Thursday, January 25, 2018

जीने की आज़ादी

जीना तो सभी चाहते हैं, लेकिन जान के दुश्मनों की भी कमी नहीं है। अपने भी कातिल बनने में देरी नहीं लगाते। पिछले दिनों एक बेटे ने अपनी उम्रदराज बेबस मां को घर की तीसरी मंजिल की छत पर ले-जाकर नीचे गिरा दिया। मां समझ भी नहीं पायी कि उसके साथ क्या हो गया। मां चलने-फिरने में लाचार थी और उसकी सोचने-समझने की क्षमता भी क्षीण हो चुकी थी। बेटा अपनी पत्नी के साथ खुशहाल जिन्दगी जीना चाहता था। बीमार मां की सेवा करने में दोनों को तकलीफ होती थी। उनके पास मां की स्वाभाविक मौत का इंतजार करने का समय नहीं था। इसलिए दोनों ने सलाह-मशविरा कर बूढी मां को मौत की सोगात देकर यह मान लिया कि उन्हें अब हमेशा के लिए मुक्ति मिल गई है। अब वे चैन की जिन्दगी जी सकेंगे। लेकिन वे कानून के फंदे से बच नहीं पाए। कितनी ही ऐसी औलादें होती हैं जो ऐसे पाप करते नहीं थकतीं। कुछ बेनकाब हो जाती हैं, अधिकांश का पर्दाफाश नहीं हो पाता। लेकिन क्या ऐसी निष्ठुर हत्यारी संतानों को चैन की नींद आ पाती होगी? यह सवाल लगातार चिन्तनशील लोगों को बेचैन किये रहता है। ऐसी दिल दहलाने वाली खबरों की भी‹ड में चंद खबरें ऐसी भी सुनने और पढने को मिल जाती हैं जो यह संदेश देती हैं कि रिश्तों की कद्र और मानवता के पवित्र विचार अभी जिन्दा हैं। खून के सारे रिश्ते अभी निर्ममता और स्वार्थ की भेंट नहीं चढे हैं। यह भी सच है कि रिश्तों के कातिलों की खबरें डराती तो हैं, लेकिन यह संदेश भी देती हैं कि बेगानों और अपनों से सावधान रहने की जरूरत है। उम्र के उस पडाव में जब अपने भी मुंह मोडने लगते हैं तो चौंकाने वाले निर्णय लेने में कोई हर्ज नहीं है। हमारे समाज में यह धारणा बन गई है कि बुजुर्गों को खुलकर जीने का अधिकार नहीं है। उन्हें जितने सुख भोगने थे उतने वे भोग चुके। अब तो बस उन्हें अपनी औलादों की ही चिन्ता करनी चाहिये। उन्हीं के जीवन को संवारने में अपनी पूरी ऊर्जा लगा देनी चाहिए। जब हाथ पैर ढीले पड जाएं तो मूकदर्शक की भूमिका अपना लेनी चाहिए। ऐसे बेटे-बेटियों की भी कमी नहीं है जो अपने माता-पिता को लेकर चिन्तित रहते हैं और उनकी खुशी के लिए परंपराओं को तोडने का साहस दिखाते हैं।
जयपुर की संहिता अग्रवाल ने अपनी ५३ वर्षीय विधवा मां की शादी करवाकर अनुकरणीय मिसाल पेश की है। संहिता के पिता का ५२ साल की उम्र में अचानक साइलेंट अटैक से निधन हो गया था। उसकी मां के लिए यह एक बहुत बडा सदमा था। अच्छे-भले स्वस्थ पति को खोने के कारण दिन-रात वह मौन, गुमसुम और घबरायी-सी रहतीं। बडी बहन की शादी हो चुकी थी। घर में मां और संहिता ही बचे थे। पिता के न रहने पर तमाम खुशियां धुवां बनकर गायब हो गई थीं। घर को भयावह सूनेपन ने जकड लिया था। संहिता जब ऑफिस से लौटती तो गमगीन मां को सीढियों पर बैठा पाती, जैसे पति के लौटने का इंतजार कर रही हो। मां तब कितना खिलखिलाया करती थी जब पिता जिन्दा थे। अब तो मां अपने ही मन की अंधेरी दुनिया में ही सिमट कर रह गई थी। मां की उदासी और अकेलापन ने संहिता की भी नींदें उडा दी थीं। गमजदा मां की कभी-कभार जब चुप्पी टूटती तो वे चिल्लाकर सवाल दागतीं कि, 'तेरे पापा कहां हैं, अभी तक आये क्यों नहीं?' संहिता के पास कोई जवाब नहीं होता था। मां के सूने माथे को देखकर वह अपनी उधेड-बुन में लग