Thursday, October 28, 2021

ऐसे भी मिलती है सज़ा!

    चीन में कानून बनाया जा रहा है। बच्चों की करनी की सज़ा मां-बाप को भी मिलेगी। संतानों के अपराधी होने पर उन्हें भी कसूरवार ठहराया जायेगा। जब कोई किशोर मारपीट, नशा-पानी या और कोई छोटा-बड़ा अपराध करता पाया जायेगा तो अंतत: यह माना जाएगा कि माता-पिता की अनदेखी, लापरवाही, अच्छे संस्कार और शिक्षा देने की कमी के चलते बच्चे ने गलत राह पकड़ी है। इसलिए बच्चे के साथ-साथ वे भी दंड से नहीं बच सकते। अपने देश भारत में ऐसा कोई कानून नहीं। निकट भविष्य में इसके बनाये जाने की दूर-दूर तक कोई संभावना नहीं, लेकिन फिर भी अपनी नालायक संतानों के कारण मां-बाप को किसी न किसी रूप में अपमान के कड़वे घूंट पीने के साथ-साथ मानसिक कष्ट तो भोगने ही पड़ते हैं। वे मां-बाप जो खुद अपराधी प्रवृत्ति के हैं, उन्हें तो कोई फर्क नहीं पड़ता। उनका बच्चा बड़ा होकर चोर, डाकू, हत्यारा, नशेड़ी बने इसकी चिंता और परवाह करने की उनके पास फुर्सत ही कहां होती है। असली मरण तो शरीफों का होता है, जिनकी औलादें गलत संगत या किसी और कारण से भटक जाती हैं और उनके माथे पर कलंक का टीका लगाती हैं। समाज उन्हीं की परवरिश पर उंगली उठाता है। वह तो उनपर भी शंका करने लगता है। अपराध अमीरों की औलादें भी करती हैं, गरीबों की भी। मध्यम वर्ग के बच्चे भी इससे अछूते नहीं। नशा करने के रोग से न तो गरीबों की औलादें बची हैं और न ही अमीरों की। गरीब सस्ता नशा करते हैं और अमीर महंगा। यह जान और सुनकर हैरानी होती है कि रईसों की पैदाइशें नशे में लाखों रुपये फूंक रही हैं। यह लाखों रुपये आखिर तो उन्हें अपने मां-बाप से ही मिलते होंगे। चोरी, हेराफेरी हर रोज तो नहीं की जा सकती। नशा करने के लिए रोज पैसे चाहिए। जिनके यहां बेहिसाब काला धन बरसता है उन्हीं के यहां के लड़कों की तो मौज ही मौज होती है, लेकिन यह मौज पहले तो ऊपरी खुशी देती है, फिर संकट के पहाड़ खड़ा करते हुए होश ठिकाने भी लगाती है। नाम पर बट्टा अलग से लगता है।
    वर्षों पहले अभिनेता संजय दत्त ने जब ड्रग का कसकर दामन थामा था और दाऊद इब्राहिम, अबू सालेम जैसे देश के दुश्मनों के करीबी पाये गये थे, तब उसके पिता सुनील दत्त का तो जीना ही मुहाल हो गया था। सर्वधर्म समभाव के जबरदस्त हिमायती सुनील दत्त एक बेइंतहा सज्जन इंसान थे। एक तरफ वे अपने महाबिगड़ैल बेटे को सुधारने की जद्दोजहद कर रहे थे तो दूसरी तरफ कानून का शिकंजा था, जिससे उन्हें किसी भी तरह से अपने पुत्र को बचाना था। कानून तो अपना काम करता है। देश-विदेश में इलाज करवाने के पश्चात बेटे को नशे की जंजीरों से मुक्त करवाने में तो शरीफ पिता ने काफी हद तक सफलता पा ली, लेकिन जेल जाने से नहीं बचा पाये। जिस परिवार की संतान जेल की काली कोठरी में बंद हो उसे भला नींद कैसे आ सकती है। अपराधी बेटा जेल में बंद था और बाहर पिता को वकीलों, राजनेताओं, सत्ताधीशों और पता नहीं किन-किन ताकतवर लोगों के घरों के चक्कर काटने पड़ रहे थे। कल तक नतमस्तक होकर आदर-सम्मान देने वाले नजदीकी लोग भी कन्नी काटने और ताने देने लगे थे। कैसे लापरवाह पिता हो, जो अपने इकलौते बेटे को भी नहीं संभाल पाये। खुद तो समाजसेवी बने फिरते हो, लेकिन बेटा आतंकवादियों के साथ उठता-बैठता है। वर्षों तक जेल की सलाखों के पीछे रहे संजय दत्त की बहनों का भी घर से बाहर निकलना दूभर हो गया था।
