Thursday, July 29, 2010

यह कैसा ढोंग?

महाराष्ट्र और मध्यप्रदेश का चोली-दामन का साथ है। दोनों की सरहदें एक दूसरे से लगी हुई हैं। इसका फायदा और कोई ले न ले पर अराजक तत्व जरूर ले लेते हैं। उनकी तो मौज ही मौज है...। विदर्भ के शहर वर्धा का नाम देश के साथ विदेशों में भी लिया और जाना जाता है। यह शहर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की कर्मभूमि रहा है। यहां पर स्थित बापू की कुटिया को देखने के लिए दूर-दूर से लोग आते हैं और महात्मा की सादगी के प्रति बरबस नतमस्तक होते हैं। लोकमत ग्रुप के सर्वेसर्वा और कांग्रेस के राज्यसभा सांसद विजय दर्डा ने हाल ही में केंद्रीय पर्यटन विभाग से सेवाग्राम के पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने और दर्जा देने की मांग की है।बापू घोर नशा विरोधी थे इसलिए सरकार ने उनके मान और सम्मान स्वरूप वर्धा जिले में शराब बेचने पर प्रतिबंध लगा रखा है। तय है कि सरकार के रिकॉर्ड में इस जिले में कहीं कोई शराब की दुकान नहीं है। देश और दुनिया के जो लोग महात्मा गांधी के अनुयायी हैं उन्हें बापू का वर्धा जरूर लुभाता होगा। उनके मन में यह विचार भी आता होगा कि यहां के निवासी कितने महान हैं जिन्होंने वास्तव में राष्ट्रपिता के आदर्शों को अपनाते हुए दारू और नशे से दूरी बना कर रखी हुई है। महाराष्ट्र सरकार और यहां के नेताओं का दारू बंदी पर वर्षों से कायम संकल्प भी बहुतों को लुभाता होगा क्योंकि लोग इस हकीकत से भी वाकिफ हैं कि शराब और तमाम नशे के की दुकानों की नीलामी से जो करो‹डों-अरबों का टैक्स मिलता है उसी से ही सरकारें चलती हैं। नेता जीते-खाते और पचाते हैं। इसलिए उनकी तो यही मंशा रहती है कि जगह-जगह शराब के सरकारी ठेकों और नशे के सौदागरों की भरमार हो और उनका काम चलता रहे। पर क्या वाकई वर्धा बापू के सपनों को साकार कर रहा है? इसका जवाब जानने के लिए सबसे पहले इस खबर से रूबरू हो लेते हैं। ''महाराष्ट्र की तुलना में मध्यप्रदेश में शराब की कीमतें कम हैं। यही वजह है कि शराब की तस्करी करने वाले नागपुर के निकट स्थित ि‍छंदवाडा और पांढुरना से शराब लाकर वर्धा में खपाने में बडी आसानी से कामयाब हो जाते हैं। बीते सप्ताह मध्यप्रदेश के पांढुरना से लाखों रुपये की शराब लेकर आ रही एक कार रास्ते में पेड व लोहे के एंगल से टकराकर दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। चालक नशे में धुत था इसलिए उसका संतुलन बिगड गया। दुर्घटना इतनी जबरदस्त थी कि कार चालक व उसके बगल में बैठा व्यक्ति उछल कर बाहर सडक पर आ गिरे। वहीं पीछे फंसे एक अन्य व्यक्ति को ग्रामवासियों ने बडी मेहनत कर कार से बाहर निकाला। सजग ग्रामवासियों को कुछ संदेह हुआ तो उन्होंने कार की डिक्की को खोला। उनकी आंखें हैरत के मारे फटी की फटी रह गयीं क्योंकि डिक्की में अंग्रेजी शराब की पेटियां ही पेटियां दिखायी दे रही थीं। ग्रामवासी तब तो और भी हतप्रभ रह गये जब वहां पर एकाएक एक और कार आकर रुकी। दुर्घटनाग्रस्त कार से तीनों व्यक्तियों ने फटाफट शराब की पेटियां निकालीं और उस कार में भरकर चलते बने। पुलिस जब तक वहां पर पहुंची तब तक तस्कर गायब हो चुके थे। सिर्फ और सिर्फ दुर्घटनाग्रस्त हो चुकी असहाय कार खडी थी जिसके आगे और पीछे बडे-बडे अक्षरों में 'प्रेस' लिखा था।''