Thursday, March 28, 2013

वे भी तो शान से जीना चाहते थे!

ऐसी हायतौबा कभी नहीं देखी। सारे के सारे तथाकथित विद्वानों को एक ही ताल पर नाचते भी नहीं देखा। वाकई यह तो कमाल हो गया। फिल्म अभिनेता संजय दत्त को सुप्रीम कोर्ट ने सजा क्या सुनायी कि मीडिया की धडकने बेकाबू हो गयीं। एक पूर्व जज कानून और इंसाफ के मायने ही भूल गये! अभिनेता की फिल्मी गांधीगीरी की चकाचौंध ने और भी न जाने कितनों के दिमाग पर ताले जड दिये और आखों की जैसे रोशनी ही छीन ली। न्यूज चैनल वालों ने तो एकाएक उलटी गंगा बहानी शुरू कर दी। कौन नहीं जानता कि यही चैनल वाले किसी खतरनाक अपराधी को जेल भेजे जाने पर एक ही सुर में फुलझडिं‍यां और फटाके छोडने लगते हैं। उसके अगले-पिछले काले इतिहास के पन्ने खोलकर रख देते हैं। पर अभिनेता के मामले में कई चैनल वालों को मानो सांप सूंघ गया। बिगडैल अभिनेता की बुराइयों पर अच्छाइयों के लेप लगाने में जुट गये। उसके जितने भी पुराने साक्षात्कार थे, उन्हें धडाधड दिखाया जाने लगा। सभी को उसकी अच्छाइयां याद आने लगीं। इंडिया टी.वी. के रजत शर्मा ने तो चाटुकारिता को भी पानी-पानी कर दिया। संजय दत्त के बरसों पहले के साक्षात्कार 'आपकी अदालत' को बार-बार दिखाया। दर्शकों को उसकी भलमनसाहत के कई किस्से सुनाये और उसके लिए दुआएं मांगने की भी बार-बार अपील की। ऐसा लगा जैसे न्यूज चैनल वालों ने अभिनेता के तथाकथित आदर्श चरित्र के बखान की सुपारी ले ली हो। जिस खलनायक की मुंबई धमाकों के सरगना दाऊद इब्राहिम से करीबियां रहीं, जिसने दाऊद के साथी खतरनाक आतंकवादी अब्बू सलेम से उपहार में एके-५६ रायफल लेने की मर्दानगी दिखायी और यह पता होने के बावजूद कि मुंबई धमाकों की साजिश रची जा चुकी है उसने अपने मुंह पर ताला जडे रखा... ऐसे गैर जिम्मेदार शख्स को जी भरकर कोसने और लताडने की बजाय दया का पात्र बनाने का तयशुदा अभियान चलाया गया। देशवासियों को रटे-रटाये शब्दों में बताया गया कि संजू बाबा पूरी तरह से बदल गये हैं। अब वे ३४ साल के मस्तमौला शराबी, कबाबी और हवा में गोलियां दागने वाले संजय दत्त नहीं हैं। अब उनका कायाकल्प हो चुका है। उसके दो जुडवा बच्चे भी हैं। उसे बडी मुश्किल से एक खूबसूरत प्यार करने वाली बीवी मिली है। बेचारे ने प्यार-मोहब्बत और शादी पर शादी में भी कम गम नहीं झेले। बेचारे को छोटी उम्र में बडे-बडे नशों की लत लग गयी। उसी दौरान मां चल बसी। फिर पिता ने यह सोचकर शादी के बंधन में डाल दिया कि घरवाली नशेडी पति को रास्ते पर ले आएगी। एक बेटी ने जन्म लिया। इसी दौरान पत्नी को कैंसर हो गया और वह भी चल बसी। दूसरी शादी में भी बदनसीब को मुंह की खानी पडी। ऐसे अभागे पर तो ऊपर वाला भी दया दिखाता है। पर जज की कुर्सी पर बैठने वाले इंसान ने नायक के साथ बडी बेइंसाफी की है। वे ये भी भूल गये कि संजू बाबा बीस साल तक तनाव झेलते रहे। अदालतों के चक्कर, जेल पर जेल और बेल ने उसे कभी भी चैन से जीने नहीं दिया। उनके पिता सुनील दत्त और माता नर्गिस दत्त में