Thursday, December 26, 2019

अब नहीं तो कब?

हमारे देश की बडी अजीब हालत हो गई है। सभी शुद्ध, स्वस्थ हवा में सांस लेना चाहते हैं, लेकिन पर्यावरण के प्रति अपने दायित्व का सतर्कतापूर्वक पालन नहीं करना चाहते। हमें सुरक्षा तो चाहिए, लेकिन नियम-कायदों की अवहेलना करने से बाज नहीं आते। जो राह हमें लाभदायक लगती है उसी पर चलना पसंद करते हैं। दूसरे मरें या जिएं हमें इससे कोई सरोकार नहीं। यह कितना हैरतअंगेज सच है कि देश में हर आठ में से एक व्यक्ति की मौत वायू प्रदूषण से हो रही है। दुनिया के सबसे अधिक प्रदूषित शहरों में १२ शहर हमारे ही देश में हैं। इन्सानों को जीने के लिए शुद्ध हवा चाहिए। हवा में आक्सीजन का होना निहायत आवश्यक है, तभी जिन्दा रहा जा सकता है। पेड पौधों और वृक्षों से आक्सीजन मिलती है, लेकिन हम इनके प्रति कितने निर्दयी हैं इसकी पूरी खबर होने के बावजूद अंधे बने हुए हैं। सरकार ने प्रदूषण पर काबू पाने के लिए पिछले कुछ वर्षों से काफी सक्रियता दिखायी है, लेकिन हम कितने जागरूक हुए हैं? हमारी इस संपूर्ण दुनिया में प्राणियों और पेड-पौधों को जीवित और स्वस्थ रहने के लिए आसपास के वातावरण का स्वच्छ होना बहुत जरूरी है, लेकिन हमने अपने निजी स्वार्थों के चलते पर्यावरण को प्रदूषित करने में कोई कसर बाकी नहीं रखी है। प्रदूषण का एकदम सरल-सा अर्थ है, गंदगी। हमारी सोच और विचारों पर भी 'प्रदूषण' ने अपनी जबरदस्त पकड बना ली है।
वायू प्रदूषण और जल प्रदूषण से तो हम सभी वाकिफ हैं। ध्वनि प्रदूषण भी कम अहितकारी नहीं है, लेकिन पता नहीं क्यों इसे नजरअंदाज किया जाता रहा है। प्रदूषित हवा, पानी और ध्वनि एकाएक अवतरित नहीं हुए। अगर हमने प्रारंभ से ही इनकी तरफ ध्यान दिया होता तो आज हालात इतने घातक नहीं होते। हाल ही में आया एक सर्वे बताता है कि देश की राजधानी दिल्ली सहित अधिकांश महानगरों, शहरों में प्रदूषण बेहद खतरनाक स्थिति तक पहुंच चुका है। बेतहाशा बढते वाहनों के ईंधन के जलने से होने वाले धुएं, रिहाइशी इलाकों में बडे पैमाने पर चलाई जा रही अवैध फैक्टरियों, खुले में होने वाले निर्माण कार्यों और सडकों पर कूडे-कर्कट को जलाये जाने से फैलने वाला प्रदूषण अत्याधिक जानलेवा है। इससे जो वायु प्रदूषित हो रही है, वही तो सभी के फेफडों में जा रही है। यह कोई हवा में उडा देने वाली बात नहीं है कि ऐसे विषाक्त वातावरण में हर दिन हर व्यक्ति चालीस सिगरेट पीने जितना धुआं अपने फेफडे में भरने को विवश है। ऐसे में वह कैंसर और अन्य गंभीर जानलेवा बीमारियों से कब तक बचा रह सकता है? आज भले ही यह महानगरों और बडे शहरों का भयावह सच है, लेकिन धीरे-धीरे छोटे शहर भी इस संकट की जद में आ रहे हैं। आज पानी खरीद कर पिया जा रहा है, अगर तुरंत नहीं संभले तो सांस लेने के लिए आक्सीजन भी कीमत देकर हासिल करने की नौबत आ सकती है।
