Thursday, April 30, 2015

आम के खास बनने का चक्कर

देश की राजधानी में एक किसान की मौत की गर्जना ने पूरे देश को हिलाकर रख दिया। क्या वाकई गजेंद्र की मौत हर किसी को शोकग्रस्त कर गयी? राजनीतिज्ञों और मीडिया के मठाधीशों ने हद से ज्यादा हो-हल्ला नहीं मचाया? इस देश में तो किसानों के शोषण और उनके फांसी पर लटकने के सच से सारी दुनिया वाकिफ है। उनके लिए तो इतनी सहानुभूति नहीं दर्शायी जाती। उनके परिवारों तक तो आधी-अधूरी सरकारी सहायता राशि पहुंचने में महीनों लग जाते हैं। राजस्थान के किसान गजेंद्र की मौत में ऐसा क्या था जो सारे देश में हाहाकार मच गया? हमदर्दी का सैलाब उमड पडा! भीड के समक्ष हुई मौत को एक ऐसी घटना बनाकर रख दिया गया, जैसे अभूतपूर्व हो। किसी ने हत्या तो किसी ने आत्महत्या करार दे मनमाना शोर मचाया। मुख्यमंत्री, उपमुख्यमंत्री, मंत्री, नेताओं और पत्रकारों की मौजूदगी में पूरे फिल्मी स्टाइल में हुई मौत यकीनन कई सवाल छोड गयी।
पहले मुडते हैं गजेंद्र के अतीत की तरफ। राजस्थान के दौसा के रहने वाला गजेंद्र को पगडी पहनाने में महारत हासिल थी। एक मिनट में बारह लोगों के सिर पर पगडी सजाने वाले इस महत्वाकांक्षी शख्स की राजनीति में पैठ जमाने की चाह थी। मंत्रियों, सांसदों, विधायकों और उद्योगपतियों के सिर पर अपने हाथ से साफा बांधते-बांधते  उसके मन में भी उनके जैसा बनने की इच्छा जोर मारने लगी। वह कभी इस दल तो कभी उस दल की टिकट पाने के लिए दिग्गज नेताओं के चक्कर काटने लगा। भारतीय जनता पार्टी की टिकट के लिए उसने काफी हाथ-पैर मारे। जब दाल नहीं गली तो समाजवादी पार्टी की टिकट पर विधानसभा चुनाव लडा और मुंह की खायी। फिर भी उसने हार नहीं मानी। यूं ही थकहार कर बैठ जानेवालों में नहीं था गजेंद्र। अखबारों में सुर्खियां पाने और न्यूज चैनलों पर अपनी शक्ल दिखाने की भी उसमें गजब की लालसा थी। आम आदमी पार्टी से उसके जुडने की यही वजह थी। उसे पता था कि इस पार्टी के हर नेता की हर हरकत न्यूज चैनलों में जगह पाती है। उसे जैसे ही खबर मिली कि पार्टी दिल्ली के जंतर-मंतर पर किसानों की समस्याओं को उठाने के लिए आंदोलन करने जा रही है तो वह अपने गांव का लंबा फासला तय कर वहां पहुच गया। जंतर-मंतर में जुटी भारी भीड जैसे गजेंद्र की ही राह देख रही थी। गजेंद्र आज मीडिया में छाने की ठान कर आया था। आप के नेताओं को रोज-रोज टीवी पर देखकर उसके मन में जो सपना कुलबुलाता था, उसे साकार करने का यह सटीक अवसर था। उसने अपने भाई-बहनों, यार-दोस्तों और रिश्तेदारों को सूचित कर दिया कि वे टेलीविजन के सामने बैठ जाएं। वह सभी न्यूज चैनलों पर छा जाने वाला है। आम आदमी पार्टी की रैली का वही असली हीरो होगा। धोती, कमीज और रंगीन राजस्थानी पगडी में चमकता चेहरा और हाथ में आम आदमी पार्टी का चुनाव चिन्ह झाडू। यकीनन हजारों की भीड में वह अलग दिखायी दे रहा था। मीडिया, आम आदमी पार्टी के नेताओं और भीड का ध्यान अपनी ओर खींचने के लिए उसके मन में एक धांसू विचार आया। वह फौरन मंच के ठीक सामने वाले पेड पर चढ गया। उसने पेड की शाखाओं के बीच अपनी भारी देह को जमाने के बाद भीड की तरफ नजरें दौडायीं। भीड भी उसकी उछल-कूद को देख तालियां पीटने लगी। उधर मंच पर नेता देश में हो रही किसानों की आत्महत्याओं के लिए मोदी सरकार को कोस रहे थे। इधर पेड पर टंगे किसान पर तमाशबीनों की निगाहें और मीडिया के कैमरे टिक चुके थे। किसान के लिए यही सुनहरा मौका था। उसने गमछे को अपनी गर्दन में फंदे की तरह कसा और आत्महत्या करने का अभिनय करने लगा। उसने एक चिट्टी भी नीचे फेंकी जिसमें उसने लोगों से घर जाने की सलाह मांगी थी। इस चिट्टी ने यह भी स्पष्ट कर दिया कि उसके पिता उससे नाखुश थे। इसलिए वह घर से भागा-भागा फिर रहा था।  