Thursday, January 27, 2022

डॉक्टर भी इंसान ही हैं

    मेडिकल साइंस कहां से कहां तक का सफर तय कर चुकी है। उसके कदम सतत आगे बढ़ते ही चले जा रहे हैं। उसका इरादा तो इंसान को अमरत्व प्रदान करने का है, लेकिन यह इंसान ही है, जो अक्सर अंधा हो जाता है। विवेकशून्य होने के कगार पर जा खड़ा होता है। अमानवीयता का नृशंस दामन थाम लेता है। जहां बड़ा दिल दिखाने की जरूरत होती है, वहां निजी स्वार्थ का गुलाम होकर रह जाता है। क्या कभी कल्पना की गई थी कि इंसान के अंदर सुअर का दिल धड़केगा? इंसान को इंसान का दिल लगाये जाने की उत्साहवर्द्धक हकीकत से तो सभी वाकिफ हैं। बहुतों की तरह मेरे लिए भी यह खबर चौंकाने और हिलाने वाली रही कि, ‘अमेरिका के मेरीलैंड अस्पताल में एक इंसान की जान को बचाने के लिए सुअर का हार्ट ट्रांसप्लांट किया गया है। जिस शख्स को सुअर का दिल लगाया गया है वह बहुत अच्छा महसूस कर रहा है। डॉक्टरों का कहना है कि ‘ये अभूतपूर्व प्रक्रिया है। इससे अंग प्रत्यारोपण का इंतजार कर रहे लाखों लोगों में नई आशा का संचार हुआ है। जीने की उम्मीद जागी है।’ इस खबर को पढ़ने और जानने के चंद दिनों बाद ही यह खबर भी पढ़ने में आयी है कि वाशिंगटन में चिकित्सकों ने सुअर की किडनियों को ब्रेन-डेड व्यक्ति में प्रत्यारोपित किया और काफी सकारात्मक परिणाम सामने आये हैं। जानवरों के अंगोें को मानव शरीर में लगाने की कई कथाएं कभी सुनी-सुनायी जाती थीं, लेकिन उन पर कम ही यकीन होता था, लेकिन अब तो जीती-जागती सच्चाई हमारे सामने है।
    जिस इंसान के हृदय ने उसका साथ देने से इंकार कर दिया हो, मौत सिरहाने खड़ी ठहाके लगा रही हो, पल-पल डरा रही हो, उसे विज्ञान की इस नई पहल, नये प्रयोग ने कितनी आत्मिक खुशी दी होगी उसे शब्दों में तो कतई व्यक्त नहीं किया जा सकता। इस सच को भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता कि विदेशों में इंसानों की जान को बचाने के लिए किए जानेवाले विभिन्न प्रयोगों को शंका की निगाह से नहीं देखा जाता। दूसरों के लिए अपने सुखों और खुशियों की कुर्बानी देने वाले डॉक्टरों, नर्सों और अन्य स्वास्थ्य कर्मियों का आदर-सत्कार किया जाता है, लेकिन अपने देश में...!?
