के सीतारामपुरम गांव में हुआ। माता-पिता को तब आघात लगा, जब उन्हें पता चला कि उनका बच्चा तो अंधा है। रिश्तेदारों, अडोसी, पडोसियों ने भी उन्हें घोर बदकिस्मत करार दे डाला, जिनके यहां लडका तो पैदा हुआ, लेकिन किसी काम का नहीं। उम्र भर के लिए बोझ। तकलीफों और परेशानियों का घर। सभी ने उन्हें सलाह दी कि ऐसे बच्चे का होना न होना एक बराबर है। वैसे भी लडके तो मां-बाप की सेवा और उनका नाम रोशन करने के लिए जन्मते हैं। मां-बाप के सपने अपनी अच्छी औलाद की बदौलत ही साकार होते हैं। यह अंधा तो उनके लिए फंदा है। ऐसे फंदों से मुक्ति पाना ही अक्लमंदी है। जैसे दूसरे समझदार मां-बाप करते हैं, तुम भी इसका गला घोंट दो। चुपचाप कहीं दफना दो। यह नहीं कर सकते तो अनाथालय में ले जाकर छोड दो। वही इसे खिलाएंगे, पिलायेंगे और जो उनकी मर्जी होगी, करेंगे। अनाथालय की शरण में पल-बढकर भीख मांगना तो सीख ही लेगा। तुम लोगों का तो इसे पालते-पालते ही दम निकल जायेगा। घर के बर्तन तक बिक जायेंगे और हाथ में कटोरा पकडकर भीख मांगने की नौबत आ जाएगी।"
        कुछ दिन तक तो मां हर किसी के उपदेश सुनती रहीं, लेकिन एक दिन उन पर बिफर पडीं। उन्हें आसपास फटकने तक से मना कर दिया। मां के अंतिम फैसले के रूप में कहे गये इन शब्दों ने सभी की जुबानें बंद कर दीं, "तुम लोग कान खोलकर सुन लो कि जब तक मैं जिन्दा हूं, अपने बच्चे पर आंच नहीं आने दूंगी। खुद को बेचकर भी इसकी इतनी अच्छी तरह से परवरिश करूंगी कि तुम लोग भी देखते रह जाओगे।" "चार साल का हुआ तो मां ने गांव के स्कूल में दाखिला करवा तो दिया, लेकिन घर से अकेले बाहर निकलना मेरे लिए आसान नहीं था। कभी पिता स्कूल छोडने जाते तो कभी मां छोड आती और लेने भी पहुंच जाती। स्कूल में मेरे साथ पढने वाले बच्चे मुझ से दूरी बनाये रहते। जब मैं तीसरी कक्षा में पहुंचा तो प्रिंसिपल ने मेरे लिए फरमान जारी कर दिया कि हमें ऐसे बच्चों की जरूरत नहीं, जिसके लिए हमें जरूरत से ज्यादा दिमाग खपाना और अपना कीमती समय बरबाद करना पडे। मां के जुनून ने मुझे हैदराबाद के ब्लाइंड स्कूल में पहुंचा दिया, लेकिन वहां भी मुझे कुछ भी सुझायी नहीं देता था। चौबीस घण्टे बस घबराया-घबराया रहता। एक रात मैंने स्कूल से भागने की कोशिश की तो वार्डन की मुझ पर निगाह पड गई। उन्होंने मेरे इरादे को भांप लिया था। गुस्से में उन्होंने मुझे अपने पास खींचा और पांच-सात तमाचे जडते हुए कहा कि कहां-कहां भागोगे। ऐसे भागने से तुम्हें कुछ भी हासिल नहीं होगा। अपना नहीं तो उस मां का ख्याल करो, जिसने कई सपने पाल रखे हैं। ईश्वर ने तुम्हें किसी चमत्कार के लिए इस धरती पर भेजा है। डरो नहीं, बस लडो... लडते ही रहो। वार्डन के चांटों और शब्दों का ही असर था कि उस दिन मुझे लगा कि मैं तो देख सकता हूं। मुझे हर चुनौती का डटकर सामना करते हुए खुशी-खुशी जीना है। मेरे अंदर साहस की रोशनी की तरंगें दौडने लगीं। मैं दसवीं तक टॉपर रहा, लेकिन मेरे मनोबल को तोडने वाली ताकतें तब भी मेरे पीछे पडी रहीं।
दसवीं के बाद आईआईटी की कोचिंग के लिए एक कोचिंग सेंटर गया तो वहां के संचालक ने तीखा थप्पड-सा शब्द बाण मारा कि तुम जैसे पौधे कभी पेड नहीं बन सकते, क्योंकि उनमें तेज बारिश और आंधियों को सहने की ताकत नहीं होती। हमेशा-हमेशा के लिए फौरन धराशायी हो जाते हैं और साथियों के तेजी से दौडते कदमों से रौंद दिये जाते हैं। साइंस में एडमिशन पाने के लिए अंतत: मुझे कोर्ट की शरण लेनी पडी। मां के हाथ और साथ के दम पर वो लडाई भी मैंने डट कर लडी और जीत हासिल की। आंध्रप्रदेश स्कूल शिक्षा बोर्ड में साइंस लेकर ९२ प्रतिशत नंबर के साथ पास होने वाला मैं पहला नेत्रहीन छात्र बना। उसके बाद तो बडी आसानी से अमेरिका के एमआईटी में प्रवेश मिल गया और यहां भी तब तक किसी दृष्टिहीन छात्र को प्रवेश नहीं मिला था। अमेरिका से पढाई कर लौटा तो तकदीर मेरे स्वागत के लिए सभी दरवाजे खोले खडी थी। मैं हौसले से लबालब था। मां खुशी से फूली नहीं समा रही थी। मैंने अपने दम पर हैदराबाद में कंज्यूमर फूड पैकेजिंग कंपनी शुरू की। २३ की उम्र में बोलैंट कंपनी का सीईओ बना। आज जब तीस साल का होने जा रहा हूं तब कंपनी ६०० करोड के आंकडे को छू चुकी है। मेरी कंपनी में चार सौ कर्मचारी काम करते हैं, जिनमें ७० प्रतिशत दिव्यांग हैं। जिन्दगी ने मुझे एक ही पाठ पढाया है कि ऊपर वाला भी तभी साथ देता है, जब हम हिम्मत और योजना के साथ चलते रहते हैं। चाहे कितनी भी मुश्किल भरी राहें हों, जुनूनी संघर्ष की बदौलत अंतत: आसान हो ही जाती हैं और मंजिल खुद-ब-खुद गले लगाती है।
