Thursday, December 26, 2019

अब नहीं तो कब?

हमारे देश की बडी अजीब हालत हो गई है। सभी शुद्ध, स्वस्थ हवा में सांस लेना चाहते हैं, लेकिन पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का सतर्कतापूर्वक पालन नहीं करना चाहते। हमें सुरक्षा तो चाहिए, लेकिन नियम-कायदों की अवहेलना करने से बाज नहीं आते। जो राह हमें लाभदायक लगती है उसी पर चलना पसंद करते हैं। दूसरे मरें या जिएं हमें इससे कोई सरोकार नहीं। यह कितना हैरतअंगेज सच है कि देश में हर आठ में से एक व्यक्ति की मौत वायू प्रदूषण से हो रही है। दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में १२ शहर हमारे ही देश में हैं। इन्सानों को जीने के लिए शुद्ध हवा चाहिए। हवा में आक्सीजन का होना निहायत आवश्यक है, तभी जिन्दा रहा जा सकता है। पेड पौधों और वृक्षों से आक्सीजन मिलती है, लेकिन हम इनके प्रति कितने निर्दयी हैं इसकी पूरी खबर होने के बावजूद अंधे बने हुए हैं। सरकार ने प्रदूषण पर काबू पाने के लिए पिछले कुछ वर्षों से काफी सक्रियता दिखायी है, लेकिन हम कितने जागरूक हुए हैं? हमारी इस संपूर्ण दुनिया में प्राणियों और पेड-पौधों को जीवित और स्वस्थ रहने के लिए आसपास के वातावरण का स्वच्छ होना बहुत जरूरी है, लेकिन हमने अपने निजी स्वार्थों के चलते पर्यावरण को प्रदूषित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। प्रदूषण का एकदम सरल-सा अर्थ है, गंदगी। हमारी सोच और विचारों पर भी 'प्रदूषण' ने अपनी जबरदस्त पकड बना ली है।
वायू प्रदूषण और जल प्रदूषण से तो हम सभी वाकिफ हैं। ध्वनि प्रदूषण भी कम अहितकारी नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों इसे नजरअंदाज किया जाता रहा है। प्रदूषित हवा, पानी और ध्वनि एकाएक अवतरित नहीं हुए। अगर हमने प्रारंभ से ही इनकी तरफ ध्यान दिया होता तो आज हालात इतने घातक नहीं होते। हाल ही में आया एक सर्वे बताता है कि देश की राजधानी दिल्ली सहित अधिकांश महानगरों, शहरों में प्रदूषण बेहद खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुका है। बेतहाशा बढते वाहनों के ईंधन के जलने से होने वाले धुएं, रिहाइशी इलाकों में बडे पैमाने पर चलाई जा रही अवैध फैक्टरियों, खुले में होने वाले निर्माण कार्यों और सडकों पर कूडे-कर्कट को जलाये जाने से फैलने वाला प्रदूषण अत्याधिक जानलेवा है। इससे जो वायु प्रदूषित हो रही है, वही तो सभी के फेफडों में जा रही है। यह कोई हवा में उडा देने वाली बात नहीं है कि ऐसे विषाक्त वातावरण में हर दिन हर व्यक्ति चालीस सिगरेट पीने जितना धुआं अपने फेफडे में भरने को विवश है। ऐसे में वह कैंसर और अन्य गंभीर जानलेवा बीमारियों से कब तक बचा रह सकता है? आज भले ही यह महानगरों और बडे शहरों का भयावह सच है, लेकिन धीरे-धीरे छोटे शहर भी इस संकट की जद में आ रहे हैं। आज पानी खरीद कर पिया जा रहा है, अगर तुरंत नहीं संभले तो सांस लेने के लिए आक्सीजन भी कीमत देकर हासिल करने की नौबत आ सकती है।
इन्सानी तबाही का कारण बन चुके प्रदूषण ने कृषि वैज्ञानिकों को चिन्ता और परेशानी में डाल दिया है। कृषि पैदावारों में भी विष घुलने लगा है। वायुमंडल में रच-बस चुके धूल और धुएं के कारण इन्सानों की उम्र तो घट ही रही है, फसलें भी चौपट होने लगी हैं। पैदावार में कमी देखी जा रही है। फल-सब्जियों में पहले जैसी पौष्टिकता और स्वाद नहीं रहा। फूल खिलने से पहले ही गिरने और मुरझाने लगे हैं। सरकार की प्लास्टिक से मुक्ति पाने की अनवरत कोशिशों के बाद भी इसका चलन पूरी तरह से बंद नहीं हो पा रहा है, जबकि यह समय की मांग है कि प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर कपास और जूट के बने थैलों का उपयोग किया जाए। निजी और सरकारी कार्यक्रमों में प्लास्टिक की जगह मिट्टी-धातु के बर्तन प्रयोग में लाये जाएं। पॉलीथिन पर प्रतिबंध के बावजूद अधिकांश लोग इसका उपयोग कर कहीं भी फेंक देते हैं, जबकि वे इस हकीकत से वाकिफ हैं कि प्लास्टिक इन्सानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। पिछले दिनों फरीदाबाद में एक सांड के पेट से ८० किलो पॉलीथिन, पानी की बोतलें और ढक्कन आदि का विषैला कचरा पशु चिकित्सकों ने निकाला। गाय जिसे हम माता का दर्जा देते हैं, उसके पेट में भी यही कचरा समाता रहता है और हम गाय की सुरक्षा के नाम पर इन्सानों की गर्दनें उडाने में नहीं सकुचाते... घबराते। भारत में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए पेड-पौधों की अंधाधुंध कटाई पर अंकुश लगाना अत्यंत जरूरी है। अपने देश में ऐसे लोग भी हैं, जो समाज को बदलने के लिए अनुकरणीय पहल कर रहे हैं।
खरगौन जिले के ब‹डवाह ग्राम में एक जागरूक बेटे ने अपने प्रकृति प्रेमी पिता की पगडी रस्म पर वर्षों से चली आ रही परंपरा से हटकर चलते हुए बर्तन की जगह नीम, सीताफल, आम, बिल्वपत्र, आंवला सहित ३०० पौधे मंगवाकर स्वजनों को न सिर्फ बांटे, बल्कि उन्हें रोपकर बडा करने का भी आग्रह किया। बेटा अपने पर्यावरण प्रेमी पिता के पेड-पौधों के प्रति असीम लगाव से बचपन से ही बेहद प्रभावित रहा था। दमोह में अपने २५ साल के जवान बेटे की सडक हादसे में मौत के बाद उसकी तेरहवीं में शिक्षक पिता ने ५१ युवाओं को हेलमेट बांटे और उन्हें अपनी जान की रक्षा के लिए यह संदेश दिया कि कभी भी अंधाधुंध बाइक न चलाएं और हेलमेट जरूर पहनें। २० नवंबर २०१९ की रात थी। रिहाइशी इलाके में चल रही फैक्टरियां काला जहरीला धुआं उगल रही थीं। रात के दस बजे थे। तभी शिक्षक के इकलौते बेटे की बाइक एक भैंसे से टकरा गई थी, जिससे मौके पर ही उसकी दर्दनाक मौत हो गई थी। उसका शव रात भर सडक पर ही पडा रहा था। उम्रदराज शिक्षक की कांपती आवाज़ और दुख भरे गले से निकले इन शब्दों ने हर किसी की आंखें नम कर दीं, "वायु प्रदूषण और हेलमेट न लगाने की नादानी की वजह से मेरा जवान बेटा इस दुनिया से चला गया। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि किसी को भी कभी इस तरह से अपना बच्चा न खोना पडे।" उन्होंने हेलमेट बांटने के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता से भी अपील की, कि कृपया वायुमंडल को विषाक्त होने से बचाएं। जब भी वे अपने बच्चों को बाइक खरीदकर दें तो उन्हें हेलमेट भी दें और उसे लगाने के लिए भी बाध्य करें।

Thursday, December 19, 2019

ऊपर वाले के भरोसे

देश की राजधानी दिल्ली में रिहायशी क्षेत्र की तंग गली में चलने वाली एक बैग फैक्टरी में हुए भीषण अग्निकांड में पांच नाबालिग सहित ४३ श्रमिकों की जलने, झुलसने और दम घुटने से मौत हो गई। लगभग पच्चीस लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। मरने और घायल होने वालों में से अधिकांश श्रमिक उत्तरप्रदेश, बिहार से कमाने-खाने आये थे, लेकिन उन्हें खाली हाथ कफन में अपने-अपने गांव-घर लौटना पडा। दिल्ली ने उनका सबकुछ छीन लिया। इस हादसे ने एक बार फिर से उस कुंभकर्णी और रिश्वतखोर प्रशासन की पोल खोल दी, जो चंद सिक्कों में बिक कर अपनी आंखें मूंद लेता है, जिससे अवैध धंधेबाजों की बन आती है। वे लाखों-करोडों में खेलते हैं और खून-पसीना बहाने वाले मजदूरों के हिस्से में सिर्फ मौत आती है। जिस फैक्टरी में आग लगी वह चार मंजिला इमारत में अवैध रूप से चलायी जा रही थी। सैकडों मजदूरों के लिए एक ही सीढी थी। इस इमारत में आग बुझाने के उपकरण नदारद थे। फैक्टरी को अग्निशामक विभाग की तरफ से एनओसी जारी नहीं थी। अन्य किसी विभाग से भी कोई लाइसेंस नहीं लिया गया था। इसके बावजूद धडल्ले से फैक्टरी चल रही थी। रात में सोते समय श्रमिक नीचे और छत का दरवाजा बंद कर लेते थे। इसलिए जब आग लगी तो धुआं बाहर नहीं निकल पा रहा था और अधिकांश मजदूर दम घुटने से चल बसे। फायर कर्मियों को भी आग बुझाने में भारी दिक्कतों का सामना करना प‹डा। आवासीय इलाके में जहां हजारों लोग रहते हैं, वहां पर इस फैक्टरी का चलना और बिजली विभाग से कनेक्शन का मिलना यही दर्शाता है कि इसे बेईमानी और भ्रष्टाचार की नींव पर खडा किया गया था। २५ वर्षीय मुस्तफा उन चंद खुशकिस्मत लोगों में हैं, जो काफी जद्दोजहद के बाद मौत की फैक्टरी से बच निकले। उस भयावह आग और दमघोटू धुएं के मंजर को वह कभी नहीं भूल पाएंगे, जिसने उन्हें कंपकंपा कर रख दिया था। सुबह चार बजकर दस मिनट पर बेतहाशा शोर सुनकर वे हडबडा कर उठे। हर तरफ धुआं ही धुआं था। लोग शोर मचा रहे थे कि आग लग गई है। इस बीच कुछ लोग बेहोश होकर गिरने लगे। मुस्तफा अपनी जान बचाने के लिए भागे। एक तो घना अंधेरा और फिर नीचे जाने के लिए एक ही सीढी...। हडबडी में उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोई रास्ता सूझता इससे पहले ही वे बेहोश हो गये। जब होश आया, तो खुद को अस्पताल में पाया।
फैक्टरी में आग का तांडव चरम पर पहुंचने के बाद वहां का कैसा मंजर था, आग में फंसे मजदूरों की कैसी हालत थी, वे किस तरह से छटपटा रहे थे, जब मौत उन्हें दबोचने को खडी थी तब वे अपने घर-परिवार को लेकर कितने चिन्तित थे, इन सवालों का जवाब जानने के लिए भीषण आग की लपटों से घिरे मुशर्रफ नामक युवक का तडके करीब पांच बजे अपने दोस्त मोनू को किया गया कॉल काबिलेगौर है : हैलो मोनू, भैया आज सबकुछ खत्म होने वाला है। आग लग गई है। आ जाइयो करोलबाग। टाइम कम है और भागने का कोई रास्ता नहीं है। खत्म हुआ भैया मैं तो, मेरे घर का ध्यान रखना। अब तो सांस भी नहीं ली जा रही है।
मोनू - आग कैसे लग गई?
मुशर्रफ - पता नहीं कैसे, सारे लोग दहाड रहे हैं। अब कुछ नहीं हो सकता। मेरे घर का ध्यान रखना भाई।
मोनू - फायर ब्रिगेड को तो फोन करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो रहा अब तो।
मोनू - पानी वाले को तो कॉल करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो सकता है, लेकिन मेरे घर का ध्यान रखना। किसी को एकदम से नहीं बताना। पहले बडों को बताना, मेरे परिवार को लेने पहुंच जाना। तुझे छोडकर और किसी पर भरोसा नहीं...।
सोचें तो दिल बैठने लगता है कि एक ही परिवार के आठ लोग अग्नि की भेंट चढ गए। उनके परिजनों के समक्ष यह परेशानी खडी हो गई कि आखिर वह इतने शव लेकर अपने गांव कैसे जाएं। उनके पास एम्बूलेंस की व्यवस्था के लिए पैसे ही नहीं थे।
हादसे में मारे गये १४ साल के रशीद आलम की मौत की खबर सुनकर उसकी बुआ को हार्ट अटैक आया और उसकी भी मौत हो गई। एक बहन अपने भाई का शव लेने के लिए अपनी मां के साथ सहरसा बिहार से दिल्ली पहुंची थी। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था। अथाह गम में डूबी मां का लाडला बेटा रविवार को घर आने वाला था, लेकिन उससे पहले उसकी मौत की खबर आ गई। उसकी बहन का तीन महीने बाद निकाह होने वाला था। इसलिए वह एक माह से निकाह की तैयारियों में जुटा था। रात-दिन खून-पसीना बहाकर उसने जो रुपये इकट्ठे किये थे, उन्हें लेकर वह रविवार को दिल्ली से सहरसा के लिए रवाना होने वाला था। सहरसा का ही रहने वाला मोहम्मद हुसैन भी उन ४३ बदनसीबों में शामिल था, जिन्होंने आग में जलकर तडप-तडप कर अपनी जान गंवाई। दो माह पहले ही उसकी मां एक सडक हादसे में चल बसी थी। इसके बाद रोजगार की तलाश में वह दिल्ली आया। काफी दिन तक बहन के घर में रहकर काम की तलाश में भटकता रहा। इस हादसे से मात्र तीन दिन पहले ही उसे इस मौत की फैक्टरी में नौकरी मिली थी। अपने इकलौते बेटे का शव लेने पहुंचे गमगीन पिता का कहना था कि मैं अब कैसे जीऊंगा। मेरा तो बुढापे का सहारा ही छिन गया। दिल्ली में पहले भी इस तरह के कई अग्निकाण्ड हो चुके हैं। हर मौत काण्ड के बाद एक-दूसरे पर दोष मढने की राजनीति के सिवाय कुछ नहीं किया गया।
मेरे पाठक मित्रों को कुछ माह पूर्व सूरत में एक कोचिंग सेंटर में लगी भीषण आग की तो याद होगी, जिसमें बीस छात्र-छात्राओं की दर्दनाक मौत हो गई थी। कई बच्चों को अपनी जान बचाने के लिए तीसरी-चौथी मंजिल से कूदना पडा था। घायल बच्चों को इलाज के लिए कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पडा था। सूरत के कोचिंग सेंटर में हुआ यह हादसा कोई नया नहीं था। इससे पहले भी स्कूलों और कोचिंग सेंटर में कई दुर्घटनाएं हो चुकी थीं। कई मासूम छात्र-छात्राओं की मौत के बाद चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया था कि लापरवाही और सुरक्षा के साधनों के अभाव के कारण यह मौतें हुईं। होना तो यह चाहिए था हादसे से ही सबक लेकर तुरंत सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी जाती, लेकिन हम तो हमेशा यही मानकर चलते हैं कि हमारे साथ कभी कोई हादसा नहीं होगा, जिनके साथ हुआ वे बदनसीब थे। हम तो बहुत नसीब वाले हैं। ऊपरवाला हमेशा हम पर मेहरबान रहेगा। यह पंक्तियां लिखते-लिखते एकाएक मुझे उस हजारों लोगों की भीड की याद हो आयी है, जो अमृतसर में रेल पटरी पर खडे होकर रावण दहन देखने में मग्न थी। सभी को पता था कि यह व्यस्त रेलपथ है, जहां से अनवरत गाडियों का आना-जाना लगा रहता है। नेताओं के भाषण और रावण दहन के उत्साह और शोर-शराबे के चलते उन्हें कुछ भी याद नहीं रहा और इसी दौरान अपने तय समय पर ११० किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से दौडती ट्रेन भीड को जब रौंदती हुई निकल गई, तो हाहाकार मच गया। घोर लापरवाही, मनमानी और अनुशासनहीनता के कारण ६१ हंसती-खेलती इन्सानी जिन्दगियां मौत की भेंट चढ गईं, लेकिन उनकी दर्दनाक मौत की जिम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं था।

Thursday, December 12, 2019

अब इन्हें कौन सुधारे?