दरअसल 'प्रेस' और अखबार का नाम तस्करों के लिए ढाल का काम करता है। बापू की कर्मभूमि को दारूमय बनाने के लिए जिन वाहनों का दारू की तस्करी के लिए उपयोग किया जाता है उन पर अक्सर प्रेस या किसी अखबार का नाम लिख दिया जाता है। तय है कि पत्रकार या अखबार मालिक की गाडी होने की धौंस दिखाकर बेखौफ होकर तस्कर अपने काम को अंजाम देते रहते हैं। ऐसी भी कई गािडयों से शराब की तस्करी होती है जिन पर किसी राजनीतिक पार्टी का नाम लिखा होता है। पहले वाहनों पर राजनीतिक पार्टियों के नाम लिखने का चलन नहीं था पर इन दिनों यह चलन कुछ ज्यादा ही बढ गया है। पुलिस वाले कभी-कभार भूले से ही इन ऊंचे लोगों की गािडयों को रोकते हैं पर यह किसी अखबार का प्रेस कार्ड या राजनीति पार्टी के सुप्रीमों के नाम की धौंस दिखाकर आगे निकल जाते हैं। वैसे यह मान लेना बेवकूफी होगी कि पुलिस वालों की इनसे जान-पहचान और मिलीभगत न हो। सारा खेल-तमाशा पूरी एकजुटता और रजामंदी के साथ चल रहा है। वर्धा जिले में साल भर में कई करोड की अवैध शराब बिक जाती है और सरकार बेखबर रहती है! दरअसल वह खबरदार होना भी नहीं चाहती। उसने कसम खायी हुई है कि बापू की कर्म स्थली को दारू बंदी से कभी मुक्त नहीं होने देना है। भले ही पियक्कड नकली विषैली शराब पीकर मरते रहें। वैसे भी सरकार फरिश्ते नहीं चलाते, नेता चलाते हैं। अपने यहां के अधिकांश नेता महात्मा गांधी के नाम की कसमें खाकर ही चुनाव जीतते हैं। जब चुनाव निकट आते हैं तब दारू माफिया नेताओं को घर बैठे थैलियां पहुंचा देते हैं। इसलिए भी वे हमेशा बापू के शुक्रगुजार रहते हैं जिनके कारण वर्धा में आजादी के बाद से दारू बंदी जारी है...। कल के वो छुटभइये नेता भी बापू के नाम की माला जपते नहीं थकते जिनकी दारू बंदी के चलते बेरोजगारी दूर हो गयी है और आज वे करोडों में खेल रहे हैं। उनकी तरक्की का ग्रॉफ इतना ऊंचा हो गया है कि वे अब विधायक और सांसद बनने के सपने देखने लगे हैं। उनकी अंटी में इतना माल आ गया है कि वे चुनावी गंगा में करोडों रुपये बहा सकते हैं। गुंडे बदमाशों की आर्थिक तरक्की में भी अच्छा खासा इजाफा हुआ है। वर्धा के कारण नागपुर में कई छोटे-मोटे नकली शराब के कारखाने जगह बदल-बदल कर चलते रहते हैं। मध्यप्रदेश से तस्करी करके लायी गयी हल्की शराब, महंगी शराब की बोतलों में भरकर बडे इत्मीनान से वर्धा जिले में भेज दी जाती है। आबकारी विभाग को इस सारे गोरखधंधे की खबर रहती है। बिलकुल वैसे ही जैसे खाकी, खादी और पत्रकारों को। तेरी भी चुप मेरी भी चुप की तर्ज पर वर्षों से बापू के नाम पर नशे का व्यापार चलता चला आ रहा है। कई बार कुछ सजग महानुभावों ने ऐसी अजब-गजब दारू बंदी का विरोध भी जताया तो गांधीवादी दहाडते नजर आये कि वर्धा जिले में दारू बंदी का विरोध करने वाले चेहरे महात्मा गांधी के आदर्शों को कुचल कर रख देना चाहते हैं। बापू की कर्मभूमि की पवित्रता को बनाये रखने के लिए ही कांग्रेस सरकार ने यह प्रेरक निर्णय लिया था। इस निर्णय को बदलने का मतलब होगा बापू का अपमान। हम किसी भी हालत में राष्ट्रपिता का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकते। इसके लिए हमें अपनी जान भी देनी पडे तो पीछे नहीं हटेंगे।इन बापू के भक्तों से जब यह सवाल किया जाता है कि दारू बंदी के होते हुए भी वर्धा जिले में दूसरे जिलों की तुलना में सबसे ज्यादा शराब बिकती है तो उन्हें बापू के अपमान की ि‍चंता क्यों नहीं सताती! अगर उनमें बापू के प्रति सच्चा समर्पण है तो फिर वे शराब की तस्करी से लेकर बिकने-बिकवाने के अबाध सिलसिले पर लगाम क्यों नहीं लगवाते? सच्ची निष्ठा तो कुछ भी करवा सकती है, फिर यह कोई ऐसा बडा काम नहीं है कि जिसे वे अगर चाहें तो न करवा सकें...। देश और प्रदेश में उसी कांग्रेस की सरकार है जो आजादी के बाद से राष्ट्रपिता के नाम पर वोट लेकर सत्ता का असली मजा चखती चली आ रही है। क्या सरकार गांधी के अहसानों का बदला चुकाने के लिए इतना भी नहीं कर सकती? अगर नहीं तो उसे बापू के नाम पर ढोंग करने का कोई भी हक नहीं बनता...।