इन्सानी तबाही का कारण बन चुके प्रदूषण ने कृषि वैज्ञानिकों को चिन्ता और परेशानी में डाल दिया है। कृषि पैदावारों में भी विष घुलने लगा है। वायुमंडल में रच-बस चुके धूल और धुएं के कारण इन्सानों की उम्र तो घट ही रही है, फसलें भी चौपट होने लगी हैं। पैदावार में कमी देखी जा रही है। फल-सब्जियों में पहले जैसी पौष्टिकता और स्वाद नहीं रहा। फूल खिलने से पहले ही गिरने और मुरझाने लगे हैं। सरकार की प्लास्टिक से मुक्ति पाने की अनवरत कोशिशों के बाद भी इसका चलन पूरी तरह से बंद नहीं हो पा रहा है, जबकि यह समय की मांग है कि प्लास्टिक की थैलियों के स्थान पर कपास और जूट के बने थैलों का उपयोग किया जाए। निजी और सरकारी कार्यक्रमों में प्लास्टिक की जगह मिट्टी-धातु के बर्तन प्रयोग में लाये जाएं। पॉलीथिन पर प्रतिबंध के बावजूद अधिकांश लोग इसका उपयोग कर कहीं भी फेंक देते हैं, जबकि वे इस हकीकत से वाकिफ हैं कि प्लास्टिक इन्सानों के साथ-साथ पशुओं के लिए भी अत्यंत हानिकारक है। पिछले दिनों फरीदाबाद में एक सांड के पेट से ८० किलो पॉलीथिन, पानी की बोतलें और ढक्कन आदि का विषैला कचरा पशु चिकित्सकों ने निकाला। गाय जिसे हम माता का दर्जा देते हैं, उसके पेट में भी यही कचरा समाता रहता है और हम गाय की सुरक्षा के नाम पर इन्सानों की गर्दनें उडाने में नहीं सकुचाते... घबराते। भारत में वायु प्रदूषण को नियंत्रित करने के लिए पेड-पौधों की अंधाधुंध कटाई पर अंकुश लगाना अत्यंत जरूरी है। अपने देश में ऐसे लोग भी हैं, जो समाज को बदलने के लिए अनुकरणीय पहल कर रहे हैं।
खरगौन जिले के ब‹डवाह ग्राम में एक जागरूक बेटे ने अपने प्रकृति प्रेमी पिता की पगडी रस्म पर वर्षों से चली आ रही परंपरा से हटकर चलते हुए बर्तन की जगह नीम, सीताफल, आम, बिल्वपत्र, आंवला सहित ३०० पौधे मंगवाकर स्वजनों को न सिर्फ बांटे, बल्कि उन्हें रोपकर बडा करने का भी आग्रह किया। बेटा अपने पर्यावरण प्रेमी पिता के पेड-पौधों के प्रति असीम लगाव से बचपन से ही बेहद प्रभावित रहा था। दमोह में अपने २५ साल के जवान बेटे की सडक हादसे में मौत के बाद उसकी तेरहवीं में शिक्षक पिता ने ५१ युवाओं को हेलमेट बांटे और उन्हें अपनी जान की रक्षा के लिए यह संदेश दिया कि कभी भी अंधाधुंध बाइक न चलाएं और हेलमेट जरूर पहनें। २० नवंबर २०१९ की रात थी। रिहाइशी इलाके में चल रही फैक्टरियां काला जहरीला धुआं उगल रही थीं। रात के दस बजे थे। तभी शिक्षक के इकलौते बेटे की बाइक एक भैंसे से टकरा गई थी, जिससे मौके पर ही उसकी दर्दनाक मौत हो गई थी। उसका शव रात भर सडक पर ही पडा रहा था। उम्रदराज शिक्षक की कांपती आवाज़ और दुख भरे गले से निकले इन शब्दों ने हर किसी की आंखें नम कर दीं, "वायु प्रदूषण और हेलमेट न लगाने की नादानी की वजह से मेरा जवान बेटा इस दुनिया से चला गया। मेरी ईश्वर से प्रार्थना है कि किसी को भी कभी इस तरह से अपना बच्चा न खोना पडे।" उन्होंने हेलमेट बांटने के साथ-साथ बच्चों के माता-पिता से भी अपील की, कि कृपया वायुमंडल को विषाक्त होने से बचाएं। जब भी वे अपने बच्चों को बाइक खरीदकर दें तो उन्हें हेलमेट भी दें और उसे लगाने के लिए भी बाध्य करें।

Thursday, December 19, 2019

ऊपर वाले के भरोसे

