Wednesday, January 25, 2012

असली अपराधी कौन है?

हम उत्सव प्रेमी हैं। इसलिए त्योहार मनाना हमारी आदत में शुमार है। स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस को भी त्योहारों में शामिल किया जा चुका है। त्योहारों में सिर्फ खुशी तलाशी जाती है। अपनी-अपनी तरह से मौज मजा और आनंद लूटा जाता है। आसपास कौन भूख से कराह रहा है और किसकी अर्थी उठने वाली है, इस पर माथामच्ची करना बेवकूफी माना जाता है। हिं‍दुस्तान के नेताओं ने आम जनता को सपनों के संसार में जीने का हुनर सिखा दिया है। फिर भी सचाई तो सचाई है। उसे कोई कैसे बदल सकता है! हालांकि इस देश के शासक कतई नहीं चाहते कि लोग इस सच को जानें और समझें कि देश की एक चौथाई आबादी भूख और कुपोषण के नुकीले पंजों में फंसी हुई है। मात्र २३ करोड लोगों को ही प्रतिदिन भरपेट भोजन मिल पाता है। जब कि देश की आबादी १२५ करोड से ऊपर पहुंच चुकी है। यानी १०० करोड जनता रईसों के तमाशों के बीच जैसे-तैसे अपने दिन काट रही है। विदेशियों के लिए इस देश की गरीबी किस तरह से मनोरंजन का साधन बन चुकी है उसे जानने के लिए इस खबर से रू-ब-रू होना भी जरूरी है। अंडमान-निकोबार में आदिवासी महिलाओं को गरीबी और भुखमरी के चलते विदेशियों के समक्ष नग्न होकर नाचने को मजबूर होना पडता है। विदेशी इन दृश्यों की वीडियोग्राफी अपने देश में जाकर दिखाते हैं और यह भी बताते हैं दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का एक चेहरा यह भी है। इस देश के नेता कहते हैं कि देश निरंतर तरक्की कर रहा है। यूनीसेफ के आंकडों के अनुसार तीन साल तक के भारतीय कुपोषित बच्चों की तादाद ४७ प्रतिशत है। देश के ४२ प्रतिशत बच्चों का वजन सामान्य से कम है। हिं‍दुस्तान के प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिं‍ह इसे राष्ट्रीय शर्म के रूप में स्वीकार भी कर चुके हैं। पर इस घोर समस्या का हल शायद उनके पास नहीं है। तभी तो वे यह कहने में संकोच नहीं करते कि देश से गरीबी और भ्रष्टाचार भगाने के लिए मेरे पास कोई जादू की छडी नहीं है। मनमोहन सिं‍ह से देश की निरीह जनता यह जानना चाहती है कि चंद ताकतवर लोगों के पास ऐसी कौन सी जादू की छडी है कि उन्होंने उन्हें तथा उनकी सरकार को सम्मोहित कर रखा है। वे देश की सारी की सारी दौलत समेटे चले जा रहे हैं और आप मुकदर्शक बने हुए है! आपके राज में अमीरों के लिए तो चांदी काटने के अवसर ही अवसर हैं पर मर रहा है देश का आम आदमी। वह स्पष्ट देख रहा है कि उसके खून-पसीने की कमायी भ्रष्टाचार की भेंट चढ रही है। भ्रष्टाचारी फलफूल रहे हैं और कहीं न कहीं कानून व्यवस्था भी उनका साथ देती चली आ रही हैं। धर्म और जाति की राजनीति करने वाले नेता इस हकीकत से अच्छी तरह से वाकिफ हैं कि हिं‍दुस्तान में मुसलमान और जन जातीय परिवार ही सबसे ज्यादा गरीबी के शिकार हैं। इन्हीं के परिवारों के बच्चों को कुपोषण का शिकार होकर असमय मौत के मुंह में समाना पडता है।