Thursday, March 30, 2017

उदार और गद्दार

"सुकमा में शहीद जवानों के परिजनों को फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार ने दिए ९-९ लाख।"
इस खबर को पढकर देश के जवानों और किसानों की चिन्ता करने वाले अभिनेता के प्रति जो आदरभाव उपजा उसे शब्दों में बयां कर पाना संभव नहीं है। हिन्दुस्तान में ऐसे कितने लोग हैं जो ऐसी दरियादिली और उदारता दिखाते हैं? यकीनन बहुत ही कम। यहां पर तो बेकार का हो-हल्ला मचाने वालों की भरमार है। जो राष्ट्रप्रेम और राष्ट्रभक्ति पर भाषण देकर तालियां बजवाते हैं और फिर चलते बनते हैं। गौरतलब है कि ११ मार्च २०१७ के दिन छत्तीसगढ के सुकमा जिले में भेज्जी परिसर में नक्सलियों ने ड्यूटी पर तैनात सीआरपीएफ के १२ जवानों की निर्मम हत्या कर दी थी। जांच अधिकारियों का मानना था कि नक्सली थिंक टैंक और नक्सलियों के लिए अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क तैयार करने वाले दिल्ली यूनिवर्सिटी के प्राध्यापक जी.एन. साईबाबा को अदालत द्वारा आजीवन कारावास की सजा सुनाकर जेल भेज दिये जाने का गुस्सा नक्सलियों ने इस वारदात को अंजाम देकर निकाला है। सुकमा में शहीद हुए बारह जवानों के परिजनों तक ९-९ लाख की सहायता पहुंचाने वाले अक्षय कुमार महाराष्ट्र के सूखा प्रभावित किसानों की भी सतत मदद करते चले आ रहे हैं। पिछले वर्ष अभिनेता ने जब न्यूज चैनलों और अखबारों के माध्यम से यह जाना कि महाराष्ट्र के विभिन्न हिस्सों में सूखे के कारण किसान कर्जग्रस्त होते चले जा रहे हैं और आत्महत्या करने को विवश हैं तो वे विचलित हो उठे। उन्होंने तकरीबन १८० परिवारों (प्रति परिवार ५० हजार) की आर्थिक मदद की। उसके बाद तो यह सिलसिला ही चल पडा। अपनी एक्टिंग का लोहा मनवा चुके अभिनेता नाना पाटेकर भी जरूरतमंदों की सहायता करने को सदैव तत्पर रहते हैं। महाराष्ट्र के किसानों की खुदकुशी ने इस नायक को भी बेहद आहत किया। उन्होंने महाराष्ट्र के अलग-अलग इलाकों में जाकर आत्महत्या करने वाले किसानों की विधवाओं को आर्थिक सहायता देने का जो सिलसिला चलाया है, उससे कई लोगों को प्रेरणा मिली है। अक्षय कुमार को भी प्रेरित करने का श्रेय नाना पाटेकर को जाता है। नाना पाटेकर ने मराठी अभिनेता मकरंद अनासपुरे के साथ मिलकर 'नाम' नामक संस्था की शुरुआत की है जो कृषक परिवारों की मदद के लिए दिन-रात लगी रहती है। साउथ और बालीवुड के सुपर स्टार रजनीकांत भी सिर्फ फिल्मों में ही नहीं, वास्तविक जीवन में भी असली नायक हैं। वे अपनी कमाई का सत्तर से अस्सी प्रतिशत हिस्सा जनसेवा में खर्च कर देते हैं। कुछ साल पहले चेन्नई में आयी बाढ में उन्होंने अपना जन्मदिन नहीं मना के १० करोड रुपये बाढ प्रभावित लोगों में दान कर दिए थे। विप्रो के संस्थापक अजीम प्रेमजी की दरियादिली भी बेमिसाल है। प्रेमजी विप्रो के ५३,००० करोड के शेयर एक धर्मार्थ संस्था को दान कर चुके हैं। वे खुद के साथ-साथ अन्य उद्योगपतियों, रईसों को भी सामाजिक कार्यों में आगे आकर योगदान करने की गुजारिश करते रहते हैं। देश और दुनिया के करोडों लोगों को क्रिकेट का दिवाना बनाने और क्रिकेट का भगवान कहलाने वाले सचिन तेंदूलकर भी समाजसेवा में अग्रणी हैं। वे हर साल करीब दो सौ गरीब बच्चों की शिक्षा, रहन-सहन, खान-पान और अन्य आवश्यक खर्च उठाते हैं। सचिन ऐसी कई जनसेवी संस्थाओं से भी जुडे हैं जो बिना किसी शोर-शराबे के दीन-दुखियों की सेवा करना अपना कर्तव्य समझती हैं। अपने देश में एक से एक मानवता के पुजारी हैं वहीं दूसरी तरफ कुछ काले चेहरे ऐसे भी हैं जो देशवासियों को आहत करते रहते हैं। उनके क्रियाकलाप इतने शर्मनाक हैं कि सजग भारतीयों का खून खौल उठता है। देश के कुछ शिक्षण संस्थान भी आतंकवादियों को प्रक्षय देने के अड्डे बन चुके हैं। यहां पर उन उमर खालिदों और कन्हैया कुमारों की पीठ थपथपायी जाती है जो देश के दुश्मनों के नाम की आरती गाते हैं और भारत माता के टुकडे करने के नारे लगाते हैं। माना तो यही जाता है कि शिक्षक छात्रों के अच्छे भविष्य का निर्माण कहते हैं, लेकिन इसी देश में जी.