        बेटे के लिए अपनी जिन्दगी होम कर देने वाली मां का यह बेटा आज छह सौ करोड का मालिक है। आने वाले वक्त में मेरी तिजोरी में दस-बीस हजार करोड रुपये भी होंगे, लेकिन मां और उनकी कुर्बानी से बढकर तो नहीं होंगे। मेरी सबसे बडी दौलत तो मेरी मां है, जिन्होंने मुझे यहां तक पहुंचाया है।"
        बीते हफ्ते महाराष्ट्र के नाशिक जिले में एक भाई अपनी बहन को बाइक पर दस किलोमीटर दूर स्कूल छोडने जा रहा था। सुनसान रास्ते में घनी झाडी में छिपे तेंदुए ने छलांग लगाकर बहन के पैर को अपने मुंह में दबोच लिया। ऐसा लग रहा था कि भूखा तेंदुआ उसकी जान लेकर ही दम लेगा। भाई ने आंधी की तरह बाइक की रफ्तार बढा दी। साथ-साथ दौडते तेंदुए ने बहन की पीठ पर टंगे बैग को जोर से खींचा और बैग उसके मुंह में आ गया। आगे बाइक दौड रही थी और पीछे-पीछे दौडता तेंदुआ बहन को दबोचने के लिए अपनी पूरी ताकत लगाये था। भाई की भी जिद थी कि किसी भी हालत में बहन को बचाना है। भले ही खुद की जान क्यों न चली जाए। भाई बाएं हाथ से बहन को जकडकर, दाएं हाथ से बाइक दौडाता रहा। वह भगवान से प्रार्थना कर रहा था कि बहन पर किंचित भी आंच न आए। इसी भागादौडी में तेंदुए के खिंचाव से बैग का पट्टा टूट गया और बैग उसके मुंह में फंसा रह गया। दोनों ने राहत की सांस ली। तेंदुआ बहुत पीछे छूट चुका था। उसके गुर्राने की दहशती आवाज अभी भी आ रही थी। उनकी बाइक सीधे स्कूल पहुंचकर ही रुकी। बहनों के प्रति भाइयों के स्नेह, समर्पण और उनकी सुरक्षा के लिए कुछ भी कर गुजरने की हजारों दास्तानें हैं। ऊपर वाले ने रिश्ते बनाये ही इसलिए होंगे। यह खून के रिश्ते हैं...। लेकिन एक और रिश्ता भी है, जो इंसानियत का रिश्ता कहलाता है। यह रिश्ता कई बार खून के रिश्तों को भी मात दे देता हैं, क्योंकि यह बिना किसी भेदभाव के सभी का साथी बन जाता है।
        एक सवाल कि एक रुपये में क्या होता है, क्या मिलता है? हलकी सी चाकलेट और संतरे के स्वाद वाली गोली जरूर मिल जाती है, जिसे आज के बच्चे भी पसंद नहीं करते। भिखारी भी एक रुपये के सिक्के को लेने से कतराते हैं। कागज़ के नोट तो वैसे भी आजकल कम नज़र आते हैं, जो हैं भी, वो शादी, ब्याह या किसी अन्य शुभ कार्य में दस को ग्यारह, सौ को एक सौ एक और पांच सौ को पांच सौ एक के शुभ आंकडे बनाने... दर्शाने के काम आते हैं। महंगाई भी कितनी बढा दी गई है। कुछ भी सस्ता नहीं मिलता। अनाज, दूध, सब्जियां, दवाएं सब महंगी होती चली जा रही हैं। पीने के पानी तक की कीमत चुकानी पड रही है। गरीब आदमी यदि किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाए तो उसका बचना मुश्किल है। डॉक्टरी के पेशे की इंसानियत भी जाती रही है, लेकिन फिर भी सच्चे इंसानों के अंदर का इंसान जिन्दा है इसे साबित कर दिखाया है ओडिशा के संबलपुर जिले के युवा डॉक्टर शंकर रामचंदानी ने, जिन्होंने गरीबों और वंचितों के इलाज के लिए 'एक रुपया' क्लिनिक खोला है। किराये के मकान में खोले गये इस अस्पताल में मरीजों की भीड लगी रहती है। गरीबों से एक रुपया फीस भी इसलिए लेते हैं ताकि उन्हें यह न लगे कि वे मुफ्त में इलाज करा रहे हैं। वे लंबे समय से चाह रहे थे कि ऐसे चिकित्सालय की स्थापना करें, जहां गरीब और बेसहारा लोग आसानी से पहुंचकर मुफ्त में इलाज करवा सकें। उनका मानना है बडे-बडे अस्पतालों में बडे निवेश की आवश्यकता होती है, इसलिए वहां पर इलाज भी महंगा हो जाता है। इसलिए उन्होंने आलीशान अस्पताल खोलने की बजाय साधारण अस्पताल खोला है, जहां पर उनकी कोशिश है कि जिनकी जेबें खाली हैं वे भी गर्व के साथ बीमारी से छुटकारा पा सकें। अडतीस वर्षीय डॉक्टर की पत्नी भी डॉक्टर हैं। दोनों विभिन्न अस्पतालों में कई वर्षों तक कार्यरत रहे हैं। दोनों अच्छी तरह से जानते हैं कि आज अधिकांश डॉक्टर कैसे निर्दयी सौदागर बन कर रह गये हैं, लेकिन इन पति-पत्नी को धन की कोई भूख नहीं। ताउम्र इंसानियत का धर्म निभाते हुए जीना चाहते हैं... ताकि खुद की निगाहों से गिरना न पडे...।

Thursday, February 18, 2021

नारी से नरमी!

