Thursday, September 24, 2015

यह नहीं सुधरने वाले

अपने देश के हर प्रदेश की अपनी-अपनी खासियत है, लेकिन बिहार लाजवाब है। अद्भुत और अजूबा भी। इसकी शक्ल बिगाड कर रख देने वाले यहां के नेताओं के क्या कहने! इन होशियारों को खुद के हाल का भी पता नहीं होता। अपने में मस्त रहते हैं। कब क्या कर जाएं, क्या कह जाएं और हंसी के पात्र बन जाएं इसकी भी उन्हें खबर और चिंता नहीं रहती। जातियों से ऊपर उठ पाने में असहाय यह नेता बोलना और हंसवाना खूब जानते हैं। इनकी दोस्ती कभी भी दुश्मनी में बदल सकती है। इनकी राजनीति में कुछ भी स्थायी नहीं है। सत्ता के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं।
जिसने भी यह निष्कर्ष निकाला है उसके दिमाग में यकीनन लालू प्रसाद यादव जैसे जोकर किस्म के नेताओं की छवि बसी हुई होगी। कई लोग यह भी कहते हैं कि लालू तो कुछ ज्यादा ही बदनाम हो गये हैं, बिहार में उन जैसे ही सत्ता चलाते आ रहे हैं। जो लोग सत्ता पाने की होड में हैं उनका चरित्र भी 'जंगलराज' और 'चारा घोटाले' के नायक से अलग नहीं है। लालू प्रसाद यादव को चाहने वाले भी कमाल के हैं। उन्हें अपने नेता के महा भ्रष्टाचारी और घोर मतलबपरस्त होने से कोई फर्क नहीं पडता। खुद लालू भी तो मस्तमौला हैं कहीं कोई शर्म और मलाल नहीं। अगर किसी अन्य प्रदेश का नेता लालू की तरह बार-बार जेल गया होता तो मतदाता उन्हें घास डालना ही बंद कर देते, लेकिन बिहार तो बिहार है जहां जातिवादी नेताओं की जबरदस्त तूती बोलती है। यहां की राजनीति में खोटे सिक्के कभी बाहर नहीं होते। जिस नीतिश कुमार ने कभी चाराबाज की नालायकी और सत्ता की अंधी भूख का ढिंढोरा पीट कर बिहार की सत्ता पायी थी, वही आज लालू-लालू कर रहे हैं। उन्हें करोडों की हेराफेरी करने वाला जोकर एक ऐसा मसीहा लग रहा है जिसके साथ के बदौलत बिहार के करोडों वोटरों को लुभाया और अपना बनाया जा सकता है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतिश की मजबूरी और बेबसी ने अपना मनोबल खो चुके लालू के सपनों को फिर से पंख लगा दिये हैं। लालू को लग रहा है कि वे एक बार फिर से किंगमेकर बनने जा रहे हैं। देश नहीं तो प्रदेश सही। सीढी तो तैयार हो रही है। खुद के लिए नहीं तो बच्चों के लिए ही सही। वंशवाद के खूंटे तो गाडने ही हैं। अपने दोनों लाडलों, तेजप्रताप और तेजस्वी को विधायक का ताज पहनवा कर ही दम लेना है...। लालू के विरासतधारी भी जानते हैं कि पिता के रहते अगर उन्होंने झंडे नहीं गाडे तो बाद में उन्हें कोई नहीं पूछने वाला। पार्टी के समर्पित कार्यकर्ता चिढे हुए हैं। उन्हें अपने मुखिया का पुत्र मोह शूल की तरह चुभ रहा है।