जाती। संहिता ने अपने जीवन की किताब में ऐसे निष्ठुर पन्नों की कल्पना नहीं की थी। हर पन्ना उसे सहमा जाता। चिन्ता तब पहाड से भी भारी हो गई जब संहिता की गुडगांव में नौकरी लग गई। मां घर में अकेली रह गयी। अब तो सूनेपन ने मां को और अधिक डराना शुरू कर दिया था। वह रात के वक्त टीवी चलाकर सोने लगीं ताकि घर में किसी के होने का अहसास हो। मां की हालत बेटी से देखी नहीं जा रही थी। इसलिए उसने एक मैट्रिमोनियल वेबसाइट पर जाकर मां को बिना बताये उनकी प्रोफाइल बना दी। कुछ ही दिनों में रिश्ते आने लगे। पचपन वर्षीय गोपाल गुप्ता तो फौरन शादी के लिए तैयार हो गए। संहिता ने गोपाल गुप्ता के बारे में पूरी जानकारी जुटायी। बांसवाडा में राजस्व अधिकारी के पद पर पदस्थ गुप्ता की पत्नी की सात साल पूर्व कैंसर से मौत हो चुकी थी। उसके बाद से वे अकेले रह रहे थे। संहिता ने जब अपनी मां को इस बारे में अवगत कराया तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस बीच उन्हें एक गंभीर बीमारी ने जकड लिया। ऑपरेशन की तैयारी चल रही थी। गुप्ता को इसकी खबर लग गयी। वे फौरन दौडे चले आए। रिश्ते से इनकार के बावजूद उन्होंने मां की निस्वार्थ भाव से देखभाल की, जिससे वे प्रभावित हो गर्इं और दोनों ने विवाह बंधन में बंधने का खुशी-खुशी फैसला ले लिया। परिजनों और रिश्तेदारों के विरोध की परवाह न करते हुए बेटी ने आर्य समाज मंदिर में दोनों की शादी करवाकर दो जिन्दगियों की तस्वीर ही बदल दी।
ऐसी शादियों का मकसद वैसा नहीं होता जैसा इसके विरोध में खडे होने वाले लोग सोचते हैं। कहने वाले तो बडी आसानी से यह कह देते हैं कि वृद्धावस्था का समय तो अपने बेटे-बहू और पोते-पोतियों आदि के साथ बिताने के लिए ही होता है। ऐसे चिन्तनशील लोगों को वृद्धों की समस्याओं का कोई भान नहीं होता। उन्हें एकाकीपन और स्वास्थ्य से जुडी समस्याएं किस तरह से तोडती चली जाती हैं इसकी भी उन्हें खबर नहीं होती या फिर इस तरफ ध्यान देना जरूरी ही नहीं समझते। छह साल पहले जब सत्तर वर्षीय सूर्यनारायण ने साठ वर्षीय बानुमति से चेन्नई के एक मंदिर में विवाह किया तो दोनों परिवारों का कोई सदस्य मौजूद नहीं था। परिवार के सभी सदस्यों की यही सोच थी कि इस उम्र में शादी करना तमाशे और हंसी का पात्र बनना है। लगभग दस वर्ष पूर्व टेलीकाम सेक्टर की नौकरी से रिटायर हुए सूर्यनारायण की पत्नी का भी कुछ वर्ष पूर्व निधन हो गया था। एकाकीपन की वजह से सूर्य नारायण बहुत असहज महसूस करते थे। उन्हें एक हमउम्र साथी की जरूरत थी। अपने आप में मगन उनके बेटे-बेटियों के पास इतनी फुर्सत नहीं थी कि वे उन्हें समय दे पाते। उधर, साठ वर्ष की होने ने बावजूद बानुमति का किसी वजह से विवाह नहीं हो पाया था। एक मित्र ने सूर्यनारायण के समक्ष बानुमति से विवाह करने का प्रस्ताव रखा तो वे सहर्ष राजी हो गए।

Thursday, January 18, 2018

राष्ट्रगान पर किन्तु-परन्तु