    रोज़ छापे पड रहे हैं। होटलों में, फार्महाऊसों में, झोपड़ियों में और आलीशान फ्लैटों में। नई, पुरानी लडकियां और आंटियां पकडी जा रही हैं। पुलिस भी परेशान है कि इतनी पकडा-धकडी के बाद भी देह का कारोबार कम नहीं हो रहा, बढता ही चला जा रहा है। कल इज्ज़त नगर में स्थित ब्यूटी पार्लर में पुलिस ने छापा डालकर पांच लडकियों को रंगे हाथ पकडा था और आज शहर के राम मार्ग में स्थित सती-सावित्री नामक बिल्डिंग के एक फ्लैट में ऑनलाइन चल रहा देह व्यापार का हाई प्रोफाइल अड्डा पुलिस के हाथ लगा है। क्राइम ब्रांच ने इस देह के ठिकाने पर बडे ही नियोजित तरीके से जाल बिछाकर दो दलालों के चंगुल से तीन युवतियों को 'मुक्त' करवाने में सफलता पायी है।
    पुलिस ने सेक्स रैकेट का पुख्ता पर्दाफाश करने के लिए नकली ग्राहक को भेजा। देह सुख देने के ऐवज में सात हजार रुपये में सौदा पक्का हो गया। युवती जब निर्वस्त्र होकर ग्राहक के साथ कमरे में हमबिस्तर होने की तैयारी में थी तभी छापा मारा गया। तीनों युवतियां हरियाणा के शहर फरीदाबाद की हैं। गिरोह के संचालक ने इंटरनेट पर नौकरी का विज्ञापन दिया था। इसी विज्ञापन को देख, पढकर युवतियों ने संचालक से संपर्क किया। उन्हें हर माह एक लाख रुपये नगद देने के साथ-साथ और भी कई 'राजसी सुविधाएं' देने का आश्वासन दिया गया था। आज जब पांच-सात हजार की नौकरी आसानी से नहीं मिलती तब युवतियों के लिए तो यह छप्परफाड धन कमाने का मौका था। इसलिए वे फौरन दौडी-दौडी चली आईं। सेक्स रैकेट चलाने वाले उन्हें ग्राहकों के पास भेजने लगे। देह सुख पाने के लिए बिल्डर, भूमाफिया, सोने-चांदी तथा कपडा कारोबारी, ऊपरी कमायी करने वाले सरकारी अधिकारी यानी हर किस्म के मालदार अय्याश उनके किराये के फ्लैट में आने लगे। शराब, कबाब के साथ शबाब की महफिलें सजने लगीं। हर युवती को प्रतिदिन पांच, छह वासना के खिलाड़ियों को संतुष्ट करना पडता था।
आपसी रजामंदी का यह धंधा बडे आराम से चल रहा था। इसी बीच किसी ने पुलिस को खबर कर दी कि फ्लैट को देह व्यापार का हाई प्रोफाइल अड्डा बना दिया गया है, जो दिन-रात गुलजार रहता है। पुलिस के छापे के दौरान दो नाबालिग लडके भी पकड में आये। जिन अय्याशों की रिश्वत देने की हैसियत थी उन्हें बाइज्जत घर जाने दिया गया। जो नहीं दे पाये, या उस समय देने की स्थिति में नहीं थे, उन्हें ठोका-पीटा गया। घण्टों जेल में सडाया गया। रिहायशी इलाके में देह का धंधा किये जाने की खबर अखबारों में छपी, जिसमें पकडी गयी युवतियों को हमेशा की तरह 'पीडता' बताया गया। इन पीड़िताओं को महिला सुधार गृह भी भेज दिया गया। पीड़िता का शाब्दिक अर्थ है, जिसने पीडा झेली हो, जिसे पीडा पहुंचायी गई हो, लेकिन यह पीड़िताएं तो खुशी-खुशी धन के लालच में जिस्मफरोशी के धंधे में शामिल थीं फिर वे 'पीडता' कैसे हो गयीं? लाचार और बेसहारा कैसे हो ईं? ऐसी कॉलगर्ल और वेश्याओं के लिए इस 'दया सूचक' शब्द का इस्तेमाल किया जाना अपनी तो समझ से बाहर है! वासना के भूखे मर्दों की प्यास बुझाने के लिए एक लाख रुपया महीना वसूलने वाली युवतियां न तो भोली हो सकती हैं, न ही किसी दबाव में। उन्होंने तो यह पेशा अपनी मर्जी से चुना है। उन पर किसी ने बलात्कार नहीं किया। कोई जुल्म भी नहीं ढाया! कुछ हफ्ते, कुछ दिन सुधारगृह में रहने के बाद ये फिर से अपने धंधे में सक्रिय हो जाएंगी। ये ऐसा