Thursday, July 28, 2011

धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटाता देश

राष्ट्रमंडल खेलों में अरबों-खरबों के वारे-न्यारे करने के आरोपी सुरेश कलमाडी के बारे में एक अजब-गजब जानकारी आयी है कि उन्हें भूल जाने की बीमारी है। वैसे अभी तक नेताओं को लपेटे में लेने वाली कई तरह की बीमारियों के बारे में सुना और जाना जाता था पर स्मृतिलोप नामक यह नयी बीमारी अचंभित कर देने वाली है। यह बीमारी इंसान को भुलक्कड बना देती है। कलमाडी के परिजनों का कहना है कि यह उनकी पुरानी बीमारी है।अभी तक तो हम यही सुनते आये थे कि नेताओं की स्मरण शक्ति लाजवाब होती है पर यहां तो उल्टा हो गया! खिलाडि‍यों के खिलाडी के घरवालों का यह भी कहना है कि कलमाडी कई बार तो कल का खाया-पिया भी याद नहीं रख पाते। इस अजूबी खबर को जिसने भी सुना वह हैरान होने के बजाय भ्रष्ट नेताओं की कौम को कोसता नजर आया। खुद को बचाने के लिए ये लोग किसी भी हद तक जा सकते हैं। अपने यहां वैसे भी ऐसे-ऐसे महंगे वकीलों की अच्छी-खासी तादाद है जो अपने मुवक्किल को पाक-साफ दर्शाने के लिए तरह-तरह की तरकीबें खोजते रहते हैं। तय है कि जेठमालानी टाइप के किसी वकील ने अपना दिमाग लडाया है और भ्रष्टाचारी की याददाश्त खो जाने की खूबसूरत कहानी गढ कर पेश कर दी है। पर अब देशवासी ऐसी कहानियों पर कतई यकीन नहीं करते। कानून की आंख में धूल झोंकने के लिए गढी गयी इस कहानी ने एक बार फिर यह सिद्ध कर दिया है कि इस मुल्क के नेता आम जनता को बेवकूफ बनाने के लिए नये-नये बहाने और तरीके तलाशने में कोई कसर नहीं छोडते। यह लोग अक्सर कामयाब भी हो जाते हैं। दरअसल इनका कोई ईमानधर्म ही नहीं है। अब टू जी स्पैक्ट्रम घोटाले में जेल की हवा खा रहे पूर्व दूरसंचार मंत्री की याददाश्त वापिस लौट आयी है। वे चिल्ला-चिल्ला कर कह रहे हैं कि मैंने जो कुछ भी किया उसकी पूरी जानकारी प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह और गृहमंत्री पी. चिदंबरम को थी। भारतीय जनता पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष गडकरी ने प्रधानमंत्री के इस्तीफे की मांग कर डाली है। यह बात दीगर है कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री येदियुरप्पा से इस्तीफा लेने में उनका पसीना छूट गया। कांग्रेस के एक नेता मणिशंकर अय्यर की निगाह में कांग्रेस पार्टी एक सर्कस है। परंतु सजग देशवासियों को हर राजनीतिक पार्टी के रंग-ढंग सर्कस जैसे नजर आते हैं। इस सर्कस में जोकर भी हैं और लुटेरे भी जिन्होंने देश का तमाशा बनाकर रख दिया है। इनके बेशर्म तमाशों से उकता कर अदालत को हंटर उठाने को विवश होना पड रहा है। क्या यह सरकार के लिए शर्म की बात नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को उसे बार-बार फटकार लगानी पडती है और उसके बाद ही वह जागती है। २२ अगस्त २००८ के दिन कैश फॉर वोट कांड का मामला सामने आया था। इस संगीन मामले को दबाने के भरसक प्रयास किये गये। सरकार