एन. साईनाथ जैसे मुखौटेबाज भी है जिनकी असली जगह जेल ही है। देश के बहादुर जवानों का खून बहाने वाले नक्सलियों के हिमायती साईबाबा जैसों की शैतानी विद्वता के कारण ही नक्सली समस्या का अंत होता नहीं दिखता। साईबाबा नब्बे फीसदी दिव्यांग है। उसे देखकर किसी को भी उस पर दया आ सकती है। कोई सोच भी नहीं सकता ऐसा दिव्यांग व्यक्ति इतना शातिर हो सकता है। उसकी लाचारी पर ही तरस खाकर डीयू के रामलाल कालेज में उसे नौकरी प्रदान की गई थी। उसे कॉलेज में रखा तो गया था छात्रों को अंग्रेजी साहित्य पढाने के लिए, लेकिन उसने तो नक्सलियों से रिश्ते बना लिए। दरअसल नक्सलियों के प्रति उसके मन में शुरू से अपार सहानुभूति थी। दिव्यांग होने के कारण अदालत भी उसे जमानत देती रही और वह इसका गलत फायदा उठाते हुए देश और विदेशों में आयोजित अनेक नक्सली सेमिनारों में भाग लेकर नक्सलियों को खून-खराबे के पाठ पढाता रहा। नक्सलियों की मदद करने और भारत के खिलाफ युद्ध का षड्यंत्र चलाने के आरोप में साईबाबा को उम्र कैद की सजा सुनायी गयी है। साईबाबा के समर्थक इस सजा को ही गलत ठहरा रहे हैं। साईबाबा जैसे दुष्टों की फितरत से वाकिफ बुद्धिजीवियों ने सही ही कहा है कि नक्सलियों का मनोबल बढाने वाले साईबाबा को दोषी करार दिए जाने से उन वामपंथियों के चेहरे बेनकाब हुए हैं जो नक्सलियों के प्रति अपार सहानुभूति रखते हैं।अब वक्त आ गया है जब साईबाबा की जमात के और भी काले चेहरों की शिनाख्त कर उन्हें जेल में डाल दिया जाना चाहिए। यह लोग खुली हवा में सांस लेने के हकदार नहीं हैं।

Thursday, March 23, 2017

हठी और जिद्दी राजा

देश के सबसे बडे प्रदेश उत्तर प्रदेश में योगी युग का आगाज़ हो चुका है। उन्होंने सत्ता पर काबिज होते ही कई अच्छी घोषणाएं की हैं जो आश्वस्त करती हैं कि उनके इरादे नेक हैं। अपनी सरकार के सभी मंत्रियों और अधिकारियों को पंद्रह दिन के भीतर अपनी सम्पति का ब्यौरा सार्वजनिक करने के उनके निर्देश अच्छे भविष्य की उम्मीद जगाते हैं। उन्होंने पुलिस को भी मुस्तैदी से अपने कर्तव्य का पालन करने के निर्देश दे दिए हैं। महिलाओं की सुरक्षा के लिए विशेष प्रबंध किये जा रहे हैं। योगी ने वादा किया है कि प्रदेश को भ्रष्टाचार एवं दंगा मुक्त बनाकर ही दम लेंगे। किसी भी हालत में अराजकता फैलाने वाले गुंडे-बदमाशों को बख्शा नहीं जाएगा। लूटपाट और अपहरण जैसी वारदातों पर लगाम लगाने में पूरी ताकत लगा दी जाएगी।
प्रदेश में मोदी लहर को बरकरार रखने के लिए अपना पूरा दमखम लगा देने वाले योगी आदित्यनाथ को सीएम बनने का मौका मिलेगा इसकी उम्मीद तो खुद उन्हें भी नहीं थी। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने योगी को प्रदेश की सत्ता की कमान सौंपकर बहुत हिम्मत दिखायी है। राजनीति के कई खिलाडी यह मान रहे हैं कि यह प्रयोग बहुत महंगा भी पड सकता है। इसके पीछे कई कारण गिनाये जा रहे हैं। यह भी सच है कि अतीत योगी का पीछा नहीं छोड रहा है। विवादों से गहरा नाता रखने वाले आदित्यनाथ २०१४ में लव जिहाद को लेकर एक विडियो में यह कहते दिखे थे कि 'अगर एक हिन्दु लडकी का धर्म परिवर्तन कराएंगे तो हम १०० मुस्लिम लडकियों का धर्मांतरण कराएंगे।' जो योग और भगवान शंकर की अनदेखी करते हैं वे देश छोडकर जा सकते हैं। कभी उन्होंने अपने भाषण में कहा था, 'यदि अल्पसंख्यक शांति से नहीं रहते तो हम उन्हें सिखाएंगे कि कैसे शांति से रहते हैं और उस भाषा में समझाएंगे जो उन्हें समझ में आती है। यह भी योगी के ही बोलवचन थे कि हिन्दुओं की रक्षा के लिए बंदूक भी बांटनी पडे तो बांटनी चाहिए। अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण को लेकर उनकी उग्रता इन शब्दों में नज़र आई थी, 'जब अयोध्या में विवादित ढांचा तोडने से कोई नहीं रोक सका तो मंदिर बनने से कौन रोक सकता है। भाजपा को वोट दिया तो राम मंदिर बनेगा। सपा बसपा को वोट दिया तो कर्बला कब्रिस्तान बनेगा।'
आज योगी उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री बन चुके हैं। हर निगाह उन पर टिकी है। कल और आज में अकल्पनीय बदलाव आ चुका है। यह भी सच है कि उत्तरप्रदेश की लगभग बीस करोड की आबादी में लगभग २० फीसदी के करीब मुसलमान हैं। उनमें कुछ ऐसे कट्टरपंथी भी हैं जिन्हें यूपी की सत्ता पर महंत आदित्यनाथ का विराजमान होना शूल की तरह चुभ रहा होगा। वे हमेशा उनके खिलाफ माहौल बनाने की ताक में रहेंगे ही। हम यह भी कह सकते हैं कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की अग्निपरीक्षा का दौर सतत चलते रहने वाला है। उन्हें अपनी छवि बदलनी ही होगी। उनकी सरकार यदि