क्या दुराचारी, व्याभिचारी और किस्म-किस्म के बदमाश अखबार नहीं पढते। न्यूज चैनल नहीं देखते। क्या यह मान लें कि यह सब हद दर्जे के अनपढ और गंवार होते हैं, जिनका खबरों से कोई लेना-देना नहीं होता। जिनके लिए इंसानी रिश्ते कोई मायने नहीं रखते, लेकिन उनके बारे में क्या कहा और सोचा जाए, जो विद्वान हैं, स्कूल, कॉलेजों में पढाते हैं फिर भी दूसरों की मां-बहन और बेटियों पर जुल्म ढाते हैं तथा उनके साथ दुराचार करने में ज़रा भी नहीं लज्जाते हैं। आम लोगों के गुस्से का भी उन पर कोई असर नहीं होता। बेखौफ होकर मासूम बच्चियों पर बलात्कार करते हैं और फिर घिनौने दुराचार के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड भी कर देते हैं। हैदराबाद में पुलिसिया एनकाउंटर में पशु चिकित्सक डॉ. प्रियंका के बलात्कारियों और हत्यारों को ६ दिसंबर की सुबह ढेर किये जाने पर पूरे देश ने खुशियां मनाई। सभी के मन में कहीं न कहीं यह विश्वास बलवति हुआ कि अब तो बलात्कारों में कमी आएगी। कोई भी बदमाश महिलाओं पर बुरी नजर डालने से पहले सौ बार सोचेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देशवासी अभी हैदराबाद और उन्नाव की दिल दहलाने वाली खबरों से पूरी तरह से उबरे भी नहीं थे कि उन्हें ७ दिसंबर के अखबार और बलात्कारों की खबरों से भरे नज़र आए। फिर तो जैसे उनकी उम्मीदों पर पानी ही फिर गया। बलात्कारियों ने एनकाउंटर के उत्साह को ठंडा कर दिया।
दरभंगा में दो मासूम बच्चियां ऑटोरिक्शा के पास खेल रही थीं। एक की उम्र तीन साल तो दूसरी की पांच साल। खेलते-खेलते दोनों ऑटो में चढ गईं। ऑटो चालक के अंदर का शैतान जाग उठा। उसने बच्चियों को घुमाने का प्रलोभन दिया तो वे खुशी के मारे नाचने लगीं। गरीब मां-बाप की बेटियों को मुफ्त में ऑटो की सवारी और घूमने का जो मौका मिल रहा था। ऑटो चालक ने दोनों को थोडी देर तक इधर-उधर घुमाने के पश्चात तीन वर्षीय बच्ची को रास्ते में उतार दिया और पांच वर्षीय बच्ची को सुनसान जगह पर ले जाकर उसपर बडी बर्बरता के साथ बलात्कार कर लहुलूहान कर दिया। बच्ची को बेहोशी की हालत में जब अस्पताल में भर्ती कराया गया तो डॉक्टरों का खून खौल उठा। उनका बस चलता तो वे बलात्कारी की गर्दन उडा देते। अश्रूपुरित आंखों से अपनी बिटिया की दुर्दशा से रूबरू होते माता-पिता तो कुछ भी बोलने की स्थिति में ही नहीं थे। वे बस यही फरियाद कर रहे थे कि उनकी बच्ची बच जाए।
बिहार के शहर सुपौल में पांच दिसंबर की रात ९ बजे एक नाबालिग लडकी अपने घर के पास पिता के आने की राह देख रही थी तभी उसकी पहचान के एक शिक्षक सहित दो युवक उसके पास आए और पिता से मिलवाने के बहाने निकट स्थित एक कमरे में ले गए और वहां रात भर उसपर बलात्कार करते रहे। देश के प्रदेश ओडिशा के कोरापुट जिले में स्थित एक सरकारी स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा कई महीनों तक एक नराधम की अंधी वासना का खिलौना बनी रही। घोर आश्चर्य भरा सच यह भी है कि इस कुकर्मी की पत्नी ही स्कूल की प्रधान अध्यापिका है, जिसने अंधी और बहरी बनकर अपने शैतान पति का पूरा साथ देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दुराचारी लडकी को स्टाफ क्वार्टर में बुलाता था और बेखौफ होकर बच्ची का यौन शोषण करता था। लडकी के तीन माह की गर्भवती होने का पता चलते ही लोग भडक गये। विद्वान शिक्षिका के अय्याश पति का मुंह काला कर गधे पर बिठा पूरे शहर में घुमाया गया। छत्तीसगढ के रायगढ जिले के लैलूंगा नामक गांव में पुलिस ने पंद्रह वर्षीय लडके को एक छह वर्ष की बच्ची के घर में घुसकर बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार किया। यह लडका बालिका का पडोसी है। उसने जब देखा कि घर में और कोई नहीं है, बच्ची अकेली है तो वह भूखे जानवर की तरह उस पर टूट पडा।
महाराष्ट्र की नारंगी नगरी नागपुर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम लिंगा में ८ दिसंबर की दोपहर एक खेत में पांच साल की बालिका का शव मिलने से लोग गुस्से से तमतमाते हुए सडक पर उतर आए। यह बच्ची शुक्रवार ६ दिसंबर की शाम पांच बजे से गायब थी। ८ दिसंबर की सुबह गहन खोज के दौरान ११ बजे सुबह एक खेत में उसका शव अस्तव्यस्त हालत में मिला। उसके मुंह में कपडा और लकडी ठुंसी हुई थी। सिर पर पत्थर मारने के निशान थे। पुलिस ने पुख्ता संदेह के आधार पर खेत में काम करने वाले नौकर को गिरफ्तार किया। उसने स्वीकारा कि पहले तो उसने बालिका से दुष्कर्म किया, फिर सिर कुचलकर उसकी हत्या कर दी। बालिका की नृशंस हत्या के विरोध में सडक पर उतरी भीड हैदराबाद की तर्ज पर हत्यारे का एनकाउंटर कर उसे मौत के घाट उतारने की मांग कर रही थी। भीड में शामिल स्त्री, पुरुष और बच्चों में कोई चेहरा ऐसा नहीं था, जिसके दिल में हत्यारे के प्रति हमदर्दी हो। सभी उसकी इस दुनिया से फौरन विदायी चाहते थे। महाराष्ट्र में ही स्थित गढचिरोली के एक निजी अस्पताल में कार्यरत युवा नर्स ड्यूटी खत्म होने के बाद अपने गांव जाने के लिए बस अड्डे पर खडी थी। उसी दौरान उसका एक परिचित वहां बाइक लेकर पहुंचा। युवती ने उससे अनुरोध किया कि वह बाइक से उसे गांव छोड दे। युवक उसे लेकर गांव की ओर निकला, लेकिन बीच रास्ते में उसकी नीयत खराब हो गई। वह युवती को जबरन खेत में ले गया, जहां उससे बलात्कार करने के बाद उसका गला भी दबा दिया। युवती बेहोश हो गई। बलात्कारी को यकीन हो गया कि वह मर गई है। सबूत मिटाने के लिए उसने युवती के मोबाइल और अन्य सामान को बाइक की डिक्की में डाला और वहां से भाग गया। कई घण्टों तक खेत में बेहोश रहने के बाद जब उसे होश आया तो उसने कुछ लोगों की सहायता से थाने पहुंच कर शिकायत दर्ज करवाई। कर्नाटक के कुलबर्गी जिले में नौ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी गई। उत्तरप्रदेश के महाराज गंज के निकट स्थित एक गांव में घर में शौचालय नहीं होने के कारण एक २३ वर्षीय युवती सुबह छह बजे शौच के लिए घर से निकली तो वापस नहीं लौटी। परिजनों ने ढूंढना शुरू किया। इस दौरान पास में बच्चे गेंद से खेल रहे थे। उनकी गेंद खेत में चली गई। बच्चे गेंद को ढूंढते हुए पहुंचे तो वहां गन्ने के खेत में युवती का शव देख शोर मचाया। यह तो चंद खबरें हैं, जो अखबारों में छपीं और हमारे पढने में आईं। पूरे देश में न जाने ऐसी कितनी घटनाएं हुई होंगी। वैसे भी हर बलात्कार की खबर अखबार में प्रकाशित नहीं होती। आधी से ज्यादा बलात्कार की शिकायतों की रिपोर्ट तो थाने में ही दर्ज नहीं हो पाती।

Thursday, December 5, 2019

जंग लडता बचपन

बचपन गुम हो रहा है। बच्चे चिन्तित हैं। उन पर शोषण की तलवारें लटक रही हैं। वे समय से पहले बडे हो रहे हैं। अपने अधिकारों को जानने लगे हैं। अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए खुद सामने आने लगे हैं। इस जद्दोजहद में कहीं अच्छा तो कहीं बुरा हो रहा है। भिवंडी में एक १५ वर्षीय लडकी ने पिता की डांट से बचने के लिए जो रास्ता अपनाया उससे लोग स्तब्ध रह गये। पुलिस की नींद उड गई। नाक में दम हो गया। १५ नवंबर २०१९ की सुबह इस लडकी के हाथ से दूध गिर गया था। उसके पिता अत्यंत गुस्सैल हैं। उसे डर था कि स्कूल से वापस आने पर उसे डांट प‹डेगी। छोटी-मोटी भूल या कोई नुकसान होने पर उसके पिता का पारा चढ जाता है और आसमान सिर पर उठा लेते हैं। मां बीच-बचाव के लिए आती है तो उसकी भी धुनाई हो जाती है। इसीलिए वह स्कूल जाने के बजाय ट्रेन पकडकर आसनगांव चली गई। जब वह निर्धारित समय पर घर नहीं लौटी तो माता-पिता घबरा गये। उन्हें किसी अनहोनी का भय सताने लगा। लडकी एक दिन बाद घर लौट आई, लेकिन उसने जो आपबीती बतायी उसे सुन अभिभावक तुरंत पुलिस स्टेशन पहुंच गये। लडकी ने अपनी शिकायत में कहा कि वह स्कूल जाने के लिए सवा छह बजे घर से निकली थी। रास्ते में चार युवकों ने उसे जबरन कार में बिठाया और आंख में पट्टी बांधकर किसी पुरानी बंद पडी फैक्टरी जैसी जगह पर ले गए। वहां पर उसके ही जैसी कई और लडकियां थीं। बदमाशों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। बदमाश जब दुष्कर्म कर चले गये तो वह दूसरी लडकियों के साथ वहां से भाग निकली। पुलिस के लिए वाकई यह बहुत गंभीर मामला था, लेकिन उसने जब गहराई से छानबीन की तो ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला, जो लडकी की दुष्कर्म की शिकायत को साबित करता। इस बीच सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया ने लडकी के अपहरण और बलात्कार को लेकर हंगामा बरपा कर दिया। पुलिस पर आरोप लगाये जाने लगे कि वह नाबालिग की यौन उत्पीडन की शिकायत पर लीपापोती कर रही है। इतने गंभीर मामले के सच को सामने लाने की बजाय सुस्ती का दामन थामे है। इसके बाद पुलिस ने महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिभावकों के सामने फिर से लडकी से पूछताछ की तो उसने कबूल किया कि न तो उसका अपहरण हुआ था और ना ही बलात्कार। उसने तो बस पिता के गुस्से से बचने और उनका ध्यान भटकाने के लिए यह कहानी गढी और सुना दी...।
पिता के गुस्सैल स्वभाव के कारण घर में होने वाली रोज-रोज की कलह से परेशान एक १६ साल की लडकी सीधे कोर्ट पहुंच गई। भोपाल की इस बेटी ने स्कूल से सीधे जिला विधिक प्राधिकरण में पहुंचकर यहां के जज आशुतोष मिश्रा से शिकायत कर अपना कष्ट और दर्द बयां करते हुए कहा, 'सर मैं अपने घर के झगडे के कारण बेहद डिप्रेशन में जी रही हूं। कई बार मन करता है कि आत्महत्या कर लूं। कृपया आप मेरी मदद करें।' जज के लिए यह बडा अनोखा मामला था। बेटियां ऐसा कदम उठाने से पहले सौ बार सोचती हैं। यकीनन यह एक गंभीर मामला था। जज महोदय ने कुछ देर तक विचार करने के पश्चात केस के सकारात्मक निपटारे का निर्णय लिया। सबसे पहले घबराई बच्ची की काउंसलिंग की गई। उसकी चिंता और समस्या को गहराई से जाना गया। उसके पश्चात बेटी को माता-पिता के समक्ष बिठाकर जज महोदय ने कहा कि अब तुम ही बेखौफ होकर अपना फैसला सुनाओ। बेटी ने जो फैसला सुनाया उसे सुनकर कोर्ट में मौजूद माता-पिता के साथ-साथ दूसरों की भी आंखें छलक आई। बेटी ने आदेश में कहा कि माता-पिता आपस में कभी विवाद नहीं करेंगे। पिता को नियमित रूप से स्कूल की फीस भरनी होगी। वे रोज-रोज खाने की थाली नहीं फेकेंगे। उन्हें अपने गुस्से पर पूरी तरह से नियंत्रण करना होगा। राशन समय पर घर पर लाकर देंगे। बच्चों की हर जरूरत को पूरा करते हुए मां के खर्च के लिए कुछ रुपये देंगे। पिता ने भी स्वीकार किया कि वे क्रोधी स्वभाव के हैं। अक्सर तनाव में रहते हैं, जिसकी वजह से परिवार में अशांति बनी रहती है, लेकिन अब वे ऐसी कोई गलती नहीं करेंगे, जिसकी वजह से उनकी पत्नी और बच्चों को तकलीफ हो। इस जागरूक बेटी ने विभिन्न समाचार पत्रों में जिला विधिक प्राधिकरण के बारे में काफी पढा था, इसलिए वह अपनी शिकायत दर्ज करवाने यहां दौडी चली आई और जज ने अनोखी पहल करते हुए उसके फैसले को आदेश के रूप में जारी कर दिया।
देश के आदिवासी इलाकों के बच्चों में भी परिवर्तन आ रहा है। वे अपने अधिकार के प्रति सचेत हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ में आदिवासी बच्चों ने विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए हाथ-पैर मारने शुरू कर दिये हैं। अपनी और गांव की समस्याओं के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारी से लेकर सरपंच तक जाने में नहीं हिचकते। वे इस दाग को धोना चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ के अनपढ रहना चाहते हैं। उनमें जागृति नहीं आ सकती। वे अपने बुजुर्गों की तरह दारू में मस्त और निठल्ले नहीं बने रहना चाहते। यह बच्चे उन शैतानों पर आक्रमण करने से भी नहीं घबराते जो उनकी मां-बहनों पर बुरी नज़र रखते हैं। आदिवासी इलाकों में बहन-बेटियां भी सतर्कता की राह पर चलने लगी हैं। वे उन वहशियों को पहचानने में किंचित भी देरी नहीं लगातीं जिनके लिए आदिवासी महिलाएं भोग की वस्तु हैं। यह सच भी सर्वज्ञात है कि आदिवासियों में परिवार चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। वे इस परिपाटी को बदलकर सभी के जीवन को खुशहाल बनाना चाहते हैं। उनमें संवेदनशीलता भी कूट-कूट कर भरी है। धीरे-धीरे कई गांव में स्पष्ट बदलाव नज़र आ रहा है। इन गांव में कुओं के नहीं होने के कारण पानी की बहुत समस्या थी। अब गांव में कुएं बन गये हैं और पानी की समस्या से छुटकारा मिल रहा है। गांव-गांव में मांदल टोली बनायी गई है, जिसमें किशोरों को शामिल किया गया है। वे आपस में बैठकें करते हैं और लाइब्रेरी, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी जरूरतों के साथ-साथ बाल विवाह जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं। उनकी कोशिशें रंग ला रही हैं।

Thursday, November 28, 2019

नारी ही होती है दोषी!

'बीवी का सिर काटकर चौराहे पर लटकाने पहुंचा शराबी पति' इस शीर्षक के अंतर्गत छपी खबर ने चौंका और रुला दिया। यह तो इन्सान के खूंखार पशु बनने की पराकाष्ठा है। क्या कसूर था उस पत्नी का, जिसे उसके पति ने ऐसी मौत दी, जिससे लोगों की आंखें फटी की फटी रह गईं। हत्यारे पिता के कारण चार मासूम बच्चों से सदा-सदा के लिए उनकी मां छिन गई। वे दर-दर भटकने को मजबूर हो गये। उन्हें हाथ में भीख का कटोरा थामने को विवश होना पडा? इस दरिंदे हैवान शैतान का नाम है, नरेश बघेल। नरेश की पंद्रह साल पूर्व शांति से शादी हुई थी। तीन बेटियां और एक बेटा है। सबसे बडी बेटी पायल तेरह साल की है। जब शादी हुई थी तब नरेश को शराब पीने का शौक था, लेकिन कालांतर में यह शौक उसकी बरबादी की गंदी आदत बन गया। घर में रोज की कलह का कारण बन गया। उस रात भी नरेश शराब पी रहा था। शांति रसोई घर में खाना बना रही थी। चारों बच्चे डरे-सहमें बैठे थे। नरेश पिछले दो घण्टे से शराब पीते हुए गालीगलौच किए जा रहा था। नरेश बाहर से पीकर तो आता ही था, घर में भी बच्चों के सामने पीने बैठ जाता था। कोई भी रात ऐसी नहीं गुजरती थी, जब उसका हाथ पत्नी पर नहीं उठता था। बच्चे भी नशे में धुत पिता के लात-घूसे और डंडे खाकर दहशत में जीने को विवश थे। वे हंसना भूल चुके थे। उन्हें न ढंग का खाना मिलता था और ना ही कपडे। अनाथों-सी हालत हो गई थी उनकी। पिता अधिकांश कमायी शराब में ही उडा देते थे। बच्चे इतने घबराये रहते थे कि अक्सर पिता के आने से पहले ही सो जाते थे, या सोने का नाटक करते थे। नरेश को शांति का पीने से रोकना-टोकना, समझाना और बडबडाना किसी शूल की तरह चुभता था। उसे लगता था कि शांति उसकी आजादी की शत्रु है। रोज-रोज उसकी पुरुष सत्ता को चुनौती देकर उसे अपमानित करती रहती है। वह उसकी पत्नी है, गुलाम है। उसे रोकने-टोकने का कोई हक नहीं। उसे अपनी कमायी को अपने तरीके से लुटाने का पूरा अधिकार है।
हमेशा की तरह उस रात भी पति और पत्नी में काफी देर तक लडाई-झगडा होता रहा। पतिदेव के हाथों पिटने के बाद पत्नी सोने चली गई। दो दिन पहले नरेश ने अपने एक दोस्त को शराब पीने के लिए घर में आमंत्रित किया था। जब दोनों पीते-पीते लगभग बेसुध हो गए थे तब शांति ने उसके दोस्त को जो नुकीली शाब्दिक फटकार लगायी थी, उससे नरेश का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुंच गया था। तभी उसने बेहद खतरनाक फैसला कर लिया था। बांका (हथियार) भी खरीद कर घर में लाकर रख दिया था। सुबह करीब ५.३० बजे जब शांति गहरी नींद में थी तब नरेश ने उसके गले में ऐसा जोरदार प्रहार किया कि उसका सिर धड से अलग हो गया। शांति को तडपने का मौका ही नहीं मिला। उसके बाद हैवान, शैतान नरेश बीवी के कटे सिर को एक कनस्तर में लेकर हरिपर्वत चौराहे पर जा पहुंचा। वह कटे हुए सिर को ट्राफिक सिग्नल के खंभे में लटकाने की कोशिश में लगा था कि ट्राफिक सिपाही की उस पर नजर पड गई। पहले तो उसे लगा कि कहीं कोई आतंकी बम रखने तो नहीं जा रहा है। दरअसल, प्रदेश में राम मंदिर का फैसला आने के बाद हाई अलर्ट जारी किया गया था। हर कोई सजग और सतर्क था। उत्तरप्रदेश की ऐतिहासिक नगरी आगरा की पुलिस भी पूरी तरह से मुस्तैद थी। उस सिपाही ने बडी फुर्ती के साथ नरेश के करीब पहुंच कर उसे दबोच लिया। उसके मुंह से शराब की तीखी गंध आ रही थी। सिपाही ने कनस्तर को खोला तो सन्न रह गया। आटे के कनस्तर में नारी का कटा हुआ सिर था। सिपाही ने तुरंत पुलिस थाना में फोन कर सूचना दी। ३५ वर्षीय इस नृशंस हत्यारे ने जो कहानी सुनाई उसे सुनकर पुलिस अधिकारी भौंचक रह गए। उसके चेहरे पर पश्चाताप की जगह किसी युद्ध को जीतने के बाद की खुशी थी। उसका कहना था कि चौराहे पर पत्नी के सिर को टांगकर वह सभी महिलाओं को सतर्क करना चाहता था कि कभी भूले से भी अपने पतिदेव की मौजमस्ती और शराबखोरी में बाधक न बनें। जो औरतें यह भूल करती हैं, वे सावधान हो जाएं। पुरुष को हैवान बनने और उसके दिमाग को पटरी से उतरने में देरी नहीं लगती...।
दिल्ली से सटे गुरुग्राम में एकतरफा प्यार में पगलाये पहलवान सोमवीर ने ताइक्वांडो खिलाडी सरिता की हत्या कर दी। एक साल पहले २५ वर्षीय सरिता रोहतक में एक प्रतियोगिता में भाग लेने के लिए गई थी। वहीं पर उसकी मुलाकात सोमवीर से हुई। राज्य स्तरीय कुश्ती प्रतियोगिता में हिस्सा लेकर नाम कमाने वाला सोमवीर पहली ही मुलाकात में सरिता पर लट्टु होकर एकतरफा मुहब्बत करने लगा था। कुछ दिनों के बाद ही पहलवान ने सरिता से शादी करने की जिद पकड ली, लेकिन सरिता ने पूरी तरह से इनकार कर दिया, लेकिन वह नहीं माना। वह सरिता को तरह-तरह से परेशान कर जान से मारने की धमकियां देने लगा। पुलिस में उसकी शिकायत दर्ज करवाई गयी, लेकिन उसे कोई फर्क नहीं पडा। एक दिन वह सुबह चार बजे दीवार फांदकर उसके घर में जा घुसा और वही जिद पकड ली। घर के लोगों के विरोध करने पर उसने बरामदे में खडी सरिता पर गोली चलाई और भाग खडा हुआ। सरिता जयपुर के एक कॉलेज से फिजिकल एजुकेशन में ग्रैजुएशन की पढाई कर रही थी। करीब ४ साल तक ताइक्वांडो खेलने के बाद वह खेलों को ही अपना कैरियर बनाना चाहती थी, लेकिन एकतरफा प्यार में अंधे हुए पहलवान ने उसके सपने एक ही झटके में खत्म कर दिए और अपना भी वर्तमान और भविष्य चौपट कर दिया।
लगभग दो वर्ष पूर्व विक्की और ज्योति की दोस्ती फेसबुक पर हुई थी। विक्की से दस वर्ष बडी ज्योति के दस और सात साल के दो बेटे थे। कुछ वर्षों से पति से अलग रह रही थी। जब दोनों की पहली मुलाकात हुई तो विक्की ने प्यार का इज़हार कर दिया। उसके बाद उनका होटल के कमरे में मिलने का दौर शुरू हो गया। वे अक्सर सुबह नौ-दस बजे होटल आते और रात को ११ बजे तक चले जाते थे। इसलिए होटल स्टाफ दोनों को अच्छी तरह से जानता था। हमेशा की तरह उस दिन भी दोनों ने जमकर शराब पी और काफी देर तक मौजमस्ती करते रहे। इसी बीच नशे में धुत ज्योति ने किसी बात पर विक्की को थप्पड जड दिया। इससे पहले विक्की भी कई बार नशे में ज्योति की पिटायी कर चुका था। ज्योति के लिए तो यह भी प्रेमी के प्यार करने का एक अंदाज था, लेकिन विक्की प्रेमिका के थप्पड को सह नहीं पाया। उसके तन-बदन में आग लग गई। उसे लगा कि एक अदनी-सी औरत ने उसके पौरुष को चुनौती दी है। सीना तानकर ललकारा है। उसकी इज्जत की धज्जियां उडा कर रख दी हैं। प्रेमिका शराब के नशे के खुमार में डूबी थी और प्रेमी उसका गला घोंट होटल से भाग खडा हुआ। और अब... कमरे में तेज आवाज में कोई पुराना फिल्मी गाना चल रहा था और बिस्तर पर एक लाश पडी थी।