    आज से लगभग पच्चीस वर्ष पूर्व असम में रहने वाले डॉक्टर धनीराम बरूआ ने एक बत्तीस वर्ष के दिल और फेफड़ों के मरीज को सुअर का दिल और फेफड़े ट्रांसप्लांट किए थे। हांगकांग के एक कुशल डॉक्टर के साथ मिलकर की गई इस थका देने वाली सर्जरी में 15 घंटे लगे थे। जिस मरीज पर यह अभूतपूर्व प्रयोग किया गया था वह काफी खुश और संतुष्ट था। यह सच्चाई अपनी जगह है कि एक हफ्ते के भीतर उसकी मौत हो गई थी, लेकिन उसने डॉक्टरों के अथक परिश्रम की बदौलत उपहार में मिले जो दिन जिए थे वे यकीनन अनमोल थे।
    अमेरिका में तो इंसान की जान बचाने के लिए किये गए ऐतिहासिक प्रयोग की वाहवाही हुई, लेकिन भारत में शक्की और अहसानफरामोशों की कतार लग गई। एक हिंदुस्तानी डॉक्टर ने यह कैसा अपराध कर डाला? इंसान को सुअर का दिल! यह भी कोई बात हुई? लगाना था तो किसी अच्छे-साफ सुथरे जानवर का दिल लगाते। सुअर तो उस गंदगी और कीचड़ में जीता-खाता है, जिससे इंसानों की जात को घोर नफरत है। ऐसे में उसका दिल इंसान को... तौबा...तौबा। यह तो घोर अनर्थ है। अक्षम्य अपराध है। अधर्म है। अमेरिकी डॉक्टरों को जहां पुरस्कृत किया गया वहीं भारतीय डॉक्टर को चालीस दिन तक हत्या के जुर्म में जेल की हवा खानी पड़ी। उनके अस्पताल में तोड़फोड़ की गई। जेल से बाहर आने के बाद भी उन्हें लोगों के तंज, ताने सुनने पड़े। अपमान के नुकीले दंशों से बार-बार आहत होना पड़ा। डॉक्टर बरूआ ने तो खुद को कोसा होगा। किसी की जान बचाने चले थे, कातिल घोषित कर दिये गए। अपने देश में डॉक्टरों के साथ ऐसे अमानवीय और अभद्र व्यवहार का होना कोई नयी बात नहीं है। अस्पताल में भर्ती करवाने के पश्चात मरीज बच गया तो डॉक्टर भगवान और यदि कहीं मर गया तो वो हो गया हत्यारा और शैतान। भूल-चूक तो कहीं भी हो सकती है। होती ही रहती है, लेकिन डॉक्टरी के पेशे में यदि सतर्कता और मानवता नहीं होगी तो लोग डॉक्टर को धरती का भगवान मानना ही छोड़ देंगे। बीमार बड़े भरोसे के साथ डॉक्टर की शरण में जाता है और लगभग हर सच्चा डॉक्टर अपने मरीज की रक्षा-सुरक्षा के लिए अपनी पूरी ताकत लगा देता है। कोई भी डॉक्टर अपने नाम पर बट्टा नहीं लगाना चाहता। हम भले ही डॉक्टर को भगवान मानें, लेकिन सच तो यही है कि वह भी इंसान है, जो अपना कर्तव्य निभाता है। कोरोना जब चरम पर था, तब हमारे यहां अधिकांश डॉक्टरों, नर्सों एवं अन्य स्वास्थ्य कर्मियों ने दिन-रात अपनी सेवाएं दीं, लेकिन कुछ लोगों ने जानबूझकर अपनी नीचता और वैमनस्य का प्रदर्शन किया। अस्पतालों और डॉक्टरों पर भेदभाव के आरोप लगाये गए। कई कोरोना से जंग लड़ते योद्धाओं को इसलिए मारा, पीटा और अपमानित किया कि उनके अपने करीबी बच नहीं पाये। कुछ मकान मालिकों ने उन्हें अछूत मानते हुए घर खाली करने का जिद्दी फरमान सुनाये तो कुछ ने उनका सामान ही सड़क पर फेेंक दिया। उनके आसपास रहने वाले लोग भी यह सोचकर उनसे दूरी बनाते रहे कि उनके निकट जाने से कहीं वे भी कोरोना के शिकार न हो जाएं। सोचिए जिन्हें सेवा के बदले सजाएं झेलनी पड़ें उनके दिल पर क्या बीतती होगी?