Thursday, July 22, 2010

गिद्ध और गिद्ध

समाजवादी मुलायम ि‍संह बलशाली जिस्मधारी नेता हैं। वर्षों तक पहलवानी कर चुके हैं। पता नहीं कितनों को पटकनी दी होगी और कितनों से पटके गये होंगे। कभी किसी पत्रकार ने उनसे अखाडे की पटका-पटकी को लेकर सवालबाजी नहीं की। पहलवानों के बारे में यह भी कहा जाता है कि वे आसानी से नहीं झुकते। माफी मांगना तो दूर की बात है। पर मुलायम किसी और ही मिट्टी के बने हैं। वक्त के हिसाब से बदलते रहते हैं। यह भी कहा जा सकता है कि वे असली नेता हैं। वोटों के लिए किसी भी हद तक गिर सकते हैं। कहीं भी और कभी भी भीख का कटोरा लेकर नमन और चरण वंदना की मुद्रा में नजर आ सकते हैं? देश की जनता के खून पसीने की कमायी को अपने बाप-दादा की जागीर समझने वाले यह मुलायम ि‍संह ही थे जिन्होंने कभी भारत सरकार से पाकिस्तान को एक हजार करोड रुपये की सहायता देने की मांग की थी। तब होश, जोश और रोष की स्याही में नहायी इस कलम को बरबस यह लिखने को मजबूर होना पडा था कि ''मुलायम ि‍संह को मारो जूते हजार-हजार।'' इस मुखौटे बाज की पाकिस्तान के प्रति रहमदिली के पीछे का एकमात्र मकसद था भारतीय मुसलमानों के दिलो -दिमाग पर छा जाना और अपनी समाजवादी पार्टी को मुस्लिम वोटों से मालामाल कर देना। यह वोटखोर तब यह भी भूल गया था कि भारतीय मुसलमान पाकिस्तान परस्त नहीं हैं। उनमें दूसरे भारतीयों की तरह ही देशभक्ति का ज़ज्बा कूट-कूट कर भरा हुआ है। समाजवाद के नाम पर मुलायम ि‍संह इसी तरह के हथकंडे अपनाकर अपने मंसूबों में भी कामयाब होते चले आ रहे हैं। देश का विशाल प्रदेश उत्तर प्रदेश एक ऐसा प्रदेश है जिसमें धर्म और जाति की राजनीति खुल कर होती है। यहां पर डेढ सौ से ज्यादा विधानसभा सीटों पर मुस्लिम मतदाता चुनाव परिणामों को प्रभावित करते हैं। यही वजह है कि भाजपा और बहुजन पार्टी के द्वारा भी मुसलमानों को चारा फेंकने और लुभाने के दावपेच चलते रहते हैं। देश की सबसे बुजुर्ग पार्टी कांग्रेस भी इस महान कार्य में कभी पीछे नहीं रहती। परंतु मुलायम ि‍संह को तो इस मामले में महारत हासिल है। जात-पात की जादूगरी और मुसलमानों के वोटों की बदौलत उन्होंने कई बार सत्ता का स्वाद चखा है। जब अयोध्या में बाबरी मस्जिद का विध्वंस किया गया था तब मुलायम ि‍संह मुसलमानों के जबरदस्त खैरख्वाह और संरक्षक के रूप में उभरे थे। उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को लताडने वाले अपने तीखे बयानों से मुसलमानों का दिल जीतने में अच्छी-खासी सफलता पायी थी। शातिर राजनेता मुलायम ि‍संह ने जब बाबरी मस्जिद को विध्वंस करने में प्रमुख भूमिका निभाने वाले कल्याण ि‍संह को गले लगा लिया तो भारतीय मुसलमान भी अचंभित रह गये। भाजपा के वोट बैंक पर सेंध लगाने के लिए घोर साम्प्रदायिक कल्याण ि‍संह को गले लगाने वाले मुलायम को विधानसभा में मायावती के हाथों जबरदस्त मात मिलते ही यह सच समझ में आ गया कि अब लोग और बेवकूफ बनने के लिए तैयार नही हैं। मुसलमानों की याददास्त को इतना ग्रहण नहीं लगा है कि वे खलनायकों को भूल जाएं। यह भी सच है कि चुनावी दंगल में मुलायम का यदि कल्याण हो जाता तो वे मुसलमानों के साथ दूध में गिरी मक्खी की तरह बर्ताव करने से भी नहीं चूकते। यह चुनावी पराजय ही है जिसने मुलायम को आखिरकार मुसलमानों से माफी मांगने के लिए विवश कर दिया। मुसलमानों ने मुलायम को माफ किया या नहीं यह तो वक्त ही बतायेगा। पर नेता जी माफी मांगने के बाद बेफिक्र हो गये हैं। हमारे यहां के नेता माफी मांगने में उस्ताद हैं। जब मन में आया किसी को गाली दे दी। जब विरोध के स्वर उभरे तो ऐसे माफी मांग