Thursday, November 21, 2019

धरती के फरिश्ते

हमारी इस दुनिया में भले ही कितना अंधेरा हो, अनाचार हो, हैवानियत हो, लालची और स्वार्थी लोगों की भीड हो और रिश्तों के कातिलों की कतारें लगी हों, लेकिन इस सच को कभी भी ना भूलें कि हर दौर में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो मानव होने के नाते धर्म को निभाने में कोई कसर नहीं छोडते। वे अपने शरीर को ईश्वर का दिया उपहार मानते हैं। उन्हें खुद से ज्यादा दूसरों की चिंता रहती है...। दरअसल यह इंसान नहीं फरिश्ते हैं, जो अपनों को ही नहीं, गैरों को भी नई जिन्दगी का उपहार देकर बडी खामोशी के साथ इस दुनिया से विदा हो जाते हैं। वे माता-पिता, पति, भाई, बहन एवं अन्य रिश्तेदार भी महान हैं, जो हर गम को भूलकर अपनी संतानों के अंगदान की पहल करते हैं। इन्हें किसी पुरस्कार और प्रचार की कतई भूख नहीं। २४ वर्षीय हरीश नाजप्पा अपने गांव में छुट्टियां मनाने के बाद मोटर साइकल से बेंगलुरु लौट रहा था। इसी दौरान अंधी रफ्तार से दौडते एक ट्रक ने उनकी मोटर साइकल को इतनी जोर की टक्कर मारी कि हरीश का शरीर दो हिस्सों में बंट गया। मौत से चंद मिनट पहले हरीश ने न सिर्फ मदद की गुहार लगाई बल्कि लोगों से बार-बार यही कहा कि अब उसका बचना असंभव है इसलिए उसके शरीर के अंगों को दान कर दिया जाए। भीड तो अपने में मस्त थी। उसे तो लहुलूहान तडपते हरीश की तस्वीरें लेने और वीडियो बनाने के अलावा और कुछ सूझ ही नहीं रहा था। आखिरकार एक एम्बूलेंस में हरीश को अस्पताल में ले जाया गया। वह रास्ते में ही दम तोड चुका था। उसने हेल्मेट पहना हुआ था, जिसके कारण उसकी आखें सुरक्षित थीं। जिन्हें जरूरतमंद को दान कर दिया गया।
नागपुर के २१ वर्षीय युवा अमित को एक सडक दुर्घटना में सिर में गहरी चोट लगने के कारण अस्पताल में भर्ती कराया गया। दो दिन इलाज के बाद डॉक्टरों ने उसे ब्रेन डेड घोषित कर दिया। डॉक्टरों और समाज सेवकों ने अमित के भाइयों को अंगदान करने की सलाह दी और उसका महत्व समझाया तो वे सहर्ष मान गये। १२ नवंबर २०१९ को गुरुनानक जयंती पर अमित की दोनों किडनियां और लीवर डोनेट कर तीन लोगों को नया जीवन प्रदान किया गया। इसके साथ ही अमित के हार्ट और लंग्स डोनेशन के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सूचना जारी की गई, ताकि जरूरतमंद को लाभ मिल सके तथा किसी और का जीवन बच सके।
उत्तरप्रदेश के झांसी का रहने वाला २१ वर्षीय जसवंत आज भले ही इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उसने तीन लोगों को नई जिन्दगी देकर अंतिम सांस ली। जसवंत दिल्ली स्थित झंडेवालान में फूलों की दुकान में काम करता था। छत से गिरने से उसके सिर में गंभीर चोट पहुंची थी। हादसे के समय मौके पर मौजूद लोगों ने उसे अस्पताल पहुंचाया। जसवंत के परिजनों की आंखों से आंसू थमने का नाम नहीं ले रहे थे। इधर अस्पताल के प्रत्यारोपण काउंसलरों को जब जसवंत के ब्रेन डेड होने का पता चला तो वे उसके परिजनों के पास पहुंचे और उन्हें ढांढस बंधाते हुए कहा कि उनका बेटा भले ही इस दुनिया से चला गया हो, लेकिन वह तीन लोगों को नई जिन्दगी दे सकता है। एक बार तो परिजन अंगदान करने में हिचके, लेकिन कुछ देर बाद उन्होंने सहमति जता दी। जसवंत की दोनों किडनी और लीवर से जहां तीन लोगों को नई जिन्दगी मिली, वहीं उसके परिवार के सदस्यों के चेहरे भी गौरव भरी तसल्ली से चमक रहे थे।
मुंबई का पवई निवासी लोमेश पटेल कच्छ जिले के गांधीग्राम नगर में एक पारिवारिक समारोह में शामिल होने गया था, जहां वह दुर्घटना का शिकार हो गया। तीन दिन के इलाज के बाद लोमेश को ब्रेन डेड यानी दिमागी रूप से मृत घोषित कर दिया गया। लोमेश के पिता की सहमति से उसके दो गुर्दे, दो आंखें (कार्निया) और लीवर पांच जरूरतमंदों को दान कर नई जिन्दगी दी गई।
देश की राजधानी दिल्ली की पूजा के साहस ने तो उन लोगों के मुंह पर तमाचा जड दिया जो आज भी घर में लडकियों के जन्मने पर मातम मनाते हैं। इस बहादुर बेटी ने अपना लीवर दान कर अपने पिता की जान बचायी। डॉक्टरों ने भी पूजा की तारीफ करते हुए कहा कि इस लडकी ने तो लडकों को भी मात दे दी। वह इतनी बडी सर्जरी करवाने में किंचित भी नहीं घबराई। भोपाल की ६२ वर्षीय विमला एक सडक दुर्घटना में चल बसीं। उन्होंने तीन लोगों को नवजीवन प्रदान किया, जिसमें एक बारह वर्षीय बच्चा भी शामिल है। उनके बेटे के भावुकता भरे इन शब्दों ने जहां लाखों लोगों की आंखें नम कीं, वहीं अंगदान के लिए भी प्रेरित किया : मेरी मां ने एक बारह साल के बच्चे को नया जीवन दिया है। उनका दिल इस बच्चे के सीने में धडकता रहेगा। मेरी मां इस दुनिया में नहीं रहकर भी अमर है। इस बच्चे की जिन्दगी को हम अपनी मां की ही जिन्दगी समझेंगे। हम इस बच्चे की बहुत लम्बी उम्र की कामना करते हैं। जब तक वह दुनिया में रहेगा हम यही मानेंगे कि मां जीवित है। हमारा पूरा परिवार सतत इस बच्चे से मिल मां के दिल की धडकन को महसूस करता रहेगा।
जेपी अस्पताल के डॉक्टर अमित देवडा ने बताया कि पिछले पांच साल में हुए ५०० से अधिक ट्रांसप्लांट में ६५ फीसद महिलाएं ही डोनर रहीं। वह कई सालों से किडनी ट्रांसप्लांट कर रहे हैं। कई मामले ऐसे आते हैं, जब नारी के त्याग की प्रतिमूर्ति होने की बात सच साबित होती है। सुरेश कुमार डायबिटीज के मरीज हैं। उन्हें कुछ समय पहले गंभीर हालत में अस्पताल में भर्ती कराया गया। उनका पहले भी किडनी ट्रांसप्लांट हो चुका था। पहली बार उन्हें उनकी मां ने किडनी दी, लेकिन कुछ समय बाद पता चला कि ट्रांसप्लांट प्रक्रिया विफल रही। दूसरी बार उनकी पत्नी ने किडनी देने का फैसला किया, लेकिन इस बार भी उनकी किस्मत ने साथ नहीं दिया और प्रत्यारोपण सफल नहीं हो पाया। सभी परीक्षण के बाद डॉक्टरों ने एक बार फिर ट्रांसप्लांट का सुझाव दिया। अब समस्या थी कि किडनी कौन देगा। सुरेश की दो बेटियां और एक बेटा है। इस बार बेटी ने बिना कुछ विचार किए पिता को किडनी दी। पिता अब पूरी तरह से स्वस्थ हैं।

Thursday, November 14, 2019

अपनी समस्या, अपना समाधान

प्रदूषण की मार से बचने के लिए कई लोग दिल्ली-एनसीआर छोडना चाहते हैं। किसी जमाने में जिन्हें राजधानी बहुत भाती थी, अब उनका यहां दम घुटने लगा है। वे अब विषैली हवा में सांस लेने की बजाय इसे अलविदा कहना चाहते हैं। मटियाला क्षेत्र में रहने वाले रामचेत यादव ने २०१९ की दीपावली से पहले ही अपनी चार वर्षीय बेटी को टाटानगर स्थित उसकी नानी के घर भेज दिया। पेशे से मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव यादव की पुत्री की वायु प्रदूषण के कारण हमेशा तबीयत खराब रहने लगी थी। वर्षों तक नोएडा में स्थित एक जिम में दूसरों को बलिष्ठ बनाने वाले राज नामक नौजवान को ऐन दीपावली के समय शहर छोडने को मजबूर होना पडा। उसके लिए भी यहां सांस लेना दूभर हो गया था। दिल्ली कभी सीमा शर्मा का पसंदीदा शहर था। कई वर्षों तक यहां रहने के बाद २००६ में सीमा अपने पति के साथ मुंबई चली गई। कुछ वर्ष तो अच्छे गुजरे, फिर वे अक्सर बीमार रहने लगीं। ऐसे में वे अपने पति के साथ दिल्ली लौट आई। सीमा ने सोशल मीडिया पर लिखा कि मेरे खयालों में तो २००६ वाली दिल्ली बसी थी, लेकिन २०१७ में जब हम यहां वापस रहने आए तब तक यहां की हवा बहुत बिगड चुकी थी। मेरी यादों की जिस दिल्ली में सर्दियों में फॉग होती थी, उसकी जगह अब धुंध ने ले ली थी। बार-बार की बीमारी से तंग आकर उन्हें फिर से दिल्ली छोडने का फैसला करना पडा। कई जानी-मानी हस्तियों और आम लोगों ने प्रदूषित जहरीली हवा के लिए सत्ताधीशों को दोषी ठहराते हुए प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक को कोसने में कोई कसर नहीं छोडी। फिल्म अभिनेत्री स्वरा भास्कर ने इंस्टाग्राम पर लिखा, 'रात के ढाई बजे... सूनसान सडक... धुंध और प्रदूषण से फेफडे जम गए हैं... सांस ले पाने में बेहद मुश्किल हो रही है।' विख्यात क्रिकेटर हरभजन सिंह ने भी चुटीले अंदाज में ट्वीट किया, 'आज बहुत दिनों बाद उससे बात हुई। उसने पूछा कैसे हो। हमने कहा, आंखो में चुभन, दिल में जलन, सांसें भी हैं कुछ थमी-थमी-सी।' दिल्ली की धुंध की फोटो साझा करते हुए एक महिला ने लिखा, 'सुबह से ही गंभीर सिर दर्द। हम सब जल्द ही मरेंगे। प्रधानमंत्री जी, कुछ तो कीजिए।'
प‹डौसी राज्यों में पराली जलाए जाने के कारण उसके धुएं से भी दिल्ली की हवा बदतर हो जाती है। वैसे किसानों के द्वारा खेतों की सफाई के लिए पराली के जलाए जाने का चलन कोई नया नहीं है। वैसे भी पराली हमेशा तो नहीं जलायी जाती। इसका एक खास समय होता है। फैक्टरियों, निर्माण कार्यों और विभिन्न वाहनों का धुआं चौबीस घंटे की समस्या है। यह भी सच है कि दिल्ली के प्रदूषण की जितनी चर्चा होती है, उतनी दूसरे नगरों महानगरों की नहीं। वास्तविकता तो यह है कि देश के तकरीबन हर शहर के यही हाल हैं। लोग अब गांवों में नहीं रहना चाहते। इसके पीछे उनकी मजबूरी भी है और शौक भी। नेताओं ने वादे तो बहुत किये, लेकिन ग्रामों का विकास नहीं कर पाये। ऐसे में रोजगार, शिक्षा, बिजली और स्वास्थ्य सेवाओं के लिए गरीब ग्रामीण नगरों, महानगरों में आकर रहने को विवश हैं। प्रदूषण की काफी बडी वजह घनी आबादी तथा कांक्रीट के बेतहाशा बढते जंगल हैं। शहरों को प्रदूषित करने में हर किसी का बहुत बडा योगदान है, लेकिन इस सच को स्वीकारने को कोई भी तैयार नहीं। हम तो बस दूसरों को ही दोष देने के आदी हो चुके हैं। स्वयं कोई पहल करना ही नहीं चाहता।
महानगर बेंगलुरु में एक इलाका है काडुगोडी। यहां के लोगों ने एक अनुकरणीय पहल कर कमाल ही कर दिया। यहां पर एक टूटी हुई सडक पिछले चार साल से आने-जाने वालों की परेशानी का सबब बनी हुई थी। इस इलाके में करीब आठ सौ लोग रहते हैं, जिन्हें रोजाना यहां से गुजरना होता था। बारिश के मौसम में तो यहां से निकलने के बारे में सोचना भी मुश्किल था। सर्दियों-गर्मियों में यहां उडने वाली धूल ने जीना दूभर कर रखा था। कई लोग घायल भी हो चुके थे। स्कूल जाने वाले बच्चे और उनकी वैन काफी मुश्किल से निकल पाती थी। इस गंभीर समस्या के समाधान के लिए स्थानीय प्रशासन से अनेकों बार शिकायतें की जा चुकी थीं, लेकिन हर जगह से निराशा हाथ लगने पर अंतत: यहां के निवासियों ने खुद ही इस खस्ता हाल जानलेवा सडक को दुरुस्त करने की ठान ली। उन्होंने मिलजुलकर २ लाख रुपये इकट्ठे कर सडक निर्माण की सामग्री के लिए एक ठेकेदार से संपर्क किया। एक रोड रोलर और मात्र तीन मजदूरों के साथ लोग खुद ही सडक निर्माण में जुट गये और मात्र दो ही दिन में सिर्फ २ लाख रुपये में एक किलोमीटर सडक तैयार हो गई! इस सडक को यदि निगम बनाती तो कम-अज़-कम १५ लाख का बजट पास करवाती। सभी लोग अपनी मदद कर काफी खुश हैं। इस खबर को पढने के बाद बालकवि बैरागी की कविता 'सूर्य उवाच' की यह पंक्तियां लगातार दिमाग की बंद खिडकियों और दरवाजे पर हथोडे बरसाते हुए पूछती रहीं कि आखिर कब तक संदिग्ध, सौदागर प्रवृति वाले नेताओं को सत्ता सौंपते रहोगे और फिर उन्हीं पर आश्रित रहोगे?
आज मैंने सूर्य से बस जरा सा यूं कहा,
'आपके साम्राज्य में इतना अंधेरा क्यूं रहा?'
तमतमाकर वह दहाडा- 'मैं अकेला क्या करूं?
तुम निकम्मों के लिए मैं ही भला कब तक मरूँ?
आकाश की आराधना के चक्करों में मत पडो
संग्राम यह घनघोर है, कुछ मैं लडूँ कुछ तुम लडो।

Thursday, November 7, 2019

कब और कैसे खुलेंगी आंखें?