देशसेवा और देशभक्ति की भावना कूट-कूट कर भरी थी। उनकी छोटी बहन प्रिया दत्त भी कांग्रेस की सांसद हैं। ऐसे प्रतिष्ठित परिवार से वास्ता रखने वाला फरिश्ता खुद-ब-खुद करुणा और दया का हकदार हो जाता है। चैनलबाज वकीलों ने अपने चहेते के गुणगान में जमीन-आसमान एक करने में कोई कसर नहीं छोडी। दर्शकों को बार-बार याद दिलाया गया कि उनका संजू अब भला इंसान बन चुका है। वह दलितों, शोषितों और गरीबों का मसीहा है और साप्रदायिक सौहार्द्र की जीती जागती तस्वीर है। उसने अपनी छाती पर अपने पिता सुनील दत्त का नाम हिं‍दी में तो मां नर्गिस का नाम उर्दू में गुदवाया हुआ है। जिसे देखो वही संजू बाबा को रहम की भीख देने की अपील करते नजर आया। कुछ तो रोने-गाने और यह बताने लगे कि उसने अपनी फिल्मों के जरिये करोडों लोगों का मनोरंजन किया है। उसके अहसान को चुकाने का इससे अच्छा और कोई मौका नहीं हो सकता। देश के महान वक्ता, सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज काटजू जैसे लोग इस कदर पसीज गये कि उन्होंने राज्यपाल महोदय को पत्र लिखा कि कल का बिगडैल बालक अब सुधर चुका है। उसमें अहिं‍सा के पुजारी महात्मा गांधी की आत्मा समा चुकी है और वह सच्चा गांधीवादी बन गया है। एक नेता ने फरमाया कि भारत के युवाओं को हिं‍सा, आतंकवाद और नक्सलवाद के दलदल से निकालने और उन्हें अहिं‍सा का पाठ पढाने में यह नया गांधी आदर्श भूमिका निभाने में सक्षम है। देशभर के बच्चे, बूढे, लडके-लडकियां और महिलाएं इन्हें अपना आदर्श मानती हैं। ऐसे में अगर इनकी सजा माफ नहीं की गयी तो देश गर्त में चला जायेगा।
किसी ने सच ही कहा है कि यह कलयुग है। यह हत्यारों, बलात्कारियों, भ्रष्टाचारियों, माफियाओं, देशद्रोहियों और स्वहित के लिए देश को चट कर जाने वालों का युग है। तभी तो बडे-बडे विद्वानों, पत्रकारों, संपादकों, उद्योगपतियों और अपने-अपने क्षेत्र के विचारकों की मत मारी गयी। सावन के अंधे की तरह उन्हें हरा ही हरा सूझता रहा। वे ये भी भूल गये कि इसी देश में लाखों कैदी वर्षों से जेल में सड रहे हैं। कइयों को तो अपने अपराध का भी पता नहीं है। ऐसे बदनसीब भी हैं जो जमानत का प्रबंध नहीं कर पाये और जेल ही उनका नसीब बन कर रह गया। खलनायक को माफी देने की दलीलें देने वालों को कोई यह भी तो बताये कि हिं‍दुस्तान की जेलों में बंद १६ लाख कैदियों में से सिर्फ लगभग चार लाख सजायाफ्ता हैं, बाकी तो अधर में झूल रहे हैं। उनके बारे में भी तो सोचो। इनमें से न जाने कितने कैदी सुधर चुके हैं। कितनों ने जेल में पढाई कर बी.ए. और एम.ए. किया। दरअसल मुंबई को असीम रक्त-रंजित पीडा और दर्द देने के सहभागी के दयावान हिमायतियो ने बडे ही शातिराना अंदाज से उन २५८ निर्दोष भारतीयों को नजरअंदाज कर दिया जिनके मुंबई धमाकों में देखते ही देखते परखच्चे उड गये थे। घायलों का आंकडा भी सात सौ से ऊपर था। इनमें से कितने अपंग हुए और कितने मर-खप गये इसका किसी के पास कोई हिसाब नहीं। यकीनन वे कोई गुंडे-बदमाश नही थे। उनमें भी जीने की ललक थी। उनके भी बीवी बच्चे थे। उन्हें भी तो अमन और चैन के साथ जीने का हक था। उनके इस जन्मसिद्ध अधिकार को छीनने में जिसने कहीं न कहीं भूमिका निभायी उसी पर दया और सहानुभूति जताने वालों में ज्यादातर वही लोग है जो हद दर्जे के 'धृतराष्ट्र' हो गये हैं और तर्कशीलता की सफेद चादर को बडे ही सफाई से लपेटकर कहीं फेंक चुके हैं।