ही करती हैं। जब ये ढल जाती हैं, थक जाती हैं तो खुद अपना अड्डा चलाने लगती हैं। नई-नई लडकियों पर आसानी से धन बनाने के काम में शामिल होने के लालच के जाल फेेंकने लगती हैं। इन्हीं के बदौलत देह व्यापार सतत चलता रहता है। इनके अतीत का इतिहास यही बताता है। इनकी सुधरने की नीयत ही नहीं। यह और इन जैसी युवतियां बार-बार पकडी जाती हैं। पुलिस वाले इनके नाम और चेहरों को अच्छी तरह से जानने-पहचानने लगते हैं। अखबारों में भी इनके तथा गिरोहों के सरगनाओं के नाम बार-बार छप-छप कर आम होते रहते हैं।
    पुरानी 'पीड़िताओं' के चमक-दमक वाले जलवों को देखकर नयी-नयी लडकियां भी पुरुषों को अपने मधुर जाल में फांस कर अपना मकसद पूरा कर रही हैं। पुणे की रहने वाली २७ वर्षीय सायली एक निजी कंपनी में अच्छी-खासी पगार पर नौकरी कर रही थी। कोरोना के अवतरित होने के बाद लगे लॉकडाउन में उसकी नौकरी छंटनी में छिन गयी। कुछ दिन तक तो बैंक में जमा धन से गुजारा चलता रहा। जब बैंक बैलेंस जीरो के आसपास पहुंचता दिखायी दिया तो वह घबरा उठी। घर में बूढी मां थी, जो वर्षों से बिस्तर पर थी। उन्हें नियमित दवाएं देनी पडती थीं। समस्या तो थी, लेकिन ऐसी परेशानियां किसके साथ नहीं होतीं। सायली नयी नौकरी पाने या कोई खून-पसीना बहाने वाला कामधंधा करने की बजाय हनीट्रैप के जरिए युवकों को फांसने लगी। इसके लिए रामबाण की तरह उसके काम आया सोशल मीडिया का मंच, जो आजकल आपराधिक प्रवृत्ति के शातिर दिमागों के लिए मोटी कमायी का जरिया बना हुआ है। सायली ने डेटिंग ऐप्प और फेसबुक के ज़रिये अय्याश किस्म के व्यापारियों और नौकरीपेशा युवकों और पुरुषों को फांसकर खूब चांदी काटी। अपनी कातिल अदाओं का जाल फेंक कर किसी को होटल के कमरे में तो किसी को अपने ही फ्लैट में निमंत्रित करती और उसका स्वागत ऐसे शीतपेय से करती, जिसमें बेहोशी की दवा या नींद की गोलियां मिली होतीं। बिस्तर पर मिलते-मिलाते जब शिकार अपनी सुधबुध खो देता और वह उसके कपडे उतार कर अश्लील तस्वीरे व वीडियो बनाती। शातिर युवती शिकार की जेब में उस समय जो भी धन रहता उसे फौरन समेट लेती। उसके गले की चेन और अंगूठी आदि को भी नहीं छोडती। बाद में भी ब्लैकमेल कर रुपये वसूलती रहती। मात्र आठ महीने में उसने लगभग बीस पुरुषों को अपने जाल में फंसा कर अपनी वर्तमान की सभी आर्थिक परेशानियां दूर करने के साथ-साथ भविष्य की खुशहाली का अच्छा-खासा इंतजाम कर लिया। भोली-भाली दिखने वाली इस युवती ने महिलाओं को भी नहीं बख्शा। वह उनसे भी फेसबुक पर दोस्ती कर उनसे सेक्सी बातें करती थी तथा उन्हें अपनी अर्धनग्न तस्वीरें तथा वीडियो शेयर कर उन्हें भी अपनी फोटो तथा वीडियो क्लिप बनाकर भेजने के लिए बार-बार उकसाती थी। बाद में उनकी तस्वीरों और वीडियो को सार्वजनिक करने की धमकी देकर पैसे वसूलती थी।
    प्यार के मायावी जाल में फांसकर ठगने, लूटने का यह रंगीन अपराध करने वाली युवतियों का चेहरा-मोहरा देखकर यह अंदाज लगाना मुश्किल है कि ये ऐसा संगीन अपराध भी कर सकती हैं। खूबसूरती, चालाकी और पुरुषों की आदिम कमजोरी की समझ इनका सबसे बडा हथियार है। इस जहरीले धारदार हथियार से कई कत्ल करने के बाद भी ये युवतियां चाहती हैं कि उन्हें अबोध और बेकसूर माना जाए। वे तो हालात की मारी हैं इसलिए उनके साथ नरमी बरती जाए। उन्होंने तो यह काम किसी मजबूरी के चलते मजबूरन करना पडा है...!