    जैसा हश्र कभी अभिनेता सुनील दत्त का किया गया था, वैसी ही दुर्गति का सामना फिल्म अभिनेता शाहरुख खान को करना पड़ा। उनके दुलारे बेटे को भी ड्रग्स लेने की आदत के कारण जेल जाना पड़ा। यहां भी कानून ने अपना काम किया, लेकिन शाहरुख खान को अपनी रातों की नींद की कुर्बानी देने के साथ जिस-तिस की गालियां और तोहमतें झेलनी पड़ीं। उनकी पत्नी गौरी खान पर भी तंज कसे गये। उनकी बाथरूम में नशा करने की दास्तानें सोशल मीडिया में छायी रहीं। राजनीति करने वालों ने भी जी भरकर नाटक-नौटंकी की। इसके पीछे अभिनेता की दौलत की बहुत बड़ी भूमिका होने की कई-कई बातें हवाओं में तैरती रहीं। अभिनेता सुनील दत्त की सादगी और बेहतरीन साख ने उन्हें देश ही नहीं विदेशों में भी ख्याति दिलायी थी। वे थे तो कट्टर कांग्रेसी, लेकिन कभी भी उन्होंने यह नहीं कहा कि मेरी नापसंद पार्टी और उसका नेता देश का प्रधानमंत्री बना तो मैं देश छोड़ दूंगा। सुनील दत्त ने हमेशा लोकतंत्र की कद्र की और जनमत को सर्वोपरि माना। उन्होंने देश में कमाया धन देश में ही लगाया। दुबई, अमेरिका, कनाडा आदि में अरबों-खरबों की सम्पत्तियां नहीं खरीदीं। दुश्मन देश की तरफ उनका कभी भी झुकाव नजर नहीं आया। यही वजह रही कि वे निरंतर लोकसभा का चुनाव जीतते रहे। उन्हें मंत्री भी बनाया गया। उन पर बस बेटे के कुकर्मी होने का एक ही दाग लगा। इसी वजह से उन्हें यहां-वहां नाक रगड़नी पड़ी, जिसकी उन्होंने कभी कल्पना नहीं की थी। कल्पना तो शाहरुख ने भी नहीं की होगी कि उसे अपने नशेड़ी बेटे की वजह से इतने बुरे दिन देखने पड़ेंगे। वैसे भी भारत के फिल्मी सितारों की कलई खुल चुकी है। चेहरे की सारी की सारी फेयर एंड लवली धुल गई है। कोविड-19 ने भारतीयों के दिमाग पर लगे ताले खोल दिये हैं। उनके लिए अब फिल्मी सितारे नायक नहीं रहे। देश के लिए मेडल लाने और कोरोना में देशवासियों के काम आने वाले ही उनके असली महानायक हैं। नकली नायकों को तो अब दर्शकों का भी टोटा पड़ने वाला है। सड़कों पर निकलेंगे तो कोई ताकेगा भी नहीं। दर्शकों को बेवकूफ बनाकर जितना लूटना था। लूट चुके। अब और नहीं। बहुत झेला जा चुका है इन्हें। अपनी करनी का फल तो हर किसी को भोगना ही पड़ता है। यहां यह कहना कि ‘करे कोई और भरे कोई’ जंचता नहीं। अपनी संतान के पापों का दंड तो मां-बाप को किसी न किसी तरह से भोगना ही पड़ता है, लेकिन इतना भी नहीं। इसकी भी सीमा होनी चाहिए। लोगों को इस कदर भी निर्दयी नहीं होना चाहिए कि सामने वाले को पूरी तरह से नंगा करने पर उतर आएं, जिससे उसके लिए सिर उठाकर चलना भी मुश्किल हो जाए...। दुनिया के किसी मां-बाप को अपनी औलाद का पथभ्रष्ट होना अच्छा नहीं लगता। माता-पिता गरीब हों या अमीर अपने दुलारे की जेल की यात्रा तो उन्हें जीते जी मार देती है। इससे बुरा मंज़र तो और कोई हो ही नहीं सकता...।

Thursday, October 21, 2021

क्या इन्हें हार पहनाएं?