ली जैसे बच्चों का खेल हो। समाजवादी पार्टी से धकियाये गये सुपर दलाल अमर ि‍संह जो अपने 'लोकदल मंच' पर खडे होकर आजकल अपनी भडास निकालते रहते हैं, ने कटाक्ष करते हुए कहा है कि मुलायम का कल्याण को गले लगाना एक ऐसा कुकर्म और धोखा था जिसके दाग कभी भी नहीं मिट सकते। यह तो मुसलमान ही हैं जो बहुत जल्दी फरेबी नेताओं के बहकावे में आ जाते हैं। मुलायम ने भी ऐसा पांसा फेंका था कि मुसलमान भाइयों ने उन्हें अपना रहबर मानते हुए मौलाना मुलायम के खिताब से नवाज दिया था। अयोध्या की बाबरी मस्जिद को ढहाने के प्रमुख आरोपी कल्याण ि‍संह को जिस दिन समाजवादी पार्टी में शामिल किया गया था उसी दिन मुलायम मुसलमानों की निगाहों से उतर गये थे। नेताजी की कोई भी माफी उनकी सियासी चुनरी पर लगे दाग नहीं धो सकती। अमर ि‍संह मानते हैं कि मुसलमानों को जज्बाती बनाकर उनके वोट हथियाने की सियासी चाल अब कतई कामयाब नहीं हो सकती। यहां पर यह भी बता दें कि पिछले दिनों अमर ि‍संह खुद को मुसलमानों का एकमात्र हित रक्षक घोषित कर चुके हैं। अमर ि‍संह इस सवाल का जवाब कतई नहीं देंगे कि उन्हें मुलायम के द्वारा मुसलमानों को ठगने का ध्यान अब जाकर ही क्यों आया जब वे समाजवादी पार्टी से बाहर खडे कर दिये गये हैं। यह सच तब भी तो बरकरार था जब अमर ि‍संह मुलायम के लिए दलाली करते हुए उनकी और अपनी तिजोरियां भरने में लगे थे। मुसलमानों को अपने पाले में लाने के लिए उनकी बोल-भाषा भी मुलायम जैसी ही होती थी। कल्याण को मुलायम से मिलवाने में उनका रोल भी कम नहीं था। अलग होने के बाद चाल और चरित्र बदलने का भ्रम फैलाने वाले अमर पर क्या आज मुसलमान आंख मूंद कर विश्वास कर लें? अमर ि‍संह की तर्ज पर और भी नेता हैं जो एकाएक मुसलमानों को भाव देने की राह पर चल पडे हैं। शिवसेना सुप्रीमो बाल ठाकरे के हृदय में मुसलमानों के प्रति कैसा स्नेह है यह बताने की जरूरत नहीं है। फिर भी यह कलम बाल ठाकरे को अमर ि‍संह, कल्याण ि‍संह, मुलायम ि‍संह और तमाम उन भाजपा नेताओं से एकदम अलग मानती है जो अपने कहे और किये से पलटने में जरा भी देरी नहीं लगाते। बाल ठाकरे इस मामले में मर्द नेता हैं जो करते हैं उसे डंके की चोट पर कुबूल करने से कतई पीछे नहीं हटते। देश में जब बाबरी मस्जिद विध्वंस हुआ था तब ठाकरे ही थे जिन्होंने छाती तानकर स्वीकारा था कि हां मेरे सैनिकों ने ही यह काम किया है। दूसरी तरफ भाजपा और उससे जुडे संगठन के नेता मुंह छिपाते दिखे थे और गोलमोल भाषा में जवाब देते नजर आये थे। शिवसेना की पाठशाला में वर्षों तक प‹ढने-लिखने और चाचाश्री की राजनीति से पारंगत होने के बाद अपनी 'महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना' बनाने वाले राज ठाकरे का पिछले माह जन्म दिन था। इस शुभ अवसर पर कुछ मुस्लिम धर्मगुरू खास तौर पर उनके आवास पर आमंत्रित किये गये। सबने राज ठाकरे के उज्ज्वल भविष्य की कामना करते हुए शुभकामनाओं का अंबार लगा दिया। शुभकामनाओं तक तो बात ठीक थी पर जैसे ही यह खबर बाहर आयी कि राज ठाकरे को पवित्र कुरान के मराठी अनुवाद की प्रति भी भेंट की गयी है तो राजनीति के गलियारों में तरह-तरह की चर्चाएं होने लगीं। तमाम दल और नेता चौकन्ने हो गये। बिलकुल वैसे जैसे मुलायम के माफी मांगने पर हुए। २०१२ में मुंबई नगर निगम के चुनाव होने हैं। अपने चचेरे भाई उद्धव ठाकरे से खार खाये राज ठाकरे को किसी भी तरह से शिवसेना-भाजपा को चुनावी मात देकर मुंबई नगर निगम पर अपनी हुकूमत चलानी है। इसके लिए अगर उन्हें अपने चाचा के पढाये पाठ के विपरीत भी चलना पडे तो वे तैयार हैं। वैसे भी राजनीति में कायदा, पाठ और पाठशाला भला कहां कोई मायने रखते हैं...!