सभी न्यूज चैनलों ने गजेंद्र को लाइव दिखाना शुरू कर दिया। उसके हाथ की झाडू, पगडी और रौबदार मूंछें दर्शकों को लुभाती रहीं। गजेंद्र के गले में बंधा गमछा उसकी मौत बन गया। राजधानी के जंतर-मंजर पर हुई इस मौत ने हजारों किसानों की आत्महत्याओं की खबरों को मात दे दी। जहां देखो वहां गजेंद्र की चर्चा ने जोर पकड लिया। पचासों मीडिया वाले गजेंद्र की पल-पल की तस्वीर देश और दुनिया को दिखाते रहे। उसकी मौत ने उनके चैनलों की टीआरपी को आसमान तक पहुंचा दिया। इतने सारे लोगों के सामने एक मौत हो गयी, किसी को कोई फर्क नहीं पडा। उनके लिए यह महज एक तमाशा था। आरोप-प्रत्यारोप और सहानुभूति का अद्भुत और अभूतपूर्व सैलाब उमडने में जरा भी देरी नहीं लगी। लगभग हर किसी का यही निष्कर्ष था कि फसल के बरबाद हो जाने के कारण गजेंद्र ने आत्महत्या की है। यह ऐसी आत्महत्या है जो सरकार के मुंह पर तमाचा है।
अब दिल्ली पुलिस ने जिलाधिकारी को अपनी जो रिपोर्ट सौंपी है उसमें स्पष्ट किया गया है कि गजेंद्र की मौत एक हादसा थी। फोरेंसिक जानकारों ने माना है कि उसकी मौत दम घुटने से हुई। हालात और तस्वीरें बताती हैं कि उसने अपना संतुलन खो दिया। उसने संभवत: सिर्फ दिखाने के मकसद से अपने गले में गमछा बांध रखा था, तभी उसका पैर डाल से फिसल गया और गले में फांसी लगने से उसकी दुखद मौत हो गयी। रिपोर्ट यह भी कहती है कि रैली में आए लोगों ने गजेंद्र को उकसाया-भडकाया जिसके चलते उसका नाटकीय हौसला बढता चला गया। गजेंद्र को उकसाने और उचकाने में जहां तमाशबीन भीड का योगदान था वहीं मीडिया ने भी कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। भीड तो भीड होती है, उसका कोई ईमान-धर्म नहीं होता। उसे जैसे नचाओ, वैसे नाचती है। यहां पर तो असली दोषी मीडिया है जो जनहित के दावों के साथ बडी-बडी बातें करता है। कई बार तो खुद जज बन जाता है। अगर यह न्यूज चैनल वाले किसान गजेंद्र को भाव नहीं देते, अपने सभी कैमरे उस पर नहीं तानते तो वह झुंझलाते हुए झक मारकर पेड से उतर जाता और भीड में किसी कोने में जाकर खडा हो जाता। आखिर वो था तो एक आम आदमी। खास बनने के जुनून में बेमौत मर गया।

Thursday, April 23, 2015

अंधेरे और उजाले के बीच

कैसे-कैसे रंग। कैसे-कैसे लोग। हकीकत का पता ही नहीं चलता। आधा-अधूरा सच ही सामने आता है। कहीं महिलाएं शराब की दुकानें चला रही हैं तो कहीं शराब बंदी के लिए अपना खून-पसीना बहा रही हैं। यह भारत देश है। पुणे, मुंबई, गोआ, गुडगांव, दिल्ली, बेंगलुरु आदि  महानगरों के बीयर बारों में नारियों को मयखोरी करते देख अब अचंभा नहीं होता। महिलाओं के पीने-पिलाने का चलन आम हो गया है। पुणे ने तो इस मामले में बाजी मार ली है। शनिवार और रविवार को पुणे के बीयर बार खचाखच भरे रहते हैं। नौजवान लडके-लडकियां जाम से जाम टकराते जश्न मनाते हैं। इनमें से अधिकांश नौकरीपेशा हैं, जिन्हें मोटी तनख्वाहें मिलती हैं। यह देश के विभिन्न शहरों और गांवों से आये हैं। इनमें आधुनिक रंगीनियों में डूबकर जीवन जीने का अंधा जुनून है। 'जिन्दगी सिर्फ एक बार ही मिलती हैं' ...इस सोच के साथ सतत उत्सव मनाने वालों में पुणे के युवक-युवतियां यकीनन अव्वल हैं। यही वजह है कि यहां के चमचमाते मॉल और सजे-धजे बीयर बार हमेशा गुलजार रहते हैं।