'जन-गण-मन' हमारा राष्ट्रगान है तो 'वंदे मातरम' राष्ट्रगीत। पिछले कुछ महीनों से दोनों को लेकर जबर्दस्त विरोध का माहौल देखा जा रहा है। कुछ देशवासियों को शिकायत है कि राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को जबरन सम्मान देने और गवाये जाने की कोशिश की जा रही है। वैसे अब तो देश के सम्मान के प्रतीक राष्ट्रगान को सिनेमाघरों में बजाने की अनिवार्यता ही खत्म कर दी गई है। गौरतलब है देशभक्ति की भावना को बल देने के लिए ३० नवंबर २०१६ को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा सिनेमाघरों में फिल्म शुरू होने से पहले ही राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य कर दिया गया था। इस नियम के खिलाफ आवाजें उठाये जाने के कारण अंतत: कोर्ट ने अपने नियम में बदलाव करते हुए इसे स्वैच्छिक कर दिया है। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान पर आपत्ति जताने वालो का कथन है कि लोग सिनेमाघरों में सिर्फ और सिर्फ मनोरंजन के लिए जाते हैं। वहां पर भी मर्यादा और अनुशासन से परिपूर्ण राष्ट्रगान के गायन की अनिवार्यता मानसिक कष्ट देती है। हर दर्शक की अपनी सोच होती है। राष्ट्रगान के बजते ही सावधान की मुद्रा में खडा होना होता है। यह भी नहीं भूलना चाहिए कि सिनेमाघरों में हर उम्र के लोग पहुंचते हैं। सभी की मानसिक और शारीरिक स्थिति अलग-अलग होती है। राष्ट्रगान कोई ऐसा गीत भी नहीं है जिसे जब जहां चाहे वहां बजा दिया जाए। राष्ट्रगान को राष्ट्रभक्ति से जोडने वाले भी उन लोगों को अपना निशाना बनाने की ताक में रहते हैं जो किसी कारण वश इसके सम्मान में सावधान की मुद्रा में ख‹डे नहीं होते। सिनेमाघरों में राष्ट्रगान के विरोध में भले ही कितने ही कथन और तर्क दिये जाते रहे हों, लेकिन एक सवाल यह भी है कि क्या भारतवासी देश के राष्ट्रगान के लिए ५२ सेकेंड का भी समय नहीं दे सकते? भले ही सिनेमाघरों में सभी मनोरंजन के लिए जाते हों, लेकिन राष्ट्रगान तो देश के सम्मान में गाया जाने वाला प्रेरक गीत है जिसका सम्मान किया ही जाना चाहिए। लगभग हर सच्चे भारतवासी के मन में तिरंगे के प्रति असीम श्रद्धा भी है और अपार सम्मान भी। जितना तिरंगे का महत्व है उतना ही राष्ट्रगान का भी...। राष्ट्रगान के बगैर तिरंगा फहराया जाना ठीक उसी तरह से है जैसे आत्मा के बगैर शरीर का हिलना-डुलना। गौरतलब है कि २७ दिसंबर १९११ में सर्वप्रथम कांग्रेस के अधिवेशन में जन-गण-मन गाना गाया गया था। यह राष्ट्रगान बंगाली के साथ-साथ हिन्दी भाषा में भी उपलब्ध है। इसके रचियता विश्व प्रसिद्ध कवि रविन्द्रनाथ टैगोर थे। २४ जनवरी १९५० की संविधान के द्वारा भी राष्ट्रगान को मान्यता दी गई। तब से इसे देशवासियों के मान-सम्मान का प्रतीक माना जाता है। जो लोग इसे बोझ समझते हैं उनके बारे में अब क्या कहें। हिन्दुस्तान में ऐसे अहसानफरामोशों का भी वास है जो 'भारत माता' के खिलाफ जहर उगलते रहते हैं। राष्ट्रभक्तों का रक्त खौलाकर रख देने वाली नारेबाजी करने से बाज नहीं आते। देश के प्रदेश मध्यप्रदेश के शहर रतलाम जिले के नामली कस्बे के एक कॉन्वेंट स्कूल में बीते सप्ताह बीस छात्रों को इसलिए बाहर कर दिया गया, क्योकि वे 'भारत माता की जय' के नारे लगा रहे थे। छात्र नौंवी कक्षा के हैं। स्कूल प्रबंधन ने उनके प्री बोर्ड की परीक्षा देने से भी रोक लगा दी। ऐसे हथकंडे करने वाले ही राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत के विरोध में अपने सुर ऊंचे करते रहते हैं। उनकी असली सोच सहज ही समझ में आ जाती है। इन्हें बदलने की कोशिशें करना व्यर्थ हैं। यह भी सच है कि देश के कई शहरों के सिनेमाघरों में जब कुछ लोग राष्ट्रगान के दौरान खडे नहीं हुए तो उनकी पिटायी भी कर दी