सबको साथ लेकर नहीं चलेगी तो उनकी सत्ता की राह में कांटे बिछने में देरी नहीं लगेगी। पत्रकारिता के क्षेत्र में वर्षों से कार्यरत रहने के बाद यह कलमकार इस सच से तो परिचित हो ही चुका है कि हिन्दुस्तान की फिज़ा में ज़हर भरने में कुछ कट्टर मुसलमानों और हिन्दुओं की बराबर की भागीदारी है। इनके हौसलों को वही शासक पस्त कर सकता है जो सिर्फ सर्वधर्म समभाव के नारे ही नहीं लगाए बल्कि बिना किसी भेदभाव के यथार्थ में क्रांतिकारी कदम उठाए। मर्डर, लूटपाट, अपहरण, गरीबी, पलायन, बेरोजगारी और दंगे यूपी की पहचान रहे हैं। योगी को यूपी के इस चेहरे में अमन, चैन और खुशहाली के रंग भरने होंगे। उत्तरप्रदेश में तीस प्रतिशत लोग गरीबी रेखा के नीचे जीवनयापन करते हैं। इसमें सभी धर्मों, जातियों के लोग शामिल हैं। इन सबके जीवन के अंधेरे को दूर करने की जिम्मेदारी युवा मुख्यमंत्री की ही है। यह बहुत अच्छी बात है कि यूपी में अवैध बूचडखाने पर ताले जडवाने की कार्रवाई तेजी से प्रारंभ हो चुकी है। अवैध बूचडखानों के बंद होने का सबसे ज्यादा असर मीट कारोबारियों पर पडने जा रहा है। उनमें हडकंप भी मच गया है। योगी का बूचडखाने बंद कराने का चुनावी वादा था। जिसे उन्होंने पूरा करने में जो साहस दिखाया है वह उनकी वादा निभाने की नीयत और क्षमता को दर्शाता हैं। एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश में फिलहाल चालीस बूचडखाने वैध हैं जिन्हें केंद्र सरकार की एग्रीकल्चरल एंड प्रोसेस्ड फूड प्राडक्टस एक्सपोर्ट डेवलमेंट अथारिटी से बाकायदा लायसेंस मिला हुआ है। अवैध बुचडखानों की संख्या चार सौ के आसपास है। बूचडखानों के बंद होने से निश्चित ही हजारों लोगों का रोजगार छिन जाएगा। इनमें से ज्यादातर ऐसे लोग हैं जो पुश्तों से इस कारोबार से जु‹डे हैं। कानपुर चमडे के व्यापार के लिए जाना जाता है। चमडे के बेल्ट से लेकर बैग और जूते कानपुर में बनते हैं। देश भर में कच्चा चमडा कानपुर से ही जाता है। अकेले कानपुर में हर रोज ५० करोड के गोश्त का कारोबार होता है। बूचडखानों के बंद होने से सिर्फ कारोबारियों और मजदूर ही नहीं प्रभावित होंगे बल्कि किसानों पर भी काफी व्यापक असर पडेगा। ऐसे में मुख्यमंत्री आदित्यनाथ को तमाम प्रभावितों के लिए शीघ्र ही रोजगार के विकल्प तलाशने होंगे। इसमें होने वाली देरी रोष और असंतोष को जन्म दे सकती हैं।
योगी के बारे में कहा जाता था कि वे हठ योगी हैं। जिद्दी हैं। वे जहां खडे हो जाते थे, वहीं पर सभा शुरू हो जाती थी। वो जो बोल देते थे, उनके समर्थकों के लिए वही कानून हो जाता था। आज वे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री हैं। उन्हें अपने 'सबका साथ, सबका विकास' के नारे को हठ और जुनून के साथ अमलीजामा पहनाना ही होगा तभी विरोधियों की सोच बदलेगी। इसके साथ ही उन तमाम समर्थकों और अनुयायियों पर भी नियंत्रण रखना होगा जो जोश में होश खोने में देरी नहीं लगाते रहे हैं।

Thursday, March 16, 2017

नतमस्तक हैं हम

बेटों की परवरिश में सर्वस्व लुटाने की सोच रखने वाले ऐसे लोग देश में आज भी भरे पडे हैं जो बेटियों को पराया धन समझते हैं। वे अपना खून-पसीना बहाकर बेटों को पढाते-लिखाते हैं और उन्हें कमाने-धमाने के लायक बनाना अपने जीवन का एकमात्र लक्ष्य मानते हैं। लेकिन बेटियों की शिक्षा पर धन खर्चेने में कतराते हैं। हां उन्हें बेटियों के दहेज की खासी चिन्ता रहती है। बेटी के पैदा होते ही वे उसकी शादी में दिए जाने वाले जेवर व दहेज की चिन्ता में बचत करना शुरू कर देते हैं। बेटों की तरह बेटियों को भी पढाने-लिखाने और अपने पैरों पर खडे करने की चाहत रखने वाले माता-पिताओं की देश में ऐसी खासी तादाद नहीं है कि जिस पर नाज किया जा सके। यह भी सच है कि देश में जागृती की मशाल जलती दिखायी देने लगी है। कई माता-पिता में परिवर्तन स्पष्ट दिखायी देने लगा है। वे अपनी बेटियों को इतना योग्य बनाना चाहते हैं कि जिससे लडके वाले खुद-ब-खुद प्रस्ताव लेकर आएं और शादी में दहेज की मांग भी न करें। मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में स्थित गांव घुडावन में रहते हैं शिक्षक गणपतसिंह पवार। उनके यहां एक-एक कर तीन बेटियों ने जन्म लिया। उन्होंने तभी ठान लिया कि मैं अपनी बेटियों को शिक्षित करूंगा। बेटियों को इतना काबिल बनाऊंगा कि रिश्ते खुद चलकर आएं। उन्होंने बेटियों की शादी में दहेज नहीं देने की ठान ली थी। घुडावन गांव में रहने वाले अधिकांश राजपूत परिवार बेटियों को पढाना अच्छा नहीं मानते थे। जो माता-पिता अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलाने की बात करते उनका पुरजोर विरोध किया जाता था। यही वजह है कि गांव की कोई भी बेटी आठवीं से आगे नहीं पढ पाई थी। शिक्षक गणपतसिंह को यह बात बहुत चुभती थी। उन्होंने लोगों के विरोध, तानों की परवाह न करते हुए अपनी तीनों बेटियों को पढाने-लिखाने में कोई कसर बाकी नहीं रखी। उनकी पढाई के लिए उन्हें गांव छोडकर उज्जैन जाना पडा। वहां पर किराये के घर में रहे और नाममात्र के वेतन से परिवार के लालन-पालन के साथ-साथ अपने सपने को साकार करने में सफलता पायी। बेटियों ने भी खूब मेहनत की। आज इस जुनूनी शिक्षक की बडी बेटी साधना पटवारी है, दूसरी बेटी विचित्रा एमबीबीएस डॉक्टर है और तीसरी बेटी टीना जनपद पंचायत में सीओ के पद पर विराजमान है।
धनबाद के एक छोटे से गांव में रहने वाले चरवाहा चुडका मरांडी ने अपनी प्यारी बिटिया को इंजीनियर बनाकर ही दम लिया। वे बताते हैं कि- "तंगहाली ऐसी थी साहब, कि बडी बेटी रांकिनी ने स्कूल का रास्ता तक नहीं देखा। हां बाद में कलौदी पैदा हुई तो गांव के ही बच्चों के साथ स्कूल में पढने के लिए जाने लगी। जब वह पांचवी में थी, तब उसके स्कूल के मास्टर ने बताया कि वह नवोदय की परीक्षा में पास हो गई है। लेकिन, मुझ अभागे गरीब के पास उसे वहां भेजने और उसका एडमिशन कराने तक के पैसे नहीं थे। तब मैंने अपनी गाय और बकरियां बेचकर उसका एडमिशन कराया। बेटी ने भी पढाई में पूरी लगन दिखाई। जब वह इंजीनियरिंग में सिलेक्ट हुई तो अपने भाईयों से कर्ज तथा एक जोडी बैल बेचकर बेटी का एडमिशन कराया।" बेटी की फीस के लिए पत्थर तोडने से लेकर तरह-तरह के काम करने वाले पिता के संघर्ष में मां ने भी भरपूर साथ दिया। बेटी को किसी भी तरह से इंजीनियर बनाने का संकल्प ले चुके इस जुनूनी पिता के बारे में जब मीडिया में खबरें आर्इं तो सरकार ने चुडका मरांडी की पीठ थपथपायी और कलौदी की पढाई के लिए नगद पचास हजार रुपये और दो गाय देने की घोषणा की। यहां पर भी सरकारी व्यवस्था अपना असली चेहरा दिखाने से बाज नहीं आई। चुडका को चालीस हजार रुपये ही मिल पाए। दोनों गायें भी पता नहीं कहां गायब हो गर्इं। केमिकल इंजीनियरिंग की पढाई कर रही कलौदी को अपने पिता की हिम्मत पर गर्व है। वह जीवन पर्यंत उन दिनों को नहीं भूलना चाहती जब उनके परिवार को कई-कई दिनों तक खाली पेट सोना पडता था। पिता को जहां कहीं मजदूरी मिलती, वे वहीं काम पर चले जाते थे। तब वह खुद चरवाहे का काम करने जाती थी। किताबें भी अपने साथ ले जाती थी।
कोलकाता के ओम प्रभु की बेटियां गायत्री सिंह रंजीतकर और बंटी रंजीतकर ताइक्वांडो में परचम लहरा रही हैं। यह एक ऐसा खेल, जिसे डेढ दशक पहले तक न तो कोई जानता था और न कोई पूछने वाला था। ताइक्वांडो में सेकेंड डन ब्लैक बेल्टधारी २९ वर्षीया गायत्री अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का नाम रोशन कर चुकी है। उसने २००६ में लखनऊ में हुई 'फर्स्ट गुडविल इंटरनेशनल ताइक्वांडो चैंपियनशिप' में भारत का प्रतिनिधित्व कर रजत पदक जीता था। राष्ट्रीय स्तर पर भी वह कई पदक अपने नाम कर चुकी हैं। वहीं फर्स्ट डन ब्लैक बेल्टधारी २५ साल की बंटी राज्य स्तर पर पदक जीत चुकी हैं। ६५ साल के इस पिता को अपनी इन बेटियों पर नाज़ है। मूल रूप से नेपाल के काठमांडू के वादे ओम प्रभु सिंह ने जब अपनी बेटियों को ताइक्वांडो सिखाने का निश्चय किया था तो सबने मना किया। कहा-लडकियों को चोट लग गई तो आगे चलकर शादी-ब्याह में दिक्कत हो जाएगी, लेकिन ओम प्रभु ने तो चट्टानी इरादा कर लिया था। उन्होंने कहा-'आज के दौर में सबको अपनी रक्षा खुद करने में सक्षम होना बेहद जरूरी है, खासकर लडकियों को।ङ्क कहते हैं-चैरिटी बिगिंस एट होम, इसलिए मैंने इसकी शुरुआत अपने घर से की और अब मेरी बेटियां ताइक्वांडो चैंपियन बनने के बाद दूसरों को आत्मरक्षी बना रही हैं। हावडा एसी मार्केट इलाके में एक छोटे से घर में रहने वाले ओम प्रभु सिंह पेशे से शिक्षक हैं। वे टंडेल बगान गुरु नानक विद्यालय में पढाते हैं। उन्होंने कर्ज लेकर बेटियों को ताइक्वांडो सिखाया और जगह-जगह प्रतियोगिताओं में लडने भेजा। गायत्री एवं बंटी अपने पिता पर गर्व करते हुए कहती हैं कि आज वे जो भी हैं, अपने पिता की बदौलत हैं। हमारे पिताजी ने न सिर्फ हमें आत्मरक्षी बनाकर अपने पैरों पर खडा किया है, बल्कि दूसरी लडकियों को सशक्त करने के लिए भी प्रेरित किया।
