Thursday, February 24, 2011

नेताओं की गुंडागर्दी

शरद पवार देश के नामी-गिरामी नेता हैं। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री भी रह चुके हैं। वर्षों से केंद्र की सत्ता की मलाई खा रहे हैं। राजनीति से ज्यादा क्रिकेट के प्रति उनका जो लगाव है वह देशवासियों से छिपा नहीं है। कई लोगों का मानना है कि शरद पवार राजनीति के ऐसे मंजे हुए खिलाडी हैं जिन्हें मात देना हर किसी के बस की बात नहीं है। खुद पर निरंतर लगने वाले गंभीर से गंभीर आरोपों के जवाब में चुप्पी अख्तियार कर लेना उनकी पुरानी आदत है। उन पर देशद्रोही, माफिया सरगना दाऊद इब्राहिम के करीबी होने के बहुतेरे आरोप लगे। पर वे खामोशी ओढे रहे। सामाजिक कार्यकर्ता खैरनार का तो यह भी दावा है कि दाऊद को यदि शरद पवार की छत्रछाया नहीं मिलती तो वह हिं‍दुस्तान की धरती पर बम-बारूद बिछाकर असंख्य भारतीयों की जान लेने की हिम्मत और जुर्रत नहीं कर पाता। कहने वाले तो यह भी दावे के साथ कहते हैं कि आज की तारीख में शरद पवार बेहिसाब दौलत के मालिक हैं। उनकी तिजोरियों में अरबों-खरबों रुपये और हीरे-जवाहरात का जखीरा भरा पडा है। धन संपत्ति के मामले में अंबानी-टाटा जैसे उद्योगपति उनके समक्ष दूध पीते बच्चे हैं। शरद पवार की इकलौती पुत्री भी सांसद हैं। उनके भतीजे अजीत पवार महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री हैं। यानि पूरा कुनबा देश की राजनीति में जमा हुआ है। केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार के पुत्र की भूमिका उनके भतीजे निभाते चले आ रहे हैं। अजीत पवार खुलकर कहने और करने वाले शख्स हैं। वे जो कहते हैं उस पर अमल भी करते हैं। उनका मानना है कि राजनीति में वही सफल हो सकता है जिसे गुंडागर्दी में महारत हासिल हो। राजनीति में अभूतपूर्व सफलता तभी मिलती है जब शराफत के चोले को उतार फेंका जाए और खुलकर 'दादागिरी' की राह अपना ली जाए। दरअसल राजनीति सीधे-सादे लोगों के बस की बात ही नहीं है। जब तक टेढे नहीं बनेंगे तब तक कुछ भी हासिल नहीं होगा। यकीनन अजीत दादा की तारीफ करने में कंजूसी नहीं की जानी चाहिए। इस तरह की स्पष्टवादिता के लिए बहुत बडा कलेजा चाहिए। इस मामले में महाराष्ट्र के इस धाकड उपमुख्यमंत्री का कोई हाथ भी नहीं पकड सकता। जो दिल में आता है कह देते हैं। पत्रकारों को भी फटकारने और लाठी-डंडे का भय दिखाने में पीछे नहीं रहते। ताऊ भले पत्रकारों से भतीजे के किये-धरे की माफी मांग लें पर भतीजे के कालर टाइट रहते हैं। राजनीति के पुराने और नये खिलाडी में यही तो फर्क है। अजीत पवार का एक ही सपना है जैसे भी हो महाराष्ट्र का मुख्यमंत्री बनना है। इसके लिए वे अपनी फौज भी तैयार कर रहे हैं। अपनी फौज के सिपाहियों का मनोबल बढाये रखना हर कप्तान का दायित्व होता है। दरअसल इसी दायित्व को निभाते हुए अजीत