Thursday, September 27, 2012

वफादारी का ईनाम

देशभर में काला धन के खिलाफ बिगुल बजाते फिरते बाबा रामदेव घटिया तेल, नमक, लीची शहद, जैम आदि बाजार में खपा कर लोगों की जिन्दगी से खिलवाड कर रहे हैं। वैसे इस तरह के घटिया काम घटिया किस्म के व्यापारी किया करते हैं। रामदेव बाबा तो योगी हैं। योगी के साथ ऐसा दुर्योग...! हैरान परेशान करने वाली बात तो है। देशवासियों को जागृत करने की कसरत करने वाले बाबा अपने बचाव में लाख दलीलें दें, पर उत्तराखंड खाद्य विभाग की रिपोर्ट ने दबी-छिपी सच्चाई सामने लाकर रख दी है। योगी के भीतर दुबक कर बैठे मुनाफाखोर के इस मलीन चेहरे को भी लोगों ने देख लिया है। उनके अंध भक्त इसे भी सरकारी साजिश बताने से बाज नहीं आएंगे। इस मुल्क में जितने भी बाबा हैं, उनका सारा का सारा साम्राज्य उनके अंध भक्तों की बदौलत ही टिका हुआ है। इन अंध भक्तों में कई तो ऐसे होते हैं जिनके ऊपर 'बाबा' के बहुतेरे उपकार होते हैं। 'बाबा' के गोरखधंधो को आगे बढाने में भक्तों का भी खासा योगदान होता है। राजनीति की तरह यहां भी 'चोर-चोर मौसेरे भाई' की कहावत चरितार्थ होती रहती है।
रामदेव, पतंजली योगपीठ और दिव्य फार्मेसी के कर्ताधर्ता हैं, जहां अरबो-खरबों का धंधा होता है। उनके आश्रम में शुरू-शुरू में 'योगासन' पर विशेष ध्यान दिया जाता था। माया के चक्कर ने अपनी ऐसी माया दिखायी कि आश्रम में नमक, काली मिर्च, लीची शहद, पाचन चूर्ण, काली मिर्च, तरह-तरह की यौन शक्तिवर्धक दवाओं के साथ-साथ और भी बहुत कुछ बनने लगा। कहीं और बने सामानों को भी बाबा की कंपनी का ठप्पा लगाकर धडल्ले से बेचा जाने लगा। योग ने बाबा की 'साख' जमा दी। चंदा भी जम कर बरसने लगा। बाबा जान-समझ गये कि जनता उनकी मुरीद हो चुकी है। वे जो भी माल खपाना चाहें खपा सकते हैं। अब जब पोल खुलने लगी है तो रामदेव कहते हैं कि उन्होंने सरकार के खिलाफ जंग छेड रखी है इसलिए उन पर बदले का डंडा चलाया जा रहा है। वे ये भी फरमाते हैं कि यह आम आदमी और अमीरों के बीच की जंग है। बाबा खुद को आम आदमी मानते हैं!