वो २२ अप्रैल २००३ की रात थी जब धनबाद के तीन मनचलों ने सोनाली पर तेजाब फेंक कर उसकी जिन्दगी अथाह पीडा से भर दी। सत्रह वर्षीय इस होनहार कॉलेज छात्रा का इस तेजाबी हमले से सत्तर फीसद चेहरा और शरीर झुलस गया। जीवित रहने की उम्मीद कम थी। ऐसे घोर यातनादायी वक्त में सोनाली का पूरा साथ दिया उनके पिता चंडीदास मुखर्जी ने। उन्होंने अपनी बेटी को दर्द से मुक्ति दिलाने और उसके आत्मबल को जगाने के लिए अपनी नींदें कुर्बान कर दीं। जितने दिनों तक उनकी लाडली छटपटाती रही, उतने ही दिनों तक पिता चंडीदास भी तेजाबी जलन की जानलेवा पीडा सहते रहे। उन्होंने प्रतिज्ञा की, कि बेहतरीन इलाज करवाने के साथ-साथ बेटी को दर्द देने वाले शोहदों को सजा दिलवाये बिना चैन से नहीं बैठना है। उन्होंने बेटी के इलाज में अपनी सारी पूंजी खर्च कर दी। पैतृक जमीन तक बेचनी पडी। बेटी का पुराना चेहरा लौटाने के लिए धनबाद और दिल्ली के बडे अस्पतालों में २२ ऑपरेशन कराए। फिर भी ज्यादा बदलाव नहीं आया। पिता का बस चलता तो बेटी के इलाज के लिए खुद को बेच देते। बेटी जब अस्पताल के बिस्तर पर कराहती थी तो वे खून के आंसू पीकर रह जाते थे। उन्हें जब बेटी का बेतहाशा दर्द बर्दाश्त नहीं हुआ तो २०१३ में उन्होंने राष्ट्रपति से सहयोग या इच्छा मृत्यु की गुहार लगायी। मीडिया ने भी बेटी और पिता की पीडा देश और दुनिया तक पहुंचायी। जिसके चलते मुंबई की कुछ बडी हस्तियों ने सहयोग का हाथ बढाया। २८ सर्जरी के बाद सोनाली अब काफी हद तक ठीक हो चुकी है। उसका आत्मविश्वास भी काफी हद तक लौट आया है। पिछले वर्ष उसने फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन के "कौन बनेगा करोडपति" में भाग लिया और २५ लाख रुपये जीते। झारखंड सरकार ने जहां उसे सरकारी नौकरी दी वहीं २०१५ में ओडिसा के रहने वाले इंजीनियर चितरंजन तिवारी ने उसका हाथ थामकर जीवन में उजाला ही उजाला भर दिया। सोनाली आज एक प्यारी सी बेटी की मां भी बन चुकी हैं। वे मुस्कराते हुए कहती हैं कि बेटी के रूप में उसने अपना खोया चेहरा पा लिया है। वह अपना कष्टों वाला अतीत भूलकर बेटी के साथ भरपूर जिन्दगी जीना चाहती है।

Thursday, March 9, 2017

नफरत की फसल

अब तो देश में हंगामा बरपा होने में देरी नहीं लगती। इसमें सोशल मीडिया की भूमिका तो बेमिसाल है। यह भी स्पष्ट दिखायी दे रहा है कि बडे ही सुनियोजित तरीके से फिज़ा में जहर घोलने की कोशिश की जा रही है। कुछ लोग बिना सोचे-समझे कुछ भी कह देते हैं और जब विरोध के स्वर फूटते हैं तो वे यह याद दिलाने पर तुल जाते हैं कि भारतवर्ष दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश है जहां सभी को अपनी बात रखने की आज़ादी है। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर भडकाऊ लफ्फाजी करने का ढोल पीटने वालों को बडी आसानी से पहचाना जा सकता है। बेतुकी बयानबाजी कर मीडिया की सुर्खियां पाने की चाहत रखने वालो के नकाब उतरने के बावजूद भी उनके हौसलें बुलंद हैं! बीते वर्ष देश की राजधानी में स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में 'भारत तेरे टुकडे होंगे' जैसे नारे के साथ-साथ अफजल के कातिलों के जिन्दा होने का रोना रोया गया था और कुछ लोगों ने कन्हैया कुमार और उमर खालिद जैसे बददिमाग़ घटिया चेहरों को नायक बनाने का अभियान छेड दिया था। इन दोनों प्रायोजित नायकों ने तो भारतीय न्याय व्यवस्था पर भी अविश्वास जताया था और आतंकवादियों और देशद्रोहियों के प्रति अपार सहानुभूति दर्शायी थी। उमर खालिद ने तो अपनी खोखली विद्वता यह कह कर प्रकट की थी कि हिन्दुस्तान के सुप्रीम कोर्ट के जज को अफजल को दोषी ठहराने का अधिकार ही नहीं। 