दादा ने अपने चंगुओं-मंगुओं को कर्तव्य और निष्ठा का पाठ पढाते-पढाते खुद को 'टांग्या' की उपाधि से विभूषित कर डाला। मराठी के इस शब्द का अर्थ है: बदमाश और आवारा छोकरा। इस मूलमंत्र से कौन वाकिफ नहीं है कि राजनीति में अपने नेता को आदर्श मानकर उसके चरित्र और क्रियाकलापों का अनुसरण करने वाले ही आगे बढते हैं। तय है जिन्हें आगे बढना है वे अपने गुरु के आदेश का पालन करेंगे ही। ऐसे में राजनीति का क्या होगा?... जैसे सवालों पर ज्यादा दिमाग खपाने की कोई जरूरत नहीं बचती। सब कुछ प्रत्यक्ष दिखायी दे रहा है। कुछ भी लुका-छिपा नहीं है। हमारे देश के राजनेताओं को सच का आईना दिखाने वाले कतई पसंद नहीं आते। भ्रष्टाचार के खिलाफ अभियान चलाने वाले बाबा रामदेव ने जब भ्रष्ट मंत्रियों की हकीकत बयां की तो एक कांग्रेस के सांसद इतने बौखला गये कि बाबा को गालियां देने पर उतर आये। ऐसा तो हो नहीं सकता कि सांसद गालियों का अर्थ न जानता हो। योगगुरु तो भ्रष्टाचार मिटाने और विदेशों में जमा काले धन को वापस लाने की बात कर रहे थे और सांसद महोदय उन्हें ब्लडी इंडियन और कुत्ता कहकर अपनी असली औकात दिखा गये...।सच तो यह है कि यह गाली किसी रामदेव को नहीं दी गयी है बल्कि उन सभी राष्ट्रभक्तों को दी गयी है जिन्हें अपने देश से प्यार है और गद्दारों से नफरत है। तय है कि सांसद के मुंह से भद्दी-भद्दी गालियां इसलिए बरसीं क्योंकि उन्हें बाबा के द्वारा भ्रष्टाचार के खिलाफ चलाये जा रहे अभियान से डर लगने लगा है। सांसद महोदय भ्रष्टाचार, बेईमानी, लूट-खसोट और काले धन के हिमायती हैं। जो लोग इनके साथ खडे हैं और जिन्होंने आंख, कान और मुंह बंद कर रखे हैं वे अच्छे और भले लोग हैं और विरोध करने वाले ब्लडी इंडियन... कुत्ते हैं...।अरुणाचल प्रदेश के सांसद निनोंग एरिंग और महाराष्ट्र के उपमुख्यमंत्री अजीत दादा के बीच ज्यादा फर्क दिखायी नहीं देता। दोनों को आईना दिखाने वालों से नफरत है। दोनों यही चाहते हैं कि दुनिया का सारा कारोबार उन्ही के हिसाब से चले। जो इनकी न माने उसके होश ठिकाने लगा दो। जनता के वोट से चुने गये कुछ जनप्रतिनिधि कितने मुंहफट, निर्लज्ज और बेलगाम हो जाते हैं उसका जीता-जागता प्रमाण हैं ये लोग। पत्रकार बेचारे इन नेताओं के लिए क्या-क्या नहीं करते। गली-कूचों से शहरों में लाते हैं। राजधानियों की रोशनियों में पहुंचाते हैं और यह नेता मतलब निकलते ही दूध में गिरी मक्खी की तरह उन्हें निकाल फेंकते हैं! दरअसल अजीत दादा जैसे अहंकारी सत्ताधीशों की निगाह में असली पत्रकार वही है जो उनके पक्ष में लिखे। उनकी तारीफों के पुल बांधे। जो ऐसा नहीं कर सकते उन्हें डंडे से सबक सिखाना भी दादा को खूब आता है। कुछ नेता यह काम पर्दे में रहकर करते हैं और दादा जैसे राजनेता डंके की चोट पर...।

Thursday, February 17, 2011

जा को राखे सोनिया...