ने तो आंखें ही मूंद ली थीं। पर कोर्ट की लताड के बाद हलचल शुरू हो पायी। सत्ता के दलाल अमर सिं‍ह कटघरे में हैं। अमर सिं‍ह ही खरीद फरोख्त और लेन-देन की असली कडी थे। पाठक मित्रों को याद होगा कि अमेरिका से एटमी करार के मुद्दे पर वाम मोर्चा के साठ सांसदों ने मनमोहन सरकार से जब समर्थन वापस ले लिया था तब सरकार की सिट्टी-पिट्टी गुम हो गयी थी। यदि उस संकट के समय समाजवादी पार्टी और कुछ अन्य छोटे दल समर्थन नहीं देते तो सरकार धराशायी हो जाती। तब भाजपा के तीन सांसदो ने लोकसभा में विश्वास मत से ठीक पहले एक करोड रुपयों की नोटों की गड्डियां लहराते हुए धमाका किया था कि उन्हें गैरहाजिर रहने के लिए यह नोट दिये गये हैं। यह एक तरह से लोकतंत्र की हत्या का मामला था। हत्यारों में अमर सिं‍ह के साथ-साथ सोनिया गांधी के खासमखास अहमद पटेल ने भी सुर्खियां बटोरी थीं। पर धीरे-धीरे शोर थम गया और राजनीति के दलाल दूसरे कामों में लग गये। इस तरह के और भी कई मामले हैं जिन्हें नेताओं ने मीडिया को खुश करते हुए आसानी से दबाकर रख दिया है। कैश फार वोट के मामले में यदि मीडिया का एक वर्ग अपना जमीर नहीं बेचता तो इसका तभी पर्दाफाश हो जाता। पर जहां चोर-चोर मौसेरे भाइयों का वर्चस्व हो वहां सच्चाई के सामने आने की उम्मीद रखना खुद को धोखा देने से ज्यादा और कुछ नहीं है। ऐसे में अगर यह कहा जाए कि हमारा मुल्क धोखेबाजों की गिरफ्त में छटपटा रहा है तो गलत नहीं होगा।

Thursday, July 21, 2011

जरूरी है जयचंदो की शिनाख्त

खबर है कि भारत सरकार ने हाल ही में दो अत्याधुनिक विमान खरीदें हैं। हर तरह के सुरक्षा उपकरणों से सुसज्जित इन विमानों की कीमत सैकडों करोड रुपये है। इन्हें खासतौर पर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री के लिए मंगवाया गया है ताकि उडान के दौरान उन पर कोई आंच न आए। इस देश में १० करोड ऐसे बदनसीब हैं जिन्हें भरपेट खाना नहीं मिल पाता। खुले आकाश के नीचे अपनी रातें गुजारने वालों की संख्या भी बेहिसाब है। आम लोगों की सुरक्षा का कहीं अता-पता नहीं है। शासकों के पास इनकी चिं‍ता करने का समय ही नहीं है। वे अपनी ही लडाई में उलझे हैं। इस मनमोहन सरकार का क्या हश्र होगा कुछ भी समझ में नही आ रहा है। यह तय है कि इससे कोई भी खुश नहीं है। चारों तरफ असंतोष के बादल मंडरा रहे हैं। सरकार के प्रति लोगों का विश्वास इस कदर घट चुका है कि अब वे मानने लगे हैं कि यह सरकार उनके किसी काम की नहीं। पर कोई विकल्प भी नहीं है। आखिर करें तो क्या करें! मुंबई में हुए सीरियल बम धमाकों ने तो जैसे लोगों को जागने के लिए विवश कर दिया है। जागे हुए लोग स्पष्ट देख रहे हैं कि आतंकवादियों से निपटने के लिए यह सरकार खुद को तैयार नहीं कर पा रही है। इच्छाशक्ति का तो जैसे दिवाला ही पिट गया है। देश में जितनी बार भी बम धमाके हुए हैं सभी में कहीं न कहीं इनके पीछे पाकिस्तान खडा दिखायी दिया है पर मनमोहन सरकार हाथ पर हाथ धरे रहने के सिवाय और