रामदेव भले ही खुद को आम आदमी प्रचारित कर आम आदमी की सहानुभूति बटोरने की कोशिशों में लगे हुए हैं पर असली आम आदमी इतना बेवकूफ नहीं है कि हकीकत से वाकिफ न हो। दिव्य फार्मेसी के बैनर तले देशभर में खुली बाबा की दूकानों पर जो भी माल बिकता है उसकी ऊंची कीमतें ही बता देती हैं कि रामदेव की असली मंशा क्या है। दरअसल वे भी नेताओं की तरह आम आदमी के झंडे को ऊंचा उठाकर अपना असली हित साधने में लगे हैं। उनके व्यवसायी मकसद और असीम महत्वाकांक्षाओं के बारे में जितना भी लिखा जाए, कम है। कुछ महीने पहले तक देश जो सपना देख रहा था उसकी धज्जियां उड चुकी हैं। भ्रष्टाचार के खिलाफ अगर रामदेव, अन्ना हजारे की तरह पारदर्शी होते तो जनहित की जंग की ऐसी दुर्गति न होती। जब तक अन्ना और उनकी विद्राही टीम अकेले 'लोकपाल' की मांग पर अडी थी, तब तक सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था। जैसे ही बाबा ने अन्ना के मंच पर पांव धरे, सारा मामला ही गडबडा गया। अन्ना टीम बिना कोई भेदभाव किये सभी भ्रष्टाचारियों पर निशाना साधना चाहती थी, वहीं बाबा कुछ को नजरअंदाज करने की भूमिका में थे। उन्हें सारी की सारी कमियां कांग्रेस में ही नजर आयीं। भारतीय जनता पार्टी के जगजाहिर भ्रष्टाचारियों को भी उन्होंने पाक-साफ होने के प्रमाण पत्र बांटने में कोई कमी नहीं की।
पिछले वर्ष अन्ना आंदोलन के साथ जो भीड खडी नजर आती थी, वह धीरे-धीरे नदारद होती चली गयी। अन्ना का इसमें कोई दोष नहीं था। दोषी थे तो सिर्फ और रामदेव जिन्होंने 'योग' के मार्ग को त्यागकर व्यापार की राह पकड ली थी। अन्ना सभी को एक ही तराजू में तोलने में यकीन रखते आये हैं। उनका ठिकाना एक मंदिर था तो योगी ने देश तो देश विदेशों में भी टापू खरीदने शुरू कर दिये थे। आश्रम में बनने वाले विभिन्न सामानो का धंधा भी जोर पकड चुका था। उनके धंधे पर भी उंगलियां उठने लगी थीं। अपने 'गुरू' को गायब करा देने के संगीन आरोप भी रामदेव पर लगे। शीशे के घर में रहने वाला चतुर-चालाक बाबा राजनीति के दस्तूर को समझ नहीं पाया! बाबा अगर सिर्फ योगी होते तो उन्हें कटघरे में खडा करने की कोई जुर्रत ही न कर पाता। अन्ना और रामदेव के इसी फर्क ने एक अच्छे-खासे आंदोलन को पानी पिला दिया है। अन्ना की कोई मजबूरी नहीं। रामदेव की अनेकों मजबूरियां हैं। अन्ना हजारे सीधे और सरल किस्म के समाजसेवक हैं। वे सच को सच और भ्रष्ट को भ्रष्ट कहने में कोई संकोच नहीं करते। बाबा बहुत नापतोल कर चलते हैं। उनके धंधे ही कुछ ऐसे हैं, जिनके कारण उन्हें अपने बचाव और पक्ष में खडे होने और बोलने वाले राजनेताओं की जरूरत पडती रहती है। उनका यह काम भाजपा वाले पूरी ईमानदारी के साथ करते चले आ रहे हैं। अब तो किरण बेदी भी भाजपा के साथ खडी हो चुकी हैं। किरण बेदी का रंग बदलना लोगों को हैरान कर गया है। भाजपा को तो ऐसे 'गिरगिटी' चेहरों की तलाश रहती है। तभी तो उसने अभी से दिल्ली की गद्दी पर किरण को बैठाने के सपने भी देखने शुरू कर दिये हैं। अगर ये सपना पूरा नहीं हुआ तो राज्यसभा की सांसद तो बन ही जाएंगी किरण बेदी। हर किसी को 'वफादारी' का ईनाम मिलना ही चाहिए...।

Thursday, September 20, 2012

चाटूकारों के चक्रव्यूह में फंसा आम आदमी

हिं‍दुस्तान के गृहमंत्री सुशील कुमार शिं‍दे राजनीति में पदार्पण करने से पहले महाराष्ट्र पुलिस में पदस्थ थे। एक अदने से सब इंस्पेक्टर की 'प्रतिभा' को मराठा क्षत्रप शरद पवार ने जांचा-परखा और राजनीति में आने की सलाह दे डाली। खाकी वर्दीधारी ने खादी धारण करने में जरा भी देरी नहीं लगायी।