महाराष्ट्र में नयी सरकार के आते ही चंद्रपुर जिले की शराब दुकानों और बीयर बारों पर ताले लग गये। इतना बडा काम हुआ सिर्फ और सिर्फ महिलाओं की बदौलत। पति के शराबी हो जाने का असली कष्ट तो पत्नी को ही भोगना पडता है। जिन मांओं के बेटे शराब के नशे में धुत रहते हैं वे तो जीते जी मर जाती हैं। शर्म से सिर झुक जाता है। दरअसल घर के किसी भी सदस्य के शराबी होने से घर-परिवार में जो तंगी और बरबादी का सैलाब आता है वह तमाम खुशियों को बहा ले जाता है। इस पीडा और दर्द को महिलाओं से ज्यादा और कौन समझ सकता है। घर-परिवार युद्ध के अखाडे बन जाते हैं। कितने पियक्कड पति पीने के बाद शैतान बन जाते हैं। नशे में पत्नी और बच्चों को मारना-पीटना-धमकाना उनकी आदत में शुमार हो जाता है। बर्दाश्त करने की भी सीमा होती है। अपने शराबी पतियों, भाइयों और रिश्तेदारों की शराबखोरी से त्रस्त नारियों को शराब बंदी के लिए सडकों पर उतरना पडा। उनकी जंग रंग लायी। चंद्रपुर जिले में शराब बंदी लागू हो गयी। चंद्रपुर की सफलता ने महिलाओं के उत्साह को बढाया। यही वजह है कि बीते सप्ताह यवतमाल में शराब बंदी के लिए महिलाओं ने जोरदार मोर्चा निकाला। लगभग २५ हजार महिलाओं के सडक पर उतरने से जिला प्रशासन भी हैरत में पड गया।  खुफिया विभाग भी स्तब्ध रह गया। उसने इतनी बडी संख्या में महिलाओं के जुटने की कल्पना ही नहीं की थी। महिलाएं ठान चुकी हैं कि जब तक मुख्यमंत्री यवतमाल जिले में शराब बंदी करने का लिखित आश्वासन नहीं देते तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा। यह महिलाएं पूरे देश में शराब की दुकानों पर ताले लगते देखना चाहती हैं। वे नहीं चाहतीं कि इसकी वजह से नौजवान अपराध के रास्ते पर चलते हुए अपना भविष्य अंधकारमय कर लें। यही तो है वो नारी शक्ति जो देश की तस्वीर और तकदीर बदल सकती है। लेकिन...?
शराबी तो नशे के गुलाम होते हैं, लेकिन सरकारें क्यों अंधी बनी रहती हैं? उत्तराखंड देश का ऐसा प्रदेश है जहां कभी शराब के खिलाफ आवाज बुलंद करने वाली महिलाएं सडकों पर खडी नजर आती थीं। लेकिन अब तस्वीर बदल रही है। खुद महिलाएं ही शराब के कारोबार में उतर चुकी हैं। है न जबरदस्त अचंभे की बात। यही भी एक रंग है अपने देश का। यहां कुछ भी हो सकता है। कुछ भी किया और करवाया जा सकता है। उत्तरांचल में शराब की दुकानों का लाइसेंस पाने के लिए महिलाएं पुरुषों को मात दे रही हैं। यह भी सच है कि शराब की दुकानों के लिए आवेदन करने वाली अधिकांश महिलाएं उन परिवारों से जुडी हैं जो वर्षों से इस कारोबार में हैं। सरकार अपनी तिजोरियों को भरने के लिए कुछ भी करने को बेताब है। वह यह भी भूल गयी है कि उत्तराखंड तो 'देवभूमि' कहलाता है। यहां पर स्थित हैं चारों धाम, हरिद्वार, ऋषिकेश जैसे और भी कई धार्मिक स्थल जो करोडों देशवासियों के आस्था स्थल हैं।
सरकार को लोगों के स्वास्थ्य की चिंता नहीं है। शराब से मिलने वाला राजस्व जो कभी २०० करोड था, अब १६०० करोड के करीब जा पहुंचा है फिर भी सरकार की भूख कम नहीं हुई हैं। यकीनन महिलाओं का शराब के धंधे में कूदना अच्छे संकेत तो नहीं देता। गौरतलब है कि ५२८ दुकानों के लिए ६४,५२८ आवेदन प्राप्त हुए उनमें से १६,११६ आवेदन तो महिलाओं के ही थे। आखिर कौन सी ऐसी वजह है जिसने महिलाओं को शराब के कारोबार में उतरने को विवश कर दिया? इसका जवाब है सरकार की नयी और अजूबी नीति और अंधे बने रहने की नौटंकी। उसे राजस्व की चिन्ता है। लोगों के स्वास्थ्य और समाज के बिखराव और बिगडाव की कोई फिक्र ही नहीं।