देश की राजधानी दिल्ली में रिहायशी क्षेत्र की तंग गली में चलने वाली एक बैग फैक्टरी में हुए भीषण अग्निकांड में पांच नाबालिग सहित ४३ श्रमिकों की जलने, झुलसने और दम घुटने से मौत हो गई। लगभग पच्चीस लोग गंभीर रूप से घायल हो गये। मरने और घायल होने वालों में से अधिकांश श्रमिक उत्तरप्रदेश, बिहार से कमाने-खाने आये थे, लेकिन उन्हें खाली हाथ कफन में अपने-अपने गांव-घर लौटना पडा। दिल्ली ने उनका सबकुछ छीन लिया। इस हादसे ने एक बार फिर से उस कुंभकर्णी और रिश्वतखोर प्रशासन की पोल खोल दी, जो चंद सिक्कों में बिक कर अपनी आंखें मूंद लेता है, जिससे अवैध धंधेबाजों की बन आती है। वे लाखों-करोडों में खेलते हैं और खून-पसीना बहाने वाले मजदूरों के हिस्से में सिर्फ मौत आती है। जिस फैक्टरी में आग लगी वह चार मंजिला इमारत में अवैध रूप से चलायी जा रही थी। सैकडों मजदूरों के लिए एक ही सीढी थी। इस इमारत में आग बुझाने के उपकरण नदारद थे। फैक्टरी को अग्निशामक विभाग की तरफ से एनओसी जारी नहीं थी। अन्य किसी विभाग से भी कोई लाइसेंस नहीं लिया गया था। इसके बावजूद धडल्ले से फैक्टरी चल रही थी। रात में सोते समय श्रमिक नीचे और छत का दरवाजा बंद कर लेते थे। इसलिए जब आग लगी तो धुआं बाहर नहीं निकल पा रहा था और अधिकांश मजदूर दम घुटने से चल बसे। फायर कर्मियों को भी आग बुझाने में भारी दिक्कतों का सामना करना प‹डा। आवासीय इलाके में जहां हजारों लोग रहते हैं, वहां पर इस फैक्टरी का चलना और बिजली विभाग से कनेक्शन का मिलना यही दर्शाता है कि इसे बेईमानी और भ्रष्टाचार की नींव पर खडा किया गया था। २५ वर्षीय मुस्तफा उन चंद खुशकिस्मत लोगों में हैं, जो काफी जद्दोजहद के बाद मौत की फैक्टरी से बच निकले। उस भयावह आग और दमघोटू धुएं के मंजर को वह कभी नहीं भूल पाएंगे, जिसने उन्हें कंपकंपा कर रख दिया था। सुबह चार बजकर दस मिनट पर बेतहाशा शोर सुनकर वे हडबडा कर उठे। हर तरफ धुआं ही धुआं था। लोग शोर मचा रहे थे कि आग लग गई है। इस बीच कुछ लोग बेहोश होकर गिरने लगे। मुस्तफा अपनी जान बचाने के लिए भागे। एक तो घना अंधेरा और फिर नीचे जाने के लिए एक ही सीढी...। हडबडी में उन्हें कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था। कोई रास्ता सूझता इससे पहले ही वे बेहोश हो गये। जब होश आया, तो खुद को अस्पताल में पाया।
फैक्टरी में आग का तांडव चरम पर पहुंचने के बाद वहां का कैसा मंजर था, आग में फंसे मजदूरों की कैसी हालत थी, वे किस तरह से छटपटा रहे थे, जब मौत उन्हें दबोचने को खडी थी तब वे अपने घर-परिवार को लेकर कितने चिन्तित थे, इन सवालों का जवाब जानने के लिए भीषण आग की लपटों से घिरे मुशर्रफ नामक युवक का तडके करीब पांच बजे अपने दोस्त मोनू को किया गया कॉल काबिलेगौर है : हैलो मोनू, भैया आज सबकुछ खत्म होने वाला है। आग लग गई है। आ जाइयो करोलबाग। टाइम कम है और भागने का कोई रास्ता नहीं है। खत्म हुआ भैया मैं तो, मेरे घर का ध्यान रखना। अब तो सांस भी नहीं ली जा रही है।
मोनू - आग कैसे लग गई?