Thursday, February 11, 2021

इतिहास का सबसे बडा विश्वासघात

    पहले मनोहरपुर (चाईबासा) की इस खबर को पढें। यह शहर भारत वर्ष में ही है। दरिंदा भी यहीं की धरा पर जन्मा है। हो सकता है इस खबर को पढने के बाद आपको कष्ट हो। गुस्सा आए। आघात भी लगे, लेकिन पढें जरूर :
'नसवीर टोला में रहने वाले ३५ वर्षीय पवन शराब के नशे का गुलाम हो चुका था। लगभग बीस साल से वह प्रतिदिन शराब पीकर उत्पात मचाता आ रहा था। २० जनवरी २०२१ की रात हमेशा की तरह पवन नशे में धुत होकर घर पहुंचा। साठ वर्षीय वृद्ध मां ने हमेशा की तरह उसे शराब से तौबा करने और इज्जत की जिन्दगी जीने को कहा तो वह भडक उठा और घर के बाहर चला गया। दरअसल वह मां की समझाइश और टोका-टाकी से तंग आ चुका था। रोज़-रोज़ की ऐसी ही टोका-टाकी और सलाह के कारण ही १७ सितंबर २०१२ को उसने अपने पिता की हत्या कर दी थी और एक साल पहले ही सजा काटकर रिहा हुआ था। पिता की तरह अब मां उसे अपनी शत्रु लगने लगी थी। करीब दो घण्टे के बाद वह एक पूरी बोतल चढाकर घर लौटा और मोटे डंडे से मां की अंधाधुंध पिटायी करने लगा। उसके छोटे भाई की पत्नी डर के मारे अपने एक माह के दुधमुंहे बच्चे को गोद में उठाकर बाहर भागी और कुछ ही दूरी पर स्थित एक घने पेड के पीछे छिप गई। अंधेरा होने के बावजूद उसे डंडे से अपनी मां को लहुलूहान करता शैतान दिख रहा था। वह चाह कर भी शोर नहीं मचा पा रही थी। भय से कांपती बस चुपचाप अपनी सास को मौत के मुंह में समाता देखती रही। कुछ ही देर में उम्रदराज बीमार, असहाय निर्बल मां ने दम तोड दिया।
    मां की सांसें छीनने और उसे लाश में तब्दील करने के बाद भी वह नहीं रुका। उसने घर के आंगन में ही सूखी लकड़ियां जमा कीं और फौरन धान की भूसी डालकर चिता बनायी। उस पर मां की लाश को रखा और आग लगा दी। धधकती आग में मां राख होती रही और वह बडे इत्मीनान के साथ उसी चिता की आग में मुर्गा भूनकर खाता-चबाता रहा। पूरा मुर्गा चट करने के बाद वह घर के भीतर जाकर बेफिक्र होकर गहरी नींद में सो गया...।"
    किसी भी संवेदनशील इंसान के होश फाख्ता कर देने वाली इस खबर को पढने के पश्चात इस विचार और सवाल का उठना लाजिमी है कि यह इंसान है या नरपिशाच? ...जिसने पहले अपने पिता की हत्या की, फिर मां को स्वाहा कर दिया। जरा सोचिये कि अपने बेटे के हाथों विधवा हुई मां ने इतने वर्षों तक अपने शराबी, हत्यारे बेटे को क्या सोचकर बर्दाश्त किया होगा? क्रूर बेटे को अपने सामने और आसपास पाकर भी क्या उसे अपने पति की याद नहीं आती रही होगी? निश्चय ही मां इस भ्रम में होगी कि आखिर वह उसी की पैदाइश है, जो होना था, हो चुका, लेकिन अब उसमें सुधार आयेगा। भूलकर भी अब वह कोई भूल नहीं करेगा। ऐसी घातक भूलें कई माता-पिता अकसर करते रहते हैं। बस इस इंतजार में कि आज नहीं तो कल सब ठीक हो जाएगा। हमारी जायी औलाद को ईश्वर सद्बुद्धि देगा, लेकिन नालायक औलादें सही रास्ते पर नहीं आतीं। पवन जैसे नरपिशाच यकीनन अपवाद होते हैं। लाखों, करोडों में एकाध, लेकिन फिर भी इनका हमारे ही समाज में पनपना डराता और कंपकंपाता तो है...!
आज के आपाधापी के दौर में बुजुर्ग दंपति कैसी-कैसी यातनाएं और अकेलापन भोग रहे हैं इसकी हकीकत बयां करती है यह खबर, "उत्तराखंड के शहर देहरादून में पैंसठ वर्षीय सेवानिवृत फौजी और पचपन वर्षीय उनकी पत्नी दो महीने तक घर में कैद रहे। इस दौरान उन्हें अन्न का एक दाना भी नसीब नहीं हुआ। जब देश गणतंत्र दिवस मना रहा था तब दोनों अकेले खाली पेट मौत से जंग लड रहे थे। बेहद मरणासन्न स्थिति में जब उन्हें अस्पताल लाया गया, तब डॉक्टर भी उनकी दशा देखकर घबरा गये। दोनों के नाखून और बाल काफी बढे हुए थे। कपडे बेहद मैले-कुचैले थे। जबरदस्त बदबू आ रही थी। शरीर एकदम कमजोर हो गया था। उनसे ठीक से बोलना भी नहीं हो पा रहा था। कई दिनों तक पानी नहीं मिलने के कारण उनके शरीर में पानी की कमी हो गई थी। इस बुजुर्ग दंपति के दो बेटे और एक बेटी है। बेटे दिल्ली में नौकरी करते हैं। बेटी भी अपने परिवार के साथ दिल्ली में ही रहती है। हर तरह से सम्पन्न बेटे-बहू और बेटी-दामाद होने के बावजूद नर्क की सी सजा भोग रहे बुजुर्ग दंपति के अस्पताल में भर्ती होने का किसी ने वीडियो बनाकर सोशल मीडिया में डाला तो अपनी ही दुनिया में खोये बडे बेटे को उनके बीमार होने का पता चला। अस्पताल में पहुंचने पर उसने अपने जन्मदाताओं की हालत देखकर अपनी नज़रें झुका लीं। उसके पास लोगों के सवालों का कोई जवाब नहीं था। वह तो पडोसियों को ही दोषी ठहरा रहा था, जिन्होंने अकेले घर में कैद उसके असहाय मां-बाप की सुध नहीं ली। पडोसी धर्म नहीं निभाया। इंसानियत को भी ताक पर रख दिया। उसका कहना था कि उसकी पहले कभी-कभार उनसे फोन पर बात होती रहती थी, लेकिन तीन माह से कोई संपर्क नहीं हो पा रहा था। उन्होंने कभी हमें बताया ही नहीं कि वे परेशानी की हालत में हैं।