कुछ भी नहीं करना चाहती। कांग्रेसी जिस राहुल गांधी को येन-केन प्रकारेन देश का प्रधानमंत्री बनाने पर तुले हैं वे कहते हैं कि देश में होने वाली सभी आतंकवादी घटनाओं को रोकना संभव नहीं है। कांग्रेसियों के इस भावी प्रधानमंत्री ने यह कहकर देशवासियों को अचंभे में डाल दिया है। राहुल गांधी से तो लोग कुछ और ही उम्मीद लगाये हुए थे। उनका बयान यह कहता प्रतीत होता है कि सरकार के पास और भी कई काम हैं। यही एक समस्या नहीं है जिसपर वह हर वक्त माथापच्ची करती रहे। देशवासी मनमोहन सरकार की कमजोरी से अच्छी तरह से वाकिफ हो गये हैं। यही कमजोरी है जिसके चलते आतंकियों के मंसूबे आसानी से पूरे होते चले आ रहे हैं और सरकार चलानेवाले जख्मों पर मरहम लगाना छोड पडौसी देश के हौसले बढाने के काम में लगे हैं। १३ जुलाई को हुए मुंबई बम धमाकों में अपनी जान गंवाने वाले मृतकों के परिजनों और घायलों के दिल पर क्या बीती होगी जब उन्होंने कांग्रेस के महान नेता दिग्विजय सिं‍ह के यह बोलवचन सुने होंगे कि इन धमाकों के पीछे हिं‍दू कट्टरवादियों का हाथ हो सकता है। बिना किसी सबूत के इतनी बडी बात कह गुजरने वाले नेताजी के लिए तो यह रोजमर्रा का काम है पर जिन्होंने अपनों को खोया है उनके लिए तो यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं हो सकती। इस तरह की भ्रामक बयानबाजी करने वाले नेताओं की कौम यह भूल गयी है कि उनके यही बयान आतंकवाद के पोषक पाकिस्तान तक यह संदेश पहुंचाते हैं कि हिं‍दुस्तान के नेता तो एक दूसरे पर कीचड उछालते रहते हैं। इनमें एकता का नितांत अभाव है इसलिए इनके देश में बम-बारुद बिछाते रहो और इन्हें आपस में लडाते रहो। पाकिस्तान अपने मकसद में कामयाब होता चला आ रहा हैं। ये नेताओं के ही बयान हैं जो देशवासियों के दिलों में भी एक-दूसरे के प्रति संदेह के बीज बोने का भी काम करते हैं। आतंकवाद से लडने के लिए सही सोच और सही राह पर चलने की बजाय राजनीतिक रोटियां सेंकने में लगे नेताओं को अहमदाबाद की रेशमा से सबक लेना चाहिए जिसने देशभक्ति का अद्वितीय उदाहरण पेश किया है। अहमदाबाद में शहजाद नामक एक शख्स को गिरफ्तार किया गया है जो अवैध हथियारों को बेचने के साथ-साथ आतंक और हिं‍सा फैलाने के लिए अपने घर में ही बम बनाया करता था। यह लगभग निश्चित है कि उसकी इस कारस्तानी से कुछ लोग तो जरूर वाकिफ रहे होंगे पर किसी ने भी उसके इस राष्ट्रद्रोही कृत्य का पर्दाफाश करने की हिम्मत नहीं दिखायी। आतंकवादी गतिविधियों में लिप्त शहजाद का भंडाफोड करने की पहल की उसी की पत्नी रेशमा ने। रेशमा ने पुलिस को फोन पर बताया कि उसका पति बम बनाता है। पुलिस ने शहजाद को आठ बमों के साथ गिरफ्तार भी कर लिया है। रेशमा ने अपने पति को नहीं, एक राष्ट्रद्रोही को सीखंचों के पीछे पहुंचाने में अहम भूमिका निभायी है। इसके लिए उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाए कम होगी। यह तो तय हो चुका है कि आतंकवादियों और अपराधियों का कोई धर्म