मुशर्रफ - पता नहीं कैसे, सारे लोग दहाड रहे हैं। अब कुछ नहीं हो सकता। मेरे घर का ध्यान रखना भाई।
मोनू - फायर ब्रिगेड को तो फोन करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो रहा अब तो।
मोनू - पानी वाले को तो कॉल करो।
मुशर्रफ - कुछ नहीं हो सकता है, लेकिन मेरे घर का ध्यान रखना। किसी को एकदम से नहीं बताना। पहले बडों को बताना, मेरे परिवार को लेने पहुंच जाना। तुझे छोडकर और किसी पर भरोसा नहीं...।
सोचें तो दिल बैठने लगता है कि एक ही परिवार के आठ लोग अग्नि की भेंट चढ गए। उनके परिजनों के समक्ष यह परेशानी खडी हो गई कि आखिर वह इतने शव लेकर अपने गांव कैसे जाएं। उनके पास एम्बूलेंस की व्यवस्था के लिए पैसे ही नहीं थे।
हादसे में मारे गये १४ साल के रशीद आलम की मौत की खबर सुनकर उसकी बुआ को हार्ट अटैक आया और उसकी भी मौत हो गई। एक बहन अपने भाई का शव लेने के लिए अपनी मां के साथ सहरसा बिहार से दिल्ली पहुंची थी। दोनों का रो-रोकर बुरा हाल था। अथाह गम में डूबी मां का लाडला बेटा रविवार को घर आने वाला था, लेकिन उससे पहले उसकी मौत की खबर आ गई। उसकी बहन का तीन महीने बाद निकाह होने वाला था। इसलिए वह एक माह से निकाह की तैयारियों में जुटा था। रात-दिन खून-पसीना बहाकर उसने जो रुपये इकट्ठे किये थे, उन्हें लेकर वह रविवार को दिल्ली से सहरसा के लिए रवाना होने वाला था। सहरसा का ही रहने वाला मोहम्मद हुसैन भी उन ४३ बदनसीबों में शामिल था, जिन्होंने आग में जलकर तडप-तडप कर अपनी जान गंवाई। दो माह पहले ही उसकी मां एक सडक हादसे में चल बसी थी। इसके बाद रोजगार की तलाश में वह दिल्ली आया। काफी दिन तक बहन के घर में रहकर काम की तलाश में भटकता रहा। इस हादसे से मात्र तीन दिन पहले ही उसे इस मौत की फैक्टरी में नौकरी मिली थी। अपने इकलौते बेटे का शव लेने पहुंचे गमगीन पिता का कहना था कि मैं अब कैसे जीऊंगा। मेरा तो बुढापे का सहारा ही छिन गया। दिल्ली में पहले भी इस तरह के कई अग्निकाण्ड हो चुके हैं। हर मौत काण्ड के बाद एक-दूसरे पर दोष मढने की राजनीति के सिवाय कुछ नहीं किया गया।
मेरे पाठक मित्रों को कुछ माह पूर्व सूरत में एक कोचिंग सेंटर में लगी भीषण आग की तो याद होगी, जिसमें बीस छात्र-छात्राओं की दर्दनाक मौत हो गई थी। कई बच्चों को अपनी जान बचाने के लिए तीसरी-चौथी मंजिल से कूदना पडा था। घायल बच्चों को इलाज के लिए कई महीनों तक अस्पताल में भर्ती रहना पडा था। सूरत के कोचिंग सेंटर में हुआ यह हादसा कोई नया नहीं था। इससे पहले भी स्कूलों और कोचिंग सेंटर में कई दुर्घटनाएं हो चुकी थीं। कई मासूम छात्र-छात्राओं की मौत के बाद चिल्ला-चिल्ला कर कहा गया था कि लापरवाही और सुरक्षा के साधनों के अभाव के कारण यह मौतें हुईं। होना तो यह चाहिए था हादसे से ही सबक लेकर तुरंत सुरक्षा व्यवस्था पुख्ता कर दी जाती, लेकिन हम तो हमेशा यही मानकर चलते हैं कि हमारे साथ कभी कोई हादसा नहीं होगा, जिनके साथ हुआ वे बदनसीब थे। हम तो बहुत नसीब वाले हैं। ऊपरवाला हमेशा हम पर मेहरबान रहेगा। यह पंक्तियां लिखते-लिखते एकाएक मुझे उस हजारों लोगों की भीड की याद हो आयी है, जो अमृतसर में रेल पटरी पर खडे होकर रावण दहन देखने में मग्न थी। सभी को पता था कि यह व्यस्त रेलपथ है, जहां से अनवरत गाडियों का आना-जाना लगा रहता है। नेताओं के भाषण और रावण दहन के उत्साह और शोर-शराबे के चलते उन्हें कुछ भी याद नहीं रहा और इसी दौरान अपने तय समय पर ११० किलोमीटर प्रति घण्टे की रफ्तार से दौडती ट्रेन भीड को जब रौंदती हुई निकल गई, तो हाहाकार मच गया। घोर लापरवाही, मनमानी और अनुशासनहीनता के कारण ६१ हंसती-खेलती इन्सानी जिन्दगियां मौत की भेंट चढ गईं, लेकिन उनकी दर्दनाक मौत की जिम्मेदारी लेने को कोई भी तैयार नहीं था।

Thursday, December 12, 2019

अब इन्हें कौन सुधारे?