देश के वर्तमान प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह और पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी पर कोई कितने भी आरोप लगा ले पर उन्हें भ्रष्टाचारी तो कतई नहीं सिद्ध किया जा सकता। यह बात अलग है कि जब देश के प्रधानमंत्रियों का लेखा-जोखा इतिहास की किताब में दर्ज होगा तो यह भी जरूर लिखा जायेगा कि यह दोनों प्रधानमंत्री खुद तो पूरी तरह से ईमानदार थे पर इनकी छत्र छाया में भ्रष्टाचारियों ने जमकर देश को लूटा और चांदी काटी। दोनों ईमानदार शासक बेइमानों पर अंकुश नहीं लगा पाये। अटल बिहारी वाजपेयी के शासन काल में महाजनों और सौदागरों ने देश की लुटिया डुबोने में कोई कसर नहीं छोडी तो मनमोहन के काल में भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी इतने बेलगाम हो गये कि उन्हें बडे से बडा भ्रष्टाचार करने में कोई शर्म नहीं आयी। ऐसा लगा जैसे भ्रष्टाचारियों में एक दूसरे को मात देने की प्रतिस्पर्धा चल रही हो। इसी प्रतिस्पर्धा के चक्कर में देश लुटता रहा और देश के मुखिया यह सफाई देते रहे कि हम बेबस हैं। इसमें हमारा कोई दोष नहीं है। अटल बिहारी वाजपेयी और मनमोहन सिं‍ह बेबस और मजबूर होने के बावजूद देश के प्रधानमंत्री बने रहे। देश चलता रहा। देश चल रहा है...। देशवासी यह भी जान समझ रहे हैं कि इस देश को प्रधानमंत्री नहीं सोनिया गांधी चला रही हैं। कांग्रेस की सुप्रीमो सोनिया गांधी की गुडबुक में जिन लोगों के नाम हैं उनकी अच्छी-खासी मनमानी चल रही है। अगर यह कहें कि उनकी मनमानियों और मक्कारियों की जानबूझ कर अनदेखी की जा रही है तो गलत नहीं होगा। मनमोहन सरकार में एक केंद्रीय मंत्री हैं विलासराव देशमुख। यह महाशय महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री रह चुके हैं। वर्तमान में ग्रामीण विकास मंत्रालय की कमान संभाले हुए हैं। विलासराव देशमुख का नाम सोनिया गांधी की गुडबुक के पहले पन्ने पर दर्ज है इसलिए उनके सभी गुनाह नजर अंदाज कर दिये जाते हैं। वैसे भी अपने भक्तों पर देवता हमेशा मेहरबान रहते हैं। उन पर कोई आंच नहीं आने देते। विलासराव देशमुख जब महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे तब विदर्भ में किसानों की आत्महत्याओं ने जोर पकड लिया था। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता था जब किसानों की आत्महत्या की खबर पढने और सुनने को न मिलती रही हो। देश और दुनिया के लोग हैरान थे कि आखिर ऐसा क्यों हो रहा है? महाराष्ट्र तो खाते-पीते प्रदेशों में गिना जाता रहा है। एक खुशहाल प्रदेश के अन्नदाता के इतने बुरे हाल कैसे हो गये कि उसे फांसी के फंदे पर झूलना पड रहा है। जहर खाकर जान देनी पड रही है! तब मनमोहन सरकार ने किसानों को राहत प्रदान करने के लिए हजारों करोड रुपये की सहायता उपलब्ध करायी थी। यह सहायता किसानों को मिली या नहीं मिली इसका जवाब देना आसान नहीं है। पर किसानों की चिं‍ता तो हर किसी को थी। तब एक सच्चाई यह भी उभर कर आयी थी कि विदर्भ के किसानों को साहूकारों ने त्रस्त कर रखा है। किसानों को कर्जा देने वाले यह साहूकार इतना अधिक ब्याज वसूलते हैं कि मूलधन ज्यों का त्यों बना रहता है। किसानों की जमीनें तक हडप कर ली जाती हैं और कर्ज चुकता नहीं हो पाता। किसानों का शोषण करने वाले साहूकार तो 'राजा' जैसा जीवन जीते हैं और किसानों को भीख का कटोरा हाथ में थामने को विवश होना पडता है। तब एकाएक होश में आयी महाराष्ट्र सरकार ने किसानों को लूटने-खसोटने वाले अनेकों साहूकारों पर कानूनी फंदा कसा था और कइयों को जेल की हवा भी खिलायी थी। सरकार के इस कदम को सबने सराहा था पर एक कटु सच यह भी था कि प्रदेश के मुखिया विलासराव देशमुख ने सच्चे राजा की भूमिका कतई नहीं निभायी। उन्होंने अपनों को बख्शा और गैरों को सजा दी।