वैसे भी देश की राजनीति वंशवाद और भाई-भतीजावाद के शिकंजे में इस कदर फंस चुकी है कि उसका इससे बाहर निकलना काफी मुश्किल है। राजनीतिक पार्टी के मुखियाओं को अपने परिजनों के अलावा किसी और पर भरोसा नहीं। गैरों के पोल खोलने और बहकने का खतरा बना रहता है। बहुत कम ऐसे कार्यकर्ता होते हैं जिन पर पार्टी सुप्रीमों की कृपा बरसती है। उनका रोल तो सिर्फ झंडा उठाने और नारे लगाने तक सीमित होता है। लोकजन पाटी के सर्वेसर्वा रामविलास पासवान की सत्ता की भूख किसी से छिपी नहीं है। जब से राजनीति में आये हैं, तभी से जिधर दम, उधर हम के उसूल पर चलते चले आ रहे हैं। इस बार अपने दुलारे चिराग को बिहार का मुख्यमंत्री बनाने का उनका सपना है। उन्होंने भी अपने भाई-भतीजों और लोट-पोट हो जाने वाले विश्वासपात्रों को टिकटें देकर पार्टी के लिए वर्षों से खून पसीना बहाते चले आ रहे समर्पित कार्यकर्ताओं के साथ-साथ अपने दामाद का भी बडी बेरहमी से पत्ता काट दिया। बौखलाये दामाद अनिल कुमार साधु ने भी पहले तो बच्चों की तरह बिलख-बिलख कर रोने की नौटंकी की, लेकिन जब कहीं भी दाल गलती नजर नहीं आयी तो बगावत का बिगुल फूंक दिया। दामाद का न्यूज चैनलों पर आकर दहाडना यह भी बता गया कि विधायक और सांसद बनने के लिए ही राजनीति की राह पकडी जाती है। टिकट न मिलने से खफा साधु ने तो शैतानी सुर अलापते हुए ससुर की 'झोपडी' को फूंकने का भी ऐलान कर दिया है। इतिहास गवाह है कि घर के भेदी ही लंका ढहाते आये हैं। राष्ट्रीय लोक समता पार्टी भी अपने समर्पित कार्यकर्ताओं को खुश नहीं कर पायी। अशोक गुप्ता नामक कार्यकर्ता को टिकट मिलने का पूरा-पूरा यकीन था। जब उन्हे पता चला कि उनके साथ धोखा हुआ है तो उन्होंने हाथ-पैर पटक-पटक कर हंगामा खडा कर दिया।
अशोक गुप्ता ने दावा किया कि उन्हें जहां से उम्मीदवार बनाने का आश्वासन दिया गया था, पार्टी अध्यक्ष उपेंद्र प्रसाद कुशवाहा ने दगाबाजी करते हुए अपने समधी को वहां से प्रत्याशी बना दिया। उन्होंने वर्षों तक पार्टी के लिए खून-पसीना बहाया। अपना घर तक बेचकर अध्यक्ष को कार और पचास लाख भेंट कर दिए। टिकट मिलने के पूरे भरोसे के चलते उन्होंने तो जीप खरीद कर अपना चुनाव प्रचार भी प्रारंभ कर दिया था।
दरअसल, यह ऐसी रिश्वतबाजी और सौदेबाजी है जिससे मतदाताओं की आंखों में धूल झोंककर अपना मतलब साधा जाता है। ऐसा कैसे हो सकता है कि देने वाला लेने की नहीं सोचे? राजनीतिक दलों के द्वारा चुनावी टिकटें बेचे जाने की सभी खबरें झूठी तो नहीं होतीं। मायावती, लालू प्रसाद यादव और रामविलास पासवान जैसे नवधनाढ्य पार्टी मुखिया चंदे के नाम पर क्या-क्या नहीं करते! कोई भी दल इस लेन-देन को रोकने की पहल करने की हिम्मत नहीं दिखाता। सभी को पार्टी चलाने के लिए धन चाहिए। टिकटें काटना और बेचना उनकी मजबूरी है। फिर भी वे इस सच को कबूलने में आनाकानी करते हैं! यह भी सच है कि हर बडी राजनीतिक पार्टी के पास अपने-अपने अदानी और अंबानी हैं। छोटी पार्टियां भी कहीं बडे तो कहीं छोटे धनपति खिलाडियों के बलबूते पर चलती हैं। दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश इन्हीं खिलाडियों के चक्रव्यूह में फंस चुका है। कहने को तो राजनेता देश चलाते हैं, लेकिन राजनेताओं की नकेल खिलाडियों के हाथ में ही होती है। इसलिए चुनावों के मौसम में टिकटों के बंटवारे से खफा कार्यकर्ताओं के रोने-धोने और चीखने-चिल्लाने के सिलसिले अनवरत चलते रहते हैं। नया कुछ भी नहीं है।

Thursday, September 17, 2015

न्यूज चैनल पर मारपीट और गाली-गलौज!