क्या दुराचारी, व्याभिचारी और किस्म-किस्म के बदमाश अखबार नहीं पढते। न्यूज चैनल नहीं देखते। क्या यह मान लें कि यह सब हद दर्जे के अनपढ और गंवार होते हैं, जिनका खबरों से कोई लेना-देना नहीं होता। जिनके लिए इंसानी रिश्ते कोई मायने नहीं रखते, लेकिन उनके बारे में क्या कहा और सोचा जाए, जो विद्वान हैं, स्कूल, कॉलेजों में पढाते हैं फिर भी दूसरों की मां-बहन और बेटियों पर जुल्म ढाते हैं तथा उनके साथ दुराचार करने में ज़रा भी नहीं लज्जाते हैं। आम लोगों के गुस्से का भी उन पर कोई असर नहीं होता। बेखौफ होकर मासूम बच्चियों पर बलात्कार करते हैं और फिर घिनौने दुराचार के वीडियो बनाकर सोशल मीडिया पर अपलोड भी कर देते हैं। हैदराबाद में पुलिसिया एनकाउंटर में पशु चिकित्सक डॉ. प्रियंका के बलात्कारियों और हत्यारों को ६ दिसंबर की सुबह ढेर किये जाने पर पूरे देश ने खुशियां मनाई। सभी के मन में कहीं न कहीं यह विश्वास बलवति हुआ कि अब तो बलात्कारों में कमी आएगी। कोई भी बदमाश महिलाओं पर बुरी नजर डालने से पहले सौ बार सोचेगा, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। देशवासी अभी हैदराबाद और उन्नाव की दिल दहलाने वाली खबरों से पूरी तरह से उबरे भी नहीं थे कि उन्हें ७ दिसंबर के अखबार और बलात्कारों की खबरों से भरे नज़र आए। फिर तो जैसे उनकी उम्मीदों पर पानी ही फिर गया। बलात्कारियों ने एनकाउंटर के उत्साह को ठंडा कर दिया।
दरभंगा में दो मासूम बच्चियां ऑटोरिक्शा के पास खेल रही थीं। एक की उम्र तीन साल तो दूसरी की पांच साल। खेलते-खेलते दोनों ऑटो में चढ गईं। ऑटो चालक के अंदर का शैतान जाग उठा। उसने बच्चियों को घुमाने का प्रलोभन दिया तो वे खुशी के मारे नाचने लगीं। गरीब मां-बाप की बेटियों को मुफ्त में ऑटो की सवारी और घूमने का जो मौका मिल रहा था। ऑटो चालक ने दोनों को थोडी देर तक इधर-उधर घुमाने के पश्चात तीन वर्षीय बच्ची को रास्ते में उतार दिया और पांच वर्षीय बच्ची को सुनसान जगह पर ले जाकर उसपर बडी बर्बरता के साथ बलात्कार कर लहुलूहान कर दिया। बच्ची को बेहोशी की हालत में जब अस्पताल में भर्ती कराया गया तो डॉक्टरों का खून खौल उठा। उनका बस चलता तो वे बलात्कारी की गर्दन उडा देते। अश्रूपुरित आंखों से अपनी बिटिया की दुर्दशा से रूबरू होते माता-पिता तो कुछ भी बोलने की स्थिति में ही नहीं थे। वे बस यही फरियाद कर रहे थे कि उनकी बच्ची बच जाए।
बिहार के शहर सुपौल में पांच दिसंबर की रात ९ बजे एक नाबालिग लडकी अपने घर के पास पिता के आने की राह देख रही थी तभी उसकी पहचान के एक शिक्षक सहित दो युवक उसके पास आए और पिता से मिलवाने के बहाने निकट स्थित एक कमरे में ले गए और वहां रात भर उसपर बलात्कार करते रहे। देश के प्रदेश ओडिशा के कोरापुट जिले में स्थित एक सरकारी स्कूल की सातवीं कक्षा की छात्रा कई महीनों तक एक नराधम की अंधी वासना का खिलौना बनी रही। घोर आश्चर्य भरा सच यह भी है कि इस कुकर्मी की पत्नी ही स्कूल की प्रधान अध्यापिका है, जिसने अंधी और बहरी बनकर अपने शैतान पति का पूरा साथ देने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। दुराचारी लडकी को स्टाफ क्वार्टर में बुलाता था और बेखौफ होकर बच्ची का यौन शोषण करता था। लडकी के तीन माह की गर्भवती होने का पता चलते ही लोग भडक गये। विद्वान शिक्षिका के अय्याश पति का मुंह काला कर गधे पर बिठा पूरे शहर में घुमाया गया। छत्तीसगढ के रायगढ जिले के लैलूंगा नामक गांव में पुलिस ने पंद्रह वर्षीय लडके को एक छह वर्ष की बच्ची के घर में घुसकर बलात्कार करने के आरोप में गिरफ्तार किया। यह लडका बालिका का पडोसी है। उसने जब देखा कि घर में और कोई नहीं है, बच्ची अकेली है तो वह भूखे जानवर की तरह उस पर टूट पडा।
महाराष्ट्र की नारंगी नगरी नागपुर से कुछ ही किलोमीटर की दूरी पर स्थित ग्राम लिंगा में ८ दिसंबर की दोपहर एक खेत में पांच साल की बालिका का शव मिलने से लोग गुस्से से तमतमाते हुए सडक पर उतर आए। यह बच्ची शुक्रवार ६ दिसंबर की शाम पांच बजे से गायब थी। ८ दिसंबर की सुबह गहन खोज के दौरान ११ बजे सुबह एक खेत में उसका शव अस्तव्यस्त हालत में मिला। उसके मुंह में कपडा और लकडी ठुंसी हुई थी। सिर पर पत्थर मारने के निशान थे। पुलिस ने पुख्ता संदेह के आधार पर खेत में काम करने वाले नौकर को गिरफ्तार किया। उसने स्वीकारा कि पहले तो उसने बालिका से दुष्कर्म किया, फिर सिर कुचलकर उसकी हत्या कर दी। बालिका की नृशंस हत्या के विरोध में सडक पर उतरी भीड हैदराबाद की तर्ज पर हत्यारे का एनकाउंटर कर उसे मौत के घाट उतारने की मांग कर रही थी। भीड में शामिल स्त्री, पुरुष और बच्चों में कोई चेहरा ऐसा नहीं था, जिसके दिल में हत्यारे के प्रति हमदर्दी हो। सभी उसकी इस दुनिया से फौरन विदायी चाहते थे। महाराष्ट्र में ही स्थित गढचिरोली के एक निजी अस्पताल में कार्यरत युवा नर्स ड्यूटी खत्म होने के बाद अपने गांव जाने के लिए बस अड्डे पर खडी थी। उसी दौरान उसका एक परिचित वहां बाइक लेकर पहुंचा। युवती ने उससे अनुरोध किया कि वह बाइक से उसे गांव छोड दे। युवक उसे लेकर गांव की ओर निकला, लेकिन बीच रास्ते में उसकी नीयत खराब हो गई। वह युवती को जबरन खेत में ले गया, जहां उससे बलात्कार करने के बाद उसका गला भी दबा दिया। युवती बेहोश हो गई। बलात्कारी को यकीन हो गया कि वह मर गई है। सबूत मिटाने के लिए उसने युवती के मोबाइल और अन्य सामान को बाइक की डिक्की में डाला और वहां से भाग गया। कई घण्टों तक खेत में बेहोश रहने के बाद जब उसे होश आया तो उसने कुछ लोगों की सहायता से थाने पहुंच कर शिकायत दर्ज करवाई। कर्नाटक के कुलबर्गी जिले में नौ साल की बच्ची के साथ दुष्कर्म कर उसकी हत्या कर दी गई। उत्तरप्रदेश के महाराज गंज के निकट स्थित एक गांव में घर में शौचालय नहीं होने के कारण एक २३ वर्षीय युवती सुबह छह बजे शौच के लिए घर से निकली तो वापस नहीं लौटी। परिजनों ने ढूंढना शुरू किया। इस दौरान पास में बच्चे गेंद से खेल रहे थे। उनकी गेंद खेत में चली गई। बच्चे गेंद को ढूंढते हुए पहुंचे तो वहां गन्ने के खेत में युवती का शव देख शोर मचाया। यह तो चंद खबरें हैं, जो अखबारों में छपीं और हमारे पढने में आईं। पूरे देश में न जाने ऐसी कितनी घटनाएं हुई होंगी। वैसे भी हर बलात्कार की खबर अखबार में प्रकाशित नहीं होती। आधी से ज्यादा बलात्कार की शिकायतों की रिपोर्ट तो थाने में ही दर्ज नहीं हो पाती।