गई जिसका कतई समर्थन नहीं किया जा सकता। यह देखने में आया कि जो विकलांग व्यक्ति भले ही अपनी शारीरिक कमजोरी के चलते खडे होने में अक्षम थे उनको भी नहीं बख्शा गया। वृद्धों को भी खडे होने का दबाव झेलना पडा। हालांकि अदालत ने बाद में विकलांग और वृद्ध लोगों के खडे होने की अनिवार्यता खत्म कर दी थी, लेकिन फिर भी कुछ लोग अपनी राष्ट्रभक्ति के जोश में डंडे और शाब्दिक बाण चलाकर खुद को राष्ट्रभक्त दर्शाते रहे। राष्ट्रगान और राष्ट्रगीत को जबरन गवाये जाने का किसी भी हालत में समर्थन नहीं किया जा सकता। देश के जन-जन के दिल में इनके प्रति सम्मान होना चाहिए। लाठी, डंडों से राष्ट्रभक्ति अनुशासन और सम्मान की गंगा नहीं बहायी जा सकती। राष्ट्रगान, राष्ट्रगीत और तिरंगे को राजनीतिक हितों के लिए भुनाने का जो दौर चल पडा है वह भी देशहित में नहीं है। किसी के बोलने से कोई जाग ही जाए यह जरूरी नहीं है। राष्ट्रगान पर किंतु-परंतु कहने वाले अपनी जगह हैं। गौरतलब है कि मैं सुबह जिस बाग में मार्निंग वॉक के लिए जाता हूं वह एक स्कूल से लगा हुआ है। यहां पर सुबह छात्र जैसे ही राष्ट्रगान का गायन प्रारंभ करते हैं तो अधिकांश लोग खुद-ब-खुद बडे सम्मान के साथ सावधान की मुद्रा में खडे हो जाते हैं। यही हमारे देश की असली शक्ति भी है और पहचान भी। देश के कई सिनेमाघरों के संचालकों का कहना है कि सिनेमाघरों में राष्ट्रगान बजाना भले ही अनिवार्य नहीं रह गया हो, लेकिन हम इसे बजाते रहेंगे। हालांकि राष्ट्रगान के दौरान खडे होने की जबर्दस्ती नहीं करेंगे। अगर लोग अपनी मर्जी से राष्ट्रगान के दौरान खडे होते हैं तो यह अपने देश के प्रति उनके सम्मान को दर्शाता है। दुनिया के अनेक देशों में राष्ट्रगान बजाना अनिवार्य है। कोर्ट और सरकार भले यह कहे कि राष्ट्रगीत बजते वक्त खडे होने की जरूरत नहीं है, लेकिन अधिकांश लोग राष्ट्रगीत का सम्मान करना जानते हैं। उन्हें किसी की जबर्दस्ती और प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती। लोग अपनी मर्जी से राष्ट्रगान के दौरान खडे होते हैं तो इससे यह पता चलता है कि उनके मन में देश के प्रति कितनी आस्था और सम्मान है। कुछ सिनेमावालों का यह भी कहना है कि अगर राष्ट्रगान चलाना अनिवार्य नहीं है तो हम भी नहीं चलाएंगे। सरकार की ओर से अनिवार्यता नहीं होने पर अगर सिनेमा में राष्ट्रगान के दौरान दर्शक खडे नहीं होंगे तो वह भी ठीक नहीं होगा।

Thursday, January 11, 2018

जीना और मरना

नये साल ने दस्तक दी ही थी कि इन उदास और निराश करने वाली खबरों ने स्तब्ध कर दिया। मन में कई तरह के विचार आते रहे। पहले आप इन्हें पढें और गहराई से सोचें।
नए साल की रात नई दिल्ली की २६ वर्षीय युवती जूही ने आत्महत्या कर ली। आत्महत्या की वजह बडी चौंकाने वाली थी। जूही ने अपने स्सूसाइड नोट में लिखा था कि- चेहरे पर काले दाग, धब्बे, मुहांसे के निशान से वह काफी परेशान है। इस वजह से वह खुदकुशी करने को विवश हो रही है। इसके लिए किसी को जिम्मेदार न ठहराया जाए। ३१ दिसंबर की रात अपनी सहेलियों के साथ जश्न मनाने के बाद आत्महत्या करने वाली जूही ने अपनी मर्जी से शादी की थी। माता-पिता उसके खिलाफ थे। वह पढने-लिखने में काफी सजग और होशियार थी। उसका मध्यप्रदेश पीसीसीएल में सिलेक्शन भी होने वाला था। नाराज़ मां-बाप ने उससे नाता तोड लिया था। यही वजह थी कि उन्होंने बेटी का शव लेने से भी इंकार कर दिया। पत्नी की मौत की खबर मिलते ही पति फौरन दिल्ली दौडते चले आए। सॉयकाट्रिस्ट कहते हैं कि सिर्फ मुहांसों की वजह से कोई जान नहीं दे सकता। यह एक अचंभित करने वाला मामला है। आत्महत्या करने के पीछे और कुछ दूसरे कारण हो सकते हैं। देश के जाने-माने डॉक्टरों का भी मानना है कि केवल दाग-धब्बों की वजह से कोई आत्महत्या कर ले यह बडे अचंभेवाली बात है। हां, उसे मुहांसों की वजह से तनाव हो सकता है। साथ में कई दूसरे फैक्टर हो सकते हैं जो उनके तनाव को बढा सकते हैं।
बेंगलुरु में २७ साल के सॉफ्टवेयर इंजीनियर आर.मिथुन राज ने भी नये साल की सुबह बालों के गिरने की समस्या से तंग आकर मौत को गले लगा लिया। उत्तरी दिल्ली के बुराडी में रहने वाले एक अन्य युवा ने घर की दूसरी मंजिल से कूदकर जान दे दी। इस पच्चीस वर्षीय युवा का नाम है नवदीप, जो स्वीडन से हायर एजुकेशन लेकर लौटा था। उसने मर्चेंट नैवी में नौकरी भी की थी, लेकिन पिछले कुछ दिनों से वह तनाव में जी रहा था। उसने जब से 'लाइफ आफ्टर डेथ' नामक किताब पढी थी तभी से उसके मन में आत्महत्या करने के विचार आने लगे थे। वह मोबाइल पर गूगल में खुदकुशी के तरीके और मौत के बाद जीवन के बारे में खोज करता रहता था। कितनी नींद की गोलियां खाकर मौत आ सकती है इसकी जानकारी ढूंढने के लिए रात-रात भर वह जागता रहता था। उसके मन में यह बात भी घर कर गयी थी कि मरने के बाद मोक्ष की प्राप्ति होती है। वह सतत आध्यात्मिक बातें भी करने लगा था। थर्टी फर्स्ट की रात भी मानसिक तनाव बढ जाने के कारण उसे नींद नहीं आ रही थी। आखिरकार उसने बालकनी पर जाकर नीचे छलांग लगाई और इस दुनिया से हमेशा-हमेशा के लिए विदा हो गया।
पूर्वी दिल्ली के मधु विहार की सबरीना ने भी नई साल की पहली तारीख को फंदे पर लटक कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया। सत्ताईस वर्षीय सबरीना एक कुशल नर्स थी। मरीजों की देखरेख और सेवा करना उसका धर्म था और इस धर्म को वह अच्छी तरह से निभाती थी। ऐसी कर्तव्यपरायण नर्स अपने साथ अन्याय करने के लिए महज इसलिए विवश हो गई क्योंकि नये साल के मौके पर घर में जो पार्टी आयोजित की गई थी उसमें उसकी पति से कुछ अनबन और कहा-सुनी हो गई थी। दोस्तों के जाने के बाद बहस इतनी बढी कि पति नाराज होकर कोशंबी में रहने वाले अपने भाई के घर चला गया। रात भर वह वहीं रहा। सुबह होते-होते तक उसका गुस्सा ठंडा हो चुका था। वैसे भी ऐसी छोटी-मोटी लडाईयां कहां नहीं होती। यह भी तो जीवन का हिस्सा हैं। लगभग हर पति-पत्नी में तो मनमुटाव होता ही रहता है। सुबह आठ बजे पति जब घर लौटा तो उसने पत्नी व अपनी सवा साल की बेटी को फंदे पर लटका पाया। उसके तो होश ही फाख्ता हो गए। उसने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि पत्नी इतना बडा कदम उठा सकती है। ऐसा झगडा तो पहले भी होता रहता था। अपनी अबोध मासूम बेटी के साथ आत्महत्या करने वाली सबरीना के पिता ने किसी बात पर पत्नी की हत्या कर दी थी। पिता तिहाड जेल में बंद हैं। यह घटना सबरीना के मन में बहुत बडा घाव छोड गयी। मां की असमय मौत के चलते सबरीना को तनाव ने भी जकड लिया था। फिर भी नर्सिंग का कोर्स करने के बाद उसने अपोलो अस्पताल में नौकरी शुरू कर दी थी। पिता के जेल जाने के बाद उसने कुमार नामक युवक से शादी की और चार साल बाद उनके यहां बेटी ने जन्म लिया।