समाचार चैनल आईबीएन ७ पर राधे मां को लेकर चल रही गर्मागर्म बहस शर्मनाक मारपीट में तब्दील हो गयी। बेचारे दर्शक भी भौंचक्के रह गए। यह क्या हो गया! कई मनोरंजन प्रेमियों को साधु और साध्वी का आपस में भिडना इतना भाया कि वे बार-बार इस लाइव शो का आनंद लूटते रहे। वाकई अद्भुत घटना थी। ऐसी घटनाएं विदेशी टीवी चैनलों पर आम हैं। वहां पर लाइव शो के दौरान खुद महिला एंकर ही अचानक बेलिबास होकर दर्शकों को अचंभित और मनोरंजित कर देती हैं। भारत में जो नज़ारा सामने आया उसने भी बेहद हैरत में डाल दिया। मुकेश अंबानी के न्यूज चैनल पर सनसनीखेज शो 'राधे मां की चौकी के पांच रहस्य' के दौरान हिंदू महासभा के ओमजी महाराज को एक आक्रामक साध्वी ने तमाचा जडकर अनोखी जंग का श्रीगणेश कर इस देश के तथाकथित साधु-संतों का असली चेहरा भी दिखा दिया।
रविवार की शाम थी। जिन लोगों को समाचार चैनल देखने की लत है, वे अपनी-अपनी पसंद के चैनल पर नज़रें गढाये थे। धन्नासेठ के चैनल पर राधे मां की वही हफ्तों पुरानी शर्मनाक दास्तान दोहरायी जा रही थी, जिससे सजग दर्शकों का कोई लेना-देना नहीं था। किसी भी खबर को देखने-सुनने और पढने की भी कोई सीमा होती है, लेकिन टीआरपी के भूखे चैनल वालों को कौन समझाए कि लोग अब उनके बचकानेपन से तंग आ गये हैं। घिसी-पिटी चर्चा के दौरान ओमजी महाराज अपनी आराध्य राधे मां के गुणगान में लगे थे तो साध्वी दीपा शर्मा राधे मां के पाखण्डी आचरण का बखान कर रही थीं। आधुनिक साध्वी दीपा शर्मा का साथ दे रही थीं एक नारी ज्योतिषाचार्य, जिनका नाम है वाई राखी। वह भी राधे मां के अतीत के काले पन्ने खोलकर ओमजी का ब्लड प्रेशर बढा रही थी। ओमजी शायद दीपा शर्मा के 'कल' से अच्छी तरह से वाकिफ थे। उन्होंने अपने अंदाज में उनकी निजी ज़िन्दगी के दाग-धब्बों और लफडों का विवरण पेश करना शुरू कर दिया। दोनों तरफ से आपत्तिजनक शब्दों की बौछारों के कारण चैनल पर लगातार बीप बजती रही, लेकिन व्यक्तिगत हमलेबाजी नहीं रुकी। एक दूसरे के चरित्र का चीरहरण होता रहा। ओमजी को राधे मां पर होने वाला हर कटाक्ष बंदूक से निकली गोली की तरह घायल कर रहा था। उन्हें लगा कि राधे मां के पर्दाफाश के बहाने उनकी मर्दानगी को चुनौती दी जा रही है। उन्होंने दीपा शर्मा को यह कहकर आगबबूला कर दिया कि पहले तुम खुद को सुधार लो फिर मेरी राधे मां की बुराई करने की जुर्रत करना। दीपा शर्मा गुस्से में इतनी बेहाल हुई कि ओमजी तक जा पहुंची और उनके गाल पर करारा तमाचा जड दिया। ओमजी ने खुद को फौरन संभाल लिया। उन्होंने भी अपनी मर्दानगी दिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दोनों में धक्का-मुक्की और थप्पडबाजी चलती रही और लोग मज़ा लेते रहे। इस मारपीट के लाइव शो ने पूरी दुनिया तक यह संदेश भी पहुंचा दिया कि गुस्से में आग-बबूला हुई भारतीय नारी किस हद तक जा सकती है। जो पुरुष नारी को अभी भी अबला मानते हैं वे सावधान हो जाएं। इस शर्मनाक लडाई