यहां शराब दुकानों के मिलने वाले आवेदन पत्रों का चुनाव लाटरी से होता है। लाटरी में जिसका नाम निकलता है उसी को शराब दुकान का लायसेंस थमा दिया जाता है। शराब का कारोबार करने के इच्छुक लोग अलग-अलग नाम से ज्यादा से ज्यादा नाम डालकर शराब दुकानें हथियाने के लिए अपना तथा अपने रिश्तेदारों और घर की महिलाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं। इससे उनकी मुराद पूरी होने ज्यादा अडचनें नहीं आतीं। पति नहीं तो पत्नी के नाम की लाटरी तो निकल ही जाती है। यह भी देखा जा रहा है कि कुछ महिलाओ को शराब का कारोबार रास आने लगा है। इससे होने वाली अंधी कमायी ने उनके सपनों को पर लगा दिये हैं। वे हवा में उड रही हैं। उनकी ऊपर वाले से यही दुआ रहती है कि उनके नाम की पर्ची निकले और वे ऐसा कुछ कर दिखाएं जो अभी तक पुरुष भी नहीं कर पाए।

Thursday, April 16, 2015

दिल्ली से नागपुर तक

शहर अब डराने लगे हैं। महानगरों की सडकों को रक्तिम होने में देरी नहीं लगती। यह कैसा बदलाव है जहां कानून का खौफ नहीं! कानून के रखवालों को भी संगीन से संगीन जुर्म करने में कोई परहेज नहीं! खाकी और अपराधी में कोई खास फर्क ही नजर नहीं आता। पहले बात दिल्ली की। देश की राजधानी की। यहां तो लोग बात-बात पर आपा खोने लगे हैं। धैर्य के पुल टूटते चले जा रहे हैं। भाई-चारे का गला घोंटा जा रहा है। लोग रफ्तार की गिरफ्त में हैं। इधर-उधर देखते ही नहीं। बस खुद में समाये आगे निकल जाते हैं। उन्हीं के आंखों के सामने जानलेवा मारपीट और हत्याएं हो जाती हैं। उन्हें कोई फर्क नहीं पडता। चेहरे पर कोई शिकन नहीं आती। ऐसे में शक होता है कि क्या यह वही दिलवालों की दिल्ली है जिनकी सहृदयता, भावुकता और संवेदना की गाथाएं गूंजा करती थीं। नई दिल्ली के वेलकम इलाके में शुक्रवार की रात ४२ वर्षीय मंसूब की लाठी-डंडों से पिटायी कर हत्या कर दी गयी। मंसूब अपने घर के पास स्थित मस्जिद में नमाज अदा करने के बाद लौट रहा था। तभी रास्ते में उसकी कुछ लोगों से कहा-सुनी हो गयी। उन लोगों ने उसे बुरी तरह से पीटना शुरू कर दिया। पत्नी और बेटी उन्हें बचाने के लिए वहां पहुंचीं तो उनकी फरियाद को अनसुना कर पीट-पीट कर अधमरा कर दिया गया।
ऐसी ही एक हत्या दिल्ली के दरियागंज में की गयी। एक युवक की बाइक एक चमचमाती कार से ज़रा सी टकरा गयी। कारवालों का खून खौल उठा। उन्हें कार में लगी हलकी सी खरोंच बर्दाश्त नहीं हुई। कार से उतरकर उन्होंने युवक को सबक सिखाने की सोची। इस चक्कर में वे इंसान से हैवान बन गये। शैतानों ने उसके मासूम बच्चों के सामने ही उसकी जान ले ली। बच्चे गिडगिडाते रहे अपने पिता को बख्श देने के लिए, लेकिन उनका गुस्सा तो सातवें आसमान पर पहुंच चुका था। यह अंधी आग तब ठंडी हुई जब एक जीता-जागता इंसान इस दुनिया से चल बसा। जहां इस निर्मम हत्या को अंजाम दिया गया वह स्थान पुलिस चौकी के निकट ही था। बच्चों ने पुलिस वालों से हाथ-पैर जोडे, लेकिन वे बुत बने रहे उन्हें यह ख्याल ही नहीं आया कि जनता की सुरक्षा करना उनकी पहली जिम्मेदारी है। अपराधियों को पकडना और उन्हें सजा दिलवाना उनका धर्म है। लोगों की सुरक्षा करना भी उन्हीं का दायित्व है। यह लिखने में संकोच नहीं कि देश के अधिकांश पुलिसिये अपने कर्तव्य को निभाने में लगभग जीरो हैं। कुछ हैं जो लगभग अपना फर्ज दिलेरी से निभाते हैं। लेकिन उनकी राह आसान नहीं होती। भ्रष्ट, ईमानदारों को जीने नहीं देते। उनका पता काटने की साजिशो में लगते रहते हैं। जहां शातिर सक्रिय रहते हों और अच्छे लोग तटस्थ बने रहते हों वहां कानून के परखचे उडने से कौन रोक सकता है? जैसा कि अक्सर होता आया है कि आम लोग उन लोगों से प्रेरणा लेते हैं जिनका समाज में सिक्का चलता है। ब‹डों से छोटे प्रेरित होते ही हैं। ठीक उसी तरह से बडे-बडे महानगरों से नगर कस्बे और गांव प्रभावित होते हैं। उनकी लीक पर चलने में उन्हें ज्यादा वक्त नहीं लगता। देश की राजधानी के एक थाने में दो युवतियों के कपडे उतार कर डंडों से पिटायी की गयी। पुलिस वाले जबरन अपराध कबूलने का दबाव बनाते-बनाते इतने हिंसक हो गये कि हर मर्यादा भूल गये। वैसे भी डंडे की दशहत दिखाकर निरपराधी को अपराधी बना कर पेश करना भारतीय पुलिस की पुरानी परिपाटी है। पुलिस की इसी कलाकारी के कारण न जाने कितने निर्दोषों को जेल में वर्षों तक सडना पडता है। असली गुनाहगार आजाद घूमते रहते हैं। खूंखार अपराधियों के लिए बिकाऊ पुलिस वाले अपना ईमान-धर्म तक बेच देते हैं। इसके एक नहीं अनेक उदाहरण हैं। देश की सबसे बडी तिहाड जेल में एक से बढकर एक खूंखार हत्यारे, बलात्कारी, बदमाश और ड्रग माफिया कैद हैं। दिल्ली की इस जेल को तो पूरी तरह से चाक-चौबंद होना चाहिए, परिंदा भी पर नहीं मार सके। लेकिन ऐसा नहीं है। पिछले तीन महीनों में इसी जेल में चालीस से अधिक मोबाइल फोन बाहर से कैदियों तक आसानी से पहुंचा दिये गए। वैसे तो कैदियों तक और भी बहुत कुछ पहुंचता रहता है, लेकिन जेल में मोबाइल फोन की बरामदगी यही दर्शाती है कि जेल प्रशासन किस तरह से काम करता है और किसके प्रति वफादारी निभाता है। तिहाड जेल में बाहर से मोबाइल फेंके जाते है और दबंग और मालदार कैदियों तक धडल्ले से पहुंच जाते हैं! यह कारनामा जेलकर्मियों की मिलीभगत के बिना संभव नहीं। कैदियों को शराब, बी‹डी, सिगरेट और विभिन्न सामानों का बिकाऊ, जेल कर्मियों की बदौलत आसानी से मिल जाना बडी पुरानी बात हो चुकी है। जेल के अधिकारी जब मेहरबान हों तो जेल को होटल बनते देरी नहीं लगती। इसका नजारा नागपुर जेल में भी देखा गया। यहां की जेल से पांच कैदी बडी आसानी से फरार हो गये। उसके बाद जांच की नौटंकी हुई। पचासों मोबाइल फोन बरामद किये गए। यह भी खुलासा हुआ कि जेल में खूंखार कैदियों का ही राज चलता है। वे जो चाहते हैं, कर गुजरते हैं। जिन पांच कैदियों ने जेल की सलाखें काटने और कई फुट ऊंची दीवार को फांदने का कीर्तिमान रचा उन्हीं के जेल में बंद आका की कितनी धाक है उसका इससे पता चल जाता है कि उसने जेल में बैठकर भी लाखों की हफ्तावसूली बडी आसानी से कर ली। जब भुक्तभोगियों ने थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी तो लोगों को पता चला कि नागपुर तो दिल्ली से भी आगे दौड रहा है। यहां भी वही सबकुछ बेखौफ होता है जिसके लिए दिल्ली बदनाम है।

Thursday, April 9, 2015

इतने अंधे तो मत बनिए