Thursday, January 20, 2022

थूको... थूको, जीभरकर थूको

    हो सकता है कि आपने भी कुछ महीने पूर्व अखबारों में छपी इस खबर को पढ़ा हो, ‘‘बड़े शहर के एक रिहायशी इलाके में एक गुपचुप का ठेला लगाने वाला भइया खुद को थका महसूस कर रहा था। कुछ देर पहले उसके ठेले पर ग्राहकों की भीड़ थी। अब उसके लिए सुस्ताने और आराम करने का समय था। स्टूल पर बैठे-बैठे उसे अचानक ख्याल आया कि खट्टे-मीठे-तीखे जायकेदार पानी वाली मटकी लगभग खाली हो चुकी है। वो बाल्टी भी खाली थी, जिसमें वह घर से ग्राहकों को पिलाने के लिए पानी भरकर लाया था। यदि अभी कहीं भूले-भटके कोई गुपचुप प्रेमी आ धमका तो बड़ी मुश्किल हो जाएगी। इस इलाके की लड़कियां और औरतें तो उसके जलजीरे और खट्टे और तीखे-मीठे पानी की दिवानी हैं। उन्हें यह मसालेदार पेय खास तृप्ति देता है। सार्वजनिक नल भी नजदीक नहीं था। फिर आज उसका नौकर भी छुट्टी पर था। सोचते-सोचते उसने इधर-उधर देखा।
    जब आसपास उसे कोई नज़र नहीं आया तो उसने अपनी धोती ऊपर की और कच्छे का नाड़ा खोलकर खाली लोटे में अपने पेशाब की धार छोड़ने लगा। वह बड़ी सतर्कता के साथ पानी की समस्या का हल करने में लीन था कि इसी दौरान अचानक एक युवती वहां आ पहुंची। उसकी आंखों के सामने ही उसने अपने द्रव्य को मटकी में उंड़ेल दिया था। युवती के लिए यह बेहद हतप्रभ कर देने वाला नज़ारा था। वह अपने मोबाइल से तस्वीरें लेने के पश्चात वीडियों बना चुकी थी। जैसे ही भइये ने युवती को देखा तो वह हक्का-बक्का रह गया। बुरी तरह से गुस्सायी युवती के समक्ष उसने अपनी मजबूरी का रोना रोया, लेकिन युवती ने ऐसा शोर मचाया कि देखते ही देखते अच्छी-खासी भीड़ जमा हो गयी। लोगों ने उसके ठेले का कचूमर निकालने के साथ उसकी भी अंधाधुंध धुनायी कर लहुलूहान कर दिया। बड़े ही सतर्क और जोशीले अंदाज में ‘आवश्यकता ही अविष्कार की जननी है’ की कहावत को चरितार्थ करने वाला भइया हाथ-पांव जोड़कर माफी मांगता रहा, लेकिन भीड़ ने उसकी वो गत बनायी कि उसने जमीन पर नाक रगड़कर सपने में भी कभी गोलगप्पे का ठेला नहीं लगाने की कसम खायी और चुपचाप अपने गांव खिसक गया।’’
    फैशन की रंगारंग दुनिया से वास्ता रखने वाले हर शख्स ने मशहूर हेयर स्टाइलिस्ट जावेद हबीब का नाम जरूर सुना होगा। मिलना-मिलाना भी हुआ होगा। देश और विदेश के कई शहरों में उसके नाम पर सैलून चलते हैं। सच तो यह है कि यह किसी फिल्मी हीरो-सा दिखने वाला हाई-फाई रंगीला नाई बड़ा पहुंचा हुआ व्यापारी और खिलाड़ी है। अभी हाल ही में इस खानदानी नाई का मुजफ्फरनगर में एक सेमिनार चल रहा था। इसी चमकदार सेमिनार में कई ब्यूटीपार्लर चलाने वाली महिलाएं आमंत्रित थीं। सेमिनार में फैशनपरस्त महिलाओं से घिरा जावेद हेयर कटिंग के जब नये-नये गुर सिखा रहा था तभी एक महिला के सूखे बालों को उसने अपनी थूक से गीला कर वाहवाही लूटनी चाही। यहां पर भी पानी की कमी इस नये अविष्कार की जननी बनी। थोड़ी देर बाद बाल कटवाने वाली महिला की छठवीं इंद्री जागी और