खामगांव के विधायक दिलीप सानंदा का परिवार साहूकारी का धंधा करता था। जिस तरह से दूसरे साहूकारों ने किसानों को कर्ज देकर लूटने-खसोटने का गोरखधंधा शुरू कर रखा था उसी तरह से विधायक सानंदा भी बहती गंगा में हाथ धो रहे थे। उनके खिलाफ कई शिकायतें आयीं। कई किसानों ने अपनी फरियाद सुनायी कि सानंदा परिवार ने उनकी करोडों रुपये की जमीन हथिया ली है। यह परिवार वर्षों से किसानों का शोषण करता चला आ रहा है। चूंकि विधायक का मामला था और देशमुख के इनसे काफी मधुर रिश्ते थे इसलिए इन पर आंच भी नहीं आयी। किसानों का शोषण करने में माहिर सानंदा परिवार देशमुख का अंधभक्त रहा है और देशमुख भी भक्त को प्रसन्न रखने की कला में माहिर हैं। देशमुख ने तो अपनी दोस्ती निभा दी पर सानंदा परिवार के खिलाफ शिकायतों का सिलसिला बढता चला गया। बात यहां तक जा पहुंची कि मामला कोर्ट में भी जा पहुंचा। अदालतें रिश्ते नहीं निभातीं। देशमुख ने जो दोस्ती निभायी थी और पुलिस कार्रवाई में जो बाधा डाली थी उसका खामियाजा सरकार को भुगतना पडा। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अनुसार महाराष्ट्र सरकार को दस लाख का जुर्माना भरना पडा। सुप्रीम कोर्ट ने देशमुख को फटकार लगाते हुए कहा कि उनका व्यवहार घोर अराजकतावादी था। पर देशमुख को इस से कोई फर्क नहीं पडा। वे भले ही महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री नहीं हैं पर केंद्र में तो मौज मना ही रहे हैं। अदालत जिस शख्स को दोषी मानती है उसे कांग्रेस सुप्रीमो पाक-साफ मानती हैं इसलिए डॉ. मनमोहन सिं‍ह ने भी खुशी-खुशी ग्रामीण विकास मंत्रालय की कमान देशमुख को सौंप दी। यह भी गौर करने वाली बात है जब देशमुख को यह आलीशान तोहफा दिया गया तो किसानों के शोषक और हत्यारे विधायक सानंदा इतने प्रफुल्लित हुए कि उन्होंने अपने देवता को चांदी का मुकुट और चांदी की तलवार भेंट करने में जरा भी देरी नहीं लगायी। इतना ही नहीं सानंदा ने अपने गांव की दिवारों पर देशमुख को बधाई देने वाले बडे-बडे पोस्टर चिपकाये और लगाये गये जिन पर लिखा था-'जा को राखे साईयां, मार सके ना कोय...।'

Thursday, February 10, 2011

उत्सव और उत्सव

उत्सव शर्मा को कई लोग सनकी कहते हैं। पागल और बेवकूफ कहने वालों की भी कमी नहीं है...। वह अनपढ नहीं है। पढा-लिखा है। पर उसकी हरकतें उसे जेल की सैर करा चुकी हैं। अपनी करनी पर अफसोस जताना भी उसे कतई गवारा नहीं है। वह कहता है अगर हालात ऐसे ही रहे तो वह नहीं बदलेगा। उसका आक्रोश कानून की अनदेखी कर किसी भी हद तक जा सकता है। देश की व्यवस्था के प्रति उसके मन में जो रोष भरा पडा है उसी का ही नतीजा है कि उसने गाजियाबाद अदालत परिसर में डॉ. राजेश तलवार पर अचानक हमला कर लोगों को चौंकने और सोचने पर विवश कर दिया। इससे पहले उत्सव हरियाणा के पूर्व डीजीपी राठौर पर भी हमला कर चुका है। जवानी के जोश से लबालब उत्सव का