नया युग है। नयी सोच वालों के बीच पुरानी परंपराओं, अंधविश्वासों, आदतों में जकडे कई लोगों के कारण पूरी तरह से बदलाव नहीं आ पा रहा है। सुप्रीम कोर्ट की हिदायत के बावजूद इस बार भी राजधानी दिल्ली में पटाखों की जबरदस्त आवाजें गूंजती रहीं। लगभग यही हाल पूरे देश का रहा। जहां देखो वहां दमघोटू धुआं। लोग वायु और ध्वनि प्रदूषण से जूझते रहे। २०१९ की दिवाली में भी जहरीली हवा को निगलने को विवश हजारों लोगों को अस्पतालों की शरण लेनी पडी। विषैले, धमाकेदार पटाखों ने सैकडों मूक परिंदों की भी जान ले ली। पटाखों से हुए प्रदूषण से हजारों पक्षी जमीन पर आ गिरे। उनके लिए फिर से आकाश को छूना मुश्किल हो गया। देश की राजधानी में तो बच्चों के स्कूलों की छुट्टी कर दी गई। अमीरों ने अपने घरों से निकलने में कई सावधानियां बरतीं। मरना तो उन गरीबों का हुआ, जिनका घर से निकले बिना गुजारा नहीं होता। जिन बदनसीबों के पास अपना घर नहीं उन्हें तो अपनी सांसों की कभी फिक्र ही नहीं रही। उनके लिए सब दिन एक समान हैं। बेचैनी और खांसी तो गरीबों की हमेशा साथी बनी रहती है। यह समस्या तब तक बनी रहेगी जब तक प्रकृति की ओर नहीं लौटा जाएगा, आत्मसंयम को अपने जीवन में उतारा जाएगा, लेकिन हम तो मेलों में मग्न हैं। नौटंकियों और कुरीतियों के मकडजाल में उलझे हैं। तमाशेबाजी में ही खुशियां तलाशते हैं। इंसानी खून हमें मनोरंजित करता है।
देश के प्रसिद्ध पर्यटन स्थल शिमला से करीब ३० किमी की दूरी पर स्थित है धामी, जहां पर प्रतिवर्ष दिवाली के अगले दिन एक अनोखा मेला लगता है। इस मेले में सैकडों समझदार लोगों की उपस्थिति में दो समुदायों के बीच पत्थरों की जबरदस्त बरसात होती है। इस बार भी वर्षों से चली आ रही परंपरा को निभाया गया। धामी रियासत के राजा जगदीप qसह पूरे शाही अंदाज में मेला स्थल पर पहुंचे। दोपहर बाद मेला शुरू हुआ और दोनों ओर से पत्थरों की बारिश का सिलसिला तब तक चलता रहा जब तक किसी का सिर नहीं फटा। जिस व्यक्ति के सिर से खून का फव्वारा छूटा उसके खून का तिलक माता के मंदिर में बने चबूतरे में लगाया गया और माता का आशीर्वाद लिया गया। बताते हैं, पहले यहां हर वर्ष नरबलि दी जाती थी। एक बार रानी यहां सती हो गई। इसके बाद नरबलि पर तो विराम लग गया, लेकिन पशुबलि शुरू हो गई। कई दशक पहले इसे भी बंद कर दिया गया। इसके बाद पत्थर यानी खून बहाने का मेला शुरू किया गया।
छियासठ वर्षीय चिंताहरण पिछले तीस वर्षों से प्रतिदिन दुल्हन की तरह श्रृंगार कर घर से निकलते हैं। पहले लोग उन पर हंसा करते थे, व्यंग्यबाण भी छोडा करते थे, लेकिन अब जौनपुर और आसपास के स्त्री, पुरुष, बच्चों और वृद्धों को उम्रदराज चिंताहरण को लाल साडी, बडी-सी नथ और झुमके पहने देख कतई भी अटपटा नहीं लगता। दुल्हन की तरह सजने-संवरने वाले चिंताहरण को अंधविश्वास की जंजीरों ने बुरी तरह से जकड रखा है। वे मानते हैं कि यह अनोखा वेश उनका सुरक्षा कवच है, जिससे उन्हें तथा उनके परिवार को सुरक्षा मिली हुई है। उनके किसी भी करीबी का बाल भी बांका नहीं हो सकता। उनका कहना है कि बीते सालों में मेरे परिवार के १४ सदस्य एक-एक कर इस दुनिया से विदा हो गये। ऐसे में मुझे बाकी बचे अपने बच्चों, अपने परिजनों और खुद के खत्म होने का भय सताने लगा था। मेरी रातों की नींद ही उड गई थी। जब कभी नाममात्र की नींद आती भी थी तो सपने में दूसरी पत्नी रोती-बिलखती दिखायी देती, जिससे मैंने बेवफाई की थी। इस गम ने ही उसे आत्महत्या करने को विवश कर दिया था। एक दिन सपने में मैंने पत्नी से माफी मांगी और मेरे परिवार को बख्श देने का निवेदन किया। तब उसने मुझसे यह वेश धारण कर बाकी की जिन्दगी गुजारने को कहा तो मैंने प्रतिदिन दुल्हन की तरह सजना-संवरना प्रारंभ कर दिया। पहले लोग मुझ पर हंसा करते थे, लेकिन जब उन्हें मेरी विवशता का भान हुआ तो हमदर्दी जताने लगे। अब मेरी तथा बच्चों की जिन्दगी बडे मजे से कट रही है।
ओडिशा में गंजाब के जिलाधिकारी विजय अमृत कुलंगे ने जादू-टोना और अंधविश्वास से जुडी प्रथाओं से उबारने और लोगों को जागरूक करने के लिए यह ऐलान किया है कि जो व्यक्ति भूतों के अस्तित्व को साबित कर देगा उसे बडे आदर-सम्मान के साथ ५० हजार रुपये का इनाम दिया जायेगा। जिलाधिकारी को गंजाब जिले में जादू-टोने के नाम पर हुई हिंसा के बाद यह कदम उठाना पडा। कुछ सप्ताह पूर्व ग्रामीणों ने जादू-टोने के शक में छह लोगों के दांत तोड दिए थे। उन्हें जबरदस्ती अपशिष्ट पदार्थ खिलाया गया था। डंडे, लाठियों और हाकियों से तब तक पीटा गया था, जब तक वे बेहोश नहीं हो गये थे। पीटने वाले ग्रामीण बस एक ही रट लगाये थे कि उनके द्वारा किये जाने वाले जादू-टोना के कारण ही उनके रिश्तेदार बीमार होते रहते हैं। यह भी काबिलेगौर है कि यह पिटायीबाज जादू-टोने से बीमार होने वाले अपने प्रियजनों को इलाज के लिए तंत्र-मंत्र और झाडफूंक करने वाले बाबाओं के पास ले जाते हैं। उन्हें डॉक्टरों पर भरोसा नहीं है। जिलाधिकारी कुलंगे को हर सप्ताह आयोजित होने वाली जनसुनवाई में अंधविश्वास के जाल में फंसे लोगों की दलीलें और जादू-टोना संबंधी शिकायतों ने स्तब्ध कर दिया था। उन्होंने अंधविश्वासियों को बहुतेरा समझाया कि यह उनका भ्रम है कि जादू-टोना करने से कोई बीमार होता है। दरअसल, जादू-टोना और भूतों का कोई अस्तित्व ही नहीं होता। फिर भी जब अंधविश्वासी नहीं माने तो उन्होंने यह घोषणा कर दी, "भूत को ढूंढकर लाओ, ५० हजार इनाम पाओ।

Thursday, October 31, 2019

संत और सत्ता

आज मेरे सामने देश के विभिन्न अखबारों में छापी दो खबरें हैं। एक खबर है, समीना बानो के बारे में, जिन्होंने गरीब बच्चों को शिक्षा देने के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनी से नाता तोड लिया। पुणे की रहने वाली समीना जो कि पेशे से कम्प्यूटर इंजीनियर हैं, अमेरिका में अच्छी-खासी पगार वाली नौकरी कर रही थीं। जिन्दगी काफी अच्छी दौड रही थी। तब भी समीना के मन में अक्सर यह विचार आता कि माता-पिता ने मुझे इतनी अच्छी शिक्षा दी, जिसकी बदौलत आज मैं यहां तक पहुंची हूं, लेकिन मेरे ही देश भारत के कई हिस्सों में अब भी बहुत सारे ऐसे बच्चे हैं, जिनको अच्छी शिक्षा मिलना तो दूर, वे तो स्कूल भी नहीं जा पाते। अचानक एक दिन समीना अपने देश लौटीं और गरीब बेसहारा बच्चों को पढाने-लिखाने लगीं। उन्होंने अपने इस काम की शुरुआत झुग्गी-झोपडियों में रहने वाले बच्चों से की है।
दूसरी खबर यानी दास्तान है क्लर्क से भगवान बन सैकडों करोड की बेहिसाबी दौलत जुटाने वाले विजय कुमार नायडू की जो कभी चेन्नई की बीमा कंपनी में था तो अदना-सा क्लर्क, लेकिन बिना मेहनत किए करोडों-अरबों कमाने की उसकी हसरत थी। वह चौबीस घण्टे धनवान बनने के रास्ते ढूंढता रहता था। इसी दौरान उसने श्रीमद् भगवत गीता में भगवान श्री कृष्ण के कहे इन शब्दों को पढा तो वह खुशी के मारे नाचने लगा, "जब कलयुग में अधर्म बढ जाएगा तब धर्म की स्थापना के लिए मैं यानी विष्णु भगवान कल्कि के रूप में अवतार लूंगा। अधर्म का नाश कर धर्म की स्थापना करूंगा।" विजय कुमार ने तय कर लिया कि उसे अब खुद को विष्णु का दसवां अवतार भगवान कल्कि घोषित कर अपने सभी मायावी सपनों को पूरा करके ही दम लेना है।
शातिर विजयकुमार अच्छी तरह से जानता-समझता था कि देश और दुनिया में धर्म और अध्यात्म का रंगीन चोला ओढ कर कई धूर्तों ने अथाह माया बटोरने में सफलता पायी है। चाहे कुछ भी हो जाए, लेकिन धर्म का धंधा कभी मंदा नहीं होता। धोखे-पर-धोखे खाने के बाद भी अंधभक्त श्रद्धालुओं की आंखें नहीं खुलतीं। एक धूर्त का नकाब उतरता है तो दो-चार और 'उद्धारकर्ता' जन्म ले लेते हैं। हिन्दुस्तान तो वैसे भी देवी-देवताओं की धरती है, जहां इंसान कम और 'भगवान' ज्यादा हैं। आसाराम, रामपाल, राम-रहीम जैसे धूर्तों की तरह ही देखते ही देखते विजय कुमार ने देश और विदेश में भोले-भाले लोगों को सीधे मोक्ष यानी भगवान से मिलवाने का दावा करने वाली दुकानें शुरू कर दीं। बडे-बडे उद्योगपति, व्यापारी, राजनेता, मंत्री, अभिनेता उसके चरणों में माथा टेकते हुए चढावा चढाने लगे। करोडों श्रद्धालुओं के मन में यह बात बिठा दी गयी कि यह आधुनिक भगवान उनके सभी कष्टों का निवारण कर सकता है। वे भी दिल खोलकर धन की बरसात करने लगे। कुछ ही वर्षों में वह इतना मालामाल हो गया कि जमीनों की अंधाधुंध खरीदी करने लगा और टैक्स चोरी के लिए विदेशी कंपनियों में धन का निवेश करने लगा। चंद ही वर्षों में देश और विदेश में अपने लूट तंत्र का मायाजाल फैलाने वाले इस भगवान के देशभर के ४० आश्रमों में १६ अक्टूबर २०१९ को आयकर विभाग ने छापामारी की तो ५०० करोड से अधिक की बेनामी संपत्ति उजागर होने के साथ-साथ ४४ करोड नगदी, २५ लाख अमेरिकी डालर, पांच करोड के हीरे तथा और भी बहुतेरा चौंकाने वाला ऐसा कीमती सामान मिला।
इतिहास गवाह है कि अपने देश में धनलोभी, सौदागर प्रवृत्ति के प्रवचनकारों, योग गुरुओं, तांत्रिकों और तथाकथित भगवानों को सत्ता और राजनेताओं का भरपूर साथ मिलता है। जेल में बंद आसाराम के प्रवचनों के कार्यक्रमों के मंचों पर बडे-बडे राजनेता, मुख्यमंत्री, मंत्री और प्रधानमंत्री तक शोभायमान होकर उसकी तारीफों के पुल बांधा करते थे। आसाराम उनके साथ ली गई तस्वीरों का विज्ञापन की तरह इस्तेमाल कर अपने कारोबार का विस्तार करता था। कहीं न कहीं यह काम योग गुरु बाबा रामदेव और श्री श्री रविशंकर ने भी बडी चालाकी से किया है और अरबों-खरबों का व्यावसायिक साम्राज्य खडा कर देश और विदेश के नामी-गिरामी उद्योगपतियों, व्यापारियों को चिंता और हैरत में डाल दिया है। गनीमत है कि यह धुरंधर दवाएं, बिस्कुट, टूथपेस्ट, शैम्पू, साबुन, क्रीम, पाउडर, तेल, घी, शर्बत, चाकलेट, च्यवनप्राश, यौनवर्धक कैप्सूल आदि बनाते और बेचते हैं। जबकि इनके असली प्रेरणास्त्रोत योग गुरु धीरेंद्र ब्रम्हचारी तो बंदूकें बनाया और बेचा करते थे। जम्मू में उनकी गन बनाने की फैक्टरी थी। यह अनोखे स्वामी स्व. प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के खास राजदार और राजनीतिक गुरु थे। साउथ दिल्ली में स्थित फ्रेंडस कॉलोनी में धीरेंद्र की आलीशान कोठी थी, जहां पर उस जमाने के शक्तिशाली नेताओं, मंत्रियों, उद्योगपतियों, अभिनेताओं का दिन-भर आना-जाना लगा रहता था। उन्हें पता होता था कि ब्रह्मचारी प्रधानमंत्री के खास हैं। मुश्किल से मुश्किल काम को आसानी से करवा सकते हैं। उस दौर में प्रधानमंत्री आवास सफदरजंग रोड तक उन जैसी किसी और की पहुंच नहीं थी। वे प्रतिदिन सुबह इंदिरा गांधी को योग करवाने जाते थे। इसी दौरान उन्हें दूसरे 'हाल-चाल' से अवगत करवाकर उन कामों की भी स्वीकृति हासिल कर लेते थे, जिनसे उन्हें करोडों की दक्षिणा मिलती थी। उस जमाने में जहां नाम-मात्र के लोग ही हवाई सफर किया करते थे, वहीं इस सत्ता के दलाल के पास अपना लग्जरी जेट था। तब के उद्योगपति, व्यापारी और सेलिब्रिटीज उनके आलीशान जीवन जीने के तौर-तरीकों के सामने खुद को काफी बौना पाते थे और उनसे मिलना अपना सौभाग्य समझते थे।

Friday, October 25, 2019

कैसी-कैसी पाठशालाएं

भारत में सब चलता है। कानून तोडने वाले दबंग और मालदार मस्त रहते हैं। खाकी उनकी दासी बन मलाई खाती रहती है। यहां संस्कारों और संस्कृति का भी खूब ढोल पीटा जाता है। घर की चारदिवारी में ऐसे-ऐसे अपराध होते रहते हैं, जिन्हें इज्जत की खातिर कभी उजागर नहीं होने दिया जाता। अपने घरों को ही नशाखोरी और नारी देहशोषण के लिए सुरक्षित स्थल मान कर  मनमानी चलती रहती है, जिन्हें विरोध करना चाहिए वे भी खामोश रहने में अपनी भलाई समझते हैं।
दुनिया में थाईलैंड एक ऐसा देश है, जहां पर अपने ही घर में सिगरेट पीना कानूनन अपराध माना जाता है। यहां पर यदि कोई नागरिक घर में सिगरेट पीते पकडा जाता है तो उसे जेल में डाल दिया जाता है। साथ ही स्मोकर पर घरेलू हिंसा का केस भी चलाया जाता है। घर के बच्चों और परिवार वालों की सेहत का ख्याल रखने के लिए थाईलैंड की सरकार को इतना कडा फैसला लेने को मजबूर होना पडा। जब यह हकीकत सरकार की समझ में आयी कि सिगरेट और सिगार पीने का चलन अपनी हदें पार कर चुका है और इनके धुएं की चपेट में आकर हर साल छह लाख लोग अपनी जान गंवा रहे हैं, जिनमें साठ प्रतिशत तो मासूम बच्चे ही हैं तो उसने यह कानून बनाया और फिर लागू करने में किंचित भी देरी नहीं लगायी। विशेषज्ञों का मानना है कि धूम्रपान की लत इमोशनल और फिजिकल वायलेंस का कारण बनती है। एक सर्वे में पता चला कि परिवार के सदस्यों की देखा-देखी बच्चे भी धूम्रपान के प्रति आकर्षित होते हैं। एक समय ऐसा भी आता है, जब वे धूम्रपान करने लगते हैं। थाईलैंड की जेलों में कैदियों को अनुशासन के सूत्र में बांध कर रखा जाता है। जेल के अधिकारी बडी सख्ती के साथ पेश आते हैं। उन्हें किसी भी प्रलोभन के जाल का शिकार नहीं बनाया जा सकता। 
जेलें अपराधियों के सुधार के लिए बनी हैं। हर सुधारगृह सुरक्षा  और अनुशासन का भी बोध कराता है। इनकी स्थापना का एकमात्र उद्देश्य होता है अपराधियों को नेक इंसान बनने के लिए प्रेरित करना। उन्हें यह बताना और समझाना कि आजादी और कैद में क्या फर्क होता है, लेकिन कई भारतीय जेलों में रिश्वत की परिपाटी को निभाते हुए किस तरह से कैदियों को सुविधाभोगी बनाया जाता है, इसका पता इस खबर को पढकर चलता है : "अक्सर कहा और सुना जाता है कि जेल में बंद कैदियों को तरह-तरह की यातनाएं झेलनी पडती हैं। उनके जीवन में खुशी के पल तो कभी आते ही नहीं। उन्हें हमेशा घुट-घुट कर रहना पडता है, लेकिन यह बात मंडोली जेल नंबर -१३ में बंद कैदियों पर लागू नहीं होतीे, क्योंकि यहां के कैदी जेल के वरिष्ठ अधिकारी को मोटी रकम चुका कर भरपूर विलासिता का आनंद लूट रहे हैं। रिश्वतखोर अधिकारियों की शह पर धनवान और खूंखार कैदी बडे मजे से स्मार्ट फोन का इस्तेमाल करते हैं। जब भी किसी कैदी को अपना जन्मदिन या अन्य खुशी का जश्न मनाना होता है तो वह अपने घर में पेटीएम या फोन-पे पर पैसे मंगवाता है। उसके बाद दारू और चिकन पार्टी के लिए मोटी रकम जेल के अधिकारी को देकर इसका ऑर्डर करता है। इसके बाद तय समय पर उस कैदी को सबकुछ उपलब्ध करा दिया जाता है, जिससे कैदी अपने दोस्तों के साथ मिलकर जमकर जश्न मनाते हैं।"
कोटला में नशा मुक्ति केंद्र की स्थापना की गई है। यहां पर नशेडियों को नशे की आदत से मुक्त कराने के लिए भर्ती किया जाता है, लेकिन यह मुक्ति केंद्र उन लोगों के लिए सिर दर्द बन गया है, जो इसके आसपास रहते हैं। महिलाएं तो इसके पास जाने से ही खौफ खाती हैं। दरअसल यह नशा मुक्ति केंद्र तो नाम का है। असल काम तो यहां पर लोगों को नशे की और आदत डालना है। यहां जिन लोगों को नशा छुडाने के लिए भर्ती कराया जाता है उन्हें यहां पुराने ड्रग्स के नशाखोरों का साथ मिल जाता है, जो उन्हें नशा करने के ऐसे-ऐसे गुर सिखाते है, जिनके बारे में उन्हें पहले पता ही नहीं होता। सुबह-शाम केंद्र के बाहर ही ये लोग एक-दूसरे को ड्रग्स के इंजेक्शन लगाते रहते हैं। कोई उन्हें रोकता-टोकता नहीं। ड्रग्स खरीदने के लिए यह नशेडी इलाके में चोरी-चकारी करते हैं। महिलाओं और ऑटोवालों से लूटपाट करते हैं। कुछ हफ्ते पूर्व नशा मुक्ति केंद्र के अंदर चाकू से गोदकर एक युवक की हत्या कर दी गई। हत्यारा इसी सेंटर में रहता था। वह ड्रग्स का लती था। उसके पिता ने २०१५ में उसे नशा मुक्ति केंद्र में यह सोचकर भर्ती कराया था कि वह कुछ महीनों में सुधर जाएगा, लेकिन पुराने नशेडियों की संगत में उसने और भी कई दुर्गुण अपना लिए। नशा करने के बाद वह इस कदर हिंसक हो उठता था कि किसी पर भी हाथ उठा देता था। नशा केंद्र के अधिकारियों से मारपीट करने के बाद उसे गिरफ्तार भी किया गया था। कई महीनों तक जेल में रहने के बाद जब वह जमानत पर बाहर आया तो उसका हौसला और बुलंद हो चुका था। जेल में उसे हत्यारों और बलात्कारियों की भरपूर संगत मिली थी। नशा मुक्ति केंद्र में उसने अपने एक साथी की हत्या को ऐसे अंजाम दिया जैसे यह कोई बच्चों का खेल हो। इंसानी जान का कोई मोल ही न हो।