ऊपर वाले ने इस सृष्टि का निर्माण कुछ इस तरह से किया है कि सभी इंसानों में कोई न कोई फर्क होता है। कोई भी परिपूर्ण नहीं होता। सभी खूबसूरत नहीं होते। फिर भी जीने और संघर्ष करने की लालसा बनी रहती है। जिन्दा इंसानों की यही पहचान है। यह क्या बात हुई कि आप छोटी-छोटी समस्याओं को ऐसा पहाड मान लें जिसे लांघा ही नहीं जा सके। यहां पर कितनों की नाक अच्छी नहीं है। कितनों को लगता है कि उनका चेहरा किसी को आकर्षित नहीं करता। लोग उन्हें नजरअंदाज कर देते हैं और भी कई तकलीफें होती हैं, लेकिन वे आत्महत्या तो नहीं कर लेते। ऐसी कोई समस्या नहीं है जिसका कोई हल न हो। कुछ लोग हल तलाशने की पहल ही नहीं करते। उन्हें सकारात्मक सोच के साथ संघर्ष की बजाय मौत को गले लगाना आसान लगता है। सच तो यह है कि तनाव, हताशा, चिंता हर किसी के हिस्से में आते हैं। इनसे छुटकारा पाने के अनेकों रास्ते हैं। इनसे घबराकर मौत का दामन थाम लेना कायरता है। ऊपर वाले की उपहार स्वरूप बख्शी जिन्दगी का घोर अपमान है। हर्षा और अंशु जैसे लोग ही जिन्दगी की कीमत समझते हैं।
खिचलीपुर की आशावादी हर्षा वर्षों तक केवल इस उम्मीद से जीती रही कि वो सुबह जरूर आएगी जब उसका लीवर ट्रांसप्लांट हो जाएगा और वह सामान्य जिंदगी जी पाएगी। हर सुबह नई उम्मीद लेकर आती थी। उसे उम्मीद थी कि सरकार या कोई उसकी मदद के लिए जरूर सामने आयेगा। इसी इंतजार में १५ साल बीत गये। उसका लीवर ट्रांसप्लांटेशन नहीं हो पाया, लेकिन फिर भी उसने उम्मीद का दामन नहीं छोडा। अंतत: वह इंतजार करते-करते चल बसी। हर्षा अपने पीछे छह साल का मासूम बेटा छोड गई है। वह अपने बेटे को पढा-लिखाकर बडा आदमी बनाना चाहती थी। उसे बेटे से बेहद लगाव था। उसी के लिए ही वह जीना चाहती थी। सरकार और प्रशासन ने उसकी नहीं सुनी। किसी ने भी मदद के लिए अपना हाथ आगे नहीं बढाया। लेकिन हर्षा ने भी आखिर तक अपना हौसला बरकरार रखा।
अंशु जब दसवीं में पढती थी तब एक मनचले एक तरफा प्यार करने वाले युवक ने तेजाब फेंककर उसके चेहरे की रंगत बिगाड दी थी। शुरू-शुरू में अंशु दर्पण में अपना चेहरा देखने से कतराती थी। उसने धीरे-धीरे खुद को संभाला और अपना भविष्य संवारने की कसम खा ली। लोग उसके चेहरे को नुमाइश की वस्तु समझ तमाशबीन की तरह घूरते रहते और वह बेपरवाह रहती। तरह-तरह की मुश्किलों का हिम्मत के साथ सामना करते हुए उसने अपनी पढाई जारी रखी और अपने सपने को भी साकार कर दिखाया। आज वह लखनऊ के एक नामी कैफे में काम कर पंद्रह हजार रुपये महीना कमाती है और अपने भाई-बहनों के भविष्य को संवारने में लगी है। उसके चेहरे पर हमेशा छायी रहने वाली मुस्कान कइयों को हौसला प्रदान करती है। अंशु का अभी बहुत दूर तक जाने और सफलता का परचम लहराने का इरादा है। किसी कवि की कविता की यह पंक्तियां यकीनन बहुत कुछ कह देती हैं :
"तेरे पास जो है उसकी कद्र कर
यहां आसमान के पास भी खुद की जमीं नहीं है...।"

Thursday, January 4, 2018

कामांधों के चक्रव्यूह

