Thursday, October 31, 2013

कैसे-कैसे मंज़र!

ऐन दिवाली से कुछ दिन पूर्व पटना में हुई भाजपा की चुनावी महारैली ने दबे-छिपे खतरों के संकेत दे दिये हैं। यह तो खबर थी कि कई ताकतें नरेंद्र मोदी से खफा हैं। उनकी हुंकार रैली को जिस तरह से बम और बारुद से सलामी दी गयी उससे बिहार सरकार की निष्क्रियता की भी पोल खुल गयी है। नीतीश कुमार सुशासन के दावे करते हैं। उनके सुशासन में एक के बाद एक बमों का फटना, छह लोगों का बे-मौत मारा जाना और लगभग सौ लोगों का घायल होना उनकी घोर लापरवाही और नाकामी को ही दर्शाता है। मोदी की पटना किसी भी हालत में रैली न होने पाए, ऐसा तो नीतीश कुमार शुरू से ही चाहते थे। राजनीतिक शत्रुता तो समझ में आती हैं पर यह सिलसिलेवार धमाकेबाजी कई शंकाएं पैदा करती है। सत्ता के नशे में चूर मुख्यमंत्री के चेहरे पर कहीं कोई शिकन नजर नहीं आयी। मृतकों और घायलों के प्रति उन्होंने ऊपरी तौर पर ही संवेदना और सहानुभूति दर्शायी। यह निर्मम चेहरा किसी को भी नहीं भाया। क्या राजनीति इंसान को पत्थर से भी गया-बीता बना देती है? उनकी निगाहें सिर्फ और सिर्फ मोदी की हुंकार रैली और उनके भाषण पर टिकी रहीं। तभी तो उन्होंने मोदी के सवालों के सिलसिलेवार जवाब देने में देरी नहीं लगायी। उन्होंने मोदी को अज्ञानी और हिटलर का अनुयायी घोषित कर तालियां बटोरीं। यकीनन नीतीश अंदर से घबराये हुए हैं। उन्हें मोदी का भय खाये जा रहा है। उन्हीं के प्रदेश की राजधानी में आतंकी संगठन इंडियन मुजाहिदीन ने जिस तरह का खूनी खेल खेला उससे तो अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनावों पर भी भयावह खतरा मंडराने लगा है। मुख्यमंत्री के दंभी तेवरों से तो यही लगा कि वे बिहार के जन्मजात शासक हैं। वे जैसा चाहेंगे वैसा ही होगा। अपने राजनीतिक विरोधियों का बिहार की धरा पर कदम धरना भी इन्हें खलता है। उनके इसी रवैये के कारण ही उनकी पार्टी के कुछ नेता भी उनसे काफी नाराज हैं। जेडीयू के मुखर सांसद शिवानंद तिवारी ने तो मुख्यमंत्री के चेहरे का रंग ही उतार दिया। उन्होंने भरी सभा में कहा कि नीतीश जमीनी नेता नहीं हैं। नरेंद्र मोदी ने पिछडे परिवार में जन्म लेकर कडा परिश्रम कर जो मुकाम हासिल किया है उसकी तारीफ की ही जानी चाहिए। हुंकार रैली के दौरान भाषण देते वक्त नरेंद्र मोदी ने शालीनता का दामन छोडने की भूल नहीं की। नीतीश ने तो नरेंद्र मोदी की तुलना जेल में कैद दुराचारी आसाराम से ही कर डाली। उनकी इस सोच ने उनके अंदर छिपे कपटी चेहरे को उजागर कर दिया है। राजनीति इतनी विषैली भी हो सकती है, इसका भी पता चल गया है।
देश के पांच राज्य पूरी तरह से चुनावी रंग में डूब चुके हैं। मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ में भाजपा, दिल्ली राजस्थान और मिजोरम में कांग्रेस की सत्ता है। दोनों पार्टियों ने सत्ता पाने और सत्ता में बने रहने के लिए तरह-तरह की तिकडमों और प्रलोभनों का जाल फेंकना शुरू कर दिया है। दिल्ली में 'आप' पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस की नींद हराम कर दी है। शीला दीक्षित को पता नहीं क्यों फिर से दिल्ली की सत्ता पाने का पूरा भरोसा है। उनके राज में दिल्ली में कितने बलात्कार हुए और कितनी लूटपाट की घटनाएं हुर्इं, इसका तो शायद उन्हें अता-पता नहीं है फिर भी बडी-बडी बातें करने से बाज नहीं आतीं। इसी शीला ने कभी कहा था कि लडकियों को अंधेरा होते ही घरों में दुबक जाना चाहिए। यानी वे उनकी