डॉक्टर कहते हैं कि तंबाकू से कैंसर होता है। सिगरेट और बीडी पीना मौत को आमंत्रण देना है। गुटखा, सिगरेट और बीडी के कारण भारत में हर साल दस लाख से ज्यादा मौतें होती हैं। भारतीय जनता पार्टी के एक विद्वान सांसद को इन तथ्यों में कोई दम नजर नहीं आता। उनका दावा है कि तंबाकू और धूम्रपान का कैंसर से कोई लेना-देना नहीं। इसलिए जी-भरकर तंबाकू चबाओ और बीडी-सिगरेट फूंको। किसी का कुछ नहीं बिगडने वाला। उन्होंने तो अपने दावे के दमदार होने के सबूत भी पेश कर डाले। छाती तानकर दो वरिष्ठ वकीलों के उदाहरण पेश किए। पहला वकील हर रोज धडल्ले से ६० सिगरेटें फूंकता था। शराब का भी वह खासा शौकीन था। दिन भर में एक बोतल चढाने के बाद भी उसे कोई फर्क नहीं पडता था। अपनी इसी दिनचर्या के साथ वह ८६ साल तक मस्तमौला की तरह जीया। हजारों रुपयें धुएं में उडाए और लाखों की मय डकारी। फिर भी उसे कभी भी किसी बीमारी ने नहीं घेरा। कैंसर तो बहुत दूर की बात है। दूसरा भी वकील है जो चेन स्मोकर है। कम से कम ४० सिगरेटें पीने के साथ ही शराब भी उसकी रोज की आदत में शुमार है। इसे भी कैंसर नहीं डंस पाया। ७५ साल की उम्र में भी बंदा भला चंगा है। टुन्न रहकर भी वर्षों से वकालत के पेशे को अंजाम देता चला आ रहा है। नशे की पुरजोर वकालत करने वाले भाजपा के इस सांसद की तरह और भी भाजपा कुछ धुरंधर हैं जो यह मानते है कि तंबाकू तो औषधीय गुणों की खान है। इसके सतत सेवन से पाचन क्रिया दुरुस्त रहती है और बीमारियां दूर भागती हैं। वे तो ऐसे हजारों लोगों को जानने का दावा करते हैं जो वर्षों से धूम्रपान करते चले आ रहे हैं, लेकिन पूरी तरह से स्वस्थ हैं। दूसरी तरफ कैंसर और हृदयरोग जैसी गंभीर बीमारियों के जानकार डॉक्टरों का यही अंतिम निष्कर्ष है कि तंबाकू अंतत: मौत ही देता है। तंबाकू का सेवन सेहत के लिए नहीं सामाजिक दृष्टि से भी हानिकारक है। तंबाकू की लत के शिकार लोग समाज से कटने लगते हैं। उनकी कार्यक्षमता भी घटती चली जाती है।
देश के दिग्गज नेता शरद पवार तंबाकू के कहर के भुक्तभोगी हैं। अपनी युवावस्था में ही तंबाकू वाला गुटखा खाने-चबाने की आदत पाल लेने वाले मराठा क्षत्रप के लिए चाहकर भी इस नशे से मुक्ति पाना दूभर हो गया था। उनके दिन की शुरुआत ही गुटखे से होती थीं। कोई भी क्षण ऐसा नहीं होता था जब गुटखा उनके मुंह में नहीं होता था। एक समय ऐसा आया जब मुंह के कैंसर ने उन्हें बुरी तरह से जकड लिया। मुंह खोलने में बेहद तकलीफ होने लगी। जान पर बन आयी। कैंसर के इलाज के लिए विदेशी अस्पतालों की शरण लेनी पडी। कोई गरीब आदमी होता तो शायद ही बच पाता। इलाज पर करोडों रुपये खर्च करने के बाद ही उनकी जान बच पायी। धनवान पवार की किस्मत अच्छी थी। उचित समय पर इलाज करवाया तो बच गये। मुख के कैंसर के मरीजों का बच पाना बहुत मुश्किल होता है। देश में तंबाकू विरोधी अभियान का चेहरा रहीं सुनीता तोमर इसका उदाहरण हैं। कई महीनों तक टीवी पर छायी रहने वाली सुनीता की मुंह के कैंसर के चलते एक अप्रैल को मौत हो गयी। तंबाकू की मार के निशान आज भी पवार के चेहरे पर नजर आते हैं। ऑपरेशन के दौरान मुंह के दांत निकाले जाने के कारण उनका चेहरा आडा-टेढा हो गया। फिर भी जान बची सो लाखों पाये। महाराष्ट्र के पूर्व गृहमंत्री आर.आर. पाटील भी तंबाकू के आदी थे। गुटखा चौबीस घंटे उनके मुंह में दबा रहता था। उन्होंने भी जीवनपर्यंत तंबाकू चबायी और उसके विषैले रस से अपनी जिन्दगी बेरस कर डाली। 