'थोथा चना बाजे घना' की तर्ज पर भाषणबाजी करने वाले तथाकथित क्रांतिकारी कन्हैया कुमार ने १९८४ के दंगों को गुजरात के दंगों से कम संगीन बताकर यह भी बता दिया कि वह कितना नासमझ है। वह वही बोलता है जो उसके आका उसे पढाते और सिखाते हैं। दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में २०१७ के फरवरी महीने में जेएनयू काण्ड के कुख्यात खलनायक को सेमिनार में भाग लेने के लिए निमंत्रित किया गया। भारतीय जनता पार्टी के छात्र संगठन एबीवीपी (अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद) के छात्रों ने इसका तीव्र विरोध करते हुए भारी हंगामा किया और विरोध में एक मार्च (प्रदर्शन) किया। दूसरी तरफ लेफ्ट विंग स्टूडेंट्स (आइसा व एफएफआई) (संगठन) खालीद के समर्थन में उतर आया। दोनों छात्र संगठनों-गुटों में जमकर झडप हुई। भारी पुलिस बल की मौजूदगी में पत्थरबाजी व धक्का-मुक्की भी हुई। इसमें करीब बीस छात्र जख्मी हो गए। पुलिस ने लाठीचार्ज भी किया। अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद का कहना था कि राष्ट्र के खिलाफ नारे लगाने और राष्ट्रद्रोहियों को महिमामंडित करने वाले शख्स को किसी भी हालत में डीयू में बोलने नहीं दिया जा सकता। जबकि लेफ्ट विंग स्टूटेंट्स की जिद थी कि खालीद को बोलने से नहीं रोका जा सकता। इस देश में सबको अपनी बात रखने की आजादी है। खालीद के विरोध के फलस्वरूप कॉलेज में ‘"बस्तर मांगे आजादी, कश्मीर मांगे आजादी और छीन के लेंगे आजादी" जैसे उग्र भडकाऊ नारे गूंजते रहे।
गौरतलब है कि गत वर्ष जेएनयू में कश्मीर और मणिपुर की आजादी के नारे लगाये गये थे। कांग्रेस की छात्र इकाई एनएसयूआई और आम आदमी पार्टी के छात्र संगठन ने भी आग में घी डालकर माहौल को और गरमा दिया। अभी यह बवाल चल ही रहा था कि रामजस कॉलेज (डीयू) की एक छात्रा गुरमेहर कौर ने सोशल मीडिया पर यह ट्विट कर डाला कि- ‘"मैं डीयू स्टुडेंट हूं। मैं एबीवीपी से नहीं डरती। मैं अकेली नहीं हूं। पूरा देश मेरे साथ है।" गुरमेहर की इस पोस्ट के बाद तो सोशल मीडिया पर उक्त घटना के विरोध और समर्थन में बयानबाजी की जैसे प्रतिस्पर्धा सी चल पडी। गौरतलब है कि गुरमेहर कौर १९९९ के कारगिल युद्ध में शहीद हुए कैप्टन मंदीप सिंह की बेटी हैं। कई लोगों को गुरमेहर का उमर खालीद और लेफ्ट विंग स्टुडेंट्स के पक्ष में खडे होकर एबीवीपी के विरोध में खुलकर सामने आना रास नहीं आया। इसी दौरान उसकी एक पुरानी पोस्ट (तस्वीर) भी वायरल हो गई। इस तस्वीर में वह एक तख्ती लेकर खडी है जिसमें अंग्रेजी में लिखा है -'मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा।' इसके बाद तो जैसे जंगल की सूखी घास में ही आग लग गई। भाजपा के एक सांसद ने गुरमेहर की तुलना माफिया सरगना, हत्यारे दाऊद इब्राहिम से कर दी तो किसी ने उसे देशद्रोहियों के हाथों का खिलौना घोषित कर तरह-तरह से अपनी भडास निकालने में देरी नहीं की। उसे रेप की धमकियां भी दी गयीं। सोशल मीडिया, अखबारों और न्यूज चैनलों पर गुरमेहर से जुडी तरह-तरह की खबरें पढने और सुनने के बाद इस कलमकार को कई सवालों ने घेर लिया। आखिर एक बीस बरस की लडकी ने -'मैं एबीवीपी से नहीं डरती और मेरे पिता को पाकिस्तान ने नहीं, युद्ध ने मारा है।' जैसे बयान देकर ऐसा कौन-सा बडा गुनाह कर डाला कि देश के मंत्री, अभिनेता, क्रिकेटर आदि सभी उसे राष्ट्रद्रोही करार देने पर आमादा हो गये। उसका पहले वाला बयान निश्चय ही एबीवीपी को चुनौती लगा होगा। जिससे  उसने और उसके अनुयायियों ने जमीन-आसमान एक करते हुए एक शहीद की बेटी को चुप्पी तोडने की ऐसी सजा दी जिसकी उसने कभी सपने में भी कल्पना नहीं की होगी। सवाल यह है कि कोई भी भारतवासी एबीवीपी या किसी राजनीति दल से क्यों खौफ खाए? क्या किसी संगठन या दल की स्थापना लोगों को डराने के लिए होती है। किसी को इन पर उंगली उठाने का भी अधिकार नहीं है? जिन संगठनों और राजनीति दलों को आम जनों की समस्याओं को सुलझाने, वक्त पडने पर उनके काम आने को प्राथमिकता देनी चाहिए अगर वही दहशत का पर्याय बन जाएं तो उनका नहीं होना ही बेहतर है। किन्हीं भावनाओं के वशीभूत होकर गुरमेहर ने अगर यह कह दिया कि उनके पिता को युद्ध ने मारा है तो इसमें आसमान सिर पर उठाना समझ में नहीं आता। विरोध के परचम लहराने वालो को इस बयान में पाकिस्तान के प्रति नरम रूख अपनाने की शरारत नजर आयी। सोचने और अर्थ निकालने की कोई सीमा नहीं होती। गुरमेहर ने कहीं भी पाकिस्तान को शांतिप्रिय देश नहीं बताया। एक बात और भी गौर करने लायक है कि इतने बडे देश में रामजस कॉलेज ने अतिथि वक्ता के रूप में कुख्यात उमर खालीद को ही क्यों निमंत्रित किया! आयोजकों को पता था कि एबीवीपी की तरफ से हर हाल में विरोध होगा फिर भी...?