पुलिसिया चाल-ढाल में रचे-बसे सुशील कुमार शिं‍दे ने राजनीति के क्षेत्र में भी बडी आसानी से अपनी जडे जमानी शुरू कर दीं। उन्हें महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री भी बनाया गया। वर्तमान में वे देश के गृहमंत्री हैं। अपने शुरुआती दौर के आका से काफी आगे निकल चुके हैं। शरद पवार को यह बात यकीनन खलती होगी। जिसे रास्ता दिखाया उसी ने धक्का मारकर पीछे धकेल दिया। शिं‍दे गांधी परिवार के परम भक्त हैं। पवार तो सोनिया गांधी के विदेशी मुद्दे को लेकर कांग्रेस पार्टी तक को छोड अपनी खुद की पार्टी बना चुके हैं। आज वे राष्ट्रवादी कांग्रेस के सर्वेसर्वा हैं। राजनीति के विद्वानों का मानना है कि यदि शरद पवार ने कांग्रेस नहीं छोडी होती तो उन्हें इस कदर मायूसी का मुंह नहीं देखना पडता। ये उनकी अकड और भूल ही थी जिसने उन्हें प्रधानमंत्री की कुर्सी से बहुत दूर कर दिया। देखते ही देखते उनका चेला गृहमंत्री बन गया है। यानी आने वाले समय में उसके लिए प्रधानमंत्री बनने की अनंत संभावनाएं बाहें फैलाये खडी हैं। भूतपूर्व राष्ट्रपति स्वर्गीय ज्ञानी जैल सिं‍ह और सुशील कुमार शिं‍दे एक ही मिट्टी के राज योद्धा कहे जा सकते हैं जिन्होंने कसीदे पढने में महारत के दम पर बुलंदियां हासिल कीं। ज्ञानी जी बेहिचक कहा करते थे कि अगर श्रीमती इंदिरा गांधी उन्हें आदेश देंगी तो वे झाडू लगाने से भी नहीं कतरायेंगे। वे बेझिझक स्वीकारते थे कि उनकी इसी योग्यता ने उन्हें देश के राष्ट्रपति बनवाया है। सुशील कुमार शिं‍दे भी कांग्रेस तथा सोनिया गांधी के अहसानमंद हैं, जिन्होंने उन्हें वहां तक पहुंचाया है, जहां पहुंचने के लिए कई दिग्गज कांग्रेसी अपनी सारी उम्र खपा चुके हैं और थक-हार कर बैठ गये हैं। बेचारों की तमाम उम्मीदें तमाम हो गयी हैं। आज के राजनीतिक दौर में चरण वंदना और स्वामिभक्ति का पुरस्कार मिलता ही है। जिनकी खुद्दारी उन्हें बार-बार नतमस्तक नहीं होने देती वे चाटूकारों से बहुत पीछे रह जाते हैं। कई चाटूकार तो हद दर्जे के चालाक हैं। जिसे दूसरे लोग मक्खन बाजी कहते हैं उसे वे निष्ठा और वफादारी कहते हैं। उनकी इस निष्ठा को लेकर भले ही लोग उनकी खिल्ली उडाते रहें पर उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। इन निष्ठावानों के लिए जनता जनार्दन कोई मायने नहीं रखती। इन्हें पुरस्कृत करते चले जाने वाले 'आका' ही इनके एकमात्र भगवान हैं। जो इनके दिल और दिमाग में हरदम बसे रहते हैं। भगवान के समक्ष आम इंसानों का कोई मोल नहीं है तभी तो देश के गृहमंत्री ये कहते नहीं हिचकते: 'बोफोर्स मामले की तरह जल्द ही कोयला घोटाले को भी भुला दिया जायेगा। इस देश की आम जनता तो हद दर्जे की भुलक्कड है।' एक निहायत ही जिम्मेदार मंत्री के जब ऐसे विचार हों तो मन में कई तरह के विचारों का आना स्वाभाविक है। देश की जनता की स्मरणशक्ति को शुन्य मानने वाले विद्वान गृहमंत्री के कथन में ये संदेश छिपा दिखता है कि तमाम भ्रष्टाचारी बेखौफ होकर अपने गोरखधंधे चलाते रहें। सरकार भी आंख और कान बंद कर ले। सरकारी संपदा लुटती है तो लुटती रहे। लुटेरों का बाल भी बांका नहीं होना चाहिए। आम जनता तो एक कान से सुनती है और दूसरे से निकाल देती है। विरोधियों का तो काम ही है चीखना-चिल्लाना। जो लोग नेताओं को वोट देकर सत्ता तक पहुंचाते हैं वे तो अंधे-बहरे हैं। उनसे डर काहे का...!