Thursday, October 17, 2019

सत्ता की लीला

चुनावों के मौसम में अब गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा और अव्यवस्था की बात नहीं होती। ऐसा लगता है कि हिन्दुस्तान में हर तरफ खुशहाली ही खुशहाली है। सभी देशवासी आनंद के सागर में गोते लगा रहे हैं। सरकार भी कहती है देश अभूतपूर्व तरक्की कर रहा है। लोगों की जेबें भरी हुई हैं। तभी तो कोई भी फिल्म पांच-सात दिन में सौ-डेढ सौ करोड रुपये की कमायी कर लेती है। लजीज भोजन का स्वाद चखने के लिए होटलों और रेस्तरां में लोग कतारें लगाकर घण्टों इंतजार करते देखे जा सकते हैं। देशी और विदेशी शराब की दुकानों पर खरीददारों की भीड कभी कम नहीं होती। पब और बीयर बारों में जब देखो तब मेला लगा रहता है। अपने देश भारत में अनाज की कोई कमी नहीं है। लाखों गोदाम ठसाठस भरे पडे हैं। सरकार को सभी की चिंता है। अब तो मीडिया में भी भूख और गरीबी के कारण परलोक सिधार जाने वालों की खबरें नहीं आतीं। बडे-बडे अखबार कभी भूले से इन दुखियारों की खबर छापते भी हैं तो एकदम हाशिए में जहां पाठकों की नजर तक नहीं जाती। न्यूज चैनल वालों को हिन्दू, मुस्लिम, धर्म, राष्ट्रवाद से ही फुर्सत नहीं मिलती।
देश के नेताओं और सरकार के पास इस सवाल का कोई जवाब नहीं है कि देश में करोडों लोग बेरोजगार क्यो हैं। वे आखिर कब तक मारे-मारे भटकते रहेंगे? पहले अखबारों में नौकरी देने के विज्ञापन छपते थे। अब नौकरी छूटने की खबरें छप रही हैं। उद्योगधंधों पर ताले लग रहे हैं। करोडो लोग ऐसे हैं, जिन्हें भरपेट भोजन ही नहीं मिलता। अनाज खरीदने के लिए उनके पास पैसे नहीं हैं। चांद पर इन्सानी महल बनाने की तैयारी कर चुके देश में किसानों का फांसी के फंदे पर झूलने का सिलसिला थम क्यों नहीं रहा है? यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि महाराष्ट्र में ऐन विधानसभा चुनाव के दौरान जलगांव-जामोद निर्वाचन क्षेत्र के अंतर्गत आने वाले एक गांव में किसान ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली। महज ३८ वर्षीय यह शख्स भारतीय जनता पार्टी का सक्रिय कार्यकर्ता था। जब वह मौत के फंदे पर झूला तब उसने भाजपा की टी-शर्ट पहन रखी थी जिस पर यह वाक्य लिखा था, "पुन्हा आणूया आपले सरकार।" यानी फिर से चुनकर लाओ अपनी सरकार। हम और आप वर्षों से देखते चले आ रहे हैं कि चुनावों के समय वोट हथियाने के लिए नेता बहुत ऊंची-ऊंची हांकते हैं। चुनाव जीतने के पश्चात उनके द्वारा कितने वादों को पूरा किया इसकी सच्चाई भी किसी से छिपी नहीं है? किसानों के जीवन में खुशहाली लाने का वादा हर चुनाव में किया जाता है। उन्हें तरह-तरह की सौगातें देने की घोषणाएं करने की तो प्रतिस्पर्धा-सी चल पडती है। २०१९ के जून महीने में राजस्थान के श्रीगंगानगर में कर्ज से परेशान एक किसान ने आत्महत्या कर ली। उसने सुसाइड नोट और एक वीडियो में कहा था कि इस देश के नेता हद दर्जे के निर्मोही और झूठे हैं। कांग्रेस के दिग्गज नेताओं ने वादा किया था कि सत्ता में आने के बाद सभी किसानों का पूरा कर्ज माफ कर दिया जाएगा, लेकिन गहलोत सरकार ने कर्ज माफी का वादा पूरा नहीं किया, जिसकी वजह से मैं इस दुनिया से विदा हो रहा हूं।
पिछले बीस वर्षों में लाखों किसान आत्महत्या कर चुके हैं। बडे जोर-शोर के साथ 'जय किसान' का नारा लगाने वाले भारत वर्ष में जैसे यह परंपरा बन गई है कि किसान खेती के लिए बैंक या इधर-उधर से कर्ज लेता है और न चुका पाने पर आत्महत्या करने को मजबूर हो जाता है। सरकार किसान के परिवार के हाथ में मुआवजे की राशि थमा कर यह मान लेती है कि उसने तो अपना कर्तव्य निभा दिया है। आजादी के ७२ वर्ष बीतने के बाद भी ऐसी योजनाएं नहीं बनाई जा सकीं, जिनसे किसानों को उनकी फसल की उचित कीमत मिले। यह कैसी स्तब्धकारी हकीकत है कि अगर किसान के खेत में बम्पर फसल होती है तो उसे खुशी की बजाय चिंता और परेशानी घेर लेती है। उसकी फसल को उचित दाम नहीं मिलता, लेकिन दूसरे धंधों में तो ऐसा नहीं होता। वहां तो कंगाल भी मालामाल हो जाते हैं और यहां किसान को निराशा और हताशा झेलनी पडती है। देश की दशा और दिशा पर पिछले कई वर्षों से बडी पैनी निगाह रखते चले आ रहे चिन्तकों का कहना है कि देश के सत्ताधीश और राजनेता किसानों की बदहाली पर सिर्फ घडियाली आंसू ही बहाते हैं। किसानों की सतत बरबादी और आत्महत्याएं एक राष्ट्रीय समस्या का रूप ले चुकी हैं। सरकारें किसानों के उद्धार के लिए हजारों करोड की राशि का ऐलान करती रहती हैं, फिर भी उनकी हालत जस की तस है! आखिर कहां जाते हैं यह रुपये? इसका जवाब पाना हो तो उन भ्रष्ट नेताओं, विधायकों, सांसदों का नाप-जोख कर लें, जिन्होंने जनसेवा का नकाब ओढकर करोडों, अरबों का साम्राज्य खडा कर लिया है।
इन भ्रष्टों को पता नहीं है कि, जो किसान अपनी जान दे रहे हैं, वे दूसरों की भी बेहिचक जान ले सकते हैं। इससे पहले कि स्थिति और खतरनाक हो जाए भ्रष्ट राजनेताओं को चौकन्ना हो जाना चाहिए, सुधर जाना चाहिए। अपने देश में ना तो प्राकृतिक संसाधनों की कमी है और ना ही वित्तीय संसाधनों की, कमी है तो ईमानदारी और प्राथमिकता की। जिस जनहित के कार्य और समस्या का समाधान सबसे पहले होना चाहिए उसका नंबर बहुत बाद में लगता है। जहां मेट्रो और बुलेट ट्रेन की जरूरत ही नहीं, वहां अरबों, खरबों स्वाहा किये जा रहे हैं और मूलभूत जरूरतों को नजरअंदाज किया जा रहा है। इसके पीछे के 'खेल' और 'लीला' को जनता अब अच्छी तरह से समझने लगी है। वह चुप है, इसका मतलब यह कतई नहीं कि वह बेवकूफ और अंधी है।

Thursday, October 10, 2019

ऐसे होते हैं जननायक

आजकल मोटिवेशनल स्पीच देने वाले का जबर्दस्त बोलबाला है। पिछले कुछ साल से तो इनकी खूब चांदी कट रही है। महानगरों में तो लोग इन्हें सुनने के लिए तीन से पांच हजार तक के टिकट कटवा कर बडे बुलंद इरादों के साथ फाइवस्टार होटलों में आयोजित होने वाले कार्यकर्मों में अपने इष्ट मित्रों के साथ पहुंचते हैं और खूब तालियां पीटते हैं। इनमें से अधिकांश नवधनाढ्य होते हैं, जिन्हें दिखावे की आदत होती है। जब मोटिवेशनल स्पीकर बुलंदियों पर पहुंचने के रास्ते बता रहा होता है तब इनका दिमाग कहीं और छलांगे लगा रहा होता है। जब दूसरे तालियां पीटते हैं तो यह भी शुरू हो जाते हैं। लोगों को जगाने और ऊर्जा का भंडार भरने का दावा करने वाले अधिकांश मोटिवेशनल स्पीकरों के पास कुछ वर्ष पहले तक खुद का स्कूटर नहीं था, आज वे महंगी से महंगी कारों की सवारी करते हैं। उन्होंने आलीशान कोठियां भी तान ली हैं। उनके बच्चे भी बढिया या से बढिया स्कूल-कॉलेज में पढ रहे हैं और सभी सुख-सुविधाओं का आनंद ले रहे हैं, लेकिन अधिकांश तालियां पीटने वाले वहीं के वहीं हैं। कुछ ही की किस्मत ने पलटी खायी है।
हम अधिकांश भारतीय बडे ही भावुक किस्म के प्राणी हैं। भेडचाल चलने में जरा भी नहीं सकुचाते। किसी भी भावनाप्रधान प्रेरक किताब, फिल्म या वीडियो को पढ व देखकर अपनी आंखें नम कर लेते हैं। खुद में फौरन बदलाव लाने की सोचने लगते हैं, लेकिन यह भाव ज्यादा देर तक नहीं टिक पाता। किताब, फिल्म, वीडियो, मोटिवेशनल स्पीकर यानी परामर्शदाता के प्रभाव का असर कुछ ही समय के बाद लगभग खत्म हो जाता है और फिर अपनी दुनिया और आदतों में रम जाते हैं। सच तो यह है कि जिनमें ज्ञान अर्जित करने की कामना होती है उन्हें यहां-वहां भटकना नहीं पडता। स्थितियां, परिस्थियां, हालात, अच्छे-बुरों का साथ भी किसी किताब, पाठशाला से कम नहीं होता। इन्सानी इच्छाशक्ति पहाड को समतल बना सकती है। रेत में भी फूल खिला सकती है। सदी के नायक अमिताभ बच्चन के 'कौन बनेगा करोडपति' कार्यक्रम में अपनी सशक्त उपस्थिति दर्ज करवा कर १ करोड रुपये की इनाम राशि जीतने वाली बबीता ताडे स्कूल में बच्चों के लिए खिचडी पकाती हैं। उनका कभी काम चलाऊ मोबाइल लेने का सपना था। एक करोड तो क्या दस-बीस हजार रुपये की कल्पना भी नहीं की थी इस जुझारू नारी ने। बस अपना कर्म करती जा रही थी। कर्मठ बबीता ने जब अपने जीवन के संघर्षों की दास्तान सुनाई तो सुनने वाले स्तब्ध रह गये। कुछ की तो आंखें ही भीग गईं। जब वे हॉट सीट पर विराजमान थीं अनेकों दर्शक प्रभु से यही प्रार्थना कर रहे थे कि वे इतनी राशि तो जीत ही जाएं, जिससे उनके दुखों और संघर्षों का अंत हो जाए। कभी महज १५०० रुपये की पगार पाने वाली बबीता आज करोडपति हैं। फिर भी इरादे में कोई बदलाव नहीं। ताउम्र बच्चों को खिचडी बनाकर खिलाते रहना चाहती हैं। अपनी जीवन यात्रा में जो थपेडे खाए और शब्द ज्ञान हासिल किया उसे इस भारतीय नारी ने कभी विस्मृत नहीं होने दिया। दिन में घर के कार्य और खिचडी बनाने के बाद रात को तानकर सोने की बजाय वे घण्टों ज्ञानवर्धक किताबे पढती थीं। जमीनी यथार्थ और किताबी ज्ञान ने उन्हें देश और दुनिया में ख्याति भी दिलायी और करोडपति भी बनाया।
सजग, सतर्क और कर्मशील मनुष्य के जीवन में कुछ ऐसी घटनाएं घटती हैं जो उसका कायाकल्प कर देती हैं। हिन्दुस्तान की राजनीति में धन का खासा महत्व है। बिना इसके चुनाव लडना काफी कठिन है। स्थापित पार्टी का टिकट पाने के लिए भी धन बल का होना जरूरी माना जाता है। यानी ऊपर से लेकर नीचे तक धन बरसाना पडता है, लेकिन कभी-कभी चमत्कार भी हो जाते हैं, जो कभी सोचा नहीं होता वो भी हो जाता है। विदर्भ के चंद्रपुर जिले के निवासी श्याम वानखेडे कांग्रेस के समर्पित कार्यकर्ता थे। मूलत: किसान। राजनीति में भी खासी अभिरुचि थी। वर्ष १९८५ का चुनावी दौर था। विधानसभा की टिकट पाने के लिए दिग्गज कांग्रेसियों में होड मची थी। सभी एक दूसरे की टांग खींचने में लगे थे। ऐसे में श्याम वानखेडे ने भी अपनी किस्मत आजमाने की सोची और दिल्ली जाने के लिए टिकट कटवा ली। कंफर्म बर्थ न मिल पाने के का द्वितीय श्रेणी के उस डिब्बे में जाकर बैठ गये, जहां कांग्रेस पार्टी के ही टिकट आकांक्षी नेता बैठे थे। रात को सभी नेता अपनी सीट पर सोने की तैयारी करने लगे। श्याम वानखेडे अखबार को फर्श पर बिछाकर सो गये। सभी ने उनकी यह कहकर खूब खिल्ली उडायी कि जब औकात नहीं है तो गाडी में सफर ही क्यों करते हो। बडा नेता बनने के लिए मालदार होना जरूरी है। तुम जैसों को अगर विधानसभा की टिकट मिलने लगी तो भगवान ही इस देश का मालिक होगा, लेकिन श्याम वानखेडे पर दिल्ली कुछ ऐसी मेहरबान हुई कि बडे नेता हाथ मलते रह गये और उन्हें टिकट मिल गई। एक साधारण कार्यकर्ता को विधानसभा की टिकट मिलने से महाराष्ट्र की राजनीति में तो हलचल मच गई। तब वानखेडे के पास खुद की साइकिल तक नहीं थी। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का भी पुराने नेताओं से ही जुडाव था, जो वर्षों से विधायक और सांसद बनते चले आ रहे थे। ऐसी स्थिति में वानखेडे ने अपने चंद साथियों के साथ पैदल चुनाव प्रचार कर जीत हासिल की और विरोधियों के पैरों तले की जमीन खिसका दी। मतदान के दिन पैरों में पडे छालों के कारण उनसे चलना नहीं हो रहा था। फिर भी उनके कदम नहीं थमे। उनकी कर्मठता और जुनून ने हर दल के नेता को हतप्रभ कर दिया। करोडों रुपये फूंकने के बाद भी चुनाव में मात खाने वाले विरोधियों की नींद उ‹ड गई। उन्होंने कभी कल्पना ही नहीं की थी कि बिना धन लुटाये भी विधानसभा का चुनाव लडा जा सकता है। उनके लिए यह कोई जादू था और श्याम वानखेडे जादूगर। इस महाजादूगर ने अपने कार्यकाल में जनसेवा को ही प्राथमिकता दी। इसी के परिणाम स्वरूप १९९० में कांग्रेस की टिकट पर दोबारा चुनाव लडकर विजयी हुए तो उन्हें मंत्री बनाकर ९ विभागों की जिम्मेदारी सौंपी गयी। अक्सर देखा जाता है कि जब कोई कार्यकर्ता या छोटा नेता अचानक विधायक और मंत्री बन जाता है तो उसके रंग-ढंग बदल जाते हैं। वह अपने क्षेत्र के लोगों को पहचानना भूल जाता है। उसे तो बस चंद चेहरे याद रहते हैं जो उसकी चाटूकारी करते हैं, लेकिन वानखेडे तो किसी और मिट्टी के बने थे। उन्होंने कभी आम जनता से मिलना-जुलना बंद नहीं किया। उनके घर के दरवाजे सभी के लिए खुले रहते थे। कई बार वे सुरक्षा घेरे से निकलकर क्षेत्र के किसी परिवार के बीमार सदस्य को अस्पताल में देखने और उसकी सहायता करने के लिए पहुंच जाते थे। सभी के सुख-दुख के साथी होने के कारण ही उन्हें सच्चा जननायक कहा जाता था। मंत्री होने के बावजूद वे पैदल भ्रमण करते थे और जनता की समस्याओं से रूबरू होते थे। आम जन के सुख-दुख के इस सच्चे साथी को लोग आज भी याद कर बस यही कहते हैं कि नेता हो तो बस ऐसा ही हो...।

Thursday, October 3, 2019

जनता का आतंकी चेहरा

सब्जी का कारोबार करने वाली दो सगी बहनें रांची के निकट स्थित एक गांव में लगने वाले साप्ताहिक बाजार में सब्जी खरीदने के लिए गईं  थीं। शाम को जब वे लौट रही थीं तो रास्ते में इनका ऑटो खराब हो गया। जहां ऑटो बिगडा था वहां से कुछ ही दूरी पर उनके परिचित रहते थे। रात दोनों वहीं रुक गईं । सुबह-सुबह हाथ में सब्जी के थैले पकडे शहर की तरफ बढ रही थीं तभी किसी ने अफवाह उडायी कि दो अनजान महिलाएं खेतों से सब्जी चोरी कर ले जा रही हैं। बस फिर क्या था। कुछ ही मिनटों में दर्जनों ग्रामीण उन्हें घेर कर अंधाधुंध मारने लगे। इतने में भी उनका मन नहीं भरा। दोनों को पेड से बांधकर तब तक पिटायी की गई जब तक वे अधमरी नहीं हो गईं। भीड में शामिल कुछ लोगों ने मौका पाते ही दोनों के बाल भी काट डाले। यह अच्छा हुआ, सूचना पाते ही पुलिस मौके पर पहुंच गई। वर्ना भीड तो दोनों को खत्म कर देने पर उतारू थी।
मुजफ्फरपुर के माडीपुर चित्रगुप्त नगर में बच्चा चोरी के शक में भीड ने दो महिलाओं को पकडा और जमकर पीटा। पुलिस के पहुंचने से पहले दोनों बुरी तरह से जख्मी हो चुकी थीं। सडक भी खून से लाल हो गई थी। इस घटना से दो दिन पूर्व भी कुछ लोगों ने एक विक्षिप्त उम्रदराज महिला को बच्चा चोरी के आरोप में सडक पर डंडों और लातों से पीटकर अपंग बना दिया। राजस्थान के झालावाड जिले में मोटर पंप चोरी के आरोप में ४० वर्षीय दलित की बेरहमी से पिटायी की गई। अस्पताल में उसकी मौत हो गई। ३ सितंबर २०१९ के दिन दिल्ली के अशोक विहार में भी बच्चा चोरी के शक में लोगों ने एक युवक की निर्मम हत्या कर दी। हुआ यूं कि वह युवक तडके करीब चार बजे रेलवे पटरी पर शौच के लिए गया था। उसी दौरान वहां दो बदमाशों ने उसे घेर लिया। बदमाशों ने रुपये और मोबाइल लूटने के लिए युवक को चाकू दिखाकर जान से मारने की धमकी दी। युवक अपनी जान बचाने के लिए भागा। इसी दौरान उसने कई घरों के दरवाजे खटखटाये, लेकिन किसी ने दरवाजा नहीं खोला। फिर एक घर के दरवाजे को हल्का-सा धक्का देने पर वह खुल गया। उसके अंदर जाते ही घर के सभी सदस्य बच्चा चोर का हल्ला मचा कर उसे पीटने लगे। वह युवक हाथ जोडकर गिडगिडाता रहा कि उसके पीछे बदमाश लगे हैं। वह बच्चा चोर नहीं है, लेकिन उसकी बिलकुल नहीं सुनी गई। आसपास के लोग भी जाग गये और भूखे जानवर की तरह उस पर टूट पडे। देश में ऐसी हिंसक घटनाओं की कतार-सी लग गई है। अकेले बिहार में ढाई महीनों के दौरान भीड की हिंसा ने १४ लोगों की जान ले ली और ४५ लोग घायल हो गये। जागरुकता अभियान चलाये जाने के बाद भी मॉब लिंचिंग शासन और प्रशासन के लिए गहन चिन्ता का विषय बनी हुई है। यह भी देखा जा रहा है कि पीडितों को बचाने की कोशिश करने वाले पुलिस अधिकारियों पर भी उन्मादी भीड हमला करने से नहीं घबराती। गौरतलब है कि बंगाल में मॉब लिंचिंग के खिलाफ विधानसभा में बिल पारित कर नया कानून बनाया गया है, जिसमें दोषियों को मृत्युदंड देने का प्रावधान किया गया है, फिर भी लोग सुधरे नहीं हैं। इस नये कानून के बाद भी तीन निर्दोषों की हत्या कर दी गयी। इतना ही नहीं जब पुलिस मौके पर पहुंची तो उसे भी पीटा गया। ऐसा लगता है कि देशभर में अफवाहों का बहुत बडा बाजार आबाद है। लोग सच की तह में जाए बिना हिंसक और हत्यारे बन रहे हैं। भीड हिंसा यानी मॉब लिंचिंग एक भयानक महामारी की शक्ल अख्तियार कर चुकी है, जो हर किसी को डराने लगी है। अफवाह फैलते ही भीड एकत्रित हो जाती है और बिना कोई पडताल किये किसी निर्दोष को अधमरा कर देती है या मार गिराती है।
अगर किसी ने कोई अपराध किया भी है तो भीड को यह अधिकार नहीं मिल जाता कि वह न्यायाधीश बन जाए। यह तो सरासर जल्लादगिरी है, हैवानियत है। भीड यानी जनता के हाथ यदि कोई अपराधी आता भी है तो उसे पुलिस को सौंपा जाना चाहिए। उसे दंडित करने का अधिकार जनता को किसने दिया है? यह तो बेहद जहरीली मानसिकता है। देश के कोने-कोने से अफवाहों के चलते की जा रही हिंसा और हत्याओं की खबरें किसी बारूद से कम नहीं हैं। इस बारूद के धमाकों ने देश को हिलाकर रख दिया है। जनता की यह गुंडागर्दी कानून के पंगु होने का भी एहसास करा रही है। ऐसा भी प्रतीत हो रहा है कि लोगों का न्याय व्यवस्था पर विश्वास कम होता चला रहा है। उन्हें लगने लगा है कि अपराधियों पर शिकंजा कसने में पुलिस अपनी सही भूमिका नहीं निभा रही है। इसलिए जब भी कोई अपराधी जनता की पकड में आता है तो वह उसे पुलिस को नहीं सौंपती। खुद ही उस पर टूट पडती है। पुलिस के प्रति यह अविश्वास निराधार नहीं है। फिर भी भीड की हिंसा को कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता। किसी की जान लेने और उसे अपमानित करने का हक तो किसी को भी नहीं। अब तो लोगों में पुलिस प्रशासन के प्रति विश्वास पैदा करना भी बहुत जरूरी हो गया है। वहीं जनता में भी जागरुकता लानी जरूरी है कि अफवाहें सच नहीं होतीं। हर जान कीमती होती है। उनके साथ और पीछे भी उनके परिजन, रिश्तेदार और स्नेही दोस्त होते हैं, जिन्हें उनकी हत्या की पीडा ताउम्र रूलाती है। जख्मों के जंग में बदलने और बदला लेने की शंका भी बनी रहती है।

Thursday, September 26, 2019

ऐसे भी जन्मदाता!