Thursday, July 15, 2010

नेताओं की बाजीगरी

जिस तरह से महापुरुषों से साधारण इंसान प्रेरणा लेते हैं और अपने जीवन की दिशा तय करते हैं वैसे ही महानगरों से नगर कस्बे और गांव भी प्रभावित होते हैं। दिल्ली देश की राजधानी है पर इन दिनों राजधानी में कोहराम-सा मचा हुआ है। कानून के रखवाले गहरी नींद में बेफिक्र सोये हुए हैं। वैसे दिल्ली में तमाम बडे-छोटे राजा भी रहते हैं। वे भी अपनी मस्ती में चूर हैं। उन्होंने भी जनता की ि‍चंताओं और समस्याओं से मुंह मोड लिया है। बेरोजगारी बढ रही है। अपराध आसमान की छाती चीरने लगे हैं और गर्दनें तो ऐसे कट रही हैं जैसे गाजर-मूली कट रही हो। दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित को महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और बलात्कार कतई नहीं डराते। वाकई वे एक निर्भीक महिला हैं। राज करने के लिए ऐसी बेफिक्री, नजर अंदाजी और निर्ममता का होना बहुत जरूरी है। वैसे भी यह कहावत बहुत मशहूर है कि दिल्ली दिलवालों की है। छोटे-मोटे दिलधारी यहां टिक ही नहीं सकते।यह दिल्ली ही है जो हजारों मील दूर बैठे तरह-तरह के चोलाधारियों को हमेशा लुभाती रहती है। नेता और अपराधी यहां पर पहुंचने के लिए सदैव लालायित रहते हैं। इतिहास गवाह है कि दिल्ली में होने वाले अधिकांश संगीन अपराधों के पीछे जिन चेहरों को ख‹डा पाया जाता है उनमें यह शिनाख्त कर पाना मुश्किल होता है कि इन सफेदपोशों को अपराधी कहें या नेता...। नेता के पीछे अपराधी खडे नजर आते हैं तो अपराधी के पीछे नेता। बडा ही अजब किस्म का याराना है यह। दिल्ली पुलिस भी उलझन में फंसी रहती है। बडी मुश्किल से अपराधी हाथ में आता है पर उसे छुडाने के लिए सफेदपोश नेता फौरन पहुंच जाते हैं। रिश्ता पूछने पर अपनी पार्टी का कार्यकर्ता और न जाने क्या-क्या बताते हैं। दिल्ली की देखा-देखी अब यह परिपाटी पूरे देश में जोर पकड चुकी है। इसलिए अपराधों का ग्राफ बढता ही चला जा रहा है। हत्या, चोरी और बलात्कार की घटनाएं तो इतनी आम हो गयी हैं कि आम लोगों को इनसे कोई फर्क ही नहीं पडता। दूसरी तरफ यह भी हकीकत है कि कुत्ते की मौत मर भी आम आदमी ही रहा है।बीते सप्ताह देश की राजधानी में दो दिन के भीतर १२ शव बरामद हुए। जिससे देशभर में यह संदेश पहुंच गया कि दिल्ली में ऐसे अपराधियों की सल्तनत चल रही है जिन्हें कानून का कतई डर नहीं है। वे किसी को भी मौत के घाट उतारने के लिए आजाद हैं। राजधानी में लूटमार, डकैती और फिरौती की घटनाओं में भी अभूतपूर्व इजाफा होता चला जा रहा है। पहले इस तरह के अपराध दिल्ली से सटे हरियाना और उत्तरप्रदेश के शहरों और कस्बों में होते थे और नेताओं के फौरन बयान आने शुरू हो जाते थे कि इन प्रदेशों की पुलिस हद दर्जे की निकम्मी है पर अब जब दिल्ली ही अपराध नगरी बनती चली जा रही है तो नेताओं के मुंह खुलने बंद हो गये हैं। पुलिस कहती है कि हम कहां-कहां दिमाग खपाएं। गली-कूचों में चौबीस घंटे निगरानी रख पाना बच्चों का खेल नहीं है। शहरवासियों को भी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए आंख और कान खुले रखने चाहिए। राजधानी में बडे ही रहस्यमय ढंग से अपराधी आते हैं और अपना काम कर चलते बनते हैं। कइयों को तो यहीं पर पनाह भी मिल जाती है। पनाह देने वालों की शिनाख्त करने के बजाय लोग बस यही रोना रोते रहते हैं कि आखिर पुलिस क्या कर रही है?यह सच है कि पुलिस चप्पे-चप्पे पर तो निगरानी नहीं रख सकती फिर भी पुलिस कितनी चौकसी के साथ अपने कर्तव्य का पालन करती है यह कोई अंधा भी बता सकता है। दरअसल 'खाकी' भी नेताओं के रंग में रंग चुकी है। अपने बचाव के लिए उसके पास हजार बहाने और जवाब तैयार रहते हैं। देश का भला चाहने वाले यह मानते हैं कि यदि देश में खादी और खाकी ने अपनी नीयत दुरुस्त रखी होती तो देश की इस कदर दुर्गति न होती। लोगों को अब जहर से नहीं दवा से डर लगने लगा है। यह कितनी हैरतअंगेज बात है कि जब देश के प्रधानमंत्री को खिलाये जाने वाले भोजन की जांच की जाती है तो दाल मिलावटी पायी जाती है। जहां प्रधानमंत्री को नहीं बख्शा जा रहा हो वहां आम आदमी का कीडे-मकोडे की तरह मरना तय है। सरकार भी इस शुभकर्म में पीछे नहीं रहना चाहती। लोगों को खाने पीने के लिए शुद्ध खाद्य पदार्थ मिलें या न मिलें पर नशे में डूबने के लिए शराब जरूर मिलनी चाहिए। सरकार की नाक के नीचे नकली शराब बिकती रहती हैं। लोग बेमौत मरते रहते हैं। नेताओं की बयानबाजी चलती रहती है। लोगों को असली शराब पीने को मिले इसके लिए सरकार चलाने वाले नेता तरह-तरह के उपाय करते रहते हैं। अब तो दिल्ली के बीयर बारों में महिलाओं को शराब परोसने की छूट दे दी गयी है। पीने वालों को शराब और शबाब का एक साथ स्वाद चखने को मिलेगा। हालांकि शासकों का यह मानना है कि इससे महिलाओं को रोजगार मिलेगा। उनमें पुरुषों की बराबरी का मनोभाव भी पनपेगा। शराबी नशे में क्या-क्या गुल खिलाते हैं उसकी खबर सरकार चलाने वालों को न हो ऐसा तो हो नहीं सकता। पर सरकार तो सरकार है। उसे सब कुछ करने और करवाने का अधिकार है...।