यह हम और आपके बीच के लोग ही हैं जिन्होंने शहीद की बेटी को पाकिस्तान के पाले-पोसे शैतान दाऊद के समकक्ष खडा कर दिया। सबसे पहले तो वो लोग दोषी हैं जिन्हें देश के खिलाफ बोलने वालों में अपार प्रतिभा नजर आती है और वे उन्हें सम्मानित वक्ता के रूप में बुलाकर मंच पर बिठाते हैं। एबीवीपी भाजपा का अनुषांगिक संगठन है। हो सकता है कि उसे इस बात का गुमान हो कि देश में उनकी सत्ता है इसलिए वे कुछ भी करने को स्वतंत्र हैं। शासकों की छवि भी खौफ, मनमानी और अहंकार का सैलाब लाती है। २२ फरवरी २०१७ को अमेरिका के कंसास राज्य में दो भारतीय नागरिकों पर एक अमेरिकी ने नफरत के कारण जानलेवा हमला कर दिया। इसमें से एक उसकी गोली का शिकार हो अपनी जान गंवा बैठा जबकि दूसरा बुरी तरह से घायल हो गया। इन दोनों युवकों पर उस समय हमला किया गया जब वे एक पब में बैठे थे। अमेरिकी ने उन पर यह कहते हुए हमला कर दिया कि गैर अमेरिकियों को हमारे देश में रहने का कोई हक नहीं है, इसलिए तुम वापस अपने देश लौट जाओ। इस घटना के कुछ ही दिन बाद यानी २ मार्च को ४३ वर्षीय भारतीय मूल के एक व्यवसायी की उसके घर के बाहर गोली मार कर हत्या कर दी गई।  ध्यान रहे कि अमेरिका के वर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने २०१५ में अपना चुनाव अभियान शुरू करने के बाद नफरत की फसल बोनी शुरू कर दी थी।

Thursday, March 2, 2017

आदमी के अंदर का जानवर

नशे के नर्क के हवाले होने के बाद इंसान को हैवान बनने में देरी नहीं लगती। अधिकांश दुर्घटनाएं और संगीन अपराध अंधाधुंध नशे की ही देन होते हैं। इसके चंगुल में फंसने के बाद संत भी अपनी मर्यादा भूल जाते हैं। इस सच से वाकिफ होने के बाद भी जानबूझकर कुएं में गिरने और अपना वर्तमान और भविष्य तबाह करने वालों की श्रृंखला टूटने का नाम ही नहीं ले रही है। राजधानी दिल्ली में एक शराबी पति की कमीनगी सामने आयी। यह नराधम अपनी शराब की लत को पूरा करने के लिए पत्नी का ही सौदा कर पति-पत्नी के पवित्र रिश्ते को कलंकित करता चला आ रहा था। २४ फरवरी २०१७ को राजधानी के विभिन्न समाचार पत्रों में छपी खबर के मुताबिक करीब दस वर्ष पूर्व पीडिता की शादी रमेश सिंह नामक एक शख्स से हुई थी। वह खुद की एक फैक्टरी चलाता था। जो करीब तीन वर्ष पूर्व उसकी शराब की लत के चलते बंद हो गई। अगर वह कर्मठ होता तो अपनी फैक्टरी को फिर से चलाने में अपनी पूरी ताकत लगा देता। लेकिन उसे तो हरामखोरी और शराबखोरी की शरण में जाने में ही अपनी भलाई नज़र आई। उसने खुद को इतना गिराया कि शराब की लत को पूरा करने के लिए अपनी पत्नी से उसकी मर्जी के खिलाफ धंधा कराना शुरू कर दिया। वह अपने दोस्तों को घर लाता, उनसे शराब के लिए पांच-सात सौ रुपये लेता और जबरन अपनी पत्नी से संबंध बनवाता था। पीडिता ने यह भी बताया कि रमेश के दोनों भाई भी उसके साथ करीब पांच वर्षों से जबरन संबंध बना रहे थे। उसने अपनी सास व जेठानी को भी इस दरिंदगी से अवगत कराया, लेकिन उन्होंने भी चुप्पी साधे रखी। पीडिता को जब पति जबरन दोस्तों के पास कमरे में भेजता था तो उसका बेटा बाहर बैठा रोता रहता था। उसने सुबकते हुए बताया कि सिर्फ बेटा ही उसकी पीडा को समझता था। घर के बाकी सभी सदस्य पति का ही साथ देते थे। चौंकाने वाला एक सच यह भी है कि वर्षों तक हैवानियत का शिकार होने वाली इस महिला ने इस बीच कई बार पुलिस थाने में शिकायत दर्ज करवायी, लेकिन पुलिस निष्क्रिय ही बनी रही। आखिरकार जब उसने आला अधिकारियों तक अपनी फरियाद पहुंचायी तब कहीं जाकर पुलिस को सक्रियता दिखानी ही पडी।
अभिनेत्रियों को फिल्मी पर्दे पर देखने के बाद कुछ लोग उनको पाने के लिए मचलने लगते हैं। कई दर्शक ऐसे भी होते हैं जो अभिनेत्री के फिल्मों में निभाये गए किरदार को उनके जीवन का असली सच मानने लगते हैं। फिल्मी पर्दे पर जब अभिनेत्री उन्हें अर्धनग्न लिबास में दिखती हैं या फिर वह वेश्या का रोल निभाती है तो अक्सर वे यह मान लेते हैं कि अभिनेत्री चरित्रहीन ही होगी। फिल्मी नायिकाओं के साथ भीड-भाड में छेडछाड की खबरें अक्सर आती रहती हैं। बीते सप्ताह एक मलयाली अभिनेत्री को ऐसे ही मनचलों का शिकार होना पडा। युवा अभिनेत्री स्टुडियो से लौट रही थी। फिल्म की शूटिंग में घंटो पसीना बहाने के बाद वह इस कदर थक चुकी थी कि उसे