सुरक्षा कर पाने में असमर्थ हैं। दोनों ही पार्टियां लोकलुभावन योजनाओं की घोषणाएं कर वही वर्षों पुराना खेल खेल रही हैं। धर्म, जाति और क्षेत्र की राजनीति करने में कांग्रेस और भाजपा को महारथ हासिल है। इस जंग में 'आप' के सुप्रिमो अरविंद केजरीवाल की कितनी दाल गल पाती है इस ओर सभी की निगाहें लगी हैं। सभी जानते हैं कि बिना धन-बल के चुनाव लड पाना असंभव है। फिर भी यदि वे जमे-जमाये सूरमाओं को पटकनी देने में कामयाब हो जाते हैं तो यह मान लेने में कोई हर्ज नहीं होगा कि इस देश में ईमानदारी की अभी भी पूछ होती है...। जहां-जहां भाजपा की सत्ता है वहां पर कांग्रेस जी-जान लगा रही है कि किसी भी तरह से बिल्ली के भाग्य से छींका तो टूट जाए। वही हाल भाजपा का भी है। वह भी येन-केन-प्रकारेण कांग्रेस शासित प्रदेशों को अपने कब्जे में लेना चाहती है। सत्ता को पाने और हथियाने का जबरदस्त नाटक चल रहा है। जनहितकारी मुद्दों का कहीं अता-पता नहीं है। कोई पार्टी बिजली मुफ्त देने का प्रलोभन दे रही है तो किसी ने एकाध रुपये किलो में चावल-गेहूं देने का वायदा कर वोटरों को फांसने के लिए अपना-अपना जाल फेंक दिया है। भ्रष्टाचार के दलदल में धंसी कांग्रेस की धारणा है कि वह दिल्ली में चौथी बार भी चुनाव जीतने की अधिकारी है। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह आश्वस्त हैं कि मतदाता तीसरी बार भी उन्हीं के गले में विजय की माला पहनाएंगे। छत्तीसगढ के मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह भी अपनी चाउरबाबा की छवि को भुनाने की फिराक में हैं। उन्होंने जब छत्तीसगढ की कमान संभाली थी तो प्रदेशवासियों के दिलों में उम्मीद जगी थी कि वे प्रदेश में उद्योग धंधो की कतार खडी कर देंगे। जिनसे लोगों को रोजगार मिलेगा। गरीबी और बदहाली दूर होगी। लोगों को यह भी भरोसा था कि नक्सली समस्या का भी खात्मा हो जायेगा। डॉ. रमन चाउर वाले बाबा बनकर अपनी छवि को चमकाने में तो कामयाब जरूर हुए पर छत्तीसगढ की हालत में कोई खास सुधार नहीं कर पाये। लोगों को औने-पौने दाम पर या फिर मुफ्त में चावल-दाल उपलब्ध करवा कर गरीबी तो दूर नहीं की जा सकती। अब इसका जवाब तो डॉ. रमन ही दे सकते हैं कि उन्होंने मूल समस्याओं के निराकरण की तरफ ध्यान क्यों नहीं दिया? उन्हें इस बात की भी खबर होगी कि नक्सलियों ने उस आतंकी संगठन इंडियन मुजाहीदीन से हाथ मिला लिए हैं, जिसने पटना में बम बिछाकर मनचाहा खूनी कहर ढाया।
वसुंधरा राजे भी राजस्थान की मुख्यमंत्री बनने के सपनों के घोडे पर सवार हैं। उन्हें यकीन है कि अशोक गहलोत भले ही असली जादूगर हों पर इस बार उनका ही जादू चलने वाला है। प्रदेश की जनता रानी साहिबा को हाथोंहाथ लेने को तैयार खडी है। सत्ता के सिंहासन के लिए बेशुमार आश्वासन बांटते राजनेताओं के भ्रम को अगर कोई तोड सकता है तो वे सिर्फ और सिर्फ मतदाता ही हैं। देखें, इस बार वे क्या करते हैं। जागते हैं या फिर सोये के सोये रह जाते हैं। दरअसल आजकल चुनावी मंचों पर अभिनेताओं की भरमार हो गयी है। फिल्मी अभिनेताओं की तो पूछ रही नहीं, इसलिए नेता ही अभिनेता बन गये हैं। कांग्रेस के युवराज राहुल गांधी को अतीत की दास्तानें सुनाने में सुकून मिलता है। भाजपा के भावी प्रधानमंत्री के अभिनय का तो कहीं कोई सानी ही नहीं है। ऐसे बनावटी और दिखावटी दौर में समस्त देशवासियों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।

Thursday, October 24, 2013

पत्रकार को किसने मारा?