राजनीति के खिलाडि‍यों को चुनाव के समय ही दलितों और पिछडों की याद आती है। इसी मौसम में ही उन्हें दलितों, शोषितों और मुसलमानों की तमाम समस्याएं दिखायी देने लगती हैं। वे हमेशा इस हकीकत से मुंह मोडे रहते हैं कि यह गरीबी ही है जो अच्छे भले परिवार के युवकों को अपराधी बना रही है। किसी के हाथ में बम तो किसी के हाथ में बंदूक थमा रही है। आज देश जिन नक्सलियों से आहत और परेशान है वे भी गरीबी और बदहाली की देन हैं। पुरानी कहावत है कि पेट की भूख इंसान को शैतान बना देती है। अच्छा भला इंसान कानून को अपने हाथ में लेने को विवश हो जाता है। काश! इस देश के शासक इस सच को समझ पाते और उनका हर कदम देश की गरीबी, भूखमरी, असमानता और बदहाली को मिटाने की राह की तरफ बढता। यहां तो राजनेताओं को घपलों और घोटालों से ही फुर्सत नहीं मिलती। पहले लाखों के भ्रष्टाचार की खबरें लोगों को चौंकाती थी पर अब अरबों-खरबों की लूट किसी चेहरे पर कोई शिकन नहीं लाती। दरअसल लोग अंदर ही अंदर खौल रहे हैं। नेताओं पर जहां-तहां बरसते जूते-चप्पल आम लोगों के गुस्से की निशानी हैं। वो दौर बहुत पीछे छूट गया है जब जनता समाज सेवकों और नेताओं को फूल की मालाओं से लाद दिया करती थी। ऐसा नहीं है कि देश का हर नेता बेईमान है। पर ईमानदारों को भी भ्रष्टों के पाप का फल इसलिए भुगतना पड रहा है, क्योंकि वे तटस्थ हैं। देखकर भी चुप हैं!आकडे चीख-चीख कर बता रहे हैं कि जब से देश आजाद हुआ है तब से लेकर अब तक लगभग ५० बडे घोटाले हो चुके हैं और ६५ लाख करोड रुपये भ्रष्टाचारी नेताओं और नौकरशाहों की तिजौरियों और बैंकों में समा चुके हैं। यह धन अगर देश के विकास में लगा होता तो कहीं भी गरीबी, बदहाली, लूटपाट, मारकाट और तरह-तरह की अपराधगिरी नजर नहीं आती। आज देश के हालात यह हैं कि एक तरफ ऊंची-ऊंची अट्टालिकाएं हैं तो दूसरी तरफ झुग्गी झोपडि‍यों का अनंत संसार है जहां बदहवास, भूखे नंगे भारतवासी अपनी किस्मत को कोसते रहते हैं। अट्टालिकाओं में रहने वालों को अपने आसपास की सचाई से कोई लेना-देना नहीं है। यह भी गजब की विडंबना है कि इस देश का हर नागरिक तीस हजार के विदेशी कर्जे से लदा हुआ है। इस कर्जे की रकम को डकारने वाले मजे से जी रहे हैं और जिन्होंने कुछ लिया-दिया नहीं है उन्हें सजा भुगतनी पड रही हैं। यह भी कम चौंकाने वाली बात नहीं है कि हर नेता दूसरे पर उंगली उठाता है और खुद को पाक-साफ और सामने वाले को अखंड भ्रष्टाचारी बताता है। देश में चल रहे इस तमाशे पर हास्य व्यंग्य कवि घनश्याम अग्रवाल की यह पंक्तियां कितनी सटीक बैठती है:
''बेताल के
इस सवाल पर
विक्रम से लेकर
अन्ना तक
सभी मौन हैं,
कि जब सारा देश
भ्रष्टाचार के खिलाफ है
तब स्साला,
भ्रष्टाचार करता कौन है?''