मायानगरी मुम्बई में रहती है अनमोल। मानव सेवा संघ अनाथालय में पल-बढकर शिक्षित हुई अनमोल को इस बात का बेहद दु:ख है कि पच्चीस साल की होने के बावजूद अभी तक उसे कोई अच्छी स्थायी नौकरी नहीं मिल पाई। जहां कहीं भी उसे नौकरी मिलती है तो वहां पर काम करने वाले कर्मचारी उसे ऐसे अजीब निगाहों से देखते रहते हैं, जैसे वह किसी अजायबघर की प्राणी हो। अनमोल को बहुत बुरा तो लगता है, लेकिन फिर भी वह सकारात्मक सोच का दामन नहीं छोडती। उसने लगातार संघर्ष करते-करते यह भी जान-समझ लिया है कि बेवजह घूरना, ताकना और फिकरे कसना कई पुरुषों की फितरत होती है। उन्हें कितना भी दुत्कारो, फटकारो पर वे अपनी हरकतों से बाज नहीं आते। अनमोल को तीव्र झटका तो तब लगता है, जब उसे यह कहकर नौकरी छोडने का आदेश दे दिया जाता है कि ऑफिस के सभी कर्मचारियों की आंखें उसके चेहरे पर टिकी रहती हैं, जिससे वे अपना काम बराबर नहीं कर पाते। इससे कंपनी को भारी नुकसान होता है। एक-एक कर कई कंपनियों से निकाली जा चुकी अनमोल की हिम्मत अभी भी नहीं टूटी है। वह रोज टूटती और जुडती है। इसी सिलसिले को उसने अपनी नियति और मुकद्दर मान लिया है।
आखिर कौन है अनमोल, जो सतत अपमान का विष पीते हुए भी अपने मनोबल और हौसले को जिन्दा रखे हुए है? जब भी कोई लडकी तेजाब हमले का शिकार होती है तो हर किसी के मन में यही विचार आता है कि यह किसी बददिमाग आशिक की हरकत होगी, जो लडकी की असहमति को बर्दाश्त नहीं कर पाया होगा। अगर मेरी नहीं तो किसी और की भी नहीं की  फिल्मी सोच ने उसे शैतान और दरिंदा बना दिया होगा। लेकिन अनमोल पर जो तेजाब हमला हुआ उसकी तो कल्पना करने से ही भय लगने लगता है। उसकी तो उसके जन्मदाता ने ही खुशियां छीन लीं। तब वह बहुत छोटी थी। मां ने उसे अपनी गोद में ले रखा था। गुस्साये पिता ने दोनों पर तेजाब उंडेल दिया। वे इस बात को लेकर हमेशा गुस्से में तमतमाये रहते थे कि मां ने एक बेटी को जन्म देकर बहुत ब‹डा अपराध किया था। वे तो सिर्फ बेटा चाहते थे। तेजाब से पूरी तरह झुलसने से मां चल बसी और पिता को जेल हो गई। अनमोल को अगर मां ने अपने आंचल से ढंका न होता तो वह भी मौत के मुंह में समा गई होती। उसका चेहरा बुरी तरह से झुलसा था। कई महीने अस्पताल में बिताने के बाद अनाथालय में उसे आश्रय मिला था। उसके चेहरे की रंगत पूरी तरह से बिगड गई थी। एक आंख की रोशनी भी छिन चुकी थी। मानव सेवा संघ अनाथालय के अधिकारियों ने बिना किसी भेदभाव के उसका पालन पोषण किया और बेहतरीन स्कूल और कॉलेज में प्रवेश दिलवाया। पढने-लिखने में होशियार अनमोल को स्कूल और कॉलेज में ही भेदभाव के शूल घायल करने लगे थे। कोई भी उसका दोस्त नहीं बनना चाहता था। उसकी योग्यता की कोई कीमत नहीं थी। सभी का उसके चेहरे की तरफ ही ध्यान जाता था। पढाई पूरी करने के बाद उसे एक निजी कंपनी में नौकरी तो मिली, लेकिन तेजाबी वार की मार खाये चेहरे के आडे आने के कारण संघर्ष अंतहीन होता चला गया। फिर भी अनमोल न तो थकी और ना ही हारी। हां मायूस जरूर हुई। इसी मायूसी और भेदभाव ने ही उसे और...और ताकतवर बन कुछ अलग हटकर कर दिखाने को बार-बार उकसाया।
फिर ऐसा भी नहीं है कि इस दुनिया में अच्छी सोच और मददगार हाथों की कमी हो। यहां-वहां धक्के खाने के दौरान उसने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म से जुडकर अपनी तस्वीरें पोस्ट करनी शुरू कीं। अपनी व्यथा भी उजागर कर दी। अब तो कई लोग सहायता का हाथ बढाने लगे हैं। अनजान लोग दोस्त भी बनने लगे हैं। कुछ कंपनियों ने अपने ब्रांड के प्रचार के लिए उसे साइन कर लिया है। अनमोल की हिम्मत का कमाल ही है कि उसने कुछ लोगों की मदद से एसिड अटैक सर्वाइवर्स की सहायता करने के लिए एनजीओ की भी स्थापना करने की हिम्मत कर दिखायी है। एनजीओ बनाने के पीछे अनमोल की बस यही मंशा है कि तेजाब हमले के शिकार हुए लोगों को रोजगार के भरपूर अवसर मिलें। कोई उनका मज़ाक न उडाये। ऐसी अजीब निगाहों से न देखा जाए, जैसे उन्हीं ने कोई ऐसा अपराध किया है, जिसकी वजह से वे कहीं भी उठने-बैठने-रहने के हकदार नहीं हैं। वे भी सामान्य तरीके से हंसी-खुशी अपना जीवन जी सकें। अनमोल कहती है कि अधिकांश लोग तेजाब पीडितों के दर्द को समझना ही नहीं चाहते। सोशल मीडिया में भी अनमोल के प्रशंसकों की संख्या में निरंतर इजाफा हो रहा है, जो उसका हौसला बढाते रहते हैं।
अक्सर ट्रकों, बसों, टैंपो आदि के पीछे यह नारा लिखा देखा जाता है- बेटी पढाओ, बेटी बचाओ। इसे पढने के बाद ऐसा लगता है कि भारतवासियों को बेटियों की बहुत चिंता है, लेकिन जब बेटियों को गर्भ में मारने, बच्चियों, लडकियों और महिलाओं पर बलात्कार करने, तेजाब से नहला देने और उन्हें खरीदी-बिक्री की वस्तु बना देने की खबरें सामने आती हैं तो तब दिल-दिमाग पर जो गुजरती है उसे शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता।
देश की राजधानी दिल्ली में कर्ज उतारने के लिए एक मां ने अपनी १५ वर्षीय बेटी को एक लाख रुपये में मानव तस्करों को बेच दिया। तस्कर हरियाणा के किसी उम्रदराज रईस से किशोरी की शादी करवाकर काफी मोटी रकम वसूलने की तैयारी में थे। इसी बीच १२ सितम्बर २०१९ की दोपहर किशोरी किसी तरह से तस्करों के चंगुल से निकली और पुलिस तक जा पहुंची। पुलिस को जब उसने अपनी आपबीती बताई तो वे भी दंग रह गये। किशोरी के पिता का देहांत हो चुका है। परिवार में मां, चार भाई और बहन है। कमायी का कोई पुख्ता जरिया न होने के कारण मां पर ढाई लाख का कर्ज हो गया था। कर्जवसूली के लिए जब कर्जदाताओं का दबाव बढने लगा तो मां ने बेटी को ही बेचने का इरादा कर लिया। वह बेटी को हजरत निजामुद्दीन के होटल में लेकर गई। वहां पर वह मानव तस्करों से मिली। कुछ देर बाद उसने बेटी से कहा कि मुझे कुछ काम है। अभी थोडी देर बाद आकर उसे अपने साथ ले जाऊंगी। बेटी मां का इंतजार करती रही, लेकिन वह नहीं लौटी। तस्करों से उसे पता चला कि वह तो बेची जा चुकी है...!

Thursday, September 19, 2019

छोटी-सी भूल

नया मोटर वाहन अधिनियम लागू होने के बाद अधिकांश भारतवासी सजग हो गये हैं। सडक हादसों में भी निश्चित तौर पर कमी आई है। यातायात नियमों का उल्लंघन करने वालों से भारी जुर्माना वसूले जाने से अब वे लोग भी लाइसेंस और पॉल्यूशन पेपर आदि बनवाने के लिए कतारों में लगे नजर आने लगे हैं, जो वर्षों में ट्रैफिक पुलिस की आंखों में धूल झोंककर या उनकी मुट्ठी गर्म कर यातायात नियमों की धज्जियां उडा रहे थे। आरटीओ कार्यालयों में लगी भीड से सहज ही इस हकीकत को जाना और समझा जा सकता है कि कडे कानून का नागरिकों पर कैसा असर प‹डता है। भारी-भरकम चालान की राशि ने कईयों की आंखें खोल दी हैं। उनकी समझ में यह भी आ गया है कि यातायात के सभी नियम उन्हीं की सुरक्षा और फायदे के लिए हैं। केंद्रीय सडक परिवहन मंत्री की इस बात से हर जागरूक भारतीय सहमत है कि मोटर वाहन अधिनियम-२०१९ में बढा जुर्माना सरकार का खजाना भरने के लिए नहीं, बल्कि भारत की सडकों को अधिक से अधिक सुरक्षित बनाने के लिए है। इस पर किसी को कोई आपत्ति नहीं कि सडकों पर ट्रैफिक नियम तोडने वालों को इतनी कडी सजा तो मिलनी ही चाहिए कि वे दोबारा ऐसा करने की हिम्मत ही न कर पाएं। ट्रैफिक पुलिस वालों को भी सुधारना और उन पर भी अंकुश लगाना जरूरी है। कई वर्दीधारी खुद ट्रैफिक नियमों का पालन करते नजर नहीं आते। उनकी रिश्वत लेने की आदत  भी जस-की-तस बनी हुई हैं। उनके अमानवीय व्यवहार के कारण वाहन चालकों में बेहद असंतोष है। मारपीट की खबरें सुर्खियां पा रही हैं। कहीं आक्रोशित नागरिक वर्दी वालों की पिटायी कर रहे हैं तो कहीं नागरिक पिट रहे हैं। कहीं-कहीं तो पुलिसिया गुंडागर्दी अपनी सभी सीमाएं पार कर हत्यारी बनती दिखायी दे रही है।
दिल्ली के निकट स्थित नोएडा में वाहन चेकिंग के दौरान पुलिस वालों की दादागिरी ने एक युवक की जान ही ले ली। एक सॉफ्टवेयर कंपनी में काम करने वाले शताब्दी विहार निवासी गौरव अपने माता-पिता के साथ कार से जा रहे थे। उनके साथ आगे की सीट पर उनके पिता बैठे थे। दोनों ने सीट बेल्ट लगा रखी थी। सेक्टर-६२ के अंडरपास से निकलते ही तीन-चार ट्रैफिक पुलिस वालों ने रुकने को कहा। गौरव कार रोक ही रहे थे कि उन्होंने एकाएक कार पर ऐसे डंडे मारने शुरू कर दिये जैसे गौरव कोई ऐसे अपराधी हों, जिसकी पुलिस को वर्षों से तलाश रही हो। गौरव ने गाडी से उतर कर इस अभद्र व्यवहार का कारण पूछा तो पुलिस वाले और उग्र हो गये और जोर-जोर से अभद्र भाषा का इस्तेमाल करने लगे। वर्दी वालों की गुंडई का तमाशा देखने के लिए भीड भी इकठ्ठी हो गई। अनुशासित और शालीन गौरव ने ऐसा घटिया मंजर कभी नहीं देखा था। कभी भी ऊंची आवाज में नहीं बोलने वाले गौरव को इसी दौरान दिल का दौरा पडा और उनकी मौत हो गई। गौरव की मौत के बाद पुलिस अधिकारी तरह-तरह के भ्रामक बयान देते रहे। गौरव के पिता का कहना है कि गौरव को किसी तरह की कोई बीमारी नहीं थी। वह पूरी तरह से भला-चंगा था। पुलिसवालों की गंदी जुबान और हिटलरशाही की वजह से मेरी आंखों के सामने सबकुछ लुट गया और मैं कुछ न कर सका।
इस जरूरी सच को कभी भी विस्मृत न करें कि यातायात नियमों का गंभीरता से पालन करना हमारी अपनी जिन्दगी के लिए निहायत जरूरी है। पुलिस के डर और जुर्माने से बचने के कारण जो लोग सुरक्षा के प्रति सचेत रहने का नाटक करते हैं उन्हें भी अपनी सोच और तौर तरीके बदलने होंगे। अक्सर देखा गया है कि छोटी-सी भूल और लापरवाही की कीमत उम्रभर चुकानी पडती है। पछतावा कभी भी पीछा नहीं छोडता। अपनी संतानों को सडक नियमों के पालन के लिए प्रेरित करना माता-पिता की जिम्मेदारी भी है, कर्तव्य भी। जो मां-बाप अपने कम उम्र के बच्चों को कार और बाइक थमा देते हैं उन्हें भी सचेत हो जाना चाहिए। छोटी सी भूल की बहुत बडी कीमत चुकानी पड सकती है।
उत्तर प्रदेश के शहर रामपुर के निवासी मकसूद ने अपने १४ साल के बेटे को बडी उमंग के साथ एक महंगी बाइक खरीद कर दी थी। २७ नवंबर २०१४ के दिन उनका बेटा मारूफ सडक पर बडी तेजी से बाइक दौडा रहा था। इसी दौरान बाइक फिसल गई। मारूफ का सिर डिवाइडर से जोर से टकराया। सिरपर काफी गंभीर चोटें आई और बेहोश हो गया। तब उसने न तो सिर पर हेलमेट लगा रखा था और न ही उसे यातायात नियमों की जानकारी थी। पुत्र मोह में अंधे हुए पिता ने भी अपने लाडले बेटे को हेलमेट लगाने की हिदायत देना जरूरी नहीं समझा था। कुछ जागरूक शहरियों ने लहुलूहान मारूफ को अस्पताल पहुंचाया। डॉक्टरों की सलाह पर उसे दिल्ली के फोर्टिस अस्पताल में ले जाया गया। जहां पर ७० दिन तक आइसीयू में रहने के बाद भी उसे होश नहीं आया। मारूफ पांच साल से बिस्तर पर है। न कुछ बोल सकता है और न ही हिल-डुल सकता है। मां रुखसाना और पिता मकसूद अपने बच्चे की दयनीय हालत को देखकर दिन-रात आंसू बहाते रहते हैं। विभिन्न अस्पतालों में इलाज करवाया जा चुका है। दो करोड रुपये खर्च हो चुके हैं फिर भी उनका बेटा कोमा में है। उन्हें उम्मीद है कि एक-न-एक दिन कोई चमत्कार होगा, जिससे उनके बेटे को होश आएगा। मारूफ का जब एक्सीडेंट हुआ था तब उसका चेहरा साफ था, लेकिन अब दाडी-मूंछ भी निकल आई है। उसके पिता को इस बात का बहुत अफसोस है कि उनकी भूल की वजह से उनका बेटा इतनी बडी सजा भुगत रहा है। उन्होंने महज १४ वर्ष के पुत्र को बाइक खरीद कर नहीं दी होती, इतनी कम उम्र में उसे चलाने की अनुमति नहीं दी होती तो यह नौबत ही नहीं आती। उन्हें इस बात का भी बेहद मलाल है कि बेटा अगर हेलमेट लगाए होता तो उसके सिर में इतनी गहरी चोट नहीं लगती। पिता मकसूद अब दूसरों को बार-बार नसीहत देते हैं कि बच्चों की जिद के आगे कभी न झुकें। उन्हें किसी भी हालत में बाइक खरीदकर न दें। कम उम्र के बच्चों को वाहन न चलाने दें। हेलमेट, सीट बेल्ट का इस्तेमाल अवश्य करें और हर यातायात नियमों का पूरी तरह से पालन करें।