    उनका कहना है कि ‘सकारात्मक’ खबरें छापो। नकारात्मक खबरें पाठकों को बेचैन कर देती हैं। उनकी मानसिक सेहत पर बुरा असर डालती हैं। वे चिंता और भय से ग्रस्त हो जाते हैं। किसी अबोध बच्ची पर बलात्कार की खबर पढ़ते ही उनकी कंपकंपी छूटने लगती है। उनके सामने अपनी बेटी का चेहरा घूमने लगता है। उसकी सलामती के लिए दुआएं मांगने लगते हैं। उन्हें आतंकवादियों, हत्यारों को फांसी के फंदे पर लटकाया जाना भी अच्छा नहीं लगता। यह लोग बुद्धिजीवी हैं। इनकी बुद्धि रॉकेट से भी तेज दौड़ती है। अपनी इसी बुद्धि के दम पर तरह-तरह के गुल खिलाते चले आ रहे हैं। फांसी के खिलाफ यह जागरुकता लाना चाहते हैं। इन्हें अफजल गुरू और कसाब को फांसी के फंदे पर लटकाया जाना घोर राक्षसी कृत्य लगा था। इन्होंने याकूब को फांसी की सज़ा सुनाये जाने पर सड़कों पर जुलूस निकाले थे। ‘भारत तेरे टुकड़े होंगे’ के नारे लगाये थे। इनकी जुबान ने सरकार, कानून और अदालत के खिलाफ ज़हर उगला था। इनके हिसाब से याकूब को फांसी की सजा सुनाकर घोर अन्याय किया गया था। इंसानियत की गर्दन काट कर रख दी गई थी। उससे सहानुभूति दर्शाने वालों ने आधी रात को न्यायालय पर दस्तक देने की पहल की थी और देश की महानतम अदालत ने अपने दरवाजे खोलकर देशद्रोही, हत्यारे के पक्ष में रखे गये एक-एक शब्द को बड़े ध्यान से सुना और समझा था। भारत माता के सीने को छलनी करने वाले माफिया सरगना खूंखार हत्यारे दाऊद इब्राहिम के साथी याकूब के पक्ष में ताल ठोकने वालों ने बार-बार यह हल्ला मचाया था कि उसे मुसलमान होने की सज़ा मिल रही है। कोई हिंदू होता तो माफ कर दिया जाता।
    12 मार्च, 1993 के उस दिन को आप भी नहीं भूले होंगे, जब मुंबई में बम ब्लास्ट कर 257 निर्दोषों की जान तथा 700 से अधिक लोगों को बुरी तरह से लहूलुहान कर घायल कर दिया गया था। इन घायलों में कुछ इलाज के दौरान चल बसे थे तो कई जिन्दगी भर के लिए अपंग होकर रह गये। एक दर्जन से अधिक जगहों पर बम-बारूद बिछाकर पूरे देश को दहलाने वाले इस खूनी कांड की साजिश में याकूब अब्दुल रजाक मेमन प्रमुखता से शामिल था। पंद्रह वर्ष तक चले मुकदमे में इस नृशंस हत्यारे, राष्ट्र द्रोही को फांसी की सज़ा सुनायी गई थी। जिसे रुकवाने के लिए देश के कुछ नामी वकील, समाजसेवी, नेता, साहित्यकार घायल शेर की तरह पिल पड़े थे। मेमन के यह खास रिश्तेदार बमों से मार दिये गये मृतकों के परिवारों से मिलने का समय नहीं निकाल पाये। घायलों से भी इन शैतानों ने मिलना और उनका हालचाल जानना जरूरी नहीं समझा। इन लुच्चों और टुच्चों को 2001 में संसद पर हुए आतंकी हमले के सरगना मोहम्मद अफजल गुरू को 2013 में फांसी पर लटकाये जाने पर भी कानून और सरकार पर बड़ा गुस्सा आया था।
    हाल ही में नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो ने मुंबई से गोवा जा रहे क्रूज में रेव-ड्रग्स पार्टी की मौज-मस्ती में तरबतर नशेड़ियों को पकड़ा तो हिंदू-मुसलमान के गीत गाने वाले चिरपरिचित हंगामेबाज अपनी औकात दिखाना नहीं भूले। नशे में झूमती रईसों की बिगड़ी औलादों में खरबपति फिल्मी कलाकार शाहरुख खान का पुराना नशेड़ी बेटा आर्यन खान भी शामिल था। एनसीबी के अधिकारियों ने पूरी खोज-खबर लेने के बाद नशे की रंगीन पार्टी पर छापेमारी की थी। उनका हिंदू-मुसलमान से कोई