    चलने-फिरने में असमर्थ माता-पिता जिस घर में रहते थे, उसकी खिडकियां और दरवाजे टूट चुके थे। घर की मरम्मत के लिए रखा लोहा और सीमेंट गायब था। मां के जेवर भी कोई उडा कर ले गया था। शहर के कुछ दबंग उन्हें घर छोडकर चले जाने के लिए धमकाते रहते थे। वहां पर बडी बिल्डिंग तानकर करोडों रुपये कमाने का उनका इरादा था। बदमाशों के आतंकी खौफ के कारण भी उन्होंने बाहर झांकना बंद कर दिया था। पडोसी भी दबंगों से खौफ खाते थे और भूलकर भी उनका साथ देने के लिए नहीं आते थे। पुलिस अगर उन्हें अस्पताल नहीं लाती तो दस-बीस दिन में उनकी हमेशा-हमेशा के लिए इस दुनिया से विदायी हो जाती। बेटे, बेटी, दामाद और उनके बच्चे कुछ दिनों तक रोते-गाते फिर कहानी का हमेशा-हमेशा के लिए अंत हो जाता...।
    देहरादून के अपने घर में अपनों के होते हुए भी भोजन और पानी को मोहताज रहने वाले दंपति की कहानी से कुछ अलग हटकर दास्तां है मित्रबंधु की, जिन्हें उनके बेटे-बहू आधी रात को कार में बैठाकर कहीं बहुत दूर छोडकर चलते बने थे। अब उन्हें आजादी से जीने और करोडों की जायदाद अपनी होने की अपार खुशी थी। घर में बुड्ढे के पीकर चीखने-चिल्लाने के शोर और दखलअंदाजी से भी उन्हें छुटकारा मिल गया था। मित्रबंधु किसी जमाने में साहित्य के आकाश के चमकते सितारे थे। बिखरे परिवारों और टूटे इंसानों को जोडने और संभलने का संदेश देने वाली उनकी लिखी किताबों की बिक्री से कई प्रकाशकों ने खासा धन कमाया, लेकिन मित्रबंधु आर्थिक संकट में फंसे रहे। संतान के प्रति स्नेह, दुलार ऐसा कि बिना कुछ सोचे अपनी सारी जमा पूंजी उनके हवाले कर दी। बेटी तो शादी कर अपने पिया के घर में चल दी और बेटे-बहू ने बेघर कर दिया। वर्षों तक करीबी यार-दोस्त मित्रबंधु का चेहरा देखने के लिए तरसते रहे। बेटे ने कभी सही जवाब नहीं दिया। अभी हाल ही में शहर को साफ-सुथरा रखने के लिए नगर निगम ने बडी बेरहमी से बेघर, बेसहारा लोगों को गंदगी मानते हुए कडकती ठंड में शहर से मीलों दूर छोडने का अभियान चलाया, तो किसी जागरूक शख्स के द्वारा बनाये गये वीडियो में साहित्यकार मित्रबंधु का भी टूटा-फूटा चेहरा नज़र आया। बेटे ने तो नहीं, दोस्तों ने उन्हें तुरंत पहचान लिया। दोस्त जिससे मिलने की आस छोड चुके थे, वह तो भीख मांगकर अपना गुजर बसर कर रहा था। महानगर की भीड में वह अकेला नहीं था, जिसका अपनों ने ही ऐसा शर्मनाक हश्र किया था। विक्षिप्तों और भिखारियों के साथ रहते-रहते मित्रबंधु की भी दशा पागलों जैसी हो गई थी। बदन दिखाते फटे कपडे, झाड-झंखाड-सी बढी दाढी और बिखरे बाल उनका हाल बता रहे थे। वे महीनों से नहाये तक नहीं थे। किसी को पहचानने की क्षमता भी क्षीण हो गई थी।
    रिश्तेदार और दोस्त मित्रबंधु कोe‘रैन बसेरा' छोड फिर से घर जाने के लिए लाख कोशिशों के बाद भी मना नहीं पाये हैं। मित्रबंधु के रुंधे हुए गले से बस यही शब्द निकलते हैं, 'अब वहां क्या जाना जहां मुझे बार-बार अपमानित किया गया। अपनी ही संतान से मैंने उपहार में बस विश्वासघात ही पाया है। मुझे वो दिन बार-बार याद आता है, जब मैंने किसी गलती पर अपने पोते को थप्पड रसीद की थी तो बेटे ने मुझे हॉकी से पीटा था। बहू ने भी उसका साथ दिया था। दरअसल, जब उन्होंने मुझे पांच सौ मील दूर जंगल में ले जाकर छोड दिया था, मर तो मैं उसी दिन ही गया था। जब तक पत्नी जिन्दा थी तब तक मैं सुरक्षित और बेफिक्र था। वह शेरनी की तरह दोनों पर झपट प‹डती थी। सबका मुंह बंद कर देती थी। उसके जाने के बाद मैं अनाथ हो गया। नितांत अकेला हो गया। अब तो मैं ऊपर वाले से हाथ जोडकर बार-बार यही प्रार्थना करता हूं कि वह किसी भी इंसान को अकेला मत छोडे। जब पत्नी जाए तो वह भी चल बसे। घोर स्वार्थी रिश्तों के बीच बहुत मुश्किल होता है जीना। पल-पल काटना दूभर हो जाता है। अब तो मैं बेसहारा, लावारिसों के लिए बनाये गए इसी 'रैन बसेरा' में अपने सडक के साथियों के साथ बाकी बचे दिन गुजारना चाहता हूं। मेरी और कहीं जाने की कोई इच्छा नहीं...।'