वह कुर्सी छोड़ जावेद पर बरसने लगी। उसकी देखा-देखी दूसरी महिलाओं और पुरुषों ने भी उसे भला-बुरा कहा, लेकिन किसी ने भी उसकी वैसी पिटायी करने की हिम्मत नहीं की जैसी गुपचुप बेचने वाले की धुनाई कर दिखायी। अमीर हर जगह फायदे में रहता है। रंगीले नाई ने पानी की समस्या के समाधान के लिए एक नई परंपरा की नींव रखने की सोची थी, लेकिन होशियार महिला ने उसके मंसूबे पर पानी फेर डाला। बदनामी भी करवा दी। मैं जहां तक जानता और समझता हूं कि किसी पर थूकने की जुर्रत तब की जाती है, जब उससे घोर नफरत होती है। उसने कोई दगाबाजी, व्याभिचार और अत्याचार किया होता है। थूक से नवाजी गई महिला तो कुछ नया सीखने को आई थी। क्या सीखा उसने? उत्तरप्रदेश के किसी जोशीले नेता ने एलान कर दिया है कि, ‘नाई के मुंह पर थूकने वाले को अपनी जेब से इक्यावन हजार रुपये का इनाम दूंगा।’
    यह तो ठीक है, लेकिन यही नेता कभी यह भी तो डंके की चोट पर कह दें कि वे सभी नेता चुल्लू भर पानी में डूब मरें, जिनका जनता को बेवकूफ बनाना ही एकमात्र पेशा है। जब वोट लेने आते हैं तो हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हैं। विधायक, सांसद, मंत्री बनते ही अपनी असली औकात पर आ जाते हैं। यह बहुरूपिये मतदाताओं को पहचानते तक नहीं। चुनावी वादे भी कभी पूरे करते नहीं। उन सफेदपोशों के मुंह पर थूको, जिन्हें दूसरों की बहन, बेटियो की कद्र करनी नहीं आती। भारत की बरबादी के सपने देखने वाले जयचंदो और भारत तेरे टुकड़े होंगे के नारे लगाकर देशभक्तों का खून खौलाने वाले ‘कन्हैया छाप’ जमूरों तथा नक्सलियों के हितैषी नालायक बुद्धिजीवियों की थू-थू करने की बजाय थूक की बोछारें करो। उन्हें भी कतई नजरअंदाज मत करो, जो बार-बार हिंदू देवी-देवताओं और हिंदुओं की धार्मिक भावनाओं का मज़ाक उड़ाते हैं। उन्हें भी सबक सिखाते रहो, जो खुद के धर्म को महान और दूसरे के धर्म और आस्था को नीचा दिखाने में लगे हैं। सच को छिपाने और झूठ को सिंहासन पर बैठाने वाले खोखले क्रांतिवीर पत्रकारों, संपादकों और मीडिया मालिकों को भी थूक की बरसात से नहला दो, जिससे वे अपना चेहरा तक न पहचान सकें। आपसी भाईचारे, ईमानदारी और इंसानियत के किसी भी शत्रु को बिलकुल मत बख्शो। यह भी जान लो कि महज शाब्दिक तीरों से कुछ भी नहीं होने वाला। लातों के भूत बातों से नहीं मानते।

Thursday, January 13, 2022

भूली नहीं जाती बेटी की पाती

    वे आकाश से तो नहीं टपकतीं। उन्हें भी मां-बाप ही जन्म देते हैं। तो फिर उनके हिस्से में ऐसे जुल्म और गम क्यों आते हैं कि उनकी जीने की इच्छा खत्म हो जाती है और ऐसी-ऐसी खबरें पढ़ने और सुनने में आती हैं...।