लेना-देना नहीं था। समंदर के अंदर नशे में डगमगाते क्रूज में दबोचे गये चेहरों में हर धर्म के नशेबाज थे। एनसीबी की इस प्रेरक कार्रवाई की हर समझदार भारतवासी ने जी खोलकर तारीफ की, लेकिन इन दूरबीनधारियों को बस आर्यन खान के पकड़े जाने के गम ने गमगीन कर दिया। हाय! फिर एक मुसलमान के साथ घोर अन्याय कर डाला कानून और सरकार ने!! नशे के दलदल में धंसे या धंसने जा रहे अन्य धर्म के युवक-युवतियों से सहानुभूति दिखाने और उनका नाम लेने से ये ऐसे बचते रहे, जैसे वे तो लावारिसों की औलादें हों और आर्यन खान से कोई पुरानी अटूट रिश्तेदारी हो। खास धर्म का तबला बजाने वाले यह कहने से भी नहीं चूके कि एक बच्चे के साथ बड़ी बेइंसाफी हुई है। उसका मासूम खूबसूरत चेहरा उसके बेकसूर होने की गवाही दे रहा है। एनसीबी के निष्ठुर अधिकारी भेदभाव के रास्ते के राही हैं। पकड़ना भी था तो किसी मुस्टंडे को पकड़ते, जो सारी दुनिया देख चुका होता। इस अबोध बच्चे ने अभी देखा ही क्या है! नशा ही तो करता है। कोई कत्ल तो नहीं किया। सच तो यह है कि इस तेईस साल के मासूम बच्चे की देखा-देखी पता नहीं कितने और बच्चे ड्रग्स की जहरीली बोतल में बंद होकर रह गये होंगे इसकी भी तो कल्पना और चिंता की जाए। यह भी सच्चे मन से सोचा जाए कि इनकी इस लत ने न जाने कितना धन ड्रग माफियाओं की तिजोरी में भरा होगा। ड्रग माफिया और आतंकवादी एक दूसरे के प्रतिरूप हैं। देश की युवा पीढ़ी को नशे के दलदल में धकेल कर ये जो धन पाते हैं उसी से तबाही के बम-बारूद खरीदे जाते हैं और याकूब मेमन, अफजल गुरू, कसाब आदि-आदि भारत माता को बार-बार लहूलुहान करने की हिम्मत पाते हैं। हिन्दुस्तान में सर्वज्ञात और छिपे हुए गद्दारों की कमी नहीं है। यह बहुरुपिये राष्ट्र के दुश्मनों का साथ देकर देशद्रोह भी करते हैं और मौका और मौसम देखकर गांधी जयंती पर चरखा कातने भी बैठ जाते हैं। अहिंसा के पुजारी बापू के नाम पर बट्टा लगाने वालों को आप बड़ी आसानी से पहचान सकते हैं, जो खूंखार आतंकवादियों का अकसर साथ देते नज़र आते हैं। नक्सली तो इनके दिल में बसे हैं। आतंकवादियों के लिए आंसू बहाने और उनके लिए खाद-पानी का इंतजाम करने वालों को जेल नहीं तो कहां भेजा जाए? जेल की हवा ने आर्यन खान की अक्ल ठिकाने लगा दी। नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो के अधिकारियों के समक्ष अपने गुनाह को कबूल करते हुए उसने कहा कि अब कभी भी वह ड्रग्स का चेहरा नहीं देखेगा। कैद के अंधेरे ने उसमें उजाला भर दिया है। अब वह खुद को बदल कर दिखायेगा। वो दिन ज्यादा दूर नहीं जब लोग उसे गरीबों की मदद करते देखेंगे। जो लोग आज उससे नफरत कर रहे हैं कल वे भी उसके बदले चेहरे को देखकर तारीफें करते नज़र आयेंगे।

Thursday, October 14, 2021

कसूर बेकसूर

    मोबाइल पर यह मैसेज पढ़ते ही मैं अनुराग के घर जाने के लिए निकल पड़ा, ‘‘मेरी अब जीने की इच्छा नहीं रही। मेरी खुदकुशी की खबर कभी भी आपको मिल सकती है।’’ उसका घर मेरे घर से ज्यादा दूर नहीं था। मात्र आठ किमी का फासला था। ड्राइवर ने घर के सामने कार रोकी। मैं भागा-भागा घर के अंदर गया। वहां तो मजमा लगा था। पता चला कि अनुराग तो फांसी के फंदे पर झूल ही गया था, लेकिन यह तो अच्छा हुआ कि ठीक उसी समय ड्यूटी से लौटी उसकी पत्नी की फुर्ती और सतर्कता ने उसकी जान बचा ली। डॉक्टर उसको देखकर जा चुका था। अब कोई चिन्ता की बात नहीं थी। हां, यदि अनुराग की पत्नी के पहुंचने में किंचित भी देरी हो जाती तो वह सदा-सदा के लिए शांत हो चुका होता। अड़ोसियों, पड़ोसियों के चले जाने के बाद मैंने पहले तो अनुराग को फटकार लगायी फिर उसकी इस कायराना हरकत की वजह जानी। अनुराग जिस कॉलेज में बीते पंद्रह साल से लेक्चरर है, वहीं की साथी लेक्चरर ने उस पर बलात्कार का आरोप लगाते हुए बाकायदा थाने में रिपोर्ट दर्ज करवायी थी। उसका आरोप था कि पहले तो उस पर डोरे डाले गये फिर शादी करने का आश्वासन देकर यौन संबंध बनाये गये। वह इस सच से बेखबर थी कि अनुराग शादीशुदा है। वह पूरा भरोसा कर बार-बार उसके साथ हमबिस्तर होती रही, लेकिन कुछ महीनों के बाद वह कन्नी काटने लगा। इस बीच पता चल गया कि वह तो हद दर्जे का धोखेबाज है, जिसने बाल बच्चेदार होने के बावजूद मुझे अपने जाल में फंसाया।
    दूसरी तरफ अनुराग बार-बार कहता रहा कि उसे किसी गहरी साजिश का शिकार बनाया गया है। उसने कभी भी उस पर गलत निगाह नहीं डाली। यौन शोषण तो बहुत दूर का अपराध है, जिसे करने की वह कभी कल्पना ही नहीं कर सकता। इस महिला के चरित्रहीन होने का उसे पहले से पता था। इसलिए अकेले में बात करने से कतराता था, लेकिन यही गलत इरादे से मेरे निकट आने की अश्लील कोशिशें करती रहती थी। दोन-तीन बार मैंने इसे फटकारा भी था। अनुराग की सभी दलीलें अनसुनी रह गयीं। इसी दौरान अनुराग की पत्नी को पता चला कि वह पहले भी दो पुरुषों को अपने जाल में फंसा कर उनसे काफी रुपये ऐंठ चुकी है। अनुराग की पत्नी उनसे मिली। वे भी उसके खिलाफ आगे आने को तैयार हो गये। अनुराग की पत्नी ने आरोप लगाने वाली महिला को पूरी तरह से बेनकाब करने का भय दिखाया, तो वह हाथ-पांव जोड़ने लगी और उसने अदालत में अपने आरोपों को वापस लेते हुए माफी मांगी। अनुराग बलात्कार के घिनौने आरोप से बरी तो हो गया, लेकिन उसकी जिन्दगी दागदार हो गयी। जिस दिन उसने थाने का मुंह देखा, जेल की हवा खायी उसी दिन उसकी सामाजिक मौत हो गयी। किसी को मुंह दिखाना मुश्किल हो गया। उसे बस यही लगता कि भरे बाजार उसे नंगा किया जा चुका है। लोग उस पर थू-थू कर रहे हैं। दोस्तों और रिश्तेदारों को सफाई देते-देते वह थक चुका था। उसी का नतीजा था यह फांसी का फंदा, जिस पर झूल कर वह अपना खात्मा करने जा रहा था।
    अनुराग की पत्नी तो अभी भी भयग्रस्त थी। वह मुझसे बस यही कहती रही कि भाईसाहब आप ही इन्हें समझायें। मैं तो थक चुकी हूं। जो होना था हो चुका। फिर कभी ये ऐसी गलती न करें। मैं हमेशा तो इनके करीब नहीं रह सकती। बात करते-करते मुझसे भी यह नजरें चुराने लगते हैं। मुझे तो कभी भी इन पर अविश्वास नहीं हुआ। जब उस कुलटा ने इन पर लांछन लगाये थे तब भी इनके साथ खड़ी थी। मैंने कभी भी दूसरों की नहीं सुनी। क्या इनका भी फर्ज नहीं बनता कि हमारे लिए अतीत को भुलाकर नये सिरे से जीना प्रारंभ कर दें। इन्हें निराश और उदास देखकर बच्चे भी चौबीस घण्टे बुझे-बुझे रहते हैं। अनुराग के घर से मैं लौट तो आया, लेकिन उसका पत्थर सा चेहरा मेरी आखों से ओझल नहीं हो पाया। रात भर मैं उसी के बारे में सोचते-सोचते आसिफ और अरविंद तक जा पहुंचा। आसिफ मेरे बचपन के दोस्त इकबाल का बेटा है, जिसे पुलिस ने दिल्ली में हुए बम