Thursday, February 4, 2021

कैंसर

    पति, पत्नी दोनों जेल में हैं। अब उनकी पूरी उम्र यहीं कटेगी। बचना असंभव। दोनों बुद्धिजीवी। पत्नी निजी स्कूल में प्रधानाचार्य तो पति कॉलेज में उपप्रधानाचार्य। मान-सम्मान के साथ जिन्दगी गुजर रही थी। कोविड-१९ का काला साया पडने के बाद दोनों में हैरतअंगेज बदलाव आता चला गया। उनकी बदली दिनचर्या में अंधश्रद्धा ने अपनी जडें जमानी प्रारंभ कर दीं। उन्हें अपने करीबी रिश्तेदार तक अपनी जान के शत्रु लगने लगे। घर के नौकरों पर से भी भरोसा उठ गया। एकाएक उनके घर में तांत्रिकों और बाबाओं का आना-जाना होने लगा। बाकी और किसी के लिए उनके घर के दरवाजे खुलने पूरी तरह से बंद हो गये। उन्हें निकट से जानने वालों ने यह सोचकर तसल्ली कर ली कि कोरोना के वायरस से बचने के लिए उनके द्वारा एहतियात बरती जा रही है। अपनी जान तो हर किसी को प्यारी है। वे भी कोई भूल-चूक नहीं होने देना चाहते, लेकिन उनका संदिग्ध तांत्रिकों से मिलना-जुलना सभी के लिए चिंताजनक तो था ही...।
    उनके रहस्यमय क्रियाकलापों की धीमी-धीमी चर्चाएं होने लगी थीं, लेकिन वे दोनों किसी भी तरह की प्रतिक्रिया देने के लिए उपलब्ध नहीं थे। उन्होंने तो खुद को एकांत में स्थित अपने विशाल घर में कैद कर लिया था। जहां कलयुग के सतयुग में बदलने का बडी बेसब्री से इंतजार किया जा रहा था। भ्रम और शंका के भंवर में फंसे दंपति ने अपना दिल और दिमाग पता नहीं कहां छोड दिया था। तांत्रिक के द्वारा उन्हें कहा गया कि उन्हें अपनी दोनों बेटियों की कुर्बानी देनी होगी। यह कुर्बानी कुछ ही घण्टों के लिए होगी। सतयुग का उजाला होते ही वे नई ऊर्जा और दृष्टि के साथ फिर से जी उठेंगी... तो उन्होंने इसे ऊपर वाले का दिव्य संदेश मानते हुए वो कर डाला, जिसकी कल्पना ही नहीं की जा सकती। वे दोनों बेटियों को घर के पूजा के कमरे में ले गये। उन्हें नहलाया-धुलाया। नये वस्त्र पहनाये गए। पूजा-पाठ करने के बाद छोटी बेटी का बडे इत्मीनान से मुंडन किया। बडी को फूल मालाएं पहनायीं। स्कूल कॉलेज में पढी-लिखी बेटियां भी उनके हर इशारे का पालन करती रहीं। उन्हें भी नवयुग के अवतरित होने का पूरा भरोसा था। अपने उच्च शिक्षित माता-पिता की धारणा के प्रति शंकित होने का कोई कारण ही नहीं था। वे उन्हें ईश्वर मानती थीं, जो अपनी संतान का अहित करने की सोच ही नहीं सकता। आज्ञाकारी बेटियां पुनर्जीवन के लिए सपनों में खोयी थीं। मां ने अपनी ही छोटी बेटी के जिस्म में त्रिशूल घोंपा और मौत की नींद सुला दिया। बडी की भी डंबल से यह सोचकर नृशंस हत्या कर दी कि कुछ ही घण्टों की ही तो बात है। रात बारह बजे के बाद, सतयुग शुरू हो रहा है। तब फौरन दोनों बेटियां बुरी आत्माओं के प्रभाव से मुक्त और पवित्र होकर जिन्दा हो ही जाएंगी।
    बेटियों का यह खूनी हश्र करने के बाद मां काफी देर तक रक्तरंजित शव के चारों ओर कुछ गुनगुनाते हुए नाचती रही। इसी दौरान पिता ने अपने एक कॉलेज के सहकर्मी को फोन कर बताया कि हमने दिव्यशक्ति के आदेश पर मानवता के हित में अपनी दोनों बेटियों की कुर्बानी दे दी है। आज (रविवार) रात बारह बजे के बाद कलयुग का खात्मा और नये स्वर्णिम युग का आगमन हो रहा है, जहां खुशियां ही खुशियां होंगी। कष्टों, गमों और तकलीफों का नामों-निशान मिट जायेगा। हमारी दोनों बेटियां भी फिर जिन्दा हो जाएंगी। हम मिलकर रंगारंग जश्न मनायेंगे। जीवनभर खूब नाचें और गायेंगे। सहकर्मी मित्र भागा-भागा उनके घर पहुंचा। वहां का मंजर देखकर वह कांपने लगा। घर में खून ही खून बिखरा था। दोनों बेटियों के शव खून से लथपथ पडे थे। उनके माता-पिता बडे इत्मीनान से ऐसे बैठे थे जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो। मित्र ने डरते-डरते उनसे कहा, 'यह क्या कर डाला आपने! जवान बेटियों की हत्या करते समय आपके ज़रा भी हाथ नहीं कांपे, आपको किंचित भी ख्याल नहीं आया कि आप कौन-सा पाप और घोर अपराध कर रहे हैं?'