    लुधियाना में एक महिला को उसके पति और ससुर ने क्रिकेट बैट से बुरी तरह से पीटते हुए उसके मुंह में तकिया रखकर दम घोटने की कोशिश करने के बाद सड़क पर फेंक दिया। उसका कसूर बस यही था कि वह ऐसे घर-परिवार की बेटी थी, जो उनकी दहेज की मांग को पूरा करने में असमर्थ थे। पंजाब के ही शहर जालंधर में ब्याही गई 39 साल की प्रिया छाबड़ा ने नये साल 2022 का चेहरा देखने से पहले ही इस दुनिया को अलविदा कह दिया। पति का अच्छा-खासा कारोबार था। वह अगर चाहता तो बड़े ठाठ से अपने परिवार के साथ दिन गुजारता। सभी के चेहरे खिले रहते, लेकिन उसे तो और-और धन-दौलत की अंधी भूख थी। उसके लालच ने उसे शैतान बना दिया था। धनलोलुप पति लवलीन ने अपनी पत्नी प्रिया की जिंदगी में कलह, शंका और हिंसा के ऐसे बीज बोए, जो धीरे-धीरे कांटेदार पेड़ की शक्ल अख्तियार करते चले गये। इस पेड़ में दूर-दूर तक छांव का नामो-निशान नहीं था। पत्ते हरे होने से पहले झड़ चुके थे। शाखाएं मरी-मरी-सी हो चुकी थीं। रहने को आलीशान विशाल कोठी थी, लेकिन उसका कोना-कोना अशांत और वीरान था। रोज-रोज की कलह से प्रिया तंग आ चुकी थी। शादी हुए 17 साल हो चुके थे, लेकिन लाख कोशिशों के बाद भी पति-पत्नी में वो विश्वास, जुड़ाव और अपनत्व नहीं आ पाया था, जो इस पवित्र रिश्ते की आत्मा होता है। प्रिया वर्षों तक पति लवलीन की गालियां तथा मार-कुटायी सहते-सहते तंग आ चुकी थी। उस पर किसी पुराने यार के संग रंगरेलियां मनाने के गंदे-गंदे आरोप भी लगाये जाते थे। लवलीन को प्रिया के फोन रिकॉर्ड करने की तो जैसे उसे लत लग गई थी। प्रिया बार-बार सफाई देती कि वह चरित्रहीन नहीं। गलत रास्ते पर चलने की तो वह कल्पना ही नहीं कर सकती, लेकिन धन से धनवान और मन से कंगाल लवलीन ने उसकी नहीं सुनने की कसम खा ली थी। प्रिया को यह गम भी हरदम खाये रहता था कि पति के जुल्म और प्रताड़ना के साथ-साथ सास-ससुर, जेठ और ननद भी दहेज के लिए तंग करने के साथ-साथ उसे हमेशा अपमानित करने के अवसर तलाशते रहते थे। उसके पलटकर जवाब देने पर सभी एकजुट हो उसके जिस्म पर खूंखार भेड़िये की तरह टूट पड़ते। बर्दाश्त करने की भी कोई हद होती है। अंतत: 39 साल की प्रिया ने रोज-रोज का नर्क भोगने की बजाय नये वर्ष के चंद दिन पहले ही खुदकुशी कर ली। फांसी के फंदे पर झूलने से पहले इस सचेत मां ने अपने 15 साल के बेटे के मोबाइल पर रिकॉर्डिंग भेजी, ‘मेरे लाल, मुझे माफ करना..., मैं हमेशा-हमेशा के लिए यह दुनिया छोड़कर जा रही हूं। तुम अपनी बहन का अच्छी तरह से ध्यान रखना।’ प्रिया अंदर और बाहर से कितनी आहत और लहुलूहान थी इसका पता उसके इस सुसाइट नोट से चलता है, जो उसने जाते-जाते अपने दुर्जन पति लवलीन के लिए लिख छोड़ा था,
    ‘‘मैं प्रिया... आज तुम्हें यह कहना चाहती हूं कि तुम बहुत बुरे पति हो। तुम्हारे होते हुए भी मैं विधवा सी रही। अब मुझे तुम विदा भी एक विधवा की तरह ही करना। मेरी चिता को तो छूने की हिम्मत ही नहीं करना। मेरी मृतदेह को मेरा बेटा हार्दिक ही आग लगाए। मैं तुम्हें हसबैंड होने के नाते कभी माफ नहीं करूंगी।’’