धमाके के आरोप में बंदी बनाया था। आसिफ का घर पानीपत में था। जिस दिन धमाका हुआ उस दिन वह दिल्ली में ही था। विस्फोट स्थल के निकट होने की वजह ने उसे हथकड़ियां पहना दीं, जिनसे बाइज्ज़त आजाद होने में उसे दस वर्ष लग गये। गिरफ्तारी के बाद उसको आतंकवादी और देशद्रोही करार दे दिया गया। पुलिस ने तो उसकी अंधाधुंध पिटायी कर जान ही निकाल लेनी चाही, लेकिन उसने अपराध कबूल नहीं किया। पुलिस चाहती थी कि वह किसी तरह से धमाके में शामिल होने की जिम्मेवारी स्वीकार कर ले। वकीलों की मोटी-मोटी फीस चुकाने में उसका घर बिक गया। पिता चल बसे। जिस पढ़े-लिखे परिवार की बेटी से उसकी शादी होने वाली थी, उन्होंने भी मीडिया की तरह उसे आतंकवादी मानते हुए अपनी बेटी को किसी अन्य युवक से ब्याह दिया। देश की अदालत ने तो उसे अंतत: बरी कर दिया, लेकिन समाज तो अभी तक उसे अपराधी माने हुए है, जिससे उसकी जिन्दगी का पूरा ताना-बाना तहस-नहस हो चुका है। वह जहां कही नौकरी मांगने गया वहां से दुत्कार कर भगा दिया गया। जो युवक कभी कलेक्टर बनने के सपने देखा करता था आज मोहल्ले में पान दुकान लगाये बैठा है। वर्षों तक बरपी मानसिक और शारीरिक यातनाओं के कारण उसके शरीर में ज्यादा भाग-दौड़ करने की ताकत भी नहीं बची।
    अरविंद ने प्रापर्टी और दवाइयों के कारोबार में करोड़ों कमाये। वर्षों तक व्यापार करने के पश्चात अपने बचपन के शौक को पूरा करने का मन में विचार आया तो हिन्दी की एक साप्ताहिक पत्रिका का संपादन प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। इसी दौरान अरविंद का एक ऐसी नारी से पाला पड़ा, जो खुद को अनुभवी पत्रकार बताती थी और महीनों से बेरोजगार थी। अरविंद ने उसे काम पर रख लिया, लेकिन कुछ ही दिनों में अरविंद को समझ में आ गया कि उसका काम पर ध्यान कम रहता है। वह तो अपने सम्पादकीय सहयोगियों से इधर-उधर की बातें और गप्पे मारने में अपना अधिकांश वक्त बिता देती है। ऐसे में अरविंद ने वही किया, जो हर समझदार मालिक करता है। अरविंद के काम छोड़कर चले जाने के आदेश को सुनते ही वह तरह-तरह की बकवासबाजी करते हुए अपनी असली औकात पर उतर आयी, ‘‘आप मुझे जानते नहीं, मैं आपको रेप के आरोप में जेल भिजवा सकती हूं। मैंने आपकी नीयत को पहले ही भांप लिया था। इसलिए मैंने अपने यू-ट्यूब चैनल के दोस्तों को आपकी जासूसी पर लगा दिया था। अब तो आपको हमें दस लाख रुपये देने होंगे या फिर जेल जाना होगा। आपकी यह साहित्यिक पत्रिका हमेशा-हमेशा के लिए बंद हो जाएगी। इसके साथ ही इज्जत के भी परखच्चे उड़ जाएंगे। यह तो आपको पता ही है कि कानून महिलाओं की पहले सुनता है। बलात्कार कोई छोटा-मोटा अपराध नहीं है, जो आपने मेरे साथ किया है...।’’ अरविंद को अपनी भूल पर गुस्सा आया। उसने इस शातिर ब्लैकमेलर युवती को आंख बंद कर नौकरी पर रख लिया था। युवती की धमकी के दूसरे दिन से उसके गिरोह के ब्लैकमेलरों के भी दस लाख रुपयों के लिए फोन आने लगे। अरविंद बिना देरी किए पुलिस अधिकारी से मिला और पूरी हकीकत बयां कर दी...।

Thursday, October 7, 2021

इसे भी पढ़ लीजिए