Thursday, September 12, 2019

आप खुद समझदार हैं

अपने यहां सौ में से नब्बे लोग यही कहते और मानते हैं कि भ्रष्टाचार का कभी भी खात्मा नहीं हो सकता। यह धारणा निराधार भी नहीं है। जो तस्वीर लगभग हर जगह टंगी नजर आती हो, जो सच पूरी तरह से नंगा हो चुका हो उसे भला कैसे नकारा जा सकता है? रिश्वतखोरी को जड से मिटाने के लिए राजनेता और सत्ताधीश वर्षों से आश्वासन देते चले आ रहे हैं, लेकिन यह रोग तो बढता ही चला जा रहा है। कोई भी दिन ऐसा नहीं गुजरता जब अखबारों और न्यूज चैनलों पर भ्रष्टाचारी, रिश्वतबाजों की खबरें पढने और सुनने को न मिलती हों। देश के हर सरकारी विभाग में रिश्वतखोर, जेबकतरों का साम्राज्य चल रहा है। इन बेईमानों ने हिन्दुस्तान के आम आदमी के मन-मस्तिष्क में यह बात बिठा दी है कि जेब ढीली करोगे तो हर काम आसान हो जाएगा। नहीं तो उम्र भर चप्पलें घिसते रह जाओगे। रिश्वतखोरी में अपने देश ने दुनिया के लगभग सभी देशों को मात दे दी है। सरकारी कर्मचारियों और अधिकारियों के जेब गरम करना कल भी जरूरी था और आज भी इसके बिना पत्ता नहीं हिलता। मूलभूत सुविधाओं को पाने के लिए भी जेब ढीली करनी पडती हैं। शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र भी भ्रष्टाचारियों के चंगुल में फंस चुके हैं। रेलवे में तो घूसखोरी परम्परा बन गई है, जिसका पालन अमीरों के साथ-साथ गरीब भी बेहिचक करते हैं। पुलिस विभाग का तो कहना ही क्या...। गरीब पुलिस थानों में जाने से घबराते हैं। अमीरों को खाकी को अपनी अंगुलियों पर अच्छी तरह से नचाना आता है। यह कलमकार सतत लिखता चला आ रहा है कि रिश्वतखोरी पर तभी लगाम लग पायेगी जब हम स्वयं को बदलेंगे। जब तक हम अपना काम निकलवाने के लिए इस दस्तूर को निभाते रहेंगे तब तक यह बीमारी बनी रहेगी। शासन और प्रशासन को कोसने से कुछ नहीं होगा।
लापरवाही, अनुशासनहीनता, मतलबपरस्ती हम अधिकांश भारतीयों की आदत में शुमार है। इन्हीं कमजोरियों ने हमारे देश को सर्वाधिक दुर्घटनाओं वाले देश की कुख्याति दिलायी है। दुनिया के किसी और देश में सडक दुर्घटनाओं में इतनी जन-धन की हानि नहीं होती जितनी भारत में। साल भर में अपने देश में पांच लाख सडक हादसे होते हैं। इनमें डेढ लाख लोगों की मौत हो जाती है। ढाई से तीन लाख लोग हाथ-पैर टूटने के कारण दिव्यांग हो जाते हैं। यह सच भी बेहद पीडादायक है कि सडक दुर्घटनाओं में मारे जाने वाले अधिकतर १८ से ३५ आयु वर्ग के युवा रहते हैं। सडक दुर्घटनाओं का शिकार होने वाले लोगों के परिजनों को इलाज का भारी भरकम खर्च उठाना पडता है। भारत के कई मध्यम वर्गीय और गरीब परिवार इस खर्च की वजह से आर्थिक बदहाली का शिकार होने के साथ-साथ जिस नारकीय पीडा को निरंतर सहने को विवश होते हैं उसका अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अधिकांश सडक दुर्घटनाओं के प्रमुख कारण शराब पीकर वाहन चलाना, हेलमेट न पहनना, वाहन को तेजगति से चलाना, वाहन चलाते समय मोबाइल पर बात करना, टूटी-फूटी गढ़ों वाली सडकों तथा सडकों पर आवारा पशुओं का होना है। जानबूझ कर ट्रैफिक नियमों का पालन नहीं करने वालों की भी अपने देश में भरमार है। यह अति होशियार किस्म के लोग लाल बत्ती देखकर भी नहीं रुकते। सभी ट्रैफिक संकेतों का पालन करना तो बहुत दूर की बात है। बेखौफ होकर कानून की धज्जियां उडाने वालों के कारण भी भ्रष्टाचार की रफ्तार में निरंतर इजाफा हुआ है।
स‹डकों पर होने वाली दुर्घटनाओं में कमी लाने के उद्देश्य से संशोधित मोटर वाहन कानून लागू किया गया है। नए मोटर वाहन कानून में दस गुना तक जुर्माना राशि में बढोतरी हो गई है। बिना ड्राइविंग लाइसेंस के गाडी चलाने पर ५०० रुपये के बजाय पांच हजार का जुर्माना, छोटे वाहनों को तेज रफ्तार से चलाने पर एक से दो हजार, बडे वाहनों पर चार हजार रुपये का जुर्माना, शराब पीकर वाहन चलाने संबंधी पहले अपराध के लिए छह माह की जेल या दस हजार रुपये के जुर्माने की सजा, दूसरी बार अपराध करने पर दो साल की जेल और १५ हजार के जुर्माने की सजा का प्रावधान किया गया है। इसमें दो मत नहीं कि यह अंधाधुंध बढोतरी है। इसके विरोध में स्वर भी उठने लगे हैं। राज्य सरकारें भी ढीली पडती नजर आ रही हैं। केंद्र सरकार को भी पता था कि बेतहाशा जुर्माना वसूलने के निर्णय का विरोध होगा, लेकिन लोगों की लापरवाही, नियमों की अनदेखी के कारण जिस तरह से सडक दुर्घटनाओं में इजाफा हो रहा है, उससे इस कदम को उठाना जरूरी हो गया था। इंसान की जान के सामने जुर्माने की रकम कोई मायने नहीं रखती। जान है तो जहान है। सरकार तो यही चाहती है कि हर भारतवासी अपने कर्तव्य के प्रति सतर्क रहे। वाहन चलाते समय ऐसी कोई भूल न करे, जिससे उसकी और दूसरों की जान संकट में पड जाए। यह भी कहा जा रहा है कि भ्रष्ट पुलिस वालों की और अधिक कमाई का बंदोबस्त कर दिया गया है। लोग दस हजार रुपये जुर्माना देने की जगह हजार-दो हजार की रिश्वत देकर छुटकारा पा लेंगे। हमारे यहां जहां गरीब यातायात नियमों को तोडने से घबराते हैं, वहीं खुद को हर मामले में समर्थ मानने वाले कई आत्ममुग्ध अहंकारी लोग आश्वस्त रहते हैं कि उनके धन, रसूख और पद के समक्ष ट्रैफिक पुलिस और नियम-कानून की कोई औकात नहीं है। अक्सर देखने में आता है कि तथाकथित वीआईपी, समाज सेवक, नेता, सफेदपोश माफिया, न्यूज चैनलों और अखबारों के मालिक, लेखक, पत्रकार, संपादक तथा दलाल नियमों की ऐसी-तैसी करते रहते हैं। उनकी जान-पहचान, रुतबे और पहचान-पत्र के सामने ट्रैफिक पुलिसवाला खुद को बौना पाता है। उसे फौरन ध्यान आता है कि इन धुरंधरों के विभिन्न कार्यक्रमों के मंचों पर तो मंत्री-संतरी, कलेक्टर, एसपी और डीएसपी विराजमान होकर हार, गुलदस्ते और प्रशस्ति पत्र से सम्मानित और गौरवान्वित होते हैं और लड्डू का भोग लगाते हैं। यह जानते हुए भी 'हस्ती' नशे में टुन्न है, उसका रास्ता नहीं रोका जाता। बडा-सा सलाम कर बडे आदर के साथ उन्हें विदा कर दिया जाता हैं। तो फिर ऐसे दूरदर्शी 'वर्दीधारी सेवकों' का कानूनी डंडा किस पर बरसता है? लिखने और बताने की कोई जरूरत ही नहीं। आप खुद समझदार हैं।

Thursday, September 5, 2019

परवरिश

कैंसर आज भी दहशत का पर्याय है। जिस पर भी इस बीमारी की छाया पडती है उसके होश उड जाते हैं। मजबूत से मजबूत इंसान की आंखों के सामने अंधेरा छाने लगता है। इस दुनिया से विदाई के ख्याल मात्र से हौसले डगमगाने लगते हैं। जो बीमारी अच्छा-खासा जीवन जी चुके इंसानों को भयभीत कर देती है और उनके परिजन निरंतर चिंतित और घबराये रहते हैं तो ऐसे में सोचिए उस परिवार पर क्या गुजर रही होगी, जिनकी मात्र तीन साल की बच्ची इस जानलेवा बीमारी का शिकार हो गई है। हालांकि इसमें उनकी ही घोर लापरवाही और बहुत बडी गलती है। इतनी कम उम्र की बच्ची को कैंसर की बीमारी होने से डॉक्टर भी स्तब्ध रह गये हैं। पहले तो उन्हें यकीन ही नहीं हो रहा था। मासूम को कैंसर होने की वजह ने भी डॉक्टरों को हक्का-बक्का कर दिया। परिजनों की काउंसलिंग पर यह सच सामने आया है कि बच्ची को मात्र डेढ साल की उम्र में पान मसाला खाने की आदत लग गई थी। इसी वजह से उसे कैंसर हो गया है। रीना नाम की इस बच्ची के माता-पिता और परिवार के अन्य सदस्य विभिन्न पान मसाले खाने के आदी हैं। बच्ची अक्सर उन्हें जब यह शौक फरमाते देखती तो उसका मन भी ललचाने लगता। तरह-तरह के पान मसाले और सुपारी घर के हॉल में ही रखी रहती थी। मासूम रीना ने किस दिन से पान मसाला और सुपारी खानी शुरू की इसका सटीक पता तो घर वालों को नहीं लग पाया, लेकिन कुछ ही दिनों में वह इसकी इतनी आदी हो गई कि सुबह, दोपहर, शाम बस पान मसाला ही उसके मुंह में रहता। मां-बाप ने प्रारंभ में इसे गंभीरता से नहीं लिया, लेकिन जब उसने दूध पीना और खाना-खाना बंद कर दिया तो वे चौकन्ने हो गये, लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी। चिडिया खेत चुग चुकी थी। तीन साल की रीना का मुंह खुलना ही बंद हो गया था। माता-पिता ने कुछ दिन तक इधर-उधर के डॉक्टरों को दिखाया। झाड-फूंक भी करवाई पर बच्ची की हालत में ज़रा भी सुधार नहीं आया। आखिरकार उसे दिल्ली के मौलाना आजाद मेडिकल कॉलेज में भर्ती कराया गया, जहां उसकी हालत धीरे-धीरे सुधर रही है। अस्पताल के डॉक्टर लापरवाह नशेडी मां-बाप पर बेहद आक्रोषित हैं। बच्ची की दयनीय हालत देखते ही उन्होंने जमकर लताड लगायी। उन्हीं की अनदेखी और बेवकूफी की वजह से महज तीन वर्ष की मासूम को कैंसर जैसी भयानक बीमारी का शिकार होना पडा। ये अक्ल के अंधे एक तो वे बच्ची के सामने ही नशा करते थे, तो दूसरे नशे के सामान को घर की खिडकी और हॉल में ही रख देते थे। उनकी गंदी आदत ने बच्ची के दिमाग में ऐसी पैठ जमायी कि वह खाना-पीना भूल पान मसाला की गुलाम होती चली गई!
पंजाब में हजारों लोग नशे के गर्त में समा चुके हैं। शराब और ड्रग्स ने कितने किशोरों और युवकों को उपहार में मौत दी है, इसका सही आकडा उपलब्ध नहीं है। फिर भी इनकी संख्या भी हजारों में है। नशे के असंख्य अतिबाजों के कारण ही पंजाब देश और दुनिया में बदनाम है। इसी पंजाब में अब तो महिलाएं भी नशे की गिरफ्त में फंसती चली जा रही हैं। अमृतसर के एक परिवार को तो अपनी २४ वर्षीय बेटी को नशे से दूर रखने के लिए जंजीरों में बांधकर रखने को मजबूर होना पडा है। यह नशेडी युवती शराब और ड्रग्स खरीदने के लिए अपने घर का कीमती सामान कौडियों में बेच देती है। घरवाले यदि कभी उसे जंजीरों से मुक्त करते हैं तो वह घर का सामान बेच कर नशा करने में देरी नहीं लगाती। परिवार ने सरकार के समक्ष गुहार लगाई है कि उनकी इकलौती बेटी को नशे की आदतों से छुटकारा दिलवाने में सहायता दी जाए। यह भी जान लें कि युवती वर्षों से नशा करती चली आ रही है। यदि मां-बाप उसे अच्छी परवरिश देते, प्रारंभ में ही सतर्क रहते तो उन्हें यह दिन नहीं देखने पडते।
इंसान की पहली पाठशाला घर होता है, जिसमें शिक्षक होते हैं माता-पिता और करीबी रिश्तेदार। यहीं से उसे जो संस्कार मिलते हैं, उन्हीं का असर जीवनपर्यंत बना रहता है। 'कौन बनेगा करोडपति' के ११वें सीजन में साढे बारह लाख रुपये जीतने वाली २९ वर्षीय दिव्यांग नुपुर लडखडाते कदमों से जब हॉट सीट की ओर बढ रही थी तब सभी के मन में उसके प्रति सहानुभूति और दया का भाव था, लेकिन उसके चेहरे पर विराजमान आत्मबल, धैर्य और स्वाभिमान की चमक यह कह रही थी कि मुझे किसी की दया की जरूरत नहीं है। मैं अपनी लडाई खुद लडने में सक्षम हूं। सदी के महानायक अमिताभ बच्चन के सामने हॉट सीट पर बैठकर नुपुर ने जिस आत्मविश्वास के साथ अपने अतीत का सच साझा किया वह कम डरावना नहीं था। जब उसका जन्म हुआ तब उसकी सांसें नहीं चल रही थीं। डॉक्टरों ने उसे मृत मान कचरे के डिब्बे में डाल दिया था। वहां पर मौजूद उसकी नानी ने डॉक्टर से नवजात को कचरे से उठाकर साफ-सफाई कर परिवार को सौंपने का निवेदन किया। डॉक्टर ने नवजात बच्ची को उठाकर बडे बेमन से उसके जिस्म की सफाई की तो नानी ने बच्ची के मृत होने के डॉक्टरों के यकीन को जांचने के लिए बच्ची के गाल पर थप्पडें मारीं तो वह जोर-जोर से रोने लगी। उसका यह रोना लगातार बारह घण्टे तक जारी रहा। डॉक्टर शर्मसार होकर रह गये। बच्ची के मां-बाप उसे घर ले आये। उन्होंने काफी सावधानी से उसकी देखभाल की। जन्म के छह माह बाद माता-पिता को बेटी के दिव्यांग होने का पता चला। उसका आधा शरीर लकवाग्रस्त था। यह सब डॉक्टरों की घोर लापरवाही की वजह से हुआ था। कई अनुभवी डॉक्टरों से इलाज के बावजूद बच्ची ठीक नहीं हो पायी। नुपुर को उसके माता-पिता ने बचपन से ही लाचारी को खुद पर कभी भी हावी नहीं होने की सीख दी। किसान की इस बेटी को भी अपने असहाय होने का जैसे-जैसे अहसास होता चला गया, उसकी इच्छाशक्ति बढती चली गई। उसकी पढने की ललक को देखकर उसे कान्वेंट स्कूल में प्रवेश दिलाया गया। स्कूल और कॉलेज में वह सभी की चहेती थी। स्नातक होने के बाद नुपुर बच्चों को घर में पढाने लगी। खुद शिक्षित होने के बाद अपने जैसे बच्चों को शिक्षित और समर्थ बनाने के लिए शिक्षादान में जुटी नुपुर कहती हैं कि खुद को कभी कमजोर मत होने दो, सूरज को डूबते देखकर लोग दरवाजा बंद करने लगते हैं। लडखडाते कदमों से कामयाबी का सफर तय करने वाली इस आत्मस्वाभिमानी बेटी ने न कभी बैसाखी का सहारा लिया और न ही ट्राई साइकिल का। उसे दया और सहानुभूति दिखाने वाले लोग नापसंद हैं। उसकी अपार प्रतिभा, सकारात्मक सोच और फौलादी संकल्प का ही कमाल है कि वह उस 'कौन बनेगा करोडपति' कार्यक्रम के लिए चुनी गई, जिसमें भाग लेना कोई बच्चों का खेल नहीं है। वहां तक पहुंचने में ही बडे-बडे विद्वानों तक के पसीने छूट जाते हैं। दुबली-पतली उन्नतीस वर्ष की होने के बावजूद बारह-तेरह साल की बच्ची-सी दिखने वाली दिव्यांग नुपुर ने न सिर्फ इस कार्यक्रम में भाग लिया बल्कि अच्छी-खासी रकम भी जीतकर दिखा दिया है कि अच्छी परवरिश और बुलंद इरादे बडी से बडी शारीरिक कमजोरी को शिकस्त दे सकते हैं।

Thursday, August 29, 2019

दानवीर और दानवीर

अपने देश की बात ही कुछ और है। यहां के नेता अच्छे-खासे अभिनेताओं को भी मात देते हैं। उनकी सोच, उनके इरादों को आसानी से नहीं समझा जा सकता। यहां पर छंटे हुए गुंडे-बदमाश, जन्मजात अपराधी भी नेता का मुखौटा लगाकर चुनाव जीत जाते हैं। अपने यहां की जनता भी कम भोली नहीं है। उसे जाति-धर्म का पाठ पढाकर बार-बार बेवकूफ बनाना बडा आसान है। यही दुनिया के सबसे बडे लोकतांत्रिक देश भारतवर्ष की पहचान है। कई नकाबपोश विधायक, सांसद और मंत्री बनने में कामयाब होते चले आ रहे हैं। उनके मायावी भाषणों का जादू आज भी मतदाताओं को मदमस्त कर देता है। एक जादूगर के द्वारा पिलायी गई शाब्दिक शराब का नशा जब तक टूटता है, तब तक कोई दूसरा नया महाजादूगर जनता की आखों में धूल झोंकने के करतब दिखाने के लिए मंच पर विराजमान हो जाता है। हिन्दुस्तान के नब्बे प्रतिशत राजनेता चालबाजी की कलाकारी में सिद्धहस्त हैं। आजादी के बाद सत्ता का अनवरत सुख भोगने वाले राजनेताओं के इतिहास के पन्नों को सजगता और गंभीरता के साथ पढने पर हम यही पाते हैं कि सही मायने में जनसेवा करने वालों की तुलना में राजनीति को व्यापार बनाने वालों की तादाद बहुत ज्यादा है। जो ईमानदार नेता वाकई देश की तस्वीर बदलने की चाहत रखते हैं, भ्रष्टाचार का खात्मा करना चाहते हैं उनके लिए तो चुनाव जीतना भी मुश्किल हो जाता है। धनबल और तरह-तरह की अन्य तिकडमों की बदौलत चुनाव जीतने वाले खुद को खास समझते हैं। सत्ता के मद में भूल जाते हैं कि आज वे जो कुछ भी हैं, आम लोगों की बदौलत हैं। वोटरों ने बहुत उम्मीदों के साथ उन्हें इस ऊंचाई पर पहुंचाया है। उनकी तकलीफों का समाधान करना और सिर्फ और सिर्फ उन्हीं के भले के लिए कार्यरत रहना ही उनका एकमात्र फर्ज है, लेकिन सत्ता पर काबिज होते ही नेताओं को अपने बाल-बच्चे और रिश्तेदार ही सबकुछ लगने लगते हैं उन्हें, अधिक से अधिक फायदा पहुंचाने के अलावा इन्हें और कुछ सूझता ही नहीं। यह अगर कभी किसी गैर की सहायता करते भी हैं तो जोर-शोर से ढोल पिटवाते हैं। अखबारों और न्यूज चैनलों के जरिए दिन-रात अपनी दानवीरता का प्रचार करवाते हैं। यह शूरवीर नेता, मंत्री बडे-बडे मंचों पर खडे होकर हजारों लोगों के सामने अक्सर जब दो-तीन हृदय और कैंसर रोगियों को इलाज के लिए सरकारी चेक थमाते हैं, तो इनका तना हुआ सीना देखते ही बनता है। लोगों में यह भ्रम भी बनाया जाता है कि उनसे बडा दानवीर इस देश में और कोई है ही नहीं। उन्होंने अभी तक कितने 'बीमारों' के इलाज के लिए ऐसे चेक प्रदान किये हैं इसका भी पूरा लेखाजोखा मंच पर खडा उनका सिखाया पढाया चेला फौरन प्रस्तुत कर देता है, जिससे जबर्दस्त तालियां बजती हैं। ऐसे नेताओं की भीड में पूर्व वित्तमंत्री अरुण जेटली ऐसे महापुरुष थे, जिन्होंने अपनी एक अलग राह चुनी। अपने जीवनकाल में कई जरूरतमंदों की अपनी कमायी से सहायता की, लेकिन किसी को खबर नहीं लगने दी। जिस स्कूल में उनके बच्चों ने पढाई की उसी स्कूल में उन्होंने अपने ड्राइवर और निजी स्टाफ के बच्चों को पढाया। दरअसल वे अपने सहयोगियों और निजी स्टाफ को अपने परिवार का ही हिस्सा मानते थे। उन्हें अपने किसी कर्मचारी के बच्चे में प्रतिभा नज़र आती तो वे उसे अच्छे से अच्छे विद्यालय में पढने के लिए भेजने की व्यवस्था करने में जरा भी देरी नहीं लगाते थे। यहां तक कि विदेश में पढने के लिए भी भेज देते थे। कुछ सहयोगी तो ऐसे हैं, जो जेटली के परिवार से दो-तीन दशक से जुडे हुए हैं। इनमें से तीन के बच्चे अभी भी विदेश में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं। उनके यहां के रसोइये की बेटी लंदन में अध्ययनरत है। उनके यहां कार्यरत कई कर्मचारियों के बच्चे डॉक्टर, इंजीनियर, कलेक्टर, पुलिस अधिकारी, वकील आदि बनकर देश की सेवा कर रहे हैं। अपने सहयोगियों के बच्चों को पढाने की फीस से लेकर उनकी नौकरी तक की चिन्ता और प्रबंध करने वाले जेटली बेहद व्यस्तता के बावजूद भी जिस तरह से अपने बच्चों पर नज़र रखते थे वैसे ही अपने साथियों के बच्चों के प्रति फिक्रमंद थे। कोई बच्चा यदि अच्छे अंक लाता तो उसे विशेष रूप से पुरस्कृत और प्रोत्साहित करते थे। वर्ष २००५ में उन्होंने अपने एक सहयोगी के बेटे को लॉ की पढाई के दौरान अपनी ६६६६ नंबर की एसेंट कार उपहार में दी थी। जेटली उसूलों के बहुत पक्के थे। अपने बेटे और बेटी को जेब खर्च भी चेक से देते थे। अपने स्टाफ को वेतन और जो भी मदद राशि देते थे वह भी चेक से दी जाती थी। जेटली पूरी तरह से राजनीति में आने से पहले वकालत करते थे। कुशल वकील होने के कारण वकालत के क्षेत्र में उनका बडा नाम था। मोटी फीस लेते थे। इस पेशे से उन्होंने करोडों की धन-सम्पत्ति बनायी। दिल्ली में सबसे ज्यादा आयकर चुकाने वालों में शामिल रहे इस सिद्धांतवादी शख्स ने अधिकांश नेताओं की तरह राजनीति को धन कमाने का माध्यम नहीं बनाया। चार दशक से ऊपर के राजनीतिक जीवन में कभी भी उन पर भ्रष्टाचार के आरोप नहीं लगे। इस निष्कलंक राजनेता ने कभी भी अपने पढे-लिखे बेटे-बेटी के लिए चुनावी टिकट नहीं मांगी। अगर वे चाहते तो दोनों को आसानी से भाजपा में बहुत अच्छी जगह दिलवा सकते थे। सांसद और मंत्री भी बनवा सकते थे। अपने यहां तो अधिकतर होता ही यही है कि कोई भी नेता विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही अपने बच्चों के भविष्य को संवारने के जोड-जुगाड में लग जाता है। इसके लिए उसे राजनीति की भूमि ब‹डी उपजाऊ नजर आती है, जहां धन पैदा करने के लिए ज्यादा मेहनत नहीं करनी पडती।  हमने कई ऐसे विधायक, सांसद, मंत्री देखे हैं, जिनमें अपनी औलादों के साथ-साथ पत्नी को भी राजनीति में उतारने का भूत सवार रहता है। अपने सपने को साकार करने के लिए हर तरह के हथकंडे अपनाते हैं, जिसे कोई जानता नहीं, जिसका कभी जनसेवा से नाता नहीं होता वह मंत्री की पत्नी एकाएक महिला मंचों पर मुख्य अतिथि के तौर पर नज़र आने लगती है। अखबारों में भी मुख्यपृष्ठ पर उसकी तस्वीरें छपने लगती हैं। अपनी अनपढ पत्नी को बिहार की मुख्यमंत्री बनाने का कीर्तिमान रचने वाले लालू प्रसाद यादव जैसे नेताओं की भारत में कमी नहीं है, जो हैं तो हद दर्जे के नालायक और भ्रष्टाचारी, लेकिन फिर भी चुनाव जीत जाते हैं। इतना ही नहीं अपने नशेडी सनकी बेटों को भी विधानसभा के चुनाव में जितवाकर मंत्री बनवाने में भी सफल हो जाते हैं!