से यह भी सिद्ध हो गया कि न्यूज चैनलों पर होने वाली चर्चाएं अपना असली मकसद खोने लगी हैं। किसी भी ऐरे-गैरे को स्टुडियो में लाकर बिठा दिया जाता है और एंकर भी अक्सर जानबूझकर ऐसा माहौल बनाते हैं कि 'विद्वानों' की शालीनता गायब होती चली जाती है। लडाई-झगडे और गाली-गलौज भरी तमाशेबाजी शुरू होते देरी नहीं लगती। टीवी पर खुद को दिखाने की जो भूख और ललक कभी नेताओं में देखी जाती थी, अब प्रवचनकारों और साधु-संतो में भी घर कर चुकी है। यह भी सच है कि राजनीतिक पार्टियों और राजनेताओं की तरह विवादास्पद धर्मगुरु भी अब अपने-अपने प्रवक्ता रखने लगे हैं, जो मौका पाते ही अपने आका का पक्ष रखने के लिए मीडिया के सामने आकर गरजने लगते हैं। अंधभक्त प्रवक्ता सच्चाई और विरोध बर्दाश्त नहीं कर पाते। इनकी बस यही मंशा होती है कि उनके 'गुरु' के बारे में अच्छी बातें ही की जाएं। कहते हैं कि अच्छा वक्ता वही होता है जो अच्छा श्रोता होता है, लेकिन यह गुण न तो धर्म के ठेकेदारों के पक्ष मेें और न ही विपक्ष में बोलने वाले प्रवक्ताओं और चेले-चपाटों में दिखायी देता है। न्यूज चैनल पर साधु और साध्वी का लज्जाहीन व्यवहार इसका जीवंत प्रमाण है। यह भी हकीकत है कि अधिकांश भगवाधारी भी 'खादी' के रंग में रंग चुके हैं। इनके असली चरित्र को भी समझ पाना दूभर होता चला जा रहा है। साधुओं और नेताओं का तो एक ही धर्म होता है लोगों को अच्छी शिक्षा देना और ऐसा जीवन जीना जिससे हर किसी को सद्मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिले। लेकिन ऐसा हो कहां रहा है?
महाराष्ट्र के खाद्य एवं आपूर्ति मंत्री गिरीश बापट को जब छात्रों के एक दीक्षांत समारोह में अपने उद्गार व्यक्त करने का अवसर मिला तो वे फौरन सेक्स की पाठशाला के निर्लज्ज शिक्षक की भूमिका में आ गए। उन्होंने छात्रों को प्रोत्साहित करने के बेवकूफाना अंदाज में यह कहने में कोई संकोच नहीं किया कि हम भी वो सेक्सी विडियो क्लिप देखते हैं जो आप अपने मोबाइल पर रात में देखते हैं। अश्लील फिल्में और वीडियो क्लिप देखकर अपनी जवानी पर फख्र करने वाले महाराष्ट्र के मंत्री ने छात्र-छात्राओं को नीली फिल्में देखने की सीख देकर वो सब करने की भी छूट दे दी जिससे आज देश परेशान है। एक बलात्कार की खबर की सुर्खियां ठंडी भी नहीं पडतीं कि पांच और बलात्कार होने का बारुदी धमाका सजग देशवासियो की नींद उडा कर रख देता है...।

Thursday, September 10, 2015

आज के रोल मॉडल

चारों तरफ शोर मचा है। देश के मीडिया को यह हो क्या गया है? कहीं यह पगला तो नहीं गया! एक ही खबर को पंद्रह-पंद्रह दिन तक घसीटने के बावजूद यह थकता ही नहीं। आरूषि हत्याकांड की तरह शीना बोरा हत्याकांड की खबरें देखते और पढते-पढते लोगों का दिमाग भन्ना गया, होसले पस्त हो गये पर इसे कोई फर्क नहीं पडा! खबर को तानने की भी कोई हद होती है। शीना की हत्यारी मां इंद्राणी के अतीत के विभिन्न रंगों को दिखाते-दिखाते दूसरी