पत्रकारों को तो हिम्मती और दिलेर माना जाता है। हर संकट-कंटक और जुल्म से भिडने का उनमें अभूतपूर्व साहस होता है। उनकी निर्भीक कलम बडे-बडे माफियाओं, जालसाजों और भ्रष्टाचारियों की रूह को कंपा कर रख देती है। यह भी सबको खबर है कि अराजक तत्वों को बेनकाब करने वाले निष्पक्ष पत्रकारों को अक्सर कई जानलेवा तूफानों का सामना भी करना पडता है। भ्रष्ट सत्ताधीशों, अफसरों और राजनेताओं के द्वारा खोजी पत्रकारों को पिटवाये और मरवाये जाने की कितनी ही खबरें पढने और सुनने में आती रहती हैं। फिर भी पत्रकारों का उत्साह कम नहीं होता। पत्रकारीय दायित्व को निभाते हुए समाज के शत्रुओं के साथ उनकी लडाई सतत जारी रहती है। बीते सप्ताह भोपाल के एक पत्रकार की आत्महत्या कर लेने की खबर बेहद स्तब्ध कर गयी। समर्पित कलमकारों को वतन के लुटेरों और धोखेबाजों के द्वारा गोलियों से भून-भूना देने के दौर में एक सजग पत्रकार को जहर पीकर इस दुनिया से विदायी लेनी पडी! यह तो वाकई बेहद चौकाने वाली घटना है।
देश के प्रदेश मध्यप्रदेश की राजधानी के पत्रकार राजेंद्र सिं‍ह राजपूत एक जुनूनी पत्रकार थे। बिलकुल वैसे ही जैसे हर देश प्रेमी पत्रकार होता है। उन्हें कहीं से खबर लगी कि मौजूदा काल में जब देश के लाखों पढे-लिखे नवयुवक नौकरियों की तलाश में मारे-मारे भटक रहे हैं, तब कई शातिरों ने शासन और प्रशासन की आंख में धूल झोंककर अच्छी-खासी सरकारी नौकरियां हथिया ली हैं। वे फौरन सक्रिय हो गये। उन्होंने सूचना के अधिकार के जरिए ऐसे ३०० अफसरों की पुख्ता जानकारी हासिल की जिन्होंने सामान्य वर्ग के होने के बावजूद अनुसूचित जाति के फर्जी प्रमाण पत्र बनवाये और भारत सरकार तथा विभिन्न प्रदेशो में शानदार रूतबे वाली नौकरियां पायीं। यह तो शासन और प्रशासन के साथ बहुत बडी धोखाधडी थी। इसका पर्दाफाश होना बहुत जरूरी था। पत्रकार राजपूत ने सजग पत्रकारिता के धर्म को निभाते हुए अपने अखबार में उन तमाम जालसाजों को नंगा करने का अभियान शुरू कर दिया, जो फर्जी प्रमाण पत्रों की बदौलत मेडिकल आफिसर, इंजिनियर, रजिस्ट्रार, इन्कम टैक्स कमिश्नर, पुलिस और वन अधिकारी आदि-आदि की कुर्सी पर काबिज होकर ऐश कर रहे हैं। योग्य उम्मीदवार जिन्हें नौकरी की दरकार है वे अपनी किस्मत को कोस रहे हैं।
फर्जीवाडा कर अफसरी के मज़े लूटने वाले २५० लोगों के खिलाफ राजपूत ने हाईकोर्ट में जनहित याचिका भी दायर करवायी। उनकी शिकायत पर मध्यप्रदेश शासन की राज्य स्तरीय अनुसूचित जाति छानबीन समिति ने २० सितंबर २००६ को ५६ अधिकारियों, कर्मचारियों को तत्काल नौकरी से बर्खास्त करने का आदेश दे दिया। इतना ही नहीं उनके फर्जी प्रमाण पत्रों को राजसात कर दंडात्मक कार्रवाई करने व उनके पुत्र-पुत्रियो के जाति प्रमाण पत्र भी निरस्त कर राजसात करने का आदेश पारित कर पत्रकार राजपूत की खबर पर पूरी सच्चाई की मुहर लगा दी।
राजपूत यकीनन पत्रकारिता के धर्म निभा रहे थे, लेकिन फर्जीवाडा करने वालों की धाकड जमात उनकी जान की दुश्मन बन गयी। उनका अपहरण किया गया। शिकायत वापसी के लिए आवेदन पत्र एवं शपथ पत्र पर हस्ताक्षर कराये गये। उनकी पत्नी और बेटी को भी धमकाया गया। मारने-पीटने और फर्जी केस में फंसाने का कभी न खत्म होने वाला सिलसिला चला दिया गया। आरोपी अफसरों की ऊपर तक पहुंच थी, इसलिए राजपूत की किसी ने नहीं सुनी। उन्होंने मुख्य सचिव, डीजीपी, आईजी से लेकर हर पुलिस अफसर और सत्ताधीश की चौखट पर जाकर फरियाद की, कि माई-बाप मुझे बचाओ। फर्जीवाडा करने वाला गिरोह मेरी जान लेने को उतारू है। मेरे खिलाफ अलग-अलग