ऐसा भी लगता है कि शिं‍दे ने खयाली पुलाव खाने और पचाने में महारत हासिल कर ली है। उन्हें सोनिया गांधी की मेहरबानियां तो याद हैं पर उस जनता को भूल गये हैं जिसने उन्हें वोट देकर इतने ऊंचे ओहदे तक पहुंचाया है। अगर आम आदमी ने उन्हें घास नहीं डाली होती तो वे आज भी 'खाकी' में लिपटे भ्रष्ट मंत्रियों-संत्रियों की सेवा और पहरेदारी में लगे नजर आते। शिं‍दे जी, जिनके वोट की बदौलत आज आप देश के गृहमंत्री बने हैं उनके साथ अहसान फरामोशी मत कीजिए! इस मुल्क का लोकतंत्र आपको कभी माफ नहीं करेगा। इस देश की जनता, जो आपको भुलक्कड और अनाडी नजर आ रही हैं, वही आप जैसों को ऐसा सबक सिखायेगी कि होश ठिकाने आ जाएंगे।
क्या आपकी याददाश्त का दिवाला पिट गया है जो आप कसीदे पढने के चक्कर में सच्चाई का गला घोंटने पर उतारु हैं? जब बोफोर्स स्कैंडल सामने आया था तब देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी की कैसी दुर्गति हुई थी और आम जनता ने कांग्रेस को किस तरह से दुत्कार कर सत्ता से बाहर कर दिया था, इसकी हकीकत आज भी देशवासियों के दिलो-दिमाग में ताजा है। बोफोर्स की वजह से ही कांग्रेस इस कदर धराशायी हुई कि वर्षों बीत जाने के बाद भी उठ नहीं पायी है। बैसाखियों के दम पर वह केंद्र की सत्ता का 'भोग' जरुर कर रही है पर इस भोग का 'रोग' उसके तन-बदन को खोखला करता चला आ रहा है। देश पर जबरन आपातकाल थोपने वाली श्रीमती इंदिरा गांधी को भी आम जनता की जागरूकता की वजह से सत्ता खोने की असहनीय पीडा से रूबरू होना पडा था। देश की आम जनता कोयला घोटाले को भला कैसे भूल सकती है? इसकी वजह से ही तो कई दिग्गज 'नकाबपोशों' का असली चेहरा सामने आया है। लोग तो उनका मुंह नोच लेना चाहते हैं और गृहमंत्री जी आप हैं कि...?

Thursday, September 13, 2012

असली राष्ट्रद्रोहियों को पहचानो

मंत्री और सांसद अपनी गरिमा खोने लगे हैं। उन्हें अब लोगों के सवाल रास नहीं आते और आग बबूला हो उठते हैं। आम जनता का गुस्सा भी उफान पर है। पता नहीं क्या कर बैठे। नये-नये घपले-घापे और तमाशे सामने आ रहे हैं। यह सिलसिला कहां पर जाकर थमेगा, कुछ कहा नहीं जा सकता। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी को एक कार्टून इतना आहत कर गया कि उन्होंने कार्टूनिस्ट को जेल में सडाने की ठान ली। ऐसा लगा कि इस देश में लोकतंत्र का जनाजा निकालने की तैयारी हो रही है। जिस शख्स ने ममता का कार्टून बनाया और जेल यात्रा की सजा भुगती, वह कोई अनपढ गंवार नहीं है। अंबिकेश महापात्र नाम है इनका। जादवपुर विश्वविद्यालय में केमेस्ट्री के प्रोफेसर हैं। कार्टून के जरिये वे दंभी ममता को 'राजधर्म' से अवगत कराना चाहते थे। परंतु ममता उखड गयीं, जैसे किसी ने भरे चौराहे पर तमाचा जड दिया हो। सत्ता के मद में चूर मुख्यमंत्री ने अपना आपा खो दिया। दरअसल ममता अपनी ही छवि को ध्वस्त करने पर तुली हैं। जब देखो तब अपनी पर आ जाती हैं। किसी भी नागरिक को मुख्यमंत्री, मंत्री से प्रश्न पूछने का पूरा अधिकार है। आमसभा के दौरान एक किसान ने अपने प्रदेश की मुख्यमंत्री पर सवाल दागा कि 'आप कब तक