    'अरे यह क्या कह रहे हैं आप? मैं तो शिवभक्त हूं। मेरे शरीर के कण-कण में ही कोरोना आया है। यह बिना वैक्सीन के इस्तेमाल के शीघ्र खत्म हो जाएगा। आप लिख लो कलयुग खत्म हो रहा है और सतयुग आ रहा है। हमारी बडी बेटी शिव तो छोटी ईश्वर की दूत है। दोनों मानव कल्याण के लिए शीघ्र फिर से जिन्दा होने वाली हैं। अगर यकीन न हो तो कुछ घण्टे यहां बैठकर इंतजार कर लो...।'
    पुलिस ने जब उनके यहां दस्तक दी तो उन्होंने उसे धमकाते हुए भीतर जाने से रोका। पुलिस अधिकारी यह देखकर दंग रह गये कि हत्यारी मां बेटियों के शव के चारों ओर झूम-झूम कर नाच रही थी। पिता ने चिल्लाते हुए अधिकारियों से कहा कि मैं कोई अनपढ गंवार नहीं हूं। खासा विद्वान हूं। पीएचडी हूं। आप से ज्यादा मैंने दुनिया देखी है। हमें जो दिव्य संदेश मिले थे, उन्हीं का हमने पूरा पालन किया है। हमारी दोनों जागरूक बेटियों ने अपने पुनर्जन्म के लिए खुद को मारने को कहा था। अगर हम इन्हें नहीं मारते तो वे खुद खुदकुशी कर लेतीं। परमपिता परमेश्वर तथा उनकी इच्छा को पूरा कर हमने कोई गुनाह नहीं किया है। दरअसल गुनाह तो आप लोगों ने किया है, जो यहां दौडे-दौडे चले आए हैं। धमके हैं, लेकिन अब जब आ ही गए हैं तो कुछ देर सब्र तो करें। आप भी अचंभित हुए बिना नहीं रहेंगे जब हमारी दोनों लाडली बेटियां आपके सामने ही उठ खडी होंगी।
    महान संत महात्मा गांधी की कर्मभूमि वर्धा में स्थित आचार्य विनोबा भावे ग्रामीण अस्पताल में पिछले कई हफ्तों से दर्द के मारे तडपती बत्तीस वर्षीय महिला को भर्ती किया गया। गहन जांच करने पर पता चला कि उसके पेट में इंजेक्शन की सुइयां हैं, जिनकी असहनीय पीडा की वजह से महिला ने खाना-पीना तक छोड दिया था। बस बिस्तर पर पडी कराहती रहती थी। उसके पेट में इन प्राणघातक सुइयों को पहुंचाया था उसके ससुराल वालों ने जो उसे अपशकुनी और हत्यारी डायन मानते थे। दरअसल हुआ यह था कि उसने दस माह पूर्व एक बच्चे को जन्म दिया था और उसी दिन उसके पति की एक सडक दुर्घटना में मौत हो गई थी। उसके बाद तो उस पर जुल्मों की बरसात शुरू हो गई। गंदे-गंदे ताने देकर मारा-पीटा जाने लगा। घर का एक सदस्य जो अस्पताल में काम करता था, उसने उसके पेट में जबरन इंजेक्शन की सुइयां घुसा दीं, जिससे वह जीवन भर उस अपराध की सजा भुगतती रहे, जो उसने किया ही नहीं था।
    झारखंड की राजधानी रांची में स्थित एक गांव में रहने वाली साठ साल की महिला को उसके ही पडोसियों ने डायन करार देकर इस कदर प्रताड़ित किया कि अंतत: उसने आत्महत्या कर ली। यह हमारे उस समाज की शर्मनाक आतंकी तस्वीर है, जो इक्कीसवीं सदी में भी अंधश्रद्धा की जंजीरों में जकडा है। वह आज भी तांत्रिकों, नीम हकीमों पर श्रद्धा और भरोसा रखता है। पचासों मील दूर रह रही 'टोनही' की तो उसे भरपूर जानकारी रहती है, लेकिन अपने घर के आसपास अकेलेपन, गरीबी, बदहाली से जूझ रहे पडोसी की खबर नहीं रहती। उसकी सहायता और चिन्ता करना तो बहुत दूर की बात है। नारंगी शहर नागपुर से कुछ ही दूरी पर स्थित है कामठी नगरी, जहां पर दो बहनें अपने घर में मृत पायी गईं। किसी से ज्यादा बातचीत नहीं करने वाली इन बहनों की भूख और कुपोषण की वजह से कब मौत हो गई, पडोसियों को भी पता नहीं चला। १५-२० दिन पहले एक बहन घर से बाहर दिखी थी। उसके बाद वह भी नहीं दिखी। हैरानी की बात तो यह भी है कि पडोस में ही उनका चचेरा भाई भी रहता है। साठ वर्षीय पदमा और पचास वर्षीय कल्पना की जब एक साथ अंतिम यात्रा निकल रही थी, तब आसपास के लोग खुद को इस कदर गमगीन दर्शा रहे थे, जैसे इन दर्दनाक मौतों ने उन्हें झकझोर कर रख दिया हो। कुछ को तो इस बात का बेहद मलाल था कि उन्होंने अपनी गरीबी, बदहाली, भूख और परेशानी छिपाये क्यों रखी! बता देतीं तो कोई न कोई तो दाना-पानी पहुंचा ही देता...। इस तरह से भूख से मरने की दर्दनाक नौबत तो न आती।