मानना है कि डॉ. तलवार और राठौर दोनों मुजरिम हैं। हत्यारे हैं। डॉ. तलवार के हाथ अपनी बेटी आरुषि के खून से रंगे हैं तो राठौर ने रुचिका को मौत को गले लगाने के लिए विवश किया। हमारे देश का कानून दोनों का कुछ भी नहीं बिगाड पाया। अपने रुतबे, रसूख और दौलत के दम पर कई अपराधी बडी आसानी से बच निकलते हैं। जिनके पास यह सब कुछ नहीं होता वे बडी आसानी से सजा के हकदार हो जाते हैं। कानून की इस कमजोरी से खफा होकर अपनी खीज, झुंझलाहट और गुस्से का इजहार करने वाले युवक उत्सव शर्मा के बारे में तो लोगों ने जान लिया पर न जाने और भी कितने उत्सव हैं जो व्यवस्था से नाखुश हैं। वे अभी तक खामोश हैं। कानून को हाथ में लेना उन्हें नहीं सुहाता। पर जब बर्दाश्त करने की ताकत ही खत्म हो जाए तो एक अच्छे भले इंसान को उत्सव शर्मा बनने में कितनी देरी लगती है? एक अकेले उत्सव को सनकी, पागल और सिरफिरा कह कर जेल में डाला जा सकता है पर जब असंख्य उत्सवों का सडकों पर उतर आने का खतरा मंडरा रहा हो तो...? यह खतरा अब ज्यादा दूर नहीं है। देश की राजधानी दिल्ली हो या देश के अन्य शहर-कस्बे हर कहीं नारियों पर होने वाले अत्याचारों में इजाफा होता चला जा रहा है। हत्या, व्याभिचार और बलात्कार तो रोज हो रहे हैं पर नाम मात्र की खबरें राष्ट्रीय मुद्दा बन पाती हैं। दूर-दराज के ग्रामीण इलाकों में बच्चियों और युवतियों के साथ चौबीस घंटे ऐसा बहुत कुछ घटता रहता है जो किसी भी संवेदनशील इंसान के खून में उबाल ला सकता है। खादी में नेता और खाकी में पुलिस वाले इतने अपराध कर चुके हैं कि आम लोग इन पर विश्वास करने में कतराने लगे हैं। आम आदमी यह भी मानने लगा है कि वर्तमान राजनीति और राजनेता छल, कपट और फरेब के पर्यायवाची बनकर रह गये हैं। इनके रहते देश का भला होने वाला नहीं है। हालात सुधरेंगे नहीं और बिगडेंगे। जिन्हें देश की चिं‍ता है वे पूरी तरह से बदलाव के इच्छुक हैं। उन्हें आज फिर एक जयप्रकाश नारायण का इंतजार है जो सत्ता का कतई भूखा न हो।इन सत्ता के चटोरों और लुटेरों ने तो देश को कहीं का नहीं रखा। जहां देखो वहां भ्रष्टाचार, अनाचार और व्याभिचार...। समाज में खुलेआम विचरण कर रहे दरिंदों से हर कोई परेशान है। अखबार भी शर्मिंदगी महसूस करने लगे हैं। कोई भी दिन ऐसा नहीं जाता जब बलात्कार की खबरें न आती हों। ऐसे युवकों की संख्या में लगातार इजाफा होता चला जा रहा है जिनके लिए मौजमस्ती ही जीवन का एकमात्र मकसद है। इनकी वहशी हरकतें बताती हैं कि इनके लिए दूसरों की मां-बहनें महज भोग विलास की वस्तु हैं। स्कूल, कॉलेजों और घरों में ही बच्चियों की अस्मत लुटने लगी है। नौकरी करने वाली युवतियों और महिलाओं का तो भगवान ही मालिक है। पिछले दिनों कानपुर में एक दस वर्षीय बच्ची पर स्कूल में ही बलात्कार हो गया। स्कूल प्रशासन अंधा और बहरा बना रहा। बच्ची की अस्पताल में मौत हो गयी। ऐसी कितनी ही मौतें रोज होती हैं पर किसी को कोई फर्क नहीं पडता। फर्क पडे भी क्यों... यहां तो मंत्री से संत्री तक लगभग सभी एक ही रंग में रंगे हैं। उत्तर प्रदेश में मायावती का राज है। उनके राज में अराजक तत्वों की तो छोडि‍ए विधायक तक बलात्कार करने से नहीं चूक रहे हैं। विधायक पुरुषोत्तम द्विवेदी को जनता ने जनप्रतिनिधि का ताज पहनाया पर वह तो अबलाओं की आबरू पर ही हाथ डालने लगा। जब पकडा गया तो मर्दानगी धरी की धरी रह गयी। कहने लगा कि मैं तो नामर्द हूं...। ऐसे हैं जनता के यह सेवक। झूठे, मक्कार और ढोंगी। ऐसे में कैसे और क्यों इन पर भरोसा किया जाए? इन्हीं की देखा-देखी पुलिस भी अपना ईमान-धर्म बेच चुकी है और व्याभिचारियों के हाथों की कठपुतली बन कर रह गयी है।