थानों में धोखाधडी के फर्जी केस दर्ज करवा दिये गये हैं। यह तो 'उलटा चोर कोतवाल को डांटे' वाली बात है। मैंने जालसाजों को बेनकाब कर देश की सेवा की है। इन ठगों और लुटेरों को तो जेल में होना चाहिए। पर इनका तो बाल भी बांका होता नहीं दिखता। मैं आखिर कहां जाऊं? सच की लडाई लडने वाला पत्रकार जालसाजों से निरंतर जूझता रहा। न शासन ने उसकी सुनी, न ही प्रशासन ने। सफेदपोश गुंडों की धमकियों और चालबाजियों ने उसका तथा उसके परिवार का जीना इस कदर हराम कर दिया था कि आखिरकार उसे आत्महत्या करने को विवश होना पडा। आत्महत्या करने से पहले उसने २२ पेज का एक सुसाइड नोट भी लिखा, जिसमें उन तमाम बदमाश अफसरों के नाम दर्ज हैं। यकीनन राजपूत कायर तो नहीं था। अगर बुजदिल होता तो इस जंग की शुरुआत ही नहीं करता। दरअसल, उन्हीं जालसाज कायरों ने ही उसकी हत्या की है जिसका उन्होंने बेखौफ होकर पर्दाफाश किया। उन्हें तो पुरस्कृत किया जाना चाहिए था। पर उन्हें मौत दे दी गयी। यह कैसी व्यवस्था है? उनकी मौत के बाद मुख्यमंत्री का बयान आया कि पत्रकार के परिवार के लोग मेरे परिवार जैसे ही हैं। मैं इनकी हर तरह से सहायता करने को कटिबद्ध हूं। यह कैसी विडंबना है कि एक जीते-जागते पत्रकार को पूरी तरह से निरीह बनाकर रख दिया गया और उसके मरने के बाद उसके परिवार को दाल-रोटी देने और न्याय दिलाने का आश्वासन दिया जा रहा है! यह ढोंग कब तक चलता रहेगा।

Thursday, October 17, 2013

जैसा बोया, वैसा काटा

अपने आश्रमों में यौन वर्द्धक दवाइयां बनाने और बेचने वाले प्रवचनकार के बेटे को पुलिस तलाश रही है। बेटे पर भी वही आरोप हैं जिनके चलते सौदागर बाप को सलाखों के पीछे जाना पडा है। गहराई से सोचें तो बडी हैरानी होती है। कोई आम बाप-बेटा होते तो ज्यादा आश्चर्यचकित होने की कोई वजह नहीं थी। दोनों शौकीनों पर विश्वास करने वालों की अच्छी-खासी तादाद है। बाप के अनुयायियों की संख्या तो करोडों में बतायी जाती है। पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या ज्यादा है। यह महिलाएं उसे अपना भगवान मानती रही हैं। कई तो ऐसी भी हैं जिनके पूजाघरों में आसाराम की तस्वीर को खास जगह मिली हुई थी। बेचारी सुबह-शाम नतमस्तक होती थीं। उनकी आस्था और विश्वास को आसाराम ने जो घाव दिये हैं उनका भर पाना असंभव है। देश के दूसरे सच्चे संत भी चिं‍तित और दुखी हैं। एक कुसंत के कुकर्मो ने पूरी की पूरी संत बिरादरी को सिर झुकाने को मजबूर कर दिया है। न पहले कभी ऐसा देखा गया और न ही सुना गया। खबरें चीख-चीख कर बता रही हैं कि आसाराम तो आसाराम, उसका बेटा, बेटी और पत्नी भी ...छल कपट के प्रतिरूप हैं। इनके छलावी संसार में पावन रिश्तों की गरिमा को सूली पर लटकाया जा चुका है। ऐसे में मन में विचार आता है कि यह लोग एक दूसरे से किस तरह से पेश आते होंगे। क्या इन्हें एक दूसरे से निगाह मिलाते हुए कोई शर्म-वर्म नहीं आती होगी? इस देश के किसी भी साधारण परिवार में जब कोई मुखिया व्याभिचार के दलदल में फंस जाता है तो सभी परिजन उससे दूरियां बना लेते हैं। बाप का बलात्कारी होना संतानों को अंतहीन पीडा देता है। बेटियां तो शर्म के मारे पानी-पानी हो जाती हैं। यह भी हकीकत है कि एक सच्चा हिन्दुस्तानी पिता अपने दुराचारी पुत्र की शक्ल देखना भी पसंद नहीं करता। यहां तो सबके सब कीचड में धंसे लगते हैं। बेटा बाप से दस कदम आगे है। बाप ने अपने दुलारे को शिक्षा ही कुछ ऐसी दी कि वह सिर्फ और सिर्फ देहभोगी बनकर रह गया। होना तो यह चाहिए था कि कपटी कथावाचक को पत्नी दुत्कारती और बहन अपने कामुक भाई को लताडती। पता नहीं इनकी ऐसी कौन सी मजबूरी थी जो यह चुपचाप दुष्कर्मियों की संगी-साथी बनी रहीं।