Thursday, March 21, 2013

न उनसे हुआ भला, न इनसे हुआ भला

देश की राजनीति की दुर्गम राहों पर सतत चलते हुए सोनिया गांधी ने कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में १५ वर्ष पूर्ण कर एक इतिहास तो रच ही डाला है। कांग्रेस को जीवनदान और सत्ता तक पहुंचाने का श्रेय भी सिर्फ और सिर्फ सोनिया गांधी को ही जाता है। यह हकीकत है कि अगर सोनिया गांधी ने जर्जर कांग्रेस की कमान नहीं संभाली होती तो २००४ और २००९ में सत्ता का भरपूर स्वाद चख पाना कांग्रेस के लिए असंभव था। कांग्रेस के अधिकांश दिग्गज निराशा के अंतहीन गर्त में समा चुके थे। उन्होंने तो केंद्र की सत्ता का सपना देखना भी छोड दिया था। ये सोनिया गांधी ही थीं जिनका जादू चल गया और कांग्रेसियों की किस्मत के बंद दरवाजे खुल गयें। ये सोनिया गांधी का ही दम था जिसने विरोधियों के तमाम आरोपों और तोहमतों को हंसते-हंसते झेला और डूबती कांग्रेस की नैय्या को पार लगाया। असली प्रश्न यह है कि जर्जर कांग्रेस को सत्ता तक पहुंचाने वाली सोनिया गांधी से देश की आम जनता को जो आशाएं और उम्मीदें थीं क्या वे पूरी हो पायीं? इसका सिर्फ यही जवाब है, बिलकुल नहीं। भारतीय जनता पार्टी के ऊर्जावान नेता अटलबिहारी वाजपेयी की तरह सोनिया गांधी ने भी लोगों के विश्वास की धज्जियां उडाने का इतिहास रचा है। दलितों, शोषितों और गरीबों की तरक्की और भलाई के लिए ऐसा कोई भी उल्लेखनीय कदम नहीं उठाया गया जिसका जिक्र किया जा सके। मैडम ने दिखाने को तो डॉ. मनमोहन सिं‍ह को देश का प्रधानमंत्री बनाया पर कोई चमत्कार नहीं हो पाया। वायदे तो ढेरों किये गये पर पूरे नहीं के बराबर हुए। मैडम और डाक्टर साहब की छत्रछाया में हजारों और लाखों-लाखों करोडों के ऐसे-ऐसे घोटाले और भ्रष्टाचार हुए कि बेचारा मीडिया भी खबरें दिखाते और छापते-छापते थक गया। पर भ्रष्टाचार नहीं थमा। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार के कार्यकाल में उनके दामाद और महाजन किस्म के नेता मंत्री, दलाल फले-फूले, तो डॉ. मनमोहन सिं‍ह की सरपरस्ती में जिं‍दल, जायसवाल, दर्डा और राबर्ट वाड्रा जैसों ने जी भरकर चांदी काटी। औरों की तो जाने दें पर राबर्ट वाड्रा के गडबडझालों ने देशवासियों को बेहद चौंकाया है।
'गांधी' नाम को भी बट्टा तो लगा ही है। राबर्ट सोनिया के दामाद हैं, और उस प्रियंका के पति हैं जिनमें लोग उनकी दादी प्रियदर्शिनी इंदिरा गांधी की छवि देखते हैं। राहुल गांधी, जिन्हें कांग्रेसी एक सुर में प्रधानमंत्री बनाने के गीत गाते रहते हैं, वे भी अपने जीजाश्री की अंधाधुंध कमायी से कैसे अनभिज्ञ रह गये?