नहीं होता। न ही उनका किसी से कोई रिश्ता-नाता होता है। पर अक्सर देखा गया है कि अधिकांश लोग अपने आसपास चलने वाली संदिग्ध गतिविधियों को जानबूझकर या फिर भय के चलते नजरअंदाज कर देते हैं। आगे जाकर यही गलती बहुत भारी पडती है। लोग यह मानकर चलते हैं कि किसी को पकडने या पकडवाने का काम तो पुलिस के जिम्मे है। हम क्यों बेकार में आफत मोल लें। पर इस तथ्य को याद रखें कि देश की सुरक्षा एजेंसियां शक के आधार पर विदेशी चेहरों से तो पूछताछ कर सकती हैं पर अपने ही देश के हर नागरिक को संदेह के आधार पर निशाना नहीं बना सकतीं। जयचंद तो कहीं भी हो सकते हैं। हजारों मील बैठे मौत के सौदागरों के हाथ इतने लंबे हैं कि वे जयचंदो तक अपनी पहुंच बना ही लेते हैं। गद्दारों के ईमान को खरीदना बहुत आसान होता हैं। आसपास के गद्दारों की भी शिनाख्त होना निहायत जरूरी है और यह काम हम सबको मिलजुल कर करना होगा। नेताओं की तरह हवा में तीर छोडने से बात नहीं बनेगी...।

Thursday, July 14, 2011

हादसे, दुर्घटनाएं और साजिशें

जिस तरह से यह देश राम भरोसे चल रहा है वैसे ही हाल भारतीय रेल के हैं। दौडते-दौडते कब-कोई ट्रेन दुर्घटनाग्रस्त हो जाए कुछ कहा नहीं जा सकता। बीते रविवार को दो रेल हादसे हो गये। हावडा से दिल्ली आ रही कालका मेल उत्तरप्रदेश के फतेहपुर में मलवां स्टेशन के निकट दुर्घटनाग्रस्त हो गयी। दूसरी तरफ असम में गुवाहटी-पुरी एक्सप्रेस के छह कोच और इंजन पटरी से उतर गये। इस हादसे में लगभग १०० लोग घायल हुए। कालका मेल के पटरी से उतरने के कारण अस्सी से अधिक यात्रियों को जान गंवानी पडी और तीन सौ से ज्यादा यात्री घायल हुए। देश के हुक्मरानों के लिए ऐसी दर्दनाक दुर्घटनाएं कोई मायने नहीं रखतीं। उनके लिए यह आम बात है। हर दुर्घटना के बाद वे अपना फर्ज निभा देते हैं। मृतकों के परिवारों को कुछ लाख रुपये और घायलों को पच्चीस-पचास हजार पकडाकर चैन की नींद सो जाते हैं। भारतीय रेल की बदौलत सरकार के खजाने में अपार धन बरसता है पर यह धन पता नहीं कहां चला जाता है? अगर इस धन का सदुपयोग किया जा रहा होता तो रेल यात्रियों को बुनियादी सुविधाओं के लिए न तरसना पडता। सुविधाओं की जगह यातनाएं और मौत बांटने वाले रेलवे के कर्ताधर्ता आखिर हादसों से सबक क्यों नहीं लेते? लोगों की बेशकीमती जान चली जाती है और यह चंद सिक्के फेंककर ऐसे चलते बनते हैं जैसे किसी भिखारी को दान दे रहे हों! यह शर्मनाक सिलसिला वर्षों से चला आ रहा है। देश में जहां-तहां रेल दुर्घटनाएं होती रहती हैं। शोर मचता है। रेल मंत्रालय की तरफ से दुर्घटना के पीछे के कारणों की जांच कराये जाने की घोषणा होती है। पर जांच कभी नहीं होती। घोषणावीर जानते हैं कि जांच करवायेंगे तो खुद ही नंगे नजर आयेंगे। यही हैं जो देशवासियों को सपने दिखाते हैं कि शीघ्र ही भारत वर्ष में भी चीन और जापान की तरह ढाई से तीन सौ किलो मीटर की रफ्तार से दौडने वाली रेलगाडि‍यां नजर आयेंगी। इनसे कोई यह तो कहे कि सपनों के सौदागरों पहले सौ किलोमीटर की रफ्तार को तो संभालो फिर बाद में चीन और जापान के सपने दिखाना।