Thursday, January 19, 2012

नोटतंत्र के शिकंजे में लोकतंत्र

कहने को तो देश के पांच प्रदेशों में विधानसभा के चुनाव होने जा रहे हैं पर हर तरफ चर्चा सिर्फ और सिर्फ उत्तरप्रदेश और पंजाब की हो रही है। हर राजनीतिक पार्टी का लगभग सारा ध्यान इन दोनों प्रदेशों पर केंद्रित है। काला धन भी यहां खूब बरस रहा है। अभी तक लगभग सौ करोड रुपयों की जब्ती हो चुकी है जिन्हें चुनाव में खर्च किया जाना था। नोटों के बंडलों के साथ शराब से भरे ट्रक जिस तरह से लगातार पकड में आ रहे हैं उससे मुल्क की राजनीतिक पार्टियों और उनके सूरमाओं की कमीनगी का भी धडाधड पर्दाफाश हो रहा है। आम मतदाताओं को खरीदने के लिए नोट, शराब और कंबल बांटने की प्रतिस्पर्धा देखते बन रही है। एक तरफ राजनीतिक पार्टियां और प्रत्याशी जनता के ज़मीर की बोली लगा रहे हैं तो दूसरी तरफ बडे-बडे औद्योगिक घरानों और माफिया सरगनाओं ने भी अपने-अपने दांव लगाने में कोई कोर कसर बाकी नहीं रखने की ठान ली है। हर थैलीशाह की अपनी-अपनी पसंद की पार्टी है जिसे वह हर हाल में जीतते हुए देखना चाहता है। इस जीत के साथ उनकी कई उम्मीदें बंधी हुई हैं। चुनावों के समय थैलीशाहो का धन मतदाताओं पर बरसता है और उसके बाद जनता के खून-पसीने की कमायी थैलीशाहों की तिजोरियों में पहुंचा दी जाती है। इस देश के अधिकांश विधायक और सांसद यही काम करते हैं। दौलतमंदों के हाथों बिकने के बाद ही चुनाव लड पाते हैं, इसलिए उनकी वफादारी देश की जनता के प्रति कम और अपने दाताओं के प्रति ज्यादा रहती है।देश की जो तस्वीर आज हमारे सामने है उसे बनाया और बिगाडा भी हम और आप ने ही है। फिर भी एक दूसरे पर दोष मढते रहते हैं। हमेशा यही रोना रोया जाता है कि नेताओं की बिरादरी देश को बरबाद करने में लगी हैं। पर हम क्या कर रहे हैं? अगर देने वाला दोषी है तो लेने वाला भी माफी के काबिल नहीं हो जाता। आज की सचाई यही है कि यदि कोई साफ सुथरे ढंग से राजनीति करना चाहे तो उसकी चलने ही नहीं दी जाती। साफ-सुथरे व्यक्ति का चुनाव मैदान में जीतना तो दूर खडा रह पाना भी मुश्किल हो जाता है। नेताओं के हथकंडों की तो जमकर चर्चा होती है पर आम जनता में रच-बस चुके फरेब और लालच को नजर अंदाज कर दिया जाता है। यह जनता ईमानदारों की प्रशंसा के गीत तो गाती है पर उन्हें चुनाव में विजयश्री दिलवाने में कतराती है। ऐसे में जब बेईमान छा जाते हैं तो चीखना-चिल्लाना शुरू हो जाता है। चुनाव कोई भी हो पर उसमें धनबल, बाहुबल, जाति और धार्मिक समीकरण चुनावी जीत दिलवाने में प्रमुख भूमिका निभाते हैं। अच्छे-खासे पढे-लिखे मतदाता भी जाति और धर्म के नाम पर वोट देते हैं। अपनी जाति और धर्म वाला लाख भ्रष्टाचारी और अनाचारी हो पर उसे सहर्ष स्वीकार कर लिया जाता है। दूसरी जाति और धर्म के ईमानदार शख्स को हरवाने और नकारने में जरा भी देरी नहीं लगायी जाती। मुलायम सिं‍ह यादव, लालूप्रसाद यादव, ओमप्रकाश चोटाला, रामविलास पासवान और मायावती जैसे हुक्मरान भले ही देश को लूट खाएं पर उनकी चुनावी जीत पर कोई आंच नहीं आती। इस कटु सच को भी नजरअंदाज कर दिया जाता है कि दलितों, शोषितों और जाति के नाम पर राजनीति करने वाले सभी नेता देखते ही देखते अरबों-खरबों के मालिक कैसे बन जाते हैं और उन्हें अपना वोट देने वाले जहां के तहां क्यों खडे रह जाते हैं! ऐसे में व्यवस्था को बदलने के नारे लगाना बेमानी है। खुद को धोखा देना है। कई अन्ना हजारे आएंगे और चले जाएंगे। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारी फलते-फूलते रहेंगे। इन्हें हर तरह का खाद-पानी देश की आम जनता ही देती है और इनके खिलाफ नारे लगाने में भी वही आगे रहती है! तमाम राजनीतिक पार्टियां और चुनाव लडने वाले नेता जानते हैं कि इस देश की गरीब जनता को किसी न किसी तरीके से अपने पक्ष में किया जा सकता है। उन्हें चुनाव में मात नहीं खानी है। इसलिए वे वही कर रहे हैं जो वर्षों से होता चला आ रहा है। चुनाव आयोग द्वारा पंजाब और उत्तरप्रदेश के विभिन्न स्थानों से करोडों रुपयों के काले धन की जब्ती कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। यह एक तरह से शेर के मुंह में हाथ डालकर उसका आहार बाहर निकालने का कारनामा है। हालांकि जो काला धन पकड में आया है वो तो नाममात्र का है। धनबलियों ने तो हजारों करोड रुपये चुनावों में लुटाने की तैयारी कर ली है। वे अपनी जीत के प्रति निश्चिंत हैं। उनका विश्वास तभी तहस-नहस हो सकता है जब मतदाता किसी भी तरह के प्रलोभन में न आएं। अगर ऐसा हो जाता है तो दुनिया की कोई भी ताकत हिं‍दुस्तान की किस्मत को बदलने और चमकने से नहीं रोक सकती। व्यवस्था को बदलने के लिए ऊपर से कोई फरिश्ता नहीं टपकने वाला। जो कुछ भी करना है, हमें यानी जनता को ही करना है। यह धारणा भी सरासर गलत है कि सिर्फ गरीब मतदाता ही बिकते हैं। गरीब जहां कंबल, साडी और नोट पाकर खुश हो जाते हैं वहीं तथाकथित पढे-लिखे लोग कम्प्यूटर, लैपटॉप और टेलिविजन का उपहार पाकर हंसते-खेलते अपना वोट किसी पर भी न्यौछावर कर देते हैं। चुनाव आयोग ने विधानसभा चुनाव में एक प्रत्याशी की खर्च सीमा १६ लाख रुपये तय की है पर कई प्रत्याशी तो २५ से ३० करोड तक फूंक देते हैं। तय है कि काले धन का जमकर इस्तेमाल होता है। ऐसे में साफ-सुथरे लोकतंत्र की उम्मीद क्यों और कैसे? देश के प्रदेशो के चुनावों में काले धन और भ्रष्टाचार की गंगोत्री फूटते देख पडौसी देश पाकिस्तान भी अपनी औकात पर उतर आया है। उसने भी नकली नोटों का जखीरा भेजना शुरू कर दिया है। पाकिस्तान में बैठे षड्यंत्रकारियों के हौसले इसलिए भी बुलंद हैं क्योंकि हिं‍दुस्तान के कुछ चेहरे अपनी मातृभूमि के प्रति वफादार नहीं हैं। खबरें तो यह भी हैं कि पांच राज्यों के विधानसभा चुनावों में पाकिस्तान ने १६०० करोड की नकली करेंसी भेजनी की साजिश रची है। सरहद पार के शत्रु के कुछ शुभचिं‍तक निश्चय ही भारत की जमीन पर अठखेलियां कर रहे हैं। इसलिए उसे नाकामी से ज्यादा सफलता मिलती चली आ रही है। ऐसे में दुनिया का सबसे बडा लोकतांत्रिक देश भारतवर्ष तमाशा देखने को विवश है...।

Thursday, January 12, 2012

मतदाताओं का दिल और दिमाग

इस देश में ऐसा कौन सा राजनेता है जो यह नहीं चाहता कि उसके इस दुनिया से कूच करने के बाद भी लोग उसे हमेशा-हमेशा के लिए याद रखें। पर बहन मायावती इकलौती ऐसी नेत्री हैं जो अपने जीते जी यह सुख पा लेना चाहती हैं। महात्मा गांधी, पंडित जवाहरलाल नेहरू, श्रीमति इंदिरा गांधी, डा. भीमराव आंबेडकर जैसे महापुरुषों ने अपने जीवनकाल में देशसेवा और जनसेवा कर लोगों में ऐसी छाप छोडी कि निधन के बाद भी वे जन-जन के दिल और दिमाग में बसे रहे। उनके नाम को अमर रखने के लिए देश के असंख्य अस्पतालों, स्कूलों, कॉलेजों, उद्यानों आदि का नामकरण उनके नाम