राबर्ट तो व्यवसायी हैं और येन-केन-प्रकारेण दौलत के पहाड खडे करना हर शातिर व्यापारी का पहला लक्ष्य होता है। दामाद बाबू ने इतिहास भर दोहराया है और निशाने पर सिर्फ और सिर्फ सोनिया गांधी ही हैं। दामाद तो दामाद हैं। उन्हें अपनी सास और साले की साख के दोहन का अघोषित अधिकार है। पर उन नेताओं का क्या करें जिन्होंने मैडम के नाम पर लूट का तांडव मचा रखा है। लोगों को अक्सर यह सवाल परेशान करता है कि किं‍गमेकर होने के बावजूद मैडम हाथ पर हाथ धरे क्यों बैठी हैं? राजनीति में पंद्रह साल का कार्यकाल कायाकल्प करने के लिए पर्याप्त होता है। देश की जनता ने कांग्रेस गठबंधन को दूसरी बार केंद्र की सत्ता यह सोचकर सौंपी थी कि शायद इस बार कोई चमत्कार हो और देश के बदहाल आम आदमी की किस्मत खुल जाए। पर आज देश की आम जनता बेहद रोष में है। अपना खून पसीना बहाने वाला आम आदमी महज दो वक्त की रोटी, चंद कपडे और सिर पर घर नाम की एक छत ही तो चाहता है। अगर हुक्मरान उसे ये भी मुहैय्या न करा पाएं और उनके संगी-साथी सबकुछ चट कर जाएं तो आम आदमी के खून का खौलना सौ फीसदी जायज है।
राजनेताओं, उद्योगपतियों और ताकतवर भ्रष्ट अफसरों की जमात ने देश का जो अपार धन विदेशी बैंकों में जमा कर रखा है उसे वापस लाने के लिए देशप्रेमी जनता वर्षों से व्याकुल है। आंदोलन पर आंदोलन होने के बाद भी मनमोहन सरकार के कान पर जूं नहीं रेंगी। इस सरकार की रिमोट कंट्रोलर तो आखिर सोनिया गांधी ही हैं उन्होंने गजब की चुप्पी साधे रखी! वे अगर हिम्मत दिखातीं तो कुछ भी हो सकता था। अभी तो वे मतलबी कांग्रेसियों की मसीहा हैं, अगर देश का विदेशों में जमा अपार धन वापस आ जाता तो देश का बच्चा-बच्चा उन्हें सलाम करता। देश का भी भला हो जाता।
खोजी पत्रकारिता की बदौलत अब तो यह भी रहस्योद्घाटन हो गया है कि देश में ही काले धन का जबरदस्त कारोबार चल रहा है। निजी क्षेत्र के कुछ बैंक मनमाने ढंग से काले धन को सफेद बनाने के गोरखधंधे में लगे हुए हैं। देश में ही चल रहे इस काले धंधे के नायक भी नेता उद्योगपति और बडे-बडे अधिकारी ही हैं। ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि सत्ताधीश इससे वाकिफ न हों। अब यह बताने और लिखने की गुंजाइश भी नहीं बची है कि इस देश की राजनीतिक पार्टियां और उनकी आडी-तिरछी राजनीति काले धन के दम पर ही जिं‍दा है। ऐसे में यह मान लेने में यकीनन कोई हर्ज नहीं है कि जिस तरह से विदेशी बैंकों में जमा धन वापस आने से रहा वैसे ही देश में कुछ बैंकों के द्वारा जारी काले धन के कारोबार को नेस्तानाबूत कर पाना सरकार के बस की बात नहीं है।
जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस की कमान संभाली थी तो देश के आमजन में यह उम्मीद तो जागी ही कि वे कोई ऐसा करिश्मा जरूर कर दिखाएंगी जिससे उसे राहत मिलेगी। महंगाई, बेरोजगारी, अव्यवस्था और भ्रष्टाचार से जूझता देश और देशवासी इतने हताश और निराश कभी नहीं हुए जितने कि सोनिया और मनमोहन के राज में हुए हैं। अंत में किसी कवि की ये पंक्तियां :
''न उनसे हुआ भला, न इनसे हुआ भला
काटा है सबने आज तक कमजोर का गला
कुर्सी पर बैठा जो भी उल्लू बन गया
नेता का जिस्म एक ही सांचे में ढला।