घर जाकर आराम करने की जल्दी थी। कार सरपट सडक पर दौडी जा रही थी। अचानक घात लगाए बैठे चार लोगों ने बडी चालाकी से कार को रूकवाया। ड्राइवर और अभिनेत्री के कुछ समझने से पहले ही चारों कार में जबरन घुस गए और चलती कार में ही अभिनेत्री के साथ दुराचार करने में लिप्त हो गये। इस दौरान उन्होंने अभिनेत्री से छेडछाड की तस्वीरें उतारने के साथ-साथ विडियो टेप भी बनाया। इसके पीछे उनका मकसद था कि अभिनेत्री कभी भी मुंह न खोलने पाए। लेकिन सजग अभिनेत्री ने थाने पहुंचकर हैवानों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज करवाने में देरी नहीं लगाई। नारियों की अस्मत के लुटेरे सदैव यही मानकर चलते हैं कि महिलाएं अपनी इज्जत लुटने का ढिंढोरा पीटने से घबराती हैं और थाने के चक्करों में पडने से कतराती हैं। अभिनेत्री ने यौन उत्पीडकों की सोच को गलत साबित करते हुए जिस तरह से थाने में शिकायत दर्ज करवायी उससे प्रेरणा ली जानी चाहिए।
कन्नूर जिले के कोत्तियार में एक नाबालिग लडकी के साथ रेप करने और उसे गर्भवती करने के आरोप में एक चर्च के पादरी को गिरफ्तार करने की खबर किसी का भी सिर घुमा सकती है। ४८ वर्षीय फादर रॉबिन मैथ्यू के कुकर्म का पता तब चला जब एक १६ वर्षीय लडकी ने ७ फरवरी २०१७ को एक निजी अस्पताल में एक बच्चे को जन्म दिया। एक सूचना के आधार पर पुलिस ने लडकी और उसके अभिभावकों से पूछताछ की। शुरुआत में लडकी के पिता ने पुलिस को बताया कि उसके गर्भवती होने के लिए वह जिम्मेदार है। पुलिस समझ गई कि पिता सच से वाकिफ हैं, लेकिन वह चर्च के फादर की बदनामी नहीं होने देना चाहता। पुलिस ने जब अपना कडा रूख दिखाया तो आखिरकार यह सच सामने आया कि इस जघन्य अपराध के लिए पादरी ही जिम्मेदार है।
कुछ वर्ष पूर्व तक तो बडों के अपराधी होने की खबरें सुनने और पढने को मिलती थीं, लेकिन अब तो नाबालिग भी तरह-तरह का नशा और संगीन अपराध करने लगे हैं। २० फरवरी २०१७ की सुबह दिल्ली के ही एक इलाके में सात और चार साल की उम्र की बच्चियां घर के पास खुले मैदान में शौच करने गई थीं। कुछ देर बाद खून से लथपथ हालत में दोनों घर लौटीं। इन दोनों मासूम बच्चियों से रेप करने के मामले में दो दुराचारी पकड में आए जिसमें एक नाबालिग था। बच्चियों से रेप की वारदात से कुछ मिनट पहले नाबालिग ने अपने पडोस की एक महिला से छेडछाड की थी। उसके बाद उसने और उसके साथी ने नशा किया। इसी दौरान उन्हें बच्चियां शौच के लिए आती दिखीं। दोनों ने डरा-धमकाकर उनपर बलात्कार किया। सात साल की बच्ची के चीखने पर आरोपी ने उसके मुंह पर कई धूंसे भी मारे। इससे उसका चेहरा नीला पड गया। बच्चियों से रेप की वारदात से कुछ मिनट पहले छेडछाड का शिकार हुई महिला ने ही पुलिस को नाबालिग के बारे में बताया तो वह उसे दबोचने में सफल हो पायी। "नशेडी युवक छह साल के बालक को उठाकर ले गया और धारदार हथियारों से गर्दन, हाथ-पैर समेत कई अंग काटने के बाद उन्हें खाने लगा।" यह दिल दहला देने वाली खबर उत्तरप्रदेश के पीलीभीत स्थित गांव अमरीया की है। एक छह साल का बच्चा घर के बाहर खेल रहा था। उसके पिता मजदूरी करने गये हुए थे। सुबह ११ बजे वह अचानक लापता हो गया। परिजन सोचते रहे कि वह बच्चों के साथ खेलकर खुद घर आ जाएगा। दोपहर मुहल्ले की एक महिला ने पडोस के खाली पडे मकान में अपने तीस वर्षीय बेटे को एक बालक के शव से मांस नोंचकर खाते देखा तो उसकी चीख निकल गई। उसने शोर मचाना शुरू कर दिया कि मेरे बेटे ने किसी बच्चे की हत्या कर दी है और उसका मांस खा रहा है। शोर सुनते ही आसपास के लोग दौडकर खाली पडे मकान के अंदर पहुंचे तो वहां का भयावह मंजर देखकर कांप गये। मासूम की गर्दन, हाथ-पैर समेत कई अंग अलग कटे पडे थे। नरभक्षी नशेडी बच्चे के पेट को फाडकर मांस नोंचकर खा रहा था। शव के पास हत्या में इस्तेमाल छुरा बरामद हुआ। हजारों लोग थाने पर पहुंच गए और नरभक्षी को तुरन्त मार डालने की मांग करने लगे। लम्बे समय से नशे के आदी इंसान रूपी इस जानवर के चेहरे पर अपार संतुष्टि की मुस्कराहट तैर रही थी। वारदात के बाद गुस्सायी भीड से बचने के लिए हत्यारे के पूरे परिवार को गांव छोडकर भागने के लिए विवश होना पडा। यह नरभक्षी चरस व स्मैक का धंधा करता था। उसने इस काण्ड से एक दिन पहले ही अपनी मां पर छुरे से हमला किया था।