Thursday, July 8, 2010

अर्थहीन हो गये घिसे-पिटे आंदोलन

जब से भारत देश आजाद हुआ है तब से लेकर आज तक हजारों 'बंद' और 'हडतालें' हो चुकी हैं पर आम जन का जीना हराम करती समस्याएं घटने के बजाय बढी ही हैं। फिर भी नेताओं को चैन नहीं मिलता। बेचारे परेशान हो उठते हैं। पर अब लोग भी सतर्क और समझदार हो गये हैं और सवाल दागने लगे हैं कि अगर भारत बंद या प्रदेश बंद करने से समस्याएं सुलझ जातीं तो आज भारत देश पूरी तरह से समस्या मुक्त होता। पर यहां तो समस्याओं का अंबार लगा है! जैसे-जैसे नेताओं की नकारा फौज बढती चली जा रही है वैसे-वैसे समस्याएं भी बढती चली जा रही हैं। नेताओं को तो एक तरह से रोजगार मिलता चला आ रहा है पर मरण तो उस आम जन का हो रहा है जिसके लिये यह सारे तमाशे किये जाते हैं। यह अपना भारत देश ही है जहां पर नेता भी भारत बंद करवाते हैं और नक्सली भी! गजब का लोकतंत्र है।हम यह तो नहीं कहते कि हडतालें और बंद का आयोजन करना गलत है। लोकतंत्र में जनता को सरकार की गलत नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने का संवैधानिक अधिकार मिला हुआ है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भी अपनी बात मनवाने के लिए अि‍हंसक आंदोलन को जायज बताया था, परंतु ि‍हंदुस्तान में गांधी के बताये मार्ग पर नेता कितना चलते हैं यह सबको खबर है। यही वजह है कि जब नेता जनता के हित की दुहाई देकर सडक पर उतरते हैं तो लोगों के दिल में तसल्ली के बजाय शंकाएं ही होती हैं। बीते सप्ताह महंगाई के खिलाफ भारत बंद का आयोजन किया गया। इस बंद में देश की लगभग सभी विपक्षी पार्टियां शामिल हुई। यह भी कह सकते हैं कि विपक्षी दलों ने एकता का जमकर प्रदर्शन किया। पहले ऐसे एकता के प्रदर्शन लोगों में यह आशा जगाते थे कि इनसे देश का भला होगा। पर अब ऐसा नहीं होता। जनता ने देख-समझ लिया है कि यह एकता सत्ता पाने के लिए किया गया ढोंग है, छलावा है, और कुछ नहीं। इतिहास गवाह है कि हडतालें और बंद के आयोजन राजनैतिक दलों के लिए तो सत्ता तक पहुंचने के मार्ग खोल देते हैं पर आम आदमी को कुछ भी हासिल नहीं होता। नेता जानते हैं कि विरोध की राजनीति करेंगे तो मजबूत होंगे। उन्हें अगर आम जन की बेहतरी से कोई लेना-देना होता तो देश के इस कदर बदतर हालात न होते। देश का अस्सी प्रतिशत धन आज राजनेताओं, नौकरशाहों और उनके पाले-पोसे उद्योगपतियों की तिजोरियों में कराह रहा है और लोग महंगाई की मार से त्रस्त हैं। देश की बदहाल जनता को गेहूं, चावल, दाल से लेकर रसोई गैस, कैरोसिन आइल, डीजल पेट्रोल, की कीमतों में अनाप-शनाप बढोत्तरी का बेतहाशा बोझ जबरन सहना पड रहा है। आसमान छूती महंगाई से नेताओं और धनपतियों को कोई फर्क नहीं पडता। वे तो जश्न मनाते हैं जब महंगाई का पारा ऊपर चढता है। ये मुखौटेबाज लोगों के समक्ष रोती सूरत बना लेते हैं कि उन्हें जनता की तकलीफों ने बेहद आहत कर रखा है पर अंदर ही अंदर लड्डू फूटते रहते हैं। दरअसल आहत तो वे लोग होते हैं जो 'बंद' के तमाशों की मार झेलते हैं। ट्रेनों और बसों के रद्द होने, उनकी तोड-फोड करने, आग के हवाले करने से तकलीफें नेताओं की नहीं आम लोगों की ही बढती हैं। बुरी तरह से मरण उन गरीबों का होता है जो रोज मजदूरी कर अपना और घर परिवार का पेट भरते हैं। और भी न जाने कितनी अडचनों और तकलीफों का सामना करना पडता है उस आम आदमी को जिसके तथाकथित कल्याण के लिए भारत बंद जैसे अर्थहीन आंदोलन होते हैं।जब इस तरह के स्वार्थ भरे बंद और आंदोलनों के खिलाफ यह कलम चलती है तो कई राजनीति के धुरंधर हमसे खफा हो जाते हैं। वे सवाल करते हैं कि गांधी के देश में आंदोलन के अलावा और कौन-सा रास्ता हो सकता है जिस पर चलकर बहरी सरकार के कान तक जनता की आवाज पहुंचायी जाए? इसका जवाब पहले भी दिया जा चुका है कि गांधी ने ि‍हंसा का मार्ग अपनाने की सीख तो दी ही नहीं थी फिर आगजनी ि‍हंसा, लूटमार के साथ-साथ लाखों लोगों को बेबस कर उनका रोजगार छीन लेने वाले घिसे-पिटे आंदोलन क्यों? यदि बंद से समस्याएं हल हो सकतीं तो आज देश में कोई समस्या ही नहीं होती। मन में अक्सर एक विचार यह भी आता है कि आम जनता को बंद में झोंक देने वाले विभिन्न पार्टियों के नेता बहरी-गूंगी और सोयी हुई सरकार को जगाने के लिए गांधी के सुझाये मार्ग का अनुसरण कर खुद सच्ची भूख हडताल का सहारा क्यों नहीं लेते? भूख हडताल के कारण यदि पांच-दस नेताओं को अपने प्राण भी गंवाने पडे तो भी उनका मान-सम्मान बढेगा। उनकी भावी पीढी का भाग्य चमक जायेगा। पार्टी की छवि भी चमकेगी। जनता धडाधड वोट देगी और सत्ता तक पहुंचना एकदम आसान हो जायेगा।

Thursday, July 1, 2010

यही सच है...