प्रिया किसी की बेटी थी। उसके मां-बाप ने उसे बड़े अरमानों के साथ पाला था। उसके पंद्रह वर्षीय बेटे हार्दिक ने उसकी चिता को मुखाग्नि देकर पुत्र होने का फर्ज़ निभाया। पति लवलीन वहां झांकने तक नहीं आया। हार्दिक मन ही मन पिता को कोस रहा था। उसकी प्यारी मां ने फांसी के फंदे पर झूलने से पहले अपनी दोनों कलाई की नसें भी काटी थीं। हार्दिक को अपनी मां को खोने के गम से उबरने में वक्त लगेगा। उसके नाजुक मन में पिता के प्रति जो घृणा घर कर चुकी है वह तो खत्म होने से रही। उसे अपनी जननी को सताये जाने के तमाम मंजर ताउम्र याद आते रहेंगे। काश! वह अपनी मां को बचा पाता! पापा की तो मां को परेशान करने की आदत पड़ चुकी थी। मम्मी ने इससे पहले भी कई बार सुसाइड करने की कोशिश की थी। पिछली बार जब वह छत से कूदने जा रही थी, तब उसी ने मां को समझाया और मनाया था। पापा मम्मी को खर्चा नहीं देते थे। उन्होंने तो उसे घर से निकालने की साजिशों का जाल भी बुन डाला था। वह बेटे और बेटी को लेकर कितनी फिक्रमंद थी, इसका पता उसके इस दूसरे सुसाइड नोट से चलता है,
    ‘‘मैं अपने बच्चों के हक के लिए लड़ रही हूं। मैं हारी भी नहीं हूं। मैं अपने बच्चों को बहुत प्यार करती हूं। अफसोस है उनके लिए कुछ नहीं कर पाई।’’
सूरत के वडोद गांव में एक श्रमिक परिवार की ढाई साल की मासूम का शव बस्ती से करीब 300 मीटर दूर झाड़ियों में पड़ा मिला। बच्ची के साथ इतनी निर्दयता के साथ कुकर्म किया गया था कि उसका जननांग जिस्म से बाहर निकल गया था।
    राजस्थान में झूंझनू जिले के एक सरकारी स्कूल के हेडमास्टर पर सातवीं कक्षा की छात्रा ने आरोप लगाया कि वासना के भूखे भेड़िये ने स्कूल में ही उस पर बलात्कार कर दिया। इस दुष्कर्म में स्कूल की दो शिक्षिकाओं ने भी वहशी का साथ दिया। विरोध करने पर शिक्षिकाओं ने उसे बार-बार धमकाया।
चेन्नई में 11वीं की एक छात्रा के साथ कुछ दरिंदों ने ऐसी दरिंदगी की, जिससे उसके जीने की इच्छा ही मर गई। उसने अपने करीबी दोस्तों से दूरियां बना लीं। पुरुषों के कदमों की आहट उसके मन-मस्तिष्क में खौफ पैदा करने लगी। वह सोने की कोशिश करती तो नींद ही बगावत कर देती। उसे बार-बार अपने साथ हुए कुकर्म के वो काले पल याद आते। उसे कुछ भी नहीं सूझता। बस वह खामोश घर की दीवारों पर अपना सर पटकने लगती। उसके मां-बाप उससे पूछ-पूछ कर थक गये, लेकिन उसने किसी को कुछ भी नहीं बताया और 2021 के घनी शीत से पिघलते दिसंबर महीने में अपने कमरे में फांसी के फंदे पर लटक कर मौत का दामन थाम लिया। उसके कमरे से जो सुसाइड नोट मिला उसने सभी के रोंगटे खड़े कर दिए,
‘‘स्टॉप सेक्सुअल हैरेसमेंट... मैं अब और बर्दाश्त नहीं कर सकती। मैं इतने दर्द में हूं कि कोई ढांढ़स नहीं बंधा सकता। मेरे भीतर अब पढ़ने या लिखने की क्षमता चूक गई है। मुझे बार-बार बुरे सपने आते हैं, जो मुझे सोने नहीं देते। हर माता-पिता को अपने बेटों को लड़कियों का सम्मान करना सिखाना चाहिए। मैं जाते-जाते कह रही हूं कि अपने रिश्तेदारों या शिक्षकों पर भरोसा न करें। अब तो स्कूल भी लड़कियों के लिए सुरक्षित नहीं रह गया है। लड़कियों के लिए अब एकमात्र सुरक्षित स्थान मां की कोख और कब्रिस्तान है...।’’

Thursday, January 6, 2022

हंगामा... हंगामा!