सभी खबरों पर बडे शर्मनाक अंदाज से अंधेरे की चादर ओडा दी गयी। ऐसा लगा कि देश में कहीं बाढ और सूखा नहीं है। किसानों ने भी आत्महत्याएं करने से तौबा कर ली है। पीएम नरेंद्र मोदी का अच्छे दिन लाने का वायदा पूरा हो गया है। बेरोजगारी का नामो-निशान नहीं रहा। बलात्कार और हत्याओं का दौर थम गया है। चारों तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। सभी अपराधी सुधर गये हैं। इस इंद्राणी ने खुशहाल, शांत और शालीन वातावरण में ज़हर भर दिया है। देशवासियों को उसकी संपूर्ण जीवनगाथा से इसलिए अवगत कराया जा रहा है, ताकि वे जागृत और सतर्क हो जाएं। उन्हें पता चल जाए कि हिंदुस्तान का मीडिया कितना सतर्क है। हाथ में आयी खबर को जब तक नोंच न डाले तब तक चैन नहीं लेता। भले ही दर्शकों और पाठकों का दिमाग सुन्न हो जाए और कान पक जाएं।
आरुषि मर्डर कांड की तरह शीना मर्डर केस में भी मीडिया ने जिस तरह से जज की भूमिका निभाने में कोई कसर नहीं छोडी उससे सजग जन तमाम मीडिया का जी भरकर मज़ाक उडाने लगे हैं। मुंबई के पुलिस कमिश्नर राकेश मारिया ने भी पत्रकारों की जल्दबाजी को लेकर अपने तरीके से चिंता व्यक्त कर डाली। उनका गुस्सा औद दर्द इन शब्दों में फूटा: मेरी टीम दिन-रात उन तीन आरोपियों से गहन पूछताछ में लगी है। शिफ्ट में पुलिस ऑफिसर्स की ड्यूटी लगाई गयी है। मेरे कई अफसर ड्राइवर की गिरफ्तारी वाले दिन से अपने घर नहीं गये हैं। आरोपियों के साथ थाने में रह रहे हैं। दूसरी तरफ मीडिया वाले स्टुडियों में बैठकर कुछ भी बोलते रहते हैं। जो काम पुलिस और अदालत का है उसे इन लोगो ने अपने हाथ में ले लिया है। आज हमारे लिए यह मीडिया सबसे बडा चैलेंज बन गया है। न्यूज चैनल खुद आरोपी को इंट्रोग्रेट कर रहे हैं। पुलिस स्टेशन को यह ऐसे घेर लेते हैं कि हमें सबूत जुटाने और पूछताछ करने में बेहद परेशानी होती है। फौरन खबरें दिखाने के चक्कर में पत्रकार अपनी सीमाएं लांघकर पुलिस के लिए संकट खडा कर रहे हैं।
यकीनन, विज्ञापनों की तरह खबरें दिखाने वाले अधिकांश न्यूज चैनल अब हर सजग नागरिक को खलने लगे हैं। अर्धनग्न होकर कंडोम का विज्ञापन करने वाली एक फिल्म अभिनेत्री के सेक्सी बोल और अदाओं ने तो एक नेताजी को इतना उग्र बना दिया कि उन्होंने फौरन यह बयान उगल डाला कि विदेश से आयी अभिनेत्री का कंडोम का विज्ञापन दर्शकों को रेप के लिए उकसाता है। इस अश्लील विज्ञापन के कारण ही देश में बलात्कारों की संख्या में इजाफा हुआ है। कई लोग शिकायत करते हैं कि न्यूज चैनल वाले वह सब नहीं दिखाते जो हम देखना चाहते हैं। कितनी भी शिकायतें होती रहें, लेकिन न्यूज चैनल वाले वही दिखाएंगे जो उनको भाता है। ज्यादा विरोध करने पर उनके पास भी अपना अचूक तर्क है कि मीडिया को जब अभिव्यक्ति की आजादी है तो आप कौन होते हैं उसे सीख और उपदेश देने वाले। न्यूज चैनल भी हमारे और अखबार भी हमारे। आप को जबरन तो देखने और पढने को विवश नहीं किया जाता। मत देखो, मत खरीदो। खुद भी मजे से रहो और हमें भी शान से अपनी मनमानी करने दो।