जमाना कितना भी बदल गया हो पर एक सच्चाई अपनी जगह पर डटी हुई है। शरीफ लोग पुलिस वालों की छाया से भी दूर रहना चाहते हैं। यदि बदकिस्मती से किसी शरीफ का खाकी वर्दी वाले से पाला पड जाए तो वह अपनी जेब हल्की कर उसके चंगुल से बचकर खिसक जाने में ही अपनी भलाई समझता है। इसलिए तो यह भी कहा जाता है कि खाकी से भगवान बचाये रखे। दरअसल हिन्दुस्तान की पुलिस की छवि ही कुछ ऐसी है कि आम जन उससे खौफ खाते हैं। बिगडे नवाबों, गुंडे बदमाशों, नेताओं, बलात्कारियों लूटेरों, हत्यारों को सहलाने वाली पुलिस में कर्तव्यनिष्ठ चेहरों का नितांत अभाव है। जिन लोगों का कभी भूले से पुलिस वालों से वास्ता पडता है वे इसकी असलियत बताने से भी नहीं चूकते। पर ऐसा कम ही देखने में आया है कि किसी पुलिस वाले ने ही पुलिस के काले सच का चेहरा उजागर करने का साहस दिखाया हो। न जाने कितने खाकी वर्दी वाले ऐसे भी होंगे जिनका पुलिस महकमें में रहकर दम घुटता होगा। तय है कि उन्हें अंधरेगर्दी, अराजकता, गुंडागर्दी और भ्रष्टाचार का वो वातावरण रास नहीं आता होगा जो वर्षों से भारतीय पुलिस का अंग बन चुका है। अपना घर-परिवार चलाने की मजबूरी के चलते पुलिस विभाग के खूंटे से जबरन बंधे रहने वालों की भीड में से बाहर निकलने का साहस दिखाना यकीनन कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। यहां हम योगेश प्रताप िसंह का जिक्र कर रहे हैं जिन्होंने लगभग छह वर्ष पूर्व भारतीय पुलिस सेवा की नौकरी को लात मार कर किनारा कर लिया था। सन १९८५ बैच के इस आईपीएस अधिकारी को पुलिस विभाग में व्याप्त भर्राशाही, अंधेरगर्दी, भ्रष्टाचार और राजनेताओं की दखलअंदाजी ने इस कदर बेचैन और आहत कर डाला कि उनका दम घुटने लगा था। उन्होंने देश की सेवा के लिए संविधान की रक्षा की शपथ ली थी। पर यहां तो शपथ का ही उपहास उ‹डाया जा रहा था। कानून के रखवाले कानून की धज्जियां उडा रहे थे। योगेश प्रताप ि‍संह जिन सपनों को पूरा करने के लिए पुलिस में भर्ती हुए थे उन्हें टूटने में ज्यादा वक्त नहीं लगा। वे किसी भी हालत में स्वयं को उन वर्दीवालों में शामिल नहीं कर पाये जिन्होंने हालातों से समझौता कर अपनी खुद्दारी का गला तक घोटकर रख दिया था। उसी दौर में उन्होंने एक उपन्यास लिखा जिसमें महाराष्ट्र के नेताओं, मंत्रियों, पुलिस अधिकारियों और माफियाओं के शर्मनाक गठजोड का ऐसा स्पष्ट खुलासा किया कि सत्ता और नौकरशाहों के गलियारों में खलबली मच गयी। कई कफनचोर पुलिसिये बौखला उठे। ऐसा होना जायज भी था क्योंकि सच बेहद कडवा होता है। उसकी कडवाहट और चुभन तब और भी विषैली हो जाती है जब अपने ही बीच का कोई साथी खडा हो जाता है और सच कहने का अभूतपूर्व साहस कर गुजरता है।हां यह योगेश प्रताप सि‍ंह का साहस ही था कि उन्होंने बेखौफ होकर लोगों को बताया कि ऊपर से कडक और दबंग दिखने वाले अधिकांश पुलिस अधिकारी सफेदपोश नेताओं के हाथों के खिलौने भर हैं। मंत्री इन्हें जैसा नचाते हैं यह वैसा ही नाचते हैं। कानून-वानून से इन्हें कोई लेना-देना नहीं है। पुलिस की नौकरी पाने से लेकर मनचाहा थाना हथियाने तक के लिए बोलियां लगती हैं। जो जितनी मोटी थैली मंत्रीजी के चरणों में चढाता है वो उतना ही बडा पद आसानी से पा जाता है। ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठा की पुलिस विभाग में कोई कद्र नहीं है। बडे अफसरों और राजनेताओं के इशारों पर नाचने वाले पुलिस वालों को तरक्की पर तरक्की मिलती चली जाती है। योगेश प्रताप सि‍ंह ने खाकी वर्दी पहनने के साथ ही कसम खायी थी कि चाहे कुछ भी हो जाए वे रिश्वत नहीं लेंगे। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी को कतई बर्दाश्त नहीं करेंगे। उनकी यही जिद उनकी तरक्की में बाधा बनती रही। वे जब धन लेते ही नहीं थे तो देते कहां से? ऐसे में उन्हें नालायक मान लिया गया और उनकी अवहेलना की जाने लगी। मंत्रीजी की कृपा से उनके साथ के आईपीएस अधिकारी आईजी बना दिये गये और उन्हें प्रमोशन से कोसों दूर रखा गया। इसी पुलिस विभाग में जैसे-तैसे लगभग बीस वर्ष तक काम करते-करते उन्हें कुछ इस तरह के झटके भी झेलने पडे कि जिस अफसर के खिलाफ उन्होंने जांच की और दोषी पाया उसी को ऊपर वालों की मेहरबानी से उनका बॉस बना दिया गया। जिन अराजक तत्वों, अपराधियों और माफियाओं को उन्होंने सरे बाजार पीटा और हथकडि‍यां पहनायीं वही कालांतर में नेता का चोला पहनकर विधायक, सांसद और मंत्री बने। ऐसे काले-कलूटे अतीतधारियों को सलाम ठोकना और जी हजूरी करना इस जि‍ंदादिल शख्स के उसूल के खिलाफ था। ऐसे में एक स्वाभिमानी इंसान को जो रास्ता चुनना चाहिए वही योगेश प्रताप सि‍ंह ने भी चुना। उन्होंने जब इस्तीफा दिया था तब मैंने यह लिखा था कि 'योगेश प्रताप सि‍ंह का पुलिस की नौकरी को लात मारना एक तरह से पलायन भी है। यह पलायन उन धनपशुओं का मनोबल बढायेगा जिन्होंने पुलिस महकमे को रंडी के कोठे से भी बदतर बनाने का गुनाह किया है। सि‍ंह जैसे लोग ही इस सडी-गली व्यवस्था को बदल सकते हैं। महाराष्ट्र के वर्तमान मुख्यमंत्री और गृहमंत्री यदि प्रदेश के पुलिस विभाग में ऊपर से नीचे तक बदलाव लाना चाहते हैं तो उन्हें इस अफसर के दर्द को समझने, में जरा भी देरी नहीं करनी चाहिए।' पर यहां पर सुधार लाने और किसी की पीडा को जानने की किसे पडी है। शासकों से तो ऐसी उम्मीद करना ही बेकार है। नौकरी छोडने के बाद योगेश प्रताप ने निष्क्रियता का चोला नहीं ओडा। आम आदमी की लडाई लडाने के लिए वे वकालत के मैदान में कूद पडे। उन्होंने मुम्बई हाई कोर्ट में प्रेक्टिस करते हुए आम नागरिकों के हित के लिए लगातार याचिकाएं दाखिल करते हुए वो नाम और सम्मान कमाया है जो पुलिस में रहकर तो कतई संभव नहीं था। उनकी याचिकाओं पर हुए फैसलों के चलते कई बार महाराष्ट्र सरकार को अपने फैसले बदलने पर विवश होना पडा है। हां उनसे मुम्बई के बिल्डर, भूमाफिया और अराजकतत्व खासे खफा रहते हैं। पर उन्हें कल की तरह आज भी किसी की परवाह नहीं है। वे इन दिनों एक फिल्म भी बना रहे हैं। जिसमें वही दिखाने जा रहे हैं जो उन्होंने पुलिस की नौकरी के दौरान देखा, भोगा और जाना। फिल्म में एक दृश्य में एक नये आईपीएस अफसर को एक हवलदार की ईमानदारी से प्रभावित होकर कभी भी रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार न करने की प्रतिज्ञा लेते हुए दिखाया गया है। वहीं दूसरी और एक भ्रष्ट और चाटूकार कमिश्नर को अपना कार्यकाल बढवाने के लिए गृहमंत्री के चरणों में गिडगिडाते हुए दिखाने के साथ-साथ एक मंत्री के माफियाओं के साथ करीबी रिश्तों का भी फिल्म में खुलकर खुलासा किया गया है। यह मंत्री महोदय वर्तमान में भी महाराष्ट्र सरकार में शामिल हैं। तय है कि इस फिल्म के प्रदर्शन को रोकने के लिए बडी ताकतें जोर लगायेंगी। पर योगेश प्रताप सि‍ंह ऐसी-वैसी मिट्टी के नहीं बने हैं कि हार मान लें और चुपचाप बैठ जाएं...। हां योगेश प्रताप सि‍ंह जो फिल्म बना रहे हैं उसका नाम है 'यही सच है...।'