Thursday, August 22, 2019

नई पहल के नायक

अपने देश के आमजनों की दरियादिली बेमिसाल है। वे दूसरों की सहायता करने को हमेशा तत्पर रहते हैं। उनका मकसद ही खुशियां बिखेरना है। जिन कर्तव्यों और कार्यों को सत्ताधीश विस्मृत कर देते हैं उन्हें यह जागृत भारतवासी सफलतापूर्वक कर दिखाते हैं। इन्हें न तो किसी प्रचार की भूख है और ना ही पुरुस्कार की चाह। दरअसल, यही लोग हिन्दुस्तान की असली पहचान हैं, जिनमें हमदर्दी कूट-कूट कर भरी है और स्वार्थ से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं है। अभी तक आपने शहीद सैनिकों के परिवारों को पेट्रोल पम्प और जमीनें देने के आश्वासन के बाद उन्हें घनचक्कर बनाने की कई खबरें पढी-सुनी होंगी। सरहद पर जंग लडकर अपंग हो जाने वाले सैनिक के साथ धोखाधडी की खबरें भी पढी होंगी और यह भी पढा-सुना होगा कि सरहद पर लडाई लडने के बाद अपंग हुए कई पूर्व सैनिक रिक्शा चला रहे हैं, चाय-पान के ठेले लगा कर अपने परिवार का भरण पोषण कर रहे हैं। सरकार ने उनसे जो सहायता के वायदे किये थे, उन्हें पूरा ही नहीं किया गया है। यह खबर... यह हकीकत यकीनन देश के झूठे, लफ्फाज और अहसानफरामोश राजनेताओं और सत्ताधीशों के मुंह पर झन्नाटेदार तमाचा ही है :
मध्यप्रदेश के इंदौर जिले के बेटमा गांव में रहने वाले मोहन सिंह सुनेर वर्ष १९९२ में त्रिपुरा में उग्रवादियों से लडते हुए शहीद हो गये थे। तब उनका बडा बेटा तीन वर्ष का था और पत्नी गर्भवती थी। शहीद की पत्नी राजूबाई ने एक छोटी-सी झोपडी में रहकर मेहनत मजदूरी करते हुए अपने दो बच्चों का लालन-पालन किया। जब मोहनलाल शहीद हुए थे तब देश भर के अखबारों में उनकी हिम्मत, साहस और त्याग की कहानियां छापी गयी थीं। सरकार ने भी उनके परिवार को हर तरह की सहायता देने का ऐलान किया था, लेकिन २७ साल बीत जाने के बाद भी सरकार ने उनकी पत्नी और बच्चों की कोई सुध नहीं ली। शहीद के गांव के सतर्क युवाओं को सरकार का यह शर्मनाक रवैया बहुत कचोटता था। ऐसे में उन्होंने अपने दम पर शहीद की पत्नी की सहायता करने की ठानी। उन्होंने टूटी-फूटी झोपडी में वर्षों से रह रहे शहीद परिवार को पक्का मकान उपहार में देने के लिए विभिन्न शहरों, गांव के लोगों से चंदे के जरिए ११ लाख रुपये जुटाये और १५ अगस्त २०१९ यानी स्वतंत्रता और रक्षाबंधन के दिन शहीद परिवार को एक मकान भेंट किया, जिसकी १० लाख लागत आई...। बाकी बचे एक लाख रुपये शहीद की पत्नी को दे दिए। इन सच्चे देशप्रेमी युवाओं ने शहीद की उम्रदराज हो चुकी पत्नी से राखी बंधवाई और उसके बाद अपनी हथेलियां जमीन पर रखकर उनके ऊपर से गृह प्रवेश करवाया।
देश में अधिकांश पुलिस वालों के प्रति लोगों की राय अच्छी नहीं है। ऐसा उनके काम करने के तरीकों के कारण है। उनके कटु व्यवहार और संवेदनशीलता की कमी की वजह से है। अरुप मुखर्जी पश्चिम बंगाल के पुरुलिया जिले के मूल निवासी हैं। पुलिस विभाग में कार्यरत हैं। आदिवासियों के बच्चे उनको बडे आदर के साथ 'पुलिस वाला बाबा' कहकर बुलाते हैं। इस पुलिसवाला बाबा ने सबर आदिवासियों के जीवन में परिवर्तन लाने का अभियान चला रखा है। ध्यान रहे कि सबर दलित जनजाति है, जिन्हें आपराधिक जनजाति अधिनियम १९७१ के तहत अंग्रेजों ने आपराधिक जनजाति घोषित कर दिया था। देश के प्रदेश छत्तीसगढ, मध्यप्रदेश, झारखंड, ओडिशा और पश्चिम बंगाल के कुछ हिस्सों में यह सबर आदिवासी रहते हैं। अरुप मुखर्जी को बचपन में सबर आदिवासियों के बारे में अक्सर सुनने को मिलता था कि यह लोग चोरी-डकैती कर अपना घर-परिवार चलाते हैं। कई लोग तो नक्सली आंदोलन से भी जुडे हैं। उनके अपराध में लिप्त रहने की प्रमुख वजह रही अशिक्षा और गरीबी। तब अरुप की दादी अक्सर रात को छुपते-छुपाते सबर समुदाय के लोगों के घरों में जाकर उन्हें खाने-पीने का सामान पहुंचाया करती थीं। अरुप के मन में तब विचार आता था कि अगर यह लोग पढ लिख जाएं तो इनमें काफी बदलाव और सुधार आ सकता है। गरीबी, भुखमरी और बेरोजगारी ही इन्हें चोर, डाकू बनने को मजबूर करती है। बच्चों को भी बडों का अनुसरण करने को विवश होना पडता है। अरुप ने पढाई के दौरान आदिवासियों के बच्चों को शिक्षित कर उनके भविष्य को संवारने का जो सपना देखा था, पुलिस की नौकरी लगते ही उसे साकार करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। उन्होंने जब कुछ लोगों के समक्ष सबर दलित जनजाति के बच्चों के लिए स्कूल खोलने का अपना इरादा व्यक्त किया तो उनकी हंसी उडायी गयी। यह संकीर्ण मनोवृत्ति के लोग कतई नहीं चाहते थे कि आदिवासी बच्चे शिक्षित होकर अपना भविष्य उज्ज्वल करने में सफल हों, लेकिन पूंचा गांव के एक उदार शख्स, जिनका नाम खिरोदासी मुखर्जी है, ने खुशी-खुशी स्कूल बनाने के लिए मुफ्त में अपनी जमीन दे दी। स्कूल का उद्घाटन एक सबर बच्चे से करवाया गया। प्रारंभ काल में स्कूल में मात्र एक बरामदा और दो कमरे थे, जहां बीस छात्र-छात्राएं बैठ पाते थे, लेकिन अब काफी विस्तार हो चुका है। स्कूल में नौ कमरे हैं। सीसीटीवी कैमरे लगा दिये गये हैं। स्कूल में बच्चों के रहने-खाने-पीने की निशुल्क व्यवस्था है। भोजन, कपडे और शिक्षण सामग्री के लिए भी एक पैसा नहीं लिया जाता। कालांतर में कुछ जागरूक लोगों ने हर महीने मदद करनी प्रारंभ कर दी। स्वयं अरुप भी अपनी तनख्वाह का अधिकांश हिस्सा स्कूल के लिए खर्च कर देते हैं। बीते वर्ष एक लडकी ने बहुत अच्छे नंबरों के साथ मेट्रिक की परीक्षा पास की तो उनसे दूरी बनाने वाले भी चकित रह गये। सर्वत्र खुशी का माहौल था। जो माता-पिता अपने बच्चों को स्कूल भेजने से कतराते थे उन्होंने भी खुशी-खुशी अपने बच्चों को पढने के लिए स्कूल भेजना प्रारंभ कर दिया है। आदिवासी बच्चों को अपराध के रास्ते पर जाने से रोकते हुए उनके हाथों में किताबें थमाने वाले इस खाकी वर्दीधारी का कहना है कि मुझे इस समुदाय के बच्चों को शिक्षा दिलाने के लिए ही ईश्वर ने इस धरती पर भेजा है। मैं इन्हें भूख से मरने नहीं देना चाहता और न ही अपराध के मार्ग पर चलते देखना चाहता हूं। एक काबिलेगौर सच यह भी...। आप और हम अक्सर अखबारों में पढते रहते हैं कि कहीं चोरी-डकैती, हत्या या और कोई जघन्य अपराध होने के बाद शहर अथवा ग्रामों की पुलिस सबसे पहले उन गुंडे बदमाशों पर ध्यान केंद्रित करती है जो कुख्यात अपराधी होते हैं। कभी-कभी तो कुछ को शंका के चलते गिरफ्तार भी कर लिया जाता है। कुछ वर्ष पूर्व ऐसा ही होता था सबर आदिवासियों के साथ। जब गांव में इनके बच्चों को पढाने-लिखाने के लिए स्कूल नहीं खुला था तब जिले में कहीं भी चोरी, लूट या डकैती होती तो सबर समुदाय के लोगों की पकडा-धकडी शुरू हो जाती थी। कई बार निरपराध होने पर भी उन्हें पुलिसिया डंडों का शिकार होना पडता था। अब जबसे उनके बच्चे बडे उत्साह के साथ स्कूल जाने लगे हैं तो उनके पालकों में भी सुधार आया है। उनकी सोच बदली है। अपराध करने की बजाय मेहनत-मजदूरी करने लगे हैं। पुलिस के साथ-साथ लोगों की सोच में भी इन आदिवासियों के प्रति काफी बदलाव आया है।

Friday, August 16, 2019

आज़ादी के ७२ साल बाद भी!

निर्भया कांड। जब भी देश में कहीं भी कोई बर्बर बलात्कार होता है तो पत्रकारों और सजग भारतीयों को २०१२ में अंजाम दिये गए निर्भया कांड की याद हो आती है। देश की राजधानी दिल्ली में चलती बस में हुई इस शर्मनाक दिल दहला देने वाली वारदात ने पूरे देश को दहला कर रख दिया था। छह बलात्कारियों में एक नाबालिग था। जो जेल की सजा काटकर बाहर आ चुका है। वहीं मुख्य आरोपी ने खुद जेल में ही आत्महत्या कर ली थी। निर्भया कांड के आरोपियों को सुप्रीम कोर्ट के द्वारा फांसी के फैसले पर मुहर लगाने के बाद भी बाकी के चारों आरोपियों को अभी तक फांसी नहीं दी जा सकी है। निर्भया की तरह देश की हजारों बेटियों को अभी तक इंसाफ नहीं मिल पाया है। जब अदालत के फैसले के बाद भी बलात्कारियों को फांसी देने में इतनी ढिलाई है तो बलात्कारियों के हौसले कैसे पस्त हो सकते हैं? हर बलात्कार के बाद देशभर में शोर मचता है। बलात्कारी को बिना देर लगाये फांसी पर लटकाने की मांग उठती है। राजनेताओं और सत्ताधीशों के द्वारा भी बलात्कारियों को शीघ्र से शीघ्र मौत के फंदे में झुलाने का आश्वासन दिया जाता है, लेकिन सच हमारे सामने है। यही वजह है कि हालात बद से बदतर होते चले आ रहे हैं। छोटी-छोटी बच्चियां तक सुरक्षित नहीं हैं। निर्भया कांड के एक साल बाद ही दिल्ली के गांधीनगर इलाके में करीब ४ साल की एक मासूम के साथ उसी के घर के पास गैंगरेप हुआ था। घर से गायब कर दी गई इस बच्ची के माता-पिता उसकी तलाश में कहां-कहां नहीं भटके थे। बच्ची ४० घण्टे के बाद एक खंडहरनुमा घर में मरणासन्न हालत में पायी गई थी। २०१३ में यह दरिंदगी हुई थी। सघन इलाज के बाद ठीक हो चुकी बच्ची अब दस साल की हो चुकी है, लेकिन उसे किसी ने भी कभी खुलकर मुस्कराते नहीं देखा। पूरे घर में अभी भी मातम-सा छाया रहता है। बलात्कार के आरोप में दो बदमाशों को गिरफ्तार किया गया था। बच्ची के माता-पिता कोर्ट के चक्कर काट-काट कर थक गये हैं, लेकिन न्याय अभी तक उनसे कोसों दूर दिखायी देता है। आरोपियों के चेहरे सदैव खिले-खिले नजर आते हैं। खुद के द्वारा की गई हैवानियत का उन्हें कोई गम नहीं है। पश्चाताप तो बहुत दूर की सोच है।
कुछ दिन पूर्व दिल्ली के बदनाम जीबीरोड के एक कोठे से मात्र सात साल की बच्ची को छुडाया गया। असम में रहने वाली बच्ची की मां को नौकरी का लालच देकर राजधानी में लाया गया था। उसे नौकरी तो नहीं मिली, जबरन देह के धंधे में धकेल दिया गया। उसकी बेटी को अच्छे स्कूल में दाखिला दिलाने का झांसा देकर कुछ कागजों पर हस्ताक्षर करवाने के साथ-साथ पेनकार्ड, आधारकार्ड आदि भी छीन लिए गए। कुछ दिनों तक उसे बडे-बडे होटलों में भेजने के बाद जीबीरोड के कोठे पर बिठा दिया गया। बच्ची भी उसके साथ थी। कुछ हफ्तों के पश्चात वह किसी तरह से कोठे से भागने में सफल रही, लेकिन उसकी अबोध बच्ची नर्क में ही छूट गई। कोठे की मालकिन की कैद से अपनी बेटी को छुडाने के लिए महिला ने थाने में जाकर भी कई बार फरियाद की, लेकिन बिकाऊ खाकी वर्दीधारी उसे गालियां देकर भगाते रहे। इस दौरान बच्ची भी दुष्कर्म का शिकार होती रही और मां खून के आंसू रोती रही। किसी तरह से वह दिल्ली महिला आयोग की शरण में पहुंची तो बच्ची उसे वापस मिल पायी।
देश की ऐतिहासिक नगरी आगरा के थाने में तीन बलात्कार पीडिताएं जब शिकायत दर्ज करवाने पहुंचीं तो पुलिस वालों ने उनपर बडी गंदी नज़र डालते हुए सवाल-दर-सवाल दागे और बडी बेहयायी के साथ पूछा, "कैसे-कैसे और क्या-क्या हुआ तुम लोगों के साथ। उसका लाइव सीन बताओ। तुम्हारे कपडे कितनी बार उतारे गये? एकाध बार तो जुल्म की शिकार हुई महिलाओं ने उनके सवालों के जवाब देने की कोशिश की, लेकिन वे बार-बार बडी निर्लज्जता के साथ अपने अश्लील सवाल दोहराते रहे। पीडिताओं ने बदमाशों के खिलाफ लडाई लडने का इरादा ही स्थगित कर दिया। चुपचाप अपने-अपने घर चल दीं। देश के महान प्रदेश बिहार में कई नाबालिग बलात्कार पीडिताएं बिन ब्याही मां बनने को विवश हैं। छोटी उम्र में ही गर्भ में बच्चे को ढोए थानों के चक्कर काटती रहती हैं, लेकिन उनकी सुनवाई नहीं होती। बलात्कारी बडी शान के साथ छाती ताने घूमते देखे जाते हैं। यह कैसी विडंबना है कि जिस खाकी वर्दी पर कानून व्यवस्था बनाये रखने, नागरिकों को सुरक्षा देने और अपराधियों पर नकेल कसने की जिम्मेदारी है, वही अक्सर अपराधियों के साथ खडी नजर आती है। जिस तरह से एक सडी हुई मछली के कारण पूरा तालाब खराब हो जाता है वैसे ही पुलिस विभाग में कुछ पथभ्रष्ट नकारा पुलिस कर्मियों ने पूरे पुलिस विभाग को कलंकित कर दिया है। यह दागी खाकी वर्दीधारी कर्तव्यपरायण कर्मियों पर भी कई बार भारी पडते दिखायी देते हैं। खुद को कानून से ऊपर समझने वाले इन वर्दीधारी बदमाशों की चरित्रहीन राजनेताओं और अपराधियों से सांठगांठ रहती है। कुछ भ्रष्ट पुलिस वाले अपराधियों के एजेंट के रूप में काम करते हैं। निर्दोषों को तंग करने तथा रिश्वतखोरी को ही प्राथमिकता देने की इन्हें आदत पड गई है। पुलिस विभाग के उच्च अधिकारी अगर चाहें तो इन्हें दुरुस्त कर सकते हैं। लेकिन...? आजादी के ७२ वर्ष बीतने के बाद भी हिन्दुस्तान में नारी का यहां भी अपमान और वहां भी घोर दुर्दशा! देश के रहनुमाओं से इस सुलगते सवाल का जवाब मांग रही हैं वे तमाम बेटियां जो हैवानों के भय से डरी-सहमी रहने को विवश हैं...।