'आबा' के नाम से ख्यातिप्राप्त पाटील अच्छे खासे राजनेता थे! हट्टे-कट्टे, चुस्त दुरुस्त। शरद पवार की राष्ट्रवादी कांग्रेस के चंद ईमानदारों में उनका शुमार था। महाराष्ट्र में डांसबारों पर हमेशा-हमेशा के लिए ताले जडवाने की दमदारी उन्हीं ने दिखायी थी। उन्हीं की पार्टी के कई नेता डांसबारों में चलने वाले अश्लील तमाशों के पक्षधर थे। भाजपा, शिवसेना और कांग्रेस के कितने नेता शराब के धंधे से जुडे हुए हैं। उन्हीं में से कुछ की उन डांसबारों में भी हिस्सेदारी थी जहां खुलेआम देह व्यवसाय होता था। सबने पाटील पर दबाव बनाया कि वे डांसबार बंद करवाने की जिद छोड दें। लेकिन वे नहीं माने। यकीनन पाटील उसूलों के पक्के इंसान थे। लेकिन तंबाकू ने उन्हें मात दे दी। शुभचिन्तक उन्हें इस जहर से दूर रहने की सलाह देते-देते थक गये, लेकिन लत नहीं छूटी। कैंसर के शिकार होने के बाद महीनों अस्पताल में रहे। वे पवार की तरह खुशकिस्मत नहीं थे। अंतत: चल बसे। ऐसे ही लाखों लोग हैं जिन्हें तंबाकू लील गयी। उनके अते-पते ही गायब हो गए।
यह कितनी शर्म की बात है कि जानलेवा तंबाकू से होने वाली मौतों पर चिंता जताने की बजाय राजनीति की जा रही है। तंबाकू के पक्ष में कई ताकतें खडी हो गयी हैं। बीडी, सिगरेट और तंबाकू की वकालत करने वालों में अधिकांश वही लोग हैं जिनके इनके साथ कहीं न कहीं स्वार्थ जुडे हैं। तंबाकू की तरफदारी में जमीन आसमान एक करने वाले भाजपा सांसद तो बीडी के बहुत बडे कारोबारी हैं। देशभर में उनके कारखानों की बीडियों की अच्छी-खासी खपत होती है। करोडों की कमायी है। अपने देश में हर बात पर राजनीति करने का चालन आम हो गया है। तंबाकू ही नहीं, शराब व जुए-सटे के पक्ष में भी रातों-रात लोग झंडे लेकर खडे हो जाते हैं। दरअसल इनमें अधिकांश वे लोग हैं जिनके एक तरफ स्कूल, कालेज, अस्पताल चलते हैं तो दूसरी तरफ शराब, बीडी, सिगरेट आदि नशीले पदार्थों के कारखाने। इन्हें कहीं से भी कमायी चाहिए। इनके लालच की कोई सीमा नहीं। इनकी तिजौरियां कभी नहीं भरतीं।
बीडी और शराब के कारखाने चलाने वालों ने यह कैसे मान लिया कि जिन लोगों ने उन्हें अपना कीमती वोट देकर सांसद बनाया वे उनके छल और कपट को नहीं समझ सकते? देश के करोडों लोगों के स्वास्थ्य को खतरे में डालने वाले सौदागरों को तो धन के लालच ने अंधा बना दिया है, लेकिन हम आप अंधे और बहरे क्यों बने हुए हैं?

Thursday, April 2, 2015

अहंकार का अंधेरा

नया कुछ भी नहीं है। ऐसे तमाशे चलते ही रहते हैं। राजनीति में तो जैसे सबकुछ जायज है। नेताओं को एक-दूसरे के कपडे उतारने की पूरी आजादी है। खुद को पाक-साफ दिखाने और विरोधी को दागी बताने का चलन भी आम है। पर ऐसी खींचातानी, पटका-पटकी और सडक छाप लडाई पहले कभी नहीं देखी। आम आदमी पार्टी की नौटंकी ने हर किसी को हैरत में डाल दिया। इतना ओछापन और हद दर्जे की कमीनगी। राजनीति की तो नाक ही काटकर रख दी गयी। जो काम गैरों का था वो खुद ही कर डाला! भ्रष्टाचार और जनलोकपाल के प्रेरक आंदोलन से जन्मी आम आदमी पार्टी की तू-तू-मैं मैं ने देश के करोडों लोगों के बदलाव के सपनों पर काली चादर डाल दी है। देश के लाखों पढे-लिखे युवा जिन चेहरों को देखकर आम आदमी पार्टी से जुडे उन्हीं की आपसी टकराहट ने कई प्रश्न खडे कर दिए हैं। आप से तो काफी अलग उम्मीदें थीं। तभी तो युवक-युवतियां और हर उम्र के लोग आप से जुडते चले गए। देश के नौजवानों ने आप के स्वराज के नारे के आकर्षण में नौकरी छोडी और जंग में खुद को झोंक दिया। अपने भविष्य की भी परवाह नहीं की। अमीर-गरीब के साथ समर्पण और सहयोग से बनी इस पार्टी ने मात्र दो साल में उन बुलंदियों को छूने का कीर्तिमान रच डाला, जो दूसरों के लिए असंभव था। किसी एक की बदौलत अद्भुत और अभूतपूर्व करिश्में नहीं हुआ करते। इस सच से भी इंकार नहीं कि आप की कामयाबी के पीछे अरविंद केजरी का बहुत बडा योगदान रहा है। उनके वादे ही कुछ ऐसे थे कि लोगों ने आंख मूंदकर भरोसा किया। लेकिन यह मान लेना कि प्रशांत भूषण, योगेंद्र यादव, आनंद कुमार और अजीत झा जैसों का आप की सफलता में कोई रोल नहीं, सरासर नादानी और बेइंसाफी होगी। आप की नींव की मजबूती के लिए खून-पसीना बहाने वालों को एक ही झटके से बाहर कर देना यही दर्शाता है कि पार्टी में सवालों और असहमतियों के लिए कोई जगह नहीं है। सवाल यह भी कि कौन से दल में मनमुटाव और सवालबाजी नहीं होती।