वह एक मॉडल है। तय है कि खूबसूरत है। २०१७ के दिसंबर महीने में वह दिल्ली के एक चौराहे पर खडी थी। राजधानी के चौराहे पर कोई हसीना खडी हो और लोग उसे देखे बिना निकल जाएं ऐसा कम ही होता है। एक सज्जन जिनका नाम सतीश है वे उसे लगातार घूर रहे थे। कहां जाना है, वह यह भी भूल गए थे। जब मॉडल ने लगातार अश्लील हाव-भाव के साथ घूरने का विरोध किया तो सतीश ने कहा कि  मैडम आप बेहद खूबसूरत हैं... आपको तो फिल्मों में होना चाहिए। यहां क्या कर रही हैं! अपनी प्रशंसा के बोल सुन मॉडल गदगद हो गई। वह वर्षों से हिंदी फिल्मों के पर्दे पर चमकने के सपने देखती चली आ रही थी। सतीश ने उसे बताया कि उसकी बॉलीवुड में अच्छी-खासी पहचान है। कई फिल्म डायरेक्टरों से उसकी करीबी यारी है। वह उसे चुटकी में बॉलीवुड में फिल्में दिला देगा। इसके बाद दोनों ने एक दूसरे के नम्बर ले लिए और आपस में मिलने-जुलने लगे। कई बार बाहर खाना खिलाने के बाद सतीश ने उसे एक होटल में बुलाया जहां उसने अपने दो दोस्तों के साथ मिलकर सामूहिक दुष्कर्म को अंजाम दे डाला। इसी दौरान मॉडल को दोस्ती और सुनहरे भविष्य का हवाला देकर शराब भी पिलायी गयी। सामूहिक दुष्कर्म का दंश झेलने वाली १८ वर्षीय मॉडल गहरे सदमें में चली गई। उसके लिए बोल पाना मुश्किल हो गया। सतीश और उसके साथी आरोपियों का तर्क था कि मॉडल का आरोप निराधार है। सबकुछ उसकी रजामंदी से हुआ। इसमें उनका कोई दोष नहीं है। मॉडल दर्जनों भोजपुरी संगीत एलबम व भजनों की एल्बम में काम कर चुकी है। कई एल्बम में उसने डांस भी किया है। बॉलीवुड फिल्मों में काम पाने के लालच में तथाकथित बलात्कार का शिकार होने वाली मॉडल की तरह कई युवतियां प्रलोभन का जाल फेंकने वाले शिकारियों के चंगुल में फंसती रहती हैं। सवाल यह भी उठता है कि क्या इसके लिए सिर्फ शिकारी ही दोषी हैं, क्या अपने सपनों और इच्छाओं को पूरा करने के लालच का इसमें कोई योगदान नहीं है?
दिल्ली में एक ऐसे आध्यात्मिक आश्रम का पर्दाफाश हुआ जहां पर लडकियों और महिलाओं को सात तालों के पीछे जानवरों की तरह रखा जाता था। इस आश्रम का कर्ताधर्ता बाबा वीरेंद्र देव दीक्षित खुद को शिव का अवतार मानता है। जब आश्रम का काला सच बाहर आया तो देशवासी एक बार फिर से हतप्रभ रह गए। सवाल उठा कि आखिर इस देश में कितने आसाराम, राम रहीम भरे पडे हैं? ढोंगी संतों की शर्मनाक दास्तानें सुनने और पढने के बाद भी लोग क्यों नहीं जागते? कौन से कारण हैं जो इतनी बडी संख्या में लडकियां और महिलाएं इनकी शरण में खुशी-खुशी पहुंच जाती हैं। माता-पिता भी अपनी बेटियों को इन अय्याशों के यहां रहने के लिए भेज देते हैं? दीक्षित के देश में एक नहीं अनेकों आश्रम हैं जहां पर कई माता-पिता अपनी बच्चियों को इसलिए छोड जाते हैं कि उन्हें आध्यात्मिक ज्ञान मिलेगा। वे ज्ञानवान बनेंगी। समाज में उनकी प्रतिष्ठा बढेगी। बेटियों की पढाई-लिखाई का खर्चा भी बचेगा। यह भी घोर ताज्जुब की बात है कि जब यह नकाबपोश पकडे जाते हैं तब ही लोगों की जुबानों पर लगे ताले टूटते हैं और नई-नई चौंकाने वाली कहानियां सामने आती हैं। राजनेता तो देख कर भी अनदेखी करने का धर्म निभाते रहते हैं। प्रशासनिक अमला भी अंधे की भूमिका निभाता है। ७४ वर्षीय वीरेंद्र देव दीक्षित आध्यात्मिक विश्व विद्यालय के नाम पर आसाराम, राम रहीम जैसे कपटियों की तर्ज पर नारियों का यौन शोषण कर इंसानियत की धज्जियां उडाता चला आ रहा था। पडोसियों ने यह खुलासा भी किया कि रात के समय कामुक बाबा के आश्रम की गतिविधियों में बेहद तेजी आ जाती है। आधी रात के समय लडकियां बाहर