एक तरफ तरह-तरह की अवधारणाओं और जंजीरों को तोड़ने के ताकतवर सफर का सिलसिला है, जो सदियों तक याद रहने वाला इतिहास लिख रहा है, दूसरी तरफ वही पुराना अनंत उत्पीड़न है, वहशीपन है, जो खत्म होने को तैयार नहीं! केरल के त्रिशूल जिले की सुबीना रहमान को हिंदू श्मशान घाट पर शवों का दाह संस्कार करते हुए तीन वर्ष से ज्यादा हो चुके हैं। सुबीना से लोग अक्सर सवाल करते हैं कि मुसलमान होकर भी हिंदुओं का दाह संस्कार क्यों करती हैं, तो वह उन्हीं से पूछती हैं कि आप ही बताएं कि मौत का किसी जात-पात और धर्म से कोई नाता है? हर इंसान के खून का रंग भी तो एक-सा लाल है और हर किसी को खाली हाथ अपनी अंतिम यात्रा पर जाना है...। फिर कैसा भेदभाव और दूरियां! मेरे लिए तो इंसानियत से बढ़कर और कोई मजहब नहीं...। आपसी सद्भाव और मानवता की यह सच्ची साधक रोज सुबह श्मशान घाट पहुंच पीतल का दीया जलाकर शवों के दाह संस्कार की तैयारी में लग जाती है। पहले तो शवों की संख्या ज्यादा नहीं होती थी। कुछ आराम करने का वक्त मिल जाता था, लेकिन कोविड-19 ने एकाएक मृतकों की तादाद इतनी अधिक बढ़ा दी कि दो पल राहत की सांस लेना भी मुश्किल हो गया था। फिर भी सुबीना कतई नहीं घबरायी। कोरोना महामारी के हाथों असमय मारे गये लगभग ढाई सौ लोगों के शवों का अंतिम क्रियाकर्म कर चुकी इस अकेली जान को घंटों पीपीई किट में जलती चिताओं की तपन से पसीना-पसीना होते देख लोग हैरत में पड़ जाते थे, लेकिन सुबीना के चेहरे पर कोई शिकन नहीं होती थी। ऐसा लगता जैसे वह किसी पूजा-अर्चना में तल्लीन है। हां, कई बार उसे इस बात का अफसोस जरूर होता था कि कई मृतकों के परिजन बीमारी, महामारी के डर से उनकी अंतिम यात्रा में शामिल नहीं होते थे। अग्नि देना तो बहुत दूर की बात थी।
    हिम्मती सुबीना यह कहने में भी कभी कोई संकोच नहीं करती कि उसके इस पेशे में आने का एक कारण धन पाना भी है, जिससे उसके परिवार का भरण-पोषण होता है और बीमार पिता का समुचित इलाज भी हो पा रहा है। वह तो बचपन में पुलिस अधिकारी बनने के सपने देखा करती थी...। भाग्य में जो लिखा था, उससे भागना संभव नहीं हो पाया। वैसे यह मेरी खुशनसीबी ही है, जो ऊपर वाले ने मुझे इंसानी फर्ज़ और धर्म को निभाने की ताकत बख्शी है...। भारतीय समाज में नये कदमों और नये विचारों को पूरे मनोबल और निर्भीकता के साथ आत्मसात करने वाली नारियों की कभी कमी नहीं रही। पुरुषों को चुनौती देती चली आ रही संघर्षशील महिलाओं के रास्ते में कंटक बिछाने की साजिशें हमेशा होती आयी हैं। नारियों की उदारता, सहनशीलता और समर्पण भावना की पहचान पुरुष को अभी भी नहीं हो पायी! सच तो यह है कि उसकी गहराई और विशालता का पता लगा पाना आज भी दंभी और स्वार्थी पुरुषों के बस की बात नहीं। स्त्री-पुरुष में पिता, भाई और प्रेमी का चेहरा तलाशती है, लेकिन पुरुष देह के चक्रव्यूह से बाहर ही नहीं निकल पाता। सच्चे प्रेम को लेकर भी नारियां जितनी गंभीर हैं, पुरुष नहीं। बुरे समय में पुरुषों का साथ देने में नारियां अपना सबकुछ अर्पित कर देने में नहीं हिचकिचातीं। बेटियां तो पिता की दुलारी होती हैं। मां से ज्यादा वे पिता के करीब होती हैं। उनके जीवित रहने और गुजर जाने के बाद भी। हर पिता भी अपनी दुलारी को हमेशा खुश देखना चाहता है। पुत्री की हल्की-सी उदासी उसे गमगीन कर देती है। उसकी रातों की नींद तक उड़ जाती है, लेकिन कुछ बाप सिर्फ पाप हैं। कहने को वे अपवाद हैं, लेकिन इन्हीं दुष्टों ने पवित्र रिश्तों पर ऐसी कालिख पोत दी है, जिसे मिटाना आसान नहीं।