खोखले वादे करती रहेंगी? गरीब किसान मर रहे हैं और आपको उनकी कोई चिं‍ता नहीं है...! आप किसानों के उद्धार के लिए कुछ करना भी चाहती हैं या यूं ही भाषणबाजी करती रहेंगी?' किसान की पीडा को समझने की बजाय ममता भडक उठीं। उनका खून खौल उठा। एक अदने से किसान की उनसे सवाल पूछने की हिम्मत कैसे हो गयी! गुस्सायी मुख्यमंत्री ने मंच से ही दहाड लगायी कि हो न हो यह कोई माओवादी ही है जो उनकी सभा में बाधा पहुचाने के लिए आया है। मुख्यमंत्री के आरोप जडने की देरी थी कि पुलिस वालों ने उसे फौरन गिरफ्तार कर लिया। अगले दिन उसे रिहा भी कर दिया फिर पता नहीं क्या हुआ कि दो दिन बाद उसे फिर से गिरफ्तार कर लिया गया। इस बार उस पर मुख्यमंत्री पर हमले का प्रयास करने, आतंकवादी गतिविधियों में शामिल होने और शांति भंग करने के संगीन आरोप जड दिये गये। ऐसे 'खतरनाक' शख्स को सबक सिखाया जाना जरूरी था। अदालत ने जमानत नहीं दी और उसे उसके सही ठिकाने यानी जेल में डाल दिया गया। ममता को हर वो आदमी अपना दुश्मन लगता है जो उन्हें आईना दिखाने की चेष्टा करता है। सच से खौफ खाने वाली इस मुख्यमंत्री के प्रदेश में वही लोग सुरक्षित हैं जो उनकी आरती गाते हैं। हाल ही में प्रगतिशील लेखक नजरूल इस्लाम की लिखी एक किताब पर इसलिए प्रतिबंध लगा दिया गया, क्योंकि इसमें मुख्यमंत्री पर उंगलियां उठायी गयी हैं और ऐसे-ऐसे सवाल किये गये हैं जो उन्हें कतई पसंद नहीं हैं। लेखक नजरूल इस्लाम सार्थक लेखन के लिए जाने जाते हैं। उन्होंने वाम मोर्चा की सरकार के कार्यकाल में पुलिस के राजनीतिकरण पर भी एक सशक्त किताब लिखी थी जिसने तब के शासकों की नींद हराम करके रख दी थी। उन्होंने भी लेखक को कानूनी दांव-पेंच में उलझाया था पर अंतत: सच की जीत हुई थी। ममता चाहतीं तो इतिहास से सबक ले सकती थीं। पर वे भी वही सब कर रही हैं उनके पूर्ववर्ती शासकों ने किया था। लगता है कि अहंकार बुद्धि पर हावी हो चुका है। सच, सोच और सजगता की बलि चढाने की प्रतिस्पर्धा चल रही है।
कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी ने भ्रष्ट व्यवस्था पर निशाना साधते हुए कार्टून बनाया तो उन्हें देशद्रोही करार देते हुए १४ दिन की न्यायिक हिरासत में भेज दिया गया। देश की सजग जमात ने सरकारी तांडव का जमकर विरोध किया। सारा का सारा मीडिया भी असीम के पक्ष में खडा हो गया तो महाराष्ट्र के सरकारी तंत्र की जमीन खिसकने लगी। असीम त्रिवेदी एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के पोते हैं। उन्हें मालूम है कि हिं‍दुस्तान को आजाद कराने के लिए कितनी और कैसी-कैसी कुर्बानियां दी गयीं। जब उन्होंने देखा कि शहीदों के सपनों का भारत कहीं नजर नहीं आ रहा तो वे आहत हो उठे। व्यवस्था के खिलाफ अपना विरोध दर्शाने के लिए उन्होंने कार्टून विधा का सहारा लिया। सरकार और उसके तमाम पुर्जे चापलूसी पसंद करते हैं। आलोचना और विरोध तो कतई नहीं। सरकार ने जब देखा असीम सच की लडाई लडने वाला एक जिद्दी नौजवान है और देश के करोडों लोग भी उसके साथ खडे हो गये है तो उसने उसे रिहाई देने में ही अपनी भलाई समझी।