    2021 तो चला गया, लेकिन कुछ कटु यादें छोड़ गया। इस एक साल में उत्थान भी देखा। पतन भी देखा। कई लोगों की महानता तो कुछ लोगों की नीचता भी देखी। यह सच भी समझ में आया कि कुछ भारतीयों की वाणी हरदम जहर उगलने को आतुर रहती है। उन्हें आप कितना भी दूध पिला लो, समझा लो, लेकिन वे विष उगलना नहीं छोड़ते। इनमें नामी-बेकामी ज्ञानी चेहरे भी शामिल हैं। इस कुटिल खेल में शामिल तो वे भी हैं, जिन्हें बात-बात पर प्रतिक्रियाएं देने की बीमारी है। बदतमीजी करने और उकसाने वाले जन्मजात बयानवीरों को नजरअंदाज करना तो उन्होंने सीखा ही नहीं। अपने-अपने तरीके से बस उनका मनोबल बढ़ाते रहते हैं। ये चुप्पी बनाये रहते तो बड़े से बड़े बकवासी की जुबान पर कुछ तो ताला लग जाता और हौसला ठंडा हो जाता। दरअसल ये धुरंधर आग में पेट्रोल डालने की कला के जबरदस्त खिलाड़ी हैं। धूर्त, कपटी और तमाशबीन तो वे भी कम नहीं, जो खुद को सेक्युलर यानी धर्मनिरपेक्ष बताते हैं और अपने स्वार्थ का झंडा लहराते हैं। इनमें से कई तो कांग्रेस के सत्ता में नहीं होने के गम में डूबे हैं। बेचारे कभी-कभार दिखावे के लिए गांधी का चरखा चलाकर अपने आकाओं का दिल बहलाते हैं...।
    पिछले कुछ वर्षों से बड़े ही सुनियोजित तरीके से आस्थाएं और परिभाषाएं बदलने का भी नाटक चल रहा है। नाटककारों के लिए न दर्शकों की कमी है और ना ही तालीबाजों की। इसलिए भय और नफरत का सैलाब लाने वालों के हौसले बुलंद हैं। छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर में आयोजित धर्म संसद के मंच पर खुद को हिंदुओं का रक्षक कहने वाले कालीचरण ने राष्ट्रपिता महात्मा गांधी को देश का सत्यानाश करने वाला बताते हुए हत्यारे नाथूराम गोडसे को नमस्कार किया तो वाहवाही भी हुई और तालियां भी गूंजीं। मंच पर उपस्थित एक-दो भगवाधारियों के विरोध के स्वरों ने जब हलचल मचायी तो हंगामा बरपा हो गया कि अच्छे-भले मंच पर एक भगवाधारी ने यह क्या कह डाला? सच कहें तो इसमें नया कुछ भी नहीं था। हैरत जताने वालों को कालीचरण के इतिहास की पूरी जानकारी थी। उसने गांधी को अपमानित करने वाले बोल कोई पहली बार तो नहीं बोले थे। वह तो वर्षों से ही अपने सोचे-समझे अभियान में लगा है। टोकने-बोलने वाले कितना भी जोर लगाते रहें सवाल पर सवाल उठाते रहें कि क्या संत ऐसे होते हैं? उसे न फर्क पड़ा है और न ही पड़ने वाला है। उसकी अपनी धारणा है, अपने ही विचार हैं...। उसका दावा है कि वह सनातन धर्म, मानवता और हिंदुओं के लिए लड़ रहा है। अपनी राह में रोड़ा अटकाने वालों को वह अपना शत्रु मानता है।
    हत्यारे नाथूराम गोडसे को नमन और बापू को देश का शत्रु मानने वाला कालीचरण पहला शख्स नहीं, जिसने गांधी के खिलाफ कटु शब्दों का छाती ठोक कर इस्तेमाल कर अपनी विषैली उद्दंडता दिखायी है। सच तो यह है कि जो चेहरे बापू के हत्यारे गोडसे का मंदिर बनाने का साहस दिखा सकते हैं उनकी तस्वीरों पर गोलियां बरसा कर लाल रंग की धारा दिखा सकते हैं, उनमें बदलाव लाने की कल्पना ही बेमानी है। कालीचरण की तरह उसकी हिंदू राष्ट्र सेना तथा सैनिकों ने भी यह धारणा अपने मन-मस्तिष्क