नये रेलमंत्री गद्दी संभालते ही देशवासियों को यह बताना नहीं भूले कि रेल दुर्घटनाएं तो अमेरिका और यूरोप में भी होती रहती हैं। यानी ऐसे में अगर भारत में हो रही हैं तो कौन-सा तूफान टूट पडा है। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी के पिट्ठू दिनेश त्रिवेदी रेलमंत्री के रूप में क्या गुल खिलायेंगे उसका अंदाजा उनके उपरोक्त बयान से सहज ही लगाया जा सकता है। वैसे भी रेलमंत्री का पद अपने-अपने राजनीतिक स्वार्थ साधने और माल कमाने का सहज ठिकाना है। जो भी नेता रेलमंत्री बनता है उसे देश की चिं‍ता कम और अपने प्रदेश की चिं‍ता ज्यादा रहती है। लालू प्रसाद यादव, राम विलास पासवान और ममता बनर्जी जैसों का रेलमंत्री के रूप में किया गया कामकाज इसका गवाह है। होना तो यह चाहिए था कि देश की इस सबसे बडी यातायात सेवा पर देशवासी नाज करते। पर रेलवे को तो राजनीतिक हितों के हवाले कर दिया गया है। जो भी आता है अपने हिसाब से इसका दोहन कर चलता बनता है। किसी भी रेल मंत्री ने आंखें खोलकर हकीकत से रूबरू होने की कोशिश नहीं की। रेलवे की आधी से अधिक पटरियां इतनी पुरानी हो चुकी हैं कि उन्हें कबाडखाने के हवाले कर दिया जाना चाहिए। अनेकों पुल भी ऐसे हैं जिनके समीप पहुंचते ही रेल के ड्राइवरों का संभावित खतरे के भय के मारे पसीना छूटने लगता है। यह जर्जर पुल कभी भी धोखा दे सकते हैं। देश भर में ऐसे रेल फाटकों की संख्या लगभग बीस हजार के आसपास होगी जहां पर चौकीदारों की नियुक्ति नहीं की गयी है। ऐसे अंधे स्थानों पर अंधाधुंध दुर्घटनाएं होती रहती हैं और रेल मंत्रालय धन की कमी का रोना रोता रहता है और रेल मंत्री मौज मनाते रहते हैं। दरअसल मंत्रियों और नौकरशाहों की जमात इतने संवेदनहीन हो चुकी है कि उन पर बडी से बडी दुर्घटना कोई असर नहीं डालती। हर बार जब रेलवे का बजट बनता है तो नयी-नयी गाडि‍यां चलाने की घोषणा करने में कोई भी रेलमंत्री पीछे नहीं रहता, लेकिन वर्षों से सिर ताने खडी मूलभूत समस्याओं की ओर किसी का ध्यान नहीं जाता। पटरियों पर होने वाली टक्कर को रोकने के लिए टक्कर रोधी उपकरण लगाने की पहल करना किसी भी रेलमंत्री ने जरूरी नही समझा।मंत्रीजी को तो दुर्घटनाओं में मर-खप जाने वालों के परिवारों को मुआवजा राशि थमा कर शांत कर देने का चलन फायदे का सौदा नजर आता है। यात्रियों को बुलेट ट्रेन मुहैय्या कराने के सपने दिखाने वालों की पोल कालका मेल हादसे ने पूरी तरह से खोल कर रख दी हैं। रेलवे विभाग के पास दुर्घटनाग्रस्त हुई ट्रेन के डिब्बों में फंसे यात्रियों तक पहुंचने, डिब्बों की दिवारों को काटकर फंसे हुए यात्रियों को बाहर लाने के लिए पर्याप्त संख्या में गैस कटर तक नहीं थे। यही वजह थी कि कई यात्री जिन्हें बचाया जा सकता है देखते ही देखते मौत के चंगुल में जा फंसे। अगर गैस कटर होते तो मौत के आकडे को कम किया जा सकता था। गैस कटर