भारतवर्ष तो एक ऐसा देश है जहां कोई भी वफादार पत्नी अपने बदचलन पति को बर्दाश्त नहीं कर पाती। उसका बेटा अगर बलात्कारी और घोर व्याभिचारी हो तो उसे अपना जीवन ही व्यर्थ लगने लगता है। उसके लिए लोगों को अपना मुंह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है। समाज में सिर उठाकर चलने की गुंजाइश ही खत्म हो जाती है। चमगादड का सूरमा लगाने वाले आसाराम का तो पूरा परिवार ही मुखौटेबाज लगता है। अपने भक्तों को अनुशासन, शालीनता और मर्यादा का पाठ पढाने वाले आसाराम ने पतन का जो काला इतिहास लिखा है उसे कोई भी शरीफ आदमी पडना नहीं चाहेगा। भोगी और विलासी आसाराम ने जैसा बोया, वैसा ही काटा है। उसकी लम्बी जेल यात्रा के बाद कुकर्मी बेटे का भी जेल जाना तय है। अफीमची आसाराम ने अपने बेटे का नाम नारायण तो रखा पर वह उसे इंसान भी नहीं बना पाया। उसमें ऐसे-ऐसे कुसंस्कार भर दिये कि वह भोगी और विलासी बन सेविकाओं के साथ बलात्कार कर अपनी मर्दानगी दिखाने लगा। तथाकथित संत से शैतान बने बाप-बेटे ने यह भ्रम पाल लिया था कि उनकी लीलाएं हमेशा पर्दे में ढकी रहेंगी। यह तो अच्छा हुआ कि एक बहादुर लडकी सामने आयी और उसने वासना में डूबे बाप-बेटे का काला चिट्ठा खोलकर रख दिया।
आसाराम के प्रवचनों के सम्मोहन के कट्टर कैदियों के अभी भी होश ठिकाने नहीं आए हैं। राम जाने, इस शख्स ने उन्हें ऐसी कौन सी अफीम खिलायी है जो उनका नशा टूटने का नाम ही नहीं ले रहा है। जैसे-जैसे वक्त बीत रहा है भुक्तभोगियों और प्रत्यक्ष दर्शियो की संख्या बढती चली जा रही है। हवस के पुजारियों ने कितनी नारियों की अस्मत लूटी इसका असली आंकडा तो शायद ही कभी सामने आ पाए। पर क्या यह कम चौंकाने वाली बात है कि आसाराम किसी भी युवती को भोगने से पहले उसे अफीम और अन्य उत्तेजक नशों का गुलाम बनाता था। 'पंचेड बूटी' के आदी एक तथाकथित संत का यह भोगी चेहरा यकीनन भयभीत करता है। पैरों तले की जमीन खिसकने लगती है। आसाराम ने अपने भक्तों के साथ जो अक्षम्य विश्वासघात किया है उसकी तो कभी कोई कल्पना ही नहीं कर सकता था। खुद को कृष्ण-कन्हैया दर्शाते हुए बाप-बेटे भोली-भाली युवतियों को अपनी अंधी और दंभी वासना का शिकार बनाते रहे। अंध भक्त भी अनदेखी कर तालियां बजाते रहे। चढावा चढाते रहे और जाने-अनजाने में अपनी बहू-बेटियो को भोगियों के निशाने पर लाते रहे। किसी ने सच ही कहा है कि पाप का घडा एक न एक दिन भरकर ही रहता है और पापी को अपना मुंह दिखाना भी मुश्किल हो जाता है। फरेबी आसाराम और उसके परिवार की जो दुर्गति हुई है और एक तथाकथित संत का जो शैतानी चेहरा सामने आया है उससे उन लोगों को यकीनन सबक लेना चाहिए जो मुखौटेधारियों की शिनाख्त किये बिना फौरन उनके अंधभक्त बन जाते हैं। यह उम्मीद भी की जा सकती है कि देश को ऐसे धूर्तो से मुक्ति मिलेगी। आसाराम जैसे सभी पाखंडी जेल में नजर आएंगे...।

Thursday, October 10, 2013

हर भ्रष्ट नेता को भेजो जेल

यह अब किसी शोध का विषय नहीं है। खोज-खबर के लिए यहां-वहां भटकने की भी जरूरत नहीं है। दिग्गज राजनेता खुद-ब-खुद सच उगलने लगे हैं। खुद को तथा अपनी जमात को बेझिझक बेनकाब करने लगे हैं। आज की तारीख में राजनीति सबसे बढि‍या धंधा है। इसके लिए किसी पूंजी की जरूरत नहीं। बस एक खास किस्म के हुनर और चालाकी की दरकार है। जो शख्स किसी उद्योगधंधे के काबिल न हो, जो अच्छा डॉक्टर, वकील, पत्रकार, इंजिनियर बनने से चूक जाए, उसे फौरन राजनीति में कदम धर देने चाहिए। यहां उसकी हर मनोकामना पूरी होने में देरी नहीं होगी। राजनीति में फटेहाल फकीरों को भी अरबों कमाने में देरी नहीं लगती। चालू और चालाक तो सभी को पछाडने की कूवत रखते हैं।