पर किया गया। यह परंपरा निरंतर चली आ रही है। यह परिपाटी यह भी दर्शाती है कि हम भारतवासी देश के सच्चे राष्ट्रभक्तों के प्रति कितने आस्थावान और समर्पित रहते हैं। दलितों और शोषितों की तथाकथित मसीहा मायावती की यह बेसब्री ही कही जायेगी कि जैसे ही उत्तरप्रदेश की सत्ता उनके हाथ में आयी, उन्होंने खुद की तथा पार्टी के चुनाव चिन्ह हाथी की मूर्तियां जगह-जगह स्थापित करने का अभियान-सा चला कर रख दिया। उनके इस अदभुत कारनामे को लेकर उंगलियां उठायी गयीं, सवाल दागे गये पर सत्ता के मद में चूर मायावती पर कोई फर्क नहीं पडा। सत्ता का नशा होता ही कुछ ऐसा है कि सत्ताधारी के होश उडा देता है। मायावती ने जिस तरह से खुद की मूर्तियां बनवायीं और लगवायीं उससे यह भी लगता है कि कहीं न कहीं उन्हें फिर से सत्ता पर काबिज न हो पाने का भय निरंतर सताता रहता है। इसी भय ने उन्हें अपने जीते जी यूपी में जगह-जगह अपनी मूर्तियां स्थापित करने को विवश किया है। हाथी की मूर्तियों को स्थापित करने का भी मात्र यही मकसद है कि मतदाताओं के दिमाग में बसपा का चुनाव चिन्ह टिका और बना रहे। मायावती की चालाकी को लेकर विरोधी राजनीतिक पार्टियां शुरू से शोर मचाती रही हैं। आखिरकार चुनाव आयोग को सचेत होना पडा और 'हाथी' तथा मायावती की मूर्तियों को पर्दे में ढकने का आदेश देना पडा। वैसे एक सच यह भी है कि पर्दे में ढकी कोई भी चीज़ लोगों के आकर्षण का कारण बनती है। मायावती की मूर्तियों और 'हाथी' को भी ढक तो दिया गया है पर लोगों की उत्सुकता और बेचैनी कहीं वो न कर गुजरे जो बसपा की विरोधी राजनीतिक पार्टियां और नेता कतई नहीं चाहते। अगर ऐसा हो गया तो न जाने कितनों की उम्मीदों पर पानी फिर जायेगा। इस सच से कौन वाकिफ नहीं है कि एक दूसरे को येन-केन-प्रकारेण पछाडना ही राजनीति कहलाता है। देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस यूपी में सत्ता पाने के लिए कुछ भी कर गुजरना चाहती है। उसने राहुल गांधी के मिशन को और तेज रफ्तार देने के लिए कई तरह के खेल तमाशे दिखाने की ठान ली है। जल्द ही प्रदेश की गलियों और चौराहों पर यह गीत गूंजने जा रहा है:
''जय हो, जय हो... उठो जागो,
बदलो उत्तरप्रदेश...
आ जा यूपी के विकास के
अभियान के लिए आजा,
आजा राहुल जी के
सेवा संग्राम के लिए
जय हो, जय हो...।
अब यह उत्तरप्रदेश की जनता के ऊपर है कि वह जागती है या फिर सोयी रहती है। पर कांग्रेस ने ठान लिया है कि वह इस गीत के जरिये मतदाताओं को यह बताकर ही दम लेगी कि उसने अब तक देश के लिए क्या किया है और राहुल गांधी ने उत्तरप्रदेश की जनता की खुशहाली के लिए कैसे-कैसे सपने पाल रखे हैं। इस गीत में उत्तरप्रदेश को बदलने का आह्वान करने के साथ, इंदिरा गांधी और राजीव गांधी का भी महिमामंडन करते हुए बताया गया है कि इंदिरा गांधी ही दलितों की सच्ची मददगार थीं। यह इंदिरा ही थीं जिन्होंने दलितो और किसानों को पट्टा दिलाया। बैंको का राष्ट्रीयकरण कर उन्हें पूंजीपतियों से मुक्त कराया। राजीव गांधी के देश के कोने-कोने में कम्प्यूटर पहुंचाने और पंचायती राज में महिलाओं को आरक्षण दिलाने का ढिं‍ढोरा भी पीटा जाने वाला है। राहुल के मिशन को सफल बनाने के लिए कांग्रेस का हर बडा नेता जमीन-आसमान एक करने में लगा है। दरअसल कांग्रेस के युवराज राहुल मुंह में चांदी का चम्मच लेकर पैदा हुए हैं। देश के न जाने कितने