    पेशे से डॉक्टर रजनी के पिता की बीते वर्ष कोरोना से मौत हो गई थी। पिता को मुखाग्नि देने के लिए जब इधर-उधर देखा जा रहा था, तब रजनी ने बेटी होने के बावजूद बेटे का फर्ज निभाया। इस वर्ष पितृपक्ष में उसने श्राद्घ और तर्पण कर बेटे की कमी पूरी की। रजनी कहती हैं कि जिस पिता ने उम्र भर मुझे दुलार, प्यार दिया, पढ़ाया-लिखाया, मेरी सुख-सुविधाओं के लिए अपनी सभी खुशियां कुर्बान कर दीं उनके लिए मैं बेटी होने के साथ-साथ बेटे का दायित्व और कर्तव्य क्यों न निभाऊं? रजनी की तरह और भी अनेकों बेटियां हैं, जो फर्ज़ और परिवर्तन की मशाल जलाती चली आ रही हैं, लेकिन यह कितना शर्मनाक सच है कि हौसलों के साथ उड़ान भरती बेटियों के पंख काटने वाले कई मर्द अपने भीतर की कुरूपता और नपुंसकता उजागर करने से बाज नहीं आ रहे हैं।
बिहार के बक्सर जिले में एक शिक्षक ने गुरू-शिष्य... शिष्या के पवित्रतम रिश्ते को वासना की सूली पर लटका कर अपना असली चेहरा दिखा दिया। यह नराधम शिक्षा देना छोड़ अपनी छात्राओं को निर्वस्त्र कर नचवाता था। इसकी गंदी निगाहें और हाथ उनके जिस्म को टटोलते रहते थे। छात्राएं विरोध करतीं तो वह उनकी छड़ी से पिटायी कर अपनी शारीरिक तथा मानसिक हवस की आग को बुझाता था। मध्यप्रदेश के धार जिले में एक 19 वर्षीय युवती को अपने 21 वर्षीय प्रेमी के साथ घर से भागने की सज़ा के तौर पर गले में टायर डालकर गांव में घुमाया और नचवाया गया। इतना ही नहीं जिस तेरह वर्षीय नाबालिग लड़की ने घर से भागने में दोनों की सहायता की थी उसका भी उनके साथ नग्न जुलूस निकाला गया। यह सारा तुगलकी तमाशा समाज के जाने-माने प्रतिष्ठित चेहरों की निगाहों के सामने चलता रहा, लेकिन वे उसे बंद करवाना छोड़ मनोरंजित और आनंदित होते रहे। जब मैं इन खबरों को पढ़ रहा था तभी एकाएक मेरी निगाह दो अगल-बगल छपी इन खबरों पर पड़ी। पहली खबर का शीर्षक था, डूबती बच्ची को कुत्ते ने बचाया। एक छोटी-सी बच्ची समुद्र के किनारे खेलते-खेलते लहरों के बीच में जा फंसी। उसी वक्त घर के पालतू कुत्ते ने उसे देखा और डूबने का अंदेशा होते ही तेजी से उसकी तरफ दौड़ा। समुद्र की तेज लहरें बच्ची को निगल जाने को आतुर थीं। बेबस बच्ची को बड़ी तेजी से अपने साथ बहाती चली जा रही थीं। अपने मालिक के वफादार कुत्ते ने चीते की सी फुर्ती के साथ नायक की तरह बच्ची के कपड़े को मुंह में दबाया और खींचकर किनारे ले आया। बच्ची की जान बच गई। दूसरी खबर इंसान के घोर पतित और खूंखार जानवर होने की है..., एक नाबालिग लड़की महीनों अपने ही पिता की अंधी वासना की भेंट चढ़ती रही। उसके रोने, बिलखने और रहम करने की फरियाद को भी नराधम ने अनदेखा कर दिया। जब वह गर्भवती हो गई तब कहीं जाकर मां की आंखें खुलीं। आसपास रहने वाले लोग माथा पीटते रह गये। इस खबर को पढ़ते... पढ़ते मुझे लगा किसी ने ऊंचे पुल से नीचे बहती नदी में फेंक दिया है। यह कितनी शर्मनाक हकीकत है कि जिस जन्मदाता पर अपनी इकलौती बेटी की रक्षा-सुरक्षा की जिम्मेदारी थी, वही भक्षक बन गया! उस बच्ची को तो कुत्ते ने डूबने से बचा लिया, लेकिन मानव के रूप में जन्मा यह कुत्ता-पिता वहशी जानवर बन ऐसी खबर बन गया, जिसे पढ़कर कितनों का खून खौल गया। उनका बस चलता तो गर्दन मरोड़कर जान ही निकाल देते। बस मुर्दा ज़िस्म ही कहीं गटर में पड़ा मिलता।