में बसा ली है कि महात्मा गांधी हिंदू समाज के सबसे बड़े दुश्मन थे। गांधी का महात्मापन नकली था। उसे किसी पर जबरन नहीं थोपा जा सकता। वह स्वतंत्रता सेनानी हो सकते हैं, लेकिन राष्ट्रपिता नहीं। कालीचरण के भक्तों के पास और भी कई सवालों और आपत्तियों की भरमार है...। जेएनयू में जब देश विरोधी नारे लगते हैं तब गांधी के अधिकांश अनुयायियों के मुख पर ताले क्यों लग जाते हैं? खुद पर सेक्युलर का ठप्पा लगाये घूमते असली-नकली क्रांतिकारी बुद्धिजीवी कौन-सी बिल में घुस जाते हैं? श्री कृष्ण और श्रीराम को कटघरे में खड़े करने और उनके अस्तित्व को नकारने वालों के होश ठिकाने क्यों नहीं लगाये जाते? इस सच को भी क्यों नजरअंदाज किया जाता है कि देश को आजाद कराने में अकेले गांधी की ही सर्वोपरि भूमिका नहीं थी। शहीद भगतसिंह, लाला लाजपत राय, सुभाषचंद्र बोस, चंद्रशेखर आजाद जैसे कई नाम हैं, जिनकी कुर्बानी गांधी से कमतर नहीं। गांधी और नेहरू परिवार को ही आजादी के एकमात्र नायक दिखाने की साजिश के सूत्रधार कौन हैं? सभी सवाल अपनी जगह हैं, लेकिन कलमकार का यही मानना है कि आप चाहे किसी को भी अपना नायक मानें, लेकिन दूसरों की पसंद और आस्था को अपमानित करने का गुनाह क्यों? गाली और गोली तो वो हिंसा है, जिसके जख्म कभी नहीं भर पाते।
    धर्म और अधर्म के बीच फर्क बताने वाले तथाकथित धार्मिक चेहरों के मंच पर अपनी भड़ास निकालने वाला कालीचरण अपने मकसद में तो कामयाब हो ही गया। अभिजीत धनंजय सराग उर्फ कालीचरण ने घाट-घाट का पानी पिया है। मात्र आठवीं तक पढ़े इस शख्स ने कई साल इंदौर में स्वर्गीय भैय्यूजी महाराज के दरबार में गुजारे, जो खुद पहुंचे हुए प्रवचनकार थे। यह सच दीगर है कि उन्हें किन्हीं कारणों से आत्महत्या करनी पड़ी। कालीचरण ने और भी कई साधु-महंतों की चौखट में माथा टेका। कुछ ग्रंथ भी पढ़े होंगे, लेकिन लगता है वह प्रेम के ढाई अक्षर पढ़ना भूल गया या फिर पढ़कर भी भुला बैठा और संतई के अर्थ ही बदलने पर तुल गया है। वह ‘काली विद्या’ में सिद्धहस्त होने का भी दावा करता है। वह तो बड़े गर्व से यह भी बताता है कि मैं स्वयं काली हूं और काली माता मुझमें समाहित है। राजनीति में रमने को आतुर साधु-संतों की संगत में रहते-रहते उसने यह भी जान लिया है कि विवाद और धमाके बड़े काम की चीज़ हैं। मजबूत प्रचार तंत्र का होना भी निहायत जरूरी है। उसे खुद के लोकप्रिय होने का जबरदस्त भ्रम है। इसलिए उसने 2017 में महापालिका चुनाव लड़ा, लेकिन पराजय का मुंह देखना पड़ा। चुनावों में होने वाली हार-जीत के मायने भी उसे पता हैं। सोशल मीडिया पर हमेशा छाया रहने वाला कालीचरण कच्ची नहीं, पक्की मिट्टी का बना है। गिरफ्तारी के बाद भी उसके तेवर नहीं बदले। उसका लक्ष्य भी धूमिल होता दिखायी नहीं दिया। दरअसल, उसके सामने कई ऐसे चेहरों की जीती-जागती तस्वीरें हैं, जिन्होंने हिंदुओं के मन में भय जगाकर अपने सपनों को साकार किया है। उन्हीं में से एक नाम है, प्रज्ञासिंह ठाकुर का, जो मुस्लिमों और गांधी पर शाब्दिक वार करते-करते सांसद बन लोकतंत्र के सबसे बड़े मंदिर में पहुंच चुकी हैं...।