यह पुख्ता विचार हैं कांग्रेस के ही एक उम्रदराज सांसद के, जिनका नाम है चौधरी वीरेंद्र सिं‍ह। यही चौधरी साहब कभी यह रहस्योद्घाटन भी कर चुके हैं कि इसी देश में १०० करोड की दक्षिणा देकर राज्यसभा का सांसद बना जा सकता है। यानी धन के दम पर काले चोर भी लोकतंत्र के सबसे बडे मंदिर में प्रवेश पाकर अपनी मनमानी कर सकते हैं। १०० करोड की लागत लगाकर हजारों करोड की काली कमायी करने से उन्हें कोई नहीं रोक सकता। वाइएसआर कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष जगमोहन रेड्डी की धन-संपत्ति का डेढ-दो वर्षों में ४०० गुना बढ जाना राजनीति के धंधे के अजब-गजब कमाल को दर्शाने और बताने का जीवंत उदाहरण है। जय हो मेरे निराले देश हिन्दुस्तान की, जहां माया की माया बडी ही अपरम्पार है। देश के प्रदेश झारखंड, जहां आदिवासियों को भूखे पेट सोने को विवश होना पडता है, और बार-बार मरना पडता है, वहां के एक शातिर मुख्यमंत्री ने हजारों करोड रुपये एक ही झटके में समेट लिए। यह बात दीगर है कि उसे जेल भी जाना पडा। उसकी पत्नी उसे बेकसूर बताती रही। मधु कोडा के काले धन पर कोई आंच नहीं आयी। जब वह अदालती चक्करों से मुक्त हो जायेगा तो इसी दौलत की बदौलत राजनीति के मैदान में नये-नये झंडे गाडेगा। उसके चाहने वालों की भीड भी सतत उसके पीछे खडी नजर आयेगी। यही वजह है कि मधु के चेहरे पर कभी भी कोई शिकन नहीं देखी गयी। उसे अपने इस विश्वासघाती दुष्कर्म पर कोई शर्म-वर्म नहीं आयी। वैसे भी जन्मजात भ्रष्टाचारी कभी भी शर्मिन्दगी महसूस नहीं करते। जेल की दीवारों में कैद होकर अपने काले करमों का दण्ड भुगत रहे हरियाणा के ओमप्रकाश चोटाला ने भी यही किया। खुद को देश की एकमात्र सिद्धांतवादी पार्टी मानने वाली भाजपा के येदियुरप्पा ने भी आंध्रप्रदेश का मुख्यमंत्री बनते ही अपनी असली औकात दिखाने में जरा भी देरी नहीं लगायी। अपने बेटों और दामादों को सरकारी जमीनें कौडी के दाम देकर पार्टी के नाम पर ही ऐसा दाग जड दिया, जिसका मिट पाना असंभव है। औरों से अलग होने का ढोल पीटने वाली भाजपा के पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष बंगारू लक्ष्मण और नितिन गडकरी ने भी कमल की साख को ही कटघरे में खडा कर दिया है। दलित बंगारू लक्ष्मण का तो भाजपा की राजनीति से लगभग पत्ता ही साफ हो गया, लेकिन गडकरी पार्टी के भावी पी.एम. नरेंद्र मोदी की नैय्या पर सवार होकर चौके-छक्के लगाने की फिराक में हैं। उन्होंने नागपुर से लोकसभा चुनाव लडने की तैयारियां शुरू भी कर दी हैं। जमीनी चुनावी दंगल से कन्नी काटते चले आ रहे गडकरी के लिए आगामी लोकसभा चुनाव किसी अग्नि परीक्षा से कम नहीं होगा। अभी से वोटरों को लुभाने के एक सुत्रीय कार्यक्रम में लग चुके गडकरी को कांग्रेस ने पटकनी देने की दमदार योजनाएं बनानी भी शुरू कर दी हैं। जैसे ही लोकसभा चुनाव का बिगुल बजेगा, ढोल बजाने लगेंगे। चतुर कांग्रेसी 'पूर्ति' के चमत्कारी पन्ने खोलने के अभियान में जुट जाएंगे। इसी का नाम राजनीति है। फिर अपने देश में तो सत्ता और राजनीति के काम करने के अपने ही अंदाज हैं। किसका कब तक उपयोग करना है, कब किसे बेनकाब करना है और किसे कब तक बचाना और छिपाना है, इसके भी तयशुदा फार्मूले हैं। चारा घोटाले में फंसने के बाद भी वर्षों तक लालू प्रसाद यादव का राजनीति और सत्ता में बने