यह कितनी अजीब बात है कि कई राजनेता मीडिया का सामना करने का साहस तक खोते जा रहे हैं। कांग्रेस के सांसद नवीन जिं‍दल ने हजारों करोड के कोयला कांड में शामिल होकर अपनी छवि को तो कलंकित करने में किं‍चित भी देरी नहीं लगायी पर जब मीडिया से रूबरू होने की बारी आयी तो हाथ-पांव चलाने लगे! जिस देश में गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी और बदहाली के कारण करोडो लोगों का जीना हराम हो गया हो वहां अगर कुछ गिने चुने लोग सरकारी संपदा को लूटने में लगे हों और शाही जीवन बिता रहे हों तो वहां गुस्से के बारूद नहीं तो और क्या फूटेंगे? क्या ऐसे भ्रष्टाचारी ठगों और लुटेरों को नजर अंदाज कर दिया जाए? आज जनता देश के हुक्मरानों से पूछ रही है कि सच को उजागर करने वाले कार्टूनिस्ट, लेखक और किसान देशद्रोही हैं या अरबो-खरबों की सरकारी संपदा चट कर जाने वाले ये तथाकथित राजनेता जिनका कोई ईमान-धर्म नहीं है...।

Thursday, September 6, 2012

यारों, दोस्तों और रिश्तेदारों की अंधी लूट

देश को लूटने की होड मची है। कई राजनेता और उद्योगपति तो इस खेल के पुराने खिलाडी रहे हैं। अब तो मीडिया के दिग्गजों के नाम भी सुर्खियां पाने लगे हैं। ऐसा लगता है कि सभी लुटेरे बडी हडबडी में हैं। क्या पता कल मौका मिले या ना मिले। आज मिला है, तो जी भरकर लूट लो...। देश भक्त होने का ढोल पीटने की पोल खुल रही है। इनकी दगाबाजी को देखकर आम जनता इतने गुस्से में है कि अगर उसका बस चले तो वह इन्हें भरे चौराहे पर खडा कर दुरुस्त कर दे। बेचारी आम जनता बेबस है इसलिए देश मनमानी लूट का तांडव मचा है...।
देश के प्रधानमंत्री बडे गजब के इंसान हैं। उन्हें आम जनता की तकलीफें दिखायी नहीं देतीं। किसानों की आत्महत्याओ की खबरें उन्हें विचलित नहीं करतीं। महंगाई के दानव के दंश की मार से आहत आम जनता की फरियाद सुनने का उनके पास वक्त नहीं है। हर सवाल के जवाब में उनके पास सिर्फ 'खामोशी' है। तो फिर आखिर वे सुनते किसकी हैं और किनके समक्ष हथियार डालने में देरी नहीं लगाते? जवाब खुद-ब-खुद सामने आते चले जा रहे हैं। सवा सौ करोड से अधिक जनता के सीधे-सरल प्रधानमंत्री के कानों तक चंद मंत्रियों, सांसदों और उद्योगपतियों की आवाज फौरन पहुंच जाती है और उनकी हर मंशा भी पूरी कर दी जाती है! देश के पर्यटन मंत्री सुबोधकांत सहाय ने जब अपने भाई सुधीर सहाय की कंपनी के नाम की सिफारीश की तो उन्होंने फौरन थाली में परोस कर कोयले की खदानें सौंप दीं। भाई ने करोडों रुपये कमा लिये और मंत्री जी भी गदगद हो गये। उनके लिए मनमोहन सिं‍ह किसी फरिश्ते से कम नहीं। एक ही झटके में सात पीढि‍यों की 'ऐश' का इंतजाम हो गया। देश सेवा का इससे अच्छा 'मेवा' और क्या हो सकता है। ऐसे में कौन होगा जो 'राजनेता' नहीं बनना चाहेगा? इस मुखौटे की आड में सबकुछ करने की खुली छूट मिल जाती है। अमानत में खयानत करने का लायसेंस भी मिल जाता है। चोरी के पकडे जाने पर बचाव की कला भी आ जाती है।
कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विजय दर्डा को भी अरबों रुपयों की कोयला खद्दानों के लिए ज्यादा पापड नहीं बेलने पडे। विजय दर्डा सांसद होने के साथ-साथ मीडिया के दिग्गज भी कहलाते हैं। महाराष्ट्र में उनके 'लोकमत' की खासी धाक है। हिं‍दी और अंग्रेजी में भी दैनिक निकालते हैं। चैनल आईबीएन ७ भी उनकी मुट्ठी में है। यानी अच्छे-खासे बलशाली हैं ये कांग्रेसी सांसद। ऐसे में मनमोहन सिं‍ह की क्या मजाल कि उनकी मंशा पूरी न होने देते। उन्हें तो उन्हें, उनके दोस्त को भी कौडि‍यों के मोल कोयला ब्लॉक दे दिये गये। दर्डा यारों के यार हैं। मीडिया का फायदा लेना उन्हें खूब आता है। वे जानते हैं कि बुरे वक्त में दोस्त और भाई-बेटे ही काम आते हैं। इसलिए वे अपनों का खास ख्याल रखते हैं। उन्हें किसी भी तरीके से मालामाल करने की जुगाड में लगे रहते हैं। ताकि वक्त आने पर 'रिश्ते' काम आ सकें। वे हर राजनीतिक पार्टी के मुखिया के साथ करीबी बनाये रखने में भी माहिर हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष नितिन गडकरी भी उनके खासमखास हैं। ज्यादा दिन नहीं हुए जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की आरती गाते देखे गये थे। लगता है कांग्रेस ने तभी तय कर लिया था कि इन्हें तो मजा चखाना ही है। विजय दर्डा के छोटे भाई राजेंद्र दर्डा महाराष्ट्र सरकार में शिक्षा मंत्री हैं। बेटे की भी बडी-बडी कंपनियों में साझेदारी है। फाइव स्टार होटल और स्कूल-कालेज भी चलाते हैं यानी सर्वशक्तिवान हैं। यह भी कह सकते हैं कि दर्डा परिवार बलवानों और धनवानों का जमावडा है। आज के दौर में सिर्फ और सिर्फ ऐसे ही मायावानों का सिक्का चलता है। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय सचिव किरीट सौमेया के अनुसार दर्डा परिवार और जायसवाल समूह की अटूट कमाऊ भागीदारी है। इन्हें पानी के मोल नौ खद्दाने आवंटित की गयी हैं। जिसमें २५ हजार करोड का घोटाला हुआ है। नागपुर के जायसवाल बंधु केंद्रीय कोयला मंत्री श्री प्रकाश जायसवाल के भी रिश्तेदार हैं। है न कमाल की बात। यारी-दोस्ती और रिश्तेदारी के बलबूते पर देश की अरबों-खरबों की खनिज संपदा की लूट मची है। दूसरी तरफ कोयला मंत्री यह बयान देकर जनता के आक्रोश को शांत करना चाहते हैं कि मंत्रियों तथा सांसदो के रिश्तेदारो को भी धंधा करने का पूरा हक है। वे भी इस देश के नागरिक हैं। किसी मंत्री के भाई या उसके रिश्तेदार को कोल ब्लाक आवंटित करने को लेकर सवाल उठाना बेमानी है। यह कहां का इंसाफ है कि यदि कोई किसी सांसद और अखबार वाले का करीबी है, तो उसे कोयले की खद्दानें न दी जाएं? मंत्री जी जो चाहें कहते रहें। उन्हें भी अपनी बात कहने का पूरा हक है। हमारा भी यही कहना है कि सत्ताधीशों और नेताओं के करीबियों को सौ खून माफ हैं। वे सबकुछ करने को स्वतंत्र हैं। वे जहां चाहें लूट मचायें, देश को खा-चबा जाएं उन्हें कोई कुछ नहीं कहने वाला। यह देश 'ऊंचे लोगों' की बपौती बनकर रह गया है। इन्हीं ऊंचों की तिजोरियों में देश की अस्सी प्रतिशत दौलत सिमट कर रह गयी है। आम आदमी जहां का तहां है, क्योंकि उसकी किसी मंत्री, सांसद, उद्योगपति, अफसर, अखबारी लाल आदि-आदि से कोई दोस्ती या रिश्तेदारी नहीं है।