इस सच को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि योगेंद्र यादव और प्रशांत भूषण ने विरोधियों के जूते-चप्पलों का सामना कर पार्टी को यहां तक पहुंचाया है। यह कहां का न्याय हैं कि जिन्होंने तब साथ दिया जब आप कुछ भी नहीं थे। चलना सीख रहे थे। सत्ता पाते ही आपकी सोच बदल गयी। आपको सच बोलने और सवाल उठाने वाले चुभने लगे। कवि कुमार विश्वास और पूर्व पत्रकार आशुतोष जैसे चाटूकारों की बन आयी। ऐसे ही शातिरों ने केजरीवाल के ऐसे कान भरे कि उन्होंने भी अपने विवेक की हत्या कर डाली। ये वही अरविंद हैं जो कभी यह कहते नहीं थकते थे कि देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियों में सच कहने वालो का अकाल पड गया है। चाटूकारों का बोलबाला है। लेकिन हम अपनी पार्टी में ऐसा नहीं होने देंगे। लेकिन यह क्या? आप भी तो आप को अपनी जागीर बनाने पर आमादा हैं। किसी की सुनने को तैयार ही नहीं! पार्टी के संस्थापक ही पिट रहे हैं। आप पूरी तरह धृतराष्ट्र की मुद्रा में हैं। सफलता का इतना गुरुर! आप  इस तथ्य को भी भूल गये कि अहंकार अंधेरे की ओर ले जाता है। जो काम प्रेम-प्यार से हो सकता था उसके लिए आपने तानाशाही अपनायी। गुंडागर्दी का सहारा लिया। पार्टी के लोकतंत्र की हत्या कर डाली। आप भी जयललिता, मायावती, मुलायम सिंह और लालू प्रसाद यादव जैसों के साथ खडे हो गये जो सवालों से कतराते हैं और चरण वंदना करने वालों की पीठ थपथपाते हैं।
आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल अब दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें अब सिर्फ और सिर्फ दिल्ली वालों के बारे में सोचना चाहिए। दिल्ली कई समस्याओं से जूझ रही है। यह भी तय है कि पांच साल तक उनकी सरकार पर कोई खतरा नहीं है। लेकिन उनकी असली जीत तभी होगी जब वे दिल्ली की जनता की कसौटी पर खरे उतरेंगे। दिल्लीवासी महंगाई की मार से तिलमिला रहे हैं। पानी-बिजली की समस्या का भी कोई स्थायी हल नहीं निकाला जा सका है। लाखों झुग्गी-झोपडी वालों का भी उद्धार करना है। रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार के दानव से मुक्ति मिलने का भी दिल्लीवालों को बेसब्री से इंतजार है। ठेकेदारी पर काम करने वाले कर्मचारी अंधेरा छंटने की राह देख रहे हैं। राजधानी में अपराधों के ग्राफ के बढते चले जाने का एक बडा कारण अशिक्षा और बेरोजगारी भी है। स्कूल, कालेज, अस्पताल और कानून व्यवस्था में सुधार दिल्ली वालों की ऐसी मांगें हैं जिनकी अभी तक अनदेखी होती आयी है। महिलाओं को दिल्ली आज भी डराती है। राजधानी को हर समस्या से मुक्त करना आप की जिम्मेदारी है। यदि मुख्यमंत्री अंदरूनी युद्ध में ही उलझे रहे तो युवाओं के लिए आशा की किरण बन उभरी 'आप' की दुर्दशा और  बरबादी पर कोई आंसू बहाने वाला भी नहीं होगा। आहत जनता राजनेताओं से परिवर्तन की आशा ही छोड देगी। बस यही मान लेगी कि कोई भी यकीन के काबिल नहीं। सब चोर-चोर मौसेरे भाई हैं। सिर्फ और सिर्फ सत्ता के भूखे।