वे नागनाथ थे तो ये सांपनाथ हैं
बांबी में हाथ डाला हमको पता चला
बहुरुपिये हुये सब बदले हैं मुखौटे
जनता को खूब आजतक हर एक ने छला
सींचा है जैसे-जैसे यह सूखता गया
जनतंत्र का यह वृक्ष अब तक नहीं फला।''

Thursday, March 14, 2013

पत्रकारिता के कलंक

अखबार मालिकों और पत्रकारों को अपने पाले में लाने और निरंतर बनाये रखने के लिए सरकार को भी कम पापड नहीं बेलने पडते। कुछ सफेदपोश गुरुघंटाल किस्म के अखबारीलालों को दोनों हाथों में लड्डू रखने की लत लग चुकी है। ऐसे घोर लालची कलमवीरों के कारण ही पत्रकारिता आज चौराहे पर है।
उत्तरप्रदेश के कई पत्रकार लालबत्ती के लिए दिन-रात एक किये रहते हैं। सरकार के समक्ष झोली फैलाने में उन्हें कोई शर्मिंदगी महसूस नहीं होती। जब दाल नहीं गलती तो अपनी पर उतर आते हैं। दरअसल ये वो कलमवीर हैं जो हर सरकार के मंत्रियों और संत्रियों के दरबारों की परिक्रमा करने में सिद्धहस्त हैं। सरकार भी अपने कुछ आज्ञाकारी संपादकों और अखबार मालिको को चारा डालने में कोई कंजूसी नहीं करती। ऐसे बहुतेरे जाने-पहचाने पत्रकार हैं जो मायावती के दरबार में भी हाजिरी लगाते थे और अखिलेश और मुलायम सिं‍ह यादव के भी करीबी हैं। ऐसी कला हर किसी के नसीब में नहीं होती। कुछ पत्रकारो का एकमात्र लक्ष्य है चाटुकारिता करो और ईनाम पाओ। लखनऊ के उस पत्रकार को कई नये-पुराने पत्रकार अपना गुरु मानते हैं और चरणवंदना करते हैं जिसने मायावती के गुणों का बखान करने वाली किताब लिखकर बसपा सरकार में अपनी धाक जमायी थी और मीडिया सलाहकार के महान पद को सुशोभित किया था। इस महान हस्ती के रंग-ढंग देखकर यह पता लगाना मुश्किल था कि ये बहुजन समाज पार्टी के कार्यकर्ता हैं या पत्रकार हैं। बहन मायावती के आशीर्वाद से इसके घर-आंगन में इतनी धनवर्षा हुई कि उसे संभाल पाना भी दूभर हो गया। अपनी कम पढी-लिखी पत्नी के लिए भी इसने अच्छी-खासी सरकारी नौकरी का जुगाड कर अपना दबदबा दिखाया था।
दरअसल पत्रकारिता को धंधे में तब्दील करने का श्रेय ऐसे ही महापुरुषों को जाता है। उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में कई ऐसे कल के छुटभइये नेता हैं जो आज पत्रकार कहलाते हैं इनके अपने अखबार हैं और अपनों की ही खबरें छापते हैं। जिनसे दाल नहीं गलती उन्हें धूल चटाने के लिए कुछ भी कर सकते हैं। राजनीति, शासन और प्रशासन के बाजार के कागजी शेर इनसे खौफ खाते हैं तो इनकी छाती और भी चौडी हो जाती है। सरकारें पत्रकारो को कौडी के दाम जमीनें और आवास उपलब्ध करवाती हैं पर अक्सर देखने में यही आता है कि जुगाडु ही बाजी मार ले जाते हैं। निष्पक्षता और निर्भीकता के साथ पत्रकारीय दायित्व निभाने वाले कलम के पुजारी मिलीभगत का तमाशा देखते रह जाते हैं। लखनऊ में नामी पत्रकारों को सरकार की तरफ से दिये गये घरों में शराब की दुकानें, होटल, ड्राइविं‍ग स्कूल और ब्युटी पार्लरों का चलना यही दर्शाता है कि नैतिकता और सिद्धांत का ढिं‍ढोरा पीटकर प्रतिष्ठा पाने वाले पत्रकार भी कितने खोखले और बाजारू हैं। ऐसे स्वार्थी पत्रकारों का भ्रष्ट नेताओं और बिकाऊ अफसरशाही पर कलम चलाने और भडास निकालने का कोई हक नही बनता। वैसे भी ऐसे पत्रकार