Thursday, December 5, 2019

जंग लडता बचपन

बचपन गुम हो रहा है। बच्चे चिन्तित हैं। उन पर शोषण की तलवारें लटक रही हैं। वे समय से पहले बडे हो रहे हैं। अपने अधिकारों को जानने लगे हैं। अपनी समस्याओं के निपटारे के लिए खुद सामने आने लगे हैं। इस जद्दोजहद में कहीं अच्छा तो कहीं बुरा हो रहा है। भिवंडी में एक १५ वर्षीय लडकी ने पिता की डांट से बचने के लिए जो रास्ता अपनाया उससे लोग स्तब्ध रह गये। पुलिस की नींद उड गई। नाक में दम हो गया। १५ नवंबर २०१९ की सुबह इस लडकी के हाथ से दूध गिर गया था। उसके पिता अत्यंत गुस्सैल हैं। उसे डर था कि स्कूल से वापस आने पर उसे डांट प‹डेगी। छोटी-मोटी भूल या कोई नुकसान होने पर उसके पिता का पारा चढ जाता है और आसमान सिर पर उठा लेते हैं। मां बीच-बचाव के लिए आती है तो उसकी भी धुनाई हो जाती है। इसीलिए वह स्कूल जाने के बजाय ट्रेन पकडकर आसनगांव चली गई। जब वह निर्धारित समय पर घर नहीं लौटी तो माता-पिता घबरा गये। उन्हें किसी अनहोनी का भय सताने लगा। लडकी एक दिन बाद घर लौट आई, लेकिन उसने जो आपबीती बतायी उसे सुन अभिभावक तुरंत पुलिस स्टेशन पहुंच गये। लडकी ने अपनी शिकायत में कहा कि वह स्कूल जाने के लिए सवा छह बजे घर से निकली थी। रास्ते में चार युवकों ने उसे जबरन कार में बिठाया और आंख में पट्टी बांधकर किसी पुरानी बंद पडी फैक्टरी जैसी जगह पर ले गए। वहां पर उसके ही जैसी कई और लडकियां थीं। बदमाशों ने उसके साथ दुष्कर्म किया। बदमाश जब दुष्कर्म कर चले गये तो वह दूसरी लडकियों के साथ वहां से भाग निकली। पुलिस के लिए वाकई यह बहुत गंभीर मामला था, लेकिन उसने जब गहराई से छानबीन की तो ऐसा कोई भी सबूत नहीं मिला, जो लडकी की दुष्कर्म की शिकायत को साबित करता। इस बीच सामाजिक कार्यकर्ताओं और मीडिया ने लडकी के अपहरण और बलात्कार को लेकर हंगामा बरपा कर दिया। पुलिस पर आरोप लगाये जाने लगे कि वह नाबालिग की यौन उत्पीडन की शिकायत पर लीपापोती कर रही है। इतने गंभीर मामले के सच को सामने लाने की बजाय सुस्ती का दामन थामे है। इसके बाद पुलिस ने महिला सामाजिक कार्यकर्ताओं और अभिभावकों के सामने फिर से लडकी से पूछताछ की तो उसने कबूल किया कि न तो उसका अपहरण हुआ था और ना ही बलात्कार। उसने तो बस पिता के गुस्से से बचने और उनका ध्यान भटकाने के लिए यह कहानी गढी और सुना दी...।