रहना क्या दर्शाता है? एक कुटिल घोटालेबाज बिहार की मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बडे मज़े के साथ विराजमान रहता है और जब जेल जाने की नौबत आती है तो अपनी अनपढ घरवाली को बिहार की सत्ता ऐसे सौंपता है जैसे मुख्यमंत्री का पद कोई सोने का हार हो जिसे कोई रईस दूल्हा अपनी दुल्हन को पहना कर उसे रिझा रहा हो। लोकतंत्र का इससे भयावह और कोई मज़ाक नहीं हो सकता। लालू प्रसाद जैसे भ्रष्टाचारियों ने हमेशा लोकतंत्र का मजाक ही उडाया है। फिर भी इन्हें जेल की हवा खिलाने में वर्षों लग जाते हैं। देश की जनता राजनीति के सभी भ्रष्टाचारियों को जेल की सलाखों के पीछे देखना चाहती है। दो-चार को सजा दे दिये जाने से देशवासियों को राहत नहीं मिलने वाली। जितने भी भ्रष्टाचारी हैं, उनकी असली जगह जेल ही है। उन्हें बचाने और छुपाने की तमाम कोशिशें बंद होनी चाहिए। शासन और प्रशासन के पास हर राजनीतिक डकैत की जन्मपत्री है। इसलिए इन डकैतों का खुली हवा में सांस लेना वातावरण को और बिगाडेगा। इनकी देखा-देखी और ठग और लुटेरे पैदा होंगे और देश कभी भी खुशहाली का चेहरा नहीं देख पायेगा।

Thursday, October 3, 2013

साफ-सुथरे लोकतंत्र के हत्यारे

सुप्रीम कोर्ट ने 'राइट टू रिजेक्ट' को मतदाताओं का अधिकार बताते हुए वोटिं‍ग मशीन में इसे एक विकल्प के रूप में शामिल करने को कहा है...। वाकई यह एक ऐतिहासिक फैसला है। जिस काम को अंजाम देने के लिए देश की संसद टालमटोल करती चली आ रही थी, उसे आखिरकार न्यायालय ने कर दिखाया। दरअसल कोर्ट का हुक्मरानों के मुंह पर यह जबर्दस्त तमाचा है। देश के सजग मतदाताओं को इसका वर्षों से इंतजार था। बेचारे वोट देने तो जाते थे, लेकिन जब किसी भी उम्मीदवार को अपने पैमाने पर खरा नहीं पाते थे, तो मायूस हो जाते थे। गुस्सा भी आता था। यह कैसा लोकतंत्र है, जहां खुद राजनीतिक पार्टियां ही दागी और अपराधी चेहरों को जानते-समझते हुए भी चुनावी टिकट दे देती हैं। मजबूरन दागदार प्रत्याशी को मतदान करना पडता है। उनके न चाहते हुए भी गुंडे, बदमाश, चोर-उच्चके और हद दर्जे के भ्रष्टाचारी विधायक और सांसद बन जाते हैं। कई मतदाता तो ऐसे भी होते हैं जो दबंगो और लुटेरो को वोट देने के बजाय घर-परिवार और यार-दोस्तो के साथ छुट्टी मनाते हैं। वे शहर के किसी गुंडे और हत्यारे को मंत्री, मुख्यमंत्री बनाकर लोकतंत्र की आत्मा को लहुलूहान करने के भागीदार होने से बचना चाहते हैं। यही वजह है कि दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश हिन्दुस्तान में औसतन पचास से पचपन प्रतिशत तक की वोटिं‍ग होती आयी है। इस आधी-अधूरी वोटिं‍ग के चलते ही खोटे सिक्कों की चांदी हो जाती है।
यदि सब कुछ दुरुस्त रहा और राजनीतिक पार्टियों ने कोई चाल नहीं चली तो यह तय है कि मतदाताओ को कई राज्यों में शीघ्र होने जा रहे विधानसभा चुनावों और आगामी लोकसभा चुनाव के दौरान ऐसी इलेक्ट्रानिक मशीनों से मतदान करने का अवसर मिलेगा, जिनमें 'इनमें से कोई नहीं' का बटन भी जुडा होगा। मतदाताओं के इस अभिव्यक्ति के अधिकार से इतना तो होगा ही कि जगजाहिर अराजकतत्वों का पत्ता साफ हो जायेगा। यह बहुत जरूरी है। हर सजग मतदाता को अपने क्षेत्र के प्रत्याशी की पूरी खोजखबर रहती है। मीडिया भी लोगों को जगाने के काम में लगा रहता है। ऐसा भी देखा गया है कि भ्रष्ट और बेइमान लोग कुछ समाचार पत्रों और न्यूज चैनलों को धन की चमक दिखाकर अपने पक्ष में करने में सफल हो जाते हैं। पेड न्यूज की बीमारी के चलते ऐसे लोग मतदाताओं की आंखों में धूल झोंकने में भी सफल हो