चौक चौराहों, उद्यानों, अस्पतालों, सडकों का नामकरण उनके परनाना पंडित जवाहरलाल नेहरू, दादी इंदिरा गांधी और पिता राजीव गांधी के नाम पर किया जा चुका है। कई सरकारी योजनाएं भी इनके नाम पर चलती हैं और बैठे-बिठाये कांग्रेस के चुनावी प्रचार का माध्यम बनी नजर आती हैं। पर फिर भी उत्तरप्रदेश में कांग्रेस चुनावी खेल में मात खाती चली आ रही है। दरअसल मतदाताओं के मन को पढ पाना कतई आसान नहीं रहा। वो जमाना लद चुका है जब मतदाता किन्हीं बडे नामों और प्रतिमाओं के सम्मोहन में कैद होकर यथार्थ को भूला दिया करते थे। वैसे भी किसी को बेवकूफ बनाने और उसके बनते चले जाने की भी कोई हद होती है। फिर यहां तो सभी हदें ही पार हो चुकी हैं।

Thursday, January 5, 2012

हाथी के दांत

पता नहीं कितने तमाशे इस देश की किस्मत में अभी देखने बाकी हैं। हद तो कब की हो चुकी। अब तो बेशर्मी की तमाम सीमाएं पार की जाने लगी हैं। सत्ता के लिए राजनीतिक पार्टियां और नेता पतित दर पतित होते चले जाएंगे इसकी तो शायद ही कभी कल्पना की गयी थी। देश के पांच प्रदेशों में होने जा रहे विधानसभा चुनावों के परिणाम जो आएंगे सो आयेंगे पर जो तमाशेबाजी की जा रही है, वो किसी और को नहीं बल्कि देश को शर्मिंदा कर रही है। देश हैरान और परेशान है कि आखिर यह पतन कहां पर जा कर रूकेगा। देश के प्रदेश उत्तरप्रदेश में सत्ता के पहलवानों ने मैदान में कूदने से पहले ही अपने-अपने लंगोट उतार फेंके हैं और मतदाताओं को उनकी नंगई देखने को विवश होना पड रहा है। मायावती उत्तरप्रदेश की सत्ता को किसी भी हालत में खोना नहीं चाहतीं। कांग्रेस ने अपने दुलारे राहुल गांधी को येन-केन-प्रकारेण बहन जी को सत्ता से बाहर करने के सघन अभियान में झोंक दिया है। समाजवादी पार्टी के सुप्रीमों मुलायम सिं‍ह भी फिर से प्रदेश की सत्ता हथियाने के सपने देख रहे हैं। हालांकि इस बार उनका इरादा अपने पुत्र को सत्ता का स्वाद चखाना है। नेताओं की सर्कसबाजी को देखकर ऐसा लगता है कि यह प्रदेश नेताओं की जागीर है और जागीरदारों को हर तरह की मनमानी करने की खुली छूट है। मायावती की होशियारी और पैतरेबाजी के तो क्या कहने। पहले तो अखंड लुटेरों और भ्रष्टाचारियों को निरंतर मंत्री की कुर्सी पर सुशोभित रखा फिर जैसे ही चुनाव करीब आये तो कुछ बेचारों को बाहर कर यह दर्शाने में लग गयीं कि वही अकेली ईमानदारी की जीती-जागती मूर्ति हैं। बाकी सब डाकू हैं। भारतीय जनता पार्टी तो जाने कब से यह ऐलान करती चली आ रही है कि चाल और चरित्र के मामले में वह सबसे अलग है। इस चरित्रवान पार्टी ने भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते मायावती के दरबार से बाहर कर दिये गये किसी भी भ्रष्टाचारी को अपनाने में देरी नहीं की। यह वही भाजपा है जिसने बसपा के खिलाफ महाअभियान चलाया और उसे भ्रष्टतम तथा खुद को ऊपर से नीचे तक दूध की धुली बताया। दूध से नहायी इस पार्टी के कर्ताधर्ताओं को बसपा के उस पूर्व मंत्री बाबू सिं‍ह कुशवाहा को गले लगाने में जरा भी शर्म नहीं आयी जिसको पार्टी के ही राष्ट्रीय सचिव किरीट सौमैया ने उत्तर प्रदेश का सबसे बडा लुटेरा साबित करने में अपनी दूरी ताकत लगा दी थी। मायावती ने जिस-जिस को भ्रष्टाचारी घोषित कर लात मारी उस-उस को भाजपा ने बिछडे भाई की तरह गले लगा कर यह साबित कर दिया कि वाकई भाजपा का चरित्र, चाल और चेहरा दूसरी पार्टियों