पिता के गुस्सैल स्वभाव के कारण घर में होने वाली रोज-रोज की कलह से परेशान एक १६ साल की लडकी सीधे कोर्ट पहुंच गई। भोपाल की इस बेटी ने स्कूल से सीधे जिला विधिक प्राधिकरण में पहुंचकर यहां के जज आशुतोष मिश्रा से शिकायत कर अपना कष्ट और दर्द बयां करते हुए कहा, 'सर मैं अपने घर के झगडे के कारण बेहद डिप्रेशन में जी रही हूं। कई बार मन करता है कि आत्महत्या कर लूं। कृपया आप मेरी मदद करें।' जज के लिए यह बडा अनोखा मामला था। बेटियां ऐसा कदम उठाने से पहले सौ बार सोचती हैं। यकीनन यह एक गंभीर मामला था। जज महोदय ने कुछ देर तक विचार करने के पश्चात केस के सकारात्मक निपटारे का निर्णय लिया। सबसे पहले घबराई बच्ची की काउंसलिंग की गई। उसकी चिंता और समस्या को गहराई से जाना गया। उसके पश्चात बेटी को माता-पिता के समक्ष बिठाकर जज महोदय ने कहा कि अब तुम ही बेखौफ होकर अपना फैसला सुनाओ। बेटी ने जो फैसला सुनाया उसे सुनकर कोर्ट में मौजूद माता-पिता के साथ-साथ दूसरों की भी आंखें छलक आई। बेटी ने आदेश में कहा कि माता-पिता आपस में कभी विवाद नहीं करेंगे। पिता को नियमित रूप से स्कूल की फीस भरनी होगी। वे रोज-रोज खाने की थाली नहीं फेकेंगे। उन्हें अपने गुस्से पर पूरी तरह से नियंत्रण करना होगा। राशन समय पर घर पर लाकर देंगे। बच्चों की हर जरूरत को पूरा करते हुए मां के खर्च के लिए कुछ रुपये देंगे। पिता ने भी स्वीकार किया कि वे क्रोधी स्वभाव के हैं। अक्सर तनाव में रहते हैं, जिसकी वजह से परिवार में अशांति बनी रहती है, लेकिन अब वे ऐसी कोई गलती नहीं करेंगे, जिसकी वजह से उनकी पत्नी और बच्चों को तकलीफ हो। इस जागरूक बेटी ने विभिन्न समाचार पत्रों में जिला विधिक प्राधिकरण के बारे में काफी पढा था, इसलिए वह अपनी शिकायत दर्ज करवाने यहां दौडी चली आई और जज ने अनोखी पहल करते हुए उसके फैसले को आदेश के रूप में जारी कर दिया।
देश के आदिवासी इलाकों के बच्चों में भी परिवर्तन आ रहा है। वे अपने अधिकार के प्रति सचेत हो रहे हैं। मध्यप्रदेश के आदिवासी बाहुल्य जिले झाबुआ में आदिवासी बच्चों ने विभिन्न समस्याओं के निदान के लिए हाथ-पैर मारने शुरू कर दिये हैं। अपनी और गांव की समस्याओं के समाधान के लिए प्रशासनिक अधिकारी से लेकर सरपंच तक जाने में नहीं हिचकते। वे इस दाग को धोना चाहते हैं कि आदिवासी अनपढ के अनपढ रहना चाहते हैं। उनमें जागृति नहीं आ सकती। वे अपने बुजुर्गों की तरह दारू में मस्त और निठल्ले नहीं बने रहना चाहते। यह बच्चे उन शैतानों पर आक्रमण करने से भी नहीं घबराते जो उनकी मां-बहनों पर बुरी नज़र रखते हैं। आदिवासी इलाकों में बहन-बेटियां भी सतर्कता की राह पर चलने लगी हैं। वे उन वहशियों को पहचानने में किंचित भी देरी नहीं लगातीं जिनके लिए आदिवासी महिलाएं भोग की वस्तु हैं। यह सच भी सर्वज्ञात है कि आदिवासियों में परिवार चलाने की जिम्मेदारी महिलाओं पर होती है। वे इस परिपाटी को बदलकर सभी के जीवन को खुशहाल बनाना चाहते हैं। उनमें संवेदनशीलता भी कूट-कूट कर भरी है। धीरे-धीरे कई गांव में स्पष्ट बदलाव नज़र आ रहा है। इन गांव में कुओं के नहीं होने के कारण पानी की बहुत समस्या थी। अब गांव में कुएं बन गये हैं और पानी की समस्या से छुटकारा मिल रहा है। गांव-गांव में मांदल टोली बनायी गई है, जिसमें किशोरों को शामिल किया गया है। वे आपस में बैठकें करते हैं और लाइब्रेरी, पानी, बिजली, स्कूल, अस्पताल जैसी जरूरतों के साथ-साथ बाल विवाह जैसे मुद्दों पर चर्चा करते हैं। उनकी कोशिशें रंग ला रही हैं।