जाते हैं। जब से मीडिया पर पूंजीपतियो ने कब्जा जमाया है, तभी से गुंडे बदमाशों की बन आयी है। बेलगाम हो चुके पूंजीपति-मीडिया ने लोकतंत्र के चेहरे को मनमाने तरीके से बदरंग किया है। पूंजीपतियों के अपने स्वार्थ होते हैं। भ्रष्ट राजनेताओं से इनका अंदरूनी गठबंधन होता है। भ्रष्टों को चुनाव में विजयी बनाने के लिए यह लोग पत्रकारिता के उसूलों को नीलाम कर देते हैं। दरअसल, मीडिया की ताकत का दुरुपयोग करने में यह लोग कोई कमी नहीं छोडते। इनका मीडिया के क्षेत्र में आना ही मीडिया के पतन का कारण है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ को इन्होंने काली कमायी और सत्ता की दलाली का अड्डा बनाकर रख दिया हैं। भ्रष्टाचारियों की आरती गाना और शैतानों को साधु की तरह पेश करना इनका पेशा है। पत्रकारिता की मूल भावना से इनका कोई वास्ता नहीं है। पेड न्यूज के असली जनक यही पूंजीपति ही हैं। चुनावी मौसम में तीर की तरह छोडी जाने वाली खबरें अक्सर मतदाताओं को भ्रम में डाल देती हैं। आज जब मतदाताओं को अपने विकल्प को चुनने का अधिकार मिलने जा रहा है तो भ्रष्ट मीडिया के दिमाग का दुरुस्तीकरण भी बेहद जरूरी है। पर अफसोस की बात यह भी है कि कई अखबारीलाल राज्यसभा के सांसद बन कर सरकार को अपने इशारे पर नचा रहे हैं। पिछले दिनों मीडिया के दिग्गजों के द्वारा कोयले की खदाने हथियाये जाने की पुख्ता खबरों के बाद इस तथ्य का खुलासा हो गया है कि दर्डा और अग्रवाल जैसों की जमात के लोग पत्रकारिता की आड में कैसे गुल खिलाते चले आ रहे हैं।
पूंजीपतियों की तरह ही कुछ राजनेताओं ने भी मीडिया के क्षेत्र में अतिक्रमण कर उसे शर्मनाक सौदेबाजी का अड्डा बना कर रख दिया है। राजनेताओ के अखबार और न्यूज चैनल अपनी-अपनी पार्टी की पूरी बेशर्मी के साथ पैरवी करते हैं। खुद राजनीतिक पार्टियां भी ऐसे उम्मीदवारों को टिकट देने में दिलेरी दिखाती हैं, जिनके यहां बेहिसाब धन भरा पडा है। यह धन काला है या सफेद इससे उनका कोई लेना-देना नहीं है। धन और बाहुबल को चुनाव जीतने का एकमात्र जरिया मानने वाली राजनीतिक पार्टियों की निगाह में गरीबों और ईमानदारों की कोई कीमत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने मतदाताओं को ऐसी सभी संदिग्ध प्रत्याशियों को खारिज करने का अधिकार देकर साफ-सुथरे लोकतंत्र की उम्मीदें जगा दी हैं। इन दिनों जिस तरह से भ्रष्टाचारियों को जेल यात्राओं पर भेजा जा रहा है उससे देश के अच्छे भविष्य की उम्मीदें भी जगने लगी हैं। इसके लिए बधाई और अभिनंदन का पात्र है देश का सुप्रीम कोर्ट, जिसके कारण भ्रष्ट नेताओं के चेहरे का रंग उडता जा रहा है। इस सदी के भ्रष्टतम नेता, चारा घोटाले के नायक लालू प्रसाद यादव को दोषी पाये जाने पर तत्काल जेल भेज दिया गया। यह वही लालू प्रसाद है जो बिहार का सर्वशक्तिमान मुख्यमंत्री और देश का रेलमंत्री रह चुका है। यह लुटेरा देश का प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहा था। देशवासियों की किस्मत अच्छी है... कि इसका असली चेहरा सामने आ गया और महाधूर्त के पीएम बनने के मंसूबे धरे के धरे रह गये...। मेडिकल कॉलेज (एमबीबीएस) के प्रवेश घोटाले में दोषी सिद्ध हुए रशीद मसूद को चार साल की सजा सुनायी गयी और जेल में डाल दिया गया है। अब वो वक्त आ गया है जब सजग वोटर राजनीति के भ्रष्ट और अमर्यादित खिलाडि‍यों की मनमानियों और तिकडमबाजियों से मुक्ति पा सकते हैं। इसके लिए उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपने वोट देने के अधिकार का सजग होकर सदुपयोग करना है...।