से एकदम जुदा है। भाजपा के उम्रदराज नेता लालकृष्ण आडवानी भ्रष्टाचार के खिलाफ देश भर में रथयात्रा निकालते हैं और दूसरी तरफ पार्टी के अध्यक्ष नितिन गडकरी और उनकी मंडली भ्रष्टाचारियों की रक्षाकवच बनी नजर आती है। देश और दुनिया के विद्वानों ने बहुत कुछ देखने, सुनने और परखने के बाद ही इस मुहावरे को जन्म दिया होगा... ''हाथी के दांत खाने के और दिखाने के और...।'' जो लोग राजनीति और उससे जुडी खबरों से वास्ता रखते हैं उन्हें यकीनन याद होगा कि नितिन गडकरी ने पार्टी के कुशीनगर अधिवेशन में बुलंद आवाज में कहा था कि इस बार चुनावी टिकट सिफारिश पर नहीं उनके सर्वे पर मिलेगा। मानना पडेगा अध्यक्ष महोदय सर्वे करने में माहिर हैं। उनके इस हुनर का हर किसी को लोहा मानना चाहिए। भाजपा में ऐसे नेताओं की भी भरमार है जो यह मानते हैं कि उनकी पार्टी तो 'पवित्र गंगा' है जिसमें मिलकर गंदे नाले भी शुद्ध और पवित्र हो जाते हैं। भाजपा के साथ वर्षों से जुडे जमीनी समर्थक दिग्गजों के इस रूप को देखकर अपना माथा पीटने को विवश होने के सिवाय और कर भी क्या सकते हैं! यहां-वहां से आकर पार्टी में समाहित हुए दागियों ने कई समर्पित भाजपाइयों का पत्ता काट दिया है जो वर्षों से टिकट मिलने की उम्मीद संजोये हुए थे। धन में बहुत बल होता है। निष्ठा, प्रतिष्ठा, नैतिकता और ईमानदारी इसके आगे पानी भरते हैं। बसपा के पूर्व मंत्री अवधेश वर्मा को जब मायावती ने पार्टी से धकिया कर बाहर किया तो वे सरे बाजार दहाड-दहाड कर रोने लगे। लोगों की सहानुभुति बटोरने के लिए उन्होंने आंसुओं की फुहार के साथ ऐसा मजमा लगाया कि मदारी भी शर्मिंदा हो जाए। कुछ को उन पर दया आ गयी और उनकी झोली में नोट बरसाने लगे। तमाशबीन भीड ने नेताजी के पक्ष में नारे लगाये और मुख्यमंत्री मायावती को कोसा। उनपर असली दया तो भारतीय जनता पार्टी को आयी जो उसने उन्हे फौरन गंगा में समाहित करने के साथ-साथ चुनावी टिकट देने का ऐलान करने में जरा भी देरी नहीं लगायी।एक सज्जन जिन्होंने भारतीय राजनीति के चरित्र का गहराई से अध्यन्न किया है उनका मानना है कि राजनीति में 'इस हाथ दे और उस हाथ ले' का सिद्धांत सर्वोपरि है। राजनीति में कोई भी लेन-देन सच्चे दिल से नहीं होता। देश की हर राजनीतिक पार्टी का चरित्र लगभग एक जैसा है। सभी पार्टियां चुनावी टिकट देते वक्त सामने वाले की 'हैसियत' की जांच-परख कर लेती हैं। साम-दाम-दंड-भेद की कला में जो माहिर होते हैं उन्हें खास तवज्जो दी जाती है। भ्रष्टाचार और भ्रष्टाचारियों के खिलाफ पूरे साल भर तक अपनी आवाज बुलंद करते रहे अन्ना हजारे को कहीं न कहीं यह सच्चाई समझ में आ गयी है कि सक्षम लोकपाल क्यों नहीं बन सकता। भ्रष्टाचार के पोषकों ने उन्हें इतना थका दिया कि उन्हें अस्पताल की शरण लेनी पडी। उनके शीघ्र भला चंगा होने की मनोकामना करने वालों ने जगह-जगह प्रार्थनाओं का दौर शुरू कर दिया। अस्पताल में उनके समर्थकों का तांता लग गया। कई लोग तो ऐसे भी थे जो हजारों मील का सफर तय कर अन्ना की सेहत का हालचाल जानने पुणे स्थित अस्पताल में पहुंचे और सहर्ष अस्पताल का सारा बिल चुकाने को उतावले दिखे। यह कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। इसमें बहुत गहरा संदेश छिपा है। क्या इस देश में है कोई ऐसा नेता जिसके लिए लोग इतना समर्थन दिखाएं और सब कुछ न्यौछावर करने को तैयार हो जाएं?