आरती गाने या फिर तटस्थ रहने को मजबूर होते हैं। इनमें और देश को बेच खाने को उतारू नेताओं, अधिकारियों में ज्यादा अंतर नहीं है। दोनों ही धोखा और छल-कपट के ऐसे भयावह प्रतिरूप बनकर उभरे हैं, जिनसे देशवासियों का मोहभंग होता चला जा रहा है। ऐसे शर्मनाक दौर में प्रेस की आजादी पर हमला और पत्रकारों, संपादकों, अखबार मालिकों के साथ अन्याय की खबरें भी सुर्खियां पाते नहीं थकतीं। पत्रकार बिरादरी के कुछ लोग बिहार के मुख्यमंत्री नितीश कुमार से खासे नाराज हैं। मुख्यमंत्री दावा तो सुशासन का करते है पर उनके ढोल में बडी पोल है। इसी पोल को खोलने का खामियाजा कुछ अखबार वालों को भुगतना पड रहा है।
दूसरी तरफ नितीश के तथाकथित सुशासन और सफलता के गीत गाने वाले समाचार पत्रों की भरे चौराहे पर होली भी जलायी जा रही हैं। होली जलाने वालों में जागरूक नागरिक, स्वयंसेवी संस्थाएं और वे बुद्धिजीवी शामिल हैं जिन्हें विहार की बदहाली स्पष्ट दिखायी देती है। प्रदेश में भ्रष्टाचार, अपराध पर अपराध और बदमाशों की रंगदारी परवान पर है पर मुख्यमंत्री कहते हैं कि प्रदेश में अमन और शांति है। ऐसे अखबारियों की कमी नहीं है जो मुख्यमंत्री की ताल पर नाचते हैं और उन्हें वही दिखता है जो नितीश कहते और बताते हैं। सरकारी विज्ञापनों के लालच में बिहार के कई अखबार मालिकों ने अपने संपादकों और पत्रकारों को सरकार के भाई-भतीजावाद, तमाम कमजोरियों, घोटालों और रिश्वतखोरी के समाचारों की पूरी तरह से अनदेखी करने का कडा आदेश दे रखा है। यही वजह है कि मंत्रियों के साथ-साथ प्रशासनिक अधिकारी भी अपनी मनमानी का तांडव मचाये हैं। उनका आतंक इतना जबर्दस्त है कि जनहित के लिए कलम चलाने वालों का टोटा पड गया है। बुद्धिजीवी कहलाने वाले संपादकों ने अपनी कलम और बुद्धि सत्ता के हाथों गिरवी रख दी है और मालिकों के दलाल बनकर रह गये हैं। जिन समाचार पत्रों में नितीश सरकार की आरती गायी जाती है उन्हीं पर सरकारी विज्ञापनो की बरसात की जा रही है। कई अखबार ऐसे हैं जिनका जनहित की खबरों से दूर-दूर तक नाता नहीं है। जो अखबार निष्पक्षता और निर्भीकता के मार्ग पर चलते हुए पत्रकारिता कर रहे हैं उन्हें आपातकाल के नज़ारों से रूबरू होना पड रहा है। कोई भी सजग पत्रकार अगर सरकार की गडबडि‍यों पर लिखता है तो उसे प्रताडि‍त करने का सिलसिला शुरू हो जाता है। पहले तो अखबार मालिकों पर दबाव डाला जाता है कि ऐसे पत्रकार की फौरन हकालपट्टी कर दें। नहीं मानने पर उन्हें सरकारी विज्ञापन देने बंद कर दिये जाते हैं। ऐसे बिरले ही मालिक हैं जो सरकार के हुकुम की अनदेखी कर सकें। अधिकांश का मकसद तो करोडों के सरकारी विज्ञापनों को बंटोरना ही है। उनके लिए समर्पित पत्रकार कोई अहमियत नहीं रखते। किसी भी एक पत्रकार के नौकरी से हकाले जाते ही नये चाटुकारों की लाइन लग जाती है। मुख्यमंत्री नितीश कुमार का बस चले तो वे सरकार और उनके खिलाफ लिखने वालों को ही प्रदेश से बाहर उठवा कर फेंक दें।