अकेले मीडिया को ही दोष देना ज्यादती होगी। खाकी भी कम मनमानी नहीं करती। कई बार तो मीडिया और पुलिस वाले एकजुट होकर आम लोगों पर ऐसे जबरदस्त कहर ढाते हैं कि इज्जतदार इंसान का जीना मुहाल हो जाता है। औरंगाबाद के एक कॉलेज की छात्रा श्रुति एक लफंगे की लफंगई को सहते-सहते तंग आ गयी। वह उसे एकतरफा प्यार करता था। जब-तब एसएमएस भेजकर उसे परेशान करता और उसका पीछा कर छींटाकशी करता। युवक की अश्लील छेडछाड से तंग आकर आखिरकार वह पुलिस स्टेशन पहुंच गयी। वहां उसका सामना ऐसे पुलिस अधिकारी से हुआ जो उसके परिवार से परिचित था। उसने श्रुति की तकलीफ से रूबरू होने के बजाय उसी पर ताना कसना शुरू कर दिया कि तुम कौन-सी दूध की धुली हो। उससे छेडछाड करने वाले युवक को गिरफ्तार करने की बजाय श्रुति को संदिग्ध चरित्रधारी घोषित कर दिया। उसके मां-बाप का जिक्र कर ऐसे-ऐसे अपशब्द कहे कि श्रुति फूट-फूट कर रोने लगी। पुलिसिया इशारे पर मीडिया ने भी अपना खूब रंग दिखाया। उसने भी बदमाश युवक को पाक-साफ और कॉलेज छात्रा श्रुति को चालू करार देकर खाकी और पत्रकारों की दोस्ती पर ठप्पा लगा दिया। उस बेचारी का तो जीना ही हराम हो गया। चारों तरफ हुई बदनामी की वजह से आहत श्रुति ने आत्महत्या कर ली। क्या इसे आप आत्महत्या कहेंगे? हम तो इसे हत्या मानते हैं। जिसे खाकी और मीडिया ने मिलकर अंजाम दिया है। श्रुति की हत्या पर न तो न्यूज चैनल वाले दहाडे और ना ही अखबारो को सुर्खियां देने की सूझी। मीडिया और खाकी की दोस्ती की वजह से कैसा-कैसा गडबड झाला हो रहा है इसकी खबर हम सभी को ही है फिर अजीब-सी चुप्पी है। कल ही एक दैनिक अखबार में चौंकाने वाले सच को पढा। आप भी पढें और चिंतन-मनन करें:
"शिक्षिका (१० वर्ष की लडकी से) तुम्हारा रोल मॉडल कौन है?
लडकी : मैम, इंद्राणी मुखर्जी।
शिक्षिका : (चौंकते हुए)! क्यों?
लडकी : देखिए मैडम, अब्दुल कलाम का निधन हो गया, कोई बहस नहीं, सानिया विंबलडन में जीती, १० मिनट का कवरेज। आईएएस में ४-५ टापर्स महिलाएं थीं, क्या कोई जानता भी है? भारतीय महिला हाकी टीम को ३६ वर्षों बाद ओओलिंपिक  में एंट्री मिली, क्या आपने सुना है? क्या आपने कहीं इंदिरा नूई, चंदा कोचर का कोई इंटरव्यू देखा है? लेकिन इंद्राणी मुखर्जी को इंच दर इंच कवरेज दी गई। उन्होंने कितना संघर्ष किया, वह कितनी महत्वाकांक्षी थी। कितनी सुंदर दिखती है। उसके कितने पति हैं। उन्होंने कौन-कौन सी कम्पनियां बनार्इं। जिस तरह से मैं उन्हें टीवी पर देखती हूं उससे मुझे प्रेरणा मिलती है मैडम। मैं इंद्राणी मुखर्जी की तरह 'फुल कवर स्टोरी' बनना चाहती हूं।"

Friday, September 4, 2015

भस्म-भभूत का धुआं और हत्याएं