कोई ऐसी कीमती चीज नहीं है कि जिन्हें भारतीय रेलवे खरीदने की औकात न रखता हो। यही हाल अन्य सहायता सुविधाओं का भी है। दुर्घटना घट जाती है तो रेलवे की सहायता ट्रेनों का अता-पता नहीं रहता। कालका मेल की दुर्घटना के शिकारों को जिन सरकारी अस्पतालों में भर्ती कराया गया वहां पर बुनियादी सुविधाएं ही नदारद थीं। कुछ घायल तो अस्पताल में ही चोरों के शिकार हो गये। सरकार ने जो सहायता राशि दी थी उसे ही उडा लिया गया। कई घायलों को सरकारी अस्पतालों को छोड प्रायवेट अस्पतालों की शरण लेनी पडी। अस्पताल में राहुल गांधी के पहुंचने की खबर सुनकर बिस्तरों पर धुली हुई चादरें बिछायी गयीं। एक घायल पर तो पंखा जा गिरा। सरकारी अस्पतालों के लिए यह रोजमर्रा का खेल है। जब सरकार ही नकारा हो तो सुधार की अपेक्षा रखना बेवकूफी से ज्यादा और कुछ नहीं है। कमजोर और निकम्मी सरकारें ही हादसों को निमंत्रण देती हैं और इन्हीं के कारण पडोसी देश पाकिस्तान के पाले-पोसे आतंकवादी बेखोफ बम बारुद बिछाकर निर्दोष भारतवासियों का खून बहाने से नहीं हिचकिचाते।

Thursday, July 7, 2011

कुछ तो करो सरकार!

विदेशों में जमा कालाधन वापस न लाने पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को फटकार लगायी है। फटकार तभी लगायी जाती है जब कोई सुन कर भी अनसुना कर देता है। देश की सरकार के भी यही हाल हैं। अंधी और बहरी सरकार के मुंह पर तमाचा मारते हुए उच्चतम न्यायालय ने विदेशों में जमा काले धन की जांच और उसे वापस लाने के उपायों की निगरानी के लिए एक उच्चस्तरीय विशेष जांच दल का गठन कर यह संकेत भी दे दिये हैं कि अगर शासक इसी तरह से सोये रहे तो उसे ही पहल करनी पडेगी। वैसे सरकार भी कम चालाक नहीं है। वह भी हमेशा यही कहते नहीं थकती कि उसे भी देश की चिं‍ता है और वह भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने और काले धन को वापस लाने की मंशा रखती है। सरकार यह संकेत देना भी नहीं भूलती कि भ्रष्टाचार को रातोंरात खत्म नहीं किया जा सकता। सरकार कहती तो बहुत कुछ है पर करती कुछ खास नहीं। पहाड को हिलाने के लिए उंगली लगाना काफी नहीं होता। पर सरकार का तो कुछ ऐसा ही रवैय्या दिखायी देता हैं। सरकारें पता नही इतनी बेरहम और असंवेदनशील क्यों हो जाती हैं कि वे अपने ही देश के करोडों लोगों की गरीबी और बदहाली को नजर अंदाज कर चंद लोगों की तिजोरियां भरने के स्वार्थ में फंस कर रह जाती हैं! यह देश गरीब तो कतई नहीं है। अगर गरीब होता तो इसकी दौलत विदेशों में नही सड रही होती। अगर यह गरीब होता तो मंदिरों और देवालयों में अरबों-खरबों के हीरे-जवाहरात और सोना-चांदी ना भरे पडे होते। दरअसल इस देश को गरीब बनाया है उस सोच ने जो इंसानों को तो कुचल डालना चाहती है पर बाबाओं और पत्थर की मूर्तियों को पूजते रहना चाहती है। उसके लिए जीते जागते इंसानों की कोई कीमत नहीं है। इस देश में न जाने कितने ऐसे मंदिर और अखाडे हैं जहां अरबों-खरबों के भंडार भरे पडे हैं। कुछ पाखंडी साधु-संन्यासी और पंडे इस अपार धन-दौलत का सुख भोग रहे हैं और देश की गरीबी को चिढा रहे हैं। इन दिनों श्री पद्मनाभ स्वामी मंदिर का नाम देश और दुनिया में छाया हुआ है। अभी तक तो यह मंदिर देश में भी उतना जाना-पहचाना नहीं था। इस मंदिर से मिले खरबों रुपये के खजाने ने हर किसी को चौंका कर रख दिया है। एक लाख करोड रुपये कम नहीं होते। इनसे लाखों लोगों का जीवन संवर सकता है। इस मंदिर के तहखानों में से जो बेहिसाब दौलत निकली है वह तो कुछ भी नहीं है। अभी तो असली रहस्य से पर्दा उठना बाकी है। मंदिर के खजाने को लेकर देश भर में बहसबाजी का दौर भी चल पडा है। कई लोग यह चाहते हैं कि इस धन का जन कल्याण हेतु सदुपयोग होना चाहिए। तर्कशास्त्री यू. कलनाथन जैसे लोगों का मानना है कि यह धन भी इस देश के लोगों का है इसलिए इसे उनके कल्याण के लिए खर्च करने में कोई हर्ज नहीं है। वैसे भी जो धन किसी के काम न आए और पडे-पडे सड जाए उसका क्या फायदा? हीरे-जवाहरात, स्वर्ण मुद्राएं, सोने की ईटों और नोटों की गड्डियां किसी संग्रहालय या प्रदर्शनी में रखने की चीज़ नहीं हैं। परंतु इस देश में अपने ही तौर तरीकों के साथ चलने वालों की भरमार है। तभी तो लोगों के कल्याण की बात करने वाले तर्कशास्त्री का विरोध किया जाता है और उन्हें ठिकाने लगाने की कोशिश में उनके घर में तोडफोड और आगजनी की जाती है। तर्क शास्त्री को यह बात भी समझा दी जाती है कि इस देश में अपने दिल की बात उजागर करना गुनाह है। सुप्रीम कोर्ट की मेहरबानी से अभी तो एक ही मंदिर के तहखानों ने इतनी दौलत उगली है जिससे देश के प्रदेश केरल, जहां पर यह मंदिर स्थित है का सारा कर्ज चुका कर प्रदेश के चेहरे की रौनक बढायी जा सकती है। इसी देश में शिरडी का साई मंदिर, मुंबई का सिद्धि विनायक, तिरुपति बालाजी, माता वैष्णोदेवी, श्री सबरीमाला संस्थान जैसे सैकडों मंदिर और पूजालय हैं जहां हीरे-जवाहरात, स्वर्ण मुद्राओं, सोने की इंटों और नोटों के अंबार लगे हैं। इसी देश का दूसरा चेहरा है जहां गरीबी, बदहाली और भूखमरी का साम्राज्य है। न जाने कितने युवक रोजगार न मिलने के कारण अपराधी बनने को विवश हो जाते हैं। देश में आज समस्याओं का अंबार लगा है। अधिकांश समस्याएं धन के अभाव के चलते बनी हुई हैं। देश के साधु-संतो और बाबाओं के साथ-साथ मंदिरों में जो दौलत भरी पडी है उसे उजागर करना और जनहित के काम में लाया जाना वक्त की मांग है। यह धन और दौलत इस देश का कायाकल्प कर सकते हैं। इंसानों की दुनिया में इंसानों से बढकर और भला कौन हो सकता है! जो लोग यह कहते हैं कि मंदिरों की तमाम दौलत भगवान की है तो वे यह क्यों भूल जाते हैं कि इंसानों को भी तो भगवान ने ही पैदा किया हैं। कोई भी पिता अपनी औलादों को भूख से बिलबिलाते नहीं देख सकता। अब यह सरकार सोचे कि उसे क्या करना है। जनता को भी जागना होगा। विदेशों में जमा काला धन तो जब आयेगा तब आयेगा पर देश में जहां-तहां बेकार पडे धन की अनदेखी कब तक होती रहेगी?