दरअसल देश के लगभग सभी प्रदेशों में ऐसे ही हालात हैं। किसी भी मुख्यमंत्री को निष्पक्ष पत्रकारिता रास नहीं आती। कोई भी अखबार उनकी कमजोरियां उजागर करता है तो वे उसे अपना शत्रु मानने लगते हैं। बिकाऊ अखबार मालिकों, पत्रकारों, संपादकों को तो किसी भी शासक के समक्ष दंडवत होने में कोई तकलीफ नहीं होती। असली कष्ट तो उन्हें होता है जो बिकना और झुकना नहीं जानते। निश्चय ही चरणवंदना और पूरी तरह से बिछकर चाटुकारिता करने वालों ने निष्पक्ष और निर्भीक पत्रकारिता के समक्ष कई संकट खडे कर दिये हैं। आम आदमी भी इस सच्चाई को समझने लगा है कि उसे किस तरह की खबरें किस-किस के इशारो पर कैसे परोसी जा रही हैं।
जिन कलंकित चेहरों ने पत्रकारिता को शर्मनाक पेशा बना कर रख दिया है उन्हें सुधारना आसान नहीं है। फिर भी जो पत्रकार, संपादक बिकने से परहेज करते हैं वे बिकाऊओं का डटकर विरोध करें। उनकी जमात से ही किनारा कर लें। आखिर अखबार सिर्फ और सिर्फ जनता के लिए प्रकाशित किये जाते हैं। जनता भी इतनी नासमझ नहीं है कि ईमानदारों का साथ न दे। जो सिर्फ सरकारी विज्ञापनों की बैसाखी के सहारे सच्ची पत्रकारिता करना चाहते हैं उन्हें भी चतन-मनन करना होगा। आम जनता के दम पर भी दमदार अखबार निकाले जा सकते हैं। सरकार के भरोसे तो कतई नहीं। सरकारें तो इस हाथ दे और उस हाथ ले के उसूल पर चलती हैं। देश में ऐसे व्यापारी, उद्योगपति भरे पडे हैं जो साहसी पत्रकारिता के पक्षधर हैं और उसके लिए वे हर तरह का सहयोग और साथ देने को तत्पर रहते हैं।

Thursday, March 7, 2013

रोगी और भोगी जन्मदाता

कुछ खबरें ऐसी होती हैं जिन्हें पढते ही खून खौल उठता है। बेइंतहा शर्मिंदगी भी महसूस होती है। दिमाग में कई सवाल कौंधने लगते हैं। पर फिर भी हम कुछ भी नहीं कर पाते। खुद को एकदम बेबस और असहाय पाते हैं। इस सच्चाई से भला कौन इंकार कर सकता है कि बेटियां अपने पिता के काफी करीब होती हैं। जितना लगाव उन्हें अपने जन्मदाता से होता है उतना और किसी से नहीं। हर पिता की भी यही चाहत होती है कि उसकी लाडली को दुनियाभर की खुशियां नसीब हों। उसकी हर राह फूलो भरी हो। बेटियों के लिए सतत उजालों की चाहत रखने वाले पिताओं की छवि को कलंकित करने वाले उन नराधमों के बारे में क्या कहा जाए और क्या किया जाए जो अपनी हैवानियत से बाज नहीं आ रहे हैं!
शुक्रवार १ मार्च २०१३ को शहर के विभिन्न दैनिक अखबारों में छपी इस खबर ने स्तब्ध करके रख दिया:
शहर के निकट स्थित कोराडी में एक ऐसे हैवान पिता को पुलिस ने गिरफ्तार किया है जो गत कई महीनों से अपनी ही बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाता चला आ रहा था। बेटियों की उम्र १६ और १३ वर्ष के आसपास है। इस व्याभिचारी का नाम रोशन है, जो कि मूलत: मध्यप्रदेश का रहने वाला है। रोजीरोटी की तलाश में कुछ वर्ष पूर्व वह नागपुर आया था और फिर यहीं का होकर रह गया। उसकी पहली पत्नी की बेहद संदिग्ध हालातों में मौत हो चुकी हैं। ५ जुलाई २०१२ को जब उसकी दूसरी पत्नी मायके गयी थी तब वह और उसकी बडी बेटी घर में अकेले थे। वासनाखोर बाप की अपनी ही संतान प‍र नीयत डोल गयी और उसने उस पर बलात्कार कर डाला। यह शर्मनाक जुल्म ढाने के साथ-साथ उसे चाकू और ब्लेड का भय दिखाकर चेतावनी भी दे डाली कि यदि किसी के सामने मुंह खोला तो उसका भी वही हश्र होगा जो उसकी मां का हुआ था। जालिम बाप के खौफ से आतंकित बेटी ने इसे अपना मुकद्दर मान लिया और कुकर्मी बाप की हवस का शिकार होती रही। महीनों तक यह सिलसिला चलता रहा। पाप का घडा एक दिन फूटना ही था। एक रात छोटी बहन ने कामुक बाप को बडी बहन के साथ जबर्दस्ती करते देखा तो वह स्तब्ध रह गयी। उसका बाप उसके साथ भी तो यही कुकर्म करता चला आ रहा था! यानी वह दोनों बेटियों को अपनी जुल्म का शिकार बनाये हुए था! रोशन ने अपनी छोटी बेटी को भी चेताया। उसे भी ऊपर पहुंचा देने की धमकी दी।