भेजी जाती हैं। दिल्ली पुलिस के एक हवलदार ने कई बार यहां की लडकियों को आलीशान गाडियों में बाहर जाते देखा, लेकिन तब उसने इसका किसी से जिक्र करना जरूरी नहीं समझा। यकीनन इसकी यह वजह भी रही होगी कि पुलिस के कई उच्च अधिकारी बाबा पर मेहरबान थे। इस मेहरबानी का प्रतिफल भी उन्हें मिलता ही रहा होगा। इसी वरदहस्त के चलते वह वर्षों तक कुकर्म करता रहा। छापा मार कर छुडायी गई १०० से अधिक लडकियां बदहवास हालत में मिलीं। यानी उन्हें ड्रग्स का आदी बना कर भोग की वस्तु बना दिया गया था। कुकर्म के इस आश्रम में लडकियों और महिलाओं के लिए खुली हवा में सांस लेने का अधिकार भी छीन लिया गया था। कमरों में धूप ही नहीं पहुंचती थी। इसलिए कई तरह की बीमारियों ने उन्हें जकड लिया था। आश्रम की दीवारें इतनी ऊंची कि पडोसियों को कभी पता ही नहीं चल पाता था कि भीतर कौन-सा कारोबार चल रहा है। कई अभिभावक अपनी बेटियों को लेने आते तो उन्हें भगा दिया जाता। मारपीट भी की जाती। आश्रम से मुक्त करायी गई कुछ महिलाओं ने बताया कि यहां लडकियों का ब्रेनवाश कर दिया जाता था। बाबा उन्हें कहता था कि अगर वे उससे शारीरिक संबंध बनाएंगी तो वे पार्वती और जगदंबा बन जाएंगी। उन्हें स्वर्गीय आनंद मिलेगा और मोक्ष की प्राप्ति होगी। वीरेंद्र देव दीक्षित महिलाओं को झांसा देता था कि मैं ही भगवान कृष्ण हूं। जैसे उनकी कई रानियां थीं, वैसे ही मेरी भी हैं। तुम मेरी रानी बन कर रहोगी तो दुनिया की सभी खुशियां तुम्हारे कदमों तले होंगी।
उत्तरप्रदेश की राजधानी लखनऊ के एक मदरसे में पढने वाली नाबालिग लडकियों के साथ यौन शोषण किये जाने की खबर ने इस सच पर एक बार फिर से मुहर लगा दी है कि अय्याशी और पाखंड के कारोबार में हर धर्म के व्याभिचारी शामिल हैं। पवित्र स्थानों पर गंदे और कपटी लोग काबिज हो गए हैं। मदरसे में यौन शोषण का शिकार होने वाली लडकियों को देहभोगी प्रबंधक की करतूतों को उजागर करने के लिए पर्चियों का सहारा लेना पडा। कुछ लोगों को मदरसे के पास से गुजरते हुए मुडी-तुडी पर्चियां पडी नजर आर्इं तो उन्होंने उठाकर पढा तो उन्हें मदरसे के प्रबंधक कारी तैयब जिया की शर्मसार करतूतों का पता चला। एक पर्ची में किसी पीडित आठवीं क्लास में पढने वाली लडकी ने लिखा था- "अस्लाम वालेकुम, एक रात कारी ने एक लडकी को बुलाया और उसके साथ बहुत बुरा किया। ये रोज किचन में जाता है और लडकियों को बुलाता है।" ऐसी ही और भी कई पर्चियां मिलीं जिनमें कारी के द्वारा डरा-धमकाकर लडकियों का यौन शोषण किये जाने की आपबीती बयान की गई थी। इन पर्चियों के सामने आते ही कई लोग आग बबूला हो गये। बात पुलिस तक पहुंची। ५१ लडकियों को मदरसे के हॉस्टल से मुक्त कराया गया। कुछ लोगों ने मुंह खोला कि प्रबंधक का एक फार्म हाऊस है, जहां पर वह लडकियों को अपनी कार में बैठाकर ले जाता है। उसके रसूख के चलते तब कभी किसी ने मुंह खोलने की हिम्मत नहीं की। यह सोचने की बात है कि जब देश और प्रदेश की राजधानी में अस्मत लूटने वाले इस कदर बेखौफ सक्रिय हैं तो देश के शहरों और ग्रामों में धर्म और शिक्षा की आड में कैसे-कैसे व्याभिचारी अपनी मनमानी कर रहे होंगे। यह भी सच है कि महानगरों में होने वाले दुष्कर्म तो कभी-कभार उजागर हो जाते हैं, लेकिन गांवो-कस्बों के पाखंडियों का असली चेहरा बहुत कम सामने आ पाता है।