उत्तर प्रदेश ही नहीं, देश की राजधानी दिल्ली के भी बडे बुरे हाल हैं। शीला दीक्षित के हाथ में दिल्ली की सत्ता है पर महिलाएं यहां भी खून के आंसू रोने को विवश हैं। शीला दीक्षित तो बलात्कार के लिए कहीं न कहीं महिलाओं को भी दोषी मानती हैं। तभी तो वे यह कहने में भी संकोच नहीं करतीं कि महिलाओं को समय देखकर घर से बाहर निकलना चाहिए। जिस देश और प्रदेश के शासक ही लुंज-पुंज हों वहां बलात्कारी, भ्रष्टाचारी और तमाम किस्म के अनाचारियों के पनपने पर आश्चर्य करने की कोई गुंजाइश ही कहां बचती है। इस देश का आम आदमी बेवकूफ कतई नहीं है। उसका राजनीतिज्ञों पर से भरोसा उठ चुका है। सत्ताधीशों की दगाबाजी और कमीनगी के चलते उसका गुस्सा संभाले नहीं संभल पा रहा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने से शुरू हुआ भ्रष्टाचार सारी हदें पार कर चुका है। दिनों-दिन लूट खसोट के आंकडे बढते ही चले जा रहे हैं। किसी भी माई के लाल में दम नहीं दिखता जो भ्रष्टाचारियों और अनाचारियों का गला दबोच सके। कहीं कोई राजनीति का सपेरा कॉमनवेल्थ की आड में अरबों की डकैती करता है तो कोई टू जी स्पेक्ट्रम में अपने हाथ काले कर देश के माथे पर कलंक लगाता है। देश की राजनीति इतनी ओछी और गंदी हो गयी है कि सच्चे और अच्छे लोग राजनीति में आने से डरते हैं। इस घोर अविश्वास के दौर में अब तो और भी बहुतेरे उत्सवों के सडक पर उतरने के संकेत दिखायी देने लगे हैं...।

Thursday, February 3, 2011

बौद्ध धर्मगुरु करमापा का मायाजाल

इस भारतवर्ष में साधु-संन्यासी का चोला धारण कर छलने वालों के मायावी संसार का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने में यह कलम खुद को असहाय पा रही है। लोगों की आस्था के साथ खिलवाड करने का यह खेल पता नहीं कब और कहां जाकर थमेगा! अभी तक तो यह देश अपनी ही धरती के ढोंगियों के दंश झेलता आ रहा था पर अब करमापा की करतूत ने देशवासियों की आंखें खोल कर रख दी हैं। हमें हर किसी पर विश्वास कर लेने की घातक प्रवृत्ति से मुक्ति पानी होगी। अन्यथा बहुत बडा अनर्थ हो सकता है। हम बाहरी मुखौटे धारियों के हाथों बुरी तरह से छले जा सकते हैं।बौद्ध धर्मगुरु करमापा के मठ और कार्यालय से करोडों रुपये की बरामदगी हुई। इस अपार दौलत का उनके पास कोई हिसाब-किताब नहीं मिला। जिस तरह से देशी साधु-संत धर्म के प्रचार का दावा करते हैं वैसे ही करमापा का दायित्व होता है भगवान बुद्ध के आदर्शों का अनुसरण कर उनके विचारों को फैलाना। भगवान बुद्ध मानवता के पुजारी थे। करमापा माया के पुजारी निकले। उनके मठ में मिली छह करोड की विदेशी मुद्रा ने और भी कई सवाल खडे कर दिये। चेहरे पर नकाब ओढकर आनेवाले शरणार्थियों से देश ने अनेकों बार धोखा खाया है। अपनी शरण में आने वालों के प्रति सहानुभूति दर्शाना और उनकी सहायता करना भारतीयों की परंपरा और आदत में शुमार रहा है। देश के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के जमाने में तिब्बतियों को धर्मशाला शहर में बसाया गया था। वर्षों से शरणार्थी के रूप में रह रहे इन तिब्बतियों के मन में आज भी तिब्बत बसा है और हिं‍दुस्तान का दाना-पानी खाने-पचाने के बाद भी अपने तिब्बत प्रेम की अलख जगाते रहते हैं। शायद ही ऐसा कोई तिब्बती होगा जिसके मन में भारत के प्रति अटूट लगाव की भावना होगी। कांगडा और धर्मशाला जहां तिब्बती वर्षों से डेरा जमाये हैं वहां के मूल निवासियों को इनका व्यवहार कभी रास नहीं आया। अनेकों सजग हिमाचलियों का कहना है कि तिब्बती हर दर्जे के अहसान फरामोश हैं। दलाईलामा के ये चेले जिस तरह से भारत में ऐश-ओ-आराम भरी जिंदगी जी रहे हैं उससे तो इन्हें भारतवर्ष और यहां के निवासियों का शुक्रगुजार होना चाहिए था पर सच्चाई इससे एकदम उलट है। न जाने कितने तिब्बती ऐसे हैं जिनके क्रियाकलाप बेहद संदिग्ध हैं। यही वजह है कि यह लोग स्थानीय लोगों से दूरी बनाये रखते हैं। नजदीकी बनायेंगे तो पकड में आ जाएंगे। पर इनके धर्मगुरु तो पकड में आ गये हैं। शाही जिं‍दगी जीने वाले करमापा भगवान बुद्ध के आदर्शों का किस तरह पालन करते हैं उसका खुलासा भी उनके धन प्रेम ने कर दिया है।करमापा का अतीत विवादों भरा रहा है। वे २००५ में चीन से भागकर भारत आये थे। तब इन पर चीन का एजेंट होने की सुगबुगहाटें भी उभरी थीं, जिन्हें तथाकथित शांतिदूतों ने अनसुना कर दिया गया था। दुनिया जानती है कि भारत के हुक्मरान शुरू से ही बडे उदारवादी रहे हैं। देशवासी भले ही भूखे मर रहे हों पर मेहमाननवाजी का दस्तूर हर हाल में निभाया जाता है। वर्षों पूर्व आये तिब्बती शरणार्थियों की तरह करमापा को भी सिर आंखों पर बैठाया गया। करमापा तब किशोर उम्र के थे। उनको भारत की जमीन पर अठखेलियां करते हुए छह साल हो चुके हैं। इस दौरान उन्होंने करोडों का साम्राज्य भी खडा कर लिया। है न हैरानी की बात...। जब करमापा ने भारत की धरती पर कदम रखा था तभी सरकार को सतर्क हो जाना चाहिए था। गुप्तचर एजेंसियों को काम पर लगा दिया जाना चाहिए था। पर करमापा तो मेहमान थे। मेहमान को कुछ भी कर गुजरने और किसी से भी मिलने-मिलाने की छूट दे दी गयी और उसी का नतीजा आज हमारे सामने है। खाली हाथ आया धर्मगुरु आज अरबों-खरबों में खेल रहा है और अतिथि शिष्टाचार की जंजीर से बंधे सरकारी हाथ दिखाने के तौर पर जिस तरह से धीरे-धीरे खुल रहे हैं उससे यह उम्मीद तो नहीं बंधती कि करमापा के मायाजाल का पूरी तरह से खुलासा हो पायेगा। करमापा के संदिग्ध मायाजाल ने यह संदेश तो दे ही दिया है कि अतिथि को देवता मानने का जमाना लद चुका है। वैसे यह भी हकीकत है कि अब तो साधु-संतों और भगवाधारियों को ईश्वर का दूत मानने में भी संकोच होने लगा है। पिछले कुछ वर्षों से जिस तरह से कुछ धर्मगुरुओं का शैतानी चेहरा सामने आया है उससे जन आस्था भी बुरी तरह से आहत हुई है। साधु और शैतान में फर्क तलाश कर पाना टेढी खीर हो गया है। अपने ही देश की माटी के कई तथाकथित संन्यासियों से धोखा खाने और उनसे मोहभंग हो जाने के बाद देशवासी तो काफी हद तक सतर्क हो चुके हैं, पर इस देश को चलाने वालों के जागने का इंतजार है। चीन हिं‍दुस्तान का कैसा पडौसी है यह लिखने और बताने की जरूरत नहीं है। अगर करमापा चीन का भेजा हुआ कोई गुप्तचर है तो उससे भारत माता के प्रति वफादारी की उम्मीद करना बेवकूफी ही होगी। तो फिर ऐसों को देश में शरण देने और उनकी मेहमाननवाजी का एक ही मतलब है... देश के साथ धोखाधडी।