इस देश में कितनी आसानी से बेखौफ होकर जिन्दा इंसान को लाश में तब्दील कर दिया जाता है। कुछ दिन तक हलचल होती है। खबर छापी और दिखायी जाती है। साफ-साफ नज़र आता है कि यह तो रस्म अदायगी है। ३० अगस्त रविवार की सुबह प्रगतिशील साहित्यकार प्रो. मलेशप्पा एम कलबुर्गी की निर्मम हत्या कर दी गयी। दो हमलावर विद्यार्थी के वेश में बाइक पर आए और ७७ वर्षीय लेखक पर गोलियां दाग कर हवा में गायब हो गए! कर्नाटक के शहर धारवाड में इंसान बसते हैं, लेकिन किसी को हत्यारे नजर नहीं आए। वैसे भी अपने यहां हत्यारों और आतंकियों को दबोचने की सारी की सारी जिम्मेदारी तो पुलिस की है। जनता तो देखकर भी अनजान बनी रहती है। देश के जाने-माने शिक्षाविद् वाम विचारक और बुद्धिजीवी कलबुर्गी ने आखिर ऐसा कौन सा गुनाह किया था कि जो उन्हें मौत के घाट उतार दिया गया? अपनी सूझ-बूझ निर्भीक लेखनी की बदौलत साहित्य जगत में छा जाने वाले कलबुर्गी मूर्तिपूजा के घोर विरोधी थे। नकली संतों पर अपनी लेखनी से सतत प्रहार करते रहते थे। पाखण्ड और भस्म-भभूत का नशीला धुआं फैलाकर जनता को दकियानूसी के अंधेरे में धकेलने वाले गेरुआ वस्त्रधारियों को लताडने का कोई भी मौका नहीं छोडते थे। अंधविश्वास फैलाने वालों के खिलाफ बोलने और लिखने के कारण उन्हें कई संगठनों की नाराजगी का कोपभाजन भी बनना पडा था, लेकिन उन्होंने कभी किसी की परवाह नहीं की। अपने लेखन में रमे रहकर लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने वालों को बेनकाब करते रहे। पिछले ५० वर्ष में करीब ४०० शोधपत्र लिख चुके इस जाने-माने विद्धान को केंद्रीय और राज्य साहित्य अकादमी के पुरस्कार से भी नवाजा जा चुका था। अपने भाषणों और लेखन के जरिए धार्मिक, सामाजिक और अन्य जीवंत मुद्दो पर अपनी बेबाक राय व्यक्त करने वाले उम्रदराज चिंतक की हत्या कर दी जाएगी इसकी तो किसी ने भी कभी कल्पना ही नहीं की थी। हालांकि खुद इस निर्भीक लेखक को खबर तो थी कि वे कट्टरपंथी संगठनों के निशाने पर हैं। उन्हें धमकियां भी मिलती रहती थीं, लेकिन वे पूरी तरह से आश्वस्त थे कि जिस देश में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है वहां विचारों की असहमती के चलते विरोध के स्वर तो उठ सकते हैं, लेकिन गोलियां नहीं बरस सकतीं। उन्हें सरकार ने पुलिस सुरक्षा भी उपलब्ध करायी थी। लेकिन उन्हीं के तीव्र आग्रह पर घर के बाहर तैनात किये गए पुलिस कर्मियों को हटा दिया गया था। वे अक्सर कहा करते थे कि मैंने अपने जीवन में ऐसा कोई अपराध नहीं किया है जिसके लिए मुझे भयभीत होना पडे। मैं तो लोगों को जागृत करता चला आ रहा हूं। ऐसे में भयभीत होने का तो प्रश्न ही नहीं उठता।
अंधविश्वास और धर्म के नाम पर पाखंड का बाजार सजाने वाले तांत्रिकों और पुरोहितों के खिलाफ झंडा बुलंद करने वाले तर्कशास्त्री डॉ. नरेंद्र दाभोलकर की भी दो वर्ष पूर्व इसी तरह से पुणे में हत्या कर दी गयी थी। उन्हें तब गोलियां बरसाकर मौत की नींद सुला दिया गया जब वे सुबह की सैर पर निकले थे। उनका भी एक मात्र कसूर यही था कि वे अंधविश्वास, जादू-टोने, ज्योतिष, धर्म और आस्था से जुडे तमाम पाखंडों