छोटी ने जब बडी को सच्चाई से अवगत कराया तो वह बौखला उठी। उसने कभी कल्पना नहीं की थी कि उसका व्याभिचारी बाप इस हद तक नीचे गिर सकता है। अपने साथ हुए अनाचार को तो उसने जैसे-तैसे बर्दाश्त कर लिया था पर छोटी बहन के साथ हुए जन्मदाता के दुष्कर्म ने उसे मुंह खोलने को विवश कर दिया। दोनों बहनों ने एक समाजसेवी को अपने बाप की हैवानियत के बारे में अवगत कराया तो मामला पुलिस स्टेशन तक पहुंच गया और हवसखोर बाप को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। दूसरी खबर ६ मार्च २०१३ की है। इसमें भी अपनी ही बेटी के बलात्कारी बाप की कलंकित दास्तान है। नारंगी शहर नागपुर के निकट के कापसी गांव के रहने वाले आसिफ शेख हफीज शेख की बारह वर्षीय बेटी ने आरोप लगाया है कि उसके बदचलन बाप ने उसे कहीं का नहीं छोडा। पांच माह पूर्व उसे घर में अकेला पाकर अपनी घिनौनी हवस का शिकार बना डाला। उसके बाद तो एक सिलसिला-सा चल पडा। जैसे कि वह अपने ही जन्मदाता के हाथों शोषित होने के लिए ही इस धरती पर जन्मी हो। असहाय बेटी ने कई बार मिन्नतें की। हाथ-पैर जोडे पर निर्लज्ज बाप का कलेजा नहीं पसीजा। उस पर तो वासना का ऐसा भूत सवार था जो दंश पर दंश देने को उतारू था। आखिरकार बेबस बेटी ने मां के सामने अपना मुंह खोला तो उसके भी पैरों तले की जमीन खिसक गयी। बिना कोई देरी लगाये संतप्त मां थाने जा पहुंची।
तीसरी खबर तो और भी चौंकाने और आंख खोलने वाली है। इसी हफ्ते पंजाब के फरीदकोट में एक युवती के साथ कुछ बदमाशों ने उसी के पिता की मौजूदगी में छेडछाड कर दी तो वह इतनी अधिक शर्मसार हुई कि खुद पर मिट्टी का तेल डालकर आग लगा ली। दरअसल इसी सुलगती खबर में पावन रिश्तों का असली सच और दर्द छुपा हुआ है। जब एक बेटी पिता के समक्ष की गयी छेडछाड से इतनी आहत हो सकती है कि वह खुद को आग के हवाले कर देती है तो सोचिए, जब कोई नराधम बाप अपनी बेटी को हम बिस्तर बनने को मजबूर करता होगा तब उस मासूम पर क्या बीतती होगी। क्या वह जिं‍दा लाश बनकर नहीं रह जाती होगी...?
दरअसल बच्चियों और बेटियों पर ऐसे तमाम जुल्मों के ढाये जाने का असली सच और पीडा कभी भी सामने नहीं आ पाता। कुछ ही मांएं ऐसी होती हैं जो अपने पति परमेश्वर के खिलाफ खडे होने का साहस दिखाती हैं। ज्यादातर तो मामले को दबाने और छुपाने का ही काम करती हैं। अपने घर की बहू-बेटियों की इज्जत अपनों के ही हाथो तार-तार होने की जानकारी होने के बावजूद न जाने कितने तथाकथित उच्च घराने भी इसलिए चुप्पी अख्तियार किये रहते हैं क्योंकि मुंह खोलने से उन्हें अपनी इज्जत लुट जाने का भय सताता है। इज्जत बचाने के लिए इज्जत लूटाने का यह खेल पता नहीं कितने छोटे-बडे परिवारों में सतत चलता ही रहता है...।