के जबरदस्त विरोधी थे। डॉ. दाभोलकर ने कई पुस्तकें लिखीं जिनमें पोंगा-पंडितों और झूठे चमत्कारों का दावा करने वालों का ऐसा पर्दाफाश किया गया कि वे तिलमिला उठे। १९८९ में उन्होंने महाराष्ट्र अंधश्रद्धा निर्मूलन समिती की स्थापना कर लोगों को जागृत करने का अभियान चलाया। उनकी सक्रियता और लोगों पर पडते प्रभाव ने जहां झाडफूंक, मंत्र जाप, माला मनके, अंगूठी, पत्थर धागे, गंडा ताबीज और जादूटोने के जरिए लोगों की मुश्किलों को हल करने का झूठा दावा करने वालों का धंधा मंदा कर डाला, वहीं सफेदपोश पाखंडियों की जमात भी उन्हें अपना दुश्मन मानने लगी। अपने मायावी विज्ञापनों के जाल में फांस कर फटाफट शादी करवाने, रोजगार दिलवाने, लडकी को पटाने, नाराज प्रेमिका को मनाने और वर्षों से तरसते पति-पत्नी को तथाकथित संतान सुख दिलाने वाले बंगाली बाबाओं और महिला ज्योतिषियों की मुंबई, पुणे, नाशिक, नागपुर आदि में खूब दुकानदारी चलती है। मायानगरी मुंबई में चौबीस घंटे दौडने वाली लोकल ट्रेनों में तो जहां-तहां इन रहस्यमयी, चमत्कारी बाबाओं के विज्ञापनी पोस्टर ऐसे लगे नजर आते हैं जैसे पूरी मुंबई तकलीफों के समन्दर में डूबी हुई हो और उसे तमाम मुसीबतों से निजात दिलाने का ठेका तांत्रिको-मांत्रिकों को मिला हुआ हो। मुंबई की लाइफ लाइन मानी जाने वाली इन ट्रेनों में प्रतिदिन लाखों लोग सफर करते हैं। संपूर्ण महाराष्ट्र में ऐसे ढोंगी और पाखंडी भरे पडे हैं जो तंत्र-मंत्र, झाडफूंक और वर्षों की तपस्या के बाद हासिल की गयी जडी बूटियों से किसी भी बीमारी को भगाने का दावा कर भोले-भाले ग्रामीणों से लेकर शहरियों तक को बेवकूफ बनाते रहते हैं। डॉ. दाभोलकर ने ऐसे तमाम ठगों के खिलाफ आवाज उठायी और सज़ा के तौर पर मौत पायी। दुष्कर्मी आसाराम के जेल में जाने के बाद कई गवाहों की भी बिलकुल वैसे ही हत्या कर दी गयी जैसे कलबुर्गी और दाभोलकर की...। हमारे यहां सच का साथ देना भी खतरनाक होता जा रहा है। फिर भी कई लोग हैं जो अपना धर्म निभाने के लिए कोई भी कीमत देने को तत्पर रहते हैं, यह भी काबिलेगौर है कि आसाराम को सज़ा से बचाने के लिए जिस तरह से गवाहों की हत्याएं हुर्इं उससे कई लोग घबरा गये। जिस बहादुर लडकी के कारण आसाराम को हवालात में सडना पडा उसे भी खौफ ने दबोच लिया। वह चिंताग्रस्त हो गयी कि कहीं उसे भी गोलियों से भून कर खत्म न कर दिया जाए। जब वह आसाराम के कुकर्म का शिकार हुई थी तब ११वीं क्लास में पढ रही थी। लडकी के परिवार को धमकाने का अबाध सिलसिला चलता रहा। फिर भी लडकी डट कर खडी रही। कोर्ट कचहरी के चक्कर में उसकी पढाई छूट गयी। खौफ भी साये की तरह साथ-साथ चलता रहा। एक दिन उसने तालिबानी आतंकियों की गोलियां खाने के बाद भी हिम्मत नहीं हारने वाली मलाला की कहानी पढी। बस उसने उसी दिन ठान लिया कि अब डरना नहीं है। आगे बढना है। भय चिंता से मुक्त हो चुकी